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15 September, 2019

दीवानगी, सनक, धुन… आदमी क्या क्या करता रहता है!

नॉन-सिस्टेमैटिक होने और उसके बावजूद सारी इन्फ़र्मेशन ज़रूरत के समय खींच लाने का कोई अगर अवार्ड हो, तो मुझे मिलना चाहिए। कि मुझे दुनिया की हर चीज़ में इंट्रेस्ट है। सब कुछ जान-समझ लेना है। जापान में कोडोकशी से लेकर चीन में मिंग राजवंश के शुआन काल में जो लाल रंग के चीनीमिट्टी के बर्तन बनते थे...सब। 

परसों-तरसो कोडोकशी के बारे में पढ़ कर परेशान होती रही। हुआ ये कि कुछ महीनों पहले कहीं एक आर्टिकल पढ़ी थी और उसके बारे में और जानने को सोचा था। फिर जापान है भी तो कितना इग्ज़ॉटिक। हालाँकि जापान को लेकर मुझे बहुत ज़्यादा उत्सुकता नहीं रही है जैसे कि होंगकोंग, कम्बोडिया या चीन के कुछ प्रांतों को लेकर रही है।

कोडोकशी लेकिन सुनने में ख़ुदकुशी जैसा लगता है और भयावह है, इसलिए थोड़ा और जानने की जिज्ञासा रह गयी थी। पढ़ कर उदास हुई काफ़ी। हिंदी में इसका अनुवाद एकाकी मृत्यु सा कुछ होगा। २००० में जापान में सनसनीखेज़ ख़बर आयी थी कि एक 69 साल के व्यक्ति की मृत्यु के तीन साल बाद तक किसी को पता नहीं चला था। उनके घर का किराया बैंक से स्वचालित रूप से नियमित कट जाया करता था। सब सारे पैसे ख़त्म हो गए तो उस घर से लाश की बरामदगी हुयी जिसे कि कीड़े खा गए थे। जापान कि ऊपर युद्ध के असर में एक ये भी पाया गया कि लोग अपना अकेलापन और दुःख बाँटते नहीं हैं...इसमें एक क़िस्म की लज्जा महसूस करते हैं। परिस्थियों के अनुसार हुए दुःख को शांत स्वभाव से सहने को आदर की दृष्टि से देखा जाता है।

ये कुछ कुछ हमारे संस्कारों में भी है। दुःख का ज़्यादा प्रदर्शन करना अशोभनीय है। इसलिए अवसाद या शारीरिक व्याधियों के बारे में बात करने में झिझक होती है। हम अपने दुखों को पर्सनल रखते हैं। या कोशिश करते हैं कि पर्सनल रखें। मैं जापान के समाज के बारे में कई और चीज़ें पढ़ती रही। जापान से दो कनेक्ट रहे हैं। एक प्रमोद सिंह का पाड्कैस्ट था जो ऐसे शुरू होता था, ‘आप जानते हैं जापान को?’ और उस पाड्कैस्ट में ला वी यों रोज़ का एक जापानी वर्ज़न पीछे बज रहा होता था जिसे शज़ाम से पहले के ज़माने में बड़ी शिद्दत से तलाशा था। दूसरा कनेक्ट इक इच्छा का है, चेरी ब्लॉसम देखने का। जो जापान में देखूँ या न्यू यॉर्क में। पर एक बार उस फूल के मौसम में जाना है किसी ऐसी जगह जहाँ आसमान गुलाबी रंग का दिखे…इस तरह फूल हों हर तरफ़।

मैं ये सब क्यूँ पढ़ती हूँ…फ़ायदा क्या जान के ये सब।

परसों तरसों पॉटरी के बारे में पढ़ने लगी। हमारे लिए पॉटर माने कुम्हार…कितने सादे से लोग होते हैं अपने यहाँ। मिट्टी के बर्तन बनाते हैं। अक्सर ग़रीब भी। बचपन से उन्हें देखा है चाक पर बर्तन बनाते हुए। मुझे मिट्टी के बर्तन बनते हुए देखना ग़ज़ब सम्मोहक लगता था। पढ़ने में ये आया कि अमरीका में एक Hugh C. Robertson साहब हुए जो कि ख़ानदानी कुम्हार थे। विकिपीडिया पर पढ़ कर इतना तो लगता है कि अमरीका के कुम्हार हमारे कुम्हारों की तरह ग़रीब नहीं होते थे, काफ़ी फ़ैंसी होते थे। स्टूडीओ पॉटर, माने कि कलाकार आदमी थे। चाय के कुल्हड़ नहीं बनाते थे, ख़ास और महँगे बर्तन और सजावट के सामान इत्यादि बनाते थे। वे अमरीका के पहले स्टूडीओ पॉटर के रूप में जाने गए, उन्होंने पहली बार सेरामिक ग्लेज़ पर काम किया। साहब ने अपना कारख़ाना लगाया, ख़ुद का स्टूडीओ। मिट्टी के बर्तनों को कला का दर्जा देने में उनका काफ़ी हाथ माना जाता रहा है। राबर्ट्सन साहब ने चीन में मिंग राजवंश के शुआन काल में बने लाल रंग के चीनीमिट्टी के बर्तन का रंग बनाने के लिए कई एक्स्पेरिमेंट किए। ये लाल रंग ख़ास कहते हैं कि चीन के राजा बर्तनों के इस विशिष्ट रंग को लेकर इतने ज़्यादा पजेसिव थे कि सिर्फ़ कुछ ही कुम्हारों को ये कला सिखायी जाती थी। मुझे ताजमहल के वे कारीगर याद आए जिनके हाथ कटवा दिए गए थे। 
Kangxi bowl, before 1722

Oxblood या फिर अंग्रेज़ी में जिसे sacrificial red कहा गया… एक गहरा लाल रंग था जो ताँबे से बनता था और बहुत दुर्लभ था और प्रक्रिया भी बहुत मुश्किल थी। मिंग राजवंश के 1426–35 के बहुत छोटे से काल में बने गहरे लाल रंग के इन बर्तनों को बनाने की कला उन कलाकारों के साथ ही लुप्त हो गयी थी। बाद में कई भट्टियाँ मिलीं जिनमें बहुत से फेंके हुए बर्तन मिले जिससे इस बात का अंदाज़ा लगाया गया कि कितने कम बर्तनों में सही रंग और सही चमक आ पाती थी, बाक़ी सभी फेंक दिए जाते थे। 

रंग का क़िस्सा ऐसा था कि राबर्ट्सन ने इतने इक्स्पेरिमेंट किए कि उनकी कम्पनी दिवालिया हो गयी लेकिन उन्होंने आख़िर इस रंग को खोज ही लिया। 1884 में उन्होंने इस रंग पर इक्स्पेरिमेंट करना शुरू किया और चार साल बाद जा कर उन्हें सफलता मिली। उन्होंने तीन सौ कलाकृतियाँ बनायीं जिनका नाम रखा Sang de Chelsea.

दीवानगी, सनक, धुन… आदमी क्या क्या करता रहता है! इतने प्यार मुहब्बत से चीनीमिट्टी के बर्तनों के बारे में लिखा गया है और एक एक कटोरी में इतना इतिहास है कि हम तो अब लाल रंग की कटोरी में खाना न खा पाएँगे कभी! क्या ही कहें, सबकी अपनी अपनी सनक है। इतनी देर रात, इस दुखती कलाई के साथ जो इतना कुछ हम लिख रहे हैं… हमें भी कोई सनक ही होगी, वरना नेटफ़्लिक्स देख के सो जाना दुनिया का सबसे आसान काम तो है ही।

फ़ुटनोट: ये एक बहुत अच्छे से रीसर्च कर के लिखी गयी आर्टिकल नहीं है, इसलिए इसमें तथ्यगत त्रुटियों की बहुत सम्भावना है। लगभग अनुवाद है विकिपीडिया से…तो कृपया चक्कु, तलवार या ईंट पत्थर ना मारें…कम्पुटर स्क्रीन आपका है, टूटने पर हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। पहली बार इतना ग़ौर से पॉटरी के बारे में पढ़ा है। आगे और भी पढ़ के, म्यूज़ीयम वग़ैरह के फ़ोटो के साथ चीज़ें लिखी जाएँगी। लेकिन आप हमारे लिखने का इंतज़ार न करें, इससे हम पर बेवजह दबाव पड़ता है और हम प्रेशर में परेशान हो जाते हैं :)

03 December, 2018

Au revoir, Paris. फिर मिलेंगे!

 सोचो, जो पेरिस पूछे, कि पूजा, तुम हमसे प्यार क्यूँ नहीं करती, तो कुछ कह भी सकोगी?

उसकी बहुत पुरानी चिट्ठी मिली थी, घर में सारा सामान ठीक से रखने के दर्मयान। हमने बहुत साल बाद बात की। उसने कहा, नहीं हुआ इस बीच किसी से भी 'उस तरह' से प्यार। प्यार कभी ख़ुद को दोहराता नहीं है, लेकिन अलग अलग रंगों में लौट कर आता ज़रूर है।

मैं दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहर में हूँ। इमारतें, मौसम, लोग, संगीत, कला... सब अपनी परकाष्ठा पर हैं। कविता जैसा शहर है। लय में थिरकता हुआ। बारिश में भीगता है तो इतना ख़ूबसूरत लगता है कि कलेजे में दुखने लगे। छोड़ कर आते हुए हूक सी लगती है। लौट कर आना चाहते हैं हम, इस शहर में रहते हुए भी।

भाषा की अपनी याददाश्त होती है। दिन भर आसपास फ़्रेंच सुनते हुए उसकी याद ना आए, ये नामुमकिन था। मैंने पहली बार उसी को फ़्रेंच बोलते सुना था। वो लड़का जिसने पहली बार मुझे ‘je t’aime’ का मतलब बताया था, कि i love you और कि जिससे कभी फ़्रेंच में बात करने के लिए मैं फ़्रेंच सीखना चाहती थी। कि फ़्रान्स के इस नम्बर से उसे फ़ोन करने का मन कर रहा है। कहूँ इतना, vous me manques. फिर याद आता है कि उससे दूर होने के सालों में कितना कुछ सीख गयी हूँ मैं। कि उसे vous नहीं, tu कहूँगी… कि फ़्रेंच में भी हिंदी की तरह इज़्ज़त देने के लिए आप जैसी शब्दावली है। फिर ये भी तो, कि तुम्हारी याद आ रही है नहीं, फ़्रेंच में कहते हैं मेरी दुनिया में तुम्हारी कमी है। मैं सोचती हूँ। कितनी कमी रही है तुम्हारी। ज़रा सी, दोस्ती भर? एक्स फ़्रेंड्ज़ जैसा कुछ, अजनबी जैसा नहीं।

