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23 November, 2018

नवम्बर ड्राफ़्ट्स

सपने में तुम थे, माँ थी और समुद्र था।

तूफ़ान आया हुआ था। बहुत तेज़ हवा चल रही थी। नारियल के पेड़ पागल टाइप डोल रहे थे इधर उधर। सपने को भी मालूम था कि मैं पौंडीचेरी जाना चाहती थी और उधर साइक्लोन आया हुआ था। उस तूफ़ान में हम कौन सा शहर घूम रहे थे?

ट्रेन में मैं तुम्हारे पास की सीट पर बैठी थी। तुम्हारी बाँह पकड़ कर। कि जैसे तुम अब जाओगे तो कभी नहीं मिलोगे। तुम्हारे साथ होते हुए, तुम्हारे बिना की हूक को महसूस करते हुए। हम कहीं लौट रहे थे। किसी स्मृति में। किसी शहर में। 

मैंने तुमसे पूछा, ‘रूमाल है ना तुम्हारे पास? देना ज़रा’। तुम अपनी जेब से रूमाल निकालते हो। सफ़ेद रूमाल है जिसमें बॉर्डर पर लाल धारियाँ हैं। एक बड़ा चेक बनाती हुयीं। मैं तुमसे रूमाल लेती हूँ और कहती हूँ, ‘हम ये रूमाल अपने पास रखेंगे’। रूमाल को उँगलियों से टटोलती हूँ, कपास की छुअन उँगलियों पर है। कल रात फ़िल्म देखी थी, कारवाँ। उसमें लड़का एक बॉक्स को खोलता है जिसमें उसके पिता की कुछ आख़िरी चीज़ें हैं। भूरे बॉक्स में एक ऐसा ही रूमाल था कि जो फ़िल्म से सपने में चला आया था। ट्रेन एयर कंडिशंड है। काँच की खिड़कियाँ हैं जिनसे बाहर दिख रहा है। बाहर यूरोप का कोई शहर है। सफ़ेद गिरजाघर, दूर दूर तक बिछी हरी घास। पुरानी, पत्थर की इमारतें। सड़कें भी वैसी हीं। सपने का ये हिस्सा कुछ कुछ उस शहर के जैसा है जिसकी तस्वीरें तुमने भेजी थीं। सपना सच के पास पास चलता है। क्रॉसफ़ेड करता हुआ। मैं उस रूमाल को मुट्ठी में भींच कर अपने गाल से लगाना चाहती हूँ। 

मुझे हिचकियाँ आती हैं। तुम पास हो। हँसते हो। मैं सपने में जानती हूँ, तुम अपनी जाग के शहर में मुझे याद कर रहे हो। सपना जाग और नींद और सच और कल्पना का मिलाजुला छलावा रचता है। 

तुम्हें जाना है। ट्रेन रुकी हुयी है। उसमें लोग नहीं हैं। शोर नहीं है। जैसे दुनिया ने अचानक ही हमें बिछड़ने का स्पेस दे दिया हो। मैं तुम्हें hug करती हूँ। अलविदा का ये अहसास अंतिम महसूस होता है। जैसे हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।

नींद टूटने के बाद मैं उस शहर में हूँ जिसके प्लैट्फ़ॉर्म पर हमने अलविदा कहा था। याद करने की कोशिश करती हूँ। अपनी स्वित्ज़रलैंड की यात्रा में ऐसे ही रैंडम घूमते हुए पहली बार किसी ख़ूबसूरत गाँव के ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म को देख कर उस पर उतर जाने का मन किया था। उस छोटे से गाँव के आसपास पहाड़ थे, बर्फ़ थी और एकदम नीला आसमान था। सपने में मैं उसी प्लैट्फ़ॉर्म पर हूँ, तुम्हारे साथ। जागने पर लगता है तुम गए नहीं हो दूर। पास हो।

मैं किसी कहानी में तुम्हें अपने पास रोक लेना चाहती हूँ। 

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कुछ तो हो जिससे मन जुड़ा रहे। 

किसी शहर से। 
किसी अहसास से।
किसी वस्तु से - कहीं से लायी कोई निशानी सही।
किसी किताब से, किसी अंडर्लायन लिए हुए पैराग्राफ़ से।
किसी काले स्टोल से कि जिसे सिर्फ़ इसलिए ख़रीदा गया था कि कोई साथ चल रहा था और उसका साथ चलना ख़ूबसूरत था। 
किसी से आख़िरी बार गले लग कर उसे भूल जाने से। 

