जैसे किसी terminally ill पेशेंट से प्यार करना...जबकि मालूम नहीं हो...तब जबकि लौटना मुमकिन न हो..पता चले की आगे तो रास्ता ही नहीं है...और जिस क्षितिज को हम जिंदगी के सुनहरे दिन मान कर चल रहे थे वो महज़ एक छलावा था...रंगी हुयी दीवार...जिससे आगे जाने का की रास्ता नहीं है.
मुझे नहीं मालूम की ये कौन सा दर्द छुपा बैठा है जो रह रह के उभर आता है...या फिर ऐसा कहें कि कुरेदा जाता है जिसे ऐसा कौन सा ज़ख्म है...
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रात कैसा तो ख्वाब देखा कि सुबह उठते ही सर दर्द हो रहा था...कल साल का पहला मालदह आम खाया...और मन था कि बस दौड़ते गाँव पहुँच गया...बंगलौर में जोर की आंधियां आई हुयी हैं और मन सीधे गाँव कि देहरी से उठ कर खेत की तरफ भागता है...जहाँ दूर दूर तक एकलौता आम का पेड़ है बस...आंधी आते ही टपका आम लूटने के लिए सब भागते हैं..खेत मुंडेर, दीवाल, अमरुद का पेड़, गोहाल सब फर्लान्गते भागते हैं कि जो सबसे पहले पहुंचेगा उसको ही वो वाला आम मिलेगा जो उड़ाती आंधी में खेत के बीच उस अकेले आम के पेड़ के नीचे खड़ा हो कर खाया जा सके...बाकी आम तो फिर बस धान में घुसियाने पड़ेंगे और जब पकेंगे तब खाने को मिलेंगे. चूस के खाने वाला आम किसी से बांटा भी तो नहीं जाता.
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जानती हूँ कि सर में उठता दर्द साइको-लोजिकल है...मन का दर्द है...रुदन है...इसका मेरे दिमाग ख़राब होने या माइग्रेन से कोई रिलेशन नहीं है...कि हवाएँ जो इतनी तेज़ चल रही हैं मुझे कहीं किसी के पास नहीं ले जायेंगी...फिर भी पंख लग जाते हैं...जीमेल खोला है...हथकढ़ की कुछ पंक्तियाँ कोट करके किसी को एक ख़त लिखने का मन है...पर लिखती नहीं...मन करता है कि फोन कर लूँ...आज तक कभी उनकी आवाज़ नहीं सुनी...पता नहीं क्यूँ बंगलौर के इस खुशनुमा मौसम में भी हवाओं को सुनती हूँ तो रेत में बैठा कोई याद आता है...रेशम के धागों से ताने बाने बुनता हुआ...पर कभी बात नहीं की, कभी नंबर नहीं माँगा...कई बार होता है कि बात करने से जादू टूट जाता है...और मैं चाहती हूँ कि ये जादू बरक़रार रहे.
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ऐसे जब भी लिखती हूँ जैसे नशे में लिखती हूँ...कभी लिखा हुआ दुबारा नहीं पढ़ती...नेट पर लिखा कागज़ पर लिखे जैसा नहीं होता न कि फाड़ दिया जा सके...वियोगी होगा पहला कवि...इस वियोगी होने में जितना कवि की प्रेमिका की भूमिका है, उतनी ही कवि कि खुद की भी...अकेलापन...दर्द...कई बार हम खुद भी तो बुलाते हैं. जैसे मैं ये फिल्म देखती हूँ...ये जानते हुए भी कि फिर बेहद दर्द महसूस करुँगी...कुछ बिछड़े लोग याद याते हैं...दिल करता है कि फोन उठा कर बोल दूँ...आई रियली मिस यु...और पूछूँ कि तुम्हें कभी मेरी याद आती है? कुछ बेहद अजीज़ लोग...पता नहीं क्यूँ दूर हो गए...शायद मैं बहुत बोलती हूँ, इस वजह से...अपनी फीलिंग्स छुपा कर भी रखनी चाहिए.
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फिल्म का एक हिस्सा है जिसमें दोनों रिहर्सल करते हैं आखिरी बार मिलने की...
पात्र कहती है 'मुझे नहीं लगा था कि तुम्हें मुझसे प्यार हो जाएगा'
और जवाब 'मुझे भी ऐसा नहीं लगा था'
चान मुड़ कर वापस चला जाता है...कट अगले सीन...वो उसके कंधे पर सर रख के रो रही है और वो उसे दिलासा दे रहा है कि ये बस एक रिहर्सल है...असल में इतना दर्द नहीं होगा.
(जिन्होंने ऐसा कुछ असल में जिया है व जानते हिं कि दर्द इससे कहीं कहीं ज्यादा होगा...मर जाने की हद तक)
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मुझे मालूम नहीं है ये फिल्म मैं बार बार क्यूँ देखती हूँ...In the mood for love...हर बार लगता है कोई अपना खो गया है...दिल में बड़ी सी जगह खाली हो गयी है...और वायलिन मेरे पूरे वजूद को दो टुकड़ों में काट रहा है.
