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18 May, 2019

जिन शामों में मुझे कोई भी दुःख नहीं होता और फिर भी मेरी आँख भर भर आती है… मैं जानती हूँ कि मैं बहुत प्राचीन दुखों पर रो रही हूँ… कि मेरी आँखें रडार की तरह आसमान में देख लेती हैं कई जन्म पुराने दुःख… युद्ध की विभीषिका… मृत्यु… भय और फिर वे उन लोगों के हिस्से के आँसू रोती हैं जो असमय मर गए थे। 

मेरे भीतर एक दुःख का मर्तबान है जो कभी ख़ाली नहीं होता। मेरे अंदर एक सुख का मर्तबान है जिसमें तली नहीं है।
दुःख जीवन की गर्मी पा कर सांद्र होता चला जाता है। दुःख के रहने की जगह आँखों में है। मैं किसी को अपनी आँखें चूमने नहीं देती हूँ, इसलिए। 

मैं जिन शहरों की जिन गलियों से चली हूँ वहाँ युद्धबंदी चले थे अपनी अंतिम यात्राओं पर…उनकी निराशा ने मेरी आत्मा पर कुछ अक्षर अंकित कर दिए हैं जो गाहे बगाहे मेरे लिखे में दिखने लगते हैं। मैं लिखती हूँ तो मेरी आत्मा जाने किन अदृश्य शवयात्राओं में चल रही होती है… सफ़ेद कपड़े पहने… सिर झुकाए… शोक संतृप्त। मेरी हथेलियों में धूप की नहीं चिताओं की आग की गर्मी होती है जिसे लिखने में सरकण्डे की क़लम में आग लग जाती है। मैं कभी कभी स्याही में उँगलियाँ डुबो कर प्रायश्चित्त की कविताएँ लिखती हूँ… छोटे छोटे शब्दों की। हमारे यहाँ स्त्रियाँ शवयात्रा में शामिल नहीं होतीं इसलिए उन्हें उम्र भर कभी यक़ीन नहीं होता कि राम नाम सत्य है… वे अपना सत्य तलाशती रहती हैं। मैं भी अपना सत्य तलाश रही हूँ। ईश्वर के आख़िरी नाम में जो कि प्रेमी के नाम से मिलता जुलता हो। जीवन की सारी कहानियों और रामायण के जितने हिस्से याद हैं उसके बावजूद राम का सबसे गहरा असर जो मेरे मन पर होता है वो इसी वाक्य का क्यूँ है… मैं कोई किरदार लिख सकूँगी कभी कि जिसका नाम राम हो? कि दुनिया तो अब ऐसी नहीं रही कि जिसमें मैं ये कल्पना कर सकूँ कि मेरा कोई बेटा हो तो उसका नाम राम रखूँ। 

आज शाम निर्मल वर्मा को पढ़ रही थी - दूसरी दुनिया। उसमें वे बोर्खेस की बात करते हुए बताते हैं कि बोर्खेस के एक वक्तव्य के बाद एक श्रोता ने पूछा कि “आप अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस करते हैं?”… बोर्खेस ने अपनी थकी आँखों से हमारी ओर देखा, “हमेशा लगता है कि मैं कहीं भटक गया हूँ, हमेशा यही लगता है।”। 

इत्तिफ़ाक़ से दो तीन दिन पहले ही घर पर कुछ लोग आए हुए थे और हम विदेश यात्रा के अपने अनुभवों पर बात कर रहे थे। मैं कह रही थी कि मुझे सबसे अच्छी बात ये लगती है कि मैं कहीं भी खो नहीं सकती। दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी शहर में, कितने भी कॉम्प्लिकेटेड सब्वे सिस्टम्ज़ या कि नाव चल रही हो… मुझे हमेशा मालूम होता है मैं कहाँ हों कि मैं हमेशा लौट सकती हूँ जहाँ चाहूँ… जब चाहूँ… कि मैं कहीं भटक नहीं सकती। 

बोर्खेस के इस हिस्से को पढ़ते हुए लगा कि ये वक्तव्य तब का है जब वे अपने आँखों की रोशनी पूरी तरह खो चुके थे। उस अंधेरे में कैसे आते होंगे शब्द… रंगों की कैसी स्मृति रही होगी और रौशनी की… इस भटकने में कितना आध्यात्मिक था और कितना शुद्ध सत्य। मैं जो कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकती… मैं कहाँ जाना चाहती हूँ। क्या मेरे पास कोई मंज़िल है … मैं इस रास्ते पर रहते हुए संतुष्ट हूँ या मुझे किसी मंज़िल की तलाश है...

ये कितना सुंदर सवाल है न? मैं भी शायद कुछ लोगों से पूछना चाहूँगी… ख़ास तौर से मेरे सबसे पसंद के लेखकों से… कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस की है। कि मुझसे पूछा जाए तो शायद मैं कहूँगी सफ़र में होने की ख़ुशी। या कि एक शब्द में कहें तो… प्रेम। मैंने सबसे ज़्यादा प्रेम महसूस किया है। और उससे थोड़ा ही कम प्रेम से उपजी पीड़ा। मेरे पास सबसे ज़्यादा का कोई ठीक ठीक जवाब नहीं है। 

मेरी कैलीग्राफ़ी वाली क़लम खो गयी है और मैं कई दिनों से जो लिखना चाहती हूँ वो लिख नहीं पा रही हूँ क्यूँकि दिमाग़ में शब्द नहीं बस क़लम का चलना दिख रहा है। कल शायद जा कर नयी क़लम ख़रीदनी पड़े। मैं इस बार कुछ गहरे दुखों को लिखना चाहती हूँ जो ऊपर से देखने पर काफ़ी सादे से दिखते हैं लेकिन दुखते बहुत ज़्यादा हैं। जैसे कि मैं अपने घर में खाने का प्रबंधन ठीक से नहीं देख पाती। मुझे समझ नहीं आता कि कुक को क्या बनाने बोलूँ या कि उसको खाना बनाना कैसे सिखाऊँ… मुझे ख़ुद से बनाना तो आता है लेकिन सिखा नहीं सकती किसी को… तो मेरे घर के सारे लोगों को खाने के वक़्त से डर लगता है कि आज जाने कितना बुरा खाना बना होगा… हम कितने महीने से ऐसा ही खाना खा रहे हैं जो बेहद बेस्वाद होता है। मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ… ये भी नहीं कर पा रही। लेकिन एक नॉर्मल सी ज़िंदगी में ये दुःख कितना बड़ा है कि आपको तीन वक़्त का अपनी पसंद का खाना खाने को नहीं मिले। ये दुःख उपन्यास पूरा न कर पाने या कि कहानियाँ न लिख पाने से भारी लगता है। कि लिखते पढ़ते हुए सब कुछ पर्सनल हो जाता है और जानती हूँ कि भूख दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है।

09 February, 2017

बचपन से बिसरता स्पर्श - १

जिन दिनों हम ब्लॉग लिखना शुरू किए थे २००५ में उन दिनों ब्लॉग की परिभाषा एक ऑनलाइन डायरी की तरह जाना था। वो IIMC की लैब थी जहाँ पहली बार कुछ चीज़ें लिखी थीं और उनको दुनिया के लिए छोड़ दिया था। बिना ये जाने या समझे कि यहाँ से बात निकली है तो कहाँ तक जाएगी। हिंदी में ब्लौग्स बहुत कम थे और जितने थे सब लगभग एक दूसरे को जानते थे। मैंने अपने इस ऑनलाइन ब्लॉग पर जो मन सो लिखा है। कहानी लिखी, कविता लिखी, व्यंग्य लिखा, डायरी लिखी। सब कुछ ही। उन दिनों किताब छपना सपने जैसी बात थी। वो भी पेंग्विन से। मगर तीन ‘रोज़ इश्क़ मुकम्मल’ हुआ और पिछले तीन सालों में बहुत से रीडर्स का प्यार उस किताब को मिला। इन दिनों लिखना भी पहले से बदल कर क़िस्से और तिलिस्म में ज़्यादा उलझ गया। फिर फ़ेसबुक पर लिखना शुरू हुआ। लिखने का एक क़ायदा होता है जिसमें हम बंध जाते हैं। पहले यूँ होता था कि हर रोज़ के ऑफ़िस और घर की मारामारी के बीच का एक से दो घंटे का वक़्त हमारा अपना होता था। मैं ऑफ़िस से निकलने के पहले लिखा करती थी। मेरी अधिकतर कहानियाँ एक से दो घंटे में लिखी गयी हैं। एक झोंक में। फ़ेसबुक पर लिखने से ये होता है कि दिन भर छोटे छोटे टुकड़ों में लिखते हैं जिसके कारण शाम तक ख़ाली हो जाते हैं। पहले होता था कि कोई एक ख़याल आया तो दिन भर घूमते रहता था मन में। गुरुदत्त पर जब पोस्ट्स लिखी थीं तो हफ़्ते हफ़्ते तक सिर्फ़ गुरुदत्त के बारे में ही पढ़ती रही। ब्लॉग पर लिखने की सीमा है। १०००-१५०० शब्दों से ज़्यादा की पोस्ट्स बोझिल लगती हैं। यही उन दिनों लिखने का अन्दाज़ भी था। इन दिनों चीज़ें बदल गयी हैं। कहानी लगभग २०००-३००० शब्दों की होती है। कई बार तो पाँच या सात हज़ार शब्दों की भी। इस सब में मैं वो लिखना भूल गयी जो सबसे पहले लिखा करती थी। जो मन सो। वो।

