मैं खुद से पूछती हूँ...
व्हेन डू आई स्लीप?
देर रात जाने किस किस नए बैंड को सुनते हुए...यूट्यूब के कमेंट्स सेक्शन में देखती हूँ कि डार्क म्यूजिक है ये...लोग इसे सुनते हुए कहीं डूब जाना चाहते हैं या किसी का क़त्ल कर देना चाहते हैं. कुछ लोगों को चिलम फूंकने या ऐसा कोई और नशा करने की ख्वाहिश होने लगती है. लिखना मेरे लिए नशे में होने जैसा है शायद इसलिए मैं लौट लौट कर अपने कागज़ कलम तक आती हूँ. साल २०१४ में मैंने अब तक का सबसे कम ब्लॉग पर लिखा है मगर आश्चर्यजनक रूप से मैंने नोटबुक में बहुत ज्यादा लिखा है. मई से लेकर दिसंबर तक में एक नोटबुक भर गयी है. ये किसी भी और साल से चार गुना है. कितने रंग की इंक से लिखती गयी हूँ मैं...जाने क्या क्या सहेज कर रख दिया है उसमें.
बहरहाल मैं इस खूबसूरत और डार्क रात की बात कर रही थी. तो हुआ ये कि शाम को सोनू निगम के गाने सुन रही थी और सोच रही थी कि साल का पहला लव लैटर उसके नाम लिखूंगी कि आज तक प्यार जब भी होता है पहली बार ही होता है और फिर सिर्फ और सिर्फ सोनू निगम सुनती हूँ...कि जब तक चिल्ला चिल्ला कर 'दीवाना तेरा' नहीं गा रही हूँ नौटंकी है सब...कोई प्यार व्यार नहीं है. मगर आजकल जाने क्या क्या तो खुराफात घूमती है. मुझे लगता है जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है मेरा पागलपन भी बढ़ रहा है. व्हीली सीखने का मन करता है. स्टंट्स करने का मन करता है बाइक पर. थ्रिल अब तक सिर्फ कागज़ के पन्नों में अच्छा लगता था लेकिन आजकल कुछ फिजिकली करने का मन करता है. तेज़ बाइक चलाना बहुत बोरिंग हो गया है. कुछ ज्यादा चाहिए. और ज्यादा. बंजी जम्पिंग? पैरा सेलिंग. डीप सी डाइविंग. हेलमेट पहन के बाइक...आर यू फकिंग किडिंग मी? इस सेफ सेफ लाइफ में इकलौता थ्रिल है पागलों की तरह बाइक चलाना...जिस दिन गिरूंगी उस दिन सोचूंगी. वैसे भी जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है. व्हाटेवर. नेवरमाइंड.
मैं बतिया रही थी कि बात जहाँ से शुरू हो...किसी अँधेरे मोड़ पर क्यूँ रुक जाती है. मैं अच्छा खासा साजन फिल्म का गाना, मेरा दिल भी कितना पागल है सुनते सुनते कैसे किसी हंगेरियन सुसाइड सौंग पर पहुँच जाती हूँ शोध का विषय है. कुछ तो बात है कि ऐसी ही चीज़ें खींचती हैं मुझे. मुझे रौशनी नहीं अँधेरे खींचते हैं. मुझे अच्छे लोगों से डर लगता है. बुरे लोग तो मैं आराम से हैंडल कर लेती हूँ. एक है कोई...उसे लूसिफर कहती हूँ. शैतान वाले स्माइली भेजती हूँ. खुश होती हूँ कि उसे हिंदी नहीं आती. मेरा ब्लॉग नहीं पढ़ सकता. वरना कितनी गलियां देता.
कुछ ख़त पेंडिंग हैं. कुछ लोगों को जताना भी कि वो कितने कितने अजीज़ हैं मुझे. बॉम्बे गयी थी. अंशु से आधा घंटा मिलने के लिए ठाने से डेढ़ घंटा सफ़र करके गोरेगांव गयी टैक्सी कर के. आठ साल बाद मिली. बातें शुरू हो गयीं और जाने का वक़्त आ गया. टैक्सी में बाकी के डेढ़ घंटे बतियाती रही. वापसी में हँस रहे थे दोनों. इतने साल हो गए. लोग बदल गए लेकिन टॉपिक बात का अब भी वही फेवरिट. बॉयज.