शाम में चर्च की घंटियाँ सुनायी देती हैं। बारिश के बाद की हवा में धुल कर। शहर के बीच बहती नदी पर पेड़ों की परछाइयाँ भीग रही हैं। सुनहला है सब कुछ...याद के जैसे रंग का पीलापन लिए हुए। मैं अब लगभग किसी को भी पोस्टकार्ड नहीं लिखती। बस एक दोस्त को आने के पहले ही दिन लिखे बिना रहा नहीं गया। ‘मोने के रंग हर शहर में साथ होते हैं, ख़ूबसूरती का अचरज भी’।

सामान बंध गया है। टेबल पर दो गुलाब के फूल हैं। थोड़े से मुरझाए। चार दिन पुराने। गहरे लाल रंग के फूल। हल्की ख़ुशबू, पुरानेपन की... अच्छे पुरानेपन की, अपनेपन वाली... जैसे पुराने चावल से आती है या वैसे रिश्तों से जो नए नहीं होते हैं। मैं इन्हें ले नहीं जा सकती। ये मेरे मन में रह जाएँगे, इसी तरह... अधखिले।


शाम से बारिश हो रही थी, लेकिन इतनी हल्की कि छतरी ना खोलें। एफ़िल टावर के पास पहुँचते पहुँचते हल्का भीग गयी थी। रास्ते में एक बड़े सूप जैसे बर्तन में कुछ खौलाया जा रहा था और उसकी ख़ुशबू आ रही थी। दालचीनी, लौंग और कुछ और मसालों की...देखा तो पता चला कि गरम वाइन है। तब तक हाथ ठंडे हो गए थे और आत्मा सर्द। खौलती वाइन चाय के जैसे काग़ज़ के कप में लेकर चले। हल्की फूँक मार मार के पिए और ज़िंदगी में पहली बार महसूस किए कि गर्म वाइन पीने से सर्द आत्मा पिघल जाती है। बहुत शहर देखे हैं, ऐबसिन्थ, ब्लू लेबल, वाइन, शैम्पेन, कोनियाक... बहुत तरह की मदिरा चखी है लेकिन वो सब शौक़िया था। पहली बार महसूस किया कि ठंड में कैसे किसी भी तरह की ऐल्कहाल काम करती है। वो अनुभव मैं ज़िंदगी में कभी नहीं भूलूँगी। वाइन ख़त्म होते ही ठंड का हमला फिर हुआ। एफ़िल टावर पर तस्वीर खींच रहे थे तो मैं इतना थरथरा रही थी कि मोबाइल ठीक से पकड़ नहीं पा रही थी।

यूँ, कि आज शाम ऐसी ठहरी थी कि लगता था कोई पेंटिंग हो। कि जैसे ये रंग कभी फीके नहीं पड़ेंगे। पानी पर परछाईं जो किसी तस्वीर में ठीक कैप्चर हो ही नहीं सकती... कि मोने होता तो शायद घंटों पेंट करता रहता, इक ज़रा सी शाम।

मैं लिख रही हूँ कि इस पल को रख सकूँ ज़िंदा, हमेशा के लिए। कि इस लम्हे का यही सच है। मैं कितने कहानियों में जीती हुयी, उन सब लोगों को याद कर रही हूँ जिन्हें मैंने चिट्ठियाँ लिखी हैं… जिन्हें मैं पोस्टकार्ड भेजना चाहती हूँ। कि बिना पोस्टकार्ड गिराए जैसे छुट्टी अधूरी रह जाती है।

अब जब कि लगभग छह घंटे में यह शहर छूट जाएगा, मैं सोचती हूँ एकदम ही सिंपल सी बात… ज़रूरी नहीं है कि जो सबसे ख़ूबसूरत, सबसे अच्छा, सबसे… सबसे... सबसे superlative वाला हो… हमें उसी से प्यार हो। हमें किसी की कमियों से प्यार होता है। किसी के थोड़े से टूटे-फूटे पन से, अधूरेपन से… कि वहाँ हमारी जगह होती है। पर्फ़ेक्शन को दूर से देखा जा सकता है, प्यार नहीं किया जा सकता। या कि हमें प्यार कब होता है, हम कह नहीं सकते। तो पेरिस शायद दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शहर हो। मैं प्यार सिर्फ़ दिल्ली और न्यू यॉर्क से ही करती हूँ। मैं उनके ही मोह में हूँ। पाश में हूँ।

तो पेरिस, मुझे माफ़ करना, तुमसे प्यार न कर पाने के लिए। तुम दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहर हो, लेकिन मेरे नहीं हो। और कि तुम मेरे बहुत कुछ हो..., बस महबूब नहीं हो... कि मेरे दिल पर किसी और की हुकूमत चलती है।

फिर मिलेंगे। Au revoir! 

12 October, 2015

सिगरेट एक आदिम तलब है. कि जो नींद और जाग का फर्क नहीं जानती.


शहर कभी कभी अपनी बत्तियां बुझा देता और खुद को गाँव होने के दिलासे देता. पॉवरकट की इन रातों में लड़की की नींद टूट जाती. आसमान एक फीके पीले रंग का होता. गर्मी की ठहरी हुयी दोपहरों का. जब ये रंग धूल का हुआ करता था. इस रंग का कोई नाम नहीं था. लड़की चाहती थी इस रंग में ऊँगली डुबा ले और जुबां से चख कर कहे...उदासी.

बिजली कट जाने से कहीं भी रौशनी की कोई लकीर नहीं होती जो रात के माथे पर चुभे और लड़की को अपने बेतरतीब घर में अमृतांजन ढूंढना पड़े. उसे याद नहीं आता कि वो आज से करीबन दस साल पहले अपने बैग में हमेशा अमृतांजन क्यूँ रखा करती थी. 

लड़की उन दिनों ख़ामोशी पहनना सीख रही होती. बिजली चले जाने से हर ओर चुप्पी होती. पंखों के चलने की आवाज़ नहीं होती. फ्रिज चुप पड़ा होता. सड़कों के स्ट्रीट लैम्प भी एक दूसरे से इशारे में ही बात करते थे, इसलिए बिजली कटने के बाद वे भी चुप देख ही पाते थे एक दूसरे को और ठंढी सांस भरते बस. 

सिगरेट एक आदिम तलब है. प्यास से गला सूखने की तरह. कि जो नींद और जाग का फर्क नहीं जानती. लड़की ने अँधेरे में अंदाज़ से सिगरेट का पैकेट तलाशा है. डाइनिंग टेबल पर दो पैकेट पड़े हैं. ब्लू लीफ और मार्लबोरो. उसे ध्यान है कि घर में बीड़ी भी है. ब्लू लेबल भी. फ्रिज में बर्फ भी. इन सब की याद सलीके से आती है उसे. किट किट किट आवाज़ है. चिंगारी दिखती है. पहला लाइटर काम नहीं करता. शायद फ्लूइड ख़त्म हो गया होगा. अँधेरे में मालूम नहीं कर सकती. वो याद करने की कोशिश करती है कि माचिस कहाँ मिलेगी घर में. पूजाघर में होगी कि नहीं. गैस के लाइटर से जलाई जाए. फिर वहीं टेबल पर दूसरा लाइटर मिल जाता है. अँधेरा और ख़ामोशी एक दूसरे के पर्याय हैं शायद. बिजली जाने के साथ बहुत सी आवाजें डूब जाती हैं. स्तब्ध रात है. दूसरे लाइटर से सिगरेट जलती है. कागज़ और अन्दर मुड़े-तुड़े टोबैको लीफ के पत्तों के जलने की आवाज़ आती है. ये बहुत ही फीकी आवाज़ है जो सिर्फ ऐसी एकदम चुप रातों में सुनी जा सकती है. लड़की एक लंबा, गहरा कश खींचती है. सिगरेट का लाल सिरा ज़रा तेज़ी से जलता है. उसे अपने दायें गाल पर लाल रौशनी महसूस होती है. दिखती है. 

रात बहुत शांत है. बहुत. बहुत दूर की रेलगाड़ी की आवाज़ आ रही है. स्टेशन लेकिन किसी और शहर का याद आता है उसे. एक शाम. सूरज डूब चुका था. रात इतनी चुप है कि उसे लगता है महबूब के दिल की धड़कन सुन सकती है. रात के सीने पर हाथ रखती है. महसूसती है अपनी कलाई से उठता इको. वो गहरी नींद सो रहा है. लड़की सॉफ्ट व्हिसल करती है. शोले की धुन. उसका दिल करता कि वो माउथऑर्गन बजाये. बहुत बहुत साल हो गए. रात की चुप में उसकी धीमी व्हिसल बहुत दूर तक जाती है. महबूब की खिड़की तक, चांदनी की तरह दबे पाँव उतरती है कमरे और चूम लेती है उसके होठ. उफ़...आज फिर उसने सिगरेट पी थी.

यूँ वो तानाशाही थी...मगर वे एक दूसरे को सरकार कहा करते थे. उन दिनों दुनिया का कारोबार बड़ी आसानी से चल रहा था. लोग एक दूसरे को धर्म के नाम पर मार देने को उतारू नहीं थे. ग़ुलाम अली के कॉन्सर्ट में वे एक दूसरे को एक तिरछी नज़र देख लेना चाहते थे कभी कभार. उन दिनों आज़ादी नहीं थी मगर ख्वाहिशों की दुनिया में एक आध छोटे गुनाहों की इज़ाज़त थी. उन दिनों गहरी नींद में चीखें नहीं दबी होती थीं. उन दिनों. नींद गहरी हुआ करती थी. हर शहर में बिजली चौबीस घंटे रहती थी. लड़की अपने एयरकंडीशंड कमरे में सोती थी. उसका होटल का कमरा नॉन-स्मोकिंग था और उसमें बालकनी नहीं थी. लड़की के पास बीड़ी भी नहीं हुआ करती थी उन दिनों और ना उसकी कलाई पर जले के निशान. उन दिनों उसकी कलाई पर महबूब के नाम का पहला अक्षर लिखा होता था. 

