सोचो मत...सोचो मत...अपने आप को भुलावा देती हुयी लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है...नयी विस्की आई है घर में...जॉनी वाकर डबल ब्लैक...ओह...एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएँ की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुयी है...डबल ब्लैक.
तुम्हारी याद...यूँ भी कातिलाना होती है...उसपर खतरनाक मौसम...डबल ब्लैक. मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गयी थी...सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे...वनीला जलाने को सोचती हूँ...लम्हा भी नहीं गुज़रता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूँ और कपकेक्स हैं सामने, घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं...मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूँ.
ना...वाइल्ड रोज तो हरगिज़ नहीं जलाऊँगी आज...मौसम भी बारिशों का है...वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा ऑफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था...और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहाँ अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था.तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे...फिर तो तुमने जबरदस्ती मुझे भी पानी में खींच लिया था...वो तो अच्छा हुआ कि मैंने एक सेट सूखे हुए कपड़े प्लास्टिक रैप करके रखे थे वरना गीले कपड़ों में ही बाकी ट्रेकिंग करनी पड़ती. ना ना करते हुए भी याद आ रहा है...पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना...फिर मेरे दाँत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियाँ रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था...गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है...डबल ब्लैक?
कॉफी...ओह नो...मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें...हवा में बारिश की गंध थी...आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे...आधा घंटा लगा था फ़िल्टर कॉफी को रेडी होने में...मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी, कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े...बारिश का पीछा करने...हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफ़ान से गले लगने जा रहे थे हम. फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी...दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी...हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी. फिर आसमान टूट कर बरसा...हमने गाड़ी अलग पार्क की...थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गयी...सड़क किनारे नदी बहने लगी थी...कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए...और तुम...ओह मेरे तुम...एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हाथेली मेरे सर के ऊपर रखते...ओह मेरे तुम...थ्रिल...कुछ हम दोनों की फितरत में है...घुली हुयी...दोनों पागल...डबल ब्लैक?
मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूँ नहीं रख सकती...परेशान होती हूँ...फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आँखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अँधेरे की...मोबाइल पर एक इन्स्ट्रुमेन्टल संगीत का टुकड़ा है...वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूँ...कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा...सोचती हूँ धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है. शंखनाद में कैसी आर्त पुकार...घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह. संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है...अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता...एकदम सही बीट्स देता है...गिने हुए अंतराल पर.
आज तो सिगार पीने का मूड हो आया है...गहरा धुआं...काला...खुद में खींचता हुआ...हलकी लाल रौशनी में जलते बुझते होठों की परछाई पड़ती है फ्रेंच विंडोज के धुले हुए शीशे में...डबल ब्लैक.