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03 May, 2014

ये मौसम का खुमार है या तुम हो?

याद रंग का आसमान था
ओस रंग की नाव
नीला रंग खिला था सूरज
नदी किनारे गाँव

तुम चलते पानी में छप छप
दिल मेरा धकधक करता
मन में रटती पूरा ककहरा
फिर भी ध्यान नहीं बँटता

जानम ये सब तेरी गलती
तुमने ही बादल बुलवाये
बारिश में मुझको अटकाया
खुद सरगत होके घर आये

दरवाजे से मेरे दिल तक
पूरे घर में कादो किच किच
चूमंू या चूल्हे में डालूं
तुम्हें देख के हर मन हिचकिच

उसपे तुम्हारी साँसें पागल
मेरा नाम लिये जायें
इनको जरा समझाओ ना तुम
कितना शोर किये जायें

जाहिल ही हो एकदम से तुम
ऐसे कसो न बाँहें उफ़
आग दौड़ने लगी नसों में
ऐसे भरो ना आँहें उफ़

कच्चे आँगन की मिट्टी में
फुसला कर के बातों में
प्यार टूट कर करना तुमसे
बेमौसम बरसातों में

कुछ बोसों सा भीगा भीगा
कुछ बेमौसम की बारिश सा
मुझ सा भोला, तुम सा शातिर
है ईश्क खुदा की साजिश सा 

10 May, 2013

जरा सा पास, बहुत सा दूर

इससे तो बेहतर होता कि वे एक दूसरे से हजारों मील दूर रहते. ऐसे में कम से कम झूठी उम्मीदें तो नहीं पनपतीं, हर बारिश के बाद उसको देखने की ख्वाहिश तो नहीं होती. ऊपर वाला बड़ा बेरहम स्क्रिप्ट राइटर है. वो जब किरदार रचता है तो मिटटी में बेचैनी गूंथ देता है. ऐसे लोगों को फिर कभी करार नहीं आता.

इस कहानी के किरदार एक दूसरे से २०० किलोमीटर दूर रहते हैं. एक बार तो सोचती हूँ कहानी को किसी योरोप के शहरों की सेटिंग दे दूं...वहां शहर इतने खूबसूरत होते हैं...बरसातों में खास तौर पर. लेकिन उस सेटिंग में मेरे किरदार नैचुरल नहीं महसूस करेंगे. उनके अहसासों में एक अजनबियत आ जायेगी. यूँ मुझे वियेना और बर्न बहुत पसंद है. पर उनकी बात फिर कभी.

उन दोनों के शहरों के बीच हर तरह की कनेक्टिविटी थी. बसें चलती थीं, ट्रेन थी, हवाईजहाज थे और उन्हें जोड़ने वाला हाइवे देश का सबसे खूबसूरत रास्ता माना जाता था. वो रहता था सपनों के शहर मुंबई में और वो रहती थी बरसातों के शहर पुणे में.

आज किरदारों का नाम रख देती हूँ कि कुछ तसवीरें हैं ज़हन में...तो मान लेते हैं कि लड़के का नाम तुषार था. किसी सुडोकु पजल जैसा था लड़का, सारे खानों में सही नंबर रखने होते थे जब जा कर उसके होने में कोई तारतम्य महसूस होता था वरना वो बेहद रैंडम था और जैसा कि मेरी कहानी की लड़कियों के साथ होता है, उसके नंबरों से डर लगता था. वो उसे सुलझाना चाहती थी मगर डरती थी. हालात हर बार ऐसे होते थे कि वो मिलते मिलते रह जाते थे. वे सबसे ज्यादा ट्रैफिक सिग्नलों पर मिलते थे, जिस दिन किस्मत अच्छी होती थी उनके पास पूरे १८० सेकंड्स होते थे.

एक लेखक ने अपनी किताब का कवर सरेस पेपर का बनवाया था ताकि उसके आसपास रखी किताबें बर्बाद हो जायें. तुषार ऐसा ही था, उसे पढ़ने की कोशिश में उँगलियाँ छिल जाती थीं. उसके ऊपर कवर लगा के रखना पड़ता था कि उसके होने से जिंदगी के बाकी लोगों को तकलीफ न हो. गलती मेरी ही थी...मैंने ही ऐसा कुछ रच दिया था कि लड़की को कहीं करार नहीं था.

लड़की कॉफ़ी में तीन चम्मच चीनी पीती थी, तुषार ने उसके होटों का स्वाद चखने के लिए उसके कॉफ़ी मग से एक घूँट कॉफ़ी पी ली थी, मगर उसने लड़की ने इतना ही कहा कि मुझे देखना था तुम इतनी मीठी कॉफ़ी कैसे पी पाती हो. तुषार को ब्लैक कॉफ़ी पसंद थी, विदाउट मिल्क, विदाउट शुगर. लड़की ने वो कॉफ़ी मग अपनी खिड़की पर रख दिया था. उसे लगता था जिस दिन कॉफ़ी मग बारिश के पानी से पूरा भर जाएगा उस दिन उसे तुषार के साथ बिताने को थोड़ा ज्यादा वक़्त मिलेगा.

दोनों शहर इतने पास थे कि दूर थे...और ये ऐसी तकलीफ थी कि सांस लेने नहीं देती. लड़की सोचती कि ऐसे मौसम में मुमकिन है कि वो वाकई आ सके. तीन घंटे क्या होते हैं आखिर. वो छत के कोने वाले गुलमोहर के नीचे खड़ी भीगती और सोचती बारिशों में तेज़ ड्राइव करना जितना खतरनाक है उतना ही खूबसूरत भी, या कि खतरनाक है इसलिए खूबसूरत भी. एक्सप्रेसवे पर गहरी घाटियाँ दिखतीं थें और उनसे उठते बादल. दोनों उसी रास्ते से विपरीत दिशाओं में जाते हुए मिलते. तुषार उसका गहरा गुलाबी स्कार्फ पहचानता था. ऐसा हर बार होता कि जब तुषार का पुणे आने का प्रोग्राम बनता, लड़की को बॉम्बे जाना होता. वे तकरीबन एक ही समय खुश हो कर एक दूसरे को फोन करते कि अपने शहर में रहना. जब उनकी गाड़ियाँ क्रोस करतीं लड़की अपना स्कार्फ हिला कर उसे अलविदा कहती थी.

इतनी दूरी कि जब चाहो उससे मिलने जा सको लेकिन उतना सा वक़्त न मिले कभी, धीमे जहर से मरने जैसा होता है. फिर भी कभी कभी उनके हिस्से में कोई बारिश आ जाती थी. कैफे में बैठे, अपने अपने पसंद की कॉफ़ी पीते हुए वे सोचते कि जिंदगी तब कितनी अच्छी थी जब एक दूसरे से प्यार नहीं हुआ था. या कि वे दोनों बहुत दूर के शहर में रहते जब आने की उम्मीद न होती...या कि एक दूसरे को सरप्राईज देने के बजाये वे प्लान कर के एक दूसरे के शहर आते. लड़की के सारे दोस्त भी तुषार के साथ मिले हुए थे...तो अक्सर उसे उसकी किसी दोस्त का फोन आता कि कैफेटेरिया में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ और वहां तुषार मिलता. कभी कभी लगता कि अचानक उसे देखने की ख़ुशी कितना गहरा इंतज़ार दे जाती है कि वो हर जगह, हर वक़्त उसे ही तलाशती फिरती है.

वे अक्सर टहलने निकल जाया करते थे. घुमावदार गलियों पर, सीढ़ियों पर, शीशम के ऊंचे पेड़ों वाले रस्ते पर...तुषार दायें हाथ में घड़ी बांधता था और लड़की बायें हाथ में, अक्सर उनकी घड़ियों के कांच टूटते रहते थे. उन्हें कभी हाथ पकड़ के चलना रास नहीं आया. अक्सर जब ऐसा होता था तो वे ध्यान से अपने चलने की साइड बदल लेते थे.

इस कहानी में बहुत सारा इंतज़ार है...उन दो शहरों की तरह जो अपनी सारी बातें सिर्फ उनको जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे के माध्यम से कर पाते थे. कहानियों को फुर्सत होती है कि वे जहाँ से ख़त्म हों, वहां से फिर नयी शुरुआत कर सकें. मैं उन्हें इसी मोड़ पर छोड़ देती हूँ...जहाँ प्यार है और इंतज़ार है बेहद. उम्मीद नहीं है क्यूंकि ख्वाहिश नहीं है. दोनों अपने अपने शहरों से भी उतना ही प्यार करते हैं जितना कि एक दूसरे से.

बेचैनी के इस आलम में सुकून बस इतना है कि दोनों जानते हैं कि हर बारिश में यहाँ से कुछ दूर के शहर में रहने वाला कोई उनसे प्यार करता है और चाहता है कि वो एक्सप्रेसवे पर २०० की स्पीड से गाड़ी उड़ाता हुआ उनके पास चला आये.जीने के लिए इतना काफी है.

03 April, 2013

वो जो सांवला सा रास्ता था

रास्ते तुम्हें ढूँढने को बहुत दूर तलक, बहुत देर तक भटके थे. आज उन्हें थकान से नींद आने लगी है. उन्होंने टेलीग्राम भेजा है कि वे अब कुछ रोज़ सुस्ताना चाहते हैं. एक शाम सिगरेट सुलगाने को ऑफिस से बाहर निकली तो देखा कि रास्ता कहीं चला गया है और सामने दूर तलक सिर्फ और सिर्फ अमलतास के पेड़ उग आये हैं. खिले हुए पीले फूलों को देखा तो भूल गयी कि रास्ता कहीं चला गया है और मुझे उसकी तलाश में जाना चाहिए. ऑफिस से घर तक का रास्ता नन्हा, नटखट बच्चे जैसा था...उसे दुनियादारी की कोम्प्लिकेशन नहीं समझ आती थी. मैंने बस जिक्र किया था कि तुम जाने किस शहर में रहते होगे. रस्ते को मेरी उदासी नहीं देखी गयी. यूँ सोचा तो उसने होगा कि जल्दी लौट आएगा, मगर सफ़र कुछ लम्बा हो गया.

एक छोटे से पोखर में बहुत सारी नीली कुमुदिनी खिली हुयी है, मैं सोचती हूँ कि रास्ते को मेरी कितनी फ़िक्र थी. मैं उसे मिस न करूँ इसलिए कितना खूबसूरत जंगल यहाँ भेज दिया है उसने. अमलतास के पेड़ों के ख़त्म होते ही पलाश की कतारें थीं. वसंत में पलाश के टहकते हुए लाल फूल थे और मिटटी के ऊपर अनगिन सूखे पत्ते बिखरे पड़े थे. चूँकि यहाँ आने का रास्ता नहीं था तो बीबीएमपी के लोग कचरा साफ़ करने नहीं आ सकते थे, वरना वे हर सुबह पत्तों का ढेर इकट्टा करके आग लगा देते और उनमें छुपा हुआ रास्ता दिखने लगता.