लड़की अँधेरा तलाशती चलती, शिकारी कुत्तों की तरह. अँधेरा उससे भागता रहता. कभी कभी वो हवाईजहाज में बैठती तो आधी धरती घूम आती मगर सूरज ठीक उसकी खिड़की के साथ साथ चलता रहता. झपकी भर भी नींद नहीं मिलती. जब से लड़के ने उसकी आँखें चूमी थीं, उसकी पलकें पारदर्शी हो गयीं थीं. उसे सोने के लिए अँधेरे की जरूरत पड़ती थी.

लड़की उसके शब्दों से छिलती थी. कटती थी. मगर फिर भी उसके शब्द मांगती थी. उसके शब्दों में इतनी धार थी कि सीने में धंस जाए तो जान चली जाए. लड़का जानता था. इसलिए अपने ख़त छुपा के रखता था. किसी शाम जब लड़की को बिलकुल मर जाने का मर करता तो उससे कहती...जीते जी तुमको कोई क्रेडिट नहीं दिया लेकिन कसम से, अपने मरने का क्रेडिट तुमको ही दे कर जायेंगे. पूरा का पूरा. 

लड़की बहुत कड़वी हो गयी थी इन दिनों. सस्ती सिगरेट की तरह. घटिया शराब की तरह. बासी कॉफ़ी की तरह. उसका प्याला कि जो इश्क़ से यूं लबालब भरा था कि छलका पड़ता था...खाली हो गया था...और टूट गया था. लेकिन वो किसी से भी नहीं कहना चाहती थी...यू नो...यू हैव टू लव मी बैक.

12 January, 2015

दुनिया में अगर सिर्फ तीन लोगों से प्यार किया है तो बस पापा से, मंटो से और तुमसे

नहीं. आज मैं चीखूंगी. 'आई लव यू पापा'. मगर यहाँ क्यूंकि फोन पर कितना भी मन होने पर हिम्मत नहीं हो पायी. जबान अटक गयी. पापा से ऐसा नहीं कह सकती. इन फैक्ट हमारे बिहार में अपनों से आई लव यू कभी कहने का कल्चर ही नहीं रहा. भाई को भी कभी नहीं कहा. मम्मी को नहीं. बेस्ट फ्रेंड को नहीं. पर आज मन कर रहा था. फिर फाइनली भाई को फोन किया और किस्सा सुनाया...कि चिल्ला कर पापा को कहने का मन था. कह नहीं पाए.

बात छोटी सी है लेकिन आज यहाँ दर्ज करनी जरूरी है. एक अख़बार में वीकली कौलम लिखने की बात आई. अब बात आई है तो साथ हज़ारों सवाल भी लाती है. क्या लिखें, कैसे लिखें...संपादक की अपनी सोच होगी, मेरी अपनी. अपने विचारों को लेकर हम ऐसे ही परेशान रहते हैं कि काफी क्रन्तिकारी और बागी तेवर रहे हैं लड़कपन में. अभी खुद को समझा कर सभ्य करके और बाँध के रखते हैं. ऐसे किसी प्लेटफार्म का मिलना सॉलिड थ्रिल है. क्लिफ डाइविंग जैसा. 

पापा से बात हो रही थी. दुनिया जहान, घर परिवार की सारी बातें ख़त्म होने के बाद हमको ये बात कहनी थी पापा से. पूछना था एक तरह से कि सेल्फ-सेंसरशिप तो हम जाने नहीं कभी. कि पापा एक अख़बार से ऐसा मेल आया है...वीकली फीचर है...क्या करें...लिखेंगे तो लोग फूल भी फेंकेंगे और पत्थर भी...जाहिर तौर से फूल से ज्यादा पत्थर फेंकेंगे. पापा कहते हैं, 'बेटा मंटो अगर पत्थर का चिंता करता तो कभी लिख पाता' हमारा दिल मंटो के नाम पर ही धक् से रह गया. एकदम धक् से. जैसे कि एब्सोल्यूट फ्रीडम नाम की कोई चीज़ होती है. कि अब हम आग लगा सकते हैं दुनिया में. और फिर पापा कहते हैं 'आप कब से चिंता करने लगे कि दुनिया क्या कहती है'. तब मेरा चीख चीख के कहने का मन किया फ़ोन पर...कि आई लव यू पापा...और मैं एकदम पूरी की पूरी आपके जैसी हूँ. जैसी हूँ. एकदम आपकी बेटी. आखिर कारण है कि १५ साल की लड़की को राजदूत चलाने सिखा देते हैं आप...आज और किसी का भी उदहारण देते तो बात नहीं होती मगर मंटो...उफ़ मंटो मेरी जान...जैसे जिंदगी एकदम खुशरंग लगने लगी है. जैसे आवाजें कितनी साफ़ हो गयी हैं. जैसे मुझे अब किसी से डर नहीं लगता. किसी का डर नहीं लगता. जैसे कि मैं वही लड़की हूँ...चार नंबर गियर में अस्सी की स्पीड पर मोटरसाइकिल उड़ाने वाली कि जब गिरेंगे तब देखेंगे...जब चोट लगेगी तब डिटौल लगायेंगे...फिलहाल इस लम्हे मैं उड़ सकती हूँ. ये पूरा आसमान...देख रहे हो ये पूरा आसमान मेरा है. 

पहला काम किये कि दोस्त को फ़ोन किये...चीख रहे थे...मंटो मंटो मंटो...बता रहे थे उसको कि बताना है कि मंटो को हिचकियाँ आ रही होंगी. कि हम इतनी शिद्दत से याद कर रहे हैं. उसको बताये कि पापा से बात कर रहे थे. कि पापा मंटो बोले...जानते हो मेरी जान...पापा मंटो का नाम लिए. हम सीना ठोक के कहते है कि हम अपने बाप की बेटी हैं. वो हँसे जा रहा था हम पर. पापा पर इतना प्यार उमड़े, उसपर मंटो पर इतना प्यार उमड़े तो कसम से दुनिया पर प्यार उमड़ जाता है. और इस कदर प्यार उमड़ जाता है कि लगता है साला पेट्रोल छिड़क कर अभी इस दुनिया में आग लगा दें. कि चीखें...कि अगर हमको दुनिया में सिर्फ तीन लोग से प्यार हुआ है तो वो हैं पापा, मंटो और तुम...बोले कि हम छापने जा रहे हैं इसको. वो चोट्टा बोला कि तुम्हारे 'तुम' में तुम्हारा सारा बोय्फ्रेंड्स खुद को खोज लेगा. हम बोले कि भाड़ में जाए दुनिया और साला चूल्हे में गया इश्क...हम आज से सिर्फ और सिर्फ मंटो के नाम का कलमा पढ़ेंगे. 

हाँ, हम हैं जरा से पागल. जरा से सनकी. हाँ नहीं लगता है डर हमको. हाँ हम गिरते रहते हैं इश्क में. तो? हैं. बोलो. किसी के बाप का कर्जा खाए हैं जो डरेंगे. आओ मैदान में. लगाओ सियाही. सेट करो अखबार. हम आ रहे हैं दुनिया में आग लगाने. हाँ हमको गुस्सा आता है तो हम गाली देते हैं. हाँ हम बहुत रैश चलाते हैं गाड़ी...तो? हाँ...बहुत खतरा है हमसे इश्क करने में. हमसे परमिशन मंगोंगे तो हम बोलेंगे दूर रहो...इधर खतरा है कि जिंदगी कभी कभी भी बोरिंग नहीं होगी...हमेशा कोई न कोई खुराफात मचा रहेगा. या तो बहुत सुख होगा या तो बहुत दुःख. सुकून कभी नहीं होगा. चैन कभी नहीं होगा. दोस्त शायद होंगे एक आध...लेकिन जो होंगे वो ऐसे कमीने और लॉयल होंगे कि साथ में मर्डर की प्लानिंग कर लेंगे. डर लगता है न हमसे? लगना भी चाहिए कि पूरे होशो हवास में लिख रहे हैं. ऐसा हाल लोगों का दारू और गांजा कॉम्बिनेशन में पी के होता है जो मेरा नौर्मली हुआ रहता है. आई एम ऑलवेज ऑन अ हाई. आर यू रेडी फॉर द राइड? डर लगता है क्या? चलो चलो...आगे बढ़ो...लाइन क्लियर करो...पीछे वाला मारेगा तो हम बचाने नहीं आयेंगे. 

*इस कहानी का एक भी पात्र काल्पनिक नहीं है सिवाए मंटो के. वो पूरा का पूरा मेरे सोच का पुर्जा है...मेरी कहानी का हाशिया है...मेरे आइडियल जिंदगी का बिगड़ा किरदार है...मेरे खुदा के डिपार्टमेंट में फर्जी फ़ाइल लिखने वाला अर्दली है. मंटो से थर थर कांपती है मेरी कलम कि उसका नाम लेने में भी डर लगता है. मगर फिर मंटो का नाम ही लेकर उसके ही बारे में इतना बकवास करने का कूवत है. कुछ तो बात है न मंटो में. वैसे कुछ बात तो हममें भी है ना? चलिये मूड में हैं तो एक बात आपको बता ही दें. इतना दिन से आप हमको पढ़ रहे हैं, कसम से कुछ बात तो आपमें भी है. चलिये, इसी बात पर, चियर्स.

21 December, 2014

कि रात भर बजा है हिचकियों का ओर्केस्ट्रा

नींद
एक गुमा हुआ देश है
बिना सरहदों, बिना नियमों वाला
जहाँ इजाज़त होती है इश्क को
बिलावजह चले आने की
और भटकने की दर बदर
जब तलक कि कोई उदास आँखों वाली लड़की
उसे अपने चौकोर कमरे वाले दिल में पनाह न दे दे

नींद
मारिजुआना का मीठा नशा है
याद की धुंध में तुम्हारी महक से घुलता-लिपटता
सिगरेट के पहले गहरे कश की तरह
सुलगाता. जलाता. भुलाता.
बंद करता आँखें जैसे खेल रहे हों लुक्का छिप्पी
और अचानक ही भर लेता आलिंगन में. धप्पा.

