मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?
कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?
मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा।
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?
कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?
मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा।
awasaad aur awasaaad se bhara ekakipan batorata yaaden
ReplyDeleteआपके प्रश्न हम सबके प्रश्न है, विश्व की महत विडम्बना यही है कि इस भरी भीड़ में सबको अपनी राह स्वये ढूढ़नी होती है, अपने उत्तर स्वयं चुनने होते हैं। प्रश्न उठे हैं, निश्चय ही उत्तर उन्हें उकसा रहे होंगे, अर्धव्यक्त बनी रहें।
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