ये मौसम आम के मंजर का है और उनकी गंध से अच्छा ख़ासा नार्मल इंसान बौराने लगता है. मैं पोखर के किनारे के सारे पत्थर फ़ेंक चुकी थी और अब अगली बारी शायद मेरे मोबाइल की होती...खतरा बड़ा था तो मैंने सोचा आगे चल कर देखूं किस शहर तक के रस्ते गायब हो गए हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता न कि बैंगलोर के सारे रास्तों को बाँध कर ले गया हो मेरे ऑफिस के सामने का नन्हा रास्ता. पर कभी कभी छोटे बच्चे ऐसा बड़ा काम कर जाते हैं कि हम करने की सोच भी नहीं सकते.

मुझे मालूम था कि थोड़ी देर में बारिश होने वाली है...मौसम ऐसा दिलफरेब और ख्वाबों सा ऐसा नज़ारा हमेशा नहीं होता. किसी ने ख़ास मेरे लिए मेरे पसंद के फूलों का जंगल उगाया था. इसके पहले कि सारी सिगरेटें गीली हों जाएँ एक सिगरेट पी लेनी जरूरी थी. मुझे याद आ रहा था कि तुम अक्सरहां सिगरेट को कलम की तरह पकड़ लेते थे. जिंदगी अजीब हादसों से घिरी रही है और मेरी पसंद के लोग अक्सर बिछड़ते रहते हैं. जिस आखिरी शहर में तुम्हें चिट्ठी लिखी थी वहां के रास्तों ने ही पैगाम भेजा था कि तुम किसी और शहर को निकल गए हो.

जिंदगी को तुमसे इर्ष्या होने लगी थी...मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से ज्यादा प्यार जो करने लगी थी. ऑफिस के इस रास्ते पर टहलते हुए कितनी ही बार तुमसे बात की, सिगरेट के टूटे छल्ले बनाते हुए अक्सर सोचा कि तुम जिस भी शहर में होगे वहां आँधियों ने तुम्हारा जीना मुहाल कर रखा होगा. तुम्हें याद है तुमने आखिरी धुएं का छल्ला कब बनाया था? ये जो छोटा सा रास्ता था, उसे अक्सर लगता था कि हम एक दूसरे के लिए बने हैं और एक दिन तुम उससे होते हुए मुझे तक पहुँच जाओगे. ये तब की बात है जब तुम्हारे घर का रास्ता मुझे मालूम था...मुझे तुम्हारी आँखों का रंग भी याद था और तुम्हारे पसंदीदा ब्रांड की सिगरेट भी पसंद थी.

तुम्हें जानते हुए कितने साल हो गए? मैंने तो कभी नहीं सोचा कि ऐसा कोई रास्ता भी होगा जिसपर बारिशों के मौसम में हम हाथों में हाथ लिए घूमेंगे. रास्ते से उठ रही होगी भाप और धुंआ धुंआ हो जाएगा सब आँखों के सामने. तो ये जो मेरी आँखों के ख्वाब नहीं थे, उस रास्ते के लिए इतने जरूरी क्यूँ थे कि वो तुम्हें ढूँढने चला गया. मुझसे ज्यादा तुम्हारी याद आती थी रास्ते को. उसे तुम्हारी आवाज़ की आदत पड़ गयी थी. पर एक रास्ता ही तो था जो जानता था कि तुमसे बात करते हुए मैं सबसे ज्यादा हंसती हूँ...एक तुम्हारा अलावा सिर्फ वही एक रास्ता था जो जानता था कि मैं हँसते हुए हमेशा आसमान की ओर देखती हूँ.

तुम कहाँ चले गए हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे घर के आगे का रास्ता भी मुझे ढूँढ़ने निकला है इसलिए तुम मुझ तक नहीं पहुँच सकते. कि कोई एक खोया हुआ होता तो मुमकिन था कि हम कहीं मिल जाते...मगर चूँकि मेरे रस्ते को तुमसे प्यार था और तुम्हारे रास्ते को मुझसे...वे दोनों हमें मिलाने को निकल गए और हम दोनों खो गए. पर सोचो...आसमान तो एक ही रहेगा...चाँद...तारे...रात हो रही है, ऐसा करो न कि तारों में तुम्हारे शहर का नक्शा बना दो. मैं रात नदी का किनारा पकड़ कर तुम्हारे शहर पहुँच जाउंगी.

तब तक...हम दोनों के कुछ दोस्त मेरे और तुम्हारे शहर के बीच कहीं रहते हैं...उनसे कहो जरा रास्तों का ध्यान रखें...कभी कभी सफ़र में सुनाया करें रास्तों को मेरी तुम्हारी कहानियां. चलो एक 'मिसिंग' का पोस्टर बनवाते हैं. कभी वापस आ जायेंगे रस्ते तो एक दूसरे के पास ही रहने देंगे उन्हें. तुम भी मेरे शहर चले आना उनकी ऊँगली पकड़े. मेरे रास्ते को कहीं देखोगे तो पहचान तो लोगे? सांवला सा है, उसके बांयें गाल पर डिम्पल है और उसके दोनों तरफ गुलमोहर के फूल लगे हैं. चुप्पा है बहुत, बारिश की भाषा में बात करता है...जो तुमसे भीगने को कहे तो मान जाना.

सी यु सून!

06 December, 2012

बातें, सब बातें झूठी हैं

गाँव से बहुत दूर एक पुराने किले में एक दुष्ट जादूगरनी रहती थी जो कि छोटे बच्चों को पकड़ कर खा जाती थी...लेकिन आप जानते हो कि ये कहानी झूठी है कि गाँव के छोर पर एक गरीब की झोंपड़ी थी जिसमें एक सुनहले बालों वाली राजकुमारी रहती थी...उसके बाल खुलते थे तो सूरज की किरनें धान के खेतों पर गिरतीं थीं और गाँव वालों की खेती निर्बाध रूप से चलती थी.

वो जो दुष्ट जादूगरनी थी उसे काला जादू आता था...वो बच्चों को बहाने से बुला लेती थी और फिर उनका दिल निकाल कर उसकी कलेजी तल के खाती थी. उसे खरगोश जैसे मासूम बच्चे बहुत पसंद थे. गाँव के सारे बच्चों की माएं उन्हें उस जादूगरनी के बारे में बता के रखती थी और उनकी रक्षा के लिए काला तावीज बांधती थी. बच्चे लेकिन बहुत शैतान होते थे...वे भरी दुपहरिया पीपल के कोटर में अपना अपना तावीज रख आते थे और किले में उचक कर देखते थे. बच्चों को पूरा यकीन था कि शादी के बाद जिन लड़कियों की विदाई होती है वे कहीं नहीं जातीं, यही दुष्ट जादूगरनी उन्हें पकड़ के खा जाती है. 

मगर आप जानते हो कि दुष्ट जादूगरनी असल में किस्सा है...माएं अपने बेटों को उस राजकुमारी से बचाना चाहती थीं जिसका दिल एक राजकुमार ने तोड़ दिया था और उसके उदास आंसुओं की नदी से गाँव के सारे खेत सींचे जाते थे. गाँव के लड़के बहुत सीधे और भोले थे, उन्हें जादूगरनी से भी उतना ही खतरा था जितना कि राजकुमारी से. अगर उसने हँसना सीख लिया तो गाँव के सारे खेत सूख जायेंगे और सभी लोग भूखे मर जायेंगे.  जैसे किसी आशिक को अपने महबूब के वादों पर ऐतबार नहीं होता वैसे ही गाँव की माँओं को बारिश के आने पर भरोसा नहीं था. वे रातों को पीर की मजार पर राजकुमारी के आंसुओं की नदी बहती रखने की मन्नत बाँधने जातीं थी...आते और जाते हुए वे अपने बिछड़े हुए मायके के गीत गाया करतीं...ये गीत राजकुमारी तक हवा में उड़ कर पहुँच जाते...अगली भोर नदी में बाढ़ आ जाती और धान के खेत घुटने भर पानी में डूब जाते...अब धान के बिचड़ों को उखाड़ कर उनकी बुवाई शुरू हो जाती. 

छोटे बच्चों को मालूम नहीं होता कि माएं जो तावीज बांधती हैं उनमें उनकी सच्ची दुआएं शामिल होती हैं...जब वे तावीज को कोटर में रखते तो वे कुछ भी महसूस नहीं कर पाते...अगर वैसे में जादूगरनी उन्हें मार कर उनका दिल निकालती तो उन्हें दर्द नहीं होता...ये एक बहुत पुराने पीर का आशीर्वाद था. लेकिन वहां कोई जादूगरनी थी नहीं...जैसा कि समझदार लोग जानते हैं. बिना तावीज के उन्हें कुछ महसूस नहीं होता. वे देख नहीं पाते कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है...वे देख नहीं पाते कि राजकुमारी का दिल किस कदर टुकड़ों में है. उनमें से कोई राजकुमारी को अपने साथ खेलने के लिए भी नहीं बुलाता. वे बस दूर से देखते थे...उसके हवा में सूखते सतरंगी दुपट्टे को छू आने का साहस करते लेकिन पास नहीं जाते.

उस गाँव की लड़कियों की घर से बाहर निकलने की मनाही हो जाती...शादी के बाद और गौणा के पहले जो लड़कियां गाँव में रहतीं उन्हें दिखता था कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है. वे जब सावन में झूले की पींगें बढ़ातीं तो अक्सर रोते रोते उनकी हिचकियाँ बंध जातीं...वे फिर राजकुमारी के लिए दुआएं गातीं...गोरी..ओ री...कहाँ तेरा राजकुमार...गोरी रो री...चल नदिया के पार...बस कर दे बरसात ओ सावन कितना रोवे नैना...खोल दे रास्ता मन भागे हैं कहीं न पाए चैना...और भी कुछ ऐसा ही जिसका न ओर था न छोर था. कच्ची उमर की लड़कियां थीं, उसके दर्द में रोतीं थीं...जैसे जैसे उनके बाल पकते, कलेजा भी पत्थर होते जाता...फिर उन्हें न राजकुमारी की चिंता होती न उसके टूटे दिल की...वे अपने बेटों को दुष्ट जादूगरनी के किस्से सुनाने लगतीं, उनके गले में काला तावीज बाँधने लगतीं.

हर दुष्ट जादूगरनी की कहानी के पीछे ऐसी कोई कहानी होती है जो कोई नहीं सुनाता...भटकते भूतों का दर्द कौन सुनता है बैठ कर...जिसे मर कर भी चैन नहीं उससे ज्यादा उदास और कौन होगा...एक उदासी का फूल होता है...सदाबहार...जिस मन के बाग में वो खिलता है वहाँ सालों भर बरसातें होती हैं. किसी शहर में सालों भर बरसातें होती हों तो वहां खोजना...उदासी का फूल...उसका रंग सलेटी होता है, बहे हुए काजल जैसी रेखाएं होती हैं...उसे तोड़ते हुए ख्याल रखना...उसकी खुशबू उँगलियों में हमेशा के लिए रह जाती है. 

