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07 October, 2012

बोस के हेडफोन्स...न ना...मेरे हेडफोन्स :) :)


बारिशें आजकल मूडी हो गयी हैं बैंगलोर में...मेरा असर पड़ा है मौसम पर लगता है. आज सुबह सूरज गायब है...कोहरे कोहरे वाली दिल्ली सा मौसम लग रहा है. ठंढ बिलकुल वैसी ही है...खिड़की खुली है और हलकी हवा चल रही है. जाड़ों के आने की पहली आहट है.

लिखने-पढ़ने के बाद जो चीज़ मुझे सबसे अच्छी लगती है वो है म्यूजिक...कुछ अच्छा सुनना...अपनी पसंद का. कुछ दिन पहले कुणाल ने मेरे लिए बोस के हेडफोन खरीद दिए. अभी से कोई तीन साल पहले नए हेडफोन्स खरीदने का मन हुआ था तो ऐसे ही बोस के शोरूम चले गए थे हम...सोचा था कितना महंगा होगा...पाँच हज़ार टाइप भी होगा तो खरीद लेंगे. जब बात संगीत की आती है तो बोस सबसे अच्छा है. वहाँ हेडफोन की कीमतें देखीं तो हँसी आ गयी. दो मॉडल थे...एक सत्रह हज़ार का और एक बाईस हज़ार का. हम डिस्कस करते हुए निकले कि ये लोग पागल हैं क्या, कौन खरीदेगा सत्रह हज़ार का हेडफोन. ऐसा क्या कर देंगे हेडफोन में कि सत्रह हज़ार लगायेगा कोई. चुपचाप सेनहैजर का दो हज़ार वाला नोर्मल हेडफोन ख़रीदे और अभी तक वही इस्तेमाल कर रहे थे. 

फुल-टाइम ऑफिस मेरे जैसे लोगों के बस का नहीं है ऐसा डिसाइड कर चुके थे. फ्रीलांसिंग में अच्छे प्रोजेक्ट्स आ रहे थे. एक किताब लिखनी खत्म की थी कि एक अच्छे साड़ी के ब्रांड के लिए फिर से कॉफी टेबल बुक का ओफ्फर पास में था. क्लायंट को मेरा काम पसंद आया था. किताब लिखने में कोई छः महीने टाइप लग जाते हैं लगभग. सब अच्छा चल रहा था कि इस वाले ऑफिस के लिए इंटरव्यू में चले गए. सब अच्छा रहा तो ज्वायन भी कर लिए. अब ऑफिस ज्वायन करते ही जो चीज़ सबसे पहले चाहिए होती है वो है हेडफोन...मुझे काम करते हुए किसी भी तरह का डिस्टर्बेंस पसंद नहीं है. ध्यान भंग होता है तो सोच की लड़ी टूट जाती है फिर वापस उसी जगह जा कर लिखना या सोचना हो नहीं पाता है. 

जहाँ बैठती हूँ पहली बार ऐसा हुआ है कि और भी कंटेंट के लोग हैं. टीम जहाँ बैठती है वो बेसमेंट में है और ऊपर सड़क को खिड़की खुलती है. हम उसे डंजयंस (Dungeons) कहते हैं. मुझे लगता है इस टीम का हिस्सा होने के लिए पागलपन एक जरूरी क्वालिफिकेशन है. हम जोर्ज को पूछते भी हैं कि कंटेंट टीम में लोग लेने के पहले क्या पागलपन मीटर चेक भी होता है. सब एक दूसरे की खिंचाई का एक भी मौका नहीं जाने देते. शब्द तो ऐसे पकड़ते हैं कि कोलेज का जमाना याद आ जाता है. जरा सा जुबान फिसली नहीं कि लपेटे में आ जाते हैं. तो अधिकतर काफी हल्ला-गुल्ला-मस्ती का माहौल रहता है. ऊपर डिजाइन टीम के लोग अगर कभी कभार आ जाते हैं तो घंटे आधे घंटे में ही सर पकड़ लेते हैं. 

मैंने जितने कॉपीराइटर्स या लिखने वाले लोगों को देखा है सब अधिकतर एक ही खाके से निकल कर आये होते हैं. कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर...बेहद आउटगोइंग...बिंदास और बहुत ज्यादा बोलने वाले. अधिकतर एक ऑफिस में एक ही काफी होता है पर यहाँ तो हम चार चार हैं. मैं अभी नयी आई हूँ तो अभी डिजाइन टीम के साथ ज्यादा काम नहीं किया था मगर अभी हाल में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में एक दिन ऊपर बैठना पड़ा. लोग परेशान कि आज तुमको हो क्या गया है...तुम तो ऐसी नहीं थी...और मैं कि नहीं रे बाबा मैं हमेशा से ऐसी ही थी तुम लोग जानते नहीं थे हमको. सब कहते हैं कि जोर्ज के पास सबसे 'हैपनिंग' टीम है. यहाँ पर तृश का म्यूजिक चोईस मुझे अक्सर पसंद आता है...तो जब मेरे पास मेरे अपने सुनने के कुछ खास पसंद के गाने नहीं होते तो तृश से पूछ लेती हूँ...आज क्या सुन रहे हो...और अधिकतर वो कुछ ऐसा सुन रहा होता है जो मैंने पहले कभी  नहीं सुना है. इंग्लिश में मैंने बहुत कम गाने सुने भी हैं तो हमेशा कुछ नया सुनने का स्कोप रहता है. कुछेक और दोस्त हैं मेरे जो मुझे म्यूजिक भेजते रहते हैं...musically on the same page. :)

खैर...इतने शोर में लोचा ये है कि या तो बहुत लाउड म्यूजिक प्ले करना पड़ता था या फिर काम करने में हज़ार दिक्कत होती थी. मैं काम करते हुए अधिकतर इन्स्ट्रुमेन्टल सुनती हूँ...लूप पर या फिर कोई ऐसा गाना जो मैंने इतनी हज़ार बार सुना है कि उसके शब्द वैसे ही बहते हैं जैसे रगों में खून...अब ऐसा कुछ लाउड वोल्यूम में प्ले करना का मन नहीं करता है. फिर लगा कि शायद अच्छे हेडफोन खरीदने होंगे. जिनमें नोइज कैंसिलेशन अच्छा होता हो. हम फिर बोस के शोरूम गए...देखने के लिए कि वाकई हेडफोन अच्छे हैं क्या. यहाँ फोरम मॉल में संडे के लिए मेला लगा रहता है...आधा बैंगलोर शायद वहीं पहुँच जाता है. हमने शोरूम में अटेंडेंट से पूछा कि इसका नोइज कैंसिलेशन कैसा है...उसने कहा कि बता नहीं सकती...आपको अनुभव करना होगा. हम शोव्रूम के बाहर आये...वहाँ दुनिया भर का शोर था. हेडफोन्स ऑन किये और दुनिया का शोर जैसे फेड कर गया...जैसे संगीत के अलावा कहीं और कुछ था ही नहीं. वो एक अद्भुत अनुभव था...एकदम जादू जैसा. वोल्यूम बहुत तेज भी  नहीं था...मीडियम था. मेरे चेहरे पर मेरा आश्चर्य दिख रहा होगा...

बस...मूड तो वहीं बन गया कि हेडफोन्स चाहिए. अब बात थी बैक कैलकुलेशन की.१७ हज़ार के हेडफोन्स...घर पे बताएँगे तो सबसे पिटेंगे कि दिमाग खराब हो गया है. इतना महंगा कोई हेडफोन खरीदता है...इतने में कुछ और कुछ अच्छा खरीद लो. बस कुणाल है कि हमेशा कहता है कि अगर अच्छी चीज़ है तो दाम का मत सोचो. लेकिन हम हैं कि गिल्ट से मरे जा रहे हैं...फिर हाँ ना करते करते...खुद को समझाते. हमको अच्छा म्यूजिक पसंद है...अच्छा म्यूजिक सुनने के लिए अच्छे हेडफोन्स चाहिए...फिर ऑफिस में हल्ला कितना होता है. अच्छा हेडफोन जरूरी है. बोस के नोइज कैंसिलेशन की तकनीक के कारण हल्का सा वैक्यूम सा बनता है...और हेडफोन की फिटिंग भी बहुत सही आती है. 

कोई महीने से ऊपर हुआ बोस के हेडफोन्स इस्तेमाल करते हुए. लगता तो ये है कि अभी तक मैंने जितना कुछ भी ख़रीदा है ये सबसे अच्छी चीज़ खरीदी है. चाहे फिल्म देख रहे हों या कि अपनी पसंद का कोई गाना सुन रहे हों. इन हेडफोन्स से पूरी डिटेल साफ़ सुनाई पड़ती है. अगर म्यूजिक का थोड़ा ज्यादा शौक़ है और अफोर्ड कर सकते हैं तो इन हेडफोन्स से बेहतर कुछ भी नहीं हैं. खास तौर से इन्स्ट्रुमेन्टल...क्लासिक सुनने का मज़ा ही और है. लगता ही नहीं है कि आसपास की दुनिया एक्जिस्ट भी करती है. वोकल सुनती हूँ तो लगता है कोई मेरे लिए ही गा रहा है...खास मेरे लिए...बिलकुल करीब आ कर. संगीत से रोमांस की शुरुआत है...और उफ़...कितना खूबसूरत है ये. 

मुझे नैट किंग कोल काफी पसंद हैं...बीटल्स को भी बहुत सुनती हूँ...आज की सुबह जेरी वेल के नाम रही...कुछ अच्छे लोगों के कारण कुछ बेहद अच्छा संगीत सुना है मैंने. इन अच्छी चीज़ों के लिए शुक्रिया नहीं होता...बार्टर सिस्टम होता है...तुम मुझे संगीत दो...बदले में हम भी तुमको कुछ अच्छा भेजेंगे :) :) 

आप ये सुनिए...Innamorata...Sweetheart in Italian. 

06 April, 2012

रात के अँधेरे में एक दूज का चाँद खिल जाता उसकी उँगलियों के बीच.


एक छोटी सी लड़की है...दिन में उसकी काली आँखों में जुगनू चमकते हैं...पर उसे मालूम नहीं था...एक शाम उसकी आँखों से एक जुगनू बाहर आ गया...नन्ही लड़की ने बड़े कौतुहल से जुगनू को देखा और अपनी छोटी छोटी हथेलियों से कमल के फूल की पंखुड़ियों सा उसे बंद कर लिया. देर रात हो गयी तो जुगनू की ठंढी हलकी हरी चमक मद्धम पड़ने लगी...लड़की को यकीन नहीं होता की उसकी हथेलियों से जुगनू गायब नहीं हो गया है...उँगलियों के बीच हलकी फांक करके देखती...रात के अँधेरे में एक दूज का चाँद खिल जाता उसकी उँगलियों के बीच. 

रात लड़की खाना खाने के मूड में नहीं थी...खाने के लिए हथेलियाँ खोलनी पड़तीं और जुगनू उड़ जाता...वो एकदम छोटी थी इसलिए उसे मालूम नहीं था कि जुगनू उसकी आँखों की चमक से ही आता है और अगली शाम फिर से आ जाएगा...नया जुगनू...रात को आसमान की औंधी कटोरी पर तारे बीनने का काम था उसकी मम्मी का...जब किसी तारे में कोई खोट होता तो उसकी मम्मी उस तारे को आसमान से उठा कर फ़ेंक देती...वो टूटता तारा लोग देखते और मन में दुआ मांग लेते...तारे बीनने का काम बहुत एकाग्रता का होता था...तो छोटी लड़की की मम्मी उसे मुंह में कौर कौर करके खाना नहीं खिला सकती थी. 

