31 October, 2012

अच्छी वाली बारिशें

जब सुबह इन्द्रधनुष के बुलाने से नींद खुले
तुम बनाओ मेरे लिए दालचीनी वाली कॉफ़ी
खाने को कहीं से मिल जाए मम्मी के हाथ का खाना
पापा कॉल कर के पूछे कि मैं कैसी हूँ 

दोनों कानों के झुमके एक साथ टंगे हों 
बिना ढूंढें मिल जाए फेवरिट दुपट्टा
शैम्पू करने में लगे सिर्फ पांच मिनट
बारिश में घुल जाए मेरा परफ्यूम  

सड़क किनारे बन जाएँ नदियाँ
तुम छाता लेकर भागो मेरे पीछे
भीगूँ मैं और सर्दी तुम्हें हो 
फिर साथ बनाएं तुलसी का काढ़ा 

सेट-अप करें होम-थियेटर सिस्टम
सुने एक दूसरे की पसंद के गाने
उलटे-पुल्टे स्टेप्स वाले डांस करें
और थक के सो जायें बिना खाए पिए

फिर बारिश ही जगाये रात दो बजे
दो मिनट की मैगी बनाएं 
साथ खींचें अजीब एंगल में फोटो
बारिश को कहें...कम अगेन 

जाने दो...साढ़े आठ बज गए 
उठो जानेमन...कि दिन शुरू हुआ 
कमबख्त बारिश...कमबख्त ऑफिस 
तुम ये ख्याली पुलाव खाओ, मैं चाय बनाती हूँ 

29 October, 2012

अधीरमना...

Temples are temporary suspensions from the insanity of the world. Our refuge from the mad mad rush of life.
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मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.

मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.

विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.

हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.

कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.

मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.

थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...

बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...

केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...

23 October, 2012

स्ट्राबेरी आफ्टरनून्स

Love is temporary madness.
-Louis de Bernieres
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'डेज ऑफ़ बीइंग वाइल्ड'. एक मिनट के लिए ऐसे ही रहना बस...सिर्फ एक मिनट. कहना न होगा कि जब से इस फिल्म को देखा है उस आखिर के लम्हे का इंतज़ार बेतरह बढ़ गया है. क्या नज़र आता है उस आखिरी लम्हे में...क्या वाकई ऐसी छोटी छोटी चीज़ें, छोटे छोटे वादे याद रहते हैं?

तो क्या लगता है...उस एक लम्हे की उम्र कितनी होगी? एक लम्हे...उसका चेहरा भी नहीं था सामने. आँखें देख नहीं सकती थीं मगर उसे छू कर महसूस कर सकती थी. वक़्त को भांग का नशा हो रखा था और वो धीमे गुज़र रहा था. जादू की तरह सारे लोग कहीं गायब हो गए...लम्हे भर को सूरज निकला और बहुत सारी रौशनी कमरे में भर गयी...मैं देख नहीं सकती थी इसलिए धूप दिखी नहीं वरना शायद पार्टिकल्स का डांस देख पाती कि कैसे धूल का एक एक कण मुझे देख कर मुस्कुरा रहा है...आती हुयी धूप हथेलियों में भर गयी और एक पूरे लम्हे की गर्माहट मैंने मुट्ठी में बंद कर ली. इश्वर के तथास्तु कहने के बाद का लम्हा था वो...जिसमें और कुछ भी मांगने की गुंजाईश ही नहीं बचती थी.

कभी कभी कितना जरूरी होता है ये अहसास कि कोई खो भी सकता है. फेसबुक के जमाने में किसी का खो जाना ही ख़त्म हो गया है...किसी से आखिरी बार मिलना. किसी से दूर जाते हुए उस आखिरी नज़र को किताब में बुकमार्क की तरह इस्तेमाल करना. खो जाना कभी कभी अच्छा होता है. खो जाने में उम्मीद होती है कभी तलाश लिए जाने की...कभी अचानक से मिल जाने की. वो दिन अच्छे थे जब बिछड़ना होता था. कीप इन टच एक जुमला नहीं होता था बस. किसी के चले जाने पर दिल में एक जगह खाली हो जाती थी और उसके कभी वापस आने का इंतज़ार करते हुए हम वो जगह हमेशा खाली रखते थे. ट्रेन में छेकी गयी सीट की तरह. कि यहाँ कोई अगले स्टेशन पर आ कर बैठने वाला है. कहने को जगह खाली होती थी पर यादें परमानेंट किरायेदार होती थीं. इस लिए कभी कभी जरूरी हो जाता है कि हम खुद खो जाएँ, ऐसी जगह कहाँ कोई और तलाश न सके.

