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25 November, 2011

आवाज़ घर

रात एक आवाज़ घर है जिसमें याद की लौटती आवाजें रहती हैं. लम्हों के भटकते टुकड़े अपनी अभिशप्त प्रेमिकाओं को ढूंढते हुए पहुँचते हैं. आवाज़ घर में अनगिन दराजें हैं...और दराजों की इस बड़ी सी आलमारी पर कोई निशान नहीं है, कोई नंबर, कोई नाम नहीं. कोई नहीं जानता कि किस दराज से कौन सा रास्ता किधर को खुल जाएगा.

हर दराज़ में अधूरी आवाजें हैं और ये सब इस उम्मीद में यहाँ सकेरी गयी हैं कि एक दिन इन्हें इनका जवाब मिलेगा...इंतजार में इतने साल बीत गए हैं कि कुछ सवाल अब जवाब जैसे हो गए हैं. जैसे देखो, दराज का वो पूर्वी किनारा...हिमालय के जैसा है...उस दराज तक पहुँचने की कोई सीढ़ी नहीं है. पर तुम अगर एकदम मन से उसे खोलना चाहोगे न तो वो दराज नीचे होकर तुम्हारे हाथों तक आ जायेगी. जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता. उस दराज में एक बहुत पुराना सवाल पड़ा है, जो कभी पूछा नहीं गया...इसलिए अब उसे जवाब का इंतज़ार भी नहीं है. सवाल था 'क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?'. जब सवाल के पूछे जाने की मियाद थी तब अगर पूछ लिया जाता तो इसे शान्ति मिल जाती और ये एक आम सवाल होकर हवा में उड़ जाता...मुक्त हो जाता. पर चूँकि पूछा नहीं गया और सालों दराज में पड़ा रहा तो उम्र की सलवटों ने इस किशोर सवाल को बूढ़ा और समझदार बना दिया है. पके बालों वाला ये सवाल साधना में रत था...इसमें अब ऐसी शक्ति आ गयी है कि तुम्हारे मन के अन्दर झाँक के देख लेता है. इसे वो भी पता है जो खुद तुम्हें भी नहीं पता. इस दराज को खोलोगे तो बहुत सोच समझ कर खोलना, क्यूंकि इससे मिलने के बाद तुम्हारी जिंदगी कभी पहले जैसी नहीं रह पायेगी.

ठीक तुम्हारे हाथ की ऊंचाई पर जो सुनहली सी दराज है न, वो मेरी सबसे पसंदीदा दराज है...पूछो कैसे, कि मैंने तो कोई नाम, नंबर नहीं लिखे हैं यहाँ...तो देखो, उस दराज का हैंडिल दिखा तुम्हें, कितना चमकदार है...तुम्हारी आँखों जैसा जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे. दराज के हैंडिल पर जरा भी धूल नहीं दिखेगी तुम्हें...इसे मैं अक्सर खोलती रहती हूँ...कभी कभी तो एक ही दिन में कई बार. इस दराज में तुम्हारी हंसी बंद है...जब तुम बहुत पहले खुल कर हँसे थे न...मैंने चुपके से उसका एक टुकड़ा सकेर दिया था...और नहीं क्या, तुम्हें भले लगे कि मैं एकदम अव्यवस्थित रहती हूँ, पर आवाजों के इस घर में मुझे जो चाहिए होता है हमेशा मिल जाता है. बहुत चंचल है ये हंसी, इसे सम्हाल के खोलना वापस डब्बे में बंद नहीं होना चाहती ये...तुम्हारा हाथ पकड़ कर पूरे घर में खेलना चाहती है...इसकी उम्र बहुत कम होती है न, कुछ सेकंड भर. तो जितनी उर्जा, जितना जीवन है इसमें खुल के जी लेती है.

अरे अरे...ये क्या करने जा रहे हो, ये मेरी सिसकियों की दराज है...एक बार इसे खोल लिया तो सारा आवाज़ घर डूब जाएगा. फिर कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देगी...वो नहीं देखते मैंने इसे अपने दुपट्टे से बाँध रखा है कि ये जल्दी खुले न...फिर भी कभी कभार खुल जाता है तो बड़ी मुश्किल होती है, सारी आवाजें भीग जाती हैं, फिर उन्हें धूप दिखा के वापस रखना पड़ता है, बड़ी मेहनत का काम है. इस दराज से तो दूर ही रहो...ये सिसकियाँ पीछा नहीं छोड़ेंगी तुम्हारा...और तुम भी इसी तिलिस्म के होके रह जाओगे. यायावर...तुम्हें बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मैं तो तुम्हें बस दिखा रही थी कि कैसे तुम्हारी आवाज़ के हर टुकड़े को मैंने सम्हाल के रखा है...तुम्हें ये न लगे कि मैं तुम्हारी अहमियत नहीं समझती.












तुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?

17 November, 2011

कैन यू हीयर मी?


तुम्हारे लिए कितना आसान है यूँ खुली किताब की तरह मुझे पढ़ लेना, वो भी तब जब मुझे न झूठ बोलना आता है न तुमसे कुछ भी छिपा सकती हूँ कभी. तुमने जब जो पूछा हमेशा सच बोल गयी बिना सोचे कि सच के भी अपने सलीब होते हैं जिनपर दिन भर तिल तिल मरना होता है.

मैं तो इसी में खुश थी कि तुमसे प्यार करती हूँ, कब तुमसे कुछ माँगा जो तुम मुझसे पूछने लगे कि किस हक से मैं तुमसे सवाल कर रही हूँ. मेरा कौन सा हक है तुमपर. कभी भी कब रहा था. बस ये ही ना पूछा था कि ऐसे तुम सभी को पढ़ लेते हो या ख़ास मुझे पढ़ पाते हो. तुम एक सवाल का भी सीधा जवाब नहीं होगे, दिप्लोमटिक वहां भी हो जाते हो 'चाहूँ तो पढ़ सकता हूँ'. इससे बेहतर तो जवाब ही नहीं देते तुम.

ऐसे कैसे नरम, मासूम से ख्वाब थे कि सुनकर आँखें रोना बंद ही नहीं करतीं...दिल रो रहा है ऐसे कि लगता है मर जाउंगी. प्यार हमेशा ऐसा डर लेकर क्यूँ आता है कि लगता है गहरे पानी में डूब रही हूँ. सांस सीने में अटकी हुयी है. लोग माने न पाने प्यार का फिजिकल इफेक्ट होता है, आखिर पूरी दुनिया में किसी को भी प्यार होता है तो सबको ऐसा ही लगता है न कि जैसे सांस अटकी हुयी है सीने में. न खाना खा पा रही हूँ न किसी काम में मन लग रहा है. कॉपीचेक के लिए किताब कब से रखी हुयी है, इग्नोर मोड में डाल रखा है.


हाँ मेरा दिल करता है कि दोनों हाथों में एक बार तुम्हारा चेहरा लेकर देखूं कि तुम्हारी आँखों का रंग वाकई कैसा है. तुम्हें देखे इतने दिन हो गए कि तुम्हारा चेहरा याद में धुंधलाने लगा है...और तुम कहते हो कि तुमसे कभी न मिलूं...यूँ जैसे कि तुम बगल वाली बालकनी में रहते हो और हम रोज शाम अपने चाय और कॉफ़ी के कप उठा कर चियर्स करते हैं. बात तो यूँ करते हो जैसे दिल्ली बंगलोर में दूरी ही न हो, जैसे मैं जब चाहूँ ट्रांसपोर्ट होकर तुम्हारे ऑफिस के बाहर छोले कुलचे वाली साइकिल के पास तुम्हारा इंतज़ार कर सकती हूँ.

मुझे कभी भी प्यार हुआ तो मैंने छुपाया नहीं था...कोई कारण होगा न कि सिर्फ तुम एक्सेप्शन थे इस रूल के...कल जाने क्या मिल गया तुम्हें मेरे मुंह से कुबूल करवा के...हाँ मैं करती हूँ तुमसे प्यार...अब मैं क्या करूँ...अब मैं क्या करूँ. ये शाम जैसे हवा ज्यादा डेंस हो गयी है और सांस नहीं ली जा रही है, तुमसे बात करने का मन कर रहा है. पागल हो रही हूँ धीरे धीरे...उठा के फ़ेंक दो वो सारी चिट्ठियां कि जिनसे तुमने चीट questions बना लिए मुझे समझने के लिए.