31 October, 2012

अच्छी वाली बारिशें

जब सुबह इन्द्रधनुष के बुलाने से नींद खुले
तुम बनाओ मेरे लिए दालचीनी वाली कॉफ़ी
खाने को कहीं से मिल जाए मम्मी के हाथ का खाना
पापा कॉल कर के पूछे कि मैं कैसी हूँ 

दोनों कानों के झुमके एक साथ टंगे हों 
बिना ढूंढें मिल जाए फेवरिट दुपट्टा
शैम्पू करने में लगे सिर्फ पांच मिनट
बारिश में घुल जाए मेरा परफ्यूम  

सड़क किनारे बन जाएँ नदियाँ
तुम छाता लेकर भागो मेरे पीछे
भीगूँ मैं और सर्दी तुम्हें हो 
फिर साथ बनाएं तुलसी का काढ़ा 

सेट-अप करें होम-थियेटर सिस्टम
सुने एक दूसरे की पसंद के गाने
उलटे-पुल्टे स्टेप्स वाले डांस करें
और थक के सो जायें बिना खाए पिए

फिर बारिश ही जगाये रात दो बजे
दो मिनट की मैगी बनाएं 
साथ खींचें अजीब एंगल में फोटो
बारिश को कहें...कम अगेन 

जाने दो...साढ़े आठ बज गए 
उठो जानेमन...कि दिन शुरू हुआ 
कमबख्त बारिश...कमबख्त ऑफिस 
तुम ये ख्याली पुलाव खाओ, मैं चाय बनाती हूँ 

12 October, 2012

गुजारिशें...


चलो,
हथेलियों से उगायेंगे बारिशें 
किसी शहर में 
जहाँ होंगी गलियां
खुरदुरी चट्टानों से बनी हुयीं 

सुनो,
चौराहे पर आती है 
अनगिन वाद्ययंत्रों की आवाज़ 
बहती हवा के साथ बह कर 
संतूर की धुन चुनते हैं 
बारिश के बैकड्रॉप में 

देखो,
नदी पर पाल वाली नावों को
नक़्शे में ढूंढो हमारा घर 
गुलाबी हाइलाईटर से मार्क करो 
दिल से दिमाग के रास्ते को
भटक जाती हूँ कितनी बार 

लिखो,
एक ख़त मुझे 
ऐसी भाषा में जो मुझे नहीं आती 
समझाओ एक एक शब्द का अर्थ 
पन्ने पर करना वाटरमार्क 
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर 

रचो,
एक दुनिया 
कि जिसमें मेरी पसंद के सारे लोग हों
ढूंढ के लाओ खोये हुए किस्से 
टहकते ज़ख्म, अधूरी कवितायें
सीले कागज़ और टूटी निब वाले पेन 

जियो 
इस लम्हे को मेरे साथ
कि छोटी है उम्र की रेखा 
ह्रदय रेखा से 
जैसे प्यार होता है बड़ा
जिंदगी और मौत से

16 July, 2012

क्राकोव डायरीज-३-बारिशों का छाता ताने

यूँ तो इस कासिदाने दिल के पास, जाने किस किस के लिए पैगाम हैं
जो लिखे जाने थे औरों के नाम, मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं
-जान आलिया
डायरी में लिखा हुआ...
12th July, 12:26 local time Krakow
किले के पीछे विस्तुला नदी बहती है. मैं नदी किनारे बैठ कर हवा खा रही हूँ. लोगों के आने जाने की आवाजें हैं. नदी की लहरों का शोर. घूमने को कई सारे म्यूजियम हैं, देखने को कई सारी जगहें...ऐसे में बिना कुछ किये बैठे रहने में वैसा ही भाव है जैसे गर्मी की छुट्टी का होमवर्क नहीं करने में था. M lovin it :)
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वे धूप की खुशबू में भीगे दिन थे...गुनगुनाते हुए. 
मेरे फोन में 3G आ गया था तो शहर घूमना थोड़ा आसान हो गया. मुझे वैसे भी रास्ते अच्छे से याद रहते हैं. क्राकोव में मैं जहाँ ठहरी हूँ वो 'ओल्ड टाउन' का हिस्सा है. सारे किले, पुराने चर्च, म्यूजियम आसपास ही हैं और पैदल घूमा जा सकता है. १२ की सुबह आराम से तैयार होकर घूमने निकली तो सोचा ये था कि यहाँ का जो मुख्य किला है...वावेल कैसल उसके अंदर के म्यूजियम घूमूंगी. आज दूसरा रास्ता लिया था कैसल जाने के लिए. इस रास्ते के एक तरफ पार्क था और दूसरे तरफ बिल्डिंग्स. यूरोप का आर्किटेक्चर लगभग एक जैसा ही है...स्लोपिंग छत वाले घर और बालकनी...खिड़कियों के बाहर फूलों वाले गमले जिनमें अक्सर लाल फूल खिले रहते हैं. 

इस दूसरे रास्ते पर चलते हुए किले के नीचे पहुँच गयी...नदी के किनारे. यहाँ ड्रैगन की गुफा का बाहरी दरवाजा है...जहाँ एक ड्रैगन बना हुआ है जिसके मुंह से आग निकलती है. नदी के लिए क्रूज भी यहीं से मिलते हैं. क्राकोव में बहुत सारा स्टूडेंट पोपुलेशन है इसलिए यहाँ धूप में पढ़ते हुए लोग दिख जाते हैं...नदी किनारे, पेड़ के नीचे पढ़ते लिखते लोग देख कर लगता है कि जिंदगी इसी का नाम है. कोई बारह बज रहे थे और माहौल इतना अच्छा था कि कहीं जाने का मन ही नहीं कर रहा था. शहर में आये हुए ये तीसरा दिन था. कुछ खास देखा नहीं था अभी...कैसल में भी म्यूजियम हैं, राजाओं की कब्रें हैं और इसके अलावा टाउन स्क्वायर जिसका मूल नाम रैनेक ग्लोव्नी होता है में भी एक बड़ा सा म्यूजियम है जिसे क्लोथ हॉल म्यूजियम कहते हैं. इसके अलावा ३ बजे मेन स्क्वायर से जुविश क्वाटर के लिए टूर शुरू होता है...उसे देखने का भी दिल था.

घोर गिल्ट महसूस करने के बावजूद मैं वहाँ कुछ देर ठहरी रही...ठंढ के दिन में धूप...उसपर इतनी खूबसूरती...सारा गिल्ट महसूस करने के बावजूद कहीं जाने का दिल नहीं कर रहा था. सोच ये रही थी कि यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड लिखने में कितना मज़ा आएगा...किले की बुर्ज पर बने कमरेनुमा वाच टॉवर को देखा तो बिलकुल पुराने जमाने के लाल-डिब्बे जैसा दिखा. कुछ देर वहीं धूप खाने के बाद ऊपर किले पर पहुंची और पोस्टकार्ड ख़रीदा...फिर खाने का इन्तेज़ार करते हुए पोस्ट कार्ड पर पता और मेसेज लिखा. फिर कार्ड को असली वाली पोस्टबोक्स में गिराया. यहाँ के स्टैम्प्स बहुत अच्छे लगते हैं मुझे.

टाउनहाल की नींवें
आज की कहानी है नीवों की...पार्ट वन में आपने यहाँ की नींव के बारे में सुना...अब बारी थी उन्हें असल में जा कर देखने की. क्लोथ हॉल म्यूजियम एक बड़ी सी इमारत है. जब मैंने सोचा कि आज म्यूजियम देखना है तो मुझे लगा कि ईमारत में जाना है...सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाते हुए देख कर भी मुझे नहीं लगा था कि म्यूजियम दरअसल ऊपर की इमारत नहीं...वाकई टाउन स्क्वायर की गिरी हुयी इमारत की नींवों में है. म्यूजियम के एंट्रेंस में एक विडीयो चल रहा था...मुझे लगा कि कोई दीवार है...जिसपर प्रोजेक्शन है...मगर तकनीक इतनी आगे बढ़ गयी है...वो असल में हवा में थ्री डी प्रोजेक्शन था...कोई दीवार नहीं थी. 


१५०० AD: मेन टावर, क्राकोव टाउनहाल
क्राकोव का टाउनहाल १२वीं शताब्दी से उसी जगह पर है. म्यूजियम में बहुत सालों पुरानी बनी नींवें थीं...थ्री डी टेक्निक और प्रोजेक्शन से हर सदी के साथ कैसे नींव की रूपरेखा बदली ये भी दिखता था. १६ वीं शताब्दी में जहाँ आज का टाउनहाल है वहाँ पर एक बहुत बड़ा बाजार हुआ करता था फिर एक भीषण आग में सब जल कर भस्म हो गया. आर्कियोलॉजिकल सर्वे में उस समय का काफी कुछ सामान मिला है. पुराने जमाने में लुहार, स्वर्णकार किस तरह काम करते थे इसे मोडेल्स और छोटी फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया है. यहाँ कई सारे स्कूल के बच्चे भी आये हुए थे जिनके साथ टीचर और गाइड भी थीं. नीवें पूरे टाउन स्क्वायर के नीचे नीचे हैं...और म्यूजियम भी इन्ही नींवों के बीच बना हुआ है...यानी कि पूरा अंडरग्राउंड है. सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब एक जगह पानी की परछाइयाँ देखीं. मुझे लगा कि फिर से कोई इन्तेरैक्तिव वीडियो है...पानी में पैर भी देखे...बहुत देर बाद जाकर अहसास हुआ कि नींव की सुरंगनुमा गलियारों में चलते हुए मैं मेन स्क्वायर के बड़े से झरने के ठीक नीचे खड़ी हूँ...और जो पानी है वो उसी फाउंटेन का है...और जो पैर नज़र आ रहे हैं वो असल में ऊपर पानी में खेलते बच्चों के हैं...किसी वीडियो फिल्म के नहीं. म्यूजियम इतना बड़ा है कि अगर लोग कम हों तो कई बार डर लग जाए कि कहीं खो न जायें.
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उस शाम से हर शाम बारिशें हो रही हैं...मैं सोचती हूँ अच्छा हुआ कि धूप में कुछ देर बैठने का मन था तो बैठ लिए...कल का दिन कैसी बारिशें लिखा के लाता है कोई नहीं जानता. इधर बारिशें होती हैं तो मैं जींस मोड़ कर...फ्लोटर्स पहन कर फोन-वोन होटल के कमरे पर छोड़ कर  निकल जाती हूँ. भीगता हुआ शहर भीगती लड़की की तरह ही खूबसूरत दिखता है. पुरानी पत्थर की बनी इमारतें...और सड़कें. बारिश में लगभग हर कोई भागता हुआ दिखता है...एक मैं ही हूँ जो इस शहर की कहानियां सुनने को भटकती रहती हूँ. रंग बिरंगे छाते तन गए हैं हर तरफ और शोर्ट्स में घूमने वाली लड़कियां जींस और जैकेट में बंध गयी हैं.