वो बड़ी मीठी गंध थी. गाँव के लोग जैसी मीठी. अच्छे लोगों जैसी अच्छी. ताज़ी रोटियों की गंध जैसी अतुलनीय...मैं उसकी हथेली की एक लकीर माँगना चाहती थी, मेरे शब्दों के ऊपर की रेखा खींचनी थी...फिलहाल सारे अक्षर अलग अलग थे. उस एक लकीर से जोड़ना चाहती थी. उसकी हथेली में बहुत सी रेखाएं थीं मगर सिर्फ एक कविता कहने के लिए कैसे मैं एक लकीर मांग लेती. इकतारा बजाता एक फकीर गुज़रता है दरवाज़े से...उसकी फैली हुयी झोली में वो मेरे हाथ से एक रेखा मांगता है...मैं उसे अपनी हार्ट लाइन देती हूँ...फकीर उसे अपने झोले में रख लेता है...फिर अचानक से कहता है...उसे हार्ट लाइन नहीं लाइफ लाइन चाहिए थी. वो मेरी लकीर वापस करता है मुझे. मैं उसे कहना चाहती हूँ, ये मेरी हार्ट लाइन नहीं, किसी और की है...मगर मेरी लाइफ लाइन के बदले मुझे वही तुम्हारी एक रेखा मिलती है. उस रेखा को अपने अक्षरों के ऊपर रख कर मैं कविता पूरी करती हूँ. तब तक जिंदगी पूरी हो गयी है...मुझे सिर्फ एक ही कविता लिखने का वक़्त मिला है. मैं हैरान हूँ कि मुझे कोई शिकायत नहीं है.

The aftertaste of strawberry afternoons is you.

मेरी दोपहरों में रंग नहीं हैं इसलिए मुझे खुशबुएँ याद रह जाती है...तुम्हें पता है...इंसान सबसे जल्दी सेन्स ऑफ़ स्मेल एडजस्ट कर लेता है. मुझे तुम्हारे ब्रांड का परफ्यूम चाहिए...तुम जो परफ्यूम लगाते हो उसका ब्रांड नहीं. बताओ...है कोई जो तुम्हारा इत्र एक शीशी में बंद कर मुझे गिफ्ट कर सके. मैं तुम्हें छूने में डरती हूँ...मेरी उँगलियाँ तुम्हारी आँखों की याद दिलाती हैं...उन आँखों की जो मैंने देखी नहीं हैं. कोई गीत गुनगुनाते हुए तुम्हारी आदत है कुर्सी पर आगे पीछे झूलने की...मेरी आँखों पर रौशनी और परछाई के परदे बदलते रहते हैं. तुम्हें नहीं देख पाना एक अजीब किस्म की घबराहट है.

शायद एक दिन मैं फिर से देख पाउंगी...दुनिया शायद तब तक वैसी ही रहेगी. सूरज तब भी गुलाबी रंग का होगा...सड़क किनारे पेड़ों पर गुलाबी पत्ते होंगे...मेरे गाँव में बर्फ पिघल चुकी होगी और स्ट्राबेरी के छोटे पेड़ों पर पके लाल स्ट्राबेरी तोड़ने के लिए मैं एक छोटी डोलची लेकर घर से चलूंगी...तुम किसी सराय में रुके होगे और मैं तुम्हें देख कर पहचान नहीं पाउंगी क्यूंकि मेरी यादों में तुम्हारा कोई चेहरा ही नहीं है.

मैं हर बार भूल जाउंगी कि किसकी तलाश में गाँव के एकलौते बस स्टॉप पर बैठी हूँ...वहीं किसी पैरलल दुनिया में मेरी आँखों की रौशनी सलामत होगी और मैं तुम्हें देखते ही पहचान जाउंगी...तुम गाँव के मुखिया को रीति रिवाज के अनुसार मेरी चुनी हुयी स्ट्राबेरी की डोलची दोगे और बदले में मेरा हाथ मांग लोगे. जब इतना कुछ हो रहा होगा...किसी और पैरलल दुनिया में मैं ऐसा कुछ लिख रही होउंगी.

तो ये कौन सी वाली दुनिया है?

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


17 October, 2012

...and the world comes crashing down

इधर कुछ दिन पहले मेरा लैपटॉप क्रैश कर गया...कोई खबर नहीं...कोई अंदेशा नहीं...कोई भनक नहीं...बस ऐसे ही चलते फिरते...अचानक से क्रैश. ऑफिस की सारी फाइल्स उसमें हैं...पिछले तीन महीने का सारा काम वहीं है...अभी परफोर्मेंस रिव्यू का टाइम है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

दूसरी तकलीफ है कि मैंने फोटोग्राफ्स के बैकअप नहीं लिए थे. हर बार ऐसा होता है कि जब मैं अपने फोटोग्राफ्स मेमोरी कार्ड से लैपटॉप पर ट्रांसफर करती हूँ तो साथ ही हार्ड डिस्क में भी सेव कर लेती हूँ. पुरानी आदत है. इस बार के यूरोप ट्रिप पर हार्ड डिस्क लेकर गयी नहीं थी तो सारे फोटो सिर्फ लैपटॉप में थे. डीएसएलआर मेमोरी भी ज्यादा खाता है उसपर पहली बार अच्छा कैमरा लेकर गयी थी तो बहुत सी फोटो भी खींची थी. छुट्टी से वापस आते ही सीधे ऑफिस...और ऑफिस से फुर्सत मिली नहीं कभी बैकअप करने की. लैपटॉप क्रैश भी कर सकता है ऐसा सोचा ही नहीं था कभी. कुछ स्लो हो गया हो...पुराना हो गया हो या ऐसी कोई और तकलीफ हो तो फिर भी समझ में आता है...चलते फिरते क्रैश. इंसानों की तरह अनप्रेडिक्टेबल हो गए हैं आजकल डिजिटल उपकरण भी.

