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09 April, 2018

अनुगच्छतु प्रवाहं

अगर हम ज़िंदगी को किसी कहानी की तरह देखें, तो कभी कभी हमारी ज़िंदगी में एक 'point of no return' आता है। जैसे कि हर लम्बी कहानी के किरदार के साथ होता है, उस पोईंट पर हमें एक निर्णय लेना पड़ता है, और उस निर्णय के साथ होने वाले cause-effect के लिए तैय्यार रहना पड़ता है।

मैं अपनी ज़िंदगी में ऐसे ही एक क्षण पर खड़ी हूँ कि लगता है यहाँ से कोई एकदम ही अलग दिशा बनानी पड़ेगी।

जो दो चीज़ें मुझे बहुत ज़्यादा परेशान करती हैं वो हैं १. नैतिकता - नीति - शील - morality vs आज़ादी : कि जीने का नहीं, लेकिन क्या लिखने वाले की कोई नैतिकता होती है। जब मैं अपनी कल्पना के घोड़ों को खुला छोड़ती हूँ तो उनकी आज़ादी की कोई सीमारेखा है? क्या जीवन जीने के जो मानक नियम हैं, जो समाजिकता है...वही लेखन पर भी लागू होती है क्या लेखन का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है जिसे समाज के नियमों से बँधने की ज़रूरत नहीं है। लिखते हुए मैं सीमा कहाँ बनाती हूँ, कहाँ बनानी चाहिए। लिखते हुए जो डर मुझे परेशान किए रहते हैं, दुनिया के खड़े किए हुए डर...ये वे ही डर हैं जो मुझे जीने नहीं देते। तो मेरी क़लम इनसे कितनी बग़ावत कर सकती है। मैं जिन विषयों पर लिखना चाहती हूँ, मैं जैसे किरदार रचना चाहती हूँ...मेरे किरदारों को जिस तरह के भीषण दुःख देना चाहती हूँ...उनके पहले ये कौन सी सेल्फ़-सेन्सर्शिप लगा रखी है मैंने। उस लेखक का क्या हुआ जिसने किताब लिखने के बाद कहा था, सबसे ही, मैं आपके किसी सवाल का जवाब दूँ, आप इसका हक़ नहीं रखते। मेरा जो मन करेगा मैं लिखूँगी, आप मेरी ज़िंदगी को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं, मेरे लेखन को नहीं।

२. शब्द - व्यक्ति - दोस्त - रिश्ते - बातें : मेरे जीवन में मेरे अधिकतर क़रीबी मित्र लेखन से जुड़े हैं। कुछ यूँ कि मेरी गहरी दोस्ती उन लोगों से हुयी जो लिखते रहे हैं और जिससे मेरी गहरी दोस्ती रही, उसे मैं कभी ना कभी लिखने की दिशा में धकियाया ज़रूर। तो चाहे वे लिखें या ना लिखें, वे पढ़ते ख़ूब ख़ूब हैं। मैं अपने इन क़रीबी दोस्तों से सबसे ज़्यादा बात करते हुए लिखने-पढ़ने का बहुत सारा कुछ साथ लिए आती हूँ। हमारे बीच पसंद की किताबें होती हैं। ईमेल होते हैं। चिट्ठियाँ होती हैं। कहने का मतलब ये, कि मुझे शब्दों की बहुत ज़रूरत पड़ती है और ये शब्द मेरे क़रीबी दोस्तों से मिलते हैं मुझे।
पिछले कुछ सालों से लेकिन पैटर्न ये रहा है कि किसी से दोस्ती होने, उस मित्रता को पनपने और ठीक वहाँ पहुँचने जहाँ बात कहने के साथ ही कॉंटेक्स्ट देने की ज़रूरत ना पड़े...इसमें ठीक ठीक दो साल लगते हैं। फिर ठीक इसी बिंदु पर पहुँच कर वे दोस्त छूट जाते हैं। कभी ज़िंदगी ऐसे हालात खड़े कर देती है, कभी कुछ यूँ ही हम अलग अलग दिशाओं में चल देते हैं। मतलब, कारण मालूम नहीं रहता, लेकिन ऐसा हो जाता है - हमेशा। मुझे हर समस्या का हल खोजने की आदत है, इसलिए ये दिक़्क़त मुझे बहुत परेशान करती है। तो अब ये वक़्त आ गया है कि मैं इस समस्या को हल करने की ज़िद छोड़ दूँ और समझ जाऊँ कि कुछ चीज़ें मुझे समझ नहीं आतीं...कुछ चीज़ों पर मेरा बस नहीं चलता।
मुझे हमेशा लगता रहा है कि लोगों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैं किसी से बात करने के किसी भी मौक़े को जाने नहीं देती। मुझे लोगों से बात करना बहुत अच्छा लगता है। मैं हमेशा चिट्ठियाँ और जवाबों से लम्बे जवाब दिया करती हूँ। तो ऐसे में लगता है, कि दोस्त ना सही, जो सेकंड सर्कल औफ़ फ़्रेंड्ज़ होते हैं, वो होनी चाहिए। ऐसे लोग जो दोस्त नहीं हों, लेकिन जिनसे गाहे बगाहे बात की जा सके। लिखने पढ़ने पर या कि उनकी ज़िंदगी में होती घटनाओं पर भी।
फिर मुझे लगता है कि इस समस्या का इकलौता और अंतिम समाधान है चुप्पी। लेकिन ओढ़ी हुयी नहीं, थोपी हुयी नहीं...ऐसी चुप्पी नहीं जो अंदर तक जला दे...बल्कि एक शांति...तो ऐसे में सही शब्द होता है - मौन।
मेरे जैसे धुर वाचाल का मौन धारण करना मेरे स्वभाव के एकदम विपरीत है और अगर मैं इस स्टेप को ठीक से हैंडल नहीं करती तो मैं घुट के मर जाऊँगी। मुझे इस मौन के साथ सामंजस्य बिठाना होगा क्यूँकि ये अंतिम सत्य है।

तो मैं ज़िंदगी के इस पोईंट औफ़ नो रिटर्न पर खड़ी ये सोच रही हूँ कि पूर्ण स्वतंत्रता - आज़ादी और गहरा मौन - शांति, इनको जीवन में शामिल करूँ तो कैसे और इस मुश्किल रास्ते को आसान कैसे करूँ। कि मेरे अंदर बहुत ही ज़्यादा छटपटाहट भर गयी है और मैं ऐसे जी नहीं सकती हूँ।

जब जाने का मन करता है तो एक जगह से जाने का मन नहीं करता...सारी जगहों से जाने का मन करता है...बात नहीं करनी होती है तो किसी से भी बात नहीं करनी होती है।

तो कुछ महीने सारी बातें बंद कर के मैं सिर्फ़ अपने एकांत में, अपनी चुप्पी में और अपने मन के अंदर की आज़ाद दुनिया में उतरना और रहना चाहती हूँ।

चाहती हूँ।
करूँगी तो क्या ये तो ब्रह्मा भी नहीं जानते!

02 October, 2015

राइटर्स डायरी - गुमे हुए शब्दों का नास्टैल्जिया

दोस्त. कुछ नहीं बचा है लिखने को. और जो है वो बस इतना है कि कागज़ पर एक बार लिख कर देख लिया जाए जी भर के. और आग लगा दी जाए. सिगरेट भी इसलिए ही होती है न कि लम्हे भर को जरा सी बेकरारी हो...जरा सा नशा...कि हल्का हल्का सा लगे सब कुछ. खूबसूरत. दिलकश. और जान देने जितना मीठा.

मैंने इश्क़ के लिए अपने शहर के दरवाज़े बंद कर दिए हैं. हमेशा के लिए. हालांकि 'हमेशा' एक खतरनाक शब्द है कि जिसके इस्तेमाल के पहले दास्ताने पहनने जरूरी होते हैं वरना लिखे हुए हर शब्द में एक 'finality' आ जायेगी. कि जैसे अंतिम सत्य लिखा जा चुका हो.

मैं जिस शहर में हूँ वहां बहुत से पुल हैं जिन्हें लोग प्यार से फ्लाईओवर कहते हैं. ये पुल नहीं होते तो जिंदगी थोड़ी धीमी होती. जैसे कि अपने देश में होती है. लोग जरा धीमे गुज़रते. जैसे कि मेरे दिल से गुज़रते हैं. मुझे सब कुछ मालूम हो जाता है उनके बारे में. वो कार में कौन सा गीत बजा रहे हैं. उनकी आँखों में कितना इंतज़ार है. उनकी कलाई पर बंधी घड़ी में जो इंतज़ार है वो किसी के दिल तक जा कर ख़त्म होता है कि या कि किसी पुल के ठीक बीचोबीच की एकतरफा ड्राइव तक. मैं सैन फ्रांसिस्को गयी थी. जानलेवा खूबसूरत शहर है. कोई इस बेइंतेहा खूबसूरत शहर से गुज़र कर जान कैसे दे सकता है? कोई ड्राइव कर के उस पुल तक जाता है. अक्सर टैक्सी में. दो माइल के उस पुल के बीच तक पैदल चलता है...नीचे...बहुत नीचे गहरा नीला पानी है. मैं जानती हूँ कि लोग वहां से जान क्यों दे देते हैं. वहां से जान देना एकदम आसान लगता है. बिलकुल लम्हे भर की बात होती है. कि जैसे प्यार हो जाता है किसी से. लम्हे भर में. वैसा ही कुछ. 

मैंने इस बार बहुत कम पोस्टकार्ड लिखे. कुछ कहने को दिल नहीं कहता. कुछ ऐसा नहीं कि रह जाए किसी की उँगलियों में फिरोजी स्याही की तरह. मुझे आजकल लिखने में दिक्कत आ रही है. जिस किताब पर काम कर रही हूँ, उसके लिए भी कुछ लिख नहीं पा रही. शब्द जैसे रहते ही नहीं दिमाग में...फिसल कर बह जाते हैं. चिकना घड़ा हो गयी हूँ मैं. याद आता है कि ये बिम्ब मैंने पहले भी कभी इस्तेमाल किया है. शब्दों के यूं रूठ के चले जाने का अक्सर यही महीना होता है. बेरहम सितम्बर. बहुत सालों पहले पंकज ने एक पोस्ट लिखी थी 'वेक मी अप व्हेन सेप्टेम्बर एंड्स'. मैंने पहली बार वो गाना उसी बार सुना था. उस साल से हर साल, जब भी सितम्बर में उदास हुयी हूँ गीत की याद आई है. धीरे धीरे ये पंकज का गाना न रह कर मेरा गाना हो गया है. उदास मौसम का गाना. किसी के चले जाने का गीत. कि जब शब्द नहीं मिलते हैं. 

मुझे ब्लॉग्गिंग करते हुए दस साल हो जायेंगे इस नवम्बर. साथ के लोगों ने लिखना लगभग बंद कर दिया है. एक समय में लिखना सबके साथ किसी  कौलेज कैंटीन में गप्पें करने जैसा था. मैं दिल्ली से बैंगलोर आई थी. इस अजनबी शहर में दोस्त नहीं थे. उनकी कमी ब्लॉग ने पूरी की. हम एक दूसरे का लिखा पढ़ते थे. एक दूसरे के बारे में परेशान होते थे. जुड़ते थे. कि जैसे शायद असल लोगों से भी नहीं जुड़े कभी, वैसे. पीडी का दोबजिया बैराग. डॉक्टर अनुराग के जीवन के अनुभव...अच्छा होना...अच्छा इंसान और अच्छा डॉक्टर बनना. अज़दक के पोडकास्ट कि जिन रास्तों से 'जरा सा जापान', पचास साल का आदमी' और 'माचिस' जैसी चीज़ों के पीछे का संगीत ढूँढने की तलब लग जाती थी. अपूर्व की 'तीन बार कहना विदा' और उसके पोस्ट से भी बेहतर कमेंट्स...कि जलन हो जाए उससे...उन दिनों किसी का लिखा पढ़ कर परेशान होना नार्मल सा था...लेखक की तारीफ करूँ कि दोस्त के लिए परेशान होऊं. कॉफ़ी विद कुश वाले सेलिब्रिटीज(अफ़सोस हम कभी उतने फेमस न हो पाए). 

उसपर चीज़ थी चिट्ठाचर्चा...और उसपर अनूप शुक्ल की अद्भुत चर्चा, खुद के लेखन में ओरिजिनल होना नार्मल है, लेकिन दूसरों के लिखे को इस तरह से पेश करना कि बाकियों को पढ़ने में मज़ा आये बहुत मुश्किल था. अनूप जी मेरे लिए किंगमेकर रहे हैं. उनकी पारखी नज़र ने एक से बढ़कर एक लोगों से परिचय कराया है. सुबह सुबह चिट्ठाचर्चा खोले बिना हमारा दिन शुरू नहीं हो सकता था. लोगों को धकिया के ब्लॉग शुरू करवाना...बंद पड़े ब्लॉग को कोई कमेन्ट लिख कर जिन्दा कर देना ये सब नार्मल हुआ करता था. मैं आज यहाँ डैलस में बैठ कर नोस्टालजिक हो रही हूँ. रात हो गयी है बहुत. प्रोजेक्ट पर काम भी करना है. 

सोचती हूँ कि लिखना मुश्किल इसलिए है कि बात बंद है. लिखना फिर से उस डायरी की तरह हो गया है जिसे कोई नहीं पढ़ता. उन दिनों कितना आसान था किसी को गरियाना कि लिखा करो. अब कितने फॉर्मल से हो गए हैं. हँस के रह जाते हैं कि तुम लिखोगे ऐसा मुगालता हम नहीं पाल रहे. मगर लगता है कि काश होता ऐसा. किसी दिन लॉग इन करते तो देखते कि साइडबार भरा पड़ा है नयी पोस्ट्स से. धकमपेल हो रखी है. जी भर के गरियाये हैं सबको कि कमीनों एक ही साथ नींद से जाग गए हो. किसको पहले पढ़ें. 

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन... 