नींद
उसकी आँखों में लिखी कोई सीली इबारत है
जिसे पढ़ती हूँ तो उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते हैं
वो अलाव में गर्म करता अपने हाथ
हथेलियों में भरता मेरा चेरा
और सेक देता लम्हा लम्हा तड़पती रूह को

नींद
चाँद रंग वाली एक लड़की की हंसी है
चिनारों पर उतरती हुयी
हवा के राग में लेती उसका नाम
कानों के पास से गुजरती तो देती धोखे
सी...सी...सी...
मगर वो दिखता नहीं कोहरीली आँखों के पार

नींद
पहले ब्रेकऑफ का हैंगोवर है
बदन में मरोड़ की तरह टूटता
नाख्याली के सियाह में गुम हो जाने के पहले
कर्ट कोबेन की आवाज़ में चीखता
'नो आई डोंट हैव अ गॉड'

नींद
एक अलसाई सुबह है
तुम्हारे कंधे पर कुनमुनाती
शिकायतों का पिटारा खोलती
रात भर बजा है हिचकियों का ओर्केस्ट्रा
सुनो, ये रात रात भर हमें याद करना बंद करो

16 April, 2013

गीले कैनवास पर लिखना तुम्हारा नाम

उसने कलाइयां पकड़ीं थीं...ठीक उसी जगह शिराओं में दिल के धड़कने की हरकत महसूस होती है...दिल हर धड़कन के साथ उसके नाम के अक्षरों को तोड़ रहा था. मैं जितना ही छुड़ाने की कोशिश करती उसकी उसकी उँगलियाँ और तीखेपन से धंसती जातीं...दिल की धड़कन रुकने लगी थी.

उस शाम अचानक से पूरी दुनिया के लोग चाँद की साइट्स का मुआयना करने चले गए थे, शायद इस शहर में हम दो लोग ही बचे थे. कमरे में एक ही स्पीकर था छोटा सा, वो मुझे एक इंस्ट्रुमेंटल पीस सुना रहा था. वो टुकड़ा कुछ ऐसा था कि आसपास की सारी चीज़ें विलय होने लगीं थीं. जैसे हम किसी गीले कैनवास का हिस्सा हों. संगीत में डूबते हुए हम स्पीकर की ओर झुकते चले गए थे, कि जैसे संगीत का एक भी नोट छूट न जाए. वो, मैं, शोपें...सब एक दूसरे में घुल रहे थे. वक़्त को बहुत सी फुर्सत थी उस रोज़.

इस सबके दरमियान एक हल्का सा दर्द संगीत में घुलने लगा. मुझे बहुत देर लगी ये पता करने में कि दर्द किस हिस्से में हो रहा है. वहाँ एक ऐसा तिलिस्म रच गया था जिसमें मैं कोई और हो चुकी थी. कलाई के पास रक्त का निर्वाह बाधित था. फिर से देखा तो पाया कि मेरी कलाई उसकी उँगलियों में लॉक है. इतनी देर में रंगों ने कुछ लकीरें इधर से उधर कर दीं थीं, मुझे मालूम नहीं चल रहा था कि मेरी कलाइयाँ कभी उसकी उँगलियों से जुदा थीं भी या नहीं. कि उसकी उँगलियों के पोरों में वाकई मेरा दिल धड़कता था.

ऐसा कभी नहीं हुआ है कि प्यार एक बिजली के स्विच की तरह औन हो जाए और मालूम चले कि ठीक इसी लम्हे प्यार हुआ है. प्यार एक लम्बा प्रोसेस है और ठीक ठीक किसी लम्हे पर ऊँगली रखना कभी मुमकिन नहीं होता. जिंदगी में मगर बहुत कुछ पहली बार होता है.

जैसे शीशे का दरक जाना...मालूम था कि कुछ भी पहले जैसा नहीं हो पायेगा...वो आखिरी बार था जब उसकी आँखों में देखा था तो तकलीफ की एक बिजली जैसी लकीर सीने को चाक करती नहीं गुजरी थी. उस वक़्त डांस करने का दिल किया था मगर रोक लिया खुद को. जैसे दिल को जाने कैसे उम्मीद थी कि अब भी शायद मुमकिन हो, शायद मैं यहाँ से लौट पाऊं...भूल जाऊं कि उससे प्यार हो गया है अचानक. उसे मालूम भी था...पर सोचती हूँ तो लगता था कि उसे मालूम था.

अंग्रेजी में माइक्रोकोस्म बोलते हैं इसे...दुनिया में एक बेहद छोटा हिस्सा लेकिन जो अपने आप में पूरा है. कुछ ऐसा जिस तक हम बार बार लौट कर जाते हैं. प्यार हर बार अलग अलग जिद लेकर आता है. उसे उतना सा भर मिल जाए तो आपको चैन से जीने देता है. कभी किसी की आवाज़ के एक टुकड़े के लिए हलकान कर देता है तो कभी किसी के हाथ से लिखे एक सिग्नेचर के लिए, कभी माथे पर एक छोटा सा चुम्बन, कभी किसी की खुशबू को बोतल में बंद करने की जिद बांधता है तो कभी सिर्फ एक बारिश वाली शाम को टहलने की गुज़ारिश करता है. उतना भर मिल जाता है तो हम उस अहसास से गुज़र पाते हैं. इस बार प्यार की जिद बहुत छोटी सी थी. बिछड़ने के पहले एक बार गले मिलना चाहता था इश्क. फिर इजाज़त दे देता उसे जाने की.

उसे मालूम थी ये बात...यूँ तो उसकी दुनिया में अनगिन लोग हैं मगर वो जाने क्यूँ मेरी इस बेतरतीब दुनिया में रहना चाहता था. वो जो सिर्फ अपनी माँ से बात करते हुए 'लव यू' कह कर फोन रखता था...वो जो सोचने के पहले बोलता था, सिवाए मुझसे बात करते हुए...मुझसे बात करते हुए जैसे हर बात को तोलता था. एक दिन फोन पर 'ओके लव यू, बाय' कह गया. मैं उस दिन शायद किसी रोड एक्सीडेंट में मर जाती...आँखों के सामने गुलाबी शामें खिल रही थीं...अमलतास लहक रहे थे...मैं सोचती रही पर पूछ नहीं पायी कि कितने लोगों को वो फोन पर लव यू कहता है.

उसका असाइंमेंट कुछ ही दिनों का था...अगला फेस्टिवल कवर करने के लिए वो क्यूबा के किसी छोटे से गाँव जा रहा था. उसकी फितरत थी, जाते हुए सबके गले लगा...कुछ ड्रामा किया...एक आधी बार आंसू भी बहाए. मुझे देखा, आधी नज़र...कैसा गया वो कि अभी तक ठहरा हुआ है. ऐसे जाना कोई मुझे भी सिखाये. बहरहाल. कुछ दिनों से किसी भी तरह का म्यूजिक नहीं सुन रही हूँ. कैसी भी कविता नहीं पढ़ रही हूँ. लिखने का मूड भी नहीं होता. सब ब्लैंक सा है. मेरा रचा हुआ किरदार है...पन्नों से निकल कर पूछता है...मुझे कब तक भूल पाओगी लड़की?

11 December, 2012

सीले बदन पर, कोई दाग पड़ा है


दिन के फरेब में रात का नशा है/ जब भी छुआ है ज़ख्म सा लगा है
सीले बदन पर कोई दाग पड़ा है/बारिशें हैं...सब धुआं धुआं है 

आँखों में कोई कल रात छुपा था, आज सुबह रकीब की लाश मिली है...कसक कोई पानी में घुली है कि दुपट्टे को निचोड़ा है तो कितना सारा दुःख गीले छत पे बहा है...थप्पड़ खाया है चेहरे पर तो होठों से खून बहा है कि तुम्हारा नाम अब भी आदतों में रहा है...कहाँ है कोई...शहर में दिल्ली का कोहरा बुला दे...कहाँ है इश्क कि जीने का अंदाज़ भूलता जाता है...

कब की बात है जानां? आसमान आधा बंटा है...तेरे शहर में बारिश और यहाँ दरिया जला है...तू गुमशुदा कि जहां गुमशुदा है...तेरे दिल तक पहुंचे वो रास्ता कहाँ है? मैं क्यूँ उदास बैठी हूँ रात के तीसरे पहर कि अचानक से बहुत सी भीड़ आ गयी है मेरी तन्हाइयों में. किसने तोड़ दी है फिरोजी रंग की दवात? डॉक्टर ने चेक करके कहा है कि मेरे खून का रंग हरा है...किसी बियाबान में रोप दो ना अमलतास के पौधे...ढूंढ दो मेरी पसंद की कलम. मेरी जान...मैं भूल गयी हूँ अपनी पसंद के गाने...मुझे बता दो तुम्हारे गम में सुकून पहुंचे वो गीत कौन सा है?

सब उतना ही पुराना है तू जितना नया है...इश्क के क्लास में ब्लैकबोर्ड सा टंगा है...सफ़ेद चौक में टीचर की उँगलियों का नशा है, सिगरेट के छल्ले बनाना सीख रहा है...मेरी कहानियों का वो शख्स कितना गुमशुदा है...पेड़ है इमली का...हैरतजदा है. तुम झूठ बोलते हो...वहां झूला पड़ा है...मेले में चलो न, तारामाछी लगा है. कितनी बात करते हो...चुप रहना मना है.

शहर से भागते पुल के ऊपर एक शहर नया बसा है...कैसी रौशनी है...कितना तमाशा है...वहां भी कोई मिलने आएगा ऐसा धोखा हुआ है...जिंदगी फानी रे बाबू...दरिया है मगर सूखा हुआ है. मैं ठहरी हुयी हूँ तू ठहरा हुआ है...कितना दूर है कोई...किसी प्लेटफोर्म पर कोई जिंदगी से बिछड़ा है...सारा किस्सा कहा हुआ है, सारा कहना सुना हुआ है...गाँव चले आता है बस में चढ़ कर, शहर के बाहर लिखवा दो, शहर में रहना मना है. तुम्हारे बाग़ में बहार नहीं आई...अँधेरा कितना घना है...कितनी बर्फ पड़ी, कितना शोर बरसा...किसने भींचा बांहों में...कौन जाग जाने को कहता है...किसी पागल दिशा से आया पगला विरहा गाता है.

कितना लिखना, कितना बाकी बचा है?
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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कुछ भी ऐब्स्त्रैक्ट नहीं होता...जंगल में खोयी हुयी पगडण्डी भी किसी गाँव को पहुंचा ही देती है...मन के रास्ते किसी उलझे वाक्य से गुज़र कर जाते होंगे शायद...ये शायद क्या होता है?