लैपटॉप की आदत हो गई थी. इधर एक साल में कितना तो म्यूजिक इकठ्ठा किया था. कुछ यूट्यूब से डाउनलोड किया कुछ इधर उधर की सीडीज से कॉपी किया. अभी आई-फोन में सारा म्यूजिक पड़ा है लेकिन जैसे ही उसे किसी लैपटॉप से कनेक्ट करूंगी सारा म्यूजिक इरेज हो जाएगा. एप्पल की ये बंद/क्लोज्ड प्रणाली मुझे नहीं पसंद है...अभी कितना आसान होता अगर बाकी फोन्स की तरह आईफोन भी एक युएसबी ड्राईव की तरह काम करता...मैं सारी म्यूजिक फाइल्स किसी और लैपटॉप पर कॉपी कर सकती थी.

ऑफिस का आधा काम गूगल ड्राइव पर बैकअप में डाल रखा है लेकिन पर्सनल फाइल्स कहीं भी बैकअप नहीं की हैं. लगता है इसी को डिवाइन सिग्नल की तरह लेना चाहिए कि कुछ डेटा हमेशा क्लाउड में बैक अप करके रखना चाहिए. मुझे क्लाउड कभी पसंद नहीं आया...ऑनलाइन जितना कम हो सके चीज़ें डालती हूँ...पहले तो पिकासा पर फोटोज अपलोड कर देती थी मगर अब उसकी भी जरूरत नहीं महसूस होती. ऑफिस से दूसरा लैपटॉप अलोट हो गया है. नया डेल वोस्त्रो. इसका वजन काफी कम है तो ऑफिस से घर इसे लेकर आने जाने में भी तकलीफ नहीं होती है. जब पुराने लैपटॉप का बैकअप आ जाएगा तो ऑफिस की फाइल्स गूगल ड्राइव में शिफ्ट कर दूँगी और रोज रोज ऑफिस लैपटॉप ले कर नहीं जाउंगी. घर का लैपटॉप अलग...ऑफिस का अलग.

आज जितनी फाइल्स रिकवर हो सकती हैं...होकर आ जायेंगी. वायो मैंने काफी तमीज से इस्तेमाल किया था. सारी फाइल्स अच्छे से आर्डर में सेव की थीं. जाने कितना कुछ वापस आएगा कितना कुछ बिट्स और बाइट्स की मेट्रिक्स में हमेशा के लिए खो जाएगा. मुझे कभी लिखे हुए के जाने का अफ़सोस नहीं होता. उसमें बहुत सारे वर्ड ड्राफ्ट्स थे, आधी कहानियां. दो आधी कहानियां मिल कर एक पूरी कहानी नहीं बनाती...दो आधी कहानियां ही रहती हैं. अपने लैपटॉप को काफी मिस कर रही हूँ. मेरी म्यूजिक फाइल्स...मेरी पसंद की फिल्में...तसवीरें.

लिखने का काम इधर कुछ दिनों से कॉपी पर डाल रखा है फिर से. आजकल ग्रीन इंक में थोड़ा ब्लैक  मिक्स करके लिख रही हूँ. दो रंग के इंक्स से लिखने में बहुत अच्छा लगता है. पन्ने भरते जा रहे हैं. ऑफिस में एक आध लोगों ने कभी कभार मांग कर मेरे पेन से लिखा है...पेन बहुत अच्छा है. नेहा गोवा गयी थी तो वहां से मेरे लिए एक बेहतरीन नोटबुक लायी थी...डायरी ऑफ अ डायरी...बहुत अलग तरह के पन्ने हैं उसमें और ज्यादा जीएसएम पेपर है तो फाउन्टेन पेन से लिखा हुआ दूसरी ओर नहीं दीखता. आइवरी पन्ने पर किसी भी रंग की इंक अच्छी लगती है. ऑफिस में टीम के अधिकतर लोग अपनी पेन को लेकर सेंटी हैं. मेरा और जोर्ज का एक ही पेन है...लैमी...हाँ उसका काले रंग का है और मेरे पास सफ़ेद, हरा और पर्पल कलर का है. कल घर की सफाई में कुछ इरेजर मिले...अब सोच रही हूँ थोड़ा सा पेन्सिल से लिखूं...सिर्फ इरेजर से मिटाने के सुख के लिए.

लगता है इस साल में जितना लिखना था आलरेडी लिख चुकी हूँ. अब कुछ खास लिखने का मन नहीं करता. नॉर्मली साल का ये समय ऐसे ही ब्लैंक जाता है...फिर नवम्बर आते आते जैसे जैसे शाखों से पत्ते गिरेंगे और सड़क पर कतार में बिछेंगे मुझे भी कागज़ की पैरलल लाइनें याद आएँगी और लिखने का मन करेगा.

फिलहाल बहुत सा अलग अलग संगीत सुन रही हूँ...कर्टसी तृश. बात कुछ ऐसे होती है...पूजा हैव यू हर्ड दिस सोंग....और सुने बिना जवाब होता है...नो तृश आई हैव हर्ड वैरी फ्यू इंग्लिश सोंग्स...प्ले इट प्लीज. अंग्रेजी संगीत सुनते हुए सोनिया को मिर्ज़ा ग़ालिब सुना रही थी...