बहुत साल पहले एक पोस्ट लिखी थी 'नीट विस्की पीना कि उसने आज कहा है कि वो तुमसे प्यार करता है' इस पोस्ट पर चुन चुन के कातिल कमेन्ट आये थे...मेरा अब तक का सबसे फेवरिट कमेन्ट का हिस्सा...ये गूगल वूगल पर नहीं नहीं मिलेगा. पोस्ट किताब में छपी है...कमेंट्स मेरे पास रखे हैं, फोल्ड किये खत जैसे. बस कभी कभी पढ़ के मुस्कुरा लेते हैं...ऐसे भी दिन थे जीवन में.

"सही बात है यहाँ..जरा सा पोस्ट मे व्हिस्की-विस्की की दो बूंदें टपकाओ और देखो कि दुनिया भर के गजटेड बेवड़े पुलियों-कुलियों के नीचे से निकल-निकल कर जमा हो जाते हैं आ कर अपना खाली गिलास ले कर..सिंगल माल्ट, ब्लेंडिग, टेक्स्चर, कोन्याकिंग, बनगंध और इलाकेभर के दारुहट..बड़ा संगीन माहौल बन गया है..बोले तो..खैर अपन तो ’कोला से कोला टकराये भोला हो बदनाम’ टाइप प्राणी हैं..जब दिल करता है तो दारू की दुकान (पुलिया वाली) के पास से गुजर भर जाते हैं..हफ़्ता हैंगओवर मे कटता है..वो भी मुफ़्त..(कभी कुछ ’मै नशे मे हूँ’ लेबल वाले प्राणियों से बतिया भी लेते हैं..फ़ार द सेम एफ़ेक्ट)."

18 December, 2014

सिगरेट सा सुलगता पहाड़ों पर इश्क़

पहाड़ों को पहली बार कोई दो साल की उम्र में देखा था. केदारनाथ जाते हुए मम्मी के पोंचु में से जरा सा झाँक के...बर्फ़बारी हो रही थी. हम पालकी में थे. मुझे याद है वो सारा नज़ारा. बहुत सी बर्फ थी. पापा साथ चल रहे थे. मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि मुझे बहुत छोटे छोटे बचपन की बहुत सारी चीज़ें कैसे याद हैं एकदम साफ़ से. केदारनाथ मंदिर हम लोग...पापा, मम्मी, बाबा और दादी गए थे. मुझे हरिद्वार का गंगा का घाट भी याद है. ठंढ याद है. बाबा और दादी को चारों धाम ले जाने के लिए पापा एलटीसी का प्रोग्राम बनाए थे. इसी सिलसिले में ऋषिकेश का लक्ष्मण झूला, हरिद्वार में हर की पौड़ी और केदारनाथ का मंदिर था.

जब से मम्मी नहीं है बचपन की सारी बातें भूलती जा रही हूँ. लगता था कि बचपन कभी था ही नहीं. इधर नानी भी नहीं रही तो बचपन की सारी कहानियां गुम ही गयीं थीं. बस एक आध तसवीरें थीं और स्कूल की कुछ यादें. पिछले महीने घर गयी तो पापा के साथ थोड़ा सा ज्यादा वक्त बिताने को मिला. इस उम्र में पापा से जितनी बात करती हूँ बहुत हद तक खुद को समझने में मदद मिलती है. लगता है कि मेरा सिर्फ चेहरे का कट, भवें और आँखें पापा जैसी नहीं हैं...बहुत हद तक मेरा स्वाभाव पापा से आया है. भटकने और फक्कड़पने का अंदाज एकदम पापा जैसा है. बिना पैसों के वालेट लिए घूमना. किसी यूरोपियन शहर में किसी म्यूजिक आर्टिस्ट की सीडी खरीदने के लिए लंच के लिए रखे पैसे फूंक डालना. सब पापा से आया है. इस बार पापा ने एक घटना सुनाई...जो मुझे कुछ यूँ याद थी जैसे धुंधला सपना कोई. समझ ये भी आया कि आर्मी के प्रति ये दीवानगी कहाँ से आई है कि आज भी एस्केलेटर पर कोई फौजी दो सीढ़ी पहले आगे जा रहा होता है तो दिल की धड़कनें आउट ऑफ़ डिसिप्लिन हुयी जाती हैं. कार चलाते हुए आगे अगर कोई आर्मी का ट्रक होता है तो हरगिज़ ओवेर्टेक नहीं करती हूँ. पागलों जैसी मुस्कुराते चलती हूँ धीरे धीरे उनके पीछे ही. दार्जलिंग से गैंगटोक और फिर छंगु लेक जाते हुए आर्मी एरिया से गुजरते हुए जवानों के साथ फोटो खिंचाना भी याद आता है. 

उफ़ कहाँ गयी वो क्यूटनेस!
बहरहाल...एक बार पापा और मम्मी मेरे साथ कहीं से आ रहे थे...रेलवे में फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में उन दिनों कूपे हुआ करते थे. कुछ स्टेशन तक कोई भी नहीं आया तो पापा लोग काफी खुश थे कि लगता है कि और कोई नहीं आएगा तो पूरा कूपा अपना हुआ. फिर थोड़ी देर में कुछ जवान आके सामान रख आये...होल्डाल वगैरह था...फिर दो लोग आ के बैठे. पापा बताये कि थोड़ा डर लगा कि काफी हाई रैंकिंग ओफिसियल था...और पूरी बोगी में सिर्फ आर्मी के जवान ही थे. उस वक़्त पापा जस्ट कुछ दिन पहले नौकरी ज्वाइन ही किये थे. तो नार्मल बात चीत हुयी...पापा ने बताया कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करते हैं. फिर हमको देखा और पूछा...आपकी बेटी है...पापा बोले कि हाँ...फिर मेरी ओर हाथ बढ़ाया...और हम फट से उसकी गोदी में चढ़ गए. फिर पूरे रास्ता हम हाथों हाथ घूमे...कहीं अखरोट खा रहे हैं...कहीं कुछ सामान फ़ेंक रहे हैं...कहीं किलक रहे हैं...कहीं भाग रहे हैं...और पटना आते आते सारे जवानों की आँखों का तारा बनी हुयी हूँ. उसमें से जो ओफ्फिसियल था, वो हाथ देखा मेरा और पापा को बोला...सर ये लड़की जहाँ भी जायेगी इसी तरह छा जायेगी कि लोग इसे अपनी तलहत्थी पर रखेंगे...बस एक बात का ध्यान रखियेगा कि इस पर कभी शासन करने की कोशिश नहीं कीजियेगा. हम छोटे से थे. बात आई गयी हो गयी. पापा बता रहे थे कि आपको आज देखते हैं कि जहाँ हैं वहां इसी तरह सबका दिल जीते हुए हैं तो लगता है उसकी बात में कोई बात थी. ये रेलवे वाली बात धुंध धुंध सपनों में आती रही है कई बार. मैं देखती हूँ कि कोई छोटी सी लड़की है. एकदम सेब जैसे गालों वाली. अखरोट का पहला स्वाद भी वहीं से याद में है.

इधर कुछ दिन से फिर से कहीं भाग जाने का दिल करने लगा है. समझ नहीं आता है कि क्यूँ होता है ऐसा. मेरे बकेट लिस्ट में एक लम्बी यात्रा सबसे ऊपर है. अकेले. बुलेट पर. लड़कियां नॉर्मली ऐसी ख्वाहिशें नहीं पालतीं...उनमें हुनर होता है ऐसी किसी ख्वाहिश का बचपन में ही गला घोंट कर मार देने का. एक मैं हूँ...चिंगारी चिंगारी सी हवा दे रही हूँ. इस बार कहीं नौकरी पकड़ी तो पक्का अपने लिए एक बुलेट खरीदूंगी. मुझे डर क्यूँ नहीं लगता. मैं इस कदर बेपरवाह होकर क्यूँ हँस सकती हूँ. कल सब्जी की दूकान में खड़े आलू प्याज उठा रहे थे और याद करके बाकी चीज़ भी...बड़बड़ा रहे थे कि डॉक्टर बाइक चलाने से मना किया है तो घर में सारा सामान ख़त्म है. दुकानदार बोला कि मैडम आप बाइक थोड़े चलाती हैं...आप तो प्लेन चलाती हैं...टेक ऑफ कर जायेगी बाइक आपकी इतनी तेज़ चलती है. 

बंगलौर में रहते हुए पहाड़ों से प्यार ख़त्म हो गया था. यहाँ ठंढ इतनी पड़ती है कमबख्त कि हर छुट्टियों में हम समंदर और धूप की ओर भागते हैं. इधर याद में फिर से दार्जलिंग, कुल्लू मनाली और गुलमर्ग खिल रहे हैं. घाटियों से उठते बादल. बेहद ठंढ में दस्ताने पहनना और मुंह से भाप निकालना. मॉल रोड पर खड़े होकर रंग बिरंगे लोगों को गुज़रते देखना. घुमावदार सड़कों का थ्रिल. धुंध धुंध चेहरों का सामने आना मुस्कुराते हुए. पहाड़ों से किसी को नया प्यार नहीं होता...पहाड़ों से हमेशा पुराना प्यार ही होता है. बाइक लिए रेस लगाने का दिल करता है. खुली जीप में दुपट्टा उड़ाने का दिल भी. ऊंची जगहों से अचानक छलांग लगा देने का दिल करता है हमेशा मेरा...L'appel du vide एक फ्रेंच टर्म है, अंग्रेजी में The call of the void... खालीपन... निर्वात जो खींचता है... अपने अन्दर गहरे छलांग लगा देने को. इस बार मगर दिल करता है कि एक कैमरा और नोटबुक लिए जाएँ. बहुत सी तसवीरें खींचें और बहुत सी कहानियां सुनूं...लिखती चलूँ जाने कितनी सारी कवितायें. इस बार किसी छोटे से फारेस्ट गेस्टहाउस में बैठ कर देखूं बादल का ऊपर चढ़ना. सिगड़ी में सेंकूं हाथ. विस्की का सिप मारूँ. सिगरेट पियूँ किसी व्यूपॉइंट पर सबसे सुबह की कड़ाके की ठंढ में जा के. बहुत कुछ कैमरा में कैप्चर करूँ कि जैसे सूरज का उगना. बहुत कुछ आँखों में कैप्चर करूँ जैसे कि अचानक बने दोस्त. पीछे छूटते शहर.

जिंदगी पूरी नहीं पड़ती...कितना कुछ और चलते रहता है पैरलली...कितने शहर खुलते रहते हैं मेरे अन्दर...कल देर रात कुछ शहरों को गूगल मैप पर देख रही थी. पहाड़ों पर टिम टिम दिवाली याद आ रही थी, वैष्णोदेवी से देखना कटरा में फूटते पटाखे. गूगल मैप बताता रहता है कितना कम दूर है सब कुछ...हाथ बढ़ा के छूने इतना. जिंदगी फिसलती जा रही है. अरमानों को ब्लैकलिस्ट करते जा रही हूँ. कितने अफ़सोस बाकी रह जायेंगे. खुदा...यूँ ही फक्कड़पने और आवारगी में उड़ा देने के लिए एक जिंदगी और. 

11 August, 2014

जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?


कतरा कतरा दुस्वप्नों के तिलिस्म में फंसती, बड़ी ही खूंख्वार रात थी वो...बिस्तर की सलवटों में अजगर रेंगते...बुखार की हरारत सा बदन छटपटाता...मैं तुम्हारे नाम के मनके गिनती तो हमेशा कम पड़ जाते...ऐसे कैसे कटेगी रात...कि तुम्हारे आने में जाने कितने पहर बाकी हैं. प्यास हलक से उतरती तो पानी की हर बूँद जलाती...घबरा कर विस्की की बोतल उठाती तो याद आता कि फ्रीज़र में आइस ख़त्म है...नीट पी नहीं सकती, पानी की फितरत समझ नहीं आ रही...तो क्या अपना खून मिला कर विस्की पियूँ?

आजकल तो हिचकियों ने भी ख़त पहुँचाने बंद कर दिए हैं. तुम्हें मालूम भी होता कि तुमसे इतनी दूर इस शहर में याद कर रही हूँ तुमको? तुम्हारे आने का वादा तो कब का डिबरी की बत्ती में राख हुआ. लम्हे भर को आग चमकी थी...जैसे हुआ था इश्क तुमको. कभी सोचती हूँ तुमसे कह ही दूं वो सारी बातें जो मुझे जीने नहीं देती हैं. लम्हे भर को इश्क होता भी है क्या?

भोर उठी हूँ तो जाने किससे तो बातें करने का मन है. बहुत सारी बातें. या कि फिर एक लम्बी ड्राइव पर जाना और कुछ भी नहीं कहना. कुछ भी नहीं. जैसे एकदम चुप हो जाऊं. क्या फर्क पड़ता है कुछ भी कहने से. ऐसे कहने से न कहना बेहतर. तुम हो कहाँ मेरी जान? तुम्हारे शहर में भी बारिशें हुयीं क्या सारी रात? यहाँ तो ऐसा दर्दभरा मौसम है कि गर्म चाय से भी पिघलना मंजूर नहीं करता. तुलसी की पत्तियां तोड़ कर उबालने को रक्खी हैं...थोड़ी काली मिर्च, थोड़ी अदरक...काढ़ा पीने से शायद गले की खराश को थोड़ा आराम मिले...मेरे ख्याल से सपनों में देर तक आवाज़ देती रही हूँ तुम्हें...

तुम्हें मालूम है न मैं तुम्हें याद करती हूँ? जैसे दिल्ली के मौसम को याद करती हूँ...जैसे बर्न के अपनेपन को याद करती हूँ...जैसे अनजान देशों की गलियों में भटकते हुए कई रेस्टोरेंट्स के मेनू देखे और वहां लिखी हुयी ड्रिंक्स के नशे के बारे में सोचा. ख्यालों में अक्सर आती है कई दुपहरें जो तुमसे गप्पें मरते हुए काटी थीं...तुम्हारे ऑफिस के सीलिंग फैन की यादें भी हैं. तुम हँस रहे हो ये पढ़ कर जानती हूँ. सोचती ये भी हूँ कि तुम्हारे लायक कॉपी अब इस शहर में क्यूँ नहीं मिलती...सोचती ये भी हूँ कि तुम्हें ख़त लिखे बहुत बरस हो गए. अब भी कुछ अच्छा पढ़ती हूँ तो तुम्हें भेज देने का मन करता है. या कि कोई अच्छी फिल्म देखी तो लगता है तुम्हें देखने को कहती. जिंदगी के छोटे बड़े उत्सव तुम्हारे साथ बाँटने की ख्वाहिश अब भी बाकी है. तुम्हारे शहर के उस किले की खतरनाक मुंडेर पर पाँव झुलाते मंटो को गरियाने की ख्वाहिश भी मेरे दोस्त बाकी है. जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?