हर शहर में पहली बारिश की खुशबू एक ही होती है फिर इस शहर में क्या खास है...फुहारों में वायलिन की आवाज़ भी आती है...यहाँ की बारिश में संगीत घुला होता है. मैं यहाँ कभी हेडफोन लगा कर नहीं घूमती कि यहाँ के हर चौराहे पर कोई न कोई संगीत का टुकड़ा ठहरा होता है...कभी वायलिन, कभी गिटार तो कभी ओपेरा गाती लड़की तो कभी बांसुरी की तान छेड़ता कोई बूढा...यहाँ कितना संगीत है...और कितनी ही उदासी. यहाँ की हवाएं ऐसे ठहरती हैं जैसे गले में सिसकी अटकी हो.

पूछना बादलों से मेरा पता...
मैं बारिशों में यहाँ की दुकानें देखती हूँ...सबके लिए कुछ न कुछ लेकर जाउंगी इस शहर से...दोस्तों के लिए पोस्टकार्ड छांटती हूँ...सबसे अलग, सबसे अच्छे...सबसे रंग भरे...क्या भेज दूं यहाँ से...इस शहर से मुझे प्यार हो गया है...यहाँ से लोगों से...गलियों से...पुरानी, रंग उड़ी इमारतों से...किले के नीचे चुप  बहती विस्तुला से...ड्रेगंस...स्ट्रीट आर्टिस्ट्स...बारिश...हवा...पानी...सबसे. बहुत सी बारिशों में बैठ कर पोस्टकार्ड लिखती हूँ...किले की खिड़की से बारिश बाहर बुलाती है...मैं पोस्टकार्ड पर फूँक मार रही हूँ...इंक पेन से लिखा है...यहाँ और देश की बारिश में धुल न जाए.

कितना अच्छा लग रहा है...इतने अच्छे और खूबसूरत देश में...बारिशों को देखते हुए...बहुत से अच्छे प्यारे दोस्तों को लिखना...कि जैसे जितनी मैं यहाँ हूँ...उतनी ही भारत में भी. कि जैसे दुनिया वाकई इतनी छोटी है कि आँखों में बस जाए. कि प्यार वाकई इतना है कि पूरे आसमानों में बिखेर दो...कि तुम्हारे शहर में बारिशें हो तो समझना, मैंने दुआएँ भेजी हैं.

बस...दूर देश से आज इतना ही.

Mood Channel: Edit Piaf- Bal dans ma rue

19 June, 2012

बारिशों का मौसम इज विस्की...सॉरी...रिस्की...उफ़!


सोचो मत...सोचो मत...अपने आप को भुलावा देती हुयी लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है...नयी विस्की आई है घर में...जॉनी वाकर डबल ब्लैक...ओह...एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएँ की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुयी है...डबल ब्लैक.

तुम्हारी याद...यूँ भी कातिलाना होती है...उसपर खतरनाक मौसम...डबल ब्लैक. मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गयी थी...सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे...वनीला जलाने को सोचती हूँ...लम्हा भी नहीं गुज़रता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूँ और कपकेक्स हैं सामने, घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं...मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूँ.

ना...वाइल्ड रोज तो हरगिज़ नहीं जलाऊँगी आज...मौसम भी बारिशों का है...वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा ऑफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था...और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहाँ अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था.तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे...फिर तो तुमने जबरदस्ती मुझे भी पानी में खींच लिया था...वो तो अच्छा हुआ कि मैंने एक सेट सूखे हुए कपड़े प्लास्टिक रैप करके रखे थे वरना गीले कपड़ों में ही बाकी ट्रेकिंग करनी पड़ती. ना ना करते हुए भी याद आ रहा है...पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना...फिर मेरे दाँत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियाँ रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था...गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है...डबल ब्लैक?

कॉफी...ओह नो...मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें...हवा में बारिश की गंध थी...आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे...आधा घंटा लगा था फ़िल्टर कॉफी को रेडी होने में...मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी, कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े...बारिश का पीछा करने...हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफ़ान से गले लगने जा रहे थे हम. फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी...दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी...हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी. फिर आसमान टूट कर बरसा...हमने गाड़ी अलग पार्क की...थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गयी...सड़क किनारे नदी बहने लगी थी...कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए...और तुम...ओह मेरे तुम...एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हाथेली मेरे सर के ऊपर रखते...ओह मेरे तुम...थ्रिल...कुछ हम दोनों की फितरत में है...घुली हुयी...दोनों पागल...डबल ब्लैक?

मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूँ नहीं रख सकती...परेशान होती हूँ...फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आँखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अँधेरे की...मोबाइल पर एक इन्स्ट्रुमेन्टल संगीत का टुकड़ा है...वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूँ...कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा...सोचती हूँ धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है. शंखनाद में कैसी आर्त पुकार...घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह. संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है...अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता...एकदम सही बीट्स देता है...गिने हुए अंतराल पर.

आज तो सिगार पीने का मूड हो आया है...गहरा धुआं...काला...खुद में खींचता हुआ...हलकी लाल रौशनी में जलते बुझते होठों की परछाई पड़ती है फ्रेंच विंडोज के धुले हुए शीशे में...डबल ब्लैक. 

16 May, 2012

मुस्कुरा कर मिलो जिंदगी...

परसों एक एचआर का फोन आया एक जॉब ओपनिंग के बारे में...मैं आजकल फुल टाइम जॉब करने के मूड में थी नहीं तो अधिकतर सॉरी बोल कर फोन रख दिया करती थी. इस बार पता नहीं...शायद हिंदी का कोई शब्द था या दिल्ली के नंबर से फोन आया था या कि जिस ऑफिस में पोजीशन खाली थी वो घर के एकदम पास था...मैंने इंटरव्यू के लिए हाँ कर दी.

मेरे इंटरव्यू नोर्मली काफी लंबे चलते हैं...कमसे कम दो घंटे और कई बार तो चार घंटे तक चला है...अनगिनत बातें हो जाती हैं. मुझे खुद भी महसूस होता है इंटरव्यू देते वक्त कि मैं काफी इंटरेस्टिंग सी कैरेक्टर हूँ और मेरे जैसे लोग वाकई इंटरव्यू के लिए कम ही आते होंगे. कभी कभी होता भी है कि इंटरव्यू के लिए गयी हूँ तो लाउंज में बैठे बाकी कैंडिडेट्स को देखती हूँ और सोचती हूँ कि कैसे लोग होंगे. उनमें से अधिकतर मुझे काफी सजग और एक आवरण में ढके हुए लगते हैं...मैं इंटरव्यू में भी फ्री स्पिरिट जैसी रहती हूँ. कितना भी  कोई बोल ले...कभी फोर्मल कपड़े पहन कर नहीं गयी...वही पहन कर जाती हूँ जो मूड करता है. जैसे आज का इंटरव्यू ले लो...प्लेन वाईट कुरता पहना था फिर दिल नहीं माना तो बस...चेक शर्ट, जींस, थोड़ी हील के सैंडिल, प्लेन सा बैग और पोर्टफोलियो. हाँ दो चीज़ें मैं कभी नहीं भूलती...हाथ में घड़ी और पसंद का परफ्यूम. 

आज भी बारह बजे दोपहर का इंटरव्यू था...मैं बाइक से पहुंची...हेलमेट उतारा...बालों को उँगलियों से हल्का काम्ब किया और पोनीटेल बना ली...रिसेप्शन डेस्क पर जो लड़की थी उसने एक मिनट वेट करने को कहा...तब तक जार्ज...जिसके साथ इंटरव्यू था सामने था. जो कि नोर्मल आदत है...एक स्कैन में पसंद आया कि बंदे ने पूरे फोर्मल्स नहीं पहने थे...डार्क ब्लू जींस, ब्लैक शर्ट और स्पोर्ट्स शूज. लगा कि ठीक है...क्रिएटिव का बन्दा है, क्रिएटिव जैसा है. उसने पूछा...चाय या कॉफी...मैंने कहा...नहीं, कुछ नहीं...बहुत दिन बाद किसी ने हिंदी में पूछा था...दिल एकदम हैप्पी हो गया...फिर जब वो मेरा पोर्टफोलियो देख रहा था तो मैंने देखा कि वो वही इंक पेन यूज कर रहा है जिसपर आजकल मेरा दिल आया हुआ है...LAMI का ब्लैक कलर में. एक पहचान सी बनती लगी...और इंस्टिंक्ट ने कहा कि इसके साथ काम करने में अच्छा लगेगा...अगेन...मुझे नोर्मली लोग पसंद नहीं आते. आजकल तो बिलकुल ही महाचूजी हो गयी हूँ.

इंटरव्यू कितना अच्छा होता है अगर इस बात का प्रेशर नहीं है कि जॉब चाहिए ही चाहिए...कितना अच्छा लगता है कोई आपसे कहे...टेल मे अबाउट योरसेल्फ...और आप फुर्सत और इत्मीनान से उसे अपने बारे में बताते जाइए. कई बार तो इगो बूस्ट सा होता है जब सोचती हूँ कि हाँ...कितना सारा तो तीर मार के बैठे हुए हैं...खामखा लोड लेते हैं, हमको भी न...उदास रहना अच्छा लगता है शायद मोस्टली. (प्लीज नोट द विरोधाभास हियर). मैं एकदम मस्त मूड में चहक चहक कर बात कर रही थी. 

इंटरव्यू लेने वाले लोग दो तरह के होते हैं...पहले थकेले टाइप...जो आपसे इतने गिल्ट के साथ बात करेंगे जैसे वो उस जगह काम नहीं करते किसी पिछले जन्म के पाप का फल भुगत रहे हैं और आप भी उस कंपनी में आयेंगे तो उनपर अहसान करेंगे टाइप...वे बेचारे दुखी आत्मा होते हैं, अपने काम से परेशान. मुझे ऐसे लोग एक नज़र में पसंद नहीं आते...अगर आप खुद खुश नहीं हो जॉब में तो नज़र आ जाता है...मेरे जैसे किसी को तो एकदम एक बार में. दूसरी तरह के वो लोग होते हैं जिन्हें अपने काम से प्यार होता है...जब वो आपको कंपनी के बारे में बता रहे होते हैं तो गर्व मिश्रित खुशी से बताते हैं...ये खुशी उनसे फूट फूट पड़ती है...ऐसे लोगों से बात करना भी बेहद अच्छा लगता है...उनके चेहरे पर चमक होती है और सबसे बढ़कर आँखों में चमक होती है. ऐसे लोगों के साथ किसी का भी काम करने का मन करता है और इंटरव्यू का रिजल्ट जो भी आये...मैं वहां ज्वाइन करूँ या न करूं पर इंटरव्यू में मज़ा आ जाता है. आज के इंटरव्यू में ये दूसरे टाइप का बन्दा बहुत दिन बाद देखने को मिला था...एकदम दिल खुश हो गया टाइप. 