आज बहुत दिन बाद अचानक से लगा कि स्पेशल हूँ. वापस से अपनी फेवरिट बनने लगी हूँ. कहानियां कुलबुलाने लगी हैं. मुहब्बत है बहुत बहुत सी. दोस्त हैं कुछ बेहद बेहद प्यारे.
जिंदगी में कुछ अफ़सोस हैं. होने चाहिए.
जिन्दा हूँ. हर गहरी साँस के साथ शुक्रगुज़ार.
व्हेन डू आई स्लीप?
देर रात जाने किस किस नए बैंड को सुनते हुए...यूट्यूब के कमेंट्स सेक्शन में देखती हूँ कि डार्क म्यूजिक है ये...लोग इसे सुनते हुए कहीं डूब जाना चाहते हैं या किसी का क़त्ल कर देना चाहते हैं. कुछ लोगों को चिलम फूंकने या ऐसा कोई और नशा करने की ख्वाहिश होने लगती है. लिखना मेरे लिए नशे में होने जैसा है शायद इसलिए मैं लौट लौट कर अपने कागज़ कलम तक आती हूँ. साल २०१४ में मैंने अब तक का सबसे कम ब्लॉग पर लिखा है मगर आश्चर्यजनक रूप से मैंने नोटबुक में बहुत ज्यादा लिखा है. मई से लेकर दिसंबर तक में एक नोटबुक भर गयी है. ये किसी भी और साल से चार गुना है. कितने रंग की इंक से लिखती गयी हूँ मैं...जाने क्या क्या सहेज कर रख दिया है उसमें.
मैं रात को नहीं सोती...मुझे दिन को नींद नहीं आती. भयानक इनसोम्निया है कि मैं सो कर भी नहीं सोती...कुछ जागता रहता है मेरे अन्दर हमेशा. दिन रात धड़कन इतनी तेज़ रहती जैसे दिल कमबख्त कहीं भाग जाना चाहता है जिस्म से बाहर...कुछ कुछ मेरी तरह...जैसे मैं रहती हूँ इस दुनिया में मगर भाग जाना चाहती हूँ कहीं और. कहाँ? मैं आखरी बार सोयी कब थी?
मैं खुद से पूछती हूँ...
व्हेयर डू यू स्लीप?
नींद किस तलघर से आती है? नींद आती भी है? मेरे इर्द गिर्द बेड होता है...वाकई होता है क्या? सामने खिड़की भी होती है. वही खिड़की जिसमें से जाड़ों की देर दोपहर सूरज ताने मारता रहता है कि कभी घर से बाहर निकलो...ये क्या हाल बना रखा है. ये कोई मौसम है घर में रहने का. मगर रात को सब बदल जाता है. कमरे की दीवारें सियाह हो जाती हैं और उनमें से पुराने कागजों की गंध आती है. कभी कभी लगता है कि मैं अपनी किसी पुरानी किताब में सोती हूँ. किताब की कहानियां मेरे सपनों को बुनती हैं. मैं अक्षर अक्षर तकिया बना कर सोती हूँ.
मुझे अँधेरा इतना खींचता क्यूँ है? आखिर क्या बात है कि एक परफेक्ट शाम एक खूबसूरत रात में ढलती है...कुछ यूँ खूबसूरत कि बालकनी से चाँद को देखती हूँ और सिगरेट का कश फेंकती हूँ उसकी तरफ कि जैसे फ्लाइंग किसेज भेज रही हूँ. अब चाँद की भी गलती है न...मेरे जैसी लड़की से प्यार करेगा तो फ्लाइंग किसेज तो मिलेंगे नहीं...सिगरेट का धुआं ही मिलेगा... फ़िलहाल हवा चल रही है तो सारे रिंग्स टूटे टूटे बन रहे हैं वरना ऐसी किसी रिंग को चाँद की ऊँगली में पहना कर कह देती तुम हमेशा के लिए मेरे हो गए. अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगी. पकड़ के रख लूंगी डिब्बे में और रात को तुम्हें टेबल लैम्प की तरह इस्तेमाल करूंगी. हाँ बाबा...मुझे मुहब्बत ऐसी ही आती है कि इस्तेमाल करूँ तुम्हारा. ना सॉरी. तुम्हें ग़लतफ़हमी हुयी थी कि मैं बहुत भली हूँ. मुझसे पूछना चाहिए था न.
व्हेयर डू यू स्लीप?