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 

यूट्यूब के अलावा विमेयो, एटट्रैक्स और ऐसा ही बहुत कुछ और सुन रही हूँ...अपने एक्सपेरिमेंट. विएना में ओपेरा सुनने के बाद कुछ क्लासिक वेस्टर्न म्यूजिक भी सुनना शुरू किया है. शोपें...मोजार्ट...खैर बहुत ज्यादा नहीं सुना है इसलिए नाम नहीं लूंगी. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं. क्लासिक. उनपर लिखने का मन नहीं कर रहा...जैसे मन के तल में वो कहीं सिंक हो रही हैं तो मैं उनको वक़्त दे रही हूँ.

कभी कभी बहुत शोर होता है...कभी कभी बहुत सन्नाटा. शांति कहीं नहीं है. मन अशांत है. कुछ दिन में पोंडिचेरी जाने का प्लान है. वहां समंदर किनारे बहुत अच्छा लगता है. उम्मीदें हैं. जिंदगी है. आज बस ऐसे ही कुछ लिख जाने का मन किया...खास नहीं.
कहीं किसी पैरलल दुनिया में सब अच्छा होगा. अपनी जगह पर होगा.


12 October, 2012

गुजारिशें...


चलो,
हथेलियों से उगायेंगे बारिशें 
किसी शहर में 
जहाँ होंगी गलियां
खुरदुरी चट्टानों से बनी हुयीं 

सुनो,
चौराहे पर आती है 
अनगिन वाद्ययंत्रों की आवाज़ 
बहती हवा के साथ बह कर 
संतूर की धुन चुनते हैं 
बारिश के बैकड्रॉप में 

देखो,
नदी पर पाल वाली नावों को
नक़्शे में ढूंढो हमारा घर 
गुलाबी हाइलाईटर से मार्क करो 
दिल से दिमाग के रास्ते को
भटक जाती हूँ कितनी बार 

लिखो,
एक ख़त मुझे 
ऐसी भाषा में जो मुझे नहीं आती 
समझाओ एक एक शब्द का अर्थ 
पन्ने पर करना वाटरमार्क 
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर 

रचो,
एक दुनिया 
कि जिसमें मेरी पसंद के सारे लोग हों
ढूंढ के लाओ खोये हुए किस्से 
टहकते ज़ख्म, अधूरी कवितायें
सीले कागज़ और टूटी निब वाले पेन 

जियो 
इस लम्हे को मेरे साथ
कि छोटी है उम्र की रेखा 
ह्रदय रेखा से 
जैसे प्यार होता है बड़ा
जिंदगी और मौत से

10 October, 2012

चाबी वाली लड़की

खुदा ने इन्द्रधनुष में डुबायी अपनी उँगलियाँ और उसके गालों पर एक छोटा सा गड्ढा बना दिया... और वो मुस्कुराने के पहले रोने के लिए अभिशप्त हो गयी. 
किसी गाँव में चूल्हे से उठती होगी लकड़ियों की गंध. कहीं कोई लड़की पहली बार बैठी होगी बैलगाड़ी पर. किसी दादी ने बच्चे की करधनी में लगाए होंगे चांदी के चार घुँघरू...किसी लड़की ने पहली बार कलाई में पहनी होंगी हरे कांच की चूड़ियाँ. कवि ने पेन्सिल को दबाया होगा दांतों में. टीचर ने चाक फ़ेंक कर मारा होगा क्लास की सबसे बातूनी लड़की को. 

कहीं कोई विवाहिता कड़ाही में छोड़ती है बैगन के बचके. कहीं एक बहन बचाती है अपने भाई को माँ की डांट से. कोई उड़ाता है धूप में सूखते गेहूं के ऊपर से गौरैय्या. कहीं माँ रोटी में गुड़ लपेट कर देती है तुतरू खाने को. कुएं में तैरना सीखता है एक चाँद. पीपल के पेड़ पर घर बनाता है एक कोमल दिल वाला भूत. शिवाले में प्रसाद में मिलते हैं पांच बताशे. हनुमान जी की ध्वजा बताती है बारिश का पता. चन्दन घिसने का पत्थर कुटाई वाली की छैनी से कुटाता है. रात को कोई बजाता है मंदिर की सबसे ऊंची वाली घंटी. 

दुनिया का बहुत सा कारोबार बेखटके चलता रहता है. एक लड़की बैठी होती है गंगा किनारे...नदी उफान पर है और इंच इंच करके खतरे के निशान को छूने की जिद में लड़की से कहीं और चले जाने की मिन्नत करती है. 

विजयादशमी के लिए रावण का पुतला तैयार करने वाले कारगर की बेटी बैठी है पटाखों के पिरामिड पर. माचिस के डब्बों से बनाती है मीनारें. 

कहीं एक परफेक्ट दुनिया मौजूद है...शायद आईने के उस पार.

पोसम्पा भाई पोसम्पा...लाल किले में कितने सिपाही? कतार लगा कर सारे बच्चे जल्दी जल्दी भागते हैं. आखिर गीत ख़त्म होने तक एक बच्चा दो जोड़ी हाथों में कैद हो जाता है और किले का एक पहरेदार बदल दिया जाता है. 