कभी कभी सोचती हूँ तो लगता है हम एक जिगसा पजल हैं. मुझमें कितना कुछ बाकियों से आया है...जितनी बार प्यार हुआ, एक नए तरह का संगीत उसकी पहचान बनता गया...डूबते हुए हर बार किसी नए राग में सुकून तलाशा...किसी नए देश का संगीत सुना कि याद के ज़ख्म थोड़े कम टीसते थे कि संगीत में अनेस्थेटिक गुण होते हैं. वैसा ही कुछ लेखकों के साथ भी हुआ न. अगर मुझे जरा कम इश्क हुआ होता...या जरा कम दर्द हुआ होता तो मैं ऐसी नहीं होती.

वो कहता है मुझे अब बदलना चाहिए...जरा हम्बल होना चाहिए, जरा डिप्लोमेटिक. मगर मुझसे नहीं होगा. मैं ऐसी ही रही हूँ...अक्खड़, जिद्दी और इम्पल्सिव...बिना सोचे समझे कुछ भी करने वाली...बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देने वाली. डिप्लोमेटिक होना न आया है न आएगा. जिद्दी भी बहुत हूँ. सुबह उठ कर जाने क्या क्या सोच रही हूँ. तुम होते तो इस परेशानी में कोई चिल्लर सा जोक मारते...या फिर अपनी घटिया आवाज में कोई सलमान खान का पुराना वाला गाना गा के सुनाते हमको...हम हँसते हँसते लोटपोट हो जाते और फिर अपनी किताब पर काम शुरू कर देते. जल्दी ही कहानियां फाइनल करनी हैं. कुछ नया नहीं लिख पाए हैं. अफ़सोस होता है...मगर फिर खुद को समझाते हैं. जिंदगी बहुत लम्बी है और ये मेरी आखिरी किताब नहीं होगी. अगर हुयी भी तो चैन से मर सकेंगे कि बकेट लिस्ट में बस एक ही किताब का नाम लिखे थे. बाकी तो बोनस है. कभी कभी अपने आप को जैसे हैं वैसा क़ुबूल लेना मुश्किल है...मुहब्बत तो दूर की बात है. फिर भी सुकून इतना ही है बस कि कोशिश में कमी नहीं की मैंने. अपना लिखा कभी परफेक्ट लगा ही नहीं है...न कभी लगेगा. आखिर डेडलाइन भी कोई चीज़ होती है. हाँ, जब फिल्में बनाउंगी तो वोंग कार वाई की तरह आखिरी लम्हे तक एडिट चालू रहेगा. शायद. बहुत कन्फ्यूजन है रे बाबा!

04 January, 2014

चिंगारी की तीखी धाह

सपने मुझसे कहीं ज्यादा क्रियेटिव हैं। जहाँ मैं जागते नहीं जा सकती, एक मीठी नींद मुझे पहुँचा देती है। कल सपने में तुम्हें देखा। अपने बचपन के घर में...मेरा जो कमरा खास मेरे लिये बना है, वहाँ। जाने क्या करने आये थे तुम। मैं तुम्हें इगनोर करने में व्यस्त थी, पूछा भी नहीं। एक मुस्कुराहट भी नहीं...किस मोड़ पर आ पहुंचे हम अपनी जिद से। एक वक्त था, तुम्हें देख कर मुस्कुराहटों का झरना फूट पड़ता था। कितना भी रोकती...बस तुम्हारा होना काफी होता। याद मुझे कल का भी है...तुम कितने कौतुहल से घूम रहे थे मेरे घर में...तुम्हें कभी बताया भी तो नहीं था...मेरा घर, पीछे का पोखर, आगे का पीले फूलों वाला पेड़...सर्पगंधा...कामिनी...और जो जंगली गुलाब खुद उग आये थे।

बात सपने से शुरु होती है मगर उसे ठहरना कहाँ आता है...छोटी सी पहाड़ी और उसके पीछे डूबता सूरज। तुम्हारी वापसी की फ्लाइट कब की है? शहर आये हो, मिलते हुये जाना। यूं मेरे अलावा उस शहर में कुछ खास नहीं है, कसम से।
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तुमसे प्यार की उम्मीद करना गलत है...जैसे मुझसे उम्मीद की उम्मीद करना। जिसे जो मिलता है, वही तो वापस दे सकता है। तुम्हारा रीता प्याला देखती हूं। गड़बड़ खुदा की है कि तुम्हारे प्याले में पेन्दा ही गायब है...दुनिया भर का इश्क तुम्हें अधूरा ही छोड़ेगा...पूरेपन के लिये बने ही नहीं हो तुम। लोगों को याद तुम्हारा पागलपन रह जाता है, मगर मुझे तुम्हारा दर्द क्युं दिखा...अब भी...रात हिचकियां आयीं तो मुझे पूरा यकीन था कि इस वक्त तुमने ही याद किया होगा मुझे।

देर तक छाया गांगुली की आवाज़ में पिया बाज़ प्याला सुन रही थी...तुम्हारी बहुत याद आ रही है आजकल, उम्मीद है, तुम अच्छे से होगे। ऐसी बेमुरव्वत याद आनी नहीं चाहिये। यूं होना तो बहुत कुछ नही चाहिये जिन्दगी में, मगर जिन्दगी हमारी चाहतों के हिसाब से तो चलने से रही।
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एक उजाड़ सा खंडहर है। अभिशप्त। एक अंधा कुआं है। चुप एकदम। और एक राजकुमारी है, जिसे समय के खत्म हो जाने तक वहीं बंद रहना है। कभी कभी तेज हवायें चलती हैं तो पीपल के पत्ते बजते है, राजकुमारी का चंचल मन पायल पहनने को हो आता है। मगर पायल को भी श्राप लगा है। जैसे ही राजकुमारी अपने पैरों में बाँधती है, पायल काँटे वाले नाग में तब्दील हो जाती है। फिर राजकुमारी जहां भी जाती है उसकी दुष्ट सौतेली मां को खबर हो जाती है और वो राजकुमारी से उसकी मां के दिये कान के बूंदे छीन लेती है। राजकुमारी बहुत रोती है, लेकिन उस दुष्ट का कलेजा नहीं पसीजता। वे जादू के बून्दे थे, रोज रात को ऐसा लगता जैसे मां लोरियाँ सुना रही हो...राजकुमारी चैन की नींद सो पाती। पैरों से पायल उतारने में नागों ने राजकुमारी को कई बार डस लिया। उसकी उँगलियां सूज गयीं। चुप की लंबी रात काटने के लिये अब राजकुमारी चिट्ठियां भी नहीं लिख सकती थी, अपना प्यारा पियानो भी नहीं बजा सकती...हवा में तैरता हुआ गीत पहुंचता है कभी कभी और बांसुरी की आवाज। राजकुमारी को यकीन है कि ये बांसुरी की आवाज भी अाज के वक्त की नहीं है। द्वापर में कृष्ण भगवान ने जो बंसी बजायी थी, ये उसी बांसुरी के भटकते हुये सुर हैं। सामने एक अदृश्य दीवार है जो उसे कहीं जाने नही देती। उसे कभी कभी यकीन नहीं होता कि दुनिया वाकई है या सिर्फ उसकी कल्पना से सारा कुछ दिखता है उसे। सदियों से अकेले रहने पर थोड़ा बहुत पागलपन उग जाता है, खरपतवार की तरह।
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zoom in
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राजकुमारी जमीन की धूल में एक अक्षर लिखती है...मैं दर्द से छटपटा के जागती हूं। उस अक्षर से सिर्फ तुम्हारा नाम तो नहीं शुरु होता।
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fade to black

26 November, 2013

भूलना एक उम्र भर का काम


सिक्सटीन लव पोयम्स एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर. किताब के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे. कल पूरी रात पागलों की तरह बरसा था बादल. उस मासूम को कहाँ मालूम था कि बालकनी पर भूल गयी हूँ मैं नयी किताब, पुरानी कॉपी और तुम्हारी याद के बहुत से किस्से. बादल सबके हिस्से बराबर बरसा तो भिगो गया पाब्लो नेरुदा की प्रेम पगी कवितायें और हमारे प्रेम जैसा एक आखिरी उदास गीत.

मेरी तरह तुम भी कभी सोचते हो क्या कि आखिर क्या बात थी कि मैंने आखिरी बार तुम्हें वही कविता पढ़ कर सुनायी...लव इज सो शोर्ट, फोरगेटिंग इस सो लॉन्ग...प्रेम क्षणिक है. भूलना एक उम्र भर का काम. मुझे क्या मालूम था कि हम उस दिन के बाद कभी नहीं मिलेंगे? कैफे की धूप वाली दोपहर कितनी सरल और शांत थी. प्रेम भी अपने उफान से उतर कर गहरी नदी सा बह रहा था...ऐसी नदी जो सींचती है, जिसके किनारे सभ्यताएं बसतीं हैं और प्रेमी लहरों के हाथ समंदर को तोहफे भेजते हैं. उस आखिरी दिन माथे पर कूद कूद आई लटों को जब पीछे करती थीं तो तुमने सोचा था क्या मेरे बगैर इन्हें तमीज कौन सिखाएगा?

मैं चुपचाप बनाती गयी थी आत्महत्या के नर्म, नाज़ुक पुल...उनसे आखिरी बार गुज़र जाने के लिए. तुम्हें लगा था डर कभी? अनगिन दोस्तों का दायरा छोटा करते हुए सिर्फ तुम तक सिमट गयी थी. यूँ हर इश्क का अंजाम कुछ ऐसे ही होता है कि उसके बगैर जीवन की कल्पना भी बेमानी लगती है मगर फिर भी...किसी नए इश्क में पुराने इश्क सी कोई बात नहीं होती. हम उन्हीं राहों पर नए लोगों के साथ गुज़र रहे होते हैं जिनपर कुछ साल पहले किसी के साथ अगले कई जन्मों तक के सपने देख डाले थे. शहर बड़े बेरहम और युगों की याद्दाश्त वाले होते हैं. वे नए प्रेमियों के साथ होने पर भी पुराने लतीफे सुनाते हैं और उनपर वैसे ही कार्बन कॉपी वाली हंसी हँसते हैं. तुम्हें शहर बदल लेना चाहिए था. यूँ कायदे से मुझे शहर बदल लेना चाहिए था. इस शहर के गुलमोहरों को गहरी लाल शामें चाहिए होती हैं. मैं चाहती भी हूँ तो ये मुझे अमलतास के फूलों जैसा सुनहला आसमान बनाने नहीं देते.

मालूम होता कि मुलाक़ात आखिरी है तो किसी खूबसूरत बात पर ख़त्म करती. तुमसे कहती कि जब तक समंदर है तुम मेरे अन्दर बचे रहोगे. मेरी कविता में. मेरी कहानियों में. मेरी पेंटिंग्स में. मेरे रियाज़ में. मेरे घर के टूटे पलस्तर. मेरी नल के टपकते पानी और छत से टपकते पानी में. कि तुम पानी में बचे रहोगे. जब तक मेरे चेहरे में पानी होगा. मेरी आँखों में पानी होगा. तुम बचे रहोगे. तुम्हें अंजुरी में लिए लिए हिन्द महासागर तक चली जाउंगी और रख आउंगी सबसे ऊंची लहर की गुंथी हुयी चोटी में.

आखिरी रोज़. बाकी दिनों की तरह ही था. आदतन हम एक दूसरे की पीठ का सहारा लिए अपनी अपनी पसंद की किताब पढ़ते रहे. तुम मुझे ग़ालिब सुनाते और मैं तुम्हें नेरुदा. बहुत देर में थक गयी थी तो धूप की चादर ओढ़े सो गयी थी. नींद में भी मुझे लग रहा था तुम्हारी आँखें मुझे देख रही हैं. कैफे वाला हमें देख कर एक मीठी मुस्कान मुस्काया था. सेम ओल्ड सेम ओल्ड. हॉट चॉकलेट विथ जिंजरब्रेड सॉस. ब्लैक कॉफ़ी, नो मिल्क, नो शुगर. अपनी अपनी ड्रिंक पीते हुए हम देर तक एक दूसरे की आँखों में देखते रहे थे. दिल के धड़कन तब भी तेज़ हो गई थी मगर इस दर्द में मिठास थी.

मुझे लगता है तुम्हें विदा कहने का सलीका मालूम है. तुम लोगों को बड़े तबियत और इत्मीनान से ऐसे मोड़ पर छोड़ आते हो जहाँ से वे तुम्हारे बगैर जीने का सलीका जान जायें. मुझे मालूम होता कि हम आखिरी बार मिल रहे हैं तब भी मैं तुम्हें इन्हें पंक्तियों से विदा करती...लव इज सो शोर्ट...फॉरगेटिंग इज सो लॉन्ग.

तुम्हें मालूम होता हम आखिरी बार मिल रहे हैं तो तुम मुझे क्या पढ़ कर सुनाते? 

27 April, 2013

न लिखना, न पढ़ना, न फिल्में देखना

लिखना या तो मुश्किल होता है या तो एकदम आसान. मुझे मुश्किल से लिखना नहीं आता. कितनी बार होता है कि अन्दर बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा है पर शब्दों का आकार नहीं लेता...तब एक चुभन सी होती रहती है. जैसे कोई कील चुभी हो पाँव में...सिर्फ चलते वक़्त टीसती है. 