तो आज फिर से लौट रही हूँ वैसी ही किसी चीज़ पर। अगर मैं अपने ब्लॉग पर लिखने से पहले भी सोचूँगी तब तो होने से रहा। यूँ कलमघिसाई ज़रूरी भी है।
आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्टिकल शेयर की। स्पर्श पर। मैं बहुत सी चीज़ें सोचने लगी। ज़िंदगी के इतने सारे क़िस्से आँखों के सामने कौंधे। ऐसे क़िस्से जो शायद मैं अपने नाम से कभी ना लिखूँ। कई सारे परतों वाले किरदार के अंदर कहीं रख सकूँ शायद।
मैं बिहार से हूँ। मेरा गाँव भागलपुर के पास आता है। मेरा बचपन देवघर नाम के शहर में बीता। दसवीं के बाद मेरा परिवार पटना आ गया और फिर कॉलेज के बाद मैं IIMC, दिल्ली चली गयी PG डिप्लोमा के लिए। मेरा स्कूल को-एड था और उसके बाद ११th-१२th और फिर पटना वीमेंस कॉलेज गर्ल्ज़ ओन्ली था।
स्पर्श कल्चर का हिस्सा होता है। हम जिस परिवेश में बड़े हुए थे उसमें स्पर्श कहीं था ही नहीं। बहुत छोटे के जो खेल होते थे उनमें बहुत सारा कुछ फ़िज़िकल होता है। छुआ छुई का तो नाम ही स्पर्श पर है। लुका छिपी का सबसे ज़रूरी हिस्सा था ‘धप्पा’ जिसमें दोनों हाथों से चोर की पीठ पर झोर का धक्का लगा कर धप्पा बोलना होता था। पोशमपा भाई पोशमपा में हम एक दरवाज़ा बना कर खड़े होते थे और बाक़ी बच्चे उसके नीचे से गुज़रते थे। बुढ़िया कबड्डी में एक गोल घेरा होता था और एक चौरस। गोल घेरे में बुढ़िया होती थी जिसका हाथ पकड़ कर विरोधी टीम से बचा कर दौड़ते हुए दूर के चौरस घेरे में आना होता था। कबड्डी में तो ख़ैर कहाँ हाथ, कहाँ पैर कुछ मालूम नहीं चलता था। रस्सी कूदते हुए दो लड़कियाँ हाथ पकड़ कर एक साथ कूदती थीं और दो लड़कियाँ रस्सी के दोनों सिरों को घोल घुमाती रहती थीं। 

अगर हम बचपन को याद करते हैं तो उसका बहुत सा हिस्सा स्पर्श के नाम आता है। बाक़ी इंद्रियों के सिवा भी। शायद इसलिए कि हम सीख रहे होते हैं कि स्पर्श की भी एक भाषा होती है। मेरे बचपन की यादों में मिट्टी में ख़ाली पैर दौड़ना। छड़ से छेछार लगाना। जानना कि स्पर्श गहरा हो तो दुःख जाएगा…ज़ख़्म हो जाएगा भी था। 

स्पर्श के लिए पहली बार बुरा लगना कब सीखा था वो याद नहीं, बस ये है कि जब मैं छोटी थी, लगा लो कोई std.५ में तब मेरी बेस्ट फ़्रेंड ने कहा था उसको हमेशा ऐसे हाथ पकड़ कर झुलाते झुलाते चलना पसंद नहीं। मैं जो गलबहियाँ डाल कर चलती थी, वो भी नहीं। लगभग यही वक़्त था जब मुहल्ले के बच्चे भी दूसरे गेम्स की ओर शिफ़्ट कर रहे थे। घर में टीवी आ गया था। इसी वक़्त मुहल्ले में चुग़ली भी ज़्यादा होने लगी थी। किसी के बच्चों को पीट दिया तो उसकी मम्मी घर आ जाती थी झगड़ा करने। फिर कोई नहीं सुनता था कि उसने पहले चिढ़ाया था या ऐसा ही कुछ। घर में कुटाई होती थी। यही समय था जब मारने के लिए छड़ी का इस्तेमाल होना शुरू हुआ था। उसके पहले तो मम्मी हाथ से ही मारती थी। इसी समय इस बात की ताक़ीद करनी शुरू की गयी थी कि लड़कों को मारा पीटा मत करो। और लड़के तो ख़ैर लड़के ही थे। नालायकों की तरह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। ये अघोषित नियम था कि लड़कियों को खेलाने नहीं ले जाएँगे। हमको तबसे ही क्रिकेट कभी पसंद नहीं आया। क्रिकेट ने हमें लड़की और लड़के में बाँट दिया था। 

क्लास में भी लड़के और लड़की अलग अलग बैठने लगे थे। ऐसा क्यूँ होता है मुझे आज भी नहीं समझ आता। साथ में बैठने से कौन सी छुआछूत की बीमारी लग जाएगी? सातवीं क्लास तक आते आते तो लड़कों से बात करना गुनाह। किसी से ज़्यादा बात कर लो तो बाक़ी लड़कियाँ छेड़ना शुरू कर देती थीं। हम लेकिन पिट्टो जैसे खेल साथ में खेलते थे। हमको याद है उसमें एक बार हम किसी लड़के को हींच के बॉल मार दिए थे तो वो हमसे झगड़ रहा था, इतना ज़ोर से बॉल मारते हैं, हम तुमको मारें तो…और हम पूरा झगड़ गए थे कि मारो ना…बॉल को थोड़े ना लड़की लड़का में अंतर पता होता है। पहली बार सुना था, ‘लड़की समझ के छोड़ दिए’ और हम बोले थे, हम लड़का समझ के छोड़ेंगे नहीं, देख लेना। इसके कुछ दिन बाद हमारे साथ के गेम्स ख़त्म हो गए। ठीक ठीक याद नहीं क्यूँ मगर शायद हम भरतनाट्यम सीखने लगे थे, इसलिए।

मेरे जो दोस्त 6th के आसपास के हैं, उनसे दोस्ती कुछ यूँ हैं कि आज भी मिलते हैं तो बिना लात-जुत्ते, मार-पीट के बात नहीं होती है। मगर इसके बाद जो भी दोस्त बने हैं उनके और मेरे बीच एक अदृश्य दीवार खिंच गयी थी। मुझे स्कूल के दिनों की जो बात गहराई से याद है वो ये कि मैं किसी का हाथ पकड़ के चलना चाहती थी। या हाथ झुलाते हुए काँधे पर रखना चाहती थी। छुट्टी काटना चाहती थी। इस स्पर्श को ग़लत सिखाया जा रहा था और ये मुझे एक गहरे दुःख और अकेलेपन से भरता जा रहा था। स्पर्श सिर्फ़ दोस्तों से ही नहीं, परिवार से भी अलग किया जा रहा था। कभी पापा का गले लगाना याद नहीं है मुझे। मम्मी का भी बहुत कम। छोटे भाई से लड़ाई में मार पिटाई की याद है। चुट्टी काटना, हाथ मचोड़ देना जैसे कांड थे लेकिन प्यार से बैठ कर कभी उसका माथा सहलाया हो ऐसा मुझे याद नहीं। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। 

लिखते हुए याद आ रहा है कि बचपन से कैशोर्य तक जाते हुए स्पर्श हमारी डिक्शनरी से मिटाया जा रहा था। ये शायद ज़िंदगी में पहली बार था कि मुझे लगा था कि मेरे आसपास के लोग हैं वो इमैजिनरी हैं। मैं उन्हें छू कर उनके होने के ऐतबार को पुख़्ता करना चाहती थी। कभी कभी थप्पड़ मार कर भी। ये पहली बार था कि मैंने कुछ चाहा था और उलझी थी कि सब इतने आराम से क्यूँ हैं। किसी और को तकलीफ़ क्यूँ नहीं होती। किसी और को प्यास नहीं लगती। अकेलापन नहीं लगता? सब के एक साथ गायब हो जाने का डर क्यूँ नहीं लगता। 