कोई बताता नहीं कि खट्टी इमली क्यों नहीं खानी चाहिए या फिर जो चटख गुलाबी रंग का लस्सा लपेटे आदमी आता है उसकी मिठाई खराब क्यूँ है. सवालों के चैप्टर के अंत में जवाब लिखने के लिए जगह नहीं है. एक लड़की टीचर से पूछती है कि दुनिया में सारे लोग क्या सिर्फ नीली और लाल इंक से लिखते हैं. लड़की को हरा रंग पसंद है. टिकोले की कच्ची फांक सा हरा।
धान की रोपनी में लगे किसान और जौन मजदूर एक लय में काम करते हैं. घर आया मजदूर मुझसे मुट्ठी भर गमकौउआ चूड़ा मांगता है. मैं फ्राक के खजाने से उसे एक मुट्ठी चूड़ा देती हूँ. उसकी फैली हथेली में मेरी छोटी सी मुट्ठी से गिरा चूड़ा बुहत कम लगता है लेकिन वो सौंफ की तरह उसे फांक कर एक लोटा पानी गटक जाता है. 
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एक दुनिया है जिसमें लड़की खो जाती है जंगल में तो उस जंगल में खिल आते हैं असंख्य अमलतास...जंगल से बाहर आती है तो शुरू होते हैं सूरजमुखी के खेत...सूरजमुखी के खेतों से जाती है एक अनंत सड़क जिसके दोनों ओर हैं सफ़ेद यूकेलिप्टस...उस रास्ते में आता है सतरंगी तितलियों का घोसला...वहां के झींगुरों ने बनाए हैं नए गीत...वहां बारिश से आती है दालचीनी की हलकी खुशबू...दुआओं के ख़त पर लगती है रिसीव्ड की मुहर...एक तीखे मोड़ पर है एक कलमकार की दूकान जो बेचता है गुलाबी रंग की स्याही...उसी दुनिया में होती है छह महीने की रात...मगर वहीं दीखता है औरोरा बोरेआलिस...उसी दुनिया में रुक गयी है मेरे हाथ की घड़ी. उस दुनिया में कोई नहीं लिखता है कहानियां कि कहानियों से चले आते हैं खतरनाक किस्म के लोग और पैन्डोरा के बक्से की तरह वापस जाने को तैयार नहीं होते.

दुनिया में ताली के लिए ताला होता है...लड़की की उँगलियों में उग आते हैं खांचे और उसकी आँखों में उग आता है ताला..लड़की अपनी हथेलियाँ रखती है आँखों पर और अपनी पलकों को लौक कर देती है. 

07 October, 2012

बोस के हेडफोन्स...न ना...मेरे हेडफोन्स :) :)


बारिशें आजकल मूडी हो गयी हैं बैंगलोर में...मेरा असर पड़ा है मौसम पर लगता है. आज सुबह सूरज गायब है...कोहरे कोहरे वाली दिल्ली सा मौसम लग रहा है. ठंढ बिलकुल वैसी ही है...खिड़की खुली है और हलकी हवा चल रही है. जाड़ों के आने की पहली आहट है.

लिखने-पढ़ने के बाद जो चीज़ मुझे सबसे अच्छी लगती है वो है म्यूजिक...कुछ अच्छा सुनना...अपनी पसंद का. कुछ दिन पहले कुणाल ने मेरे लिए बोस के हेडफोन खरीद दिए. अभी से कोई तीन साल पहले नए हेडफोन्स खरीदने का मन हुआ था तो ऐसे ही बोस के शोरूम चले गए थे हम...सोचा था कितना महंगा होगा...पाँच हज़ार टाइप भी होगा तो खरीद लेंगे. जब बात संगीत की आती है तो बोस सबसे अच्छा है. वहाँ हेडफोन की कीमतें देखीं तो हँसी आ गयी. दो मॉडल थे...एक सत्रह हज़ार का और एक बाईस हज़ार का. हम डिस्कस करते हुए निकले कि ये लोग पागल हैं क्या, कौन खरीदेगा सत्रह हज़ार का हेडफोन. ऐसा क्या कर देंगे हेडफोन में कि सत्रह हज़ार लगायेगा कोई. चुपचाप सेनहैजर का दो हज़ार वाला नोर्मल हेडफोन ख़रीदे और अभी तक वही इस्तेमाल कर रहे थे. 

फुल-टाइम ऑफिस मेरे जैसे लोगों के बस का नहीं है ऐसा डिसाइड कर चुके थे. फ्रीलांसिंग में अच्छे प्रोजेक्ट्स आ रहे थे. एक किताब लिखनी खत्म की थी कि एक अच्छे साड़ी के ब्रांड के लिए फिर से कॉफी टेबल बुक का ओफ्फर पास में था. क्लायंट को मेरा काम पसंद आया था. किताब लिखने में कोई छः महीने टाइप लग जाते हैं लगभग. सब अच्छा चल रहा था कि इस वाले ऑफिस के लिए इंटरव्यू में चले गए. सब अच्छा रहा तो ज्वायन भी कर लिए. अब ऑफिस ज्वायन करते ही जो चीज़ सबसे पहले चाहिए होती है वो है हेडफोन...मुझे काम करते हुए किसी भी तरह का डिस्टर्बेंस पसंद नहीं है. ध्यान भंग होता है तो सोच की लड़ी टूट जाती है फिर वापस उसी जगह जा कर लिखना या सोचना हो नहीं पाता है. 