जब बहुत देर तक चाँद की फांक से लुका छिपी खेलती रही तो फिर लड़की को यकीन हो गया कि जुगनू सच में है...और मुट्ठी खोलते ही गायब नहीं हो जायेगा...उसने हौले से अपनी मुट्ठी खोली...जुगनू कुछ देर तो उसकी नर्म हथेली पर बैठा रहा...सहमा हुआ, कुछ वैसा जैसे पिंजरे का दरवाज़ा खोलो तो कुछ देर तोता बैठा रहता है...उसे यकीन ही नहीं होता कि वो वाकई जा सकता है...उड़ सकता है...और फिर जुगनू ने सारी दुनिया एक बच्चे की आँखों के अन्दर से देखी थी...ये दुनिया उसे डराती भी थी...चौंकाती भी थी और पास भी खींचती थी. 

जुगनू ऊपर आसमान की ओर उड़ गया...जहाँ उसे तारों को बीनने में लड़की की मम्मी की हेल्प करनी थी. 
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१२ साल बाद का पहला दिन...

आज पहली बार किसी लड़के ने उसका हाथ पकड़ा था...उसने अपनी हथेली में उसके लम्स को वैसे ही कैद कर लिया था जैसे उस पहली शाम जुगनू को मुट्ठी में बाँधा था...उसे देर रात लगने लगा था कि हथेली खोल के देखेगी तो दूज के चाँद की फांक सी उस लड़के की मुस्कराहट नज़र आएगी. 

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तीस के होने के पहले का कोई साल...

We could have danced away to the dawn...

तुम्हारे आफ्टर शेव की हलकी खुशबू मेरी आँखों में अटकी है...आज भी शाम आँखों से जुगनू आते हैं...मुझे देख कर मुस्कुराते हैं और ऊपर आसमान की ओर उड़ जाते हैं, मैं अब उन्हें रोकती नहीं...मम्मी रिटायर हो गयी है...और ऊपर कहीं तारा बन गयी है...

मैं बस जरा देर को तुम्हें मुट्ठी में बंद कर देखना चाहती हूँ कि तुम वाकई हो कि नहीं...जिस लम्हे यकीन हो जायेगा तुम्हारे होने का मुट्ठी खोल कर तुम्हें जाने दूँगी...पर सोचने लगी हूँ बहुत...तो लगता है तुम्हारा दम घुटने न लगे...इसलिए कभी तुम्हें ठहरने को नहीं कहती. लेकिन सुनो न...आज रात नींद नहीं आ रही...आज की इस लम्बी सी रात काटने के लिए मेरी आँखों में जुगनू बन के ठहर जाओ न!

04 April, 2012

Three Cs...कुर्सी, कलम और कॉफी मग

हम हर कुछ दिन में 'जिंदाबाद जिंदाबाद...ए मुहब्बत जिंदाबाद' कहते हुए इन्किलाबी परचम लहराने लगते हैं...इश्क कमबख्त अकबर से भी ज्यादा खडूस निकलता है और हमें उनके घर में जिन्दा चिनवाने की धमकी देता है...कि शहजादा ताउम्र किले की दीवार से सर फोड़ता फिरे कि जाने किस दीवार के पीछे हो अनारकली के दिल की आखिरी धड़कनें...शहजादा भी एकदम बुद्दू था...अब अगर प्यार इतनी ही बड़ी तोप चीज़ है तो थोड़े न अनारकली के मरने के बाद ख़त्म हो जाती...खैर...जाने दें, हमें तो अनारकली इसलिए याद आ गयी कि वो आजकल डिस्कोथेक के रस्ते में दिखने लगी है ऐसा गीत गा रहे हैं लोग.

ये रूहानी इश्क विश्क हमको समझ नहीं आता...हम ठहरे जमीनी इंसान...उतना ही समझ में आता है जितना सामने दीखता है अपनी कम रौशनी वाली आँखों से...किस गधे ने आँखों के ख़राब होने की यूनिट 'पॉवर' सेट की थे...कहीं मिले तो पीटें पकड़ के उसको. पॉवर बढ़ती है तो फील तो ऐसा होता है जैसे सुपरमैन की पॉवर हो...धूप में जाते ही बढ़ने लगी...पर होता है कमबख्त उल्टा...आँख की पॉवर बढ़ना मतलब आँख से और कम दिखना...कितना कन्फ्यूजन है...तौबा! खैर...हम बात कर रहे थे प्यार की...ये दूर से वाले प्यार से हम दूर ही भले...एक हाथ की दूरी पर रहो कि लड़ने झगड़ने में आराम रहे...गुस्सा-वुस्सा होने में मना लेने का स्कोप हो...खैर, आजकल हमारा दिल तीन चीज़ों पर आया हुआ है.


पहली चीज़...मेरी रॉकिंग चेयर...मैं कुछ नहीं तो पिछले चार साल में तो ढूंढ ही रही हूँ एक अच्छी रॉकिंग चेयर पर कभी मिलती ही नहीं थी. हमेशा कुछ न कुछ फाल्ट, कभी एंगिल सही नहीं...तो कभी बहुत छोटी है कुर्सी तो कभी आगे पैर रखने वाली जगह कम्फर्टेबल नहीं...तो फाईनली मैंने ढूंढना छोड़ दिया था कि जब मिलना होगा मिल जाएगा. इस वीकेंड हम सोफा ढूँढने चले थे और मिल गयी ये 'थिंग ऑफ़ ब्यूटी इज अ जॉय फोरेवर'. हाई बैक, ग्राफिक अच्छे, मोशन सही...झूलना एकदम कम्फर्टेबल. बस...हम तो ख़ुशी से उछल पड़े. बुक कराया और घर चले आये ख़ुशी ख़ुशी.

मंडे को कुर्सी घर आई और तब से दिन भर इसपर हम लगातार इतना झूला झूले हैं कि कल रात को हलके चक्कर आ रहे थे...जैसे तीन दिन के ट्रेन के सफ़र के बाद आते हैं. पर यार कसम से...क्या लाजवाब चीज़ है...इसपर बैठ कर फ़ोन पर बतियाना हो कि कुछ किताब पढना हो या कि ख्याली पुलाव पकाने हों...अहह...मज़ा ही कुछ और है. ये फोटो ठीक कुर्सी के आते ही खींची गयी है...पीछे में हमारा लैपटॉप...और कॉपी खुली है जिसमें कि कुछ लिख रहे थे उस समय.

दूसरी चीज़ जिसपर हमारा दिल आया हुआ है वो है ये कॉफ़ी मग...इसके कवर में एक बेहद प्यारी और क्यूट बिल्ली बनी हुयी है. इसकी छोटी छोटी आँखें...लाल लाल गाल और कलर कॉम्बिनेशन...सफेत पर काली-नीली...ओहो हो...क्या कहें. देखते साथ लगा कि ये बिल्ली तो हमें घर ले जानी ही होगी उठा कर. कल सुबह इस मस्त कप में कॉफ़ी विद हॉट चोकलेट पिया...कितना अच्छा लगा कि क्या बताएं. टेबल पर रखा भी रहे इतना अच्छा कॉफ़ी मग न तो उसे देख कर ही कुछ कुछ लिखने का मन करे. मुझे न अपने घर में वैसे तो ख़ास आर्डर की दरकार नहीं है. घर अधिकतर बिखरा हुआ ही रहता है...पर कुछ चीज़ें मुझे एकदम अपनी वाली चाहिए होती हैं, उसमें कोई कम्प्रमाइज नहीं कर सकती. जैसे चोकलेट या कॉफ़ी पीनी होगी तो अपने कॉफ़ी मग में ही पियूंगी...उसमें किसी और को कभी नहीं दूँगी. बहुत पजेसिव हूँ अपनी पसंदीदा चीज़ों को लेकर.

तीसरी चीज़ जिसके लिए हम एकदम ही पागल हो रखे हैं वो है हमारी नयी कलम...लिखने को लेकर हम वैसे भी थोड़े सेंटी ही रहते हैं. पहली बार हम खुद के लिए महंगा पेन ख़रीदे हैं...हमको अच्छे पेन से लिखना अच्छा लगता है...उसमें भी नीले या काले रंग के इंक से लिखने में मज़ा नहीं आता...इंक भी हमेशा कुछ दूसरा रंग ही अच्छा लगता है. ये मेरा पहला पार्कर है...इंक पेन...और रंग एकदम जैसा मुझे पसंद हो...पेन की बनावट भी ऐसी है कि लिखने में सुविधा होती है. निब एकदम स्मूथ...कागज़ पर फिसलता जाता है. गहरे गुलाबी-लाल रंग का पेन इतना खूबसूरत है कि लिखने के पहले मन करता है पेन पर ही कुछ लिख लें पहले. आजकल इसमें शेल पिंक इंक भरा हुआ है :) जिस दिन से पेन लायी हूँ...कॉपी में बहुत सारा कुछ जाने क्या क्या लिख लिया है.

संडे को नयी इंक भी खरीदी...ओरेंज क्रश...तो मेरे पास तीन अच्छी अच्छी कलर की इंक्स हो गयीं हैं...Daphne Blue, Shell Pink and Orange Crush. अधिकतर फिरोजी रंग से ही लिखती हूँ...मुझे बहुत अच्छा लगता है...खुश खुश सा रंग है, पन्ने पर बिखरता है तो नीला आसमान याद आता है...खुला खुला. पर पिछले कई दिनों से एक ही रंग से लिख रही थी और नारंगी रंग को उसी बार देख भी रखा था...नारंगी रंग भी अच्छा है...खुशनुमा...फ्रेश...बहार के आने जैसा. मैं अधिकतर इन दोनों रंग से लिख रही हूँ आजकल. फिर से चिट्ठी लिखने को मन कर रहा है...सोच रही हूँ किसको लिखूं. हरे रंग से लिखने का फिर कभी मूड आएगा तो लिखूंगी.

तो अगर आप मेरे घर आये हो...और मैं आपको अपनी रॉकिंग चेयर पर बैठने देती हूँ...और अपने फेवरिट मग में कॉफ़ी पेश करती हूँ और कॉपी देकर कहती हूँ...औटोग्राफ प्लीज...तो मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ...इसमें से एक भी मिसिंग है तो यु नो...वी आर जस्ट गुड फ्रेंड्स ;-)  ;-)

ya ya...I am a materialistic girl! :-) 

20 March, 2012

दरख़्त के सीने में खुदे 'आई लव यू'