किसी को पढ़ना उसकी आत्मा से बात करने जैसा है. लेखक जितनी ही बड़ी कल्पना की दुनिया रचता है, उतनी ही सच्चाई से अपने आप को उसमें लिखते जाता है. मुझे कम लोगों का लिखना पसंद आता है. जाने क्यूँ कि किसी का लिखा छू नहीं पाता है दिल को. कुछ मिसिंग सा लगता है, जैसे उसने कुछ लिखना चाहा है जिसमें मैं डूबना चाहती हूँ पर पानी इतना उथला है कि चाह कर भी खुद को पूरा खोना नहीं हो पाया. मुझे फंतासी अच्छी लगती है. किसी ऐसी दुनिया में खो जाना जहाँ कुछ भी सच्चा न हो आसान होता है. किसी को पढ़ना कहीं भाग जाने का रास्ता खोलता है, ये लिखते हुए ऐलिस इन वंडरलैंड याद आती है. 

इधर काफी दिनों से कुछ अच्छा नहीं पढ़ा...कुछ भी अच्छा नहीं. मुराकामी की नार्वेजियन वुड रखी हुयी है, एक पन्ना भी पढ़ने का मन नहीं किया है. अकिरा कुरासावा की जीवनी जो कि बड़े शौक़ से खरीदी थी, जब कि उतने ही पैसे थे जेब में. कर्ट कोबेन के जर्नल्स पढ़ती हूँ कभी कभार. हैरी पोटर नहीं पढ़ा बहुत साल से शायद. दुष्यंत कुमार...अब अच्छे नहीं लगते. अज्ञेय...कभी कभी थोड़ा सा पढ़ती हूँ. और कोई नाम याद नहीं आ रहा. फिलहाल कोई पूछे कि तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है तो तुम्हारे पसंदीदा लेखक कौन हैं तो मेरे पास कोई नाम नहीं होगा. मैंने आखिरी कोई किताब कब पढ़ी थी...1Q84, शायद साल होने को आया. मैं टुकड़े में पढ़ नहीं सकती और एक पूरा समय मेरे पास है नहीं. 

कभी कभी सोचती हूँ कि आज के दस साल बाद शायद इस ऑफिस में बिताये लगभग एक साल के समय को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी. इस दौरान कितना कुछ खो गया मुझसे. मैंने लिखना बहुत कम कर दिया...मुझे सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता. घर और ऑफिस के बीच भागती हुयी फुर्सत के लम्हों को ढूंढती रहती हूँ जब मैं कुछ सोच सकूं. इधर काम का प्रेशर भी इतना है कि अपने लिए वक़्त ही नहीं मिलता. इस पूरे हफ्ते मेरे पास कोई मेजर प्रोजेक्ट नहीं था. मेरे पास बहुत वक़्त था कुछ पढ़ने के लिए...कुछ लिखने के लिए मगर मैंने कुछ नहीं किया. लिखना भी एक आदत होती है जब आप चीज़ों को देखते हो और कुछ शब्दों में वे खुद ढलते चलते जाते हैं, लिखना हमेशा एफर्टलेस होता है, कोशिश करके लिखा नहीं जा सकता. 

कुछ फिल्में देखने की कोशिश की. कल दो फिल्में देखीं. इटरनल सनशाइन ऑफ़ दा स्पॉटलेस माइंड और आयरन मैं ३. दोनों फिल्मों ने मुझे निराश किया. आयरन मैन से तो मुझे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी मगर इटरनल सनशाइन मैंने बहुत दिनों से टाल रखी थी...फुर्सत में देखने के लिए. उसका कांसेप्ट कितना अच्छा था...कहानी के साथ कितना कुछ अच्छा किया जा सकता था. फिल्म हड़बड़ी में बनायी गयी लगती है जैसे कोई डेडलाइन छूट रही हो. कांसेप्ट के साथ जो रोमांस शुरू होता है, जब धीमी आंच पर पकता है...बहुत वक़्त लगता है तब जा कर एसेंस कैप्चर हो पाता है. आजकल मुझे कहानियां भी उतना नहीं बांधतीं जितना कांसेप्ट बांधता है. शायद वोंग कार वाई की ज्यादा फिल्में देखने का असर है. इधर हाल में सोर्स कोड देखी थी...अच्छी लगी थी. 

कुछ पसंद करना मुश्किल क्यूँ होता जा रहा है. मैं क्या ओवेर्टली क्रिटिकल हो गयी हूँ चीज़ों के प्रति? नार्मल तरह से सोचूं तो मुझे आजकल कुछ अच्छा नहीं लगता, किसी चीज़ पर खुश नहीं होती. पहले चीज़ें अनकोम्प्लिकेटेड हुआ करती थीं. बारिशों में खुश, बहार में खुश, पतझड़ में खुश और जाड़ों में तो ख़ुशी से पागल. छोटी छोटी चीज़ों में खुश हो जाने वाली वो लड़की जाने कहाँ छुप गयी है. जिंदगी में एक लिखने के अलावा न कभी कुछ समझ में आया न कभी कुछ करने की कोशिश की. हर कुछ दिन में लेकिन जब ऐसा फेज आता है तो कुछ खुराफात मचती है. जैसे घर पेंट करने का मन करता है. खुद से ड्रिल करके घर में कुछ तसवीरें टांगने का मन करता है. बेसिकली कुछ ऐसा करने का मन जिसमें हाथ व्यस्त रहे...कलम से कुछ न लिखूं तो कुछ तो करूँ. इन फैक्ट खाना बनाना भी अच्छा लगता है. पर मम्मी वाला हाल है, नार्मल दाल चावल बनाने में अच्छा नहीं लगता. पास्ता, थाई ग्रीन करी, चाऊमिन जैसा कुछ बनाने का मन करता है. 

ये खुद को समझना कितना मुश्किल होता है. कोई किताब नहीं आती अपने ऊपर. क्या क्या करने का मन करता है...फिर से कहीं भाग जाने का मन करता है. समंदर किनारे खूब सारी रेत हो...लहरों पर रेस लगाऊं, साइकिल चलाऊं...कुछ करूँ...कुछ ऐसा जो करके सुकून मिले. बेसिकली खुद के होने को हमेशा वैलिडेट करने की जरूरत होती है. आखिर हम कर क्या रहे हैं...जिस दिन इसका जवाब नहीं मिलता जवाब ढूँढने की कवायद शुरू हो जाती है. 

कहानियों के किरदार कहीं चले गए हैं. कविताओं का राग भी. बस कुछ इने गिने शब्द हैं, इनका कोलाज है. मुझे एक लम्बी छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. तुम्हारे ही साथ कि अब तुम साथ नहीं होते तो सब अधूरा लगता है. भले ही तुम दूसरे वाले झूले पर अपने पसंद की किताब पढ़ते रहो और मैं अपनी. मगर एक लम्बी छुट्टी, सबसे दूर...फार फ्रॉम दा मैडिंग क्राउड. जिंदगी इतनी छोटी है वाकई कि मुझे लगती है!




How happy is the blameless vestal's lot!
The world forgetting, by the world forgot.
Eternal sunshine of the spotless mind!
Each pray'r accepted, and each wish resign'd.

11 December, 2012

सीले बदन पर, कोई दाग पड़ा है


दिन के फरेब में रात का नशा है/ जब भी छुआ है ज़ख्म सा लगा है
सीले बदन पर कोई दाग पड़ा है/बारिशें हैं...सब धुआं धुआं है 

आँखों में कोई कल रात छुपा था, आज सुबह रकीब की लाश मिली है...कसक कोई पानी में घुली है कि दुपट्टे को निचोड़ा है तो कितना सारा दुःख गीले छत पे बहा है...थप्पड़ खाया है चेहरे पर तो होठों से खून बहा है कि तुम्हारा नाम अब भी आदतों में रहा है...कहाँ है कोई...शहर में दिल्ली का कोहरा बुला दे...कहाँ है इश्क कि जीने का अंदाज़ भूलता जाता है...

कब की बात है जानां? आसमान आधा बंटा है...तेरे शहर में बारिश और यहाँ दरिया जला है...तू गुमशुदा कि जहां गुमशुदा है...तेरे दिल तक पहुंचे वो रास्ता कहाँ है? मैं क्यूँ उदास बैठी हूँ रात के तीसरे पहर कि अचानक से बहुत सी भीड़ आ गयी है मेरी तन्हाइयों में. किसने तोड़ दी है फिरोजी रंग की दवात? डॉक्टर ने चेक करके कहा है कि मेरे खून का रंग हरा है...किसी बियाबान में रोप दो ना अमलतास के पौधे...ढूंढ दो मेरी पसंद की कलम. मेरी जान...मैं भूल गयी हूँ अपनी पसंद के गाने...मुझे बता दो तुम्हारे गम में सुकून पहुंचे वो गीत कौन सा है?

सब उतना ही पुराना है तू जितना नया है...इश्क के क्लास में ब्लैकबोर्ड सा टंगा है...सफ़ेद चौक में टीचर की उँगलियों का नशा है, सिगरेट के छल्ले बनाना सीख रहा है...मेरी कहानियों का वो शख्स कितना गुमशुदा है...पेड़ है इमली का...हैरतजदा है. तुम झूठ बोलते हो...वहां झूला पड़ा है...मेले में चलो न, तारामाछी लगा है. कितनी बात करते हो...चुप रहना मना है.

शहर से भागते पुल के ऊपर एक शहर नया बसा है...कैसी रौशनी है...कितना तमाशा है...वहां भी कोई मिलने आएगा ऐसा धोखा हुआ है...जिंदगी फानी रे बाबू...दरिया है मगर सूखा हुआ है. मैं ठहरी हुयी हूँ तू ठहरा हुआ है...कितना दूर है कोई...किसी प्लेटफोर्म पर कोई जिंदगी से बिछड़ा है...सारा किस्सा कहा हुआ है, सारा कहना सुना हुआ है...गाँव चले आता है बस में चढ़ कर, शहर के बाहर लिखवा दो, शहर में रहना मना है. तुम्हारे बाग़ में बहार नहीं आई...अँधेरा कितना घना है...कितनी बर्फ पड़ी, कितना शोर बरसा...किसने भींचा बांहों में...कौन जाग जाने को कहता है...किसी पागल दिशा से आया पगला विरहा गाता है.

कितना लिखना, कितना बाकी बचा है?
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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कुछ भी ऐब्स्त्रैक्ट नहीं होता...जंगल में खोयी हुयी पगडण्डी भी किसी गाँव को पहुंचा ही देती है...मन के रास्ते किसी उलझे वाक्य से गुज़र कर जाते होंगे शायद...ये शायद क्या होता है?

17 October, 2012

...and the world comes crashing down

इधर कुछ दिन पहले मेरा लैपटॉप क्रैश कर गया...कोई खबर नहीं...कोई अंदेशा नहीं...कोई भनक नहीं...बस ऐसे ही चलते फिरते...अचानक से क्रैश. ऑफिस की सारी फाइल्स उसमें हैं...पिछले तीन महीने का सारा काम वहीं है...अभी परफोर्मेंस रिव्यू का टाइम है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

दूसरी तकलीफ है कि मैंने फोटोग्राफ्स के बैकअप नहीं लिए थे. हर बार ऐसा होता है कि जब मैं अपने फोटोग्राफ्स मेमोरी कार्ड से लैपटॉप पर ट्रांसफर करती हूँ तो साथ ही हार्ड डिस्क में भी सेव कर लेती हूँ. पुरानी आदत है. इस बार के यूरोप ट्रिप पर हार्ड डिस्क लेकर गयी नहीं थी तो सारे फोटो सिर्फ लैपटॉप में थे. डीएसएलआर मेमोरी भी ज्यादा खाता है उसपर पहली बार अच्छा कैमरा लेकर गयी थी तो बहुत सी फोटो भी खींची थी. छुट्टी से वापस आते ही सीधे ऑफिस...और ऑफिस से फुर्सत मिली नहीं कभी बैकअप करने की. लैपटॉप क्रैश भी कर सकता है ऐसा सोचा ही नहीं था कभी. कुछ स्लो हो गया हो...पुराना हो गया हो या ऐसी कोई और तकलीफ हो तो फिर भी समझ में आता है...चलते फिरते क्रैश. इंसानों की तरह अनप्रेडिक्टेबल हो गए हैं आजकल डिजिटल उपकरण भी.

लैपटॉप की आदत हो गई थी. इधर एक साल में कितना तो म्यूजिक इकठ्ठा किया था. कुछ यूट्यूब से डाउनलोड किया कुछ इधर उधर की सीडीज से कॉपी किया. अभी आई-फोन में सारा म्यूजिक पड़ा है लेकिन जैसे ही उसे किसी लैपटॉप से कनेक्ट करूंगी सारा म्यूजिक इरेज हो जाएगा. एप्पल की ये बंद/क्लोज्ड प्रणाली मुझे नहीं पसंद है...अभी कितना आसान होता अगर बाकी फोन्स की तरह आईफोन भी एक युएसबी ड्राईव की तरह काम करता...मैं सारी म्यूजिक फाइल्स किसी और लैपटॉप पर कॉपी कर सकती थी.

ऑफिस का आधा काम गूगल ड्राइव पर बैकअप में डाल रखा है लेकिन पर्सनल फाइल्स कहीं भी बैकअप नहीं की हैं. लगता है इसी को डिवाइन सिग्नल की तरह लेना चाहिए कि कुछ डेटा हमेशा क्लाउड में बैक अप करके रखना चाहिए. मुझे क्लाउड कभी पसंद नहीं आया...ऑनलाइन जितना कम हो सके चीज़ें डालती हूँ...पहले तो पिकासा पर फोटोज अपलोड कर देती थी मगर अब उसकी भी जरूरत नहीं महसूस होती. ऑफिस से दूसरा लैपटॉप अलोट हो गया है. नया डेल वोस्त्रो. इसका वजन काफी कम है तो ऑफिस से घर इसे लेकर आने जाने में भी तकलीफ नहीं होती है. जब पुराने लैपटॉप का बैकअप आ जाएगा तो ऑफिस की फाइल्स गूगल ड्राइव में शिफ्ट कर दूँगी और रोज रोज ऑफिस लैपटॉप ले कर नहीं जाउंगी. घर का लैपटॉप अलग...ऑफिस का अलग.