लिख रही हूँ तो देख रही हूँ, कितना सारा कुछ है इस बारे में लिखने को। कुछ दिन लिखूँगी इसपर। बिखरा हुआ कुछ। स्पर्श के कुछ लम्हे जो मैंने अपनी ज़िंदगी में सहेज रखे हैं। शब्द में रख दूँगी। 

तब तक के लिए, जो लोग इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं, आपने आख़िरी बार किसी को गले कब लगाया था? परिवार, पत्नी, बच्चों को नहीं…किसी दोस्त को? किसी अनजान को? किसी को भी? जा कर ज़रा एक जादू की झप्पी दे आइए। हमको थैंक्स बाद में कहिएगा। या अगर पिट गए, तो गाली भी बाद में दे सकते हैं। 

01 September, 2016

थेथरोलोजी वाया भितरिया बदमास



नोट: ये अलाय बलाय वाली पोस्ट है। आप कुछ मीनिंगफुल पढ़ना चाहते हैं तो कृपया इस पोस्ट पर अपना समय बर्बाद ना करें। धन्यवाद।
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दोस्त। आज ऊँगली जल गयी बीड़ी जलाते हुए तो तुम याद आए। नहीं। तुम नहीं। हम याद आए। तुम्हें याद है हम कैसे हुआ करते थे?
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ये वो दिन हैं जब मैं भूल गयी हूँ कि मेरे हिस्से में कितनी मुहब्बत लिखी गयी है। कितनी यारियाँ। कितने दिलकश लोग। कितने दिल तोड़ने वाले लोग। इन्हीं दिनों में मैं वो कहकहा भी भूल गयी हूँ जो हमारी बातों के दर्मयान चला आता था हमारे बीच। बदलते मौसम में आसमान के बादलों जैसा। तुम आज याद कर रहे हो ना मुझे? कर रहे हो ना?
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हम। मैं और तुम मिल कर जो बनते थे...वो बिहार वाला हम नहीं...बहुवचन हम...लेकिन हमारा हम तो एकवचन हो जाता था ना? नहीं। मैं और तुम। एक जैसे। जाने क्या। क्यूँ। कैसे। कब तक?

हम। जिन दिनों हम हुआ करते थे। मैं और तुम।
तुम्हारे घर के आगे रेलगाड़ी गुज़रती थी और मैं यहाँ मन में ठीक ठीक डिब्बे गिन लेती थी। याद है? पटना के प्लैट्फ़ॉर्म पर हम कभी नहीं मिले लेकिन अलग अलग गुज़रे हैं वहाँ से अपने होने के हिस्से पीछे छोड़ते हुए कि दूसरा जब वहाँ आए तो उसे तलाशने में मुश्किल ना हो।

हम एक ऐसे शहर में रहते थे जहाँ घड़ी ठीक रात के आठ बजे ठहर जाती थी। तब तक जब तक कि जी भर बतिया कर हमारा मन ना भर जाए। गंगा में आयी बाढ़ जैसी बातें हुआ करती थीं। पूरे पूरे गाँव बहते थे हमारे अंदर। पूरे पूरे गाँव रहते थे हमारे अंदर। नहीं? इन गाँवों के लोग कितना दोस्ताना रखते थे एक दूसरे से। दिन में दस बार तो आना जाना लगा हुआ रहता था। कभी धनिया पत्ता माँगने तो कभी खेत से मूली उखाड़ने। झालमूढ़ि में जब तक कच्चा मिर्चा और मूली ना मिले, मज़ा नहीं आता। झाँस वाला सरसों का तेल। थोड़ा सा चना। सीसी करते हुए खाते जाना। तित्ता तित्ता।

लॉजिक कहता है तुम वर्चुअल हो। आभासी। आभासी मतलब तो वो होता है ना जिसके होने का पहले से पता चल जाए ना? उस हिसाब से इस शब्द का दोनों ट्रान्सलेशन काम करता है। याद क्यूँ आती है किसी की? इस बेतरह। क्या इसलिए कि कई दिनों से बात बंद है? तुमसे बात करना ख़ुद से बात करने को एक दरवाज़ा खोले रखना होता था। तुमसे बात करते हुए मैं गुम नहीं होती थी। तुम ज़िद्दी जो थे। अन्धार घर में भुतलाया हुआ माचिस खोजना तुमरे बस का बात था बस। हम जब कहीं बौरा कर भाग जाने का बात उत करने लगते थे तुम हमको लौटा लाते थे। मेरे मर जाने के मूड को टालना भी तुमको आता था। बस तुमको। सिर्फ़ एक तुमको।

सुगवा रे, मोर पाहुना रे, ललका गोटी हमार, तुम रे हमरे पोखर के चंदा...तुम हमरे चोट्टाकुमार। जानते हो ना सबसे सुंदर क्या है इस कबीता में? इस कबीता में तुम हमरे हो...हमार। उतना सा हमरे जितना हमारे चाहने भर को काफ़ी हो। कैसे हो तुम इन दिनों? हमारे वो गाँव कैसे उजड़ गए हैं ना। बह गए सारे लोग। सारे लोग रे। आज तुम्हारा नाम लेने का मन किया है। देर तक तुमसे बात करने का मन किया है। इन सारे बहे हुए लोगों और गाँवों को गंगा से छांक कर किसी पहाड़ पर बसा देने का मन किया है। लेकिन गाँव के लोग पहाड़ों पर रहना नहीं जानते ना। तुम मेरे बिना रहना जानते हो? हमको लगता था तुम कहीं चले गए हो रूस के। घर का सब दरवाज़ा खुला छोड़ के। लेकिन तुम तो वहीं कोने में थे घुसियाए हुए। बीड़ी का धुइयाँ लगा तो खाँसते हुए बाहर आए। आज झगड़ लें तुमसे मन भर के? ऐसे ही। कोई कारण से नहीं। ख़ाली इसलिए कि तुमको गरिया के कलेजा जरा ठंढा पढ़ जाएगा। बस इसलिए। बोलो ना रे। कब तक ऐसे बैठोगे चुपचाप। चलो यही बोल दो कि हम कितना ख़राब लिखे हैं। नहीं? कहो ना। कहो कि बोलती हो तो लगता है कि ज़िंदा हो।

मालूम है। इन दिनों मैंने कुछ लिखा नहीं है। वो जो लिखने में सुख मिलता था, वो ख़त्म हो गया है। कि मैंने बात करनी ही बंद कर दी है। काहे कि हमेशा ये सोचने लगी हूँ कि ये भी कोई लिखने की बात है। वो जो पहले की तरह होता था कि साला जो मेरा मन करेगा लिखेंगे, जिसको पढ़ना है पढ़े वरना गो टू द (ब्लडी) भाड़। इन दिनों लगता है कि बकवास लिखनी नहीं चाहिए, बकवास करनी भी नहीं चाहिए। लेकिन वो मैं नहीं हूँ ना। मैं तो इतना ही बोलती हूँ। तो ख़ैर। जिसको कहते हैं ना, टेक चार्ज। सो। फिर से। लिखना इसलिए नहीं है कि उसका कोई मक़सद है। लिखना इसलिए है कि लिखने में मज़ा आता था। कि जैसे बाइक चलाने में। तुम्हें फ़ोन करके घंटों गपियाने में। तेज़ बाइक चलाते हुए हैंडिल छोड़ कर दोनों हाथ शाहरुख़ खान पोज में फैला लेने में। नहीं। तो हम फिर से लिख रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए। जो मन सो।

हम न आजकल बतियाना बंद कर दिए हैं। लिखना भी। जाने क्या क्या सोचते रहते हैं दिन भर। पढ़ते हैं तो माथा में कुछ घुसता ही नहीं है। चलो आज तुमको एक कहानी सुनाते हैं। तुम तो नहींये जानते होगे। ई सब पढ़ सुन कर तुमरे ज्ञान में इज़ाफ़ा होगा। ट्रान्सलेशन तो हम बहुत्ते रद्दी करते हैं, लेकिन तुम फ़ीलिंग समझना, ओके? तुम तो जानते हो कि हारूकी मुराकामी मेरे सबसे फ़ेवरिट राईटर हैं इन दिनों। तो मुराकामी का जो नॉवल पढ़ रहे हैं इन दिनों उसके प्रस्तावना में लिखते हैं वो कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कई काम उलटे क्रम से किए हैं। उन्होंने पहले शादी की, फिर नौकरी, और आख़िर में पढ़ाई ख़त्म की। अपने जीवन के 20s में उन्होंने Kokubunji में एक छोटा सा कैफ़े खोला जहाँ जैज़ सुना जा सकता था। वो लिखते हैं कि 29 साल की उम्र में एक बार वे एक खेल देखने गए थे। वो साल १९७८ का अप्रील महीना था और जिंग़ु स्टेडीयम में बेसबाल का गेम था। सीज़न का पहला गेम Yakult Swallows against the Hiroshima Carp। वे उन दिनों याकुल्ट स्वालोज के फ़ैन थे और कभी कभी उनका गेम देखने चले जाते थे। वैसे स्वॉलोज़ माने अबाबील होता है। अबाबील बूझे तुम? गूगल कर लेना। तो ख़ैर। मुराकामी गेम देखने के लिए घास पर बैठे हुए थे। आसमान चमकीला नीला था, बीयर उतनी ठंढी थी जितनी कि हो सकती थी, फ़ील्ड के हरे के सामने बॉल आश्चर्यजनक तरीक़े से सफ़ेद थी...मुराकामी ने बहुत दिन बाद इतना हरा देखा था। स्वालोज का पहला बैटर डेव हिल्टन था। पहली इनिंग के ख़त्म होते हिल्टन ने बॉल को हिट किया तो वो क्रैक पूरे स्टेडियम में सुनायी पड़ा। मुराकामी के आसपास तालियों की छिटपुट गड़गड़ाहट गूँजी। ठीक उसी लम्हे, बिना किसी ख़ास वजह के और बिना किसी आधार के मुराकामी के अंदर ख़याल जागा: 'मेरे ख़याल से मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'।