तुम्हें लगा है कभी. डर. ऐसा. क्या करते हो ऐसे में? तुम्हारी आवाज़ के सिक्के ढलवा लूँ? जब दिल करे मुट्ठी में भर के खनखना लूँ. दिल करता है कहीं बहुत बहुत तेज़ बाईक चलाऊं और किसी दूर झील के किनारे जब कोई भी न देखे...जी भर के चिल्ला लूँ...आई लव यू...आई लव यू...कैन यू हियर मी?

01 October, 2011

क्या कहते हो दोस्त, कुछ उम्मीद बाकी है क्या?

मंदिर का गर्भ-गृह है...मैं एक चुप दिए की लौ की तलाश में बहुत अँधेरे से आई हूँ, उम्मीद की एक नासमझ चिंगारी लिए. कैसा लगे कि अन्दर देवता की मूरत नहीं हो और उजास की आखिरी उम्मीद भी बुझ जाए. वाकई जिसे मंदिर समझा था, सुबह की धूप में कसाईघर निकले और जिस जमीन पर गंगाजल से पवित्र होने के लिए आये थे वहां रक्त से लाल फर्श दिखे. पैर जल्दी से उठाएं भी तो रखने की कहीं जगह न हो. जैसे एक सफ़ेद मकबरे(जिसे प्यार का सबूत कहते हैं लोग) के संगमरमरी फर्श पर भरी दुपहरी का हुस्न नापने निकले लोग पाँव जलने से बचने के लिए जल्दी जल्दी कदम रखते रहते हैं फिर भी पाँव झुलस ही जाते हैं. 

मैं सारी रात सो नहीं पायी और उलझे हुए ख्यालों में अपनी पसंद का धागा अलगाने की कोशिश करती रही. देखती हूँ कि मेरी आँखें कांच की हो गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में किसी लुप्त हुयी प्रजाति की खाल में भूसा भर कर रख दिया गया हो. कैसा लगे कि आखिर पूरी जिंदगी जिस मन और आत्मा के होने का सबूत लिए कागज़ काले करते रहे, मौत के कुछ पहले बता दिया जाए कि आत्मा कुछ नहीं होती...अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो बस ये तुम्हारा शरीर, कि जिसकी खाल उतारकर दुनिया तुम्हारे होने को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देगी. कांच की आँखों में तुम्हारा अक्स बेहद खूबसूरत दिखता है, और तुम इस ख्याल पर खुश हो लोगे. एक पूरी जिंदगी जीने से सिर्फ इसलिए रोक देना कहाँ का न्याय है कि तुम्हें मेरा शरीर चाहिए...ना ना, मांस भी नहीं कि जिसे खा के तुम्हारी क्षुधा तृप्त हो सके(तुम कितने सदियों के भूखे हो ओ मनुष्य)...ओह मनुष्य तुम कितने निष्ठुर हो. तुम क्या जानो जब ऐसे मेरे पूरे होने को ही नकार देते हो तो फिर मेरे शब्द किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाते. 

मर जाने पर भी मरने क्यूँ नहीं देते...मुझे नहीं चाहिए अमरत्व...प्राणहीन...शुष्क...मत बचाओ मेरी आँखों की रौशनी, मुझे नहीं देखनी है ये दुनिया...बिना आँखों के ये दुनिया कहीं खूबसूरत लगती है. एक बात बताओ, मृत शरीर भी तुम्हें जीवंत क्यूँ दिखना जरुरी हो...मेरे प्राण लेने पर तुम्हें संतोष नहीं होता? 

कैथेड्रल, बर्न
बहुत जगह सुबह हो चुकी होगी...मेरा गाँव भी ऐसी जगह में से ही एक है. मगर तुम मेरे गाँव से चित्र चुराने आये हो, क्यूँ? मुझे नींद आ रही है अब...कल पूरी रात सो नहीं पायी हूँ. शाम को ही सुना था, कसाई नाप ले गया है...बकरा कटने के लिए तैयार हो गया है. 

मौत के बाद अँधेरे से आगे कुछ होगा? रौशनी होगी?

अगर मरने के पहले तुम्हें इस बात का यकीन दिला दिया जाए कि जिस्म के इस घर में एक दिल भी है... तो छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता 


30 September, 2011

फाउंटेन पेन से निकले अजीबो गरीब किस्से

'तुम खो गए हो,' नयी कलम से लिखा पहला वाक्य काटने में बड़ा दुःख होता है, वैसे ही जैसे किसी से पहली मुलाकात में प्यार हो जाए और अगले ही दिन उसके पिताजी के तबादले की खबर आये. 