इससे अच्छा तो तुम मेरे कोई नहीं होते 
गंध...बिसरती नहीं...मुझे याद आता है कि जब उसके सीने से लगी थी पहली बार...उदास थी...क्यूँ, याद नहीं. शायद उसी दिन पहली बार महसूस हुआ था कि हम पूरी जिंदगी साथ नहीं रहेंगे. एक दिन बिछड़ना होगा...उसकी कॉटन की शर्ट...नयेपन की गंध और हल्का कच्चापन...जैसे आँखों में कपास के फूल खिल गए हों और वो उन फाहों को इश्क के रंग में डुबो रहा हो...गहरा लाल...कि जैसे सीने में दिल धड़कता है. आँखें भर आई थीं इसलिए याद नहीं कि उस शर्ट का रंग क्या था...शायद एकदम हल्का हरा था...नए पत्तों का रंग उतरते जो आखिरी शेड बचता है, वैसा. मैंने कहा कि ये शर्ट मुझे दे दो...उसने कहा...एकदम नयी है...सबको बेहद पसंद भी है...दोस्त और घर वाले जब पूछेंगे कि वो तो तुम्हारी फेवरिट शर्ट थी...कहाँ गयी तो क्या कहूँगा...मैंने कहा कि कह देना अपनी फेवरिट दोस्त को दे दिया...पर यु नो...दोस्त का इतना हक नहीं होता.
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तुम मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो 
और फिर लौट आने को...मन की दीवार पर पेन्सिल से लिखा है...शायद अगली दीवाली में घर पेंट होगा तो इसपर भी एक परत गुलाबी रंग की चढ़ जायेगी...पर तब तक की इस काली लिखावट और उसके नीचे के तुम्हारे इनिशियल्स से प्यार किये बैठी हूँ. तुम्हें लगता है कि पेन्सिल से लिखा कुछ भी मिटाया जा सकता है...पागल...मन की दीवार पर कोई इरेजर नहीं चलता है...तुम्हें किसी ने बताया नहीं?
सुनती हूँ कि तुम्हारे घर में एक नन्हा सा तुम्हारा बेटा है...एक खूबसूरत बीवी है...बहुत सी खुशियाँ हैं...और सुना ये भी है कि वहां एक छोटा सा स्टडी जैसा कमरा खाली है...अच्छे भरे पूरे घर में खाली कमरा क्या करोगे...वहां उदासी आ के रहने लगेगी...या कि यादें ही अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जायेंगी. इससे तो अच्छा मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो...पेईंग गेस्ट यु सी. मेरा तुम्हारा रिश्ता...कुछ नहीं...अच्छा मकान मालिक वो होता है जो किरायेदार से कम से कम मेलजोल रखे.
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कितने में ख़रीदा है सुकून?
खबर मिली है कि पार्क की एक बेंच तुमने रिजर्व कर ली है...रोज वहां शाम को बैठ कर किसी लड़की से घंटों बातें करते हो. अब तो रेहड़ी वाले भी पहचानने लगे हैं तुम्हें...एकदम वक़्त से मुन्गोड़ी पहुंचा देते हैं और मूंगफली भी...और चिक्की भी...ऐसे मत कुतरो...किसी और का दिल आ गया तो इतनी लड़कियों को कैसे सम्हालोगे?
दिल्ली जैसे शहर में कुछ भी मुफ्त तो मिलता नहीं है. सुकून कितने में ख़रीदा वो तो बताओ...अच्छा जाने दो...उस पार्क के पुलिसवाले को कितना हफ्ता देते हो रोज़ वहां निश्चिंत बैठ कर लफ्फाजी करने के लिए. ठीक ठीक बता दो...मैं पैसे भिजवा दूँगी...किसी और से बात करने के लिए क्यूँ? खुश रहते हो उससे बात करके...ये भी शहर ने बता दिया है...अरे दिल्ली में मेरी जान बसती है...तुम में भी...तुम्हारा सुकून इतने सस्ते मिल रहा है...किसी और के खरीदने के पहले मैं खरीद लेती हूँ...आखिर तुम्हारा पहला प्यार हूँ.
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सारे तारे तुम्हारी तरफदारी करते हैं 

तुम तो बड़े वाले पोलिटिशियन निकले, सारे सितारों को अपनी साइड मिला लिया है...ऐसे थोड़े होता है. एक सूरज और एक चाँद...ऐसे तो मेरा केस बहुत कमजोर पड़ जाएगा...तुमसे हार जाने को तो मैं यूँ ही बैठी थी तुम खामखा के इतने खेल क्यूँ खेल रहे हो...जिंदगी भले शतरंज की बिसात हो...इतना प्यार करती हूँ कि हर हाल में तुमसे 'मात' ही मिलनी थी. चेकमेट क्यूँ...प्लेमेट क्यूँ नहीं...मुझे ऐसे गेम में हराने का गुमान पाले हुए हो कि जिसमें मेरे सारे मोहरे कच्चे थे. इश्क के मैदान में उतरो...शाह-मात जाने दो...गेम तो ऐसा खेलते हैं कि जिंदगी भर भूल न पाओ मुझे.
लोग एक चाय की प्याली में अपना जीवनसाथी पसंद कर लेते हैं...तुम्हारी तो शर्तें ही अजीब हैं...सारी चालें देख कर प्यार करोगे मुझसे?
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कैन आई काल यू 'हिकी'?
तुम्हारे दांतों से जो निशान बनते हैं उन्हें गिन कर मेरी सहेलियां अंदाज़ लगाती हैं कि तुम मुझसे कितना प्यार करते हो. अंदाज़ तो ये भी लगता है कि इसके पहले तुम्हारी कितनी गल्फ्रेंड्स रही होंगी...ये कोई नहीं कहता. हिकी टैटू की तरह नहीं होता अच्छा है...कुछ दिन में फेड हो जाता है. तुम्हारा प्यार भी ऐसा होगा क्या...शुरआत में गहरा मैरून...फिर हल्का गुलाबी...और एक दिन सिर्फ गोरा...दूधधुला...संगेमरमर सा कन्धा...अछूता...जैसे तुमने वाकई सिर्फ मेरी आत्मा को ज़ख्म दिए हों.
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उनींदी आँखों पर तुम्हारे अख़बार का पर्दा 
यु नो...आई यूज्ड तो हेट टाइम्स आफ इंडिया...पर ये तब तक था जब तक कि हर सुबह आँख खोलते ही उसके मास्टहेड की छाँव को अपनी आँखों पर नहीं पाती थी...तुम्हें आती धूप से उठना पसंद था...और मुझे आती धूप में आँखें बंद कर सोना...धूप में पीठ किये खून को गर्म होते हुए महसूसना...पर तुम्हारी शिकायत थी कि तुम्हें सुबह मेरा चेहरा देखना होता था...तो तुमने अख़बार की ओट करनी शुरू की.
आज अर्ली मोर्निंग शिफ्ट थी...सुबह एक लड़का टाइम्स ऑफ़ इण्डिया पढ़ रहा था...तुम्हें देखने की टीस रुला गयी...मालूम है...आज पहली बार अख़बार के पहले पन्ने पर तुम्हारी खबर आई थी...बाईलाइन के साथ...अच्छा तुम्हें बताया नहीं क्या...तुमसे ब्रेकऑफ़ के बाद मैंने टाइम्स ऑफ़ इण्डिया...सबस्क्राइब कर लिया था.
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सिक्स्थ सेन्स हैज नो कॉमन सेन्स 
मेरी छठी इन्द्रिय को अब तक खबर नहीं पहुंची है कि मैं और तुम अलग हो गए हैं...कि अब तुम्हारे लिए दुआएं मांगने का भी हक किसी और का हो गया है. किसी शाम तुम्हारा कोई दर्द मुझे वैसे ही रेत देता है जैसे तुम्हारे जिस्म पर बने चोट के निशान. मैं उस दोस्त क्या कहूँ जो मुझे बता रहा था कि पिछले महीने तुम्हरा एक्सीडेंट हुआ था...कह दूं कि मुझे मालूम है? वो जो तुम्हारी है न...उससे कहो कि तुम्हारा ध्यान थोड़ा ज्यादा रखे...या कि मैं फिर से तुम्हारा नाम अपनी दुआओं में लिखना शुरू कर दूं?
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आखिरी सवाल...डू यू स्टिल रिमेम्बर टू हेट मी?

03 March, 2012

फिगरिंग मायसेल्फ आउट

लिखो. काटो. लिखो. काटो.
लिखना जितना जरूरी है काटना भी उतना ही जरूरी है...लिख के मिटाओ मत...पेन्सिल से मत लिखो कि पेन्सिल की कोई याद बाकी नहीं रहती...इरेजर बड़ी सफाई से मिटाता है...जैसे कि गालों से पोछती हूँ आंसू...तुम्हें सामने देख कर...नहीं सामने कहाँ देखती हूँ...इन्टरनेट पर देख कर ही...तुम जब तस्वीरों में हँसते दिखते हो...बड़े भले से लगते हो...मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने लगती हूँ. बहुत मिस करती हूँ दिल्ली का वक़्त जब सारे दोस्त साथ में थे...

कल दो अद्भुत चीज़ें देखीं...Lust for life...Van Gogh की जिंदगी पर बनी फिल्म देखी और गुरुदत्त पर एक किताब पढ़ी...गुरुदत्त जब २८ साल के थे उन्होंने प्यासा का निर्माण किया था...अबरार अल्वी २६ के...सोच रही हूँ उम्र के सींखचों में लोगों को बांटना कितना सही है...क्या उन्हें मालूम था कि जिंदगी बहुत थोड़ी है...क्या उन्होंने शिद्धत से जिंदगी जी थी. अजीब हो रखी है जिंदगी भी...गुरुदत्त की चिठ्ठियाँ पढ़ती हूँ, लगता ही नहीं है कि इस शख्स को गए इतने साल हो गए...लगता है ये सारे ख़त उसने मुझे ही लिखे हैं...कुछ हिंदी में, कुछ इंग्लिश में और कुछ बंगला में...ताकि मेरी बांगला थोड़ी अच्छी हो सके. प्रिंट हुए पन्नों से एक पुरानी महक महसूस होती है. इस बार दिल्ली गयी थी तो स्मृति ने एक चिट्ठी दिखाई जो मैंने उसे ९९ में लिखी थी...उसने मेरी कितनी सारी चिट्ठियां सम्हाल के रखी हैं...मेरे हिस्से तो बस इंतज़ार और उसे ढूंढना आया...कितने सालों उसे तलाशती रही...तब जबकि उसे लगता था कि मैं उसे भूल गयी हूँ...कैसा इत्तिफाक था न...फ़िल्मी कि दुनिया के दो हिस्सों में हम दोनों अलग अलग तरह से एक दूसरे को याद करना और सहेजना कर रहे थे. 


कल की किताब का नाम था 'Ten years with Guru Dutt...Abrar Alvi's journey' लेखक का नाम सत्य सरन है...मुझे सारे वक़्त समझ नहीं आया कि किताब इंग्लिश में क्यूँ थी...हिंदी में क्यूँ नहीं. बैंगलोर में होने के कारन बहुत सी चीज़ें मिस हो जाती हैं...उसमें सबसे ज्यादा खोया है मेरा किताबें ढूंढना...दिल्ली में सीपी में किताबें खरीदने का अपना मज़ा था...अनगिन किताबों को देखना, छूना, उनकी खुशबू महसूसना और फिर वो किताब खरीदना जिसने हाथ पकड़ कर रोका हो. गुरुदत्त पर ये किताब बहुत अच्छी नहीं थी...पर कहानियां बेहद दिलचस्प थीं...अबरार अल्वी की नज़र से गुरुदत्त को देखना बहुत अच्छा लगा. गुरुदत्त मुझे बहुत फैसीनेट करते हैं...उनपर लिखा हुआ कुछ भी देखती हूँ तो खरीद लेती हूँ अगर पास में पैसे रहे तो. गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब एक दिन ऐसे ही दिखी थी...थोड़ी महँगी थी...मंथ एंड चल रहा था...सोची कि सैलरी आने पर खरीद लूंगी...फिर वो किताब जो गायब हुयी तो लगभग दो साल तक लगातार हर जगह ढूँढने के बाद मिली.


गुरुदत्त भी बहुत सारे रीटेक लेते थे...प्यासा के बारे में पढ़ते हुए वोंग कर वाई याद आये...उनकी भी 'इन द मूड फॉर लव' ऐसे ही बिना स्क्रिप्ट के बनी थी...फिल्म किरदारों के साथ आगे बढती थी...सोचती हूँ...किसी की भी जिंदगी के रशेस ले कर कोई अच्छा डाइरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. किसी भी से थोड़ा पर्सनल उतरती हूँ...अपनी जिंदगी के पन्ने पलटती हूँ...कई बार लगता है कि ऊपर वाला एक अच्छा निर्देशक है पर एडिटर होपलेस है...उसे समझ नहीं आता कि रोती हुयी आँखें स्क्रीन पर बहुत देर नहीं रहनी चाहिए और ऐसी ही कुछ माइनर मिस्टेक्स पर हम मिल कर काम करेंगे तो शायद कुछ अच्छा रच सकेंगे.