अंग्रेज़ी में ये शब्द, 'epiphany' है। मुझे अभी इसका ठीक ठीक हिंदी शब्द याद नहीं आ रहा।

मुराकामी को थी ठीक वो अहसास याद है। जैसे आसमान से उड़ती हुयी कोई चीज़ आयी और उन्होंने अपनी हथेलियों में उसे थाम लिया। उन्हें मालूम नहीं था कि ये चीज़ उनके हाथों में क्यूँ आयी। उन्हें ये बात तब भी नहीं समझ आयी थी, अब भी नहीं आती। जो भी वजह रही हो, ये घटना घट चुकी थी। और ठीक उस लम्हे से उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी थी।

खेल ख़त्म होने के बाद मुराकामी ने शिनजकु की ट्रेन ली और वहाँ से एक जिस्ता काग़ज़ और एक फ़ाउंटेन पेन ख़रीदा। उस दिन उन्होंने पहली बार काग़ज़ पर कलम से अपना नॉवल लिखना शुरू किया। उस दिन के बाद से हर रोज़ अपना काम ख़त्म कर के सुबह के पहले वाले पहर में वे काग़ज़ पर लिखते रहते क्यूँकि सिर्फ़ इसी वक़्त उन्हें फ़ुर्सत मिलती। इस तरह उन्होंने अपना पहला छोटा नॉवल, Hear the Wind Sing लिखा।

कितना सुंदर है ऐसा कुछ पढ़ना ना? मुझे अब तो वे दिन भी ठीक से याद नहीं। मगर ऐसा ही होता था ना लिखना। अचानक से मूड हुआ और आधा घंटा बैठे कम्प्यूटर पर और लिख लिए। ना किसी चीज़ की चिंता, ना किसी के पढ़ने का टेंशन। हम किस तरह से थे ना एक दूसरे के लिए। पाठक भी, लेखक भी, द्रष्टा भी, क्रिटिक भी। लिखना कितने मज़े की चीज़ हुआ करती थी उन दिनों। कितने ऐश की। फिर हम कैसे बदल गए? कहाँ चला गया वो साधारण सा सुख? सिम्पल। साधारण। सादगी से लिखना। ख़ुश होना। मुराकामी उसी में लिखते हैं कि वो ऐसे इंसान हैं जिनको रात ३ बजे भूख लगती तो फ्रिज खंगालते हैं...ज़ाहिर तौर से उनका लिखना भी वैसा ही कुछ होगा। तो बेसिकली, हम जैसे इंसान होते हैं वैसा ही लिखते हैं।

बदल जाना वक़्त का दस्तूर होता है। बदलाव अच्छा भी होता है। हम ऐसे ही सीखते हैं। बेहतर होते हैं। मगर कुछ चीज़ें सिर्फ़ अपने सुख के लिए भी रखनी चाहिए ना? ये ब्लॉग वैसा ही तो था। हम सोच रहे हैं कि फिर से लिखें। कुछ भी वाली चीज़ें। मुराकामी। मेरी नयी मोटरसाइकिल, रॉयल एंफ़ील्ड, शाम का मौसम, बीड़ी, मेरी फ़ीरोज़ी स्याही। जानते हो। हमारे अंदर एक भीतरिया बदमास रहता है। थेथरोलौजी एक्सपर्ट। किसी भी चीज़ पर घंटों बोल सकने वाला। जिसको मतलब की बात नहीं बुझाती। होशियार होना अच्छा है लेकिन ख़ुद के प्रति ईमानदार होना जीने के लिए ज़रूरी है। हर कुछ दिन में इस बदमास को ज़रा दाना पानी देना चाहिए ना?

और तुम। सुनो। बहुत साल हो गए। कोई आसपास है तुम्हारे? लतख़ोर, उसको कहो मेरी तरफ़ से तुम्हें एक bpl दे...यू नो, bum पे लात :)

कहा नहीं है इन दिनों ना तुमसे।
लव यू। बहुत सा। डू यू मिस मी? क्यूँकि, मैं मिस करती हूँ। तुम्हें, हमें। सुनो। लिखा करो। 

04 September, 2015

राइटर्स डायरी: मिडनाइट मैडनेस

जिन्हें आता है लिखना. और जो जानते हैं मेरा पता. जिन्होंने कभी मेरे शब्दों को पढ़ कर सोचा कि मैंने उनके मन की बात लिखी है. जिनके पास है कलमें. सस्तीं. महँगी. टूटी हुयी या कि साबुत. जिन्हें बचपन में माँ ने ऊँगली पकड़ के लिखना सिखाया हिंदी का ककहरा और जिन्होंने स्कूल में सीखी होगी अंग्रेजी. जो कि बात कर सकते हैं दो भाषाओं में या कि किसी एक में भी.

जिनका इतना बनता है हक कि मुझसे पूछ सकें...अपना पता दो, तुम्हें ख़त लिखना है. जिन्होंने कभी नहीं किया मुझसे प्यार. वे कि जो मेरे साथ घूम कर आये हैं दुनिया के बहुत से उदास शहर. जो कि मेरी सिसकी सुनते हैं जब मैं पोलैंड के यातना शिविर से लिखती हूँ शब्दों को अनवरत. 

जो कि रहते हैं मेरे शहर में. सांस लेते हैं इसी मौसम में कि जो सर्द हो कर भरता जाता है मेरे लंग्स में उदासियाँ. वो भी जिन्होंने चखी है ब्लैक कॉफ़ी शौक़ में मेरे साथ...और इस वाहियात आदत को भूल आये हैं किसी बिसरी हुयी गली.

जिनके पास जिद की है कभी कि लिखो कि तुम्हारे लिखने से ज़िंदा हो उठती हूँ मैं...तुम्हारे शब्दों से आती है संजीवनी की गंध. जिन्होंने भेजी है मेरे नाम किताबें बगैर चिट्ठियों के.

जो कि मुस्कुराते हैं जब मेरी उंगलियों से झरते हैं ठहाके और मेरी किताब में मिलते हैं उन्हें छुपाये हुए मोरपंख...चौक का चूरा और आधी खायी हुयी पेंसिलें. वे जिन्हें मालूम है मेरी पसंद की फिल्में...मेरे पसंद का संगीत...और मेरे पसंद के लोग. कि जो जानते हैं कि डाइनिंग टेबल पर रखे पौधे का इक नाम है. और कि बोगनविला में पानी देते हुए मैं कौन सा गीत गुनगुनाती हूँ. 

मेरी आँखों का रंग. मेरी आवाज़ का डेसीबेल. मेरी चुप्पी की चाबी. मेरी पसंदीदा कलर की शर्ट और मेरे फेवरिट झुमके. 

अगर कभी मैंने वाकई जान दे दी तो तुम क्या कह कर खुद को समझाओगे?
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सोचती है लड़की और फिर मुल्तवी करती है डायरी लिखना. पूछती है खुद से कि इतनी तकलीफ क्यों होती है उसे छोटी छोटी बातों पर. दोस्तों से बात करना पसंद क्यों नहीं है उसे. और ये भी पूछना चाहती है खुद से कि उसने हरी स्याही से लिखना क्यूँ शुरू किया है. उसे मालूम है इस रंग का जहर जिंदगी को सियाह करता जाता है.