जहाँ बैठती हूँ पहली बार ऐसा हुआ है कि और भी कंटेंट के लोग हैं. टीम जहाँ बैठती है वो बेसमेंट में है और ऊपर सड़क को खिड़की खुलती है. हम उसे डंजयंस (Dungeons) कहते हैं. मुझे लगता है इस टीम का हिस्सा होने के लिए पागलपन एक जरूरी क्वालिफिकेशन है. हम जोर्ज को पूछते भी हैं कि कंटेंट टीम में लोग लेने के पहले क्या पागलपन मीटर चेक भी होता है. सब एक दूसरे की खिंचाई का एक भी मौका नहीं जाने देते. शब्द तो ऐसे पकड़ते हैं कि कोलेज का जमाना याद आ जाता है. जरा सा जुबान फिसली नहीं कि लपेटे में आ जाते हैं. तो अधिकतर काफी हल्ला-गुल्ला-मस्ती का माहौल रहता है. ऊपर डिजाइन टीम के लोग अगर कभी कभार आ जाते हैं तो घंटे आधे घंटे में ही सर पकड़ लेते हैं. 

मैंने जितने कॉपीराइटर्स या लिखने वाले लोगों को देखा है सब अधिकतर एक ही खाके से निकल कर आये होते हैं. कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर...बेहद आउटगोइंग...बिंदास और बहुत ज्यादा बोलने वाले. अधिकतर एक ऑफिस में एक ही काफी होता है पर यहाँ तो हम चार चार हैं. मैं अभी नयी आई हूँ तो अभी डिजाइन टीम के साथ ज्यादा काम नहीं किया था मगर अभी हाल में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में एक दिन ऊपर बैठना पड़ा. लोग परेशान कि आज तुमको हो क्या गया है...तुम तो ऐसी नहीं थी...और मैं कि नहीं रे बाबा मैं हमेशा से ऐसी ही थी तुम लोग जानते नहीं थे हमको. सब कहते हैं कि जोर्ज के पास सबसे 'हैपनिंग' टीम है. यहाँ पर तृश का म्यूजिक चोईस मुझे अक्सर पसंद आता है...तो जब मेरे पास मेरे अपने सुनने के कुछ खास पसंद के गाने नहीं होते तो तृश से पूछ लेती हूँ...आज क्या सुन रहे हो...और अधिकतर वो कुछ ऐसा सुन रहा होता है जो मैंने पहले कभी  नहीं सुना है. इंग्लिश में मैंने बहुत कम गाने सुने भी हैं तो हमेशा कुछ नया सुनने का स्कोप रहता है. कुछेक और दोस्त हैं मेरे जो मुझे म्यूजिक भेजते रहते हैं...musically on the same page. :)

खैर...इतने शोर में लोचा ये है कि या तो बहुत लाउड म्यूजिक प्ले करना पड़ता था या फिर काम करने में हज़ार दिक्कत होती थी. मैं काम करते हुए अधिकतर इन्स्ट्रुमेन्टल सुनती हूँ...लूप पर या फिर कोई ऐसा गाना जो मैंने इतनी हज़ार बार सुना है कि उसके शब्द वैसे ही बहते हैं जैसे रगों में खून...अब ऐसा कुछ लाउड वोल्यूम में प्ले करना का मन नहीं करता है. फिर लगा कि शायद अच्छे हेडफोन खरीदने होंगे. जिनमें नोइज कैंसिलेशन अच्छा होता हो. हम फिर बोस के शोरूम गए...देखने के लिए कि वाकई हेडफोन अच्छे हैं क्या. यहाँ फोरम मॉल में संडे के लिए मेला लगा रहता है...आधा बैंगलोर शायद वहीं पहुँच जाता है. हमने शोरूम में अटेंडेंट से पूछा कि इसका नोइज कैंसिलेशन कैसा है...उसने कहा कि बता नहीं सकती...आपको अनुभव करना होगा. हम शोव्रूम के बाहर आये...वहाँ दुनिया भर का शोर था. हेडफोन्स ऑन किये और दुनिया का शोर जैसे फेड कर गया...जैसे संगीत के अलावा कहीं और कुछ था ही नहीं. वो एक अद्भुत अनुभव था...एकदम जादू जैसा. वोल्यूम बहुत तेज भी  नहीं था...मीडियम था. मेरे चेहरे पर मेरा आश्चर्य दिख रहा होगा...

बस...मूड तो वहीं बन गया कि हेडफोन्स चाहिए. अब बात थी बैक कैलकुलेशन की.१७ हज़ार के हेडफोन्स...घर पे बताएँगे तो सबसे पिटेंगे कि दिमाग खराब हो गया है. इतना महंगा कोई हेडफोन खरीदता है...इतने में कुछ और कुछ अच्छा खरीद लो. बस कुणाल है कि हमेशा कहता है कि अगर अच्छी चीज़ है तो दाम का मत सोचो. लेकिन हम हैं कि गिल्ट से मरे जा रहे हैं...फिर हाँ ना करते करते...खुद को समझाते. हमको अच्छा म्यूजिक पसंद है...अच्छा म्यूजिक सुनने के लिए अच्छे हेडफोन्स चाहिए...फिर ऑफिस में हल्ला कितना होता है. अच्छा हेडफोन जरूरी है. बोस के नोइज कैंसिलेशन की तकनीक के कारण हल्का सा वैक्यूम सा बनता है...और हेडफोन की फिटिंग भी बहुत सही आती है. 

