28 March, 2015

दिल की कब्रगाह में इश्क़ का सुनहला पत्थर


मेरा दिल एक कब्रगाह है. इसके बाहर इक लाल रंग के बोर्ड पर बड़े बड़े शब्दों में चेतावनी लिखी हुयी है 'सावधान, आगे ख़तरा है!'. कुछ साल पहले की बात है इक मासूम सा लड़का इश्क़ में मर मिटा था. मैं जानती हूँ कि वो लड़का मुझे माफ़ कर देता...उसकी फितरत ही थी कुछ जान दे देने की...मुझपर न मिटता तो किसी वाहियात से इन्किलाब जिंदाबाद वाले आन्दोलन में भाग लेकर पुलिस की गोली खाता और मर जाता. वो मिला भी तो था मुझे आरक्षण के खिलाफ निकलने वाले जलसे में. बमुश्किल अट्ठारह साल की उम्र और दुनिया बदल देने के तेवर. क्रांतिकारी था. नेता था. लोग उसे सिर आँखों पर बिठाते थे. उसका बात करने का ढंग बहुत प्रभावी था. जिधर से गुज़रता लोग बात करने को लालायित रहते. फिर ऐसा क्या हुआ कि उसे बंद कमरे और बंद खिड़कियाँ रास आने लगीं? उसके दोस्तों को मैं डायन लगती थी...मैंने उसे उन सबसे छीन कर अपने आँचल के अंधेरों में पनाह दे दी थी...अब दिन की रौशनी में उसकी आँखें चुंधियाती थीं. उसके चेहरे का तेज़ अब मेरे शब्दों में उतरने लगा था...मैंने पहली बार जाना कि शब्दों में जान डालने के लिए किसी की जान लेनी पड़ती है. उनका अपना कुछ नहीं होता. जैसे जैसे मेरे शब्दों में रौशनी आने लगी, उसकी सांसें बुझने लगीं...उस वक़्त किसी को मुझे बता देना था कि इस तिलिस्म से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं आएगा मुझे. कि शब्दों की ऐसी तंत्र साधना मुझे ही नहीं मेरे इर्द गिर्द के सारे वातावरण को सियाह कर देगी. मगर ऐसे शब्दों के लिए जान देने वाला कोई न शब्दों को मिला था...न इश्क़ को...न लड़के को. वो मेरे दिल के कब्रगाह बनने का नींव का पत्थर था...वो जो कि मैंने उसकी कब्र पर लगाया था...मैंने उसपर अपनी पहली कविता खुदवाई थी. उस इकलौती कब्र के पत्थर को देखने लोग पहुँचने लगे थे. दिल की गलियां बहुत पेंचदार थीं मगर वहां कोई गहरा निर्वात था जो लोगों को अपनी ओर खींचता था...जिंदगी बहुत आकर्षक होती है...जिन्दा शब्द भी. 

उस लड़के की लाश मेरे दुस्वप्नों में कई दिनों तक आती रही. उसके बदन की गंध से मेरी उँगलियाँ छिलती थीं. कोई एंटीसेप्टिक सी गंध थी...डेटोल जैसी. बचपन के घाव जैसी दुखती थी. मुझे उसकी मासूमियत का पता नहीं था. मैं उसे चूमते हुए भूल गयी थी कि ये उसके जीवन का पहला चुम्बन है...खून का तीखा स्वाद मेरी प्यास में आग लगा रहा था...मैं उसे अपनी रूह में कहीं उतार लेना चाहती थी...उसकी दीवानी चीख में अपना नाम सुनकर पहली बार अपने इश्वर होने का अहसास हुआ था...उसने पहली बार में अपनी जिंदगी मुझे सौंप दी थी. पूर्ण समर्पण पर स्त्रियों का ही अधिकार नहीं है...पुरुष चाहे तो अपना सर्वस्व समर्पित कर सकता है. बिना चाहना के. मगर लड़के ने इक गलत आदत डाल दी थी. उस बार के बाद मैंने पाया कि मेरे शब्द आदमखोर हो गए हैं. कि मेरी कलम सियाही नहीं खून मांगती है...मेरी कल्पना कातिल हो गयी है. मैंने उस लड़के को अपनी कहानी के लिए जिया...अपने डायलॉग्स के लिए तकलीफें दीं...अपने क्लाइमेक्स के लिए तड़पाया और कहानी के अंत के लिए एक दिन मैंने उसकी सांसें माँग लीं. मुझे जानना था कि दुखांत कहानी कैसे लिखी जाती है. ट्रेजेडी को लिखने के लिए उसे जीना जरूरी था. लड़के ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. मैं उसकी चिता की रौशनी में कवितायें लिखती रही. उसका बलिदान लेकिन मेरे दिल को कहीं छू गया था. मैं उसकी आखरी निशानी को गंगा में नहीं बहा पायी. 