उसकी पसंद के सारे आर्टिस्ट्स जल्द रुखसत हो गए हैं दुनिया से. उसे उनसे मिलने का मन करता है. दोस्तियाँ. विस्कियाँ. सिगरेटें. सारी बुरी आदतें छोड़ देना चाहती है वो. पढ़ती है नीत्ज़े को. "Be careful, lest in casting out your demon you exorcise the best thing in you." इक अँधेरी कालकोठरी में धकेल देती है पिंजरा. उसकी परछाई कैद थी उसमें. मोहल्ले की आंटियों का दिया हुआ 'बुरी लड़की' का तमगा. कॉलेज में साथियों के लिखे नोट्स...'यू आर वेरी डोमिनेटिंग', सर के साथ की गयी जिद...मुझे नहीं करना किसी के साथ कोई ग्रुप प्रोजेक्ट. मैं अकेले कर लूंगी. पिछले कई सालों के मेंटल सुसाइड लेटर्स. सोचना कि किसी का नाम भी लिखना है आखिरी ख़त में या नहीं.

फेसबुक आप्शन देता है कि आप किसी को नोमिनेट कर दें कि आपकी मृत्यु के बाद वो आपके अकाउंट को हैंडल कर सके. फेसबुक की पहुँच को देखते हुए लगता है कि वो मीडियम्स से जल्दी ही कोई कॉन्ट्रैक्ट कर लेंगे. मरने के बाद भी आप इन सर्टिफाइड मीडियम्स के थ्रू अपने फेसबुक फ्रेंड्स से कांटेक्ट में रहेंगे. जहन्नुम या स्वर्ग, जहाँ भी आप गए वहाँ से पोस्ट्स भेज सकेंगे. मैं बस यही सोच कर परेशान होती हूँ कि स्वर्ग में हमेशा अप्सराएं नाच रही होती हैं...मेरे देखने को वहाँ क्या है? जिंदगी तो जिंदगी, मरने के बाद भी भेदभाव होगा...आपने कभी किसी पुरुष अप्सरा के बारे में सुना है? हाँ एक आध गन्धर्व होंगे, मगर कोई रम्भा, मेनका, उर्वशी टाइप फेमस हो, ऐसा भी नहीं है. क्या मुसीबत है. इससे अच्छा तो जी ही लें. या फिर जो सबसे खूबसूरत और सही ऑप्शन है...जहन्नुम के दरवाजे खुले ही हैं हमारे लिए. यूँ भी इतने काण्ड मचा डाले हैं...बहुत हुआ तो एक आध पैरवी लगेगी और क्या. 

मेरे पागलपन का लिखने के अलावा कोई इलाज़ भी नहीं है. ब्लॉग पर पिछले दस साल से लिखते हुए ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं और लिखने का मन भी नहीं करता. कुछ दिन ऐसे ही मौसम चलेंगे इधर. मूड के हिसाब से. आपको अच्छी चीज़ें पढ़ने का शौक़ है तो किताबें पढ़ा कीजिए. मैंने इधर हाल में हरुकी मुराकामी की नॉर्वेजियन वुड और काशी का अस्सी पढ़ी हैं. मुराकामी मेरे पसंदीदा लेखक हैं...ये किताब शायद बहुत दिनों तक मेरी फेवरिट रहेगी. काशी का अस्सी उतनी अच्छी नहीं लगी...बीच में बोरियत भी हुयी...पर कुछ टुकड़ों में अच्छी किताब है. मैंने फिल्म मोहल्ला अस्सी का ट्रेलर देखा था और सोच रही थी कि किताब ऐसी ही है या डायरेक्टर ने सिनेमेटिक लिबर्टीज ली हैं. फिल्म देखे बिना ठीक ठीक कहना मुश्किल है.

मेरा हाथ इक्कीस जुलाई को टूटा था. पिछले कुछ दिनों में बहुत सी फिल्में देखीं. किताबें पढ़ीं. सोचा बहुत कुछ. दिन दिन भर इंस्ट्रुमेंटल म्यूजिक सुना. कल से एक्सरसाइज करना है. धीरे धीरे हाथ में भी मूवमेंट आ जायेगी. बाइक चलाने में जाने कितने दिन लगेंगे. कार एक्सीडेंट के बाद टोटल लॉस डिक्लेयर कर दी गयी है. लौट कर घर नहीं आएगी. अब कोई नयी कार खरीदनी होगी. उदास हूँ. बहुत ज्यादा. पापा कहते हैं चीज़ों से इतना जुड़ाव नहीं होना चाहिए. मैं सोचती हूँ. लोगों से जुड़ाव कोई कम तकलीफ देता हो ऐसा भी तो नहीं है.

अब कुछ दिन एकतरफा बातें होंगी. बातों का मीडियम तलाश रही हूँ. ब्लॉग. पोडकास्ट. डायरी. कुछ ऐसा ही. पिछले दस सालों में जिन लोगों के साथ ब्लॉग्गिंग शुरू की थी, उनमें से बहुत कम लोग आज भी लिखते हैं. रेगुलर तो कोई भी नहीं लिखता. पहले ब्लॉग और उसपर कमेंट्स की कड़ी हुआ करती थी. वो दिन लौट कर तो क्या ही आयेंगे अब. स्पैम के कमेंट्स के कारण मैंने मोडरेशन लगा दिया है ब्लॉग पर. फिर भी कभी कभी दिल करता है कि कुछ न सुनूं...जैसे कि आज. अभी.

बहरहाल...
थे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद

उन से जो कहने गये थे "फ़ैज़" जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद

18 December, 2014

सिगरेट सा सुलगता पहाड़ों पर इश्क़

पहाड़ों को पहली बार कोई दो साल की उम्र में देखा था. केदारनाथ जाते हुए मम्मी के पोंचु में से जरा सा झाँक के...बर्फ़बारी हो रही थी. हम पालकी में थे. मुझे याद है वो सारा नज़ारा. बहुत सी बर्फ थी. पापा साथ चल रहे थे. मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि मुझे बहुत छोटे छोटे बचपन की बहुत सारी चीज़ें कैसे याद हैं एकदम साफ़ से. केदारनाथ मंदिर हम लोग...पापा, मम्मी, बाबा और दादी गए थे. मुझे हरिद्वार का गंगा का घाट भी याद है. ठंढ याद है. बाबा और दादी को चारों धाम ले जाने के लिए पापा एलटीसी का प्रोग्राम बनाए थे. इसी सिलसिले में ऋषिकेश का लक्ष्मण झूला, हरिद्वार में हर की पौड़ी और केदारनाथ का मंदिर था.

जब से मम्मी नहीं है बचपन की सारी बातें भूलती जा रही हूँ. लगता था कि बचपन कभी था ही नहीं. इधर नानी भी नहीं रही तो बचपन की सारी कहानियां गुम ही गयीं थीं. बस एक आध तसवीरें थीं और स्कूल की कुछ यादें. पिछले महीने घर गयी तो पापा के साथ थोड़ा सा ज्यादा वक्त बिताने को मिला. इस उम्र में पापा से जितनी बात करती हूँ बहुत हद तक खुद को समझने में मदद मिलती है. लगता है कि मेरा सिर्फ चेहरे का कट, भवें और आँखें पापा जैसी नहीं हैं...बहुत हद तक मेरा स्वाभाव पापा से आया है. भटकने और फक्कड़पने का अंदाज एकदम पापा जैसा है. बिना पैसों के वालेट लिए घूमना. किसी यूरोपियन शहर में किसी म्यूजिक आर्टिस्ट की सीडी खरीदने के लिए लंच के लिए रखे पैसे फूंक डालना. सब पापा से आया है. इस बार पापा ने एक घटना सुनाई...जो मुझे कुछ यूँ याद थी जैसे धुंधला सपना कोई. समझ ये भी आया कि आर्मी के प्रति ये दीवानगी कहाँ से आई है कि आज भी एस्केलेटर पर कोई फौजी दो सीढ़ी पहले आगे जा रहा होता है तो दिल की धड़कनें आउट ऑफ़ डिसिप्लिन हुयी जाती हैं. कार चलाते हुए आगे अगर कोई आर्मी का ट्रक होता है तो हरगिज़ ओवेर्टेक नहीं करती हूँ. पागलों जैसी मुस्कुराते चलती हूँ धीरे धीरे उनके पीछे ही. दार्जलिंग से गैंगटोक और फिर छंगु लेक जाते हुए आर्मी एरिया से गुजरते हुए जवानों के साथ फोटो खिंचाना भी याद आता है. 