आख़िरी बार। कैसा तो लगता है लिखने में। 

कलाइयाँ सूँघती हूँ इन दिनों तो ना सिगरेट का धुआँ महकता है, ना मेरी पसंद का इसिमियाके। पागलपन तारी है। कलाइयों पर एक ही इत्र महसूस होता है। 
मृत्युगंध। 

तुम मिलो मुझसे। कि कोई शहर तो महबूब शहर हुआ जाए। कि किसी शहर की धमनियों में थरथराए थोड़ा सा प्यार… गुज़रती जाए कोई मेट्रो और हम स्टेशन पर खड़े रोक लें तुम्हें हाथ पकड़ कर। रुक जाओ। अगली वाली से जाना। 

मैं भूल जाऊँ तुम्हारे शहर की गलियों के नाम। तुम भूल जाओ मेरी फ़ेवरिट किताब समंदर किनारे। रात को हाई टाइड पर समंदर का पानी बढ़ता आए किताब की ओर। मिटा ले मेरी खींची हुयी नीली लकीर। किताब के एक पन्ने पर लिखा तुम्हारा नाम। मुझे हिचकियाँ आएँ और मैं बहुत दिन बाद ये सोच सकूँ, कि शायद तुम याद कर रहे हो। 

पिछली बार मिली थी तो तुम्हारी हार्ट्बीट्स स्कैन कर ली थी मेरी हथेली ने…काग़ज़ पर रखती हूँ ख़ून सनी हथेली। रेखाओं में उलझती है तुम्हारी दिल की धड़कन। मैं देखती हूँ देर तक। सम्मोहित। फिर हथेली से कस के बंद करती हूँ दूसरी कलाई से बहता ख़ून। 

कि कहानी में भी तुमसे पहले अगर मृत्यु आए तो उसे लौट कर जाना होगा।
चलो, जीने की यही वजह सही कि तुमसे एक बार और मिल लें। कभी। ठीक?

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लड़की की उदास आँखों में एक शहर रहता था। 

लड़का अकसर सोचता था कि दूर देश के उस शहर जाने का वीसा मिले तो कुछ दिन रह आए शहर में। रंगभरे मौसम लिए आता अपने साथ। पतझर के कई शेड्स। चाहता तो ये भी था कि लड़की के लिए अपनी पसंद के फूल के कुछ बीज ले आए और लड़की को गिफ़्ट कर दे। लड़की लेकिन बुद्धू थी, उसकी बाग़वानी की कुछ समझ नहीं थी। उससे कहती कि बारिश भर रुक जाओ, पौधे आ जाएँ, फिर जाना। यूँ एक बारिश भर रुक जाने की मनुहार में कोई ग़लत बात नहीं थी, लेकिन शहर में अफ़ीम सा नशा था। रहने लगो तो दुनिया का कोई शहर फिर अच्छा नहीं लगता। ना वैसा ख़ुशहाल भी। उदासी की अपनी आदत होती है। ग़ज़लें सुनते हुए शहर के चौराहे पर चुप बैठे रहना, घंटों। या कि मीठी नदी का पानी पीना और इंतज़ार करना दिल के ज़ख़्म भरने का। उदास शहर में रहते हुए कम दुखता था सब कुछ ही। 

शहर में कई लोग थे और लड़की ये बात कहती नहीं थी किसी से…लेकिन बस एक उस लड़के के नहीं होने से ख़ाली ख़ाली लगता था पूरा उदास शहर। 

11 December, 2013

सवालों का बरछत्ता

मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?

कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?

मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा। 

16 November, 2013

कोहरे में सीलता. धूप में सूखता. कन्फुजियाता रे मन.

क्या करेगी रे लड़की ड्राफ्ट के इतना सारा पोस्ट का. खजाना गाड़ेगी घर के पीछे वाली मिटटी में कि संदूक में भरे अपने साथ ले जायेगी जहन्नुम? कहानी पूरा करने के लिए तुमको कोई लिख के इनवाईट भेजेगा...हैं...बताओ. दिन भर भन्नाए काहे घूमती रहती हो?

भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.

लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.

अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.

धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.

कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.

देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.

नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.

दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.

भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.

देख तो दिल कि जाँ से उठता है 
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

22 May, 2012

उसमें इतनी गिरहें थीं कि खोलने वाला खुद उलझ जाता था

अजीब लड़की थी कि उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी थी...हर कुछ दिन में ऐसे छटपटाने लगती थी जैसे हवा में ओक्सिजेन खत्म हो गयी हो. कितना भी बातें कर ले...लिखे बिना उसका दिन नहीं मानता था. ऐसे में लगता था कि कोई उसका हाथ पकड़ के मरोड़ दे...कुछ ऐसे कि उँगलियाँ चिटक जायें...नील पड़ जाएँ और वह कलम न उठा सके. उसे सादा कागज़ यूँ खींचता था जैसे मरने वाले को मौत अपनी ओर...जैसे पहाड़ों का निर्वात अपनी ओर...घाटियों की गहराई छलांग लगा देने को पुकारती हो जैसे.

फिरोजी सियाही...गुलाबी...नारंगी...हरा...उसे नीले और काले रंग से लिखना नापसंद था. उसने एक दिन आखिर परेशान होकर घर की सारी कापियों में आग लगा दी...लिखा हुआ उसे और लिखने के लिए उकसाता था और सादा कागज़ उसे भीगी चादर की तरह दोनों किनारे पकड़ मरोड़ डालता था कि लड़की का पूरा सार तत्व किसी के नाम चिट्ठी में उतर आये...पर मन का सारा गीलापन निकल जाने पर भी थोड़ी सी नमी बाकी रह जाती थी और वो बालकनी में अधभीगी चादर की तरह पसरी रहती. कभी कॉफी में खुद को डुबाती तो थोड़ा नशा चढ़ता फिर सिगरेट और बची हुयी व्हिस्की से खुद में पानी की कमी को पूरा करती.

फिलहाल पूरे घर में जले हुए कागज़ के कतरे उड़ रहे हैं और दीवारों पर लटके जाले थोड़े सियाह हो गए हैं...पंखों पर उन चिट्ठियों के बेताल चमगादड़ों की तरह लटक गए हैं. कितनी बातें...ओह कितनी बातें लिखी थी उसने...थोड़ी तकलीफ होती है उसे जब भी वो ऐसे कागजों की होली जलाती है पर ये इतना नहीं होता कि फूट फूट कर रो पड़े...उसे लिखा हुआ जलने का अफ़सोस नहीं होता...रोज रोज इतना लिखती रहती है कि जो खो गया उसके लिए रोने का वक्त नहीं मिलता उसे. हाँ सादे कागजों के लिए उसकी आँखें भर भर आती हैं. ऐसा तो नहीं होगा कि सादा कागज़ नहीं होगा तो वो चिट्ठियां ही नहीं लिखेगी फिर भी हर कुछ दिन में उसे कागजों में आग लगा देने में अच्छा लगता है.

वो सोचती है कि उसे भूलना क्यूँ नहीं आता...लिखना ही भूल जाए...या कि उसे भूल जाए जिसे चिट्ठियां लिखना चाहती है...या यही भूल जाए कमसे कम कि घर में कलम कहाँ छुपा के रखी है. पर वो तो ऐसी है कि पार्क में बैठी होगी तो धूल में उसके नाम चिट्ठी लिख आएगी, नए शहर जायेगी तो आँखों में उस शहर की सारी इमारतों की यादों में उसका नाम चस्पां कर देगी. और ये शहर...जितना पुराना हुआ है कि लगता है पूरा शहर एक विशाल लाल डब्बे में कन्वर्ट हो गया है जिसमें कि उसके नाम की अनगिनत चिट्ठियां गिरी हुयी हैं. वनीला एन्वेलोप में...सादी सी हैंडराइटिंग में खुद को कतरा कतरा समेटती गयी है लड़की.

बिना जवाब के चिट्ठियां लिखना एक अनंत काल की यातना है...ये कुछ वैसा ही है जैसे किसी से प्यार करने के एवज में ये माँगना/चाहना कि वो भी आपसे प्यार करे. लड़की चिट्ठियां लिख कर निश्चिन्त हो जाती थी...बार बार कहती थी कि जवाब ना भी दो तो कोई बात नहीं...पर न चाहते हुए भी एक जवाब की उम्मीद के नन्हे टेंड्रिल्स उसके दिल के इर्द गिर्द लिपटने लगते थे...बेहद कमज़ोर...खुद के दम पर खड़े भी नहीं हो सकते पर धीरे धीरे मजबूत होने लगते थे...फिर लड़की का दिल तो इतनी संभावनाओं और प्यार से भरा था कि उम्मीदें मरती ही नहीं थी...अमरबेल की तरह दिल से पोषित होती रहती थीं.