आज जितनी फाइल्स रिकवर हो सकती हैं...होकर आ जायेंगी. वायो मैंने काफी तमीज से इस्तेमाल किया था. सारी फाइल्स अच्छे से आर्डर में सेव की थीं. जाने कितना कुछ वापस आएगा कितना कुछ बिट्स और बाइट्स की मेट्रिक्स में हमेशा के लिए खो जाएगा. मुझे कभी लिखे हुए के जाने का अफ़सोस नहीं होता. उसमें बहुत सारे वर्ड ड्राफ्ट्स थे, आधी कहानियां. दो आधी कहानियां मिल कर एक पूरी कहानी नहीं बनाती...दो आधी कहानियां ही रहती हैं. अपने लैपटॉप को काफी मिस कर रही हूँ. मेरी म्यूजिक फाइल्स...मेरी पसंद की फिल्में...तसवीरें.

लिखने का काम इधर कुछ दिनों से कॉपी पर डाल रखा है फिर से. आजकल ग्रीन इंक में थोड़ा ब्लैक  मिक्स करके लिख रही हूँ. दो रंग के इंक्स से लिखने में बहुत अच्छा लगता है. पन्ने भरते जा रहे हैं. ऑफिस में एक आध लोगों ने कभी कभार मांग कर मेरे पेन से लिखा है...पेन बहुत अच्छा है. नेहा गोवा गयी थी तो वहां से मेरे लिए एक बेहतरीन नोटबुक लायी थी...डायरी ऑफ अ डायरी...बहुत अलग तरह के पन्ने हैं उसमें और ज्यादा जीएसएम पेपर है तो फाउन्टेन पेन से लिखा हुआ दूसरी ओर नहीं दीखता. आइवरी पन्ने पर किसी भी रंग की इंक अच्छी लगती है. ऑफिस में टीम के अधिकतर लोग अपनी पेन को लेकर सेंटी हैं. मेरा और जोर्ज का एक ही पेन है...लैमी...हाँ उसका काले रंग का है और मेरे पास सफ़ेद, हरा और पर्पल कलर का है. कल घर की सफाई में कुछ इरेजर मिले...अब सोच रही हूँ थोड़ा सा पेन्सिल से लिखूं...सिर्फ इरेजर से मिटाने के सुख के लिए.

लगता है इस साल में जितना लिखना था आलरेडी लिख चुकी हूँ. अब कुछ खास लिखने का मन नहीं करता. नॉर्मली साल का ये समय ऐसे ही ब्लैंक जाता है...फिर नवम्बर आते आते जैसे जैसे शाखों से पत्ते गिरेंगे और सड़क पर कतार में बिछेंगे मुझे भी कागज़ की पैरलल लाइनें याद आएँगी और लिखने का मन करेगा.

फिलहाल बहुत सा अलग अलग संगीत सुन रही हूँ...कर्टसी तृश. बात कुछ ऐसे होती है...पूजा हैव यू हर्ड दिस सोंग....और सुने बिना जवाब होता है...नो तृश आई हैव हर्ड वैरी फ्यू इंग्लिश सोंग्स...प्ले इट प्लीज. अंग्रेजी संगीत सुनते हुए सोनिया को मिर्ज़ा ग़ालिब सुना रही थी...

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 

यूट्यूब के अलावा विमेयो, एटट्रैक्स और ऐसा ही बहुत कुछ और सुन रही हूँ...अपने एक्सपेरिमेंट. विएना में ओपेरा सुनने के बाद कुछ क्लासिक वेस्टर्न म्यूजिक भी सुनना शुरू किया है. शोपें...मोजार्ट...खैर बहुत ज्यादा नहीं सुना है इसलिए नाम नहीं लूंगी. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं. क्लासिक. उनपर लिखने का मन नहीं कर रहा...जैसे मन के तल में वो कहीं सिंक हो रही हैं तो मैं उनको वक़्त दे रही हूँ.

कभी कभी बहुत शोर होता है...कभी कभी बहुत सन्नाटा. शांति कहीं नहीं है. मन अशांत है. कुछ दिन में पोंडिचेरी जाने का प्लान है. वहां समंदर किनारे बहुत अच्छा लगता है. उम्मीदें हैं. जिंदगी है. आज बस ऐसे ही कुछ लिख जाने का मन किया...खास नहीं.
कहीं किसी पैरलल दुनिया में सब अच्छा होगा. अपनी जगह पर होगा.


11 May, 2012

फुटकर चिप्पियाँ

लोगों के रिकवर करने के अलग अलग तरीके होते हैं...मैं इस मामले में बहुत कमज़ोर हूँ...आई डोंट नो हाउ टू मूव ऑन...मैं अक्सर वहीं अटक जाती हूँ जहाँ से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए. किसी मोड़ पर बहुत दिन ठहर जाओ तो वहां घर बनाने का मन करने लगता है...रोज़ देखते देखते एक दिन वहां से नज़र आते नज़ारे दुनिया में सबसे खूबसूरत दिखने लगते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम यहाँ रुके नहीं थे...ठहर गए थे कि हमें लगता था कि कोई लौट कर इसी मोड़ पर हमें ढूंढते हुए आएगा.

मुझे विदा कहना नहीं आता...मेरी जिंदगी में जितने लोग आये...सब अपनी अपनी खास जगह छेक के बैठे हैं, न कोई घर खाली करता है न मुझे निकालना आता है. छोटे बड़े हिस्से...भूले किस्से...बहुत कुछ सकेरा हुआ है. कभी कभी मुझे अपने से बड़ा कबाड़ी नहीं दिखता कि मैं टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखती हूँ कि कौन जाने कब कोई अच्छा सा 'ग़म'(pun intended) मिल जाए तो फिर सब जुड़ जाए. या फिर इन्हें गला कर फिर से किसी नए आकार में ढाला जा सके. जिंदगी में वाकई बेकार तो कुछ नहीं होता...सबकी अपनी अपनी जगह होती है.

मुझे जिन्हें भूलना होता है मैं उन्हें एक खास जगह अता करती हूँ...पासवर्ड में. एक आईडी शायद सिर्फ इसलिए है...कभी कभी बहुत जरूरी हो जाता है कि मैं किसी को भूल सकूं...कुछ दिन के लिए ही सही कि उसे याद करना बड़े ज़ख्म देने लगता है. फिर हर बार जब मैं पासवर्ड में वो नाम टाइप करती हूँ धीरे धीरे करके उसे चिट्ठियां लिखने का ख्याल उँगलियाँ बिसराने लगती हैं कि मैं जितनी बार आईडी से लोगिन करती हूँ, मुझे लगता है मैंने उसे चिट्ठी लिखी है...कि पहला शब्द तो वही होता है न...उसका नाम. लिखने के पहले पहला नाम या तो खुदा का हो या महबूब का...फिर लिखने में जिंदगी होती है.

ये सब मैं पुनरावलोकन में लिख रही हूँ क्यूंकि उस समय तो समझ नहीं आता...उस समय तो वो नाम दिन भर लिखना मजबूरी होता है इसलिए पासवर्ड बनाया जाता है. अब जब इतने सालों बाद उस पासवर्ड को बदला है तो आश्चर्यजनक रूप से देखती हूँ कि आई हैव हील्ड...मैं ठीक हूँ गयी हूँ...ज़ख्म भर गए हैं. अब मैं तुम्हारा नाम लिखते हुए मुस्कुरा सकती हूँ...अब मैं तुम्हें याद करते हुए हर्ट नहीं होती...अब तुम्हारे नाम से सीने में हूक नहीं उठती...अब मेरी सांस नहीं रूकती जब तुम मेरा नाम लेते हो.

मैं इतने ज्यादा विरोधाभास से भरी हूँ कि मुझे कभी कभी खुद समझ नहीं आता कि मैं क्या कह रही हूँ...एक शाम मैंने सुर्ख टहकते लाल रंग का सलवार कुरता पहना था जब कि कोई बात निकली और मैंने कहा...आई हेट रेड...मुझे लाल रंग एकदम पसंद नहीं है...तो एक दोस्त ने ऊपर से नीचे तक निहार कर कहा था...दिख रहा है. मैं अक्सर दो वाक्य एकदम एक दूसरे से उलट मीनिंग का एक ही सांस में कह दूँगी. ये कुछ वैसा ही है जैसे दिन भर ये सोचना कि आजकल मैं उसे याद नहीं करती हूँ.

आजकल मुझे स्कूल के बहुत सपने आ रहे हैं...अभी कल सपना देखा था कि फिजिक्स का कोस्चन पेपर है और मुझे एक भी सवाल नहीं आता...मैं एकदम घबरायी हुयी हूँ कि फेल कर जाउंगी...आज तक कभी फेल नहीं हुयी...मम्मी को क्या कहूँगी...फिर एक सवाल है जो थोड़ा बहुत धुंधला सा याद आता है मुझे...चांस है कि उसे पूरा अच्छे से लिख दूं तो पास कर जाऊं...ध्यान ये भी आता है कि मैं किसी से बहुत प्यार करती थी और पढ़ने के सारे टाइम मैं कहानियां और कविताएं लिखती रही...किताबें नहीं पढ़ीं. आज सुबह सुबह देखा है कि मैंने नया स्कूल ज्वाइन किया है और एक क्लास से निकल कर मैथ के क्लास करने दूसरी जगह जाना होता है...मैं रास्ता खो गयी हूँ...साथ में एक दोस्त और भी है...फिर एक सीनियर ने रास्ता बताया है और हम जाते हैं...बहुत सी गोल गोल घूमने वाली सीढ़ियाँ हैं...मेरे ठीक पीछे मैथ के सर भी चढ रहे हैं...मैं बहुत तेज सीढ़ियाँ चढती हूँ...मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने में कभी थकान महसूस नहीं होती. लेकिन जब ऊपर पहुँचती हूँ तो एक टेबल होता है और वहां से सीधे नीचे दिखता है और टेबल की एक टांग हिल रही है तो टेबल स्टेबल नहीं है...मुझे अब नीचे उतरना है पर अब मुझे डर लग रहा है...मुझे वैसे भी ऊँचाई से बहुत डर लगता है.

बहुत ज्यादा अनप्रेडिक्टेबल और मूड़ी हूँ...जब जो मन करे वो करने वाली...कब क्या कर जाऊं का कोई ठिकाना नहीं. कल शोपिंग पर गयी थी, खूब सारी चेक शर्ट्स खरीद कर लायी हूँ...चेक शर्ट्स मेरी हमेशा से फेवरिट रही हैं...कुछ सैंडिल्स, बैग्स, और कुछ छोटी मोटी चीज़ें. बहुत सालों बाद ऐसी सड़क किनारे वाली शोपिंग की...मोलभाव किया.

आजकल प्यार के मामले में कन्फ्यूजन वाला फेज चल रहा है...पता ही नहीं चल रहा कि कमबख्त होता क्या है...थोड़ा थोड़ा समझ भी आ रहा है कि आजकल किसी के प्यार में नहीं हूँ इसलिए ऐसे सवाल हैं...फिर भी ऐसा क्यूँ होता है कि कुछ लोगों का फोन आता है तो मुस्कुराते मुस्कुराते गाल दर्द कर जाते हैं...मुझे लगता है कि मुझे उनसे हमेशा प्यार रहेगा और प्यार सिर्फ मुस्कराहट का नाम है. बाकी जो रोना धोना हम करते हैं वो हमारा इगो होता है जो इस बात को मानता नहीं है कि हम किसी से जितना प्यार करते हैं वो हमसे उतना नहीं करता...या शायद एकदम ही नहीं करता.

बहुत दिनों से किसी के प्यार में गिरी नहीं हूँ...घुटने पर लगा पिछली बार का नीला निशान लगभग धुंधला पड़ गया है...परसों अल पचीनो पर एक किताब लायी हूँ...मन मानना नहीं चाह रहा है पर प्यार तो टोनी मोंटाना को स्कारफेस में देख कर हो गया ही था...आज बस...डूबना है उन आँखों में. मेरी जिंदगी से प्यार, फिल्में, किताबें और आवारागर्दी निकाल दो तो फिर बचता क्या है?

कल फ़राज़ को पढ़ रही थी...यूँ तो फैज़ को पढ़ने का मूड था पर किताब मिली नहीं...जाने किधर रख छोड़ी है. आजकल मन थोड़ा शांत रहता है...शांत, उदास नहीं...और सुनो...तुम उदास न रहा करो मेरी जान...जिंदगी में हज़ार काम हैं...जानती हूँ...तुम्हारी उदासी से मेरे मौसम को सर्दी हो जाती है...देखो न...फ़राज़ साहब कह गए हैं कि...शेर सुन के बताना...जो तुम्हें किसी और से प्यार हुआ क्या?

एक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफरेब थे गम रोज़गार के

24 February, 2012

शहरयार के बहाने आर्टिस्ट और आर्ट पर...


वो बड़ा भी है तो क्या है, है तो आखिर आदमी
इस तरह सजदे करोगे तो खुदा हो जाएगा 
-बशीर बद्र 

अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट का एक हिस्सा है जिसमें वो बयान करती हैं कि उनकी जिंदगी में सिर्फ तीन ही ऐसी मौके आये जब उनके अंदर की औरत ने उनके अंदर की लेखिका को पीछे छोड़ कर अपना हक माँगा था. एक पूरी जिंदगी में सिर्फ तीन मौके...