20 January, 2012

रात के ठीक साढ़े ग्यारह बजे...

हजारों किलोटन का एक हवाई जहाज़ है...उसकी सारी धमनियां बिछा कर एक रनवे बना दिया गया है...कहीं का पढ़ा हुआ बेफुजूल का कुछ याद आता है कि शरीर की सारी धमनियों को निकाल कर, जोड़ कर एक सीध में लपेटा जाए तो पूरी धरती के चारों ओर कुछ सात बार फिर जायेंगी...या ऐसा ही कुछ. उसे ठीक याद नहीं है. उसे याद आती है उस लड़की की परिधि...उसके इर्द गिर्द कस के लपेटा गया दुपट्टा...जब कि वो मोहल्ले की छत पर कित कित खेल रही होती थी. 

विमान बहुत तेज़ी से रनवे पर दौड़ रहा है और उसके भार से उसके फेफड़े सांस नहीं खींच पा रहे हैं...ऐसा लगता है किसी ने उसे भींच कर सीने से लगाया हो...और वो वहीं मर जाना चाहता है...विमान रुकने का नाम ही नहीं लेता...पहियों के घर्षण से उसके मुलायम हाथ लावे की तरह दहकने लगे हैं...उसे लगता है कि वो इन हाथों में कैसे उसका चेहरा भरेगा...उसके गाल झुलस जायेंगे...फूल से नाज़ुक उसके गाल...वो चाहता है कि हवाईजहाज़ कहीं रुके...कहीं तो भी रुके कि सीने में अटकी हुयी सांस वापस खींच सके...इतने में उसे याद आता है कि कुछ देर पहले कंट्रोल रूम से एक फोन आया था उसे...उस तरफ लड़की का महीन कंठ था...मिन्नतों में भीगा हुआ...वो उड़ते उड़ते थक गयी है...थोड़ी देर उतरना चाहती है...थोड़ा इंधन भरना चाहती है...बस एक स्टॉपओवर...चंद लम्हों का. उसे  ये भी याद आता है कि उसने विमान उतारने की इज़ाज़त नहीं दी है और इसलिए विमान शहर के चक्कर काट रहा है. वो कशमकश में है...दुश्मन मुल्क का विमान उतरने दिया तो आगे चल कर बहुत से दुष्परिणाम होंगे...उसकी नौकरी भी जा सकती है...मगर फिर वो महीन आवाज़...मे डे(May Day) बरमूडा ट्राईएंगल में डूबते हुए लोगों की आखिरी आवाजों जैसी...अगर उसने ना कहा तो क्या ये आवाज़ उसे कभी सुकून से सोने देगी...इस पूरी जिंदगी के बाकी बचे दिन?

कॉफ़ी का मग लेकर वो फ्लास्क के पास गया है...अन्यमनस्क सा कॉफ़ी कप में भरता जाता है...धुंध में बिसरते शहर के सामने एक विमान घूम रहा है...उसकी लाइटें जल-बुझ रही हैं...लड़के को फिर से किसी की बुझती सांसें याद आती हैं...बाहर का तापमान दस डिग्री सेल्सियस है...विमान जिस उंचाई पर उड़ रहा है वहां तापमान कुछ माइनस १० डिग्री के आसपास ही होगा...वो सम की तलाश करने लगता है...कहीं जीरो पॉइंट...जहाँ उसे कुछ पल सुकून मिले. 

उसके पास सोचने को ज्यादा वक़्त नहीं है...जितने में कॉफ़ी की भाप उसके चश्मे पर जमे उसे साफ़ साफ़ निर्णय लेना है...और ठोस कारण देने हैं...कि क्यूँ दुश्मन मुल्क के विमान को उतरने की इज़ाज़त दी गयी...आवाज़ के कतरे की मूक प्रार्थना किसी नियमावली में नहीं गिनी जाती है...उसकी सदयता उसके खिलाफ बहुत आराम से इस्तेमाल की जा सकती थी...और वो वाकई नहीं जानता था कि आखिर किस कारण से ये भटका हुआ विमान मिटटी पर उतरने की इज़ाज़त चाहता था. दिल और दिमाग की जद्दोजहद में आखिर दिमाग ने बाज़ी जीती और उसने विमान को उतरने की इज़ाज़त नहीं दी...दूसरे पास के एयरपोर्ट के को-ऑर्डिनेट बताये उसे...हौसला अफजाही की...झूठ बोला कि विमान उतारने की जगह नहीं है. विमान की पाइलट लड़की ने जब सब डिटेल्स समझ लिए तो वो विमान आँखों से ओझल हो गया.

अगले दिन लड़का जब लॉग देख रहा था तो उसमें किसी विमान का कोई जिक्र नहीं था...उसने बारहा अपने कई और साथियों से पूछा कि उन्होंने  वो विमान देखा था...मगर किसी ने हामी नहीं भरी. 

घटना को बहुत साल हो गए...पर अब भी जब दिल्ली में कोहरा छाता है और रात के साढ़े ग्यारह बजते हैं...लड़का उस विमान का इंतज़ार करता है...वो किसी याद का छूटा हुआ प्रतिबिम्ब था...किसी और जन्म के इश्क की अनुगूंज...कि कौन थी वो लड़की...कि किसकी डूबती आवाज़ ने उसे पुकार कर कहा था...मैं उड़ते उड़ते थक गयी हूँ...मुझे अपनी बाँहों में एक लम्हा ठहर जाने दो...


लड़के का दिल खामोश है...कोई जिद नहीं करता... कुछ नहीं मांगता...कि कोई आवाज़ नहीं आती...कोई धड़कन नहीं उठती...



कि उसका दिल रूठा हुआ है आज भी...
कि उसे आज भी उसे जाने किस 'हाँ' का इंतज़ार है!

18 January, 2012

जान तुम्हारी सारी बातें, सुनती है वो चाँद की नानी

जान तुम्हारी सारी बातें
सुनती है वो चाँद की नानी
रात में मुझको चिट्ठी लिखना
सांझ ढले तक बातें कहना

जरा जरा सा हाथ पकड़ कर
इस पतले से पुल पर चलना
मैं थामूं तुम मुझे पकड़ना
इन्द्रधनुष का झूला बुनना 

रात इकहरी, उड़ी टिटहरी
फुग्गा, पानी, धान के खेत
बगरो बुड़बक, कुईयाँ रानी 
अनगढ़ बातें तुमसे कहना 

कितने तुम अच्छे लगते हो
कहते कहते माथा धुनना 
प्यार में फिर हो पागल जैसे
तुमसे कहना, तुमसे सुनना 

लड़की ने गहरा गुलाबी कुरता डाल रखा था और उसपर एकदम नर्म पीले रंग की शॉल...शाम चार बजे की धूप में उसके बाल लगभग सूख गए थे...कंधे तक बेतरतीबी से अनसुलझे बाल...धूप में चमकता गोरा रंग...चेहरे पर हल्की धूप पड़ रही थी और वो सूरज की ओर आधा चेहरा किए खून के गरम होने को महसूस कर रही थी...लग रहा था महबूब की हथेली को एक हाथ से थामे गालिब को पढ़ रही है। 

शाम के रंग एक एक कर के हाज़िरी देने लगे थे...गुलाबी तो उसे कुर्ते को छोड़ कर ही जाने वाला था की उसने मिन्नतें करके रोका की सफ़ेद कुर्ते पर इश्क़ रंग चढ़ गया तो रात की सारी नींदें उससे झगड़ा कर बैठेंगी। लोहे की सीढ़ियों पर थोड़ी ही जगह थी जहां लड़की थोड़ा सा दीवार से टिक के बैठी थी और लड़का कॉपी पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था। आप गौर से देखोगे तो पाओगे की पूरी कॉपी में बस एक नाम लिखा हुआ था और कोरे कागज़ पर तस्वीरें थीं...उनमें एक बड़ा दिलफ़रेब सा कच्चापन था...आम के बौर जैसा। सरस्वती पूजा आने में ज्यादा वक़्त रह भी नहीं गया था...बेर के पेड़ों से फल गिरने लगे थे। कहते हैं कि विद्यार्थियों को वसंत पंचमी के पहले बेर नहीं खाने चाहिए...वो पूजा में चढ़ने के बाद ही प्रसाद के रूप में खाने चाहिए। 

लड़का ये सब नहीं सोच रहा था...लड़की के बालों से ऐसी खुशबू आ रही थी कि उसका कुछ लिखने को दिल नहीं  कर रहा था...दोपहर का बचा हुआ ये जरा सा टुकड़ा वो अपने जींस की जेब में भर कर वहाँ से चले जाना चाहता था...पर लड़की की जिद थी कि जब तक बाल नहीं सूखेंगे वो छत से उतरेगी नहीं। उसने थक कर अपनी कॉपी बंद कर दी...लड़की ने भी गालिब को बंद किया और उसकी कॉपी उठा कर देखने लगी। उसका दिल तो किया कि कुछ शेर जो बहुत पसंद आए हैं वो लिख दे...पर ये बहुत परफेक्ट हो जाता। उसे परफेक्शन पसंद नहीं था...प्यार की सारी खूबसूरती उसके कच्चेपन, उसकी मासूमियत, उसके अनगढ़पन में आती थी उसे। बाल धोने के बाद की टेढ़ी-मेढ़ी मांग जैसी। 

इसलिए उसने कॉपी पर ये कविता लिख दी...ये एकदम अच्छी कविता नहीं है...इसमें कुछ भी सही नहीं है...पर इसमें खुशबू है...जिस एक दोपहर के टुकड़े दोनों एक दूसरे के साथ थे, उस दोपहर की।  इसमें वो तीन शब्द नहीं लिखे हुये हैं...पर मुझे दिखते हैं...तुम्हें दिखते हैं मेरी जान?

07 January, 2012

कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

मैं उसे रोक लेना चाहती थी
सिर्फ इसलिए कि रात के इस पहर
अकेले रोने का जी नहीं कर रहा था
मगर कोई हक कहाँ बनता था उस पर
मर रही होती तो बात दूसरी थी
तब शायद पुकार सकती थी
एक बार और


इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में
जहाँ सब शब्द एक जैसे होते हैं
मुझे उससे वादा चाहिए था
कि वो मुझे याद रखेगा
मेरे शब्दों से ज्यादा
मगर मैं वादा नहीं मांग सकती थी
सिर्फ मुस्कराहट की खातिर
वादे नहीं ख़रीदे जाते
मर रही होती तो बात दूसरी थी

मुझे याद रखना रे
मेरे टेढ़े मेरे अक्षरों में
फोन पर की आधा टुकड़ा आवाज़ से
तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट से
और तुमसे जितना झूठ बोलती हूँ उससे
जो पेनकिलर खाती हूँ उससे
कि ज़ख्मों पर मरहम कहाँ लगाने देती हूँ
कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

अगली बार जब मैं कहूँ चलती हूँ
मुझे जाने मत देना
बिना बहुत सी बातें कहे हुए
मैं शायद लौट के कभी न आऊँ
मर जाऊं तो भी
मुझे भूलना मत


मुझे जब याद करोगे
तो याद रखना ये वाली रात
जब कि रात के इस डेढ़ पहर
कोई पागल लड़की
स्क्रीन के इस तरफ
रो पड़ी थी तुमसे बात करते हुए
फिर भी उसने तुम्हें नहीं रोका

उसे लगता है मुझे एक कन्धा चाहिए
मैं कहती हूँ कि चार चाहिए
हँसना झूठ होता है
पर रोना कभी झूठ नहीं होता

उसने वादा तो नहीं किया
पर शायद याद रखेगा मुझे

दोहराती हूँ
बार बार, बार बार बार
बस इतना ही
मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

01 January, 2012

काँपती उँगलियों से खोलना...

बीता हुआ साल कुछ वैसा ही है
जैसे स्टेशन पर भीड़ में खोया हुआ वो एक चेहरा
जो ताजिंदगी याद रहता है 

अनगिनत सालों में 
ये साल भी गुम जाएगा कहीं
सिवाए उस एक शाम के 
तो ए बीते हुए साल
तू सब कुछ रख ले अपने पास
उस एक शाम के बदले

वो शाम कि जिसमें 
बहुत सी बातें थी 
बादलों का रंग था 
मौसम की खुशबू थी 
हवाओं के किस्से भी थे 

वो शाम कि जिसमें
दिल धड़कता था
आँखें तरसती थीं
उँगलियाँ कागज़ पर 
अनजाने 
कोई नाम लिख रहीं थी 
तलवे सुलग उठ्ठे थे 
मन बावरा हो गया था 

पंख उग गए थे
पैरों तले जमीन को
मैं पहुँच गयी थी
उन बांहों के घेरे में

उस एक शाम 
सब छूट गया था पीछे
कि जब उसने 
काँपती उँगलियों से खोली थीं 
मेरे जिस्म की सब गिरहें
और 
मेरी रूह को आज़ाद कर दिया था 

16 December, 2011

दिल्ली की छत, ब्लू लेबल और दो लड़कियां

कोई बीस साल पुरानी दोस्ती थी उनकी और उसमें वो आज दस साल बाद मिल रही थीं...दो औरतें या कि लड़कियां, जैसा भी आपको कहने में सुविधा हो...

दिल्ली की एक बेहद सर्द सी रात थी...लड़की का घर एक चार मंज़िला इमारत के ऊपर कुछ असबेसटोस की शीट्स लगा कर बनाए एक कमरेनुमा मकान में था. इसे बरसाती या दुछत्ती कहते हैं. दिल्ली में वैसे भी घर ढूँढना बहुत मुश्किल है...या तो बेर सराय, जिया सराय जैसे मुहल्लों में दीमक के घरों जैसे कमरे जो कहीं अंतहीन अंधेरी गलियों में खुलते हैं या तो पॉश इलाकों में ऐसी बरसाती जिसमें रहने की जगह तो सही है पर उसमें जीना अपने आप में एक बहुत बड़ी जंग होती जाये हर रोज़.

गर्मियों में चारों तरफ से सूरज उस कमरे को किसी प्रेशर कुकर की मानिंद गरम कर देता था...दीवारें, छत सब कुछ धीपता रहता था और उसमें जिस दिन उसे घर पर रहना हो जीना मुहाल हो जाता. एक बड़ा सा देजेर्ट कूलर बमुश्किल कोई राहत दे पाता था...ऐसे कमरे में जीना उसे हर लम्हा उससे प्यार करने की याद दिलाता था...जानलेवा गरमियाँ और जानलेवा सर्दियाँ. सब होने पर भी वो कमरा उसे नहीं छोड़ता था तो शायद इसलिए कि कमरे के आगे का थोड़ा सा छत का हिस्सा उसके नाम लिखा था. उसकी अपनी बालकनी जिसमें से आसमान अधूरा या टुकड़ों में नहीं पूरा दिखता था औंधे कटोरे जैसा. चाँद सितारों और डूबते सूरज को देखने का मोह उसे कहीं और जाने नहीं देता...उनींदी शिफ्ट्स के बीच वो किसी शाम सूरज से मिलने का वक़्त निकाल लेती तो कभी चाँद से डेट पर जाने का वादा भी निभा ले जाती...इन दोनों से उसी बेतरह इश्क़ करने के बावजूद उसे बेवफ़ाई जैसा कुछ महसूस नहीं होता...कभी भी. इस बारे में सूरज या चाँद ने भी कभी उसे ताने नहीं मारे.

उसे क्या मालूम था कि इसी घर की किस्मत में वो क़यामत की मुलाक़ात भी लिखी है...उसकी एक बचपन की दोस्त थी, कुछ तीस साल की जिंदगी में दस साल का कुल जमा रिश्ता था और फिर २० साल लम्बा अंतराल...किस्मत ने उन्हें जोड़ा था और आज दोनों इस छत पर दिसंबर की किसी सर्द रात मिल रहीं थी...मकान मालिक अलग रहता था इसलिए लड़की को बहुत सी आज़ादियाँ मिली हुयी थीं उस घर में...इसमें कभी भी आना जाना सबसे जरूरी थी. गैर जरूरी चीज़ों में था व्हिस्की में कोहरा मिला कर पीना और कोहरे और सिगरेट के धुएं को आपस में गुन्थ्ते देखना...इसके अलावा कुछ ऐय्याशियाँ भी थीं जैसे कि लोहे की उस  भारी कड़ाही में अपनी अलग बोरसी जलाना...थोड़े कोयले और लकड़ियों से.

यहाँ से चूँकि किस्से में दो लड़कियां आने वाली हैं तो उनके नाम का पहला अक्षर ले लेते हैं कि इस कहानी के सभी किरदार नकली हैं...किसी का पूरा नाम लिख दिया तो उस नाम की कितनी लड़कियां उस नाम से खुद को जोड़ के देख लेंगी और इसमें लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी. जिसका घर है वो बेहद खूबसूरत है उसकी आँखें गहरी काली हैं और घने बाल कमर तक झूल रहे हैं...खुले बालों में कुछ पानी की बूँदें भी ठहरी हुयी दिखती हैं. चलो मान लेते हैं कि इस लड़की का नाम पी है...पी से पिया होता है, पिहू होता है, पियाली भी होता है...आप चाहो तो मान लो उसका नाम पियाली है...दूसरी का नाम स रखते हैं...सा से सारिका, सरगम, सांझ भी होता है तो आप मान लो उसका नाम सरगम है...उसकी आँखों में बड़ी वार्मथ है...गर्माहट समझते हैं आप...कॉफ़ी के कप वाली नहीं...व्हिस्की वाली...उसकी आँखें गहरे भूरे रंग की हैं, जिसमें आग का लपकना दिख जाता है कभी कभी. 

दोनों ने एक दूसरे को बहुत दिनों बाद देखा है दिल भरा हुआ है. स को पी का घर बहुत पसंद आया है. घर के हर हिस्से से पी की खुशबू आती है, चाहे वो बिखरी हुयी किताबें हों...सिगरेट के करीने से लगे खाली डब्बे हों कि उसका व्हिस्की ग्लास का कलेक्शन. कितना हसीन है कि जाड़ों की सर्द रात में खुले आसमान के तले बैठी हुयी हैं. कोहरा गिर रहा है...बहुत देर तक ख़ामोशी भी रही...और फिर पी ने ही कहना शुरू किया. पता है स मुझे लगता है शराब का आविष्कार किसी ईर्ष्यालु मर्द ने हम औरतों को देख कर किया होगा...आगे की थ्योरी है कि मर्द समझ ही नहीं सकते कि औरतें बिना पिए ही अपने दिल के सारे राज़ एक दूसरे के सामने कैसे कह देती हैं...मर्दों ने कई बार चाहा कि वो भी अपनी भावनाओं का इज़हार कर सकें पर उन्हें कहना ही नहीं आ पाया...फिर एक दिन एक बेहद इंटेलेक्चुअल मर्द ने शराब का अविष्कार किया कि इसे पी कर वो अपनी हर बात कह सकें. थ्योरी सही थी लेकिन कुछ मर्दों ने कहा कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं होता...कि वो पी कर भी वैसी ही हालत में रहते हैं जैसा कि बिना पिए...तो मर्दों की उस सभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ कि ऐसे मर्दों को बाकी मर्दों की भलाई के लिए स्वांग रचाना होगा. तब से ये उनका अपना सीक्रेट है जो किसी औरत को नहीं बताया जाएगा. 

स कहीं जादू में खोयी हुयी थी...उसे अपना पहला प्यार याद आ रहा था...वो भी कुछ ऐसी ही बहकी बहकी बातें किया करता था जो उसे कभी समझ नहीं आती थी. 'पी, तुझे कैसे पता ये थ्योरी?'. अब पी का दूसरा सबसे फेवरिट सेंटेंस था 'मुझे दारु पीने वाले मर्द बड़े पसंद हैं'. उसके पीछे की थ्योरी भी...जो लोग दारू पीते हैं वो बड़े खतरनाक टाइप के कांफिडेंट लोग होते हैं...और उससे बड़ी बात कि बड़े सच्चे होते हैं. उन्हें इस चीज़ से डर नहीं लगता कि जब वो आउट होंगे कोई उनके मन के अन्दर झाँक के देख लेगा...वो जैसे होते हैं खुद को बेहद प्यार करते हैं...या कमसे कम पसंद तो करते ही हैं. तुझे कभी हुआ है ऐसे लड़के से प्यार जिसे अपनी ड्रिंक बेहद पसंद हो? यार पीकर वो ऐसी अच्छी अच्छी बातें करता है कि बिना पिए कभी भी न करे. कभी कभार तो मुझे लगता है उन्हें हमेशा थोड़े नशे में ही होना चाहिए...ज्यादा अच्छे लगते हैं. ऐसे मर्द कितने रूखे से जीव होते हैं...किसी चीज़ में ज्यादा सोचना नहीं...अपना खाना वक़्त पे मिल जाए...ऑफिस दिन भर ठीक ठाक बीत जाए बस...इसी में खुश. पर उन्हें उसकी पसंद की शराब मिल जाए फिर देखो कैसे मौसम में रंग घुलता है...कैसे इश्क परवान चढ़ता है और अगर दर्द देखना है तो तब देखो कि कैसे इश्क में फ़ना होते हैं लोग. बिना किसी से कहे किस तरह टूटे हुए होते हैं. ये एक ऐसा वक़्त होता है जब वो सच में वल्नरेबल होते हैं. मुझे उनपर जितना तरस आता है उतना ही प्यार भी आता है. 

पी को सदियों से ऐसा कोई नहीं मिला था जिससे वो सारी बातें कर सके...लड़कियां उसकी दोस्त बनती नहीं थीं और लड़को को उससे प्यार हो जाता था...जिंदगी बड़ी तनहा थी. आज जैसे उसने खुद को ही पा लिया था...स की भी बातें थी बहुत...पर आज पी का मौसम था...बोले जा रही थी. स तू मुझसे ज्यादा मत मिला कर, मुझसे बात भी मत कर...मैं वैसी लड़की हूँ जिसे माएँ अपनी बड़ी होती बेटियों को बचा के रखती हैं कि बिगड़ न जाएँ...मैं हर चीज़ को करप्ट कर देती हूँ...ओक्सिजन हूँ ना...पर ये लोग जानते नहीं कि मैं न हूँ तो ये सांस भी न ले पाएं. सुलगती हुयी पी ने कश छोड़ा था तो धुआं भी एक पल ठहर कर उसके चेहरे का भाव देखने लगा था. स तो खैर वैसे भी आज कहानी ही सुनने आई थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये लड़की इतनी अकेली कैसे हो सकती है...उसने हमेशा पी को पढ़ा था...उसके शब्दों में, उसकी बातों में, उसकी अनगिन तस्वीरों में...हर जगह. पार्टियों की जान हुआ करती थी पी...उसके हिस्से वाकई इतनी तन्हाई है ये स को एकदम समझ नहीं आ रही थी. दो एकदम विपरीत स्वाभाव वाली लड़कियां एकदम एक सी तनहा कैसे हो सकती हैं. 


स चकित थी पी का चेहरा देख कर, उसमें कहीं कोई शिकवा, कोई गिला नहीं था. वो एक ऐसी लड़की का चेहरा था जिसने बेहद शिद्दत से जिंदगी को प्यार किया हो...बिना किसी अफ़सोस के. इश्क के कितने अनगिन किस्से थे पी के पास...और स के पास भी. आज इस बेहतरीन शाम के लिए ब्लू लेबल खोली गयी थी...और दो पैग बचे हुए थे अब...रात भी बर्फ पिघलने के रफ़्तार से ही ढल रही थी...सुबह के पहले की सबसे अँधेरी घड़ी थी. आग में थोड़ा धुआं धुआं सा था...रात भर रिपीट मोड में गा के शायद नुसरत साहब भी थक गए थे...ऐसे दो कद्रदान फिर जाने कब मिले, इसलिए उन्होंने शिकायत भी नहीं की थी...मार्लबोरो का नया पैकेट खोला जा रहा था...माहौल था कि जैसे कोई रेडियो का सिफारिशी प्रोग्राम ख़त्म होने को आ रहा हो...और आज की आखिरी फरमाइश झुमरीतलैय्या के फलाना साहब से...स ने सवाल पूछा...पी तू शादी किससे करेगी? पी ने व्हिस्की का ग्लास उठाया...उसमें आखिरी घूँट बाकी थी और पिघले हुए बर्फ के टुकड़े, बॉट्म्स अप मारा...आखिरी पैग बनाते हुए बोली...कोई होगा जो मेरे इस नीट व्हिस्की के लिए बर्फ के टुकड़े ला दिया करे फ्रिज से? जब भी मैं पीने बैठूं...ऐसा लड़का जिस दिन मिल जाएगा उससे शादी कर  लूंगी
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स का तो पता नहीं...बेचारी भली लड़की है, कहाँ से ऐसा लड़का ढूंढेगी...पर मैं, मैं तो लेखक हूँ ना...अपनी पी को ऐसे कैसे रहने दूं, उसे लिए ऐसा लड़का भी रचना पड़ेगा एक दिन. तब तक के लिए...अगर आप ऐसे किसी लड़के को जानते हैं तो बताएं. मैं पी से बात करुँगी. बस आज के एपिसोड में इतना काफी है. अगली बार कभी स की कहानी भी सुनाती हूँ. वैसे मैं लड़का होती तो मुझे पी से प्यार हो जाता? आपको हुआ क्या? 

10 December, 2011

वसीयत

मौत की सम्मोहक आँखों में देखते हुए मैं तुम्हें बार बार याद करती हूँ...इत्मीनान है कि तुम्हें आज शाम विदा कह चुकी हूँ...बता भी चुकी हूँ कि तुमसे कितना प्यार करती हूँ...दोनों बाँहों के फ़ैलाने से जितना क्षेत्रफल घिरता है, उतना...मेरे ख्याल से इतने प्यार पर तुम अपनी बची हुयी जिंदगी बड़े आराम से काट लोगे...मुझे यकीन है...तुम बस याद रखना कि ये वाक्य संरचना नहीं बदलेगी 'मैं तुमसे प्यार करती हूँ' कभी भी 'मैं तुमसे प्यार करती थी' नहीं होगा. मेरे होने न होने से प्यार पर कोई असर नहीं होगा.

मैं ऐसे ही मर जाना चाहती हूँ, तुम्हारे इश्क में लबरेज़...तुम्हारी आवाज़ के जादू में गुम...तुम्हारे यकीन के काँधे पर सर रखे हुए कि तुम मुझसे प्यार करते हो. इश्क के इस पौधे पर पहली वसंत के फूल खिले हैं...यहाँ पतझड़ आये इसके पहले मुझे रुखसत होना है...तुम ये फूल समेट कर मेरे उस धानी दुपट्टे में बाँध दो...मेरे जाने के बाद दुपट्टे से फूल निकाल कर रख लेना और दुपट्टा अपने गाँव की नदी में प्रवाहित कर देना...उसके बाद तुम जब भी नदी किनारे बैठोगे तुम्हें कहीं बहुत दूर मैं धान के खेत में अपना दुपट्टा हवा में लहराते हुए, मेड़ पर फूल से पाँव धरते नज़र आउंगी. मेरा पीछा मत करना...मेरा देश उस वक़्त बहुत दूर होगा.

यकीन करना कि मैं कहीं नहीं जा रही...तुम्हारे आसपास कहीं रहूंगी...हमेशा...हाँ ध्यान रखना, मेरी याद में आँखें भर आयें तो उस रात पीना नहीं...कि खारा पानी व्हिस्की का स्वाद ख़राब कर देता है और तुम तो जानते ही हो कि व्हिस्की को लेकर मैं कितना 'टची' हो जाती हूँ. तुम्हें ऐसा लगेगा कि मैं ये सब नहीं देख रही तो मैं आज बता देती हूँ कि मरने के बाद तो मैं और भी तुम्हारे पास आ जाउंगी...आत्मा पर तो जिस्म का बंधन भी नहीं होता, न वक़्त और समाज की बंदिशें होती हैं उसपर...एकदम आज़ाद...मेरे प्यार की तरह...मेरे मन की तरह. 

जिंदगी जितनी छोटी होती है, उतनी ही सान्द्र होती है...तुम तो मेरे पसंद के सारे लोगों को जानते हो कि जो कम उम्र में मर गए...कर्ट कोबेन, दुष्यंत कुमार, गुरुदत्त, मीना कुमारी...उनकी आँखों में जिंदगी की कितनी चमक थी...जिसके हिस्से जितनी कम जिंदगी होती है उसकी आँखों में खुदा उतनी ही चमक भर देता है. तुमने तो मेरी आँखें देखी हैं...क्या लगता है मेरी उम्र कितने साल है?

इतनी शिद्दत से किसी को प्यार करने के बाद जिंदगी में क्या बाकी रह जाता है कि जिसके लिए जिया जाए...मैं नहीं चाहती कि इस प्यार में कुछ टूटे...मुझे इस प्यार के परफेक्ट होने का छलावा लिए जाने दो. मैं टूट जाने से इतना डरती हों कि वक़्त ही नहीं दूँगी ये देखने के लिए कि हो सकता है इस प्यार में वक़्त के सारे तूफ़ान झेल लेने की ताकत हो. 

मुझे चले जाने से बस एक चीज़ रोक रही है...फ़र्ज़ करो कि तुमने मेरे ख़त नहीं पढ़े हैं...ये ख़त भी तुम तक नहीं पहुंचा है...अपने दिल पर हाथ रख के जवाब दो, तुम्हें पूरा यकीन है तो सही कि मैं तुमसे बेइंतेहा प्यार करती हूँ या कि मेरे जाने के बाद कन्फ्यूज हो जाओगे? 
मेरे बाद की कोई शाम...




मैं तुम्हारे नाम अपनी बची हुयी धड़कनें करती हूँ...कि मोल लो इनसे इश्क के बाज़ार में तुम्हें जो भी मिले...याद का सामान जुगाड़ लो कि भूली हुयी शामों में राहत हो कि एक पागल लड़की ने चंद छोटे लम्हों के लिए सही...तुम्हें प्यार बहुत टूट के किया था. 

05 December, 2011

मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है.

वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार रहने लगा एक ख़ास वक़्त पर. मुझे बेहद अफ़सोस है कि मैंने घड़ी की बेजान सुइयों के साथ तुम्हारी मुस्कराहट का रिश्ता बाँध दिया और मोबाईल की घंटी का अलार्म.