उसने कई बार कलम से अपनी कलाई पर निशान बनाये जहाँ कि उसे ब्लेड चलानी थी...पर उसे टैटू पसंद नहीं थे और उसे मालूम था कि धमनी काटने के बावजूद वो मरेगी नहीं...उसे कहीं न कहीं मालूम था कि उसकी चिट्ठियां दुआएँ बन जाती हैं और ऊपर खुदा के दरबार तक पहुँच जाती हैं. वो सारी चिट्ठियां जो उसने लिखी थीं उसकी जिजीविषा से पोषित थीं...उनमें उसकी आत्मा का एक अंश होता था...उसे मालूम था कि उसकी सांसें बुझने लगेंगी तो उसकी सारी चिट्ठियों से स्याही निकल कर उसकी धमनियों में बहने लगेगी...जितना उसके बदन में खून नहीं है उससे कहीं ज्यादा सियाही उसकी चिट्ठियों में भरी है...जीती-जागती सियाही...ऐसी सियाही जो संजीवनी बन सकती है...खून बन के रगों में दौड़ सकती है.

घर के सारे सादे कागजों में आग लगा देने के बावजूद भी उसका मन करता है कि वो चिट्ठियां लिखे...उसे जीने के लिए खाना-पानी-नींद नहीं चाहिए...इनके बिना उसका काम चल जाता है. उसे चिट्ठियां लिखने के लिए कागज़ चाहिए होता है...कलम चाहिए होती है...कोई भी एक शख्स चाहिए होता है जिसे वो चिट्ठियां लिख सके. उसने अनजान लोगों को चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान पतों पर चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान भाषाओँ में चिट्ठियां लिखी हैं...उसने समंदर में बोतल में बंद कर चिट्ठियां फेंकी है. उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी है. वो हाथ बाँध कर बैठी है...कि डाकिये का इंतज़ार उससे सांसें छीन लेता है.


ये झूठ है कि वो कविता लिखती है, कहानी लिखती है, गद्य लिखती है...वो सिर्फ, सिर्फ और सिर्फ चिट्ठियां लिखती है.


तुम्हें समझ में आती है वो लड़की? तुम्हें समझ में आती है वो चिट्ठी?

मुझे दोनों समझ में नहीं आती. 

07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

06 May, 2012

एइ मेघला, दिने ऐकला, घोरे थाके ना तो मोन

सुनो, जान...उदास न हो...कुछ भी ठहरता नहीं है...है न? कुछ दिन की बात है...मुझे मालूम है तुम्हें किसी और से प्यार हो जाएगा...कुछ दिन की तकलीफ है...अरे जाने दो न...लॉन्ग डिस्टंस निभाने वाले हम दोनों में से कोई नहीं हैं...तब तक कुछ अच्छी फिल्में देखो मैं भी जाती हूँ कुछ मनपसंद हीरो लोग की फिल्म देखूंगी...आई विल बी फाइन और सुनो...तुम भी अच्छे से रहना.

देखो ये गाना सुनो...मुझे बिस्वजीत बहुत अच्छा लगता था...देखो न इस गाने में वो मिट्टी का कुल्हड़ देखे...वैसे चाय तो तुम्हें भी पसंद नहीं है...मुझे भी नहीं...और कुल्हड़ में कॉफी सोच कर कुछ खास मज़ा नहीं आता...चलो ग्रीन टी ही सोच लो..ना...होपलेस...हाँ इलायची वाली कॉफी...शायद वो अच्छी लगे. पर देखो न मौसम कितना अच्छा है...ठंढी हवाएं चल रही हैं अभी थोड़ी देर में बारिश होने लगेगी...और देखो न बिस्वजीत कितना अच्छा लग रहा है...डार्क कलर की शर्ट है...क्या लगता है? काली है कि नेवी ब्लू? देखो न माथे पर वो बदमाश सी लट...जब वो अपने बाल पीछे करता है मैं अनायास तुम्हारे बारे में सोचने लगती हूँ...तुम किसी दिन किसी और शहर में किसी नयी बालकनी में बारिश का इन्तेज़र करते हुए...अचानक मुझे याद करते हुए ऐसे ही लगोगे न? या शायद उससे ज्यादा खूबसूरत लगोगे...खूबसूरत...हद है ऊपर वाले की बेईमानी...लड़के के ऊपर इतना टाइम बर्बाद किया...तुम इतने अच्छे न भी दिखते तो भी तो मुझे इतने ही अच्छे लगते न रे.