उस दिन मेरे दिल में कब्रगाह उगनी शुरू हो गयी. वो मेरा पहला आशिक था. मुझ पर जान देने वाला. मेरे शब्दों के लिए मर जाने वाला. उसकी कब्र ख़ास होनी थी. मैंने खुद जैसलमेर जा कर सुनहला पीला पत्थर चुना. मेरी कई शामें उस पत्थर के नाम हो गयीं. जब उसके नाम का पहला अक्षर खोदा तभी से दिल की किनारी पर लगे पौधे मुरझा गए. बोगनविला के फूल तो रातों रात काले रंग में तब्दील हो गए. काले जादू की शुरुआत हो चुकी थी. कविता में चमक के लिए मैंने ऊँट की हड्डियों का प्रयोग किया. सुनहले पत्थर पर जड़े चमकीले टुकड़ों से उसकी बुझती आँखों की याद आती थी. उसकी कब्र पर काम करते हुए तो महीनों मुझे किसी काम की सुध नहीं थी. दिन भर उपन्यास लिखती और लड़के को लम्हा लम्हा सकेरती और रात को कब्र के पत्थर पर काम करती. नींद. भूख. प्यास. दारू. सिगरेट. सब बंद हो गयी थी. जादू था सब. मैं इश्क़ में थी. मुझे दुनिया से कोई वास्ता नहीं था. 

पहला उपन्यास भेजा था एडिटर को. उसे पूरा यकीन था कि ये बहुत बिकेगा. मार्केट में अभी भी वीभत्स रस की कमी थी. इस खाली जगह को भरने के लिए उसे एक ऐसा राइटर मिल गया था जिसके लिए कोई सियाही पर्याप्त काली नहीं थी. लड़की यूँ तो धूप के उजले रंग सी दिखती थी मगर उसकी आँखों में गहरा अन्धकार था. एडिटर ने लड़की को काला चश्मा पहनने की सलाह दी ताकि उसकी आँखों की सियाही से बाकी लोगों को डर न लगे. वो अपने कॉन्ट्रैक्ट पर साइन करने लौट रही थी जब लड़के के दोस्त उसे मिले. उनकी नज़रों में लड़की गुनाहगार थी. उनकी आँखों में गोलाबारूद था. वे लड़की के दिल में बनी उस इकलौती कब्र के पत्थर को नेस्तनाबूद कर देना चाहते थे. लड़की को मगर उस लड़के से इश्क़ था. जरूरी था कि कब्रगाह की हिफाज़त की जाए. उसने मन्त्रों से दिल के बाहर रेखा खींचनी शुरू की...इस रेखा को सिर्फ वोही पार कर सकता था जिसे लड़की से इश्क़ हो. इतने पर भी लड़की को संतोष नहीं हुआ तो उसने एक बड़ा सा लाल रंग का बोर्ड बनाया और उसपर चेतावनी लिखी 'आगे ख़तरा है'.

दिल के कब्रगाह में मौत और मुहब्बत का खतरनाक कॉम्बिनेशन था जो लोगों को बेतरह अपनी ओर खींचता था. लोग वार्निंग बोर्ड को इनविटेशन की तरह ले लेते थे. चूँकि उनके दिल में मेरे लिए बेपनाह मुहब्बत होती थी तो वे अभिमंत्रित रेखा के पार आराम से आ जाते थे. इस रेखा से वापस जाने की कोई जगह नहीं होती लेकिन. वे पूरी दुनिया के लिए गुम हो जाते थे. न परिवार न दोस्त उनके लिए मायने रखते थे. वे मेरे जैसे होने लगते थे. इश्क़ में पूरी तरह डूबे हुए. मैंने कब्रगाह पर एक गेट बना दिया कि जिससे एक बार में सिर्फ एक दाखिल हो सके मगर ये थ्रिल की तलाश में आये हुए लोग थे. इन्हें दीवार फांद कर अन्दर आने में अलग ही मज़ा आता था. इश्क़ उसपर खुमार की तरह चढ़ता था. अक्सर इक हैंगोवर उतरने के पहले दूसरी शराब होठों तक आ लगती थी. ये अजीब सी दुनिया थी जिसमें कहीं के कोई नियम काम नहीं करते. मुझे कभी कभी लगता था कि मैं पागल हो रही हूँ. वो रेखा जो मैंने दुनिया की रक्षा के लिए खींची थी उसमें जान आने लगी थी. अब वो मुझे बाहर नहीं जाने देती. सारे आशिक भी इमोशनल ब्लैकमेल करके मुझे दुनिया से अलग ही रखने लगे थे.