कोई महीने से ऊपर हुआ बोस के हेडफोन्स इस्तेमाल करते हुए. लगता तो ये है कि अभी तक मैंने जितना कुछ भी ख़रीदा है ये सबसे अच्छी चीज़ खरीदी है. चाहे फिल्म देख रहे हों या कि अपनी पसंद का कोई गाना सुन रहे हों. इन हेडफोन्स से पूरी डिटेल साफ़ सुनाई पड़ती है. अगर म्यूजिक का थोड़ा ज्यादा शौक़ है और अफोर्ड कर सकते हैं तो इन हेडफोन्स से बेहतर कुछ भी नहीं हैं. खास तौर से इन्स्ट्रुमेन्टल...क्लासिक सुनने का मज़ा ही और है. लगता ही नहीं है कि आसपास की दुनिया एक्जिस्ट भी करती है. वोकल सुनती हूँ तो लगता है कोई मेरे लिए ही गा रहा है...खास मेरे लिए...बिलकुल करीब आ कर. संगीत से रोमांस की शुरुआत है...और उफ़...कितना खूबसूरत है ये. 

मुझे नैट किंग कोल काफी पसंद हैं...बीटल्स को भी बहुत सुनती हूँ...आज की सुबह जेरी वेल के नाम रही...कुछ अच्छे लोगों के कारण कुछ बेहद अच्छा संगीत सुना है मैंने. इन अच्छी चीज़ों के लिए शुक्रिया नहीं होता...बार्टर सिस्टम होता है...तुम मुझे संगीत दो...बदले में हम भी तुमको कुछ अच्छा भेजेंगे :) :) 

आप ये सुनिए...Innamorata...Sweetheart in Italian. 

06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
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लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

03 October, 2012

चुप का शोर...


When I look at my shadow
I often wonder
Amongst us,
which one is darker?


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ग्रे...उजले रंग में थोड़ा सा भी काला रंग मिलाने से ग्रे बन जाता है मगर काले रंग को थोड़ा सा भी हल्का करने के लिए उसमें बहुत सारा सफ़ेद रंग मिलाना पड़ता है. किरदार भी ऐसे ही होते हैं. थोड़ा सी सियाही और हीरो एंटी-हीरो में तब्दील हो जाता है मगर विलेन को थोड़ा सा भी अच्छा बनने के लिए अपनी पूरी जीवन शैली ही बदलनी पड़ती है.

कहानी का श्याम पक्ष लिखना मुश्किल है...इसलिए नहीं कि ऐसे किरदार रचने मुश्किल हैं बल्कि अपने अंदर के अँधेरे का डर इतना ज्यादा है कि सूरज पर ग्रहण लग सकता है. लंबे समय तक कोई किरदार साथ रह जाए तो सच और कहानी के बीच का फासला मिटने लगता है. कहानी सिर्फ अच्छे लोगों की नहीं होती। वो तो कहानी का सिर्फ एक हिस्सा होता है...प्रतिनायक, कहानी को उसके नज़रिए से भी देखना होता है. लंबी कहानी लिखना खुदके साथ शतरंज खेलने जैसा है. जब आप पाले बदल कर दुश्मन के खेमे से खेलते हो तब आप खुद के दुश्मन हो जाते हो...तब कई बार ये भी लगता है कि काले सफ़ेद प्यादे कुछ नहीं...जीतने की रणनीति एक जैसी ही होती है. खून उतने ही करने होते हैं...चालें वैसी ही खतरनाक चलनी होती हैं।
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आजकल लाल फूलों के खिलने का मौसम है। मुझे उनका नाम नहीं पता। सड़क के दोनों ओर सूखे हुए पत्तों और धूल के साथ लाल-नारंगी-धूसर फूल भी दिखते हैं। मैं मुराकामी की एक किताब पढ़ रही थी. IQ84. सच और सपने की बारीक रेखा के इस पार उस पार डांस करती हुयी कहानी है. रात को जब साइकिल चलाने निकलती हूँ दुनिया स्लो मोशन में चलने लगती है. पैदल चलते हुए भी ऐसा कभी नहीं लगा था. फेंस-सिटर्स. ऐसे लोग जो निर्णय नहीं ले सकते. आर या पार की बात आती है तो उस फेंस/बाउंडरी/चारदीवारी पर ही घर बना लेते हैं. मैं जब साइकिल पर होती हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी दुनिया और मेरी कहानियों के बीच एक दीवार बनती जा रही है...बहुत लंबी और ऊंची...चीन की दीवार की तरह और मैं कहीं जाना नहीं चाहती...उसी दीवार पर घंटों रहना चाहती हूँ.
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'काला रे सैय्याँ काला रे...काली जबां की काली गारी...काले दिन की काली शामें...'
-गैंग्स ऑफ वासीपुर के गीत से