हर बार प्यार कर बैठती हूँ इसके चरित्रों से...और जानते हुए भी अंत क्या है...हर बार उतनी ही दुखी होती हूँ. इतना गहरा प्यार जितनी खुशी देता है उतना ही दुःख भी तो देता है ऐसे प्यार को खोना...
किसकी किसकी याद आने लगती है...और कैसे कैसे दर्द उभर जाते हैं...कुछ पुराने, कुछ नए..लोग...कुछ अपने कुछ अजनबी...भीड़ में गुमशुदा एक चेहरा...जिसने नहीं मिली हूँ ऐसा कोई शख्स...आँखों में परावर्तित होता है एक काल-खंड जो बीत कर भी नहीं बीतता...लोग जो उतने ही अपने हैं जितने कि पराये...
फिल्म देखते ही कितने तो लोगों से मिलने का मन करता है...ऐसे लोग जो शायद किसी दूसरे जन्म में मेरे बहुत अपने थे....जाने क्या क्या.
और हर बार जानती हूँ कि मैं फिर से देखूंगी इसे...क्यूंकि दर्द ही तो गवाही है कि हमने जिया है...प्यार किया है...मरे हैं...
दूसरे कमरे में फिल्म खत्म होने के बाद भी चल रही है...और रुदन करता वायलिन मुझे अपनी ओर खींच रहा है.
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फुटनोट: पोस्ट में बहुत सी गलतियाँ होंगी...दुबारा कभी अच्छे मूड में पढूंगी तो ठीक कर दूंगी...अभी बस एक छटपटाहट से उबरने के लिए लिखी गयी है.
पहले लगता था प्यार वजीर कि चाल चलता है, सीधे सीधे असर करता है लेकिन नहीं यह घोड़े कि तरह ढाई घर भी मार करता है.
ReplyDeleteगलती तो बस फुटनोट में ही दिखी क्योंकि जितने छटपटाहट में जितने मन से लिखा गया है उतने ही मन से पढ़ा भी गया है.
बहुत खूबसूरत....
ReplyDeleteदर्द जितना भी छुपाना चाहें....
किसी न किसी रूप में उभर ही आता है....
२ दिन में लिखी गई दो पोस्ट...
और एक दिन में बहुत खुश होने की कोशिश... और अगले ही दिन बहुत सा दर्द....
जब हम बहुत तकलीफ में होते हैं, तो बहुत हँसने की कोशिश करते हैं..जब भीड़ में होते हैं...
और तन्हाई में दिल का दर्द इतना बढ़ जाता है, की भावनाओं के बाँध तोड़ कर अभिवक्त हो ही जाता हैं....
बहुत खूबसूरत रचना ...
समझ सकती हूँ उस छटपटाहट को…………शायद गुज़रती हूँ उन ही रहगुज़रों से।
ReplyDeleteचूस के खाने वाला आम किसी से बांटा भी तो नहीं जाता... बस ऐसा ही होती है हर उम्र। जब मिले चूस लो.... ये जाने वाले पल फिर नहीं आने।
ReplyDeleteलेकिन जो है मन उससे राजी नहीं होता... जो नहीं है उसके पीछे पागल होता है। यह तजुर्बे तो कई बार होते हैं कि जिसके पीछे पागल थे वो मिला तो तब से ना जाने किस दराज में रख कर भूल जाया गया है।
कितनी कोशिश कर ले हम ..अपने दिल के उस गंवई बच्चे को छुपा नहीं पाते ना ...जहाँ हाँथ में आम आया या इमली या पहली बारिश हुई जाने कहाँ से बाहर निकल आता है और जिद्द करता है नहीं जाउंगा ...... उस बच्चे के दिल कि कसक ऑफिस के बंद शीशो या बोर्ड रूम के notepad पर कई बार उकेरने कि कोशिश की है ... थैंक्स पूजा वो सब याद दिलाने के लिए जो हम शायद कभी नहीं भुला पायेंगे
ReplyDeleteदर्द जितना भी छुपाना चाहें, किसी न किसी रूप में उभर ही आता है| बहुत खूबसूरत रचना|
ReplyDeleteबस, कुछ बातें मन छेड़ जाती हैं, उनकी तरंग में खड़ी रहें, हिले डुलें नहीं।
ReplyDeleteबड़ी ही भावनात्मक प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा मंच{16-6-2011}
कल 17/06/2011 को आपकी कोई पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है.
ReplyDeleteआपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है .
धन्यवाद!
नयी-पुरानी हलचल
ye tumne likha hai ya maine?
ReplyDeleteबस जीवन भर प्यार बांटते रहो. मालदह को हम लोग मालदा कहा करते थे.
ReplyDeleteक्या बात है, पहली बार आया हूं आपके ब्लाग पर। बहुत सुंदर
ReplyDeleteVery good style of presenting your thoughts. Nice post.
ReplyDeletesach bahut accha likhti hai aap really
ReplyDeleteaap log mere blog par bhi aaye mere blog par aane ke liye link- "samrat bundelkhand"
ek ghor udaasi thee, ise padhne se pehla. aapki udaasi yun padh kar kuch halka laga..ajeeb hai naa!!!
ReplyDeleteबैंगलोर के मौसम में क्या क्या महसूस नहीं होता :)
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