इक दुनिया में यूँ भी कई दुनियाओं का तिलिस्म खुलता है. ऐसा ही एक तिलिस्म मेरे दिल में है...ये कब्र के पत्थर नहीं प्रेमगीत हैं...प्रेमपत्र हैं...आखिरी...के इश्क का इतना ही अहसान था कि किसी के जाने के बाद उसकी कब्र पर के अक्षर मेरी कलम से निकले होते थे. हर याद को बुन कर, गुन कर मैं लिखती थी...इश्क़ को बार बार जिलाती थी...उन लम्हों को...उन जगहों को...सिगरेट के हर कश को जीती थी दुबारा. तिबारा. कई कई कई बार तक.

तुम्हें लगता होगा कि तुम अपनी अगली किताब के लिए प्रेरणा की तलाश में आये हो...मगर मेरी जान, मैं कैसे बता दूं तुम्हें कि तुम यहाँ अपनी कब्र का पत्थर पसंद करने आये हो...अपनी आयतों के शब्द चुनने...तुम मुझे किस नाम से बुलाओगे?

डार्लिंग...हनी...स्वीटहार्ट...क्या...कौन सा नाम?

और मैं क्या बुलाऊं तुम्हें? जानां...
काला जादू...तिलिस्म...क्या?

12 March, 2015

उसके घर का नाम था 'अलविदा'


इक खोया हुआ देश है जिसके सारे बाशिंदे शरणार्थी हो गए हैं. कहीं कोई टेंट नहीं है कि लोगों को जरा भी ठहराव का अंदाज़ हो. मैदान में दूर दूर तक कतार लगी है. सब लोग बिखरे हुए पड़े हैं. जैसे अचानक से गिर पड़ी हो कोई सलीके से बनायी गयी लाइब्रेरी और सारी किताबें बेतरतीब हो जाएँ. 

अचानक से उग आये इस देश में कुछ भी अपनी जगह पर नहीं है. स्कूल की जगह हथियार बनाने की फैक्ट्री, बेकरी की जगह ईंटों की भट्ठी और बंदरगाह की जगह ज्वालामुखी उगे हुए हैं. इसी जगह वे अपना जरा सा आसमान तलाशने चले आये थे. उन्हें क्या पता वहां आसमान की जगह एक खारे पानी का झरना था. वे घंटों भीगे हुए इन्द्रधनुष का कोना तलाशते रहते कि जिसे थाम कर वे इस देश से बाहर निकल सकें. 

उन्हें कोई तलाशता नहीं था. वहां कोई लिस्ट नहीं थी कि जिसमें गुमशुदा लोगों की रिपोर्ट दर्ज हो. भीगे हुए उन्हें सर्दी लगनी चाहिए थी मगर उन्होंने देखा एक दूसरे की आँखों में और हँस पड़े. जहाँ बुखार होना था वहां इश्क होने लगा. वे नमकीन झरने में भीगते हुए छुप्पम छुपायी खेलने लगे. लड़के ने सूरज का टॉर्च बनाया और गहरे गोता मार गया...जब उसकी सांस ख़त्म हुयी तो लड़की की आँखें चाँद जैसी चमक रही थी. 