प्रतिनायक के बारे में लिखते हुए उसके नज़रिए से दुनिया देखती हूँ...लगता है सब सही तो है. वहाँ फिर खून भी माफ होता है, गालियाँ माफ होती हैं, प्यार न कर पाने की क्षमता, विध्वंस करने की उसकी प्रवित्ति...सब सही है क्यूंकि उसकी दुनिया में वो नायक है...प्रतिनायक नहीं...उसके नियमों से वो सही है. नीत्ज़े की कही एक पंक्ति है 'He who fights with monsters might take care lest he thereby become a monster.' अक्षरशः अनुवाद ये होगा कि 'जो दानव से लड़ता है उसे इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वो खुद ही दानव न बन जाए'. प्रतिनायक को लिखते हुए एक दूरी बना के रखनी पड़ती है. कहानी में सबसे महत्वपूर्ण रोल उसका ही होता है. सबसे जरूरी होता है कंट्रास्ट बनाना...जितनी तेज रौशनी होती है, परछाई उतनी ही काली होती है...फीकी रौशनी की परछाई फीकी ही होती है.
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Our deepest fear is not that we are inadequate. Our deepest fear is that we are powerful beyond measure. It is our light, not our darkness that most frightens us.
(Not sure about the sources)
हमें डर अपने अंधेरों से नहीं...अपने उजालों से लगता है...हम अपनी कमजोरियों से नहीं...अपनी अकूत क्षमताओं से डरते हैं. 
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मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं खामोश जहाँ हूँ मुझे वहाँ से पढ़ो 
-निदा फाजली 

इधर कुछ बहुत अलग अलग चीज़ें पढ़ी...विन्सेंट वैन गोग की जीवनी...लस्ट फॉर लाइफ...एक कलाकार के जीवन की छटपटाहट का सबसे बेहतरीन उदहारण मिला है मुझे. किसी से डिस्कस कर रही थी तो उसने कहा कि लस्ट फॉर लाइफ बहुत डार्क है...उदास कर देने वाला. मैंने मुस्कुरा कर कहा...मुझे पता है...मैं भी कुछ कुछ वैसी ही हूँ. मुझे भी सियाह और उदास कर देने वाली चीज़ें पसंद हैं. 

कितना ज्यादा विरोधाभास है जीवन में...मैं जितना बोलती हूँ उतना ही चुप रहती जाती हूँ. बहुत गहरा कुआँ होता है मन...सीली सीढ़ियाँ...अँधेरा...कितनी ही बार उतरती हूँ...कितना भी नीचे उतरती हूँ काई लगी दीवारें उतनी ही डरावनी लगती हैं. जैसे काला गाढ़ा पानी रिस रिस कर भर रहा है. मन की तलछट पर से ऊपर देखती हूँ...किसी बहुत गहरे पथार के कुएं की तरह ऊपर एक गोल खिड़की दिखती है जिससे दिन में भी तारे नज़र आते हैं. आसमान काला होता है...बीच सावन बरसते परदेस में भिगाने वाला काला. 

कोई सवालों का झग्गड़ झुलाता है नीचे...अनगिन प्रश्चिन्हों के हुक...पानी में जवाबी बाल्टियाँ गिरी हुयी हैं. कुएं में लोहे के टकराने की आवाजें होती हैं और गोल दीवारों से टकराती हुयी अजीब धुन पैदा होती है...दिल की धड़कन के जैसी...अनियमित. 
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Interrobang=?! or ?!

शब्दों/संकेतों की दुनिया लाजवाब है. कुछ कुछ चीज़ें पढ़ते हुए पहली बार इन्टेरोबैंग से सामना हुआ था. इंटेरोगेशन मार्क और क्वेस्चन मार्क को मिला कर बना ये चिन्ह बहुत से फोंट्स में पाया जाता है. ये ऐसी मानसिक अवस्था को दर्शाता है जब आप चकित हैं और मन में अनेकों सवाल भी हैं. बहुत दिन बाद मैंने अपना फैवआइकन बदला है. मज़े की बात ये है कि ये चिन्ह अंग्रेजी के P अक्षर जैसा लगता है...तो ब्लॉग के लिए परफेक्ट है. 
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पहेली जिंदगी नहीं होती...हम हो जाते हैं. खुद से मिलते रहना जरूरी है. थोड़ा भाषण देना जरूरी है. बहुत दिन बाद लिखो तो बेहद फालतू चीज़ें लिखती हूँ...मगर बहुत दिन पहले एक दोस्त को कहा था...लिखने से मोह करना...लिखे हुए से नहीं. तो लिखने की आदत को बरकरार रखने के लिए इतना सारा कुछ.
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आँख से सुबुक गिर पड़ता है पांचवां आँसू...पगली नमक से मर जायेंगे चिरामिरा के पौधे. घबराती हूँ, आँचल बारिश में तानती हूँ आसमान पर. रोकती हूँ गाँव पर आने वाले फ्लैश फ्लड को...डूब जाती हूँ...कोई जाल में छांक लेता है लाश को.

कांच का गुलदान उठा कर सामने फेंका है दीवार पर...किरिच किरिच चेहरा गिरा है फर्श पर.

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