मंदिर का गर्भ-गृह है...मैं एक चुप दिए की लौ की तलाश में बहुत अँधेरे से आई हूँ, उम्मीद की एक नासमझ चिंगारी लिए. कैसा लगे कि अन्दर देवता की मूरत नहीं हो और उजास की आखिरी उम्मीद भी बुझ जाए. वाकई जिसे मंदिर समझा था, सुबह की धूप में कसाईघर निकले और जिस जमीन पर गंगाजल से पवित्र होने के लिए आये थे वहां रक्त से लाल फर्श दिखे. पैर जल्दी से उठाएं भी तो रखने की कहीं जगह न हो. जैसे एक सफ़ेद मकबरे(जिसे प्यार का सबूत कहते हैं लोग) के संगमरमरी फर्श पर भरी दुपहरी का हुस्न नापने निकले लोग पाँव जलने से बचने के लिए जल्दी जल्दी कदम रखते रहते हैं फिर भी पाँव झुलस ही जाते हैं.
मैं सारी रात सो नहीं पायी और उलझे हुए ख्यालों में अपनी पसंद का धागा अलगाने की कोशिश करती रही. देखती हूँ कि मेरी आँखें कांच की हो गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में किसी लुप्त हुयी प्रजाति की खाल में भूसा भर कर रख दिया गया हो. कैसा लगे कि आखिर पूरी जिंदगी जिस मन और आत्मा के होने का सबूत लिए कागज़ काले करते रहे, मौत के कुछ पहले बता दिया जाए कि आत्मा कुछ नहीं होती...अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो बस ये तुम्हारा शरीर, कि जिसकी खाल उतारकर दुनिया तुम्हारे होने को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देगी. कांच की आँखों में तुम्हारा अक्स बेहद खूबसूरत दिखता है, और तुम इस ख्याल पर खुश हो लोगे. एक पूरी जिंदगी जीने से सिर्फ इसलिए रोक देना कहाँ का न्याय है कि तुम्हें मेरा शरीर चाहिए...ना ना, मांस भी नहीं कि जिसे खा के तुम्हारी क्षुधा तृप्त हो सके(तुम कितने सदियों के भूखे हो ओ मनुष्य)...ओह मनुष्य तुम कितने निष्ठुर हो. तुम क्या जानो जब ऐसे मेरे पूरे होने को ही नकार देते हो तो फिर मेरे शब्द किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाते.
मर जाने पर भी मरने क्यूँ नहीं देते...मुझे नहीं चाहिए अमरत्व...प्राणहीन...शुष्क...मत बचाओ मेरी आँखों की रौशनी, मुझे नहीं देखनी है ये दुनिया...बिना आँखों के ये दुनिया कहीं खूबसूरत लगती है. एक बात बताओ, मृत शरीर भी तुम्हें जीवंत क्यूँ दिखना जरुरी हो...मेरे प्राण लेने पर तुम्हें संतोष नहीं होता?
कैथेड्रल, बर्न |
बहुत जगह सुबह हो चुकी होगी...मेरा गाँव भी ऐसी जगह में से ही एक है. मगर तुम मेरे गाँव से चित्र चुराने आये हो, क्यूँ? मुझे नींद आ रही है अब...कल पूरी रात सो नहीं पायी हूँ. शाम को ही सुना था, कसाई नाप ले गया है...बकरा कटने के लिए तैयार हो गया है.
मौत के बाद अँधेरे से आगे कुछ होगा? रौशनी होगी?
अगर मरने के पहले तुम्हें इस बात का यकीन दिला दिया जाए कि जिस्म के इस घर में एक दिल भी है... तो छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता
:-)
ReplyDeleteASHISH
छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता :-)
ReplyDeleteसुन्दर, चित्रात्मक रचना
ReplyDeleteइतने गाढ़े भावों को इतने सलीके से शब्दों में रंग डालना कभी मुझसे संभव हुआ ही नहीं। गाढ़े भाव या तो आते आते सूख जाते हैं या आँखों में अटक कर बह जाते हैं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण , बधाई
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें
आपकी खोजपरक जानकारी के लिए आप बधाई के पात्र हैं .....
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग पर भी पधारे
ReplyDeleteकुछ अलग ही अंदाज है इस पोस्ट का...
ReplyDeleteबेहद गहन्।
ReplyDeleteyahan bhi dekhein......http://vandana-zindagi.blogspot.com
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteडा० व्योम
:) :)
ReplyDeleteअगर मरने के पहले तुम्हें इस बात का यकीन दिला दिया जाए कि जिस्म के इस घर में एक दिल भी है... तो छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता
ReplyDeleteVah kya baat hai! Apke blog par aakar achha lagaa!
सोचता हूँ कसाई क्या कभी रात को जागता होगा ...नींद में किसी बकरे की आँखों को देखकर ...या किसी कराहने या दर्द की आवाज उसे याद रहती होगी .....क्या करता होगा वो .खुद लेता होगा नशे की गोलिया ...या उसके दिल पर परत होगी कई लेयर की ....इमोशन प्रूफ !
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