मेरा एक स्क्रिप्ट पर काम करने का मन हो रहा है...पर फिर मुझे रोज एक दोस्त की जरूरत पड़ने लगती है जो मेरा दिन भर का सोचा हुआ सुने...दिल्ली के IIMC के दिन याद आते हैं...पार्थसारथी पर के...कुछ शामें...चाय के कुल्हड़ में डूबे...घास पर अँधेरा घिरने के बाद भी देर तलक बैठे ... अपने-अपने शहरों में गुम कुछ दोस्त...सोचने लगती हूँ कि दोस्तों का कितना बड़ा हिस्सा था मेरे 'मैं' में...कि उनके बिना कितनी खाली, कितनी तनहा हो गयी हूँ. जाने तुम लोगों को याद है कि पर राज, शाम, सोनू, बोस्की, इम्बी...तुम लोग कमबख्त बहुत याद आते हो. विवेक...कभी कभी लगता है थैंक यू बोल के तेरे से थप्पड़ खा लूं...बहुत बार सम्हाला है तूने यार. 


मैं जब मूड में होती हूँ तो एक जगह स्थिर बैठ नहीं सकती फिर मुझे बाहर निकलना पड़ता है...बाइक या कार से...वरना घर में पेस करती रहती हूँ और बहुत तेज़ बोलती हूँ...सारे शब्द एक दूसरे में खोये हुए से. हाथ हवा में घूम घूम कर वो बनाते रहते हैं जो उतनी तेज़ी में मेरे शब्द मिस कर जाते हैं.


दूसरा एक मेजर पंगा है...आई नो किसी और को ये नहीं होता...I need a muse...I need to be madly in love to work on something...फिलहाल कोई आइडिया ऐसा नहीं है कि रातों की नींद उड़ जाए...दिन को सो न पाऊं...हाँ जिस तरह का बिल्ड अप है शायद कोई उड़ता ख्याल आ ठहरे...तब तक इस इन्सिपिड थौट का कुछ करती हूँ. कुछ है जो सी स्टोर्म की तरह मन में भंवरें बना रहा है...


बहुत कुछ है...बहुत कुछ बिखरा हुआ इस खूबसूरत जिंदगी में...लेकिन फ़िलहाल...दोस्त, तेरी याद आ रही है...बंगलौर बहुत दूर है मगर यहाँ सबसे अच्छे कैफे हैं जहाँ धूप का टुकड़ा होता है...खिलते फूल होते हैं...खुनकी लिए हवाएं होती हैं और मैं होती हूँ न...मुस्कुराती, गुनगुनाती...सुन न...एक असाइंमेंट सेट कर न इस शहर का...तेरे से मिलने का मन कर रहा है. बहुत दिन हुए दोस्त!

15 February, 2012

पतझड़ का शहर

उसके शहर में
बहुत करीने से गिरते थे पत्ते भी

अक्सर सोचता हूँ 
दुनिया में कुछ है भी
जो उसकी तरह बिखरा हुआ है
या कि बेतरतीब 

सूखे पत्तों पर बाइक उड़ाती लड़की
मुझसे यूँ प्यार न करो
अभी मेरा दिल हरा ही है
अभी इंतज़ार अधूरा बाकी है 

तुम तो मौसम की तरह गुज़र जाओगी
पर मैं कतार में कैसे बिखेरूँगा सूखे पत्ते 

कि तुम कैसे पहचानोगी वापसी की राह?
तुम्हारी तसवीरें देख कर एक ही बात सोचता हूँ
तुम वाकई करोगी क्या मुझसे प्यार...ताउम्र?

या कि तुम्हें भी झूठे वादे करने
और झूठी कसमें खाने में लुत्फ़ आता है?

(एक लड़की थी...एक नंबर की झूठी...और वैसी ही दिलफरेब...एक शहर था...जिसे उस लड़की से प्यार हो गया था...एक लड़का था जिसे वो शहर दरवाजे पर रोक लेता था...और इश्क था...एक नंबर का बदमाश...ये इन तीनो(चारों?) की कहानी है. हाँ, इस कहानी के सारे पात्र असली हैं...बस उनका पता नहीं मिलता)

05 February, 2012

उसने किसी दूसरी कायनात का सूरज हमारे होठों पर टाँक दिया...

'तो? क्या चाहिए?
'तुम चाहिए'
'अच्छा, क्या करोगी मेरा?'
'बालों में तेल लगवाउंगी तुमसे' 
'बस...इतने छोटे से काम के लिए मैं तुम्हारा होने से रहा...कुछ अच्छा करवाना है तो बोलो'

'तुम हारे हुए हो...तुम्हारे पास ना बोलने का ऑप्शन नहीं है'
'अच्छा जी...कब हारा मैं तुमसे? मैंने तो कभी कोई शर्त तक नहीं लगाई है'
'अच्छा हुआ तुम्हें भी याद नहीं...मैं तो कब का भूल गयी कि तुम कब खुद को हारे थे मेरे पास...अब तो बस ये याद है कि तुम मेरे हो...बस मेरे'

'तो ठकुराइन हमसे वो काम करवाइए न जो हमें अच्छे से आता हो'
'मुझे तुम्हारे शब्दों के जाल में नहीं उलझना...तुम्हारे कुछ लिख देने से मेरा क्या हो जाएगा...सर में दर्द है, आ के मेरे बालों में उँगलियाँ फेरो तो तुम्हारे होने का कुछ मतलब भी हो...वरना वाकई...तुम्हारा जीना बेकार है'

'बस इतने में मेरा जीना बेकार हो गया?'
'और नहीं क्या अपनी प्रेमिका के बालों में तेल लगाने से महत्वपूर्ण कुछ और भी है तुम्हारी जिंदगी में तो ऐसी जिंदगी का क्या किया जाए!'
'आप और मेरी प्रेमिका...अभी तो आप कह रही थीं कि मैं हारा हुआ हूँ खुद को आपके पास...कि आप तो बेगम हैं'
'खूब जानती हूँ तुम्हें...देखो...ये बेगम शब्द कहा...कुछ और भी तो कह सकते थे'
'कुछ और जैसे कि...जान...महबूब...मेहरबां...या फिर कातिल?'
'हद्द हो...कितनी बात बनाते हो...मैं तो कह रही थी कि मालकिन, रानी साहिबा, मैडम या ऐसे अधिकार वाले शब्द'
'चलो बता दो इनमें से कौन सा शब्द गलत है...जान तुम में बसती है...महबूब तुम हो मेरी...और पल बदलते मेहरबान होती हो और पल ठहरते कातिल.'
'जाओ हम तुमसे बात नहीं करते'

'गलत इंसान से रूठ रही हो!'
'ओये लड़के...प्यार तुझसे करुँगी तो रूठने क्या पड़ोसी से जाउंगी?...हाँ प्यार गलत इंसान से कर लिया है...सीधे सीधे कह दो न .'
'प्यार गलत इंसान से कर लिया है...अब मैं अपना क्या करूँगा?'
'मेरे हो जाओ'
'अब क्या होना बाकी रह रखा?'

'ईगो बहुत है तुममें'
'अच्छा तो अब हमें तोड़ के भी देखोगी?...जान क्यों नहीं लेती हो हमारी?'
'अरे...फिर मेरे बालों में तेल कौन लगायेगा?'

'तौबा री लड़की! तू वाकई अपने जैसी अकेली है...तुझे खुदा से भी डर लगता है भला?'
'डरें मेरे दुश्मन...हमने भला कौन सा गुनाह किया है कभी'
'तूने री लड़की...गुनाह-ए-अज़ीम किया है'
'अच्छा...वो क्या भला?'
'इश्क़'
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आखिरी लफ्ज़ कहते हुए महबूब की आँखों में शरारत नाच उठी...उसने किसी दूसरी कायनात का सूरज हमारे होठों पर टाँक दिया...उस एक सुलगते बोसे से मेरे होठ आज तक महक रहे हैं...कि आज भी जब मैं हंसती हूँ तो लोग कहते है कि मेरे होठों से रौशनी के फूल झरते हैं. 

04 February, 2012

अश्क़ और इश्क़ में एक हर्फ़ का ही तो फर्क है.

तुम्हारी जिंदगी में मेरी क्या जगह है?’
तिल भर
बस?’
हाँ, बस। बायें हाथ की तर्जनी पर, नाखून से जरा ऊपर की तरफ एक काले रंग का तिल है...वही तुम हो।‘’
वहीं क्यूँ भला?’
दाहिने हाथ से लिखती हूँ न, इसलिए
ये कैसी बेतुकी बात है?’
अच्छा जी, हम करें तो बेतुकी बात, तुम कहो तो कविता
मैंने कभी कुछ कहा है कविता के बारे में, कभी तुम्हें सुनाया है कुछ...तो ताने क्यों दे रही हो?’
नहीं...मगर मैंने तुम्हारी डायरी पढ़ी है
तुम्हें किसी चीज़ से डर लगता भी है, क्यूँ पढ़ी मेरी डायरी बिना पूछे?’
तुम मेरी जिंदगी में किसकी इजाजत ले कर आए थे?’
तुमने कभी कहा कि यहाँ आने का गेटपास लगता है? फिर तुमने वापस क्यूँ नहीं भेजा?’

तुम शतरंज अच्छी खेलते हो न?’
तुम मुझसे प्यार करती हो न?’
तुमसे तो कोई भी प्यार करेगा
मैंने ओपिनियन पोल नहीं पूछी तुमसे...तुम अपनी बात क्यूँ नहीं करती?’

मेरे मरने की खबर तुम तक बहुत देर में पहुंचेगी, जब तुम फूट फूट कर रोना चाहोगे मेरे शहर के किसी अजनबी के सामने तो वो कहेगा "अब तो बहुत साल हुये उसे दुनिया छोड़े...अब क्या रोना.....तुम्हें किसी ने बताया नहीं था....अब तो उसे सब भूल चुके हैं"...'
तुम मुझसे पहले नहीं मरने वाली हो, इतना मुझे यकीन है
अच्छा तो अब काफिर नमाज़ी होने चला है, तुम कब से इतनी उम्मीदों पर जीने लगे?’

लड़के ने लड़की का बायाँ हाथ अपने हाथ में लिया और तिल वाली जगह को हल्के हल्के उंगली से रगड़ने लगा। लड़की खिलखिलाने लगी।
क्या कर रहे हो?’
तुम्हारा क्या ठिकाना है लड़की, देख रहा हूँ कि सच में तिल ही है न कि तुमने मुझे बहलाया है
भरोसा नहीं हमपे और इश्क़ की बातें करते हो! बचपन से है तिल...कुछ लिखते समय जब कॉपी को पकड़ती हूँ तो हमेशा सामने दिखता है। ये तिल मेरे लिख हर लफ्ज का नजरबट्टू है...तुम्हें चिट्ठी लिखती हूँ तो वो थोड़ा सा फिसल कर तुम्हारे नाम के चन्द्रबिन्दु में चला जाता है।
यानि तुम्हारे साथ हमेशा रहूँगा...चलो तिल भर ही सही
ऐसा कुछ पक्का नहीं...दायें हाथ में एक तिल था...अनामिका उंगली में...पता है उसके कारण वो उंगली ढूंढो वाला खेल कभी खेल नहीं पाती थी...साफ दिख जाता था...वो तिल मुझे बहुत पसंद था...कुछ साल पहले गायब हो गया। आज भी उसे मिस करती हूँ...अपना हाथ अपना नहीं लगता।

तुम चली क्यूँ नहीं जाती मुझे छोड़ कर?’
इस भुलावे में क्यूँ हो कि तुम मेरे हो? मैंने कोई हक़ जताया तुमपर कभी? कुछ मांगा? तुमने कुछ दिया मुझे कभी? तो तुम कैसे मेरे हो? आँखें मीचते उठो...मैंने आज सुबह ही उगते सूरज से दुआ मांगी है...दिल पे हाथ रख के...कि तुम मुझे भूल जाओ।

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एक दिन बाद।

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तुमसे पहली बार बात कर रहा हूँ, फिर भी तुम मुझे जाने क्यूँ बहुत अपनी लग रही हो...जैसे कितने सालों से जानता हूँ तुमको...माफ करना...पहली बार में ऐसी बातें कर रहा हूँ तुम भी जाने क्या सोचोगी...पर कहे बिना रहा नहीं गया।'
इस बार लड़की कुछ न कह सकी, उसकी आँखों में पिछले कई हज़ार साल के अश्क़ उमड़ आए।
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उस नासमझ लड़की की दोनों दुआएँ कुबूल हो गईं थी।
लड़का उसे हर सिम्त भूल जाता था।
वो उस लड़के को कोई सिम्त नहीं भूल पाती थी।