नींद किस तलघर से आती है? नींद आती भी है? मेरे इर्द गिर्द बेड होता है...वाकई होता है क्या? सामने खिड़की भी होती है. वही खिड़की जिसमें से जाड़ों की देर दोपहर सूरज ताने मारता रहता है कि कभी घर से बाहर निकलो...ये क्या हाल बना रखा है. ये कोई मौसम है घर में रहने का. मगर रात को सब बदल जाता है. कमरे की दीवारें सियाह हो जाती हैं और उनमें से पुराने कागजों की गंध आती है. कभी कभी लगता है कि मैं अपनी किसी पुरानी किताब में सोती हूँ. किताब की कहानियां मेरे सपनों को बुनती हैं. मैं अक्षर अक्षर तकिया बना कर सोती हूँ.
मुझे अँधेरा इतना खींचता क्यूँ है? आखिर क्या बात है कि एक परफेक्ट शाम एक खूबसूरत रात में ढलती है...कुछ यूँ खूबसूरत कि बालकनी से चाँद को देखती हूँ और सिगरेट का कश फेंकती हूँ उसकी तरफ कि जैसे फ्लाइंग किसेज भेज रही हूँ. अब चाँद की भी गलती है न...मेरे जैसी लड़की से प्यार करेगा तो फ्लाइंग किसेज तो मिलेंगे नहीं...सिगरेट का धुआं ही मिलेगा... फ़िलहाल हवा चल रही है तो सारे रिंग्स टूटे टूटे बन रहे हैं वरना ऐसी किसी रिंग को चाँद की ऊँगली में पहना कर कह देती तुम हमेशा के लिए मेरे हो गए. अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगी. पकड़ के रख लूंगी डिब्बे में और रात को तुम्हें टेबल लैम्प की तरह इस्तेमाल करूंगी. हाँ बाबा...मुझे मुहब्बत ऐसी ही आती है कि इस्तेमाल करूँ तुम्हारा. ना सॉरी. तुम्हें ग़लतफ़हमी हुयी थी कि मैं बहुत भली हूँ. मुझसे पूछना चाहिए था न.
बहरहाल मैं इस खूबसूरत और डार्क रात की बात कर रही थी. तो हुआ ये कि शाम को सोनू निगम के गाने सुन रही थी और सोच रही थी कि साल का पहला लव लैटर उसके नाम लिखूंगी कि आज तक प्यार जब भी होता है पहली बार ही होता है और फिर सिर्फ और सिर्फ सोनू निगम सुनती हूँ...कि जब तक चिल्ला चिल्ला कर 'दीवाना तेरा' नहीं गा रही हूँ नौटंकी है सब...कोई प्यार व्यार नहीं है. मगर आजकल जाने क्या क्या तो खुराफात घूमती है. मुझे लगता है जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है मेरा पागलपन भी बढ़ रहा है. व्हीली सीखने का मन करता है. स्टंट्स करने का मन करता है बाइक पर. थ्रिल अब तक सिर्फ कागज़ के पन्नों में अच्छा लगता था लेकिन आजकल कुछ फिजिकली करने का मन करता है. तेज़ बाइक चलाना बहुत बोरिंग हो गया है. कुछ ज्यादा चाहिए. और ज्यादा. बंजी जम्पिंग? पैरा सेलिंग. डीप सी डाइविंग. हेलमेट पहन के बाइक...आर यू फकिंग किडिंग मी? इस सेफ सेफ लाइफ में इकलौता थ्रिल है पागलों की तरह बाइक चलाना...जिस दिन गिरूंगी उस दिन सोचूंगी. वैसे भी जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है. व्हाटेवर. नेवरमाइंड.
कुछ ख़त पेंडिंग हैं. कुछ लोगों को जताना भी कि वो कितने कितने अजीज़ हैं मुझे. बॉम्बे गयी थी. अंशु से आधा घंटा मिलने के लिए ठाने से डेढ़ घंटा सफ़र करके गोरेगांव गयी टैक्सी कर के. आठ साल बाद मिली. बातें शुरू हो गयीं और जाने का वक़्त आ गया. टैक्सी में बाकी के डेढ़ घंटे बतियाती रही. वापसी में हँस रहे थे दोनों. इतने साल हो गए. लोग बदल गए लेकिन टॉपिक बात का अब भी वही फेवरिट. बॉयज.
जिंदगी में कुछ अफ़सोस हैं. होने चाहिए.
जिन्दा हूँ. हर गहरी साँस के साथ शुक्रगुज़ार.
बहुत बढ़िया
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