उफ़ कहाँ गयी वो क्यूटनेस!
बहरहाल...एक बार पापा और मम्मी मेरे साथ कहीं से आ रहे थे...रेलवे में फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में उन दिनों कूपे हुआ करते थे. कुछ स्टेशन तक कोई भी नहीं आया तो पापा लोग काफी खुश थे कि लगता है कि और कोई नहीं आएगा तो पूरा कूपा अपना हुआ. फिर थोड़ी देर में कुछ जवान आके सामान रख आये...होल्डाल वगैरह था...फिर दो लोग आ के बैठे. पापा बताये कि थोड़ा डर लगा कि काफी हाई रैंकिंग ओफिसियल था...और पूरी बोगी में सिर्फ आर्मी के जवान ही थे. उस वक़्त पापा जस्ट कुछ दिन पहले नौकरी ज्वाइन ही किये थे. तो नार्मल बात चीत हुयी...पापा ने बताया कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करते हैं. फिर हमको देखा और पूछा...आपकी बेटी है...पापा बोले कि हाँ...फिर मेरी ओर हाथ बढ़ाया...और हम फट से उसकी गोदी में चढ़ गए. फिर पूरे रास्ता हम हाथों हाथ घूमे...कहीं अखरोट खा रहे हैं...कहीं कुछ सामान फ़ेंक रहे हैं...कहीं किलक रहे हैं...कहीं भाग रहे हैं...और पटना आते आते सारे जवानों की आँखों का तारा बनी हुयी हूँ. उसमें से जो ओफ्फिसियल था, वो हाथ देखा मेरा और पापा को बोला...सर ये लड़की जहाँ भी जायेगी इसी तरह छा जायेगी कि लोग इसे अपनी तलहत्थी पर रखेंगे...बस एक बात का ध्यान रखियेगा कि इस पर कभी शासन करने की कोशिश नहीं कीजियेगा. हम छोटे से थे. बात आई गयी हो गयी. पापा बता रहे थे कि आपको आज देखते हैं कि जहाँ हैं वहां इसी तरह सबका दिल जीते हुए हैं तो लगता है उसकी बात में कोई बात थी. ये रेलवे वाली बात धुंध धुंध सपनों में आती रही है कई बार. मैं देखती हूँ कि कोई छोटी सी लड़की है. एकदम सेब जैसे गालों वाली. अखरोट का पहला स्वाद भी वहीं से याद में है.

इधर कुछ दिन से फिर से कहीं भाग जाने का दिल करने लगा है. समझ नहीं आता है कि क्यूँ होता है ऐसा. मेरे बकेट लिस्ट में एक लम्बी यात्रा सबसे ऊपर है. अकेले. बुलेट पर. लड़कियां नॉर्मली ऐसी ख्वाहिशें नहीं पालतीं...उनमें हुनर होता है ऐसी किसी ख्वाहिश का बचपन में ही गला घोंट कर मार देने का. एक मैं हूँ...चिंगारी चिंगारी सी हवा दे रही हूँ. इस बार कहीं नौकरी पकड़ी तो पक्का अपने लिए एक बुलेट खरीदूंगी. मुझे डर क्यूँ नहीं लगता. मैं इस कदर बेपरवाह होकर क्यूँ हँस सकती हूँ. कल सब्जी की दूकान में खड़े आलू प्याज उठा रहे थे और याद करके बाकी चीज़ भी...बड़बड़ा रहे थे कि डॉक्टर बाइक चलाने से मना किया है तो घर में सारा सामान ख़त्म है. दुकानदार बोला कि मैडम आप बाइक थोड़े चलाती हैं...आप तो प्लेन चलाती हैं...टेक ऑफ कर जायेगी बाइक आपकी इतनी तेज़ चलती है. 

बंगलौर में रहते हुए पहाड़ों से प्यार ख़त्म हो गया था. यहाँ ठंढ इतनी पड़ती है कमबख्त कि हर छुट्टियों में हम समंदर और धूप की ओर भागते हैं. इधर याद में फिर से दार्जलिंग, कुल्लू मनाली और गुलमर्ग खिल रहे हैं. घाटियों से उठते बादल. बेहद ठंढ में दस्ताने पहनना और मुंह से भाप निकालना. मॉल रोड पर खड़े होकर रंग बिरंगे लोगों को गुज़रते देखना. घुमावदार सड़कों का थ्रिल. धुंध धुंध चेहरों का सामने आना मुस्कुराते हुए. पहाड़ों से किसी को नया प्यार नहीं होता...पहाड़ों से हमेशा पुराना प्यार ही होता है. बाइक लिए रेस लगाने का दिल करता है. खुली जीप में दुपट्टा उड़ाने का दिल भी. ऊंची जगहों से अचानक छलांग लगा देने का दिल करता है हमेशा मेरा...L'appel du vide एक फ्रेंच टर्म है, अंग्रेजी में The call of the void... खालीपन... निर्वात जो खींचता है... अपने अन्दर गहरे छलांग लगा देने को. इस बार मगर दिल करता है कि एक कैमरा और नोटबुक लिए जाएँ. बहुत सी तसवीरें खींचें और बहुत सी कहानियां सुनूं...लिखती चलूँ जाने कितनी सारी कवितायें. इस बार किसी छोटे से फारेस्ट गेस्टहाउस में बैठ कर देखूं बादल का ऊपर चढ़ना. सिगड़ी में सेंकूं हाथ. विस्की का सिप मारूँ. सिगरेट पियूँ किसी व्यूपॉइंट पर सबसे सुबह की कड़ाके की ठंढ में जा के. बहुत कुछ कैमरा में कैप्चर करूँ कि जैसे सूरज का उगना. बहुत कुछ आँखों में कैप्चर करूँ जैसे कि अचानक बने दोस्त. पीछे छूटते शहर.

जिंदगी पूरी नहीं पड़ती...कितना कुछ और चलते रहता है पैरलली...कितने शहर खुलते रहते हैं मेरे अन्दर...कल देर रात कुछ शहरों को गूगल मैप पर देख रही थी. पहाड़ों पर टिम टिम दिवाली याद आ रही थी, वैष्णोदेवी से देखना कटरा में फूटते पटाखे. गूगल मैप बताता रहता है कितना कम दूर है सब कुछ...हाथ बढ़ा के छूने इतना. जिंदगी फिसलती जा रही है. अरमानों को ब्लैकलिस्ट करते जा रही हूँ. कितने अफ़सोस बाकी रह जायेंगे. खुदा...यूँ ही फक्कड़पने और आवारगी में उड़ा देने के लिए एक जिंदगी और. 

11 December, 2013

सवालों का बरछत्ता

मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?

कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?

मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा। 

06 October, 2013

इतवारी डायरी: सुख

ऑफिस के अलावा फ्री टाइम जो भी मिलता है उसमें मुझे दो ही चीज़ें अच्छी लगती हैं. पढ़ना या फिर लिखना. कभी कभी इसके अलावा गाने सुनना शामिल होता है. घर के किसी काम में आज तक मेरा मन नहीं लगा. कपड़े तार पर फैलाना जरा सा अच्छा लगता है बस. इस सब के बावजूद, फॉर सम रीजन मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूँ, पंगा ये है कि खाना बहुत कम बनाती हूँ. उसमें भी मन से खाना बनाना बहुत ही रेयर ओकेजन होता है. कल दुर्गा पूजा शुरू हो गयी. पहली पूजा थी तो सोचा कि कुछ अच्छा करूँ. कुक आई तो नींद के मारे डोल रही थी सो उसे वापस भेज दिया. 


शायद त्योहारों के कारण होगा कि खाना बनाने का मूड था. उसपर घर में अब दस दिन प्याज लहसुन नहीं बनेगा तो खाना बनाना अपने घर जैसा लगता है. सब्जी के नाम पर खाली सीम था घर में. पहले सोचे कि पूड़ी सब्जी बनाएं फिर लगा कि पराठा बनाते हैं. पराठा के साथ बाकी चीज़ खाने का भी स्कोप होता है. फिर तेल में जीरा नहीं डाले बल्कि पचफोरना डाले. खाली फोरन अलग डालने से स्वाद का कितना अंतर आ जाता है ये देखने का दिन भी कभी कभी बनता है. सब सब्जी का बनते हुए अलग गंध होता है, हमको उसमें सीम का बहुत ज्यादा पसंद है. कल लेकिन बिना पूजा किये खा नहीं सकते थे तो खाली सूंघ के ही खुश हो लिए. सीम और छोटा छोटा कटा आलू, फिर मसाला डाल के भूने. फिर टमाटर डाल के और भूने. फिर ऐसे ही मन किया तो एक चम्मच दही डाल दिए. सरसों पीसने का बारी आया तो फिर कन्फ्यूज, हमको कभी नहीं याद रहता कि काला सरसों किसमें पड़ता है और पीला सरसों किसमें, काला सरसों पीसे मिक्सी में और थोड़ा सा सब्जी में डाले. लास्ट में नमक. 

तब तक देखे कि नीचे एक ठो सब्जी वाला है, उसके पास पालक था. उसको रुकने को बोले. भागते हुए पहले शॉर्ट्स चेंज किये. तमीज वाला पजामा पहने फिर नीचे गए तो देखे कि एक ठो बूढ़े बंगाली बाबा हैं साइकिल पर. बंगाली उनके टोन से बुझा गया. पता नहीं काहे...दुर्गा पूजा था इसलिए शायद. बहुत अच्छा लगा. घर जैसा. फिर पलक ख़रीदे, धनिया पत्ता, पुदीना, हरा मिर्ची...जितना कुछ था, सब थोड़ा थोड़ा ले लिए. अब ध्यान आया कि कितना अंतर आया है पहले और अब में. पन्नी लेकर आये नहीं थे, और अब दुपट्टा होता नहीं था कि उसी में बाँध लिए आँचल फैला कर. खैर. मुस्कुराते हुए आये तो लिफ्ट लेने का मन नहीं किया. फर्लान्गते हुए चार तल्ला चढ़ गए. ऊपर आये तो देखे गनीमत है कुणाल सो ही रहा है. 