वक़्त के साथ परेशानी ये है कि ये हर शाम वहीं ठहर जाता है...मैं घड़ी को इग्नोर करने की पुरजोर कोशिश करती हूँ पर यकीन मानो मेरे दोस्त(?) मुझे भी उस वक़्त तुम्हारी याद आती है. कभी कभी छटपटा जाती हूँ पूछने के लिए...कि तुम ठीक तो हो...तुम्हारा कहना सही है, तुम्हारी फ़िक्र बहुत लोगों को होती है...इसी बात से इस बात की भी तसल्ली कर लेती हूँ कि जो लोग तुम्हारा हाल पूछते होंगे वो वाकई तुम्हारा ध्यान रखेंगे, मेरी तरह दूर देश में बैठ कर ताना शाही नहीं चलाएंगे. मुझे माफ़ कर दो कि मैंने बहुत सी शर्तें लगायीं...बहुत से बंधन बांधे... तुम कहीं बहुत दूर आसमानों के देश के हो, मुझे जमीनी मिटटी वाली से क्या बातें करोगे. मैं खामखा तुम्हें किसी कारवां की खूबसूरत बंजारन से शादी कर लेने को विवश कर दूँगी कि इसी बहाने तुम कहीं आस पास रहोगे.

तुम आसमानों के लिए बने हो मेरे दोस्त...अच्छा हुआ जो हमारी दोस्ती टूट गयी. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए दो लम्हा भी रुका जाए...कई बार तो मुझे अफ़सोस होता है तुम्हारा वक़्त जाया करने के लिए. तुम्हारी जिंदगी में बेहतर लोग आ सकते थे...बेहतर किताबें हो सकती थीं, बेहतर रचनायें लिखी जा सकती थीं. तुम उस वक़्त का जाहिर तौर से कोई बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे...तुम्हारे दोस्त कुछ बेहतर लोग होने चाहिए...मैं नहीं...मैं बिलकुल नहीं. तुम कोई डिफेक्टिव पीस नहीं हो कि जिसे सुधारा जाए...मैं तुम्हें बदलते बदलते तोड़ दूँगी, मैं अजीब विध्वंसक प्रवृत्ति की हूँ.

तुम्हें पता है लोग कब कहते हैं की 'मुझसे दूर रहो'?
जब उन्हें खुद पर विश्वास नहीं होता...जब वो इतने कमजोर पड़ चुके होते हैं कि खुद तुमसे दूर नहीं जा सकते...तब वे चाहते हैं कि तुम उनसे दूर चले जाओ.


आज बशीर बद्र का एक शेर याद आया तुम्हारी याद के साथ...
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है 


मैं तुम्हारे बिना जीना सीख रही हूँ, थोड़ी मुश्किल है...पर जानते हो न, बहुत जिद्दी हूँ...ये भी कर लूंगी. 

हाँ, एक बात भूल गयी...

तुम मुझसे दूर ही रहो!


24 November, 2011

लव- वाया रॉयल एनफील्ड

परसों साकिब की बाईक फाइनली आ गयी...रोयल एनफील्ड थंडरबर्ड. बैंगलोर में एनफील्ड की लगभग चार महीने की वेटिंग चल रही है. तो बुक कराये काफी टाइम हुआ था और हमारे इंतज़ार को भी. शाम जैसे ही फोन आया की 'भाभी, बाईक आ गयी'...भाभी दीन दुनिया, मोह-माया सब त्याग कर फिरंट. कार उठाये और यहीं से हल्ला कि अकेले मत चले जाना, हम आ रहे हैं. फिर डेयरी मिल्क ख़रीदे, बड़ा वाला...कि मिठाई कौन खरीदने जाए...और शुभ काम के पहले कुछ मीठा हो जाए. कुणाल आलरेडी हल्ला कर रहा था कि हमको टाइम नहीं है, उसपर हम हल्ला कर रहे थे कि तुमको बुला कौन रहा है. उसको वैसे भी बाईक का एकदम भी शौक़ नहीं है.

तो लगभग पांच बजे हम इंदिरानगर से चले और कोरमंगला से साकिब और अभिषेक को उठाये फिर जयनगर, एनफील्ड के शोरूम. ओफ्फफ्फ्फ़ क्या जगह थी...कभी इस बाईक पर दिल आये, कभी उस पर. कभी डेजेर्ट स्टोर्म पर मन अटके कभी क्लास्सिक क्रोम जानलेवा लगे. पर सबमें प्यार हुआ तो थंडरबर्ड से...सिल्वर कलर में. दिल तो वहीं आ गया कि ये वाली बाईक तो उठा के ले जायेंगे. समस्या बस इतनी कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है. खैर...साकिब की बाईक आई, हमने डेरी मिल्क खा के शुभ आरम्भ किया...उफ्फ्फ क्या कहें...उस बाईक पर बैठ कर दुनिया कैसी तो अच्छी लगने लगती है. लगता है जैसे सारे दुःख-तकलीफ-कष्ट ख़तम हो गए हैं. मन के अशांत महासागर में शांति छा गयी है...कभी लगे कि जैसे पहली बार प्यार हुआ था, एकदम १५ की उम्र में, वैसा ही...दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है...सांसें तेज़ चल रही हैं और हम हाय! ओह हाय! किये बैठे हैं. घर वापस तो आ गए पर दिल वहीं अटका हुआ था, थंडरबर्ड में...सिल्वर रंग की.

अब मसला था कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है...और थंडरबर्ड कोई छोटंकी बाईक नहीं है कि हम अपने लिए खरीद लें...ऊँची है और चलाने के लिए कोई ६ फुट का लड़का चाहिए होगा. हमने अपनी पीठ ठोंकी कि अच्छे लड़के से शादी की, कुणाल ६'१ का है...और थंडरबर्ड चलाने के लिए एकदम सही उम्मीदवार है. दिन भर, सुबह शाम दिमाग में बाईक घूम रही थी...कि ऐसा क्या किया जाए...और फिर समझ नहीं आ रहा था कि लड़के को बाईक न पसंद हो ठीक है...पर ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी को एनफील्ड से प्यार न हो. जिस बाईक को देख कर हम आहें भर रहे हैं...वो तो फिर भी लड़का है. कल भोरे से उसको सेंटी मार रहे थे कि क्या फायदा हुआ इतना लम्बा लड़का से बियाह किये हैं कभियो एक ठो चिन्नी का डब्बा भी दिया किचन में रैक से उतार के. हाईट का कोई फायदा नहीं मिला है हमको...अब तुमको कमसेकम बाईक तो चला दी देना चाहिए मेरे लिए. उसपर भी हम खरीद देंगे तुमको, पाई पाई जोड़ के, खूब मेहनत करके. बाईक भी सवा लाख की है, इसके लिए कितना तो मेहनत करना पड़ेगा हमें. कुणाल के पसंद की कोई चीज़ हो तो हम उससे खरीदवा लें. अपने पसंद की चीज़ तो खुद खरीदनी चाहिए ना. तो हम दिन भर साजिश बुन ही रहे थे कि कैसे कुणाल को बाईक पसंद करवाई जाए.


इन सब के बीच हमें ये नहीं पता था कि कुणाल ने एनफील्ड कभी चलाई ही नहीं है. कल रात साकिब और कुणाल ऑफिस से लौट रहे थे जब जनाब ने पहली बार चलाई. मुझे पहले ही बोल दिया था कि तैयार होके रहना घूम के आयेंगे...तो मैंने जैकेट वैकेट डाल के रेडी थी घर के नीचे. डरते डरते बैठी, कुणाल का ट्रैक रिकोर्ड ख़राब है. मुझे पहली ही डेट पर बाईक से गिरा दिया था. (लम्बी कहानी है, बाद में सुनाउंगी). तो हम बैठे...कोई रात के ११ बजे का वक़्त...बंगलौर का मौसम कुछ कुछ दिल्ली की ठंढ जैसा...इंदिरानगर गुडगाँव के सुशांत लोक जैसा...एक लम्हा था कि जैसे जादू सा हुआ और जिंदगी के सारे हिस्से एक जिगसा पजल में अपनी सही जगह आ के लग गए. हलकी हवा, कुणाल, थंडरबर्ड और मैं...और उसने इतनी अच्छी बाईक चलाई कि मुझे चार साल बाद फिर से कुणाल से प्यार हो गया. फिर से वैसा लग रहा था कि जैसे पहली बार मिली हूँ उससे और वो मुझे दिल्ली में घुमा रहा है. लगा कि जैसे उस उम्र का जो ख्वाब था...एक राजकुमार आएगा, बाईक पे बैठ कर और मेरा दिल चोरी कर के ले जाएगा...वैसा कुछ. कि कुणाल वाकई वही है जो मेरे लिए बना है. कितना खूबसूरत लगता है शादी के चार साल बाद हुआ ऐसा अहसास कि जिसने महसूस किया हो वही बता सकता है.

It was like everything just fell into place...and I know he is the one for me :) Being on bike with him was like a dream come true...exactly as I had imagined it to be, ever in my teenage dreams. My man, a bike I love...weather the way I like it and night, just beautiful night in slow motion...dreamy...ethereal.

और सबसे खूबसूरत बात...कुणाल को एनफील्ड अच्छी लगी, दरअसल बेहद अच्छी लगी...घर आ के बोला...अच्छी बाईक है, खरीद दो :) :)

पुनःश्च - It is impossible for a man to not fall in love with a Royal Enfield. There is something very subliminal...maybe instinct. I don't know how the bike-makers got it right but for me a man riding a Royal Enfield is the epitome of perfection, like the complete man from Raymond adverts. The classic, masculine image of a man before being toned down by the desire to fit into the metrosexual category. It signifies the change from being a boy to being a man. Be a man, ride an Enfield.

The views and opinions in this blog are strictly of the blog author who has a right to publish any gibberish she wants to...the busy souls are requested to find someplace else to crib!! ;) ;) I will not clarify any of the terms like metrosexual man, raymonds man, classic...whatever :D :D

11 August, 2011

देर रात की कोरी चिट्ठी

बावरा मन
बावरा बन
ढूंढें किसको
जाने कैसे 

रात बाकी
दर्द हल्का
चुप कहानी
गुन रहा 

नींद छपके
चाँद बनके
आँख झीलें
डूब जा

याद लौटी
अंजुरी भर
आचमन कर
हीर गा 

भोर टटका 
राह भटका
रे मुसाफिर
लौट आ 

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