मुझे एक और चीज़ भा गयी...मेरा नाम अधिकतर लोग Pooja लिख देते हैं...नाम के स्पेलिंग को लेकर बहुत टची हूँ...सेंटी हो जाती हूँ. मेरे ख्याल से ये दूसरी या तीसरी बार होगा लाइफ में कि किसी ने खुद से मेरे नाम की स्पेलिंग सही लिखी हो. मुझे नहीं मालूम कि फाइनली मैं वहां जॉब करूंगी कि नहीं...पर आज का इंटरव्यू लाइफ के कुछ बेस्ट इंटरव्यू में से एक रहेगा. 

कुछ दो ढाई बजे वापस आई तो कुणाल का फोन आया उसके इनकम टैक्स के पेपर की जरूरत थी ऑफिस में. मौसम एकदम कातिलाना हो रखा था...ड्राइव करते हुए मस्त गाने सुने और उसके ऑफिस पहुंची. वहां बगल में फोरम मॉल है जहाँ उसे कुछ काम था. हम वहां गए ही थे कि भयानक तेज बारिश शुरू हो गयी...आसमान जैसे टूट कर बरस रहा था. काफी देर सब वेट किये उधर फिर ऑफिस में डिले हो रहा था तो बारिश में भी भीगते भागते सब लोग गए. मैं उस झमाझम बरसती बारिश में एक प्यारे दोस्त से बात कर रही थी...हवा बारिश से भीगी हुयी थी...मॉल में मेरी पसंद के गाने बज रहे थे...इंटरव्यू अच्छा गया था. ओफ्फ क्या मस्त माहौल था. 

आज कुणाल ने ऑफिस थोड़ा बंक किया कि आठ साढ़े आठ टाइप छुट्टी...फिर घर पहुंचे. इधर एक App बनाने के मूड में हैं हम लोग तो उसी का रिसर्च चल रहा है. अभी तीन बजे तक साकिब के साथ डिस्कस किये हैं...अब सोने का टाइम आया...पर जैसा कि होता है, जाग गए हैं तो नींद नदारद. सोचा कुछ लिख लूं...अच्छे मूड में लिखने का कम ही मन करता है. बस ऐसे ही...यहाँ सकेरने का मन किया. इतनी अनप्रेडिक्टेबल लाइफ में कभी पुराने पन्ने पलटा कर देखूं तो यकीन हो तो सही कि खिलखिला के हँसने वाले दिन भी होते हैं. भोर होने को आई...अब हम सोने को जाते हैं. आप मेरी पसंद का गाना सुनिए जो मॉल में बज रहा था...बीटल्स का है. मेरा फेवरिट बैंड है. 

ग्लास फ्लूट के इन्स्ट्रुमेन्टल में ये गीत...ओह...जानलेवा था...कुछ गीतों पर ऐसे ही यादें स्टैम्प हो जाती हैं...मैं इस गीत को अब कभी भी सुनूंगी..उधर फोरम मॉल की रेलिंग से नज़र आती बारिश, एक दिलफरेब आवाज़ और अनंत खुशियों को महसूस करूंगी.

Sometimes...really...all you need is a tight hug... the wonderful thing about life and friendship and love is...sometimes...a friend sitting in some forlorn corner of the world says those simple words...and you really feel like you have been hugged...tightly. Imagine...underestimating the power of words! It simply is about the intensity behind those words...when you say those words as you feel them...even if you are kilometers apart...a friend's embrace melts all your sadness away. Words heal. Words hug. Words hold your hand.

Thank you...so much...I am glad I have you in my life. I love you.

PS: It just started raining again...my friends in Delhi...I am thinking of you...and for those in the parched corner of the country...for you too. Hugs.

09 May, 2012

बह जाने को कितना पानी...जल जाने को कितनी आग?


एक लेखक की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उसके लिखे हर शब्द को उसके जीवन का आइना मान लिया जाता है...उसके ऊपर सच को चित्रित करने की इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल दी जाती है कि बिना भोगा हुआ सच वो लिखने में कतराता है...इसी बात पर एक लेखक की ही डायरी से कुछ फटे चिटे पन्ने कि कभी तमीज से इन्हें कहीं लिखने की दरकार नहीं रही.
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कल मेरे शहर में बहुत तेज बारिश हुयी...आसमान जैसे फट पड़ा था...बात मगर इसके पहले की है कि एक लेखिका कुछ सब्जियां खरीदने थोड़ी दूर के बाजार गयी थी...गौरतलब है कि मेरे अंदर एक औरत और एक लड़की भी रहती है मगर उसे शायद दुनिया कभी बाहर ही नहीं आने देती...तो ये लेखिका हर चीज़ में कहानियां ढूंढती है...तो कल भी मैं जो थी...बाज़ार गयी थी और सब्जियों के अलावा मुझे एक ड्रिल मशीन खरीदनी थी...पता चला कि ड्रिल मशीन ८०० रुपये की आती है और अगर जरूरत पड़े तो एक दिन के लिए ५० रुपये में रेंट की जा सकती है. मुझे उधारी चीज़ें अधिकतर पसंद नहीं आतीं...और एक ड्रिल का थोड़ा सम्मोहन भी है तो सोचा खरीद लेती हूँ. दूकान के पीछे जा कर एक संकरी सी गली थी जिससे ऊपर के तल्ले में जाने को सीढ़ियाँ बनी थीं. मैं कभी कोठे पर नहीं गयी पर जितना फिल्मों और किताबों में पढ़ा है वैसा ही डरावना सा माहौल था...नीम अँधेरा और एक आधा नाईट बल्ब जल रहा था...एक लंबा सा गलियारा था जिसके एक तरफ सीढ़ियाँ थीं और एक तरफ कुछ कमरे जिसमें एक धुंधला सा पर्दा पड़ा हुआ था और परदों के पार कुछ औरतें दिख रही थीं. वो कोई शेडी सा पार्लरनुमा एरिया था...वहां खड़े होकर मैं ये सोच रही थी कि ये ऐसी जगह है कि किसी भी दोस्त को इसका डिस्क्रिप्शन दूं कि मैं ऐसी जगह गयी थी तो पहला सवाल होगा कि तुम वहाँ कर क्या रही थी...उस गली के दोनों तरफ कुछ बंद दुकानें थीं और कुछ साइबर कैफे जिसके बाहर स्टूल पर इंतज़ार करके लड़कों के चेहरे ऐसे थे जैसे मेरे तीस के ऊपर भाइयों के हैं जिनको नौकरी अभी तक नहीं मिली है...मुझे अंदाज़ा था कि ऐसे गर्द-गुबार भरे कैफे में वो क्या कर रहे होंगे...मुझे ये भी पता चल रहा था कि वहां कैसी सीडियां रेंट पर मिलती होंगी. मेरा कौतुहल इतना बढ़ रहा था कि मन कर रहा था धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ जाऊं...मगर दिन के चार बजे उन सीढ़ियों पर इतना अँधेरा था कि टटोल कर ऊपर चढ़ना पड़ता.

छोटे शहरों में लड़कियों के अंदर एक डर कूट कूट कर बचपन से ही भरा जाता है...अँधेरे कोनों का डर...अँधेरे कोनों से निकलते उन  हाथों का डर जो जिस्म को भंभोड़ते हैं और निशान और सवाल आत्मा पर बनाते हैं कि ऐसा मेरे साथ क्यूँ हुआ...मैं ऐसा डिजर्व करती थी...मैंने कैसे कपड़े पहने थे...मैं वहाँ क्या कर रही थी और ये सवाल उन गंदे हाथों के निशान उतर जाने के बाद भी नहीं धुलते. हालाँकि हर लड़की इन गलीज़ हाथों से रूबरू होती है मगर हर लड़की इन हाथों से बचती हुयी चलती है. उसे मालूम होता है कि ये हाथ सिर्फ अँधेरे कोनों में नहीं दबोचते बल्कि रौशनी वाले मेट्रो में...पटना की बेहद भीड़ वाले सब्जीबाजार में...रेलवे प्लेटफोर्म पर...दिन की रौशनी और भीड़ वाली जगह पर ये हाथ ज्यादा नज़र आते हैं. लड़की ये भी सीखती है कि हमेशा आलपिन लेकर चला करो और ऐसे किसी व्यक्ति को चुभा दो...लड़की ये भी चाहती है कि ऐसे हर हाथ वाले शख्स की वैसी जगह चोट करे जहाँ वो बर्दाश्त न कर पाए...जी...हर लड़की जानती है कि मर्द के शरीर में ऐसी  ही कमज़ोर जगह होती है जैसे कि औरत का मन.

मैं जानने लगी हूँ थोड़ी थोड़ी कि मेरी ये छटपटाहट क्यूँ है...शायद ऐसी ही कोई नाकाबिले बर्दाश्त छटपटाहट रही होगी कि दुनिया भर की औरतों ने लिखने के लिए मर्दों के नाम इख़्तियार किये...मेरा भी कभी कभार मन होता है कि मैं कोई और नाम रख लूं कि वो सारे फ़साने जो मुझे लिखने हैं मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती कि उन कहानियों में मेरे न चाहते हुए भी मेरी आँखें उभर आएँगी कि मेरे नाम का एक चेहरा है जबकि कहानियों के किरदारों का कोई रंग नहीं होता...उनकी कोई मर्यादाएं नहीं होती, जिम्मेदारी नहीं होती...दुनिया नहीं होती...उनका यथार्थ वक्त के इतने छोटे से हिस्से पर नुमाया होता है कि वो पूरी शिद्दत के साथ वो हो सकते हैं जो होना चाहते हैं. एक किरदार से जिंदगी अपना हिस्सा नहीं मांगती. हालाँकि मैं दुनिया को औरत और मर्द के खाँचों में बांटना सही नहीं समझती और फेमिनिस्म के बारे में अनगिनत बातें पढ़ते हुए भी मुझे चीज़ें नहीं समझ आतीं...मेरे लिए इतना काफी होता है कि मुझे वो सारी आज़ादियाँ मिलें जो मेरे भाई को या मेरे पति को या मेरे दोस्तों को मिली हुयी हैं. हर वक्त कपड़े पहनने के पहले ये न सोचना पड़े कि इसमें अगर मेरे साथ कोई हादसा हो गया तो कोई मुझे जिम्मेवार ठहराएगा...ऐसा ही कुछ लेखन के बारे में भी है.

मैं अधिकतर गालियाँ नहीं देती पर मैं चाहती हूँ कि मैं अगर किसी को गाली दे रही हूँ तो बिना बताये ये समझा जाए कि उस गाली के बिना मेरी मनःस्थिति बयान नहीं हो सकती. मैं गलियों को भी उनके लिंग़ के हिसाब से देती हूँ...जब कि मुझे दुनिया के मर्दों से कोफ़्त होती है तो मैं ऐसी गाली नहीं देना चाहती जो कि उनकी बहन या माँ की ओर लक्षित हो...मैं वाकई उन गालियों को पसंद करती हूँ जिनमें ये बोध आता है कि वो स्त्रियोचित हैं...कि उनमें वही सारी कमियां हैं जिनके दम पर वो अपने मर्दाने अहं का दंभ भरते हैं...मुझे लगता है बाकी सारी गालियों से परे किसी मर्द को सबसे अधिक तिलमिलाहट तब होती है जब कोई औरत उन्हें 'नपुंसक' या 'नामर्द' जैसी कोई गाली दे दे. ये उनके पूरे वजूद को ही कटघरे में खड़ा कर देता है...कि औरत के लिए दुनिया बहुत सी चीज़ों से बनी होती है...लेकिन मर्द सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ से बनता है...फिजिकल/सेक्सुअल ग्रैटिफिकेशन.

मुझे उन औरतों की कहानियां लिखने का मन करता है जिनसे मुझे साहिब बीबी गुलाम की छोटी बहू याद आती है. कितने भी बड़े लेखक को पढ़ लेती हूँ ऐसा लगता है कि ये औरत की सिर्फ बाहरी किनारों को छू पाए हैं...मान लो उसका मन थोड़ा बहुत टटोल कर समझ लें मगर उसके अंदर जो एक बेबाक सी आग भरी है उसकी आंच में हाथ जलाने से सभी डरते हैं. औरत जब अपने मन पर आती है तो दावानल हो जाती है...फिर हरे पेड़ और सूखी लकड़ी में अंतर नहीं करती. मैं हर सुबह उठती हूँ तो प्यार को कोई च से शुरू होने वाली गाली देती हूँ और इस बात पर पूरा यकीन रहता है कि दुनिया में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं है.

इंसान की सभ्यता का सारा इतिहास मात्र एक छलावा है...झूठ और आडम्बर का एक रेशमी ककून है...जबकि सच ये है कि इस ककून के अंदर के कीड़े की नियति मर जाना ही है. आज भी आदिम भाव वही हैं...हाँ उसके ऊपर झूठ का मुलम्मा इतने दिनों से जिया जा रहा है कि  उसी को सच मान लिया जाता है. प्रेम तो बहुत दूर की बात है...राह चलते...आते जाते...आखिर हर लड़की को ऐसा आज भी क्यूँ लगता है कि सामने का मर्द नज़रों से उसके कपड़े उतार रहा है...और मौका मिलते किसी अँधेरी गली में वो सारा कांड कर डालेगा जिसमें इस बात का कोई रोल न होगा कि लड़की ने कैसे कपड़े पहने थे, उसकी उम्र क्या थी, चेहरे के कटाव कैसे थे...अंत में वह सिर्फ और सिर्फ एक देह है...एक नारी देह.
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फिल्म में छोटी बहू कहती है...मेरी बाकी औरतों से तुलना मत करो...मैंने वो किया है जो किसी और ने नहीं किया...कल तेज बरसती बरसात में भीगते हुए मैं आइसक्रीम खा रही थी...बारिश इतनी तेज थी कि चेहरे पर थपेड़े से महसूस हो रहे थे...सर से पैर तक भीगी हुयी...एक हाथ में फ्लोटर्स...एक हाथ में आइसक्रीम...और मन में अनगिनत ख्यालों का शोर...नगाडों की तरह धम-धम कूटता हुआ. सड़क पर किसी ने कहा 'नाईस'...आवाज़ में तिक्त ताने मारने का भाव नहीं सराहने का भाव था...मैंने चश्मा नहीं पहना था तो मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा...मैं थोड़ा आगे बढ़ भी चुकी थी...मैंने आइसक्रीम लिए हाथ को ऊपर उठाया जैसे शैम्पेन के ग्लास को उठाते हैं और कहा 'चीयर्स'. उसी रास्ते वापस लौट रही थी तो देखा उसकी गोद  में एक बच्चा था...मुझे जाने कैसे लगा कि बेटी है...वह उसे हाथ हिला कर मुझे बाय कहने को कह रहा था...मैंने बाय किया भी...इस सबके बीच बहुत तेज बारिशें थी और बिना चश्मे के मुझे कुछ दिख नहीं रहा था. मैं सोच रही थी...कि वो सोच रहा होगा कि मेरी बेटी भी ऐसी ही होती...उसके एक आध और बातों में मैंने वो चाहना पकड़ ली थी...मैं उसे कहना चाहती थी...ऐसी लड़की को दूर से ही ऐडमायर करना आसान है...ऐसी लड़की का पिता बनना...बहुत बहुत मुश्किल.

आज़ाद होना वो नहीं होता कि जो मन किये कर रही है लड़की...वैसे में हर मर्द में एक तुष्टि का भाव होता है कि मैंने इसे आज़ादी दी हुयी है...मैंने उसे खुला छोड़ा है...ऐसे में लड़की में भी एक अहसान का भाव होता है समाज के प्रति, पिता के प्रति, प्रेमी के प्रति, पति के प्रति, दोस्त के प्रति...हर उस मर्द के प्रति जिसने उसे आज़ादी दी है...बात तब खतरनाक हो जाती है जब लड़की मन से आज़ाद हो जाती है, स्वछन्द...जब उसे अपने किसी किये पर पश्चाताप नहीं होता कि उसने वही किया जो उसकी इच्छा थी. ऐसी खुली लड़की से फिर सब डरते हैं...उसमें इतनी कूवत होती है कि सिर्फ अपने सवालों भर से समाज की चूलें हिला दे. कल मैं वो लड़की थी.


ऐसी लड़की बारूद के ढेर पर बैठी नहीं होती...ऐसी लड़की खुद बारूद होती है. उससे बच कर चलना चाहिए. 
समझ रहे हो आप?

06 May, 2012

एइ मेघला, दिने ऐकला, घोरे थाके ना तो मोन

सुनो, जान...उदास न हो...कुछ भी ठहरता नहीं है...है न? कुछ दिन की बात है...मुझे मालूम है तुम्हें किसी और से प्यार हो जाएगा...कुछ दिन की तकलीफ है...अरे जाने दो न...लॉन्ग डिस्टंस निभाने वाले हम दोनों में से कोई नहीं हैं...तब तक कुछ अच्छी फिल्में देखो मैं भी जाती हूँ कुछ मनपसंद हीरो लोग की फिल्म देखूंगी...आई विल बी फाइन और सुनो...तुम भी अच्छे से रहना.

देखो ये गाना सुनो...मुझे बिस्वजीत बहुत अच्छा लगता था...देखो न इस गाने में वो मिट्टी का कुल्हड़ देखे...वैसे चाय तो तुम्हें भी पसंद नहीं है...मुझे भी नहीं...और कुल्हड़ में कॉफी सोच कर कुछ खास मज़ा नहीं आता...चलो ग्रीन टी ही सोच लो..ना...होपलेस...हाँ इलायची वाली कॉफी...शायद वो अच्छी लगे. पर देखो न मौसम कितना अच्छा है...ठंढी हवाएं चल रही हैं अभी थोड़ी देर में बारिश होने लगेगी...और देखो न बिस्वजीत कितना अच्छा लग रहा है...डार्क कलर की शर्ट है...क्या लगता है? काली है कि नेवी ब्लू? देखो न माथे पर वो बदमाश सी लट...जब वो अपने बाल पीछे करता है मैं अनायास तुम्हारे बारे में सोचने लगती हूँ...तुम किसी दिन किसी और शहर में किसी नयी बालकनी में बारिश का इन्तेज़र करते हुए...अचानक मुझे याद करते हुए ऐसे ही लगोगे न? या शायद उससे ज्यादा खूबसूरत लगोगे...खूबसूरत...हद है ऊपर वाले की बेईमानी...लड़के के ऊपर इतना टाइम बर्बाद किया...तुम इतने अच्छे न भी दिखते तो भी तो मुझे इतने ही अच्छे लगते न रे.

पता नहीं कहाँ हो आज...क्या कर रहे हो...सुबह से रबिन्द्र संगीत सुन रही हूँ...तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...रबिन्द्र संगीत सुनने से बचपन की यादें भी अपनी जगह मांगती है तो तुम्हारी याद थोड़ी कम तकलीफदेह हो जाती है. इसी चक्कर में ये विडियो दिखा यूट्यूब में...देखो न...सिंपल से साईकिल शॉप में है पर कितना अच्छा लग रहा है सब कुछ...तुम थे न लाइफ में तो ऐसे ही सब अच्छा लगता था...झूला याद है तुम्हें? घर की छत पर एक तरफ गुलमोहर और एक तरफ मालती के अनगिन फूल खिले थे...कितना सुन्दर लगता था न छत? पर सुनो...मेरे बेस्ट फ्रेंड तो रहोगे न? कि प्यार वगैरह तो फिर से किसी से हो जाएगा आई एम स्योर पर दोस्ती इतनी आसानी से तो नहीं होती है. तुम्हारे इतना अच्छा मुझे कोई नहीं लगता...मुझे इतनी अच्छी तरह से समझता भी तो कोई नहीं है.

तुम उदास एकदम अच्छे नहीं लगते...फॉर दैट मैटर...उदास तो मैं भी अच्छी नहीं लगती...तो एक काम करते हैं न...उदास होना किसी और जन्म के लिए मुल्तवी करते हैं...ओके? उस जन्म में एक दूसरे से शादी कर लेंगे और भर जिंदगी एक दूसरे को तबाह किये रहेंगे...खूब रुलायेंगे...मारा पीटी करेंगे...कैसा प्लान है? जाने दो न...मौसम उदास हो जाएगा मेरे शहर से तुम्हारे शहर तक. दो शहर एक साथ रोने लगें तो उन्हें चुप करने को दिल्ली के वो सारे खँडहर उठ कर चले आयेंगे जहाँ हमने साथ रबिन्द्र संगीत सुनते हुए कितने दिन बिताए हैं. एक काम करती हूँ न...प्लेस्लिस्ट बना के भेज देती हूँ तुम्हारे लिए...वही गाने सुनना...वरना गानों में तुम्हारा टेस्ट तो एकदम ही खराब है...और प्लीज अपनी वो दर्दीली गजलें मत सुनना...उन्हें सुनकर अच्छे खासे मूड का मूड खराब हो जाता है.

बहुत याद आ रही थी तुम्हारी...पर तुम्हें कहाँ चिट्ठी लिखूं तो मन भटका रही थी सुबह से गाने वाने सुन के...अब तकलीफ थोड़ी कम है...ये वाला गाना रिपीट पर चल भी रहा है...तुम भी सुनो...अच्छा लगे तो अच्छा...वरना तुम्हारे समर ऑफ सिक्सटी नाइन से भी दर्द कम होता है...बशर्ते उसकी बीट्स पर खूब सारा डांस कर लो. मेरी जान...ओ मेरी जान...तुम्हारे शहर का मौसम कैसा है? मेरी याद जैसा खूबसूरत क्या?

02 January, 2012

मन के बाहर बारिश का शोर था...


मन के बाहर बारिश का शोर था...
बहुत सा अँधेरा था
कोहरे की तरह और कोहरे के साथ
गिरती हुयी ठंढ थी
रात का सन्नाटा था
घड़ी की टिक टिक थी 

खुले हुए बालों में अटकी
लैपटॉप से आती रोशनी
के कुछ कतरे थे

आँखों में उड़ी हुयी नींद के
कुछ उलाहने थे 
तुम्हारे दूर चले जाने के
कुछ  डरावने ख्याल थे 
तुम भूल जाओगे एक दिन 
ऐसी भोली घबराहट थी 

मन के अन्दर बस एक सवाल था
कैसा होगा तुम्हें छूना
उँगलियों की कोरों से
अहिस्ता, 
कि तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े 

गले में प्यास की तरह अटके थे
सिर्फ तीन शब्द
I love you
I love you
I love you

09 December, 2011

मौन की भाषा में 'आई लव यू' कहना...

कैसा होता होगा तुम्हें मौन की भाषा में 'आई लव यू' कहना...जब कि बहुत तेज़ बारिश हो रही हो और हम किसी जंगल के पास वाले कैफे में बैठे हों...बहुत सी बातें हो हमारे दरमियाँ जिसमें ये भी बात शामिल हो कि जनवरी की सर्द सुबहों में ये आसमान तक के ऊंचे पेड़ बर्फ से ढक जाते हैं.

एक सुबह चलना शुरू करते हुए जंगल ख़त्म न हो पर दिन अपनी गठरी उठा कर वापस जाता रहे...उस वक़्त कहीं दूर रौशनी दिखे और हम वहां जा के शाम गुजारने के बारे में सोचें. किसी ठंढे और शुष्क देश में ऐसा जंगल हो जिसमें आवाजें रास्ता भूल जाया करें. कैफे में गर्म भाप उठाती गर्म चोकोलेट मिलती है...कैफे का मालिक एक मझोले से कद का मुस्कुराती आँखों वाला बूढ़ा है...वो मुझसे पूछता है कि क्या मैं चोकलेट में व्हिस्की भी पसंद करुँगी...मेरे हाँ में सर हिलाने पर वो तुम्हारा ड्रिंक पूछता है...तुम उसे क्या लाने को कहते हो मुझे याद नहीं आता. शायद तुम हर बार की तरह इस बार भी किसी अजनबी से कहते हो कि अपनी पसंदीदा शराब लाये. लोग जिस चीज़ को खुद पसंद करते हैं, उसे सर्व करते हुए उसमें उनकी पसंद का स्वाद भी 'घुल जाता है.

उस अनजान देश में...जहाँ मैं तुम्हारे अलावा किसी को नहीं जानती...जहाँ शायद कोई भी किसी को नहीं जानता, वो बूढ़ा हमें बेहद आत्मीय लगता है. बाहर बेतरह बारिशें गिरने लगी हैं और ऐसा लगता है कि आज रात यहाँ से कोई और राह नहीं जन्मेगी. बारिश का शोर हर आवाज़ को डुबो देता है और मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं सामने कुर्सी पर नहीं, तुम्हारे पास बैठी हूँ, तुम्हारी बाहों के घेरे में...जहाँ तुम्हारी धड़कनों के अलावा कोई भी आवाज़ नहीं है और वक़्त की इकाई तुम्हारी आती जाती सांसें हैं.

जब कोई आवाजें नहीं होती हैं तो मन दूसरी इन्द्रियों की ओर भटकता है और कुछ खुशबुयें जेहन में तैरने लगती हैं...तुम्हारी खुशबू से एक बहुत पुराना वक़्त याद आता है...बेहद गर्म लू चलने के मौसम होते थे...जून के महीने में अपने कमरे सोयी रहूँ और पहली बारिश की खुशबू से नींद खुले...तुम्हारे इर्द गिर्द वैसा ही महसूस होता है जैसे अब रोपनी होने वाली है और धान के खेत पानी से पट गए हैं. गहरी सांस लेती हूँ अपने मन को संयत करने के लिए जिसमें तुम्हारा प्यार दबे पाँव उगने लगा है.

मुझे आज शाम ही मालूम पड़ा है कि नीला रंग तुम्हें भी बेहद पसंद है...मैं अनजाने अपने दुपट्टे के छोर को उँगलियों में बाँधने लगी हूँ पर मन कहीं बंधता नहीं...सवाल पूछता है कि आज नीले रंग के सूट में तुमसे मिलने क्यूँ आई...मन का मिलना भी कुछ होता है क्या. सोचने लगती हूँ कि मैं तुम्हें अच्छी लग रही होउंगी क्या...वैसे ही जैसे तुम मुझे अच्छे लगने लगे थे, जब पहली बार तुम्हें जाना था तब से. आई तो थी यहाँ लेखक से मिलने, ये कब सोचा था कि उस शख्स से प्यार भी हो सकता है. सोचा ये भी तो कहाँ था कि तुम फ़िल्मी परदे के किसी राजकुमार से दिखोगे...या कि तुम्हारी आँखें मेरी आँखों से यूँ उलझने लगेंगी.

मैं अब भी ठुड्डी पर हाथ टिका तुमसे बातें कर रही हूँ बस मन का पैरलल ट्रैक थोड़ा परेशान कर रहा है. तुमसे पूछती हूँ कि तुम्हें उँगलियों की भाषा आती है क्या...और सुकून होता है कि नहीं आती...तो फिर मैं तुम्हारे पास बैठती हूँ और तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेती हूँ...हथेली के पीछे वाले हिस्से पर उँगलियों से लिखती हूँ 'I' और पूछती हूँ कि ये पढ़ पाए...तुम न में सर हिलाते हो...फिर मैं बहुत सोच कर आगे के चार अक्षर लिखती हूँ L-O-V-E...तुम्हें गुदगुदी लगती है और तुम हाथ छुड़ा कर हंसने लगते हो. मुझे लगता है कि जैसे मैं घर में बच्चों को लूडो खेलने के नियम सिखा रही हूँ, जानते हुए कि वो अपने नियम बना के खेलेंगे...आखिरी शब्द है...और सबसे जरूरी भी...तीन अक्षर...Y-O-U. तुम्हारे फिर इनकार में सर हिलाने के बावजूद मुझे डर लग जाता है कि तुम समझ गए हो.










तुमसे वो पहली और आखिरी बार मिलना था...वैसे हसीन इत्तिफाक फिर कभी जिंदगी में होंगे या नहीं मालूम नहीं...मैं अपनी रूह के दरवाजे बंद करती हूँ कि तुम्हारी इस एक मुलाकात के उजाले में जिंदगी की उदास और याद की तनहा शामें काटनी हैं मुझे. यकीन की मिटटी पर तुम्हारे हाथ के रोपे गुलाब में फूल आये हैं...इस खुशबू से मेरी जिंदगी खुशनुमा है कि मैंने तुमसे कह दिया है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ. 

26 November, 2011

लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां

चलो, कमसे कम मौसम तो अच्छा हुआ. अच्छा भी क्या ख़ाक हुआ, मूड का पागल हिसाब है. आज देर रात से बहुत बारिश हो रही है और हवाएं तो ऐसे चल रही हैं की जैसे घने जंगलों में रह रही हूँ कहीं. बारिश अच्छी लग रही है, बेहद अच्छी. जैसे बचपन की सखी हो, राजदार, सरमायेदार.

पिछले कुछ दिनों से मौसम अजीब सा हो रखा था, न धूप निकलती थी, न बारिश होती थी...बस जैसे इंतज़ार में रखा हो मौसम ने भी. स्टैंडबाय मोड पर...कि पहले मैं अपना मूड सेट करूँ...उसके हिसाब से मौसम आयेंगे. जैसे जैसे चेहरे पर मुस्कान आती गयी, मौसम भी दरियादिल होते गया...पहले तो मेरी सबसे पसंदीदा, फुहारों वाली बारिश...कि जैसे कह रहा हो, कहाँ थी मेरी जान, मैंने भी तुम्हारी मुस्कराहट को बड़ा मिस किया...और मैं शैतान मौसम से ठिठोली कर रही हूँ, झगड़ा कर रही हूँ कि तुम्हें कौन सी मेरी पड़ी थी, तुम तो खाली अपना सोचते हो, तुमको हमसे क्या मतलब...और ये मस्का भी पक्का कोई कारण से लगा रहे हो, सच्ची सच्ची बताओ क्या काम है मुझसे, कहाँ सिफारिश लगवा रहे हो मुझसे.

फ़िल्मी होना कोई हमसे सीखे, या फिर बंगलौर के मौसम से. तो जब मौसम ने देख लिया की हलकी बारिश से मेरा मूड ख़राब नहीं हो रहा, तब फुल फॉर्म में आ गया...और क्या जोरदार बारिश हुयी कि सब धुल गया. जैसे कंठ से पहला स्वर फूटा हो, शब्द पकड़ने लगी फिर से. हवाओं में श्लोक गूंजने लगे, अगरबत्ती में श्रुतियां महकने लगीं...कुछ आदिम गीत के बोल आँख की कोर में बस गए. तुम्हारे नाम का पैरेलल ट्रैक थोड़ा लाइन पर आया तो दुर्घटना की सम्भावना घटी. कोहरे वाले मौसम में तुम्हारे हाथ याद आये.

छप छप करती बारिश में लौट रही हूँ तो कुछ शब्द गीले बालों से टपक रहे हैं...कुछ शब्द गा रही हूँ तो हवाएं लिए भाग रही है...अंजुली बांधती हूँ तो तुम्हारा नाम खुलता है उसमें...कैसी तो लकीरें मिलती जा रही हैं तुम्हारी हथेली से...सब बारिश का किया धरा है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं. कल को जो चाह कर भी मेरी जिंदगी से दूर जाना चाहोगे न तो बारिश जाने नहीं देगी, देख लेना. कुछ चीज़ें अभी भी तुमसे जिद करके बातें मनवाना जानती हैं. तुमने जाने कब आखिरी बार बारिश देखी थी...तुम्हें याद है?

चलो मेरे शहर का मौसम जाने दो...दिल्ली में कोहरा पड़ने लगा न...एक काम करो, थोड़ा सा लिफाफे में भर कर मुझे कूरियर कर दो...न ना, साधारण डाक से मत भेजना, आते आते सारा कोहरा बह जाएगा लिफ़ाफ़े से...और फिर लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां भी सील जायेंगी. सबसे फास्ट वाले कूरियर वाले को पकड़ना...मैं वो थोड़ा सा कोहरा अपनी आँखों में भर लूंगी...फिर शायद मुद्दतों बाद मुझे सपनों वाली नींद आएगी...नींद में सफ़ेद बादलों का देश भी होगा...और एक डाकिया होगा जो तुम तक मेरी बारिशें पहुंचाता है.