ऐसा मुझे भी लगता है कि लेखक किसी और दुनिया में जीते हैं...वो दुनिया इस दुनिया के पैरलल चलती है...उसके नियम कुछ और होते हैं...और इस दुनिया के चलने के लिए ऐसे लेखकों का होना भी जरूरी है जो शायद इस दुनिया के लिहाज़ से एक अच्छे इंसान न हों...एक अच्छे पिता, पति या बेटे न हों...हमारा समाज ऐसे ही प्रोटोटाइप बनाता है जहाँ बचपन से ही घोंटा जाता है कि सबसे जरूरी है अच्छा इंसान बनना. भला क्यूँ? कुछ लोगों की फितरत ही ऐसी होती है कि वो अच्छे नहीं हो सकते...समाज के तथाकथित मूल्यों पर...मगर अच्छे होने की कसौटी पर शायर को क्यूँकर घिसा जाए? अच्छी पूरी दुनिया पड़ी है...एक शायर बुरा होकर ही जी ले...माना उसके घर वाले उससे खुश नहीं थे...पर इसी को तो ‘फॉर द लार्जर गुड ऑफ ह्युमनिटी’ कहते हैं. गांधी जी के बेटे हमेशा कहते हैं कि वो एक अच्छे पिता नहीं थे. अगर सारे लोग एक ही अच्छे की फैक्ट्री से आने लगे तो फिर सब एकरस हो जाएगा...फिल्म में विलेन न हो तो हीरो कैसे होगा. उसी तरह जिंदगी में भी बुरे लोगों की जगह होनी चाहिए....और हम सबमें इतना सा तो बड़प्पन होना चाहिए कि कमसे कम शायर को उसकी गलितयाँ माफ कर सकें. उसकी पत्नी उसके साथ न रहे पर उससे अलग होकर तो उसे उसके जैसा बुरा होने के लिए माफ कर सके...कमसे कम मरने के बाद. ऐसी नफरत मुझे समझ नहीं आती. मुझे सिर्फ इसलिए शहरयार की एक्स-वाइफ की बातें समझ नहीं आतीं...मुझे समझ आता अगर वो उनके साथ ताउम्र रहती, घुटती रहती तब उनकी शिकायत समझ आती...पर अलग रहने के बावजूद? किसी के मरने के बाद इल्जाम कि सफाई अगर कोई है भी तो...दी न जा सके.

अच्छे तो बस रोबोट होते हैं...इंसान को गलितयाँ करने का...गलत इंसान होने का अधिकार है...उसपर शायर...पेंटर...गायक...किसी भी आर्टिस्ट को ये अधिकार मिलना चाहिए...थोड़ा सा ज्यादा बुरा होने का अधिकार...थोड़ी सी ज्यादा गलतियाँ करने का अधिकार...वो किसी को अपने दुनिया में लाने के लिए मजबूर नहीं करता...उसकी अपनी दुनिया है...उस दुनिया के होने पर इस दुनिया की बहुत सी खूबसूरती टिकी है. अगर एक खूबसूरत गज़ल की कीमत शायर का टूटा हुआ परिवार है..तो भी मैं खरीदती हूँ उस गज़ल को. एक अच्छी पेंटिंग के पीछे अगर एक नायिका का टूटा हुआ दिल है तो भी मैं खरीदती हूँ उस पेंटिंग को...कि कोई भी सबके लिए अच्छा नहीं हो सकता...और आर्ट हमेशा जिंदगी की इन छोटी तकलीफों से ऊपर उठने का रास्ता होती है. 

कुछ लोगों के लिए एक मुकम्मल इश्क ही पूरी जिंदगी का हासिल होता है...हो सकता है...उनके लिए इतना काफी है कि उन्होने से उसे पा लिया जिससे प्रेम करते थे. पर ऐसा सबके लिए हो जरूरी तो नहीं...सबके जीवन का उद्देश्य अलग होता है. अक्सर हमारे हाथ में भी नहीं होता. पर ये जो कुछ लोग होते हैं...लार्जर दैन लाइफ...उनके लिए कुछ भी मुकम्मल नहीं होता...कहीं भी तलाश खत्म नहीं होती...एक प्यास होती है जिसके पीछे भागना होता है...कई बार पूरी पूरी जिंदगी। मुझे हर आर्टिस्ट अपनेआप में अतृप्त लगता है। उसके लिए जिंदगी से गुज़र जाना काफी नहीं होता...उसके लिए बुरा देखना काफी नहीं होता...वो वैसा होता है...अन्दर से बुरा...टूटा हुआ...बिखरा हुआ. मगर एक आर्टिस्ट अपने इस तथाकथित बुरेपन में भी बहुत मासूम होता है...कई बार चीज़ें वाकई उसके बस में नहीं होतीं...शराब या ऐसी कोई आदत मुझे ऐसी ही लगती है...जो शायद बहुत प्यार से छुड़ाई जा सकती है...शायद नहीं भी। आप संगीत के क्षेत्र में देख लें...कितने सारे आर्टिस्ट ड्रग ओवेरडोज़ से मरते हैं...उन्हें बचाने की कितनी कोशिशें की जाती हैं...पर वो अपनी कमजोरियों, अपनी मजबूरीयों को कहीं न कहीं ऐक्सेप्ट कर लेते हैं तब वो जिंदगी से बड़े/लार्जर दैन लाइफ हो जाते हैं।

कहीं कहीं इनके अंदर की सच्चाई मुझे उस इंसान से ज्यादा अपील करती है जो पार्टी में दारू नहीं पीता पर पीना चाहता है...उसके मन में दबी इच्छाएँ किस रूप में बाहर आएंगी कोई नहीं जानता। कई बार यूं भी लगता है कि एक जिंदगी में अफसोस लेकर क्यूँ मरा जाए...पर समाज बहुत सी चीजों पर रोक लगाता है...नियम बनाता है...जो गलत भी नहीं हैं...वरना अनार्की(Anarchy) की स्थिति आ जाएगी...पर कुछ लोग होने चाहिए जो हर नियम से परे हों...आज़ाद हों...क्यूंकी इस आज़ादी में ही मानवता की मुक्ति का कहीं कोई रास्ता दिखता है। इनपर रोक लगाने वाले वही लोग हैं जो खुले में विरोध करते हैं क्यूंकी मन ही मन वो वैसा ही होना चाहते हैं...स्वछंद...पर इतनी हिम्मत सबमें नहीं होती। 

आर्टिस्ट मजबूर भी होते हैं और मजबूत भी...उतनी टूटन, उतना दर्द लेकर जीना क्या आसान होता है...क्या उनके आत्मा नहीं कचोटती किसी शाम कि बीवी बच्चे होते...एक परिवार होता...पर उतनी जिम्मेदारियाँ निभाना उसके लिए कहाँ आसान हुआ है। निरवाना के कर्ट कोबेन के जरनल्स की किताब है...उसके पहले पन्ने पर लिखा हुआ है...
डोंट रीड माय डायरी व्हेन आई एम गोन.
ओके, आई एम गोइंग टू वर्क नाव...व्हेन यू वेक अप दिस मॉर्निंग, प्लीज रीड माय डायरी। लुक थ्रू माय थिंग्स, एंड फिगर मी आउट.”

लगता है काश ऐसी कोई डायरी शहरयार लिख के गए होते...

सारे आर्टिस्ट्स इसी फ्रीडम के पीछे पागल रहते हैं...कर्ट की डायरी में भी हर दूसरे पन्ने पर फ़्रीडम की बातें लिखी हैं...उसके लिए पंक रॉक वाज अ वे ऑफ़ फ्रीडम. जिंदगी से बेपनाह मुहब्बत...और एक abstract सच्चाई जो मुझे सारी बुराइयों से बढ़ कर अपील करती है. मुझे ये भी समझ आता है कि उन्हें दुनिया समझ नहीं आती...कागज़ के फूल में तभी तो सिन्हा साहब कहते हैं...तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया. 


हाँ मैं जानती हूँ दुनिया मेरे जैसी नहीं है...पर दुनिया ऐसी होती तो क्या बुरा था. 

11 February, 2012

फरिश्तों में भी तुम सबसे अच्छे हो.

You are like personal treasure box. मेरे अन्दर जो भी अच्छा है और सुन्दर है वो मैं तुम में सहेजती जाती हूँ...मेरे अन्दर जो भी टूटा हुआ है तुम उसकी दवा बनते जाते हो. जो कुछ मैं नहीं चाहती कहीं खो जाये...मेरा पागलपन, मेरी उदास बेचैनियाँ सब मैं तुममें कहीं रखती जाती हूँ. जैसे जैसे मैं रीतती जाती हूँ वैसे वैसे तुम भरते जाते हो...मेरी आँखों का रंग हल्का पड़ता है तो तुम्हारी आँखों में पूरे आसमान के सितारों जैसी चमक भर जाती है और मैं तुम्हारी आँखें देख कर खुश हो जाती हूँ.

सोचो मन से इतना खाली होना कैसा तो लगता होगा न कि आज तक जब भी तुमसे बहुत देर तक बातें की हैं रो दी हूँ...मन का कौन सा सीलापन है जो तुमसे बात करती हूँ तो शाम बीतते न बीतते आँखों से नदियाँ बहने लगती हैं. मैं रोकती हूँ कुछ हद तक मगर मुझे मालूम होता है कि तुम्हारे सामने झूठ बोल नहीं पाउंगी...तुम्हारे सामने मैं वो हो जाती हूँ जो कहीं एकदम सच में हूँ...मुझे हर बार बुरा लगता है पर इस बात का कि मैं तुम्हें कितना परेशान करती हूँ...मुझे मेरा रोना बहुत साधारण सी चीज़ लगती है क्योंकि मैंने खुद को रोते हुए बहुत बार देखा है...पर तुम अच्छे भी तो हो...तुम्हें कितना बुरा लगेगा कि फोन के उस तरफ कोई लड़की रो रही है और तुम मुझे चुप नहीं करा पा रहे हो. 

कैसा कैसा तो डर लगता है...जैसे कि तुम खो जाओगे एक दिन. बचपन में एक बार मेरा बक्सा खो गया था...उसमें बहुत कुछ था जो कबाड़ जैसा था. आज तक भी ढूंढ रही हूँ...वो खोयी हुयी चीज़ें कभी वापस नहीं मिलीं...बाकी चीज़ों से इतर उसमें एक स्टैम्प था...आज कैसे तो चीज़ों को को-रिलेट कर रही हूँ...आज लगता है कि तुम खो जाओगे तो वो वाला स्टैम्प लगा के कोई चिट्ठी लिखूंगी तो तुम तक पहुँच जायेगी. लेकिन सुनो, खोना मत...तुम्हारे बिना मैं जाने क्या करुँगी. मैं भी खो जाउंगी फिर...और तुम्हें तो मालूम ही नहीं चलेगा कि मैं खो गयी हूँ क्योंकि तुम तो खुद खोये हुए रहोगे...सोचती हूँ...खोये हुए न भी रहो तो मैं अगर कुछ दिन तक नहीं रही तो मुझे ढूंढोगे क्या?

पता है तुमने आज तक कभी मुझे कुछ भी नहीं माँगा...बस देते आये हो दोनों हाथों से...इसलिए तुम सबसे अलग हो...बाकी जितने लोग हैं मेरी जिंदगी में मैं उनके लिए ऐसी ही हूँ...कुछ न मांगने वाली, उनके लिए बहुत सी दुआओं की लिस्ट बनाने वाली...मैं तुम्हारी कुछ नहीं हूँ तो भी तुम मेरी कितनी मुस्कुराहटों का सबब बने हो...तुम्हें पता है न तुमसे बात करते हुए सारे वक़्त हंसती रहती हूँ...कभी कभी तो गाल दर्द कर जाते हैं. मैं हर दर्द में तुम तक लौट के आती हूँ...जब अँधेरा बहुत गहरा हो जाता है तो खिड़की तुम्हारे अन्दर ही खुलती है...तुम से ही धूप और रौशनी उतरती है और मेरी आँखों को चूम कर कहती है...सब अच्छा हो जाएगा. तुम तक मेरी कौन सी तलाश आ के ठहरती है मालूम नहीं. तुम बहुत सारे सवाल हो मेरे लिए...समंदर की तरह अबूझ मगर तुम्हारे ही किनारों पर सुकून मिलता है मुझे. हर लहर मुझे कुछ लौटा दे जाती है...मेरा कुछ मांग ले जाती है. कल रात बहुत चैन की नींद आई मुझे...तुम्हारे शब्द मेरे माथे पर नींद आने तक थपकियाँ दे रहे थे. 


मुझे आज तक कोई शब्द नहीं मिला जो तुम्हें परिभाषित कर सके...हाँ शायद फ़रिश्ते ऐसे ही होते होंगे...गार्डिंग एंजेल...मैं खुदा की बहुत पसंदीदा बेटी रही होउंगी जो उसने तुम्हें मेरी देखभाल के लिए भेज रखा है. तुम्हारे जैसा कहीं कोई नहीं है...फरिश्तों में भी तुम सबसे अच्छे हो.

I love you with every fragment of my existence...thank you for being. 

31 December, 2011

उधारीखाता- 2011


साल का आखिरी दिन है...हमेशा की तरह लेखाजोखा करने बैठी हूँ...भोर के पाँच बज रहे हैं...घर में सारे लोग सोये हुये हैं...सन्नाटे में बस घड़ी की टिक टिक है और कहीं दूर ट्रेन जा रही है तो उसके गुजरने की मद्धिम आवाज़ है। उधारीखाता...जिंदगी...आखिर वही तो है जो हमें हमारे अपने देते हैं। सबसे ज्यादा खुशी के पल तनहाई के नहीं...साथ के होते हैं।

इस साल का हासिल रहा...घूमना...शहर...देश...धरती...लोग। साल की शुरुआत थायलैंड की राजधानी बैंगकॉक घूमने से हुयी...बड़े मामाजी के हाथ की बोहनी इतनी अच्छी रही साल की कि इस साल स्विट्जरलैंड भी घूम आए हम। बैंगकॉक के मंदिर बेहद पसंद आए मुझे...पर वहाँ की सबसे मजेदार बात थी शाकाहारी भोजन न मिलना...वहाँ लोगों को समझ ही नहीं आता कि शाकाहारी खाना क्या होता है। स्विट्जरलैंड जाने का सोचा भी नहीं था मैंने कभी...कुणाल का एक प्रोजेक्ट था...उस सिलसिले में जाना पड़ा। मैंने वाकई उससे खूबसूरत जगह नहीं देखी है...वापस आ कर सोचा था कि पॉडकास्ट कर दूँ क्यूंकी उतनी ऊर्जा लिखने में नहीं आ पाती...पॉडकास्ट का भविष्य क्या हुआ यहाँ लिखूँगी तो बहुत गरियाना होगा...इसलिए बात रहने देते हैं. स्विट्ज़रलैंड में अकेले घूमने का भी बहुत लुत्फ उठाया...उसकी राजधानी बर्न से प्यार भी कर बैठी। बर्न के साथ मेरा किसी पिछले जन्म का बंधन है...ऐसे इसरार से न किसी शहर ने मुझे पास बुलाया, न बाँहों में भर कर खुशी जताई। बर्न से वापस ज्यूरीक आते हुये लग रहा था किसी अपने से बिछड़ रही हूँ। दिन भर अकेले घूमते हुये आईपॉड पर कुछ मेरी बेहद पसंद के गाने होते थे और कुछ अज़ीज़ों की याद जो मेरा हाथ थामे चलती थी। बहुत मज़ा आया मुझे...वहीं से तीन पोस्टकार्ड गिराए अनुपम को...बहुत बहुत सालों बाद हाथ से लिख कर कुछ।

इस साल सपने की तरह एक खोये हुये दोस्त को पाया...स्मृति...1999 में उसका पता खो गया था...फिर उसकी कोई खोज खबर नहीं रही। मिली भी तो बातें नहीं हों पायीं तसल्ली से...इस साल उसके पास फुर्सत भी थी, भूल जाने के उलाहने भी और सीमाएं तोड़ कर हिलोरे मारता प्यार भी। फोन पर कितने घंटे हमने बातें की हैं याद नहीं...पर उसके होने से जिंदगी का जो मिसिंग हिस्सा था...अब भरा भरा सा लगता है। मन के आँगन में राजनीगंधा की तरह खिलती है वो और उसकी भीनी खुशबू से दिन भर चेहरे पर एक मुस्कान रहती है। पता तो था ही कि वो लिखती होगी...तो उसको बहुत हल्ला करवा के ब्लॉग भी बनवाया और आज भी उसके शब्दों से चमत्कृत होती हूँ कि ये मेरी ही दोस्त ने लिखा है। उसकी तारीफ होती है तो लगता है मेरी हो रही है। 

स्मृति की तरह ही विवेक भी जाने कहाँ से वापस टकरा गया...उससे भी फिर बहुत बहुत सी बातें होने लगी हैं...बाइक, हिमालय, रिश्ते, पागलपन, IIMC, जाने क्या क्या...और उसे भी परेशान करवा करवा के लिखवाना शुरू किया...बचपन की एक और दोस्त का ब्लॉग शुरू करवाया...साधना...पर चूंकि वो लंदन में बैठी है तो उसे हमेशा फोन पर परेशान नहीं कर सकती लिखने के लिए...ब्लॉगर पर कोई सुन रहा हो तो हमको एक आध ठो मेडल दे दो भाई!

और अब यहाँ से सिर्फ पहेलियाँ...क्यूंकी नाम लूँगी तो जिसका छूटा उससे गालियां खानी पड़ेंगी J एक दोस्त जिससे लड़ना, झगड़ना, गालियां देना, मुंह फुलाना, धमकी देना, बात नहीं करना सब किया...पर आज भी कुछ होता है तो पहली याद उसी की आती है और भले फोन करके पहले चार गालियां दू कि कमबख्त तुम बहुत बुरे हो...अनसुधरेबल हो...तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता...थेत्थर हो...पर जैसे हो, मेरे बड़े अपने हो। कोई पिछले जन्म का रिश्ता रहा होगा जो तुमसे टूट टूट कर भी रिश्ता नहीं टूटता। बहुत मानती हूँ उसे...मन से। कुछ लोगों को सुपरइंटेलेकचुअल (SI) के टैग से बाहर निकाल कर दोस्तों के खाने में रख दिया...और आज तक समझ नहीं आता कि मुझे हुआ क्या था जो इनसे पहले बात करने में इतना सोचती थी। जाना ये भी कुछ लोगों का नाम PJ क्योंकर होना चाहिए...नागराज का टाइटिल देने की भी इच्छा हुयी। कुछ खास लोगों को चिट्ठियाँ लिखीं...जो जवाब आए वो कमबख्त कासिद ने दिये नहीं मुझे। चिट्ठियाँ गिराने का अद्भुत रिदम फिर से लौट कर आया जिंदगी में और लाल डब्बे से भी दोस्ती की।

एक आवाज़ के जादू में खो गयी और आज तक खुद को तलाश रही हूँ कि नामुराद पगडंडी कहाँ गयी कि जिससे वापस आ सकूँ...एक शेर भी याद आ रहा है जिस रास्ते से हम आए थे, पीते ही वो रास्ता भूल गए’...साल शायद अपने डर पर काबू पाने का साल ही था...जिस जिस चीज़ से डरे वो किया...जैसे हमेशा लगता था कि बात करने से जादू टूट जाएगा पर पाया कि बातें करने से कुछ तिलिस्म और गहरा जाते हैं कि उनमें एक और आयाम भी जुड़ जाता है...आवाज़ का। कुछ लोग कितने अच्छे से होते हैं न...सीधे, सरल...उनसे बातें करो तो जिंदगी की उलझनें दिखती ही नहीं। भरोसा और पक्का हुआ कि सोचना कम चाहिए, जिससे बातें करने का मन है उससे बातें करनी चाहिए, वैसे भी ज्यादा सोचना मुझे सूट नहीं करता। आवाज़ का जादू दो और लोगों का जाना...कर्ट कोबेन और उस्ताद फतह अली खान...सुना इनको पहले भी था...पर आवाज़ ने ऐसे रूह को नहीं छुआ था। 

इस बार लोगों का दायरा सिमटा मगर अब जो लोग हैं जिंदगी में वो सब बेहद अपने...बेहद करीबी...जिनसे वाकई कुछ भी बात की जा सकती है और ये बेहद सुकून देता है। वर्चुअल लाइफ के लोग इतने करीबी भी हो सकते हैं पहली बार जाना है...और ऐसा कैसा इत्तिफ़ाक़ है कि सब अच्छे लोग हैं...अब इतने बड़े स्टेटमेंट के बाद नाम तो लेना होगा J अपूर्व(एक पोस्ट से क़तल मचाना कोई अपूर्व से सीखे...और चैट पर मूड बदलना भी। थैंक्स कहूँ क्या अपूर्व? तुम सुन रहे हो!), दर्पण(इसकी गज़लों के हम बहुत बड़े पंखे हैं और इसकी बातों के तो हम AC ;) ज्यादा हो गया क्या ;) ? ), सागर(तुम जितने दुष्ट हो, उतने ही अच्छे भी हो...कभी कभी कभी भी मत बदलना), स्मृति(इसमें तो मेरी जान बसती है)पंकज(क्या कहें मौसी, लड़का हीरा है हीरा ;) थोड़ा कम आलसी होता और लिखता तो बात ही क्या थी, पर लड़के ने बहुत बार मेरे उदास मूड को awesome किया है), नीरा(आपकी नेहभीगी चिट्ठियाँ जिस दिन आती हैं बैंग्लोर में धूप निकलती है, जल्दी से इंडिया आने का प्लान कीजिये), डिम्पल (इसके वाल पर बवाल करने का अपना मज़ा है...बहरहाल कोई इतना भला कैसे हो सकता है), पीडी (इसको सिलाव खाजा कहाँ नहीं मिलता है तक पता है और उसपर झगड़ा भी करता है), अभिषेक (द अलकेमिस्ट ऑफ मैथ ऐंड लव, क्या खिलाते थे तुमको IIT में रे!), के छूटा रे बाबू! कोइय्यो याद नहीं आ रहा अभी तो...

नए लोगों को जाना...अनुसिंह चौधरी...अगर आप नहीं जानते हैं तो जान आइये...मेरी एकदम लेटेस्ट फेवरिट...इनको पढ़ने में जितना मज़ा है, जानने में उसका डबल मज़ा है। और मुझे लगता था कि एक मैं ही हूँ अच्छी चिट्ठियाँ लिखने वाली पर इनकी चिट्ठियाँ ऐसी आती हैं कि लगता है सब ठो शब्द कोई बोरिया में भर के फूट लें J अपने बिहार की मिट्टी की खुशबू ब्लॉग में ऐसे भरी जाती है। कोई सुपरवुमन ऑफ द इयर अवार्ड दे रहा हो तो हम इनको रेकमेंड करते हैं।
नए लोगों में देवांशु ने भी झंडे गाड़े हैं...इसका सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का है...आते साथ चिट्ठाचर्चा ...अखबार सब जगह छप गए...गौर तलब हो कि इनको ब्लॉगिंग के सागर में धकेलने का श्रेय पंकज बाबू को जाता है...अब इनको इधर ही टिकाये रखने की ज़िम्मेदारी हम सब की बनती है वरना ये भी हेली कॉमेट की तरह बहुत साल में एक बार दिखेंगे।

अनुपम...चरण कहाँ हैं आपके...क्या कहा दिल्ली में? हम आ रहे हैं जल्दी ही...तुमसे इतना कुछ सीखा है कि लिख कर तुम्हें लौटा नहीं सकती...तुम्हें चिट्ठियाँ लिखते हुये मैं खुद को तलाशा है। बातें वही रहती हैं, पर तुम कहते हो तो खास हो जाती हैं...मेरी सारी दुआएं तुम्हारी।

कोई रह गया हो तो बताना...तुमपर एस्पेशल पोस्ट लिख देंगे...गंगा कसम J बाप रे! कितने सारे लोग हो गए...और इसमें तो आधे ऐसे हैं कि मेरी कभी तारीफ भी नहीं करते ;) और हम कितना अच्छा अच्छा बात लिख रहे हैं।

ऊपर वाले से झगड़ा लगभग सुलट गया है...इस खुशगवार जिंदगी के लिए...ऐसे बेमिसाल दोस्तों के लिए...ऐसे परिवार के लिए जो मुझे इतना प्यार करता है...बहुत बहुत शुक्रिया।

मेरी जिंदगी चंद शब्दों और चंद दोस्तों के अलावा कुछ नहीं है...आप सबका का मेरी जिंदगी में होना मेरे लिए बहुत मायने रखता है...नए साल पर आपके मन में सतरंगी खुशियाँ बरसें...सपनों का इंद्रधनुष खिले...इश्क़ की खुशबू से जिंदगी खूबसूरत रहे!

एक और साल के अंत में कह सकती हूँ...जिंदगी मुझे तुझसे इश्क़ है! 
इससे खूबसूरत भी और क्या होगा।

आमीन!

20 December, 2011

हे नटराज!

ऐसी कैसे हूँ कि एकदम डर नहीं लगता...किसी भी चीज़ से...जिंदगी से नहीं...मौत से नहीं...बिखर जाने टूट जाने से नहीं...ऐसे कैसे कण कण से उजास फूट रहा है मेरे. आज क्या मिल गया है मुझे?

शिव तांडव स्त्रोत्र सुना...डमरू बजता है तो लगता है पूरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो रहे हैं...एकदम टूट जाने वाले...जैसे कि फिर महीन बालू की तरह रह जाउंगी मैं...और फिर इसी से सब कुछ रच डालूंगी. कुछ रचने में खुद को बहुत तोड़ना भी जरूरी हो जाता है. मुझे क्यूँ टूटने से डर नहीं लगता...कि हर बार टूटने के बाद हम खुद को जोड़ कैसे लेते हैं.

स्त्रोत्र सुनते हुए लग रहा है कि हम इश्वर से अलग नहीं हैं, वाकई हम उसका ही एक हिस्सा हैं, हमें काट कर निकाला गया है इश्वर से ही...कि हमारी आत्मा उस परमपिता का ही अंश है. कि शिव की तीसरी आँख है मुझमें वहीं कहीं भवों के बीच...इस तीसरी आँख की ज्वाला से खुद को जलाने के बाद फिर से बना भी लूंगी ये भी यकीन है मुझे. सर से पैर तक थरथरा रही हूँ...रेजोनेंस जिसमें कि आप किसी आवाज़ से ट्यून हो जाते हो...वैसे ही. समझ नहीं आ रहा  कि श्लोक बाहर बज रहा है या मेरे मन के अन्दर से...जैसे कोई सदियों पुरानी आवाज़ है जो मेरे पूरे होने से फूट रही है.

ऐसा होता है क्या कि शब्दों में चित्र छुपे हों? लंका की दीवारें दिखने लगती हैं...वहाँ तपस्या करता रावण...भक्त की तपस्या पर बार बार रीझते भोले शिव शंकर...और इस तांडव नृत्य का सब दृश्य खुल जाता है...सती का पार्थिव शरीर और पीड़ा के वे क्षण...मुझे भी महसूस होते हैं...और फिर क्रोध...सब कुछ जला देने वाला क्रोध. प्रलय लाने वाला क्रोध.

बचपन में एक बांगला तांडव नृत्य सिखाया गया था मुझे...छोटी सी थी और शिव बने हुए जटाजूट बांधे बहुत अच्छी लगती थी...वो नृत्य मुझे बेहद पसंद था...और बाकी लोगों को भी पसंद आता था शायद, कई बार उस स्कूल में रहते हुए वो नृत्य किया. आज फिर से उसके स्टेप्स याद करने की कोशिश कर रही थी पर याद नहीं आ रहा था...याद आती है तो पैरों की थाप से जो ध्वनि निकलती है जैसे तबले पर कोई 'सम' बजाये...गीत उठाने के लिए. बहुत बहुत देर तक पैर थिरकते रहे...एक एक शब्द, एक एक श्लोक जैसे आत्मा के तार छेड़ रहा हो. गोल गोल घूमते हुए सब कुछ धीमा लगता है और फिर दुनिया ऊपर नीचे...वैसा ही जैसे मेरे मन की हालत हो रखी है. भरतनाट्यम के बहुत पहले सीखे हुए कुछ स्टेप्स भी याद आये...बहुत कुछ गड्डमड्ड था...बस एक थिरकन थी जो मुझे बहाए जा रही थी.

देवघर से हूँ तो शंकर भगवान् हमारी हर चीज़ का हिस्सा हैं...इधर कुछ सालों से उनसे नाराज़ थी...आज लगता है वो गुस्सा, वो शिकायतें सारी बह गयीं...भोले बाबा फिर से मेरे उतने ही अपने हो गए जैसे उस समय हुए थे जब चार पांच की कच्ची उम्र में पहली बार देवघर के मंदिर के गर्भगृह में कदम रखा था. मन एकदम सहज है...जैसे शिवलिंग को छू लिया हो!