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जब हम किसी से बहुत प्यार करते हैं तो उसकी खुशी की खातिर दुआएँ मांग तो लेते हैं...पर यही दुआएँ कुबूल हो जाएँ तो जान तुम्हारी कसम...ये इश्क़ जान ले लेगा हमारी किसी रोज़ अब। 

29 January, 2012

डायरी से कुछ नोट्स

मैं अपने साथ एक कॉपी लिए चलती हूँ आजकल...जब जो दिल किया लिख लेने के लिए...कल दो दिन से ढूंढ रही थी...एकबारगी तो डर भी लग गया कि कहीं प्लेन पर तो नहीं छूट गयी...यूँ तो उसके खोने का अफ़सोस भी बेहद बेहद ज्यादा होता पर इस बार इस अफ़सोस में सिर्फ अपने लिखे के खो जाने का अफ़सोस नहीं होता...कुछ यादें भी बिसर जातीं...जैसे कि धूप में बैठ कर अनुपम को अपना लिखा कुछ पढ़ते हुए देखना...और मन ही मन खुश होना...हल्ला करना कि ये वाला पन्ना मत पढ़ो न...या कि फिर सबसे जरूरी दो पन्ने कि जिसमें अनुपम और स्मृति ने कुछ लिखा है...अनुपम ने लिखा 'anything' और स्मृति ने 'अचार'. क्यूंकि दोनों महानुभावों को जब डायरी थमाई गयी तो दोनों ने पूछा क्या लिखूं...और दोनों के ठीक वही लिखा जो मैंने लिखने को कहा!

घर पर कुणाल ने कहा सब कुछ ऑनलाइन लिख दिया करो...सब यहाँ रखने पर भी कागज़ में कुछ रह जाता है जिसकी खुशबू नहीं जाती...फिर भी...कुछ टुकड़े तो सकेर ही देती हूँ. 

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तुम्हारी खुशबू कैसी थी?
ख़ुशी को अगर bottle किया जा सके तो शायद वैसी कुछ. 
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इश्क के चले जाने के बाद...
जो बाकी रह जाए, वही जिंदगी है. 
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धूप को कैसे लिखते हैं, उसकी सारी गर्मी, सारी खुशबुओं के साथ, और ख़ुशी को? सब अच्छा अच्छा से लगने के अहसास को?
अपने खुद के मिल जाने के अहसास को? इतना प्यार किन शब्दों में समेटूं? कहाँ सहेजूँ, कैसे सकेरूँ? शब्द तो पूरे पड़ते ही नहीं हैं!

कैसा रास्ता था न कि दोस्त हर कदम पर साथ खड़े थे, कि किसी ने एक भी लम्हा तनहा नहीं होने दिया,
कितना प्यार ओह कितना प्यार!
खुदा तेरा शुक्रिया!
२५.१.१२
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उस दिन मुझसे करना बातें
जिस दिन दिल के ज़ख्म भरे हों
वरना इतनी चुप्पी सुन कर
कट जायेंगे सारे टाँके
खुल जाएगा दर्द का गट्ठर
कैसे जियोगे तनहा रातें?

टूट बिखरना, मुझको थामे
साथ मेरे दरिया में बहना
सांस छुटे जब आँख थामना
मर जाने तक थामे रहना

मेरी पेशानी पर रख दो
दो दिन के दो बासी बोसे
मेरी आँखों को कह दो न
तुम मेरे हो, मेरे हो न?

१८.१.१२
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तस्वीरों के उस पार से
एक लड़की मुझे देख कर
किलकती है 
उसकी मुस्कराहट इतनी जेनुइन है
कि मुझे उससे जलन होने लगती है.

१४.१.१२
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जमीन से आसमान तक बहती हुयी नदी थी और उस नदी पर बादलों के बहुत सारे पुल थे. स्केल से खींचा हुआ सीधा समंदर था. सूरज की किरणें उड़ेलीं गयीं थीं बादलों के सारे टुकड़ों पर ज्यों कोई दोशीजा अपने भीगे बदन पर सुनहला पानी डाल रही हो नहाते हुए. 
No wonder, nature is the muse of so many artists. You can never get bored of it. Just when you are just about to begin to think you have seen it all, it bares another of its mysteries. 
प्रकृति की इस नयी अदा पर आज हम क्या कहें!
(कलकत्ता से बंगलोर आते हुए फ्लाईट में)

८.१.१२
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I come back to you the pen the way I come back to you, in pain. At the need to fill an abject vacuum in my life. A vacuum I don't understand myself. 

18.12.11
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Those that can smile with a broken heart are those that know how to plant white Lillies in the fault lines that have formed. 
18.11.11
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The memory of that day has started to blur around the edges. There are some fuzzy characters, a little sound wave that echoes off the walls of memory. A peeled wallpaper here, a coffee machine token there. Air is still dense with cigarette smoke seen through burning, red eyes. The day passes in a jiffy and all that remains of that memory is relegated to black&white. The only thing that remains lifelike in that portrait is a caption written in green ink at the bottom white portion of the photograph.
'His eyes are brown'.
12.11.11
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20 January, 2012

रात के ठीक साढ़े ग्यारह बजे...

हजारों किलोटन का एक हवाई जहाज़ है...उसकी सारी धमनियां बिछा कर एक रनवे बना दिया गया है...कहीं का पढ़ा हुआ बेफुजूल का कुछ याद आता है कि शरीर की सारी धमनियों को निकाल कर, जोड़ कर एक सीध में लपेटा जाए तो पूरी धरती के चारों ओर कुछ सात बार फिर जायेंगी...या ऐसा ही कुछ. उसे ठीक याद नहीं है. उसे याद आती है उस लड़की की परिधि...उसके इर्द गिर्द कस के लपेटा गया दुपट्टा...जब कि वो मोहल्ले की छत पर कित कित खेल रही होती थी. 

विमान बहुत तेज़ी से रनवे पर दौड़ रहा है और उसके भार से उसके फेफड़े सांस नहीं खींच पा रहे हैं...ऐसा लगता है किसी ने उसे भींच कर सीने से लगाया हो...और वो वहीं मर जाना चाहता है...विमान रुकने का नाम ही नहीं लेता...पहियों के घर्षण से उसके मुलायम हाथ लावे की तरह दहकने लगे हैं...उसे लगता है कि वो इन हाथों में कैसे उसका चेहरा भरेगा...उसके गाल झुलस जायेंगे...फूल से नाज़ुक उसके गाल...वो चाहता है कि हवाईजहाज़ कहीं रुके...कहीं तो भी रुके कि सीने में अटकी हुयी सांस वापस खींच सके...इतने में उसे याद आता है कि कुछ देर पहले कंट्रोल रूम से एक फोन आया था उसे...उस तरफ लड़की का महीन कंठ था...मिन्नतों में भीगा हुआ...वो उड़ते उड़ते थक गयी है...थोड़ी देर उतरना चाहती है...थोड़ा इंधन भरना चाहती है...बस एक स्टॉपओवर...चंद लम्हों का. उसे  ये भी याद आता है कि उसने विमान उतारने की इज़ाज़त नहीं दी है और इसलिए विमान शहर के चक्कर काट रहा है. वो कशमकश में है...दुश्मन मुल्क का विमान उतरने दिया तो आगे चल कर बहुत से दुष्परिणाम होंगे...उसकी नौकरी भी जा सकती है...मगर फिर वो महीन आवाज़...मे डे(May Day) बरमूडा ट्राईएंगल में डूबते हुए लोगों की आखिरी आवाजों जैसी...अगर उसने ना कहा तो क्या ये आवाज़ उसे कभी सुकून से सोने देगी...इस पूरी जिंदगी के बाकी बचे दिन?

कॉफ़ी का मग लेकर वो फ्लास्क के पास गया है...अन्यमनस्क सा कॉफ़ी कप में भरता जाता है...धुंध में बिसरते शहर के सामने एक विमान घूम रहा है...उसकी लाइटें जल-बुझ रही हैं...लड़के को फिर से किसी की बुझती सांसें याद आती हैं...बाहर का तापमान दस डिग्री सेल्सियस है...विमान जिस उंचाई पर उड़ रहा है वहां तापमान कुछ माइनस १० डिग्री के आसपास ही होगा...वो सम की तलाश करने लगता है...कहीं जीरो पॉइंट...जहाँ उसे कुछ पल सुकून मिले. 

उसके पास सोचने को ज्यादा वक़्त नहीं है...जितने में कॉफ़ी की भाप उसके चश्मे पर जमे उसे साफ़ साफ़ निर्णय लेना है...और ठोस कारण देने हैं...कि क्यूँ दुश्मन मुल्क के विमान को उतरने की इज़ाज़त दी गयी...आवाज़ के कतरे की मूक प्रार्थना किसी नियमावली में नहीं गिनी जाती है...उसकी सदयता उसके खिलाफ बहुत आराम से इस्तेमाल की जा सकती थी...और वो वाकई नहीं जानता था कि आखिर किस कारण से ये भटका हुआ विमान मिटटी पर उतरने की इज़ाज़त चाहता था. दिल और दिमाग की जद्दोजहद में आखिर दिमाग ने बाज़ी जीती और उसने विमान को उतरने की इज़ाज़त नहीं दी...दूसरे पास के एयरपोर्ट के को-ऑर्डिनेट बताये उसे...हौसला अफजाही की...झूठ बोला कि विमान उतारने की जगह नहीं है. विमान की पाइलट लड़की ने जब सब डिटेल्स समझ लिए तो वो विमान आँखों से ओझल हो गया.

अगले दिन लड़का जब लॉग देख रहा था तो उसमें किसी विमान का कोई जिक्र नहीं था...उसने बारहा अपने कई और साथियों से पूछा कि उन्होंने  वो विमान देखा था...मगर किसी ने हामी नहीं भरी. 

घटना को बहुत साल हो गए...पर अब भी जब दिल्ली में कोहरा छाता है और रात के साढ़े ग्यारह बजते हैं...लड़का उस विमान का इंतज़ार करता है...वो किसी याद का छूटा हुआ प्रतिबिम्ब था...किसी और जन्म के इश्क की अनुगूंज...कि कौन थी वो लड़की...कि किसकी डूबती आवाज़ ने उसे पुकार कर कहा था...मैं उड़ते उड़ते थक गयी हूँ...मुझे अपनी बाँहों में एक लम्हा ठहर जाने दो...


लड़के का दिल खामोश है...कोई जिद नहीं करता... कुछ नहीं मांगता...कि कोई आवाज़ नहीं आती...कोई धड़कन नहीं उठती...



कि उसका दिल रूठा हुआ है आज भी...
कि उसे आज भी उसे जाने किस 'हाँ' का इंतज़ार है!

17 January, 2012

मैं तुमसे नफरत करती हूँ...ओ कवि!