पता नहीं कहाँ हो आज...क्या कर रहे हो...सुबह से रबिन्द्र संगीत सुन रही हूँ...तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...रबिन्द्र संगीत सुनने से बचपन की यादें भी अपनी जगह मांगती है तो तुम्हारी याद थोड़ी कम तकलीफदेह हो जाती है. इसी चक्कर में ये विडियो दिखा यूट्यूब में...देखो न...सिंपल से साईकिल शॉप में है पर कितना अच्छा लग रहा है सब कुछ...तुम थे न लाइफ में तो ऐसे ही सब अच्छा लगता था...झूला याद है तुम्हें? घर की छत पर एक तरफ गुलमोहर और एक तरफ मालती के अनगिन फूल खिले थे...कितना सुन्दर लगता था न छत? पर सुनो...मेरे बेस्ट फ्रेंड तो रहोगे न? कि प्यार वगैरह तो फिर से किसी से हो जाएगा आई एम स्योर पर दोस्ती इतनी आसानी से तो नहीं होती है. तुम्हारे इतना अच्छा मुझे कोई नहीं लगता...मुझे इतनी अच्छी तरह से समझता भी तो कोई नहीं है.

तुम उदास एकदम अच्छे नहीं लगते...फॉर दैट मैटर...उदास तो मैं भी अच्छी नहीं लगती...तो एक काम करते हैं न...उदास होना किसी और जन्म के लिए मुल्तवी करते हैं...ओके? उस जन्म में एक दूसरे से शादी कर लेंगे और भर जिंदगी एक दूसरे को तबाह किये रहेंगे...खूब रुलायेंगे...मारा पीटी करेंगे...कैसा प्लान है? जाने दो न...मौसम उदास हो जाएगा मेरे शहर से तुम्हारे शहर तक. दो शहर एक साथ रोने लगें तो उन्हें चुप करने को दिल्ली के वो सारे खँडहर उठ कर चले आयेंगे जहाँ हमने साथ रबिन्द्र संगीत सुनते हुए कितने दिन बिताए हैं. एक काम करती हूँ न...प्लेस्लिस्ट बना के भेज देती हूँ तुम्हारे लिए...वही गाने सुनना...वरना गानों में तुम्हारा टेस्ट तो एकदम ही खराब है...और प्लीज अपनी वो दर्दीली गजलें मत सुनना...उन्हें सुनकर अच्छे खासे मूड का मूड खराब हो जाता है.

बहुत याद आ रही थी तुम्हारी...पर तुम्हें कहाँ चिट्ठी लिखूं तो मन भटका रही थी सुबह से गाने वाने सुन के...अब तकलीफ थोड़ी कम है...ये वाला गाना रिपीट पर चल भी रहा है...तुम भी सुनो...अच्छा लगे तो अच्छा...वरना तुम्हारे समर ऑफ सिक्सटी नाइन से भी दर्द कम होता है...बशर्ते उसकी बीट्स पर खूब सारा डांस कर लो. मेरी जान...ओ मेरी जान...तुम्हारे शहर का मौसम कैसा है? मेरी याद जैसा खूबसूरत क्या?

27 March, 2012

शाम से कहो दुबारा आये...और तुम भी.


एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...शाम मेरे घर के खाली कमरों में तब भी तुम्हारी आहटें ढूंढेगी...जब कि दूर मैं जा चुकी हूँ पर शाम तुम्हें मिस करेगी. मैं कोई उलाहना भी नहीं दे पाउंगी शाम को कि किसी दूसरे शहर में मुझे एक अजनबी शाम से करनी होगी दोस्ती...चाहना होगा जबरन कि उम्र भर के रास्ते साथ चलने वाले से प्यार कर लेने में ही सुकून और सलीका है.

नए शहर में होंगी नयी दीवारें जिन्होंने नहीं चखा होगा मेरे आंसुओं का स्वाद...जिनमें नहीं छिपी होगी सीलन...जो नहीं जानती होंगी सीने से भींच कर लगाना कि उनमें नहीं उगी होगी सोलह की उम्र से काई की परतें. दीवारें जो इश्क के रंग से होंगी अनजान और अपने धुल जाने वाले प्लास्टिक पेंट पर इतरायेंगी...वाटर प्रूफ दीवारें...दाग-धब्बों रहित...उनमें नहीं होगा चूने से कट जाने का अहसास...उन्हें नहीं छुआ होगा बारीक भुरभुरे चूने ने...उन्हें किसी ने बताया नहीं होगा कि सफ़ेद चूना पान के साथ जुबान को देता है इश्क जैसा गहरा लाल रंग...और कट जाती है जुबान इससे अगर थोड़ा ज्यादा पड़ गया तो...कि जैसे इश्क में...तरतीब से करना चाहिए इश्क भी. गुलाबी दीवारें इंतज़ार करेंगी कीलों का...उनपर मुस्कुराते लोगों की तस्वीरों का...कैलेण्डर का...इधर उधर से लायी शोपीसेस का...कुछ मुखोटे...कुछ नयी पेंटिंग्स का...दीवारों को मालूम नहीं होगा कि मैं घर में यादों के सिवाए किसी को रहने नहीं देतीं.

नयी शाम, नए दीवारों वाले घर में सहमे हुए उतरेगी...मेरी ओर कनखियों से ताकेगी कि जैसे अरेंज मैरेज करने गया लड़का देखता है अपनी होने वाली पत्नी को...कि उसने कभी उसे पहले देखा नहीं है...शाम की आँखों में मनुहार होगा...भय होगा...कि मुझे उससे प्यार हो भी या नहीं...बहुत सी अनिश्चितता होगी. मैं छुपी होउंगी किसी कोने में...वहां मिलती दोनों दीवारें आपस में खुस-पुस बातें करेंगी कि इस बार अजीब किरायेदार रखा है मकान मालिक ने...लड़की अकेली चली आई है इस शहर. मैं गीली आँखों के पार देखूंगी...इस घर को अभी सलीके से तुम्हारा इंतज़ार करना नहीं आता.


नयी सड़क पर निकलती हूँ...शाम भी दबे पाँव पीछे हो ली है...सोच रही है कि ऐसा क्या कहे जो इस मौन की दीवार को तोड़ सके...मैं शाम को अच्छी लगी हूँ...पर मैं सबको ही तो अच्छी लगती हूँ एक तुम्हारे सिवा...या ठहरो...तुम्हें भी तो अच्छी लगती थी पहले. वसंत के पहले का मौसम है...सूखे पत्ते गिर कर हमारे बीच कुछ शब्द बिखेरने की कोशिश करते हैं...पूरी सड़क पर बिखरे हुए हैं टूटे हुए, घायल शब्द...मरहमपट्टी से परे...अपनी मौत के इंतज़ार में...सुबह सरकारी मुलाजिम आएगा तो उधर कोने में एक चिता सुलगायेगा...तब जाकर इन शब्दों की रूह को चैन आएगा.

इस शहर के दरख़्त मुझे नहीं जानते...उनके तने पर कच्ची हैण्डराइटिंग में नहीं लिखा हुआ है मेरा नाम...वो नहीं रोये और झगड़े है तुमसे...वो नहीं जानते हमारे किसी किस्से को...ये दरख़्त बहुत ऊँचे हैं...पहाड़ों से उगते आसमान तक पहुँचते...इनमें बहुत अहंकार है...या ये भी कह सकते हो कि इन बूढ़े पेड़ों ने बहुत दुनिया देखी है इसलिए इनमें और मुझमें सिर्फ जेनेरेशन गैप है...इतनी लम्बी जिंदगी में इश्क एक नामालूम चैप्टर का भुलाया हुआ पैराग्राफ है...फिर देखो न...इनके तने पर तो किसी ने भी कोई नाम नहीं लिखा है. शायद इस शहर में लोग प्यार नहीं करते...या फिर सलीके से करते हैं और अपने मरे हुए आशिकों के लिए संगेमरमर के मकबरे बनवाते हैं...या फिर उनके लिए गज़लें लिखते हैं और किताब छपवाते हैं...या कि जिंदगी भर अपने आशिक के कफ़न पर बेल-बूटे काढ़ते हैं...इश्क ऐसे तमीजदार जगहों पर अपनी जगह पाता है.


मैं अपनी उँगलियाँ देखती हूँ...उनके पोर आंसुओं को पोछने के कारण गीले रहते रहते सिकुड़ से गए हैं...थोड़े सफ़ेद भी हो गए हैं...अब कलम पकड़ती हूँ तो लिखने में दर्द होता है. अच्छा है कि आजकल तुम्हें चिट्ठियां नहीं लिखती हूँ...मेरी डायरी तो कैसी भी हैण्डराइटिंग समझ जाती है. मंदिर जाती हूँ तो चरणामृत देते हुए पुजारी हाथ को गौर से देखता है...कहता है 'बेटा, इस मंदिर की अखंड ज्योति के ऊपर कुछ देर उँगलियाँ रखो...यहाँ के इश्वर सब ठीक कर देते हैं...बहुत अच्छे हैं वो'. मैं सर पर आँचल लेकर तुम्हारी उँगलियों के लिए कुछ मांग लेती हूँ...ताखे के ऊपर से थोड़ी कालिख उठाती हूँ और कहती हूँ कि इश्वर उसकी कलम में हमेशा सियाही रहे...उसकी आँखों में हमेशा रौशनी और उसके मन में हमेशा विश्वास कि साँस की आखिरी आहट तक मैं उससे प्यार करती रहूंगी.
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एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...इस घर ने अपनी आदतें कहाँ बदलीं...शाम घर की अनगिनत दीवारों को टटोलती हुयी मुझे ढूंढती रही और आखिर उसकी भी आँखें बुझ गयीं...बेरहम रात चाँद से ठिठोली करती है...चाँद का चौरस बटुआ खिड़की से अन्दर औंधे गिरा है...कुछ चिल्लर मुस्कुराहटें कमरे में बिखर गयी हैं...बटुए में मेरी तस्वीर लगी है...ओह...अब मैं समझी...तुम्हें चाँद से इर्ष्या थी...कि वो भी मुझसे प्यार करता है...बस इसलिए तुमने शाम से रिश्ता तोड़ लिया...मुझसे खफा हो बैठे...शहर से रूठ गए...मेरी जान...एक बार पूछा तो होता...उस चाँद की कसम...मैंने सिर्फ और सिर्फ तुमसे प्यार किया है...हर शाम इंतज़ार सिर्फ तुम्हारा था...चाँद का नहीं. मेरा प्यार बेतरतीब सही...बेवफा नहीं है...और तुम लाख समझदार समझ लो खुद को...इश्क के मामले में कच्चे हो...तुम्हारी कॉपी देखती हूँ तो उसमें लाल घेरा बना रखा है...और एक पूर्णिमा के चाँद सा जीरो आया है तुम्हें...मालूम क्यूँ...क्यूंकि तुम मुझसे दूर चले आये...मेरी कॉपी देखो...पूरी अंगडाई लेकर हाथ ऊपर की ओर बांधे तुम हो...एक चाँद, एक सूरज से दो गोल...पूरे १०० में १०० नंबर आये हैं मेरे.


चलो...कल से ट्यूशन पढने आ जाना मेरे शहर...ओके? मानती हूँ ये वाला तुम्हारे शहर से दूर बहुत है...पर गलती तुम्हारी है...मैं वापस नहीं जाने वाली...तुम्हें इश्क में पास होना है तो मुझसे सीखो इश्क करना...निभाना...सहना...और थोड़ा पागलपन सीखो मुझसे...कि प्यार में हमेशा जो सही होता है वो सही नहीं होता...कभी कभी गलतियाँ भी करनी पड़ती हैं...बेसलीका होना होता है...हारना होता है...टूटना होता है. मुश्किल सब्जेक्ट है...पर रोज शाम के साथ आओगे और दोनों गालों पर बोसे दोगे तो जल्दी ही तुम्हें अपने जैसा होशियार बना दूँगी...जब मेरी बराबरी के हो जाओगे तब जा के फिर से प्रपोज करना हमको...फिर सोचूंगी...तुम्हें हाँ कहूँ या न. 

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