उनके बीच बस खारे पानी का झरना था. धीरे धीरे वे दोनों गोता मारने लगे. आजकल वे महीनों गुम हो जाते. उस नए देश में फरवरी के दी छोटे होते होते एक दिन गायब हो गए. अब वहां ग्यारह महीने का साल होने लगा. अब लड़की परेशान थी कि उसे अब इन्द्रधनुष ही नहीं फरवरी की भी तलाश करनी थी. उसे गुम होती चीज़ों से डर लगता था. वो लड़के को लगाती थी भींच कर गले...उसे लगता था लड़का गुम हो जाएगा. वो खारे पानी से लिखती थी इबारतें. अब लड़की उसे अपने दुपट्टे की छोर में बाँध कर रख लेना चाहती थी. ऐसे ही किसी रोज़ उसने दुपट्टे की छोर में एक चाभी बाँध ली. उस दिन से वो एक घर की तलाश भी करने लगी. बराई सी घूमती थी और खाली जमीन के प्लाट पर टिक लगाती फिरती थी. घर की तलाश में वो दोतरफा बंट जाती और टूटने लगती. एक मन लड़के के साथ आसमान के खारे, उथले झरने में भीगता हुआ इन्द्रधनुष तलाशता तो एक मन बार बार दुपट्टे में बंधी चाभी पर खुरच कर घर का नाम लिखना चाहता 'अलविदा'.

लड़का उससे झगड़ता. कौन रखता है घर का नाम अलविदा. तुम कुछ स्वतं जैसा लिखो वरना इस घर आने को किसका दिल चाहेगा. लड़की मगर उलटबांसी चलती थी. उसने अलविदा कह कर लोगों को दिल में और गहरे बस जाते देखा था. यह नया बना देश था...यहाँ कुछ भी अपनी जगह पर नहीं था. लोग लड़की के घर को सराय की तरह इस्तेमाल करने लगे. वहां दस दिशाओं से आती थी...हवा...मुहब्बत...और कहानियां भी. 

इक रोज़ लड़की के दुपट्टे से चाभी गुम हो गयी. वो अपने घर के बाहर खड़ी टुकुर टुकुर ताकती. सोचती अपने घर में मुसाफिर की तरह जाना कैसा होगा. और क्या घर उसे पहचानेगा भी? घर की दीवारें मगर इश्क की बनीं थीं, वे लड़की की उँगलियों की खुशबू पहचानती थीं. लड़की ने कितनी बार बनायी थी अप्लाना और चौखट पर लिखा था स्वागतम. फिर उसने फेंके सारे गैरजरूरी लोग बाहर. वो घर के बाहर आई तो उसने देखा कि इन्द्रधनुष दहलीज़ पर टिका था, शरारत से झांकता हुआ. 


अब बस लड़के का इंतज़ार था. उसकी बाँहों में भी एक घर था. घर जो हमेशा से होता है. लड़की इस घर की चाह में मिट रही थी. लड़का राह भूल गया था. लड़की अलविदा में ठहरी थी. 

04 March, 2015

इक आखिरी कहानी का इश़्क

उसे किताबों से डर लगता था. किताबों में प्रेत होते थे. लम्बी दाढ़ियों, बिखरी जटाओं और बढ़े लम्बे नाखूनों वाले. वे उसे किताब में बंद कर देना चाहते थे. 

लड़की शब्दों से भागते चलती मगर किताबें उसे नहीं बख्शतीं. उन्होंने उसपर निशान लगा दिया था. लड़की जहाँ भी जाती, किताबें उसका पीछा करते हुए पहुँच जातीं. किताबों में तिलिस्म हुआ करते...तिलिस्मों के दरवाजे...दरवाजों के पहरेदार कि जो लड़की के दुपट्टे की गंध सूंघते पहुँच जाते और उसके दुपट्टे का छोर पकड़े उसे पीछे पीछे चलते. 

शब्द उसे कभी भी दबोच लेते. पुरानी किताबों के पुराने प्रेतों को उसके दिमाग का पूरा नक्शा मालूम रहता. वो कितना भी किसी शहर की भूलभुलैया में छुपी बैठी रहती वे उस तक पहुँच जाते. पुरानी बावलियों...स्टेशनों...गुम हुए पुराने गाँवों में उसे जा धरते.