वे दिन बहुत खूबसूरत थे
जो कि बेक़रार थे 
सुलगते होठों को चूमने में गुजरी वो शामें
थीं सबसे खूबसूरत 
झुलसते जिस्म को सहलाते हुए
बर्फ से ठंढे पानी से नहाया करती थी
दिल्ली की जनवरी वाली ठंढ में
ठीक आधी रात को 
और तवे को उतार लेती थी बिना चिमटे के
उँगलियों पर फफोले पड़ते थे
जुबान पर चढ़ता था बुखार
तुम्हारे नाम का

खटकता था तुम्हारा नाम 
किसी और के होठों पर
जैसे कोई भद्दी गाली 
मन को बेध जाती थी 
सच में तुम्हारा प्यार बहुत बेरहम था
कि उसने मेरे कई टुकड़े किये

तुम्हारे नाम की कांटेदार बाड़
दिल को ठीक से धड़कने नहीं देती थी
सीने के ठीक बीचो बीच चुभती थी
हर धड़कन


कातिल अगर रहमदिल हो
तो तकलीफ बारहा बढ़ जाती है
या कि कातिल अगर नया हो तो भी

तुम मुझे रेत कर मारते थे
फिर तुम्हें दया आ जाती थी 
तुम मुझे मरता हुआ छोड़ जाते थे
सांस लेने के लिए
फिर तुम्हें मेरे दर्द पर दया आ जाती थी
और फिर से चाकू मेरी गर्दन पर चलने लगता था 
इस तरह कितने ही किस्तों में तुमने मेरी जान ली 

इश्क मेरे जिस्म पर त्वचा की तरह था
सुरक्षा परत...तुम्हारी बांहों में होने के छल जैसा
इश्क का जाना
जैसे जीते जी खाल उतार ले गयी हो
वो आवाज़...मेरी चीखें...खून...मैं 
सब अलग अलग...टुकड़ों में 
जैसे कि तुम तितलियाँ रखते थे किताबों में
जिन्दा तितलियाँ...
बचपन की क्रूरता की निशानी 
वैसे ही तुम रखोगे मुझे
अपनी हथेलियों में बंद करके
मेरा चेहरा तुम्हें तितली के परों जैसा लगता है
और तुम मुझे किसी किताब में चिन देना चाहते हो 
तुम मुझे अपनी कविताओं में दफनाना चाहते हो
तुम मुझे अपने शब्दों में जला देना चाहते हो

और फिर मेरी आत्मा से प्यार करने के दंभ में
गर्वित और उदास जीवन जीना चाहते हो. 

मैं तुमसे नफरत करती हूँ ओ कवि!

20 December, 2011

हे नटराज!

ऐसी कैसे हूँ कि एकदम डर नहीं लगता...किसी भी चीज़ से...जिंदगी से नहीं...मौत से नहीं...बिखर जाने टूट जाने से नहीं...ऐसे कैसे कण कण से उजास फूट रहा है मेरे. आज क्या मिल गया है मुझे?

शिव तांडव स्त्रोत्र सुना...डमरू बजता है तो लगता है पूरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो रहे हैं...एकदम टूट जाने वाले...जैसे कि फिर महीन बालू की तरह रह जाउंगी मैं...और फिर इसी से सब कुछ रच डालूंगी. कुछ रचने में खुद को बहुत तोड़ना भी जरूरी हो जाता है. मुझे क्यूँ टूटने से डर नहीं लगता...कि हर बार टूटने के बाद हम खुद को जोड़ कैसे लेते हैं.

स्त्रोत्र सुनते हुए लग रहा है कि हम इश्वर से अलग नहीं हैं, वाकई हम उसका ही एक हिस्सा हैं, हमें काट कर निकाला गया है इश्वर से ही...कि हमारी आत्मा उस परमपिता का ही अंश है. कि शिव की तीसरी आँख है मुझमें वहीं कहीं भवों के बीच...इस तीसरी आँख की ज्वाला से खुद को जलाने के बाद फिर से बना भी लूंगी ये भी यकीन है मुझे. सर से पैर तक थरथरा रही हूँ...रेजोनेंस जिसमें कि आप किसी आवाज़ से ट्यून हो जाते हो...वैसे ही. समझ नहीं आ रहा  कि श्लोक बाहर बज रहा है या मेरे मन के अन्दर से...जैसे कोई सदियों पुरानी आवाज़ है जो मेरे पूरे होने से फूट रही है.

ऐसा होता है क्या कि शब्दों में चित्र छुपे हों? लंका की दीवारें दिखने लगती हैं...वहाँ तपस्या करता रावण...भक्त की तपस्या पर बार बार रीझते भोले शिव शंकर...और इस तांडव नृत्य का सब दृश्य खुल जाता है...सती का पार्थिव शरीर और पीड़ा के वे क्षण...मुझे भी महसूस होते हैं...और फिर क्रोध...सब कुछ जला देने वाला क्रोध. प्रलय लाने वाला क्रोध.

बचपन में एक बांगला तांडव नृत्य सिखाया गया था मुझे...छोटी सी थी और शिव बने हुए जटाजूट बांधे बहुत अच्छी लगती थी...वो नृत्य मुझे बेहद पसंद था...और बाकी लोगों को भी पसंद आता था शायद, कई बार उस स्कूल में रहते हुए वो नृत्य किया. आज फिर से उसके स्टेप्स याद करने की कोशिश कर रही थी पर याद नहीं आ रहा था...याद आती है तो पैरों की थाप से जो ध्वनि निकलती है जैसे तबले पर कोई 'सम' बजाये...गीत उठाने के लिए. बहुत बहुत देर तक पैर थिरकते रहे...एक एक शब्द, एक एक श्लोक जैसे आत्मा के तार छेड़ रहा हो. गोल गोल घूमते हुए सब कुछ धीमा लगता है और फिर दुनिया ऊपर नीचे...वैसा ही जैसे मेरे मन की हालत हो रखी है. भरतनाट्यम के बहुत पहले सीखे हुए कुछ स्टेप्स भी याद आये...बहुत कुछ गड्डमड्ड था...बस एक थिरकन थी जो मुझे बहाए जा रही थी.

देवघर से हूँ तो शंकर भगवान् हमारी हर चीज़ का हिस्सा हैं...इधर कुछ सालों से उनसे नाराज़ थी...आज लगता है वो गुस्सा, वो शिकायतें सारी बह गयीं...भोले बाबा फिर से मेरे उतने ही अपने हो गए जैसे उस समय हुए थे जब चार पांच की कच्ची उम्र में पहली बार देवघर के मंदिर के गर्भगृह में कदम रखा था. मन एकदम सहज है...जैसे शिवलिंग को छू लिया हो!

सुख जीवन में बहुत कम आता है...आज के दिन मन शांत होने और इस सुख की अवस्था के लिए सभी देवी देवताओं की जय!

17 December, 2011

उस भागते, बिसरते, भूलते, याद आते...ever elusive 'तुम' की तलाश में!

हम कैसे पागल लोग हैं न! सारे एक्सपेरिमेंट खुद पर करते हैं. जिंदगी एक फिल्म की तरह है जिसमें हमें हमेशा ऑप्शन दिया जाता है कि हम अपने एक्शन सीन खुद से करें या बॉडी डबल का इस्तेमाल कर लें. हम जिद्दी इंसान हैं कि अपने सारे स्टंट्स खुद ही करेंगे...हीरो बनना इसी को कहते हैं...तो क्या हुआ अगर हीरो कभी फिल्म के बीच में नहीं मरता...और हम कभी भी किसी भी दिन टपक सकते हैं.

इसी तरह पागलों की तरह इश्क करते रहेंगे तो शायद हम भी अपना नाम अमर कर जाएँ उन लोगों में जो एक्सेस में इंडल्ज करने के कारण मर गए...सब जगह पढ़ने में आता है...घर पर भी पापा मम्मी कितना समझाते रहे हमेशा कि 'बेटा, अति हर चीज़ की बुरी होती है' हम न समझे तो न समझे...प्यार की भी कोई तो लिमिट होती होगी. हमें ज्यादा मैथ समझ नहीं आता वरना इसका कोई फ़ॉर्मूला हम पक्का निकालते कि इंसान की उम्र के हिसाब से उसे कितने बार प्यार में होना सर्वाइव करने देगा और कब प्यार ही उसकी जान ले लेगा. 

हम कमबख्त...प्यार शब्द से भी दिल नहीं भरता तो उसे और भारी कर देते हैं 'इश्क' हाँ...अब लगता है कि कोई चीज़ है जिसपर जान दी जा सके. इश्क टर्मिनल इलनेस ही तो है...बताओ भला किसी को जानते हो जो इश्क में पड़ने के बाद मरने के पहले निकल पाया इससे? हम तो नहीं जानते. राल्फ स्टीनमैन की याद आई...न ना...असल में याद उस साइंटिस्ट की आई जिसने कैंसर से लड़ते हुए खुद पर ही एक्सपेरिमेंट किये और अपनी जिजीविषा से जितना जीना चाहिए था उससे ज्यादा दिया वो...नाम तो गूगल करना पड़ा अभी. नाम के मामले में अभी भी कच्ची हूँ. बताओ क्या जरूरी होता है...गूगल के ज़माने में क्या फर्क पड़ता है कि लोगों को आपका नाम याद न हो...ढूंढ लेंगे उसे. कल को मान लो जो कोई ढूंढें, वो लड़की वो इश्क की ओवरडोज से मर गयी तो क्या मेरा नाम आएगा? 

इश्क का नशा तो किसी भी नशे से बढ़ कर चढ़ता है न...ये दिल जो इस तरह कमबख्त धड़कता है बंद क्यूँ न कर देता है धड़कना...लिखना कितनी बड़ी आज़ादी देता है...हम क्यूँ नहीं ये सारे अहसास अपने किरदारों के द्वारा जी लेते  हैं...हम कैसे पागल हैं न कि जब तक खुद का दिल टूट के किरिच किरिच नहीं बिखरता लिख ही नहीं पाते. खुद को बार बार इस आग में जलने के लिए फ़ेंक देते हैं और फिर खुद ही बाहर खड़े होकर तमाशा देखते हैं कि ले बेट्टा! हम बोले थे न, बचो बचो...बेसी होशियार बन रहे थे...अब बूझो!

अनुपम हमको 'masochist' बोलता है...हम अपने आपको सुपरहीरो समझते हैं...पर प्यार तो सुपरमैन को भी कमजोर कर देता है...अनुपम हमको एक दिन साइनोसाइडल वेव भी बोल दिया...हमको लगा सुसाइडल बोल रहा है...दुष्ट है...साइन वेव नहीं कह सकता था...कोई भली लड़की सोचेगी कि कोई उसको साइनोसाइडल वेव भी बोल सकता है...उसपर बोलता है कुणाल से पूछो, जैसे कि इतना सिंपल चीज़ हमको पता ही नहीं होगा. हम सर पकड़ के बैठ गए...जिस चीज़ को लिखने के लिए इतना लम्बा पोस्ट लिख मारे उसके लिए एक टर्म था...वो भी फिजिक्स का...एक शब्द! समझ नहीं आया कि साइंस की खूबसूरती पर खुश हों या अपने अनगिन शब्दों के व्यर्थ होने पर सर कूट लें. 

जिंदगी हर स्टंट के लिए बॉडी डबल देने के लिए तैयार है...एक किरदार रचो और उसके थ्रू सब जी लो...दर्द, तड़प, विरह...मगर हम हैं कि नहीं...ईमानदार लेखक हैं, जो जियेंगे वही लिखेंगे...अपने माथा पे हाथ धर के कसम खाए हैं जो कहेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे. ई सबके बावजूद बहुत स्मूथ झूठ बोलते हैं...एकदम क्लासी व्हिस्की की तरह. फिलहाल स्टंट ये है कि एक समय में कितने लोगों की याद आ सकती है...खिड़की से चाँद दिखता है महीने के आधे दिन...मैं आधे पहर तो जागी रहती हूँ...उस वक़्त मेरा बॉडी डबल छत पर किसी तुम के साथ शैम्पेन पी रहा होता है...मैं लैपटॉप पर किटिर किटिर करती रहती हूँ. 

भोर नींद खुलती है...सोचती हूँ आज तुम्हारी आवाज़ सुनने को मिलेगी क्या...बाहर आती हूँ, तुलसी में जल देती हूँ...धूप को बंद पलकों से महसूस करती हूँ...हाथ भी जोड़ देती हूँ सूर्य देवता को, तुम्हारी याद कुछ ज्यादा आ रही हो तो या फिर स्मृति का एक्जाम हो तो. 