सुख जीवन में बहुत कम आता है...आज के दिन मन शांत होने और इस सुख की अवस्था के लिए सभी देवी देवताओं की जय!

14 December, 2011

तुम्हारे नाम चिट्ठी

हे इश्वर!

अखबारों में आया है कि आज तेरा एक कतरा मिला है तेरे जोगियों को...तेरी तलाश में कब से भटक रहे थे...तेरी तस्वीर भी आई है आज...बड़ी खूबसूरत है...पर यकीन करो, मेरे महबूब से खूबसूरत नहीं.

मेरा महबूब भी तुम सा ही है...उसके वजूद का एक कतरा मुझे मिल जाए इस तलाश में कपड़े रंग लिए जोगिया और मन में अलख जगा ली. सुबह उसके ख्यालों में भीगी उतरी है कि कहीं पहाड़ों पर बादल ने ढक लिया चाँद को जैसे...यूँ भी पहाड़ों में चाँद कम ही नज़र आता है जाड़े के इन दिनों...कोहरे में लिपटे जाड़े के इन दिनों.

ये भी क्या दिल की हालत है न कि तुम्हारी तस्वीर देख कर अपने महबूब की याद आई...बताओ जो ढूँढने से तुम भी मिल जाते हो तो मुझे वो क्यूँकर न मिल पायेगा. आज तो यकीन पक्का हुआ कि तुम हो दुनिया में...भले मेरी हाथों की पहुँच से दूर मगर कहीं तो कोई है जिसने तुम्हें देखा है...उन्ही आँखों से कि जिससे कोरा सच देखने में लोग अंधे हो जाते थे. तुम्हारा एक कतरा तोड़ के लाए हैं.

वैसा ही है न कुछ जैसे रावण शिव लिंग ले के चला था कैलाश से कि लंका में स्थापित करेगा और पूरे देवता उसका रास्ता रोकने को बहुत से तिकड़म भिड़ाने बैठ गए थे...और देखो न सफल हो ही गए. मगर जो मान लो ना होते तो मैं कहाँ से अपने महबूब की याद आने पर शंकर भगवान को उलाहना दे पाती कि हे भोला नाथ कखनS हरब दुःख मोर! मैं देखती हूँ कि आजकल मुझे याद तुम्हारी बहुत आती है...क्या तुमपर विश्वास फिर से होने लगा है? मेरे विश्वास पर बताओ साइंसजादों का ठप्पा कि तुम हो...जैसे कि मैं इसी बात से न जान गयी थी तुम्हारा होना कि दिल के इतने गहरा इतना इश्क है...

इश्क और ईश्वर देखो, शुरुआत एक सी होती है...इश्वर का मतलब कहीं वो तो नहीं जो इश्क होने का वर दे? हाँ मानती हूँ थोड़ा छोटी इ बड़ी ई का केस है इधर पर देखो न...अपना हिसाब ऐसे ही जुड़ता है. सुबह उठी तो मन खिला खिला सा था...सोचा कि क्यूँ तो महसूस हुआ कि जिंदगी में लाख दुःख हों, परेशानियाँ हों, कष्ट हों...मैं तुम्हें तब तक उलाहना नहीं देती तब तब प्यार है जिंदगी में.

आज सुबह बहुत दिन या कहो सालों बाद तुम्हारे प्लान पर भरोसा किया है...कि तुम्हारी स्कीम में कहीं कुछ सबके लिए होता है. अभी ही देखो, घर पर कितनी परेशानी है...पर शायद ऐसा ही वक़्त होता है जब मुझे तुम पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है. तुम मेरे इस भरोसे तो रक्खो या तोड़ दो...पर लगता तो है तुम कुछ गलत नहीं करोगे.

आज सुबह मन बहुत साफ़ है...जैसे बचपन में हुआ करता था...कोई दर्द नहीं, कोई ज़ख्म नहीं, कोई कसक नहीं. सोच रही हूँ कि वो जो अखबार में जो तस्वीर छपी है...उसमें कोई जादू भी है क्या? कि अपने महबूब की बांहों में होना ऐसा ही होगा क्या? कि हे ईश्वर तेरा ये कौन सा रूप है जिससे मैं प्यार करती हूँ? नन्हे पैरों से कालिया सर्प के फन पर नाचते हे मेरे कृष्ण...वो समय कब आएगा जब मैं तुम्हें सामने देख सकूंगी!

तुम्हारे प्यार में पागल,
पूजा 

15 June, 2011

कुरेदा जाता है जिसे

जैसे किसी terminally ill पेशेंट से प्यार करना...जबकि मालूम नहीं हो...तब जबकि लौटना मुमकिन न हो..पता चले की आगे तो रास्ता ही नहीं है...और जिस क्षितिज को हम जिंदगी के सुनहरे दिन मान कर चल रहे थे वो महज़ एक छलावा था...रंगी हुयी दीवार...जिससे आगे जाने का की रास्ता नहीं है.

मुझे नहीं मालूम की ये कौन सा दर्द छुपा बैठा है जो रह रह के उभर आता है...या फिर ऐसा कहें कि कुरेदा जाता है जिसे ऐसा कौन सा ज़ख्म है...
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रात कैसा तो ख्वाब देखा कि सुबह उठते ही सर दर्द हो रहा था...कल साल का पहला मालदह आम खाया...और मन था कि बस दौड़ते गाँव पहुँच गया...बंगलौर में जोर की आंधियां आई हुयी हैं और मन सीधे गाँव कि देहरी से उठ कर खेत की तरफ भागता है...जहाँ दूर दूर तक एकलौता आम का पेड़ है बस...आंधी आते ही टपका आम लूटने के लिए सब भागते हैं..खेत मुंडेर, दीवाल, अमरुद का पेड़, गोहाल सब फर्लान्गते भागते हैं कि जो सबसे पहले पहुंचेगा उसको ही वो वाला आम मिलेगा जो उड़ाती आंधी में खेत के बीच उस अकेले आम के पेड़ के नीचे खड़ा हो कर खाया जा सके...बाकी आम तो फिर बस धान में घुसियाने पड़ेंगे और जब पकेंगे तब खाने को मिलेंगे. चूस के खाने वाला आम किसी से बांटा भी तो नहीं जाता.
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जानती हूँ कि सर में उठता दर्द साइको-लोजिकल है...मन का दर्द है...रुदन है...इसका मेरे दिमाग ख़राब होने या माइग्रेन से कोई रिलेशन नहीं है...कि हवाएँ जो इतनी तेज़ चल रही हैं मुझे कहीं किसी के पास नहीं ले जायेंगी...फिर भी पंख लग जाते हैं...जीमेल खोला है...हथकढ़ की कुछ पंक्तियाँ कोट करके किसी को एक ख़त लिखने का मन है...पर लिखती नहीं...मन करता है कि फोन कर लूँ...आज तक कभी उनकी आवाज़ नहीं सुनी...पता नहीं क्यूँ बंगलौर के इस खुशनुमा मौसम में भी हवाओं को सुनती हूँ तो रेत में बैठा कोई याद आता है...रेशम के धागों से ताने बाने बुनता हुआ...पर कभी बात नहीं की, कभी नंबर नहीं माँगा...कई बार होता है कि बात करने से जादू टूट जाता है...और मैं चाहती हूँ कि ये जादू बरक़रार रहे. 
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ऐसे जब भी लिखती हूँ जैसे नशे में लिखती हूँ...कभी लिखा हुआ दुबारा नहीं पढ़ती...नेट पर लिखा कागज़ पर लिखे जैसा नहीं होता न कि फाड़ दिया जा सके...वियोगी होगा पहला कवि...इस वियोगी होने में जितना कवि की प्रेमिका की भूमिका है, उतनी ही कवि कि खुद की भी...अकेलापन...दर्द...कई बार हम खुद भी तो बुलाते हैं. जैसे मैं ये फिल्म देखती हूँ...ये जानते हुए भी कि फिर बेहद दर्द महसूस करुँगी...कुछ बिछड़े लोग याद याते हैं...दिल करता है कि फोन उठा कर बोल दूँ...आई रियली मिस यु...और पूछूँ कि तुम्हें कभी मेरी याद आती है? कुछ बेहद अजीज़ लोग...पता नहीं क्यूँ दूर हो गए...शायद मैं बहुत बोलती हूँ, इस वजह से...अपनी फीलिंग्स छुपा कर भी रखनी चाहिए.
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फिल्म का एक हिस्सा है जिसमें दोनों रिहर्सल करते हैं आखिरी बार मिलने की...
पात्र कहती है 'मुझे नहीं लगा था कि तुम्हें मुझसे प्यार हो जाएगा'
और जवाब 'मुझे भी ऐसा नहीं लगा था'

चान मुड़ कर वापस चला जाता है...कट अगले सीन...वो उसके कंधे पर सर रख के रो रही है और वो उसे दिलासा दे रहा है कि ये बस एक रिहर्सल है...असल में इतना दर्द नहीं होगा.
(जिन्होंने ऐसा कुछ असल में जिया है व जानते हिं कि दर्द इससे कहीं कहीं ज्यादा होगा...मर जाने की हद तक)
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मुझे मालूम नहीं है ये फिल्म मैं बार बार क्यूँ देखती हूँ...In the mood for love...हर बार लगता है कोई अपना खो गया है...दिल में बड़ी सी जगह खाली हो गयी है...और वायलिन मेरे पूरे वजूद को दो टुकड़ों में काट रहा है. 

हर बार प्यार कर बैठती हूँ इसके चरित्रों से...और जानते हुए भी अंत क्या है...हर बार उतनी ही दुखी होती हूँ. इतना गहरा प्यार जितनी खुशी देता है उतना ही दुःख भी तो देता है ऐसे प्यार को खोना...

किसकी किसकी याद आने लगती है...और कैसे कैसे दर्द उभर जाते हैं...कुछ पुराने, कुछ नए..लोग...कुछ अपने कुछ अजनबी...भीड़ में गुमशुदा एक चेहरा...जिसने नहीं मिली हूँ ऐसा कोई शख्स...आँखों में परावर्तित होता है एक काल-खंड जो बीत कर भी नहीं बीतता...लोग जो उतने ही अपने हैं जितने कि पराये...
फिल्म देखते ही कितने तो लोगों से मिलने का मन करता है...ऐसे लोग जो शायद किसी दूसरे जन्म में मेरे बहुत अपने थे....जाने क्या क्या.

और हर बार जानती हूँ कि मैं फिर से देखूंगी इसे...क्यूंकि दर्द ही तो गवाही है कि हमने जिया है...प्यार किया है...मरे हैं...

दूसरे कमरे में फिल्म खत्म होने के बाद भी चल रही है...और रुदन करता वायलिन मुझे अपनी ओर खींच रहा है.

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फुटनोट: पोस्ट में बहुत सी गलतियाँ होंगी...दुबारा कभी अच्छे मूड में पढूंगी तो ठीक कर दूंगी...अभी बस एक छटपटाहट से उबरने के लिए लिखी गयी है.  

09 June, 2011

मेरे बर्थडे पर आप क्या गिफ्ट कर रहे हैं?

कल मेरा जन्मदिन है...देखती हूँ की हर साल इस मौके पर थोड़ी सेंटी हो जाती हूँ. बहुत कुछ सोचती हूँ...जाने क्या क्या सपने, कुछ तो गुज़रे हुए कल के हिस्से...खोयी सी रहती हूँ...इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है. 

भाई का गिफ्ट कल आ गया है :) :) आज कुणाल भी मेरा गिफ्ट खरीद के ला रहा है...शाम में मैं जाउंगी अपनी पसंद का कुछ लेने...पता नहीं क्या...अभी तक कुछ सोचा नहीं है. मुझे सबसे अच्छी लगती है घड़ी...पर मेरे पास ४ ठो घड़ी पहले से है तो कुणाल बोल रहा है कि एक और नहीं मिलेगी...और कुछ लेना है तो बताओ...नहीं तो  वो अपनी पसंद का ला देगा. 

इस बार बहुत दिनों में पहली बार मेरे दो बहुत अच्छे दोस्त शहर में ही हैं...पूजा और इन्द्रनील...तो इस बार बर्थडे पर थोडा ज्यादा अच्छा लगेगा :) :) पूजा अभी मंडे को मिलने भी आई थी...कितना अच्छा लगा कि क्या कहें...और हमने ढेर सारी खुराफातें भी की. 

चूँकि ब्लॉग पर भी इतने अच्छे लोगों से मिली हूँ...और अच्छी दोस्ती हो गयी है...तो सोचा कि इतना सोच के कहाँ जायेंगे...बोल ही देते हैं :) इस बार हमको एक तोहफा चाहिए...आप सब से...जो पता नहीं कैसे अब तक हमको पढ़ते रहे हैं...हालाँकि आजकल हमको अपना लिखा एकदम पसंद नहीं आ रहा अक्सर...फिर भी. 

इस बार मेरे बर्थडे पर आप अपनी पसंद कि कोई एक किताब...जो आपको लगता है मुझे पढ़नी चाहिए... कमेन्ट बॉक्स में लिखिए...और अगर आपका दिल करे तो थोड़ा सा उस किताब के बारे में भी...कुछ ऐसे कि 'पूजा हमको लगता है तुमको हरिशंकर परसाई की किताब सदाचार का तवी पढना चाहिए क्यूंकि हमको लगता है तुम्हारा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर लापता हो गया है'. इसके अलावा आप मुझे कोई भी मुफ्त की सलाह दे सकते हैं...लिखने के बारे में...दिमाग ठीक करने के बारे में या कि कुछ जो आपको लगे कि मुझे लिखना चाहिए या कोई ब्लॉग जो मुझे एकदम पढना चाहिए(आपके खुद के ब्लॉग के सिवा ;) ). हाँ इसके अलावा...एक और चीज़ आप मुझे बता सकते हैं...कोई खास फिल्म जो आपको पर्सनली पसंद हो :) 

बस...बर्थडे की फोटो कल पोस्ट करुँगी :) ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता...जब फ्री की सलाह को गिफ्ट माना जाए...तो टनाटन आने दीजिये :) 

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