लड़की भागती फिरती...किसी शहर. गाँव. ठांव. नहीं ठहरती. मगर किताबें उसे चैन से जीने नहीं देती. बूढ़े बरगदों में रखे कोटरों से उग आतीं प्रेतों की लम्बी उँगलियाँ और लड़की की रातों को जकड़ लेतीं. घुप शहरों के गुम अंधेरों में उड़ने लगती छपे हुए पन्नों की ताज़ा गंध और लड़की उन कातिल बांहों में जाने के लिए बेताब हो उठती. फड़फड़ाने लगता मजार पर बंधा चूनर का टुकडा कि लड़की के पैर बाँधने को बस एक वही दुआ काम करती थी. लड़की बेबस हो जाती. उसके पैर रुनझुन रुनझुन थिरकने लगते. उसकी उँगलियाँ उसके बदन का पन्ना पन्ना पलटने लगतीं. उसकी छटपटाहट दुनिया की सारी लाइब्रेरीज में भूकंप के झटके ले आती...कभी कभी तो ऐसा भी होता कि धरती फट जाती और सारी किताबें उसमें दफ्न हो जातीं. कभी कभी रेत का अंधड़ उसके शहर की सारी किताबें उड़ा कर ले आता और अगली सुबह शहर में पश्चिम की ओर एक ऊंचा टीला बन जाता. लोग कभी न समझ पाते कि शहर की किताबों के गुम होने और रेत के टीले के उग आने के बीच क्या रहस्य है. बहुत सालों बाद जब दीमकों ने सारी किताबों को धूल कर दिया होता एक दिन रेत का टीला गायब हो जाता. वैसे ही जैसे कि आया था. लोग बरसों किताबों को ढूंढते फिरते. यूँ लोग बरसों उस लड़की को भी ढूँढा करते थे. मिलता मगर कोई न था. 

किताबें जादू हुआ करती थीं. एक ज़माने में किताबों का हर पन्ना मरहम का एक फाहा था जो उसके छिले घुटने और नील पड़ी कोहनियों को ठीक कर दिया करता था. नए पन्नों की गंध एनेस्थीसिया का काम करती और वो नन्ही, मासूम लड़की अपनी सारी तकलीफें भूल जाती. उन दिनों किताबों में हुआ करते थे दिलफरेब किरदार कि जो उसकी तन्हाइयों की दवा करते. लड़की दिन रात उसी दुनिया में रहना चाहती. वो पढ़ने का वक़्त अपनी नींद से, खाने के समय से और अपनी साँसों से चुरा लेना चाहती थी. 

जैसे जैसे उसकी उम्र बढ़ी लड़की ने छिली कोहनियों और घुटनों के दर्द में अलग ही सुख तलाशना शुरू कर दिया. ये दिल टूटने के दिन थे. ये मुहब्बत में होने के दिन थे. लड़की को किताबों से ज्यादा उन हाथों का इंतज़ार रहने लगा जो उसके लिए दुनिया भर की किताबें लाया करते थे. उस लम्बे, गोरे लड़के के हाथ बेतरह खूबसूरत थे. अनामिका ऊँगली में एक नीले पत्थर की अंगूठी थी. ये अंगूठी उन दोनों की किताबों के तिलिस्म से रक्षा करती थी. लड़की ने उस साल अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा किताबें पढ़ीं जिनका एक अक्षर भी उसे याद नहीं है. याद है तो सिर्फ अंगूठी के उस नीले पत्थर की ठंढी छुअन. 

धीरे धीरे उन हाथों में आने वाली किताबें कम होती गयीं और एक शाम ऐसी भी आई कि लड़के के हाथ में सिर्फ लड़की का हाथ रह गया. उसने बड़ी नजाकत से लड़की की उँगलियाँ चूम लीं और फिर बड़ी बेरहमी से लड़की के होठ. वे लड़के के घर की लाइब्रेरी में गए और उन्हों एक दूसरे की जिल्दें उघाड़ डालीं और चिन्दियाँ बिखेर दीं. किताबों ने उनकी इस बेवफाई के कारण उन पर उम्र भर की सजा मुक़र्रर कर दी.

उस कमसिन उम्र में उन्हें किताबों के बीच चली साजिशों का पता तक नहीं चला. वे अपनी पहली मुहब्बत में थे. उन्हें मालूम नहीं था कि किताबें बेरहमी की हद तक पजेसिव भी हो सकती हैं. लड़की किताबों की सिर्फ जिल्द देखती. हर्फों की जगह उसे लड़के के हाथ दिखते. उसके बदन में किसी नयी किताब के पन्नों की फड़फड़ाहट भर गयी थी. वो हर लम्हा चाहती थी कि लड़का उसे खोले, सहलाए, सूंघे...बदन की पसंदीदा जगहों को गहरा लाल अंडरलाइन करे. लड़का भी दीवाना हुआ करता. बुकमार्क्स तलाशता. लड़की के बदन पर जगह जगह लौट आने के निशान रखता जाता. काँधे का काला तिल. पीठ पर लगा टूटी चूड़ी के ज़ख्म का निशान. नाभि पर चमकती नग. लड़का उसके बदन में कहीं रह जाना चाहता कि जैसे किताब के पहले पन्ने पर लिख दिया करता था अपना नाम और तारीख. 

लड़के को मालूम था उन दिनों भी कि अच्छी किताबें और अच्छी लड़कियां किसी एक की नहीं होतीं. उनपर सबका बराबर हक होता है. कोई भी उसे माँग कर ले जा सकता है...न कहने पर चुरा कर ले जा सकता है…या कि छीन कर भी ले जा सकता है. उस सांवली सी लाल रंग की जिल्द वाली किताब को इक रोज़ उसकी अनुपस्थिति में उसका पड़ोसी उठा ले गया. लड़का जानता था कि किताब अब बहुत साल बाद कभी लौट कर वापस आएगी और उस पर जगह जगह अनजान लोगों के बनाये हुए निशान होंगे...मुड़े हुए पन्ने होंगे और वाहियात किस्म की बातें लिखी होंगी. लड़के ने किसी नयी किताब से दिल लगाने को लाइब्रेरी की सीढ़ी उठायी और सबसे ऊपर वाली रैक में रखी जिल्द वाली काली किताबों को देखने लगा. ये घर का सबसे सुदूर कोना था जहाँ तक पहुँच नामुमकिन तो नहीं पर इतना मुश्किल था कि उसने कभी उन किताबों को पढ़ने को सोचा भी नहीं था. 

पहली किताब की काली जिल्द छूते ही उसे काले जादू का अहसास हुआ था. कि इन किताबों में कुछ वर्जित सुख हैं जिन तक शायद उसे नहीं पहुंचना चाहिए. मन का एक हिस्सा भी कोरा होता तो शायद वह उस किताब को बंद कर के रख पाता मगर मन के सारे सफहों पर लड़की के लगाए लाल निशान थे. उसने पहला पन्ना पलटा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं. किताबों का बदला यूँ कहर ढाएगा ये उसने कब सोचा था. दुनिया की नज़रों से दूर, बंद लाइब्रेरी में उसके और लड़की के बीच जो कुछ पहली बार घटित हुआ था, ये इतना व्यापक और पुरातन है उसे अंदाज़ नहीं था. वात्सायन के सचित्र कामसूत्र के पन्ने पलटते हुए उसे महसूस भी नहीं हुआ कि उसकी उँगलियाँ छिल रही हैं. वे पन्ने सरेस पेपर के बने थे. उनका आकर्षण छिलने के दर्द से और बढ़ता ही जा रहा था. 

लड़की की तकलीफ दूसरे किस्म की थी. वो मुस्कुराते हुए उस लड़के के साथ उस शाम चली तो आई थी मगर उसके दुस्वप्नों में वही नीली अंगूठी की ठंढी छुवन आती रहती. इस लड़के का नाम विसाल था. विसाल के घर में सारी सेकेंड हैण्ड किताबें थीं. मुड़ी तुड़ी. हजारों बार इस्तेमाल की गयीं और बेपरवाही से फेंकी गयीं. यूँ लड़की भी नयी नहीं थी मगर उसे लड़के ने इतना सहेज के रखा था कि उसके कुछ पन्नों से अभी भी नयेपन की खुशबू आती थी. लड़की को विसाल से डर लगता. वो वापस लड़के की लाइब्रेरी में लौट जाना चाहती लेकिन विसाल ने उसके पहले पन्ने पर अपना नाम लिख दिया था. होठों से बहता खून पोंछती हुयी लड़की जानती थी कि अब वो शायद कभी उस लाइब्रेरी की जिल्द लगी किताबों के पास नहीं जा पाएगी. उसकी जिंदगी किसी कबाड़ी के पास २० रुपये किलो में बिकने वाली किताबों जैसी ही होने वाली है. किसी को फर्क नहीं पड़ेगा कि उसके अन्दर क्या लिखा है...सिर्फ बाहरी आवरण...उसकी फिगर...उसकी आँखें और उसके कटाव का वजन होगा. 

उस रात लड़की फूट फूट कर रोई. लौट कर वापस जाने को न किताबें थी. न लड़का. बहुत देर रात उसने आँसू पोछे और पैकिंग शुरू कर दी. अगली सुबह वो किसी नए शहर में किसी नए दर्द की दुनिया तलाशने निकल पड़ी थी. बचपन से पढ़ी किताबों ने उसे इतना सिखाया था कि इस बड़ी दुनिया में उसे रहने को न छत की कमी होती न कभी पैसों की किल्लत. उसे तकलीफ सिर्फ अपनी उस दुनिया के छिन जाने की थी जिसने उसे बचपन से बड़ा सहेज और सम्हाल के रखा था. लड़की को लगा था कि एक बड़ा शहर शायद किताबों के न होने के स्पेस को भर सके और उसे जीने की और वजहें दे सकेगा. उसका झुकाव संगीत की तरफ होता गया. उसने जाना कि संगीत की भी एक अलग दुनिया है जहाँ तकलीफों को नदी में बहाया जा सकता है. वो हौले हौले बहने लगी. वक़्त गुज़रते उस मद्धम नदी के साथ रिषभ उसकी जिंदगी में आया. संगीत का दूसरा स्वर. जीवन का दूसरा प्रेम.

किताबों ने लड़की के धोखे को मगर अपनी जिल्द में उम्रकैद दी. लड़की गश खा कर गिरी जिस दिन उसने पड़ोस की बुक स्टाल पर से किताबें खरीदते वक़्त अपनी नग्न तस्वीर एक किताब के कवर पर देखी. एक कमजोर लम्हे का विसाल उसकी जिंदगी का ऐसा सियाह चैप्टर लिख जाएगा उसने कहाँ सोचा था. कम उम्र की अपनी बेवकूफियां होती हैं जिनकी सजाएं अक्सर गुनाहों से कहीं ज्यादा बड़ी होती हैं. लड़की का दिल विसाल ने नहीं किताबों ने तोड़ा था. उसकी बचपन से की गयी मुहब्बत को दरकिनार करके किताबों ने उसकी एक लम्हे की बेवफाई चुनी. 

उस रोज़ से लड़की ने किताबों से अपना उम्र भर का नाता तोड़ दिया...दूसरी मुहब्बत...दूसरा शहर और दूसरा स्वर दरकिनार करके फिर एक नए शहर को निकल पड़ी लड़की. वो बचपन से किताब बन कर एक खूबसूरत लाइब्रेरी में रहना चाहती थी मगर अब उसे अपने लिए नया मकान तलाशना था. उसने नील नदी किनारे बसा एक गाँव चुना जहाँ के शब्द उसे समझ नहीं आते. जहाँ की भाषा उसे समझ नहीं आती. जहाँ की किताबें उससे बदला लेने का ख्वाब नहीं बुनतीं. 

मगर फिर भी बिजनेस के सिलसिले में जब भी उसका कहीं बाहर आना होता है किताबें उसे घेर कर मारने के प्लान्स बनाती हैं...लड़की को किताबों से डर लगता है लेकिन कभी कभी किसी खूबसूरत कवर वाली किताब को देखती है तो लेखक के नाम पर हौले से फिराती है उँगलियाँ और याद करती है उसी लड़के को...नीले पत्थर की ठंढी छुअन को और पढ़ती है दुआ कि किसी को उससे कभी इतना प्यार हो कि अपनी कहानी में उसका खून लिख सके. वो मांगती है खुदा से एक कहानी का इश्क कि जिसके आखिर में वो डूब कर मर सके कि उसकी मुक्ति किसी कहानी में मर जाने में ही है. 

किसी लड़के में नहीं है ऐसी ताब कि कर सके उससे इश्क और लिख सके उसकी कहानी और क़त्ल कर सके उसका अपनी बांहों में भर कर. इसलिए मैं डूबती गयी हूँ उसके इश्क़ में...अब मुझे कहीं लौट कर नहीं जाना...कि ख़त्म हो गयी है कहानी...लड़की और मैं...

जरा उस लड़के से जा गुजारिश कर दो...आईने में देखो अपनी आँखें...चूमो अपनी उँगलियाँ...और कहो आमीन...

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