28 January, 2015

उसकी नाभि से नाभिकीय विखंडन की शुरूआत होती थी



हाई बाउंसिंग बॉल होती है न...वैसे ही छोटे छोटे गोले हैं. मेटल के. उनकी परिधि पर छोटी छोटी आरियाँ लगी हुयी हैं. बचपन में एक प्रोजेक्ट हुआ करता था जिसमें रबर की गेंद के हर इंच पर पिनें चुभायीं जाती थीं न...बस समझ लो उल्टा केस है. छोटी छोटी गेंदें हैं. बेहद खतरनाक. त्वचा से जिस्म में अन्दर उतर आई हैं और अन्दर से मिक्सी के ब्लेड्स की तरह चलती जा रही हैं...दिमाग...चेहरा...गर्दन...सीना...नाभि...बदन में अन्दर बिलकुल तेजी से रिवोल्व करती जा रही हैं. कुछ नहीं बचता है. जहाँ ह्रदय हुआ करता था...लंग्स...किडनी...जिगर...सारे पुर्जे कटते जा रहे हैं...जिस्म सिर्फ एक आवरण रह गया है...अन्दर का सब कुछ जैसे महीन पीस दिया गया है...दर्द दर्द दर्द...इतना कि मैं चीख नहीं सकती कि जुबान भी कहाँ बची है. और अब मैं खून की उल्टी करना चाहती हूँ...कि जिसमें मैं जितनी हूँ पूरी की पूरी बाहर निकल जाऊं. सिर्फ खोल बचे बाहर. त्वचा. चाँद रंग की त्वचा. संगमरमरी.

अन्दर का सब कुछ यूँ निकलने के बाद भी रूह का क्या होता है? रूह क्या कोशिकाओं में छुप कर रहती है नाभिकीय ऊर्जा की तरह? मेरे अणु आपस में टकरायेंगे तो कितनी ऊर्जा निकलेगी? 

मैं पूरी तरह खाली होने के बावजूद शब्दों से कैसी भरी हूँ. शब्द भी क्या रूह की तरह अणुओं में रहते हैं? चारों तरफ सिर्फ खून ही खून बिखरा देखती हूँ...कुछ पता नहीं चलता इसमें दिल का हिस्सा किधर है और दिमाग का किधर. मुझे खून से वितृष्णा नहीं होती है. मगर इस तरह खाली होने के बाद मैं ज्यादा देर बची रह पाऊँगी इस पर भरोसा नहीं है. ऊपरवाला इस सिस्टम रीहौल के बाद कुछ नया भरने के लिए रचेगा क्या या फिर हंसेगा मेरे ऊपर सिर्फ कि शब्द बहुत पसंद हैं न तुझे. अब शब्दों से ही बना अपनेआप को दुबारा. रच अक्षर अक्षर खुद को. मैं कर सकती हूँ ऐसा. मगर सवाल ये होगा कि क्या मैं ऐसा करना चाहती हूँ. यूँ सिर्फ जिस्म का छिलका रह गया है तो जल्द ही मर भी जाउंगी. शब्दों से खुद को रच लिया तो सदियों अभिशप्त हो जाउंगी कि शब्द कभी नहीं मरते. मुझे नश्वर जिंदगी चाहिए. मुझे खुदा नहीं बनना. 

होता है न...सारा कुछ उल्टी हो जाने के बावजूद भी लगता है कुछ बचा रह गया है...अगली बार कोशिश करने पर आँतों में मरोड़ होती है बस...चक्कर आता है...मैं भी वैसी ही बैठी हूँ. बदन से सारा कुछ निकल गया है. कोई धड़कन नहीं...सांस आने पर कोई ऊपर नीचे होते फेफड़े नहीं...सब स्थिर है. शांत. मगर इस खोखलेपन के बावजूद मौत आसपास क्यूँ नहीं दिखती. मेरी त्वचा क्या जिजीविषा से बनी है? 

इस खून में उँगलियाँ डुबो कर लोग कविता क्यूँ लिखना चाहते हैं. इस खून में उँगलियाँ डुबो कर तुम मेरा नाम लिखना चाहते हो कि मेरा नाम भर रह जाए. खून का कतरा कतरा रेडियोएक्टिव है. बेहद संक्रामक. जिधर जाएगा. जिसे छुएगा बर्बाद करेगा. या खुदा. तुझे ऐसा कोई काण्ड कहीं दूर थार के रेगिस्तान में करना था या बहुत गहरे समंदर में. मेरा कतरा कतरा जमीन में ज़ज्ब होना चाहता है. हवा में घुलना चाहता है. बिखरना चाहता है. बर्बाद करना चाहता है. नाम लिखना चाहता है. चीखना चाहता है. इश्क़ इश्क़ इश्क़.
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रात से रुलाई अटकी है सीने में. मगर अकेले रोने में डर लगता है. लगना भी चाहिये.

1 comment:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1873 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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