एक नंबर की झूठी हूँ...मेरी किसी बात का यकीन मत करो...वैसे तुम्हें बता दूं, घर के सामने नारियल के पेड़ पर एक पतंग अटकी हुयी है, पर्पल कलर की...उसे देख कर मांझे याद आये और उससे कटी उँगलियाँ...खून बहे तो तुम फ़िल्मी अंदाज़ में मेरी उँगलियाँ चूम लोगे या कि पतंग बचाने को मंझा और लटाई मेरे हाथ से ले लोगे? कौन ज्यादा प्यारी रे, मैं कि पतंग? ये वाला एक्सपेरिमेंट भी करके देखें? या कि बॉडी डबल को शैम्पेन के गिलास से निकालें और बोलें कि चिरकुट एक काम नहीं की लाइफ में, चलो एक ठो निम्बू पानी बना के लाओ तो...जोर का हैंगोवर हो रहा है. कल फिर किसी से बड़ी जोर का प्यार हो गया है हमको!

(इस पोस्ट के क्रेडिट रोल्स में है स्मृति...हमारे प्यारे प्यारे पतिदेव को जो कि अपने एक्सबॉक्स के गेम के बीच में हमको दूसरे रूम में जा के लिख लेने का परमिशन दिए और एक एकदम फ्रेश बनी दोस्त को जिसका नाम हम अभी पब्लिक फोरम में नहीं लेंगे)

14 December, 2011

तुम्हारे नाम चिट्ठी

हे इश्वर!

अखबारों में आया है कि आज तेरा एक कतरा मिला है तेरे जोगियों को...तेरी तलाश में कब से भटक रहे थे...तेरी तस्वीर भी आई है आज...बड़ी खूबसूरत है...पर यकीन करो, मेरे महबूब से खूबसूरत नहीं.

मेरा महबूब भी तुम सा ही है...उसके वजूद का एक कतरा मुझे मिल जाए इस तलाश में कपड़े रंग लिए जोगिया और मन में अलख जगा ली. सुबह उसके ख्यालों में भीगी उतरी है कि कहीं पहाड़ों पर बादल ने ढक लिया चाँद को जैसे...यूँ भी पहाड़ों में चाँद कम ही नज़र आता है जाड़े के इन दिनों...कोहरे में लिपटे जाड़े के इन दिनों.

ये भी क्या दिल की हालत है न कि तुम्हारी तस्वीर देख कर अपने महबूब की याद आई...बताओ जो ढूँढने से तुम भी मिल जाते हो तो मुझे वो क्यूँकर न मिल पायेगा. आज तो यकीन पक्का हुआ कि तुम हो दुनिया में...भले मेरी हाथों की पहुँच से दूर मगर कहीं तो कोई है जिसने तुम्हें देखा है...उन्ही आँखों से कि जिससे कोरा सच देखने में लोग अंधे हो जाते थे. तुम्हारा एक कतरा तोड़ के लाए हैं.

वैसा ही है न कुछ जैसे रावण शिव लिंग ले के चला था कैलाश से कि लंका में स्थापित करेगा और पूरे देवता उसका रास्ता रोकने को बहुत से तिकड़म भिड़ाने बैठ गए थे...और देखो न सफल हो ही गए. मगर जो मान लो ना होते तो मैं कहाँ से अपने महबूब की याद आने पर शंकर भगवान को उलाहना दे पाती कि हे भोला नाथ कखनS हरब दुःख मोर! मैं देखती हूँ कि आजकल मुझे याद तुम्हारी बहुत आती है...क्या तुमपर विश्वास फिर से होने लगा है? मेरे विश्वास पर बताओ साइंसजादों का ठप्पा कि तुम हो...जैसे कि मैं इसी बात से न जान गयी थी तुम्हारा होना कि दिल के इतने गहरा इतना इश्क है...

इश्क और ईश्वर देखो, शुरुआत एक सी होती है...इश्वर का मतलब कहीं वो तो नहीं जो इश्क होने का वर दे? हाँ मानती हूँ थोड़ा छोटी इ बड़ी ई का केस है इधर पर देखो न...अपना हिसाब ऐसे ही जुड़ता है. सुबह उठी तो मन खिला खिला सा था...सोचा कि क्यूँ तो महसूस हुआ कि जिंदगी में लाख दुःख हों, परेशानियाँ हों, कष्ट हों...मैं तुम्हें तब तक उलाहना नहीं देती तब तब प्यार है जिंदगी में.

आज सुबह बहुत दिन या कहो सालों बाद तुम्हारे प्लान पर भरोसा किया है...कि तुम्हारी स्कीम में कहीं कुछ सबके लिए होता है. अभी ही देखो, घर पर कितनी परेशानी है...पर शायद ऐसा ही वक़्त होता है जब मुझे तुम पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है. तुम मेरे इस भरोसे तो रक्खो या तोड़ दो...पर लगता तो है तुम कुछ गलत नहीं करोगे.

आज सुबह मन बहुत साफ़ है...जैसे बचपन में हुआ करता था...कोई दर्द नहीं, कोई ज़ख्म नहीं, कोई कसक नहीं. सोच रही हूँ कि वो जो अखबार में जो तस्वीर छपी है...उसमें कोई जादू भी है क्या? कि अपने महबूब की बांहों में होना ऐसा ही होगा क्या? कि हे ईश्वर तेरा ये कौन सा रूप है जिससे मैं प्यार करती हूँ? नन्हे पैरों से कालिया सर्प के फन पर नाचते हे मेरे कृष्ण...वो समय कब आएगा जब मैं तुम्हें सामने देख सकूंगी!

तुम्हारे प्यार में पागल,
पूजा 

29 November, 2011

जिंदगी, रिवाईंड.

आपके साथ कभी हुआ है कि आप अन्दर से एकदम डरे हुए हैं...कहीं से दिमाग में एक ख्याल घुस आया है कि आपके किसी अजीज़ की तबियत ख़राब है...या कुछ अनहोनी होने वाली है...और आपको वो वक़्त याद आने लगता है जब आपको पिछली बार ऐसा कुछ  महसूस हुआ था...नाना या दादा के मरने से कुछ दिन पहले...कुछ एकदम बुरी आशंका जैसी.

ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.

मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.

जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.

ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.

यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.

एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?

मम्मी का हाथ पकड़ने की कोशिश करती हूँ...वो दिखती है, एकदम साफ़...हंसती हुयी...मगर उसका हाथ पकड़ में नहीं आता...फिर से पानी में गोता खा गयी हूँ. उफ्फ्फ....सर्दी है बहुत. दांत बज रहे हैं.

आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड. 

खाली दिमाग का घंटाघर!

यूँ ही राह चलते क्या तलाशते रहते हो जब किसी से यूँ ही नज़रें मिल जाती हैं...किसी को तो ढूंढते हो. वो क्या है जो आँखों के सामने रह रह के चमक उठता है. आखिर क्यूँ भीड़ में अनगिन लोगों के होते हुए, किसी एक पर नज़र ठहरती है. वो एक सेकंड के हजारवें हिस्से में किसी की आँखों में क्या नज़र आता है...पहचान, है न? एक बहुत पुरानी पहचान. किसी को देख कर न लगे कि पहली बार देखा हो. जैसे कि इस खाली सड़क पर, खूबसूरत मौसम में अकेले चलते हुए तुम्हें उसे एक पल को देखना था...इतना भर ही रिश्ता था और इतने भर में ही पूरा हो गया.

रिश्तों की मियाद कितनी होती है? कितना वक़्त होता है किसी की जिंदगी में पहली प्राथमिकता होने का...आप कभी भी ताउम्र किसी की प्राथमिकता नहीं बन सकते, और चीज़ें आएँगी, और लोग आयेंगे, और शहर मिलेंगे, बिसरेंगे, छूटेंगे...कितना बाँधोगे मुट्ठी में ये अहसास कि तुम्हारे इर्द गिर्द किसी की जिंदगी घूमती है.

कुछ लोग आपके होते हैं...क्या होते हैं मालूम नहीं. वो भी आपसे पूछेंगे कि उनका आपसे रिश्ता क्या है तो आप कभी बता नहीं पायेंगे, किसी एक रिश्ते में बाँध नहीं पाएंगे. प्यार कभी कभी ऐसा अमूर्त होता है कि पानी की तरह जिस बर्तन में डाल दो उसका आकार ले लेता है. उनकी जरूरत के हिसाब से आपका उनसे रिश्ता बदलते रहता है. प्योर लव या विशुद्ध प्यार जैसा कुछ होता है ये. इसमें दुनियादारी की मिलावट नहीं होती. ऐसा कोई न कोई तो होता है...जो एक्जैक्टली आपका क्या लगता है आप खुद भी नहीं जान पाते. जानते हैं तो बस इतना कि आप उसे खुश देखना चाहते हैं. बस. इंग्लिश में एक ऐसा वाक्य आता है दिमाग में ऐसे लोगों के बारे में...हिंदी में मैं परिभाषित या अनुवाद नहीं कर पाती...यु बिलोंग टु मी(You Belong To Me) खास खास इस वाक्य को समझा भी नहीं पाउंगी, पर ऐसा ही कुछ होता है.

वैसे लोग होते हैं न...जैसे आपसे कोई दस साल छोटी बहन या भाई, आप उसे अपनी जिंदगी की सबसे मुश्किल चीज़ें भी बताते रहते हो...ये जानते हुए कि उसे नहीं समझ आ रहा. पर वो बहुत समझदारी से आपकी हर समस्या को सुनेगी...सुनती रहेगी. पर कभी किसी एक दिन उसकी छोटी सी दुनिया की छोटी सी समझ से एक ऐसा वाक्य निकलेगा कि आपकी समस्या एकदम कपूर की तरह उड़ जायेगी. आप चकित रह जायेंगे कि ये इसने खुद बोला है या इसके माध्यम से किस्मत आपको कोई रास्ता दिखा रही है.

मुझे लगता है प्यार की सबसे पहली डेफिनेशन होती है कि आपके लिए किसी की ख़ुशी जरूरी हो जाए. इसके आगे आप कुछ सोचते ही नहीं, न अच्छा न बुरा, दुनिया एकदम लीनियर हो जाती है. सब कुछ सीधी लाइन में चलता है. Cause and Effect नहीं रहता, बस एक चीज़ होती है, उसके चेहरे पर हंसी...मुस्कराहट. इसके लिए आप कुछ भी करने को तैयार रहते हो...जिस भगवान से गुस्सा हुए बैठे हो, उससे भी हाथ जोड़ कर उसकी ख़ुशी मांग लेते हो. सड़े हुए जोक्स मरते हो, जहरीले पीजे सुनते हो...सब करते हो, बस उसे एक बार हँसते हुए सुनने के लिए.

मैंने बहुत कम पढ़ा और लिखा है...पर जितनी जिंदगी जी है उससे एक चीज़ ही दिखती है मुझे, प्यार. आज भी इसके लिए सब वाजिब है...सब सही है...सब जस्टिफाइड है...मुझे जाने क्यूँ कभी प्यार पर लिखने से मन नहीं भरता. कुछ लोग...नहीं मालूम मेरे क्या हैं, बस मेरे हैं...इस बात पर यकीन है.

डेस्टिनी/किस्मत कुछ तो होती है वरना कुछ लोगों से आप जिंदगी भर नहीं मिल पाते और आप जानते तक नहीं कि क्या खाली है...तो सवाल घूम कर वहीं आ जाता है...भरी भीड़ वाले कमरे/रेलवे स्टेशन/तेज चलती गाड़ी/ट्रेन/एयरपोर्ट...आपको किसी की आँखों में एक लम्हे कौन सी पहचान नज़र आ जाती है कि आपको कहीं और देखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है.

ये कौन से रिश्ते हैं जो समझ नहीं आते...ये कैसे रिश्ते हैं जो एक लम्हे में पूरी जिंदगी जी लेते हैं...या फिर ये वो लोग हैं जो आपके अगले जन्म में आपसे मिलेंगे...अभी तो बस मार्क किया है आपको.

जब दिमाग में कोई ख्याल नहीं चल रहा होता...क्या चलता है? जब आप किसी को नहीं ढूंढ रहे होते, क्या ढूंढते हो? जब आपको कोई काम नहीं है तो मेरा ब्लॉग क्यूँ पढ़ते हो ( ;) बस देख रही थी कि कोई पढ़ भी रहा है कि नहीं, बहुत ज्ञान दे रही हूँ ऊपर :) )
बर्न की पार्लियामेंट बिल्डिंग से
अगर कोई आगे चलता हुआ जा रहा है तो ऐसे सवाल क्यूँ आते हैं कि वो पलटे तो हम देख सके कि उसकी आँखों का रंग कैसा है. मैं सदियों सदियों जाने किसकी आँखें स्केच कर रही हूँ जो पूरी ही नहीं होती. ऐसा कोई भी तो नज़र नहीं आता जिसकी आँखें वैसी हैं जो मुझे पेंट करनी हैं...मैं किसे तलाश कर रही हूँ. आइना देखती हूँ तो कई बार लगता है...खुद की तलाश शायद इसी को कहते हैं. किताबें कहती हैं, सब कुछ तुम्हारे अन्दर है...सोचती हूँ, सोचती हूँ...अपने अन्दर उतर नहीं पाती...जाने कहाँ सीढ़ी है. ध्यान करने बैठती हूँ तो चाहने लगती हूँ कि तुम खुश रहो...सबके मुस्कुराते चेहरे सामने आने लगते हैं.

दिन भर सोच सोच के परेशान हो जाती हूँ...दिकिया के लिखने बैठ जाती हूँ...आजकल जाने क्या हो गया है...दिन भर लिखती ही रहती हूँ, लिखती ही रहती हूँ. क्या है जो ख़त्म नहीं होता? क्या लिखना है ऐसा...ऐसा क्या कहना है जो कहा नहीं गया है. चुप जो जाओ री लड़की!!

Q: What's cooking?
A:  Disaster
Q: Where did you get the recipe?
A: It's a girl called Puja...She is THE recipe for disaster!!!

26 November, 2011

लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां

चलो, कमसे कम मौसम तो अच्छा हुआ. अच्छा भी क्या ख़ाक हुआ, मूड का पागल हिसाब है. आज देर रात से बहुत बारिश हो रही है और हवाएं तो ऐसे चल रही हैं की जैसे घने जंगलों में रह रही हूँ कहीं. बारिश अच्छी लग रही है, बेहद अच्छी. जैसे बचपन की सखी हो, राजदार, सरमायेदार.

पिछले कुछ दिनों से मौसम अजीब सा हो रखा था, न धूप निकलती थी, न बारिश होती थी...बस जैसे इंतज़ार में रखा हो मौसम ने भी. स्टैंडबाय मोड पर...कि पहले मैं अपना मूड सेट करूँ...उसके हिसाब से मौसम आयेंगे. जैसे जैसे चेहरे पर मुस्कान आती गयी, मौसम भी दरियादिल होते गया...पहले तो मेरी सबसे पसंदीदा, फुहारों वाली बारिश...कि जैसे कह रहा हो, कहाँ थी मेरी जान, मैंने भी तुम्हारी मुस्कराहट को बड़ा मिस किया...और मैं शैतान मौसम से ठिठोली कर रही हूँ, झगड़ा कर रही हूँ कि तुम्हें कौन सी मेरी पड़ी थी, तुम तो खाली अपना सोचते हो, तुमको हमसे क्या मतलब...और ये मस्का भी पक्का कोई कारण से लगा रहे हो, सच्ची सच्ची बताओ क्या काम है मुझसे, कहाँ सिफारिश लगवा रहे हो मुझसे.

फ़िल्मी होना कोई हमसे सीखे, या फिर बंगलौर के मौसम से. तो जब मौसम ने देख लिया की हलकी बारिश से मेरा मूड ख़राब नहीं हो रहा, तब फुल फॉर्म में आ गया...और क्या जोरदार बारिश हुयी कि सब धुल गया. जैसे कंठ से पहला स्वर फूटा हो, शब्द पकड़ने लगी फिर से. हवाओं में श्लोक गूंजने लगे, अगरबत्ती में श्रुतियां महकने लगीं...कुछ आदिम गीत के बोल आँख की कोर में बस गए. तुम्हारे नाम का पैरेलल ट्रैक थोड़ा लाइन पर आया तो दुर्घटना की सम्भावना घटी. कोहरे वाले मौसम में तुम्हारे हाथ याद आये.

छप छप करती बारिश में लौट रही हूँ तो कुछ शब्द गीले बालों से टपक रहे हैं...कुछ शब्द गा रही हूँ तो हवाएं लिए भाग रही है...अंजुली बांधती हूँ तो तुम्हारा नाम खुलता है उसमें...कैसी तो लकीरें मिलती जा रही हैं तुम्हारी हथेली से...सब बारिश का किया धरा है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं. कल को जो चाह कर भी मेरी जिंदगी से दूर जाना चाहोगे न तो बारिश जाने नहीं देगी, देख लेना. कुछ चीज़ें अभी भी तुमसे जिद करके बातें मनवाना जानती हैं. तुमने जाने कब आखिरी बार बारिश देखी थी...तुम्हें याद है?

चलो मेरे शहर का मौसम जाने दो...दिल्ली में कोहरा पड़ने लगा न...एक काम करो, थोड़ा सा लिफाफे में भर कर मुझे कूरियर कर दो...न ना, साधारण डाक से मत भेजना, आते आते सारा कोहरा बह जाएगा लिफ़ाफ़े से...और फिर लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां भी सील जायेंगी. सबसे फास्ट वाले कूरियर वाले को पकड़ना...मैं वो थोड़ा सा कोहरा अपनी आँखों में भर लूंगी...फिर शायद मुद्दतों बाद मुझे सपनों वाली नींद आएगी...नींद में सफ़ेद बादलों का देश भी होगा...और एक डाकिया होगा जो तुम तक मेरी बारिशें पहुंचाता है.

सुबह के इस पहर सब खामोश है, शहर अभी सोया हुआ है...सब के जागने में अभी थोड़ा वक़्त बाकी है. कहते हैं इस पहर में हर दर्द शांत हो जाता है...सभी को नींद आ जाती है. फिर बताओ भला, मैं क्यूँ दुनिया से अलग जागी हुयी हूँ? मुझे कोई दर्द नहीं है इसलिए? रात सोयी नहीं और अब इतनी देर हो गयी है तो सोच रही हूँ, सूरज का स्वागत कर ही लूं...कितना तो वक़्त हुआ उसे आते नहीं देखा...हमेशा जाते देखती हूँ. तुम्हारी तरह...तुम कब चले आये जिंदगी में पता ही नहीं चला.






भोर की पहली आवाजों के साथ जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल ज़ेहन में तैर जाती है...एक पंक्ति चमकती है...जैसे छठ पर्व में सूरज की पहली किरण उतरी हो और उसे अर्घ्य दे रही हूँ. 

'तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...'

24 November, 2011

विल यू एवर मिस मी?

मैं महज़ कागज़ का टुकड़ा भर हूँ तुम्हारे लिए कि खतों में मेरी आँखें चमकती हैं? तुम तो कहते थे कि खतों से खुशबू आती है तुम्हें...मुझे तुम्हारी बात पर कभी यकीन नहीं था इसलिए तो ख़त में इत्र छिड़क कर भेजती थी कि अगली बार कभी कहो तो नाम पूछ लूँ कि अच्छा, बताओ तो सही, कौन सी खुशबू आती है...और अगर तुमने सही नाम ले लिया तब मान जाउंगी कि मेरे ख़त पढ़ने के बाद तुम्हारी उँगलियाँ सिगरेट नहीं, एक दूसरी ही गंध में महकती हैं...नहीं?

खतों की अपनी जिंदगी हो जाती है न...मेरे खतों में मेरा एक हिस्सा चला जाता है जो तुम मानो ना मानो, तुम्हारे घर की जासूसी कर आता है. मैंने ख़त लिखे ही इसलिए हैं कि मेरे शब्द कूदते, फांदते तुम्हारे मन के उदास कोनों को बुहार दें...तुम नहीं जानते, मुझे जादू आता है. तुम जब भी ख़ामोशी में हँसते हो मुझे मालूम चल जाता है तुम मेरी बेवकूफी पर हँसते हो...पर पता है, मैं ख़त इसलिए नहीं लिखती कि मुझे तुम्हें दिखाना है कि मैं कित्ती होशियार हूँ...वो तो मैं बहुत हूँ...हाँ, तुम नहीं मानते, अरे सब कहते हैं बाबा! पर चिट्ठी इसलिए लिखती हूँ कि तुम खुश होते हो जब वो बुड्ढा पोस्टमैन तुम्हें अपने घर के दरवाजे पर दिखता है. अरे अब तो दोस्ती कर लो उससे...फिर उसे किस्से सुनाना कि ये कौन पागल लड़की है जो तुम्हें आज के दौर में भी चिट्ठियां लिखती है. तुम यही सोचते हो न मन में...पागल लड़की...है न? है ना?

तुम आजकल मुझसे भी झूठ बोलने लगे हो, मुझे मालूम नहीं कि क्यूँ...पर प्लीज मुझसे झूठ मत बोला करो...लड़ लो, झगड़ लो...सता लो मुझे...गुस्सा हो जाओ, डांट लो...पर यूँ मुझसे झूठ मत बोलो. मुझे भी तुम्हारा झूठ पकड़ना आता है. मुझसे झूठ बोलकर कहाँ जाओगे बाबा...किसी से तो सच बोलो. वैसे भी तो तुम जो बोलोगे उसका उल्टा ही समझूंगी. तुम्हें लगता होगा मैं एकदम ही बुद्धू हूँ...पर मैं हूँ नहीं. हाँ तुम्हारी तरह इंटेलिजेंट नहीं हूँ पर इतना भी नहीं कि तुम्हारी बातों को पकड़ नहीं पाऊं. अच्छा, दूसरे लोग क्यूँ नहीं पकड़ पाते? दूसरे लोगों के पास इतनी फुर्सत नहीं है न...मेरे पास बहुत सी फुर्सत है जो मैं तुम्हारे बारे में सोच सोच के बिताती हूँ...और जब तुमसे बातें करती हूँ तो बातों के अन्दर की आवाज़ सुनते सुनते...यु नो रीडिंग बिटवीन द लाइंस. तुम्हें पढ़ना थोड़ा मुश्किल है...तुम सब कुछ छुपा जाते हो. बहुत मेहनत करनी होती है...तैरना न आने पर भी डाइव मारनी होती है...डर भी लगता है पर तुम्हारे लिए इतना तो करना पड़ेगा. तुम्हें पता है बस मम्मी थी, जिसकी आँख के इशारे से डर जाती थी मैं...एक तुम हुए हो...सोच के भी डर जाती हूँ कि तुम्हारी भृकुटी तन गयी होगी. फ़ोन पर डराए हो और किसी को भी इस तरह?

कर लो झगड़ा मुझसे, जी भर कर लो...जब मर जाउंगी न तब याद आएगी मेरी. तुम्हें क्या...तुम तो जिद्दी हो बला के...तुम्हें पता भी नहीं चलेगा बहुत दिन तक...और देखना न, जब पता चलेगा न बहुत अफ़सोस करोगे. सेंटी मार रही हूँ तुम्हें, और क्या करूँ...रूठ के बैठे हो...उसपर मानते भी नहीं कि रूठे हो...मनाऊं भला कैसे...हद्द हो. पर सोचो भला...क्या मिस करोगे तुम...सिर्फ चिट्ठियां लिखने वाली लड़की को कितना मिस कर सकता है कोई. जो मान लो, मरुँ न भी...बस खो जाऊं कभी...कहीं. 

विल यू एवर मिस मी?


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कोरी चिट्ठी, तुम्हारे नाम...जो मन चाहे लिख लो...अब तो मान जाओ बाबा...क्या बच्चे की जान लोगे?

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