सुबह के इस पहर सब खामोश है, शहर अभी सोया हुआ है...सब के जागने में अभी थोड़ा वक़्त बाकी है. कहते हैं इस पहर में हर दर्द शांत हो जाता है...सभी को नींद आ जाती है. फिर बताओ भला, मैं क्यूँ दुनिया से अलग जागी हुयी हूँ? मुझे कोई दर्द नहीं है इसलिए? रात सोयी नहीं और अब इतनी देर हो गयी है तो सोच रही हूँ, सूरज का स्वागत कर ही लूं...कितना तो वक़्त हुआ उसे आते नहीं देखा...हमेशा जाते देखती हूँ. तुम्हारी तरह...तुम कब चले आये जिंदगी में पता ही नहीं चला.






भोर की पहली आवाजों के साथ जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल ज़ेहन में तैर जाती है...एक पंक्ति चमकती है...जैसे छठ पर्व में सूरज की पहली किरण उतरी हो और उसे अर्घ्य दे रही हूँ. 

'तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...'

02 November, 2011

बारिशों से, बारिशों में लिखे खत

इकतरफा प्यार भी इकतरफे खतों की तरह होता है...किसी लेखक की बेहद खूबसूरत कवितायें पढ़ कर हो जाने वाले मासूम प्यार जैसा. किसी नाज़ुक लड़की के नर्म हाथों से लिखे मुलायम, खुशबूदार ख़त जब किसी लेखक तक पहुँचते हैं तो उसे कैसा लगता होगा? घुमावदार लेखनी में क्या लड़की के चेहरे का कटीलापन नज़र आता है? क्या सियाही के रंग से पता चलता है की उसकी आँखें कैसी है? काली, नीली या हरी.

हाथ के लिखे खतों में जिंदगी होती है...लड़की को मालूम भी नहीं होता की कब उसके दुपट्टे का एक धागा साथ चला गया है ख़त के तो कभी पुलाव बनाते हुए इलायची की खुशबू. लेखक सोचता की लड़की कभी अपना पता तो लिखती की जवाब देता उसे...कि कैसे उसके ख़त रातों की रौशनी बन जाते हैं. पर लड़की बड़ी शर्मीली थी, दुनिया का लिहाज करती थी...घर की इज्ज़त का ध्यान रखती थी...और आप तो जानते ही हैं कि जिन लड़कियों के ख़त आते है उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. 

तो हम बात कर रहे थे इकतरफी मुहब्बत की...या कि इकतरफी चिट्ठियों की भी. ऐसी चिट्ठी लिखना खुदा के साथ बात करने जैसा होता है...वो कभी सीधा जवाब नहीं देता. आप बस इसी में खुश हो जाते हैं कि आपकी चिट्ठियां उस तक पहुँच रही हैं...कभी जो आपको पक्का पता चल जाए कि खुदा आपके ख़त यानि कि दुआएं सच में खोल के पढ़ता है तो आप इतने परेशान हो जायेंगे कि अगली दुआ मांगने के पहले सोचेंगे. गोया कि जैसे आपने पिछली शाम बस इतना माँगा था कि वो गहरी काली आँखों वाली लड़की एक बार बस आँख उठा कर आपकी सलामी का जवाब दे दे. आप जानते कि दुआ कबूल होने वाली है तो खुदा से ये न पूछ लेते कि लड़की से आगे बात कैसे की जाए...भरी बारिश...टपकती दुकान की छत के नीचे अचकचाए खड़ा तो नहीं रहना पड़ता...और लड़की भी बिना छतरी के भीगते घर को न निकलती. न ये क़यामत होती न आपको उससे प्यार होता. आप तो बस एक बार नज़र उठा कर 'वालेकुम अस्सलाम' से ही खुश थे. 

यूँ कि बारिशों में किसी ख़ास का नाम न घुला तो तब भी तो बारिशें खूबसूरत होती हैं...अबकी बारिश में यादें यूँ घुल गयीं कि हर शख्स उसके रंग में रंग नज़र आता है. जिधर नज़र फेरें कहीं उसकी आँखें, कहीं भीगी जुल्फें तो कहीं उसी भीगी मेहंदी दुपट्टे का रंग नज़र आता है. हाय मुहब्बत भी क्या क्या खेल किया करती है आशिकों से! घर पर बिरयानी बन रही है और मन जोगी हो चला है, लेखक अब शायर हो ही जाए शायद, यूँ भी उसके चाहने वाले कब से मिन्नत कर रहे हैं उर्दू की चाशनी जुबान में लिखने को. कब सुनी है लेखक ने उनकी बात भला कितने को किस्से लिए चलता है अपने संग, हसीं ठहाके, दर्द, तन्हाई, मुफलिसी, जलालत...लय के लिए फुर्सत कहाँ लेखक की जिंदगी में. 

कौन यकीन करे कि लेखक साहब आजकल बारिश में ताल ढूंढ लेते हैं, मीटर बिना सेट किये सब बंध जाता है कि जैसे जिंदगी खातून की आँखों में बंध गयी है. आजकल लेखक ने खुदा को बैरंग चिट्ठियां भेजनी शुरू कर दी हैं...पहले तो सारे वादे दुआ कबूल होने के पहले पूरे कर दिए जाते थे...पर आजकल लेखक ने उधारी खाता भी शुरू करवा लिया है खुदा के यहाँ. दुआएं क़ुबूल होती जा रहीं हैं और खुदा मेहरबान. 

कुछ रिश्ते एक तरफ से ही पूरी शिद्दत से निभाए जा सकते हैं. जहाँ दूसरी तरफ से जवाब आने लगे, खतों की खुशबू ख़त्म हो जाती है. वो नर्म, नाज़ुक हाथों वाली लड़की याद तो है आपको, जो लेखक को ख़त लिखा करती थी? जी...जैसा कि आपने सोचा...और खुदा ने चाहा...लेखक को अनजाने उसी से प्यार हुआ. दोनों ने एक दुसरे को क़ुबूल कर लिया. 

मियां बीवी भला एक दुसरे को ख़त लिखते हैं कभी? नहीं न...तो बस एक खूबसूरत सिलसिले का अंत हो गया. तभी न कहती हूँ...सबसे खूबसूरत प्रेम कहानियां वो होती हैं जहाँ लोग बिछड़ जाते हैं. 

आप किसी को ख़त लिखते हैं तो उनमें अपना नाम कभी न लिखा कीजिए.

23 June, 2011

बारिश में घुले कुछ अहसास

कुछ मौसम महज मौसम होते हैं...जैसे गर्मी या ठंढ...और कुछ मौसम आइना होते हैं...मूड के. जैसे गर्मी होती है तो बस होती है...उसके होने में कुछ बहुत ज्यादा महसूस नहीं होता...आम शब्दों में हम इसको उदासीन मौसम कह सकते हैं...ठंढ भी ऐसी ही कुछ होती है...

पर एक मौसम होता है जो आइना होता है...बारिश...एकदम जैसा आपने मन का हाल होगा वैसी ही दिखेगी बारिश आपको...आसमान एकदम डाइरेक्टली आपके चेहरे को रिफ्लेक्ट करेगा...बारिश के बाद  सब धुला धुला दीखता है या रुला रुला...ये भी एकदम मूड डिपेंडेंट है...तो कैसे न कहें की बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है. मौसम से बेहतर मूड मीटर मैंने आज तक नहीं देखा. 

आज बंगलौर में बहुत तरह की बारिश हुयी...पहले तो एकदम तेज़ से आने वाली धप्पा टाइप बारिश...फिर फुहारें...आज चूँकि काफी दिन बाद बारिश हुयी है तो मिट्टी की खुशबू भी आई...और अभी फुहारें पड़ रही हैं. आज दिन में फिर से कॉपी लेकर बैठी थी...कुछ कुछ लिखा...ऐसे लिखना काफी सुकून देता है...रियल और वर्चुअल में अंतर जैसा...की सच में कहीं कुछ कहा है. 

बचपन की दोस्त...इतने दिनों बाद मिली है आजकल की घंटे घंटे बातें होती हैं और फिर भी ख़त्म नहीं होती...स्मृति को मैं क्लास १ से जानती हूँ...५ में जा कर मेरा स्कुल चेंज हुआ और उसके पापा का ट्रांसफर...सासाराम...फिर हमने एक दुसरे को छह साल चिट्ठियां लिखी...१९९९ में पापा का ट्रांसफर हुआ और हम पटना चले गए...उन दिनों फोन इतना सुलभ नहीं था...एक बार उसका पता खोया फिर कभी मिल नहीं पाया...कितने दिन मैंने उसके बारे में सोचा...उसकी कितनी याद आई बीते बरसों इसे मैं कैलकुलेट करके नहीं बता सकती.बहुत साल बाद फिर दिल्ली आई...ऑरकुट पर मिली भी पर कभी दिखती ही नहीं ऑनलाइन...उस समय उसके हॉस्टल में मोबाईल रखना मन था...कभी फुर्सत से बात नहीं हो पायी.

इधर कुछ दिनों पहले उसका दिल्ली आना हुआ...और फिर बातें...कभी न रुकने वाली बातें...उससे मिले इतने साल हो गए हैं फिर भी लगता ही नहीं की कुछ बीता भी हो...बचपन की दोस्ती एक ऐसी चीज़ होती है की कुछ भी खाली जगह नहीं रहती. उसका ब्लॉग भी जिद करके बनवाया...एक तो आजकल कोई अच्छे मोडरेटर नहीं हैं...उसपर चर्चा का भी कोई अच्छा ब्लॉग नहीं है...नए ब्लोगेर्स के लिए मुश्किल होती है जब कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता. (सब हमारे जैसे थेत्थर नहीं होते)

आज दर्पण से भी पहली बार देर तक बातें की...दिल कर रहा है की उससे फोर्मली superintellectual(SI) के टैग से मुक्त कर दूँ...उससे बात करना मुश्किल नहीं लगा...जरा भी. 

कल ढलती शाम एक दोस्त से घंटों बातें की...कुछ झगड़े भी..कुछ जिंदगी की पेचीदगियां भी सुलझाने की कोशिश की..पर जिंदगी ही क्या जो सुलझाने से सुलझ जाए. 

कल देर रात अनुपम से बात हुयी...बहुत दिन बाद उसे हँसते हुए सुना है....इतना अच्छा लगा कि दिन भर मूड अच्छा रहा...उसे अपनी कहानी सुनाई...कि लिख रही हूँ आजकल. और उसे भी अच्छा लगा...
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फिर बारिश...

दिल किया आसमान की तरफ मुंह उठा कर इस बरसती बारिश में पुकार उठूँ...आई लव यू मम्मी. 

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