'तुम खोते जा रहे हो.' तथ्य की कसौटी पर ये वाक्य ज्यादा सही उतरता है मगर पिछले वाक्य का सरकटा भूत पीछा भी तो नहीं छोड़ रहा. तुम्हारे बिना अब रोया भी नहीं जाता, कई बार तो ये भी लगता है की मेरा दुःख महज एक स्वांग तो नहीं, जिसे किसी दर्शक की जरूरत आन पड़ती हो, समय समय पर. इस वाक्य को लिखने के लिए खुद को धिक्कारती हूँ, मन के अंधियारे कोने तलाशती भी हूँ तो दुःख में कोई मिलावट नज़र नहीं आती. एकदम खालिस दुःख, जिसका न कोई आदि है न अंत. 

स्याही की नयी बोतल खोलनी थी, उसके कब्जे सदियों बंद रहने के कारण मजबूती से जकड़ गए थे. मैंने आखिरी बार किसी को दवात खरीदते कब देखा याद नहीं. आज भी 'चेलपार्क' की पूरी बोतल १५ रुपये में आ जाती है. बताओ इससे सस्ता प्यार का इज़हार और किसी माध्यम से मुमकिन है? अर्चिस का ढंग का कार्ड अब ५० रुपये से कम में नहीं आता. गरीब के पास उपाय क्या है कविता करने के सिवा. तुम्हें शर्म नहीं आती उसकी कविता में रस ढूँढ़ते हुए. दरअसल जिसे तुम श्रृंगार रस समझ रहे हो वो मजबूरी और दर्द में निकला वीभत्स रस है. अगर हर कवि अपनी कविता के पीछे की कहानी भी लिख दे तो लोग कविता पढना बंद कर देंगे. इतना गहन अंधकार, दर्द की ऐसी भीषण ज्वाला सहने की शक्ति सब में नहीं है.

सरस्वती जब लेखनी को आशीर्वाद देती हैं तो उसके साथ दर्द की कभी न ख़त्म होने वाली पूँजी भी देती हैं और उसे महसूस करके लिखने की हिम्मत भी. बहुत जरूरी है इन दो पायदानों के बीच संतुलन बनाये रखना वरना तो कवि पागल होके मर जाए...या मर के पागल हो जाए. बस उतनी भर की दूरी बनाये रखना जितने में लिखा जा सके. इस नज़रिए से देखोगे तो कवि किसी ब्रेन सर्जन से कम नहीं होता. ये जानते हुए भी की हर बार मरीज के मर जाने की सम्भावना होती है वो पूरी तन्मयता से शल्य-क्रिया करता है. कवि(जो कि अपनी कविता के पीछे की कहानी नहीं बताता) जानते हुए कि पढने वाला शायद अनदेखी कर आगे बढ़ ले, या फिर निराशा के गर्त में चले जाए दर्द को शब्द देता है. वैसे कवि का लिखना उस यंत्रणा से निकलने की छटपटाहट मात्र है. इस अर्थ में कहा नहीं जा सकता कि सरस्वती का वरदान है या अभिशाप.

ये पेन किसी को चाहिए?
तुम किसी अनजान रास्ते पर चल निकले हो ऐसा भी नहीं है(शायद दुःख इस बात का ही ज्यादा है) तुम यहीं चल रहे हो, समानांतर सड़क पर. गाहे बगाहे तुम्हारा हँसना इधर सुनाई देता है, कभी कभार तो ऐसा भी लगता है जैसे तुम्हें देखा हो- आँख भर भीगती चांदनी में तुम्हें देखा हो. एक कदम के फासले पर. लिखते हुए पन्ना पूरा भर गया है, देखती हूँ तो पाती हूँ कि लिखा चाहे जो भी है, चेहरा तुम्हारा ही उभरकर आता है. बड़े दिनों बाद ख़त लिखा है तुम्हें, सोच रही हूँ गिराऊं या नहीं. 


हमेशा की तरह, तुम्हारे लिए कलम खरीदी है और तुम्हें देने के पहले खुद उससे काफी देर बहुत कुछ लिखा है. कल तुम्हें डाक से भेज दूँगी. तुम आजकल निब वाली पेन से लिखते हो क्या?


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