फिर दाल में पालक डाल के चढ़ा दिए. धनिया पत्ता एकदम फ्रेश था तो सोचे चटनी बना देते हैं. फिर उस बूढ़े बाबा के बारे में सोच रहे थे. कहीं तो कोई कहानी पढ़े थे कि अपने अपने घर से सब बाहर निकलते जाते हैं, नौकरी के लिए, अंत में आखिर क्या मिलता है हाथ में. वही दो रूम का फ़्लैट खरीद कर रहते हैं लोग. पापा अपने गाँव से बाहर निकले. हम लोग देवघर से बाहर निकले. कल को हमारे बच्चे शायद किसी विदेश के शहर में सेटल हो जायें. रिफ्यूजी हैं हम लोग. अपने शहर से निकाले हुए, वही एक शहर हम अपने दिल में बसाए चलते हैं. खाना बनाते हुए पुराने गाने सुन रहे थे. बिना गाना बजाये हम कोई काम नहीं कर सकते. या तो पुराना गाना बजाते हैं, किशोर कुमार या रफ़ी या फिर सोनू निगम. इसके अलावा कोई पसंद नहीं आता हमें. 

कहते हैं त्यौहार के टाइम के खाना में बहुत टेस्ट होता है. कल खाना इतना अच्छा बना था कि क्या बताएं. दाल वैसी ही मस्त, चटनी एकदम परफेक्ट और सब्जी तो कालिताना था एकदम. कुणाल कितना सेंटी मारा कि रे चोट्टी, इतना बढ़िया खाना बनाती है, कभी कभी बनाया नहीं जाता है तुमको. आज बनायी है पता नहीं फिर अगले महीने बनाएगी. इतना अच्छा सब चीज़ देख कर उसको चावल खाने का मन करता है, तो भात चढ़ा दिए कूकर में. वो खाना बहुत खुश हो कर खाता है. हमको खाने से कोई वैसा लगाव नहीं रहा कभी. कभी भी खाना बनाते हैं तो यही सोच कर कि वो खा कर कितना खुश होगा. वही ख़ुशी के मारे खाना बना पाते हैं. 

कल कैसा तो मूड था. पुरानी फिल्मों टाईप. साड़ी पहनने का मन कर रहा था. परसों बाल कटवाए थे रात को तो कल अच्छे से शैम्पू किये. कंधे तक के बाल हो गए हैं, छोटे, हलके. अच्छा लगता है. चेंज इज गुड टाइप्स. भगवान को बहुत देर तक मस्का लगाए कल. शुरू शुरू में पूजा करने में एकदम ध्यान नहीं लगता है, बाकी सब चीज़ पर भागते रहता है. बचपन में नानाजी के यहाँ जाते थे हमेशा दशहरा में. आरती के टाईम हम, जिमी, कुंदन चन्दन सब होते थे. हम और कुंदन शंख बजाते थे, जिमी और चन्दन घंटी. आरती का आखिरी लाइन आते आते बंद आँख में भी वो ओरेंज कलर वाला मिठाई घूमने लगता था. इतने साल हो गए, अब भी आरती की आखिरी लाइन पर पहुँचती हूँ तो मिठाई ही दिखती है सामने. अजीब हंसने रोने जैसा मूड हो जाता है. शंख फूंकना अब भी दहशरा का मेरा पसंदीदा पार्ट है. 

खाना का के मीठा खाने का मन कर रहा था तो कल खीर भी बना लिए. गज़ब अच्छा बना वो भी. खूब सारा किशमिश, काजू और बादाम डाले थे उसमें. शाम को घूमने निकले. फॉर्मल सैंडिल खरीदने का मन था. वुडलैंड में गए तो माथा घूम गया. पांच हज़ार का सैंडिल. बाप रे! फिर कल एक ठो रे बैन का चश्मा ख़रीदे. बहुत दिन से ताड़ के रखे थे. हल्का ब्लू कलर का है. टहलते टहलते गए थे. दो प्लेट गोलगप्पा खाए कुणाल के साथ. फिर पैदल घर. मूड अच्छा रहता है तो रोड पर भी गाना गाते रहते हैं, थोड़ा थोड़ा स्टेप भी करते रहते हैं. कुणाल मेरी खुराफात से परेशान रहता है और मेरा हाथ पकड़े चलता है कि किसी गाड़ी के सामने न आ जाएँ हम. 

आज सुबह उठे सात बजे. धूप खाए. बड़ा अच्छा लगा. फिर सोचे कि दौड़ने चले जायें. अस्कतिया गए. रस्सी कूदने का महान कार्य संपन्न किये. ५०० बार. अपना पीठ ठोके. नौट बैड. ऐब क्रंचेस. १६ के तीन सेट. अब हम आज के हिस्से का खाना बाहर खाने लायक कैलोरी जला लिए हैं. काम वाली तीन दिन के छुट्टी पर गयी है. सुबह से कमर कसे कि बर्तन धोयेंगे. अभी जा के ख़तम हुआ है सारा. किचन चकचका रहा है. अब झाडू पोछा मारेंगे. फिर पूजा करेंगे और निशांत लोग के साथ बाहर खाने जायेंगे. कल एक नया शर्ट ख़रीदे थे लाल रंग का. आज वही पहनने का मूड है. नया कपड़ा पहनने के नामे मिजाज लहलहा जाता है. 

इतना काम करके बैठे हैं. देह का पुर्जा पुर्जा दुखा रहा है. एक कप कॉफ़ी पीने का मन है मगर अनठिया देंगे अभी. तैयार होके निकलना है. सोच रहे हैं सुख क्या होता है. कभी कभी घर का छोटा छोटा काम भी वैसा ही सुख देता है जैसे मन में आई कोई कहानी कागज़ पर उतार दिए हों. अभी दो ठो कहानी आधा आधा पड़ा है ड्राफ्ट में. उसको लिखेंगे नहीं. आराम फरमाएंगे. भर बैंगलोर भटक कर एगो व्हाईट शर्ट खरीदेंगे. कुणाल का माथा खायेंगे. बचा हुआ सन्डे आराम करेंगे. बहुत सारा केओस है पूरी दुनिया में. कितना कुछ बिखरा हुआ है. बहुत सी फाइल्स हार्ड डिस्क से कॉपी करनी हैं रेड वाले लैपटॉप में. एक फॉर्मल सैंडिल खरीदनी है. कपड़े धोने हैं. मगर अभी. मैं कुछ नहीं कर रही.

मैं खाना खाती हूँ तो वो बड़े गौर से देखता है. कल चिढ़ा रहा था कि मेरे इतना खाते वो किसी लड़की को नहीं देखा. उससे भी ज्यादा मैं खाती हूँ तो मुझे कोई गिल्ट फील नहीं होता. बाकी लड़कियां खाते साथ गिल्ट फील करने लगती हैं. वो अब भी ऐसे देखता है मुझे जैसे समझने की कोशिश कर रहा है कि कैसी आफत मेरे मत्थे पड़ गयी है. वो अब भी मुझे देख कर सरप्राइज होता है. एक फिल्म है 'पिया का घर' उसमें सादी सी साड़ी पहने गाना गाती है 'ये जीवन है, इस जीवन का, यही है, यही है, यही है रंग रूप...थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियाँ भी...यही है, यही है, यही है जिंदगी'. बस ऐसे ही किसी जगह हूँ आज. किसी फिल्म में जैसे. कैसी कैसी तो है जिंदगी. पल पल बदलती. मगर जैसी भी है जिंदगी. बहुत प्यार है इससे. 

23 September, 2013

रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे

सच्चा सच्चा दर्द हुआ बस ज़ख्म पुराने झूठे थे
तुमसे मिलने आने के वो सभी बहाने झूठे थे 

पीछा करते गली गली और खाते कसमें इश्क इश्क
सब कहते दिल कुछ न सुनता वो दीवाने झूठे थे 

गुड्डा-गुड़िया, राजा-रानी, कित-कित, खो-खो, तुमसे प्यार 
बचपन के सारे के सारे खेल सुहाने झूठे थे 

कैस भी था और लैला भी थी, शीरीं भी फरहाद वही
मेरे मुहल्लों में बनते वो सारे फ़साने झूठे थे 

लाश मिली जब उन दोनों की लाल नहर में पिछली रात
कोई न माना चुगली करते सब वीराने झूठे थे 

बाँट इश्क को आधा आधा दफना दो और फूँक आओ
रूह मिले तो कहना सॉरी, लोग पुराने झूठे थे 
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बहुत घबराहट वाला सपना था. समंदर किनारे किसी छुट्टी पर गयी थी. नौ नौ फीट की ऊंची लहरें उठ रही थीं. याद आता है सोचना, कि गहरी सांस लेना है ठीक जैसे ही लहर आकर टूटे. कि लहर वापस लौटने तक पानी होगा पर घबराना नहीं है. मैं होटल के पहले फ्लोर पर हूँ, यहीं कमरा भी मिला है. यूँ सामान कुछ ज्यादा नहीं है. पर उतनी ऊंची लहरें देख कर बहुत डर लगता है. गहरे नीले-काले रंग की अनगिनत लहरें हैं, एक के बाद एक. मैं रिसोर्ट में पीछे की ओर चलती जाती हूँ. समझ नहीं आता कि लहरें कितनी दूर तक आएँगी. एक रजिस्टर होता है जिसमें लिखवाना है कि समंदर में जो नाव जायेगी उसमें आपका कौन सा सामान छांक कर लाना है. मैं अपना वालेट लिखवा देती हूँ बस. उसके अलावा तो कुछ लेकर चलने की आदत नहीं है. 

इस रिजोर्ट और ऐसे अचानक आने वाली सुनामी लहरों का सपना मैं कई बार देख चुकी हूँ. हर बार ऐसे ही मेरा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर होता है. लहर के आने के वक़्त बहुत पानी होता है पर समंदर मुझे वापस खींच के नहीं ले जा पाता है. हर बार इस सपने में मैं अकेली गयी होती हूँ. ठीक ऐसी लहर आने के पहले मेरा समंदर में नाव लेकर जाने का मूड हुआ होता है मगर मैं जाती नहीं...या तो मेरा खाना आने में देर हो जाती है या ऐसे ही किसी कारण से. मैं हर बार यही सोचती हूँ कि अगर अभी समंदर में होती तो क्या होता. पक्का डूब जाती. 

उठी हूँ अजीब घबराहट में. बहुत दिन बाद कुछ कविता या ग़ज़लनुमा दिमाग में आ रहा था. वैसे ही बहर वगैरह के मामले में थोड़ी कच्ची हूँ तो अक्सर नहीं ही लिखती हूँ. आज भी कई बार सोचा कि डिलीट कर दूं. फिर रहने दे रही हूँ. छुट्टियों में सारी किताबें तमीज से रखीं. हॉल में टीवी कैबिनेट आया है नया, पापा दिलवाए हैं. उसमें ऊपर से नीचे तक, सारी रैक में किताबें हैं. अच्छा लगता है. सारी किताबें अब तरतीब से हो गयीं हैं. 

इधर ऐसे ही सोच रही थी...अक्सर देखा है मेरे साथ वाले लोग इस बात के लिए बहुत अपोलोजेटिक होते हैं कि मैं बहुत बोलती हूँ. ऐसे में मुझे अक्सर बहुत गुस्सा आता है. खास तौर से तब जब वो लोग मेरी ही कार में होते हैं. दिल करता है डोर खोल कर बाहर फ़ेंक दूं. आखिर चुप होना नार्मल क्यूँ है. चुप्पे लोग मुझे भी वैसे ही इरिटेट करते हैं. किसी बात का जवाब नहीं देंगे. सारे समय जाने क्या सोचते रहेंगे. उनके साथ कहीं भी सफ़र करना बहुत पेनफुल होता है. आजकल गुस्सा कितना कम आता है मुझे. लोगों पर चिल्लाती भी कम हूँ. पर कार चलाते वक़्त मुझे चुप नहीं बैठा जाता. एनीवे. मंडे मोर्निंग ब्लूज...ऑफ़ द डार्केस्ट शेड. 

सबके अपने अपने किस्से, सबका अपना अपना गम है
मैं तेरे गम को कब समझूं, मेरा अपना कम क्या कम है 

01 February, 2013

सलेटी उदासियाँ

याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.

भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.

कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये  मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.

ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.

मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.

रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.

सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा. 

29 October, 2012

अधीरमना...

Temples are temporary suspensions from the insanity of the world. Our refuge from the mad mad rush of life.
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मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.

मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.

विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.

हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.

कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.

मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.

थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...

बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...

केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...

11 June, 2012

The pen-ultimate birthday


जन्मदिन...यानि एक दिन की बादशाहत. उस दिन सब कुछ आपकी मर्जी का...जो भी मांगो सब पूरा हो जाए. अभी तक के सारे जन्मदिन ऐसे ही रहे हैं. राजकुमारी जैसे. इस बार वाला कुछ अलग था. रिअलिटी चेक. मेरी कुक को मैंने इस महीने फाइनली टाटा कह दिया कि उसका खाना चंद रोज़ और खाते तो जान देने की नौबत आ जाती और कामवाली इंदिरा के भाई की शादी थी तो वो चार की छुट्टी पर गयी थी. मुझे यूँ तो घर का सारा ही काम करना नापसंद है पर इसमें भी बर्तन धोने से ज्यादा बुरा मुझे कुछ नहीं लगता. तो मेरे इस लाजावाब बर्थडे की शुरुआत हुयी एक चम्मच विम लिक्विड से. कभी न कभी तो नींद से जागना ही था :) :) तो सुबह सुबह बर्तन वर्तन धो कर खाना वाना बना कर थक हार कर बैठ गए. बर्थडे मेरी बला से...थोड़ी देर सो लेते हैं. फिर एक कड़क कॉफी बना कर पी...आपको पता है कि कॉफी में सुपरपावर होती है? नहीं पता? फिर तो आपको ये भी नहीं पता होगा कि मैं सुपरगर्ल हूँ! वैसे तो अधिकतर लड़कियां सुपरगर्ल होती हैं पर मोस्टली उनको ये बात पता नहीं होती हैं. उन्हें कोई इडियट बचपन में पढ़ा जाता है कि नारी अबला होती है तो बस वो अबला होने की कोशिश में हमेशा सुपरमैन का इंतज़ार करती रह जाती है उसे मालूम ही नहीं होता कि उसकी खुद की सुपरपॉवर बहुत सारी हैं.

मैं अधिकतर जन्मदिन के पहले वाले हफ्ते बहुत ही धीर गंभीर सोचने वाले मूड में चली जाती हूँ पर ये हफ्ता तो जैसे कब आया कब गया मालूम ही नहीं चला. पिछले हफ्ते मैं एक भी शाम अकेले नहीं रही...और कुछ बेहतरीन लोगों से मिली और दोस्तों के साथ बेहद मस्ती काटी. एक फुल दिन शौपिंग भी मारी. दिमाग का पैरलल ट्रैक चलता रहा. इस बीच एक दोस्त के लिए 'माय ब्लूबेरी नाइट्स' की डीवीडी बर्न कर रही थी तो उसका एक सीन सामने आया...इत्तिफ़ाक इसे ही कहते हैं...मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी. एलिज़ाबेथ चिट्ठी में लिखती है...

Dear Jeremy,
In the last few days I have been learning how to not trust people and I am glad I failed.
Sometimes we depend on other people as a mirror to define us and tell us who we are and each reflection makes me like myself a little more.
Elizabeth

मुझे गलतियाँ कर के सीखने की आदत है...कोई कितना भी समझा ले कि उधर तकलीफ है...उधर मत जाओ मगर जब तक खुद चोट नहीं लगेगी दिल मानता ही नहीं है. मुझे 'बुरे लोग' का कांसेप्ट समझ नहीं आता...कोई भी सबके लिए बुरा नहीं होता. मेरी जिंदगी में बहुत कम लोग हैं...मैं अपनेआप को लेकर बहुत fiercely protective हूँ. चूँकि मैं जैसी हूँ वैसी सबके सामने हूँ...तो वल्नरेबल भी हूँ बहुत हद तक. आप किसी को कैसे जानते हैं? मुझे लगता है कि तब जानते हैं जब आप उसकी कमजोरियां जानते हों...उसका डर जानते हों...उसके मन के अँधेरे जानते हों...और इसके बावजूद उससे प्यार करते हों. जो मेरे दोस्त हैं वो इसी तरह जानते हैं मुझे...और जिन्हें मैं अपना दोस्त मानती हूँ, मैं इसी तरह जानती हूँ उन्हें. कभी कभार मुझसे लोगों को पहचानने में गलती भी हो जाती है. मुझे कोई कितना भी समझा ले कि बेटा दुनिया बहुत बुरी है...मुझे नहीं समझ आता...हालाँकि इसके अपने खतरे हैं, अपनी तकलीफें हैं...मगर दुनिया वैसी है जैसे हम खुद हैं.

मैंने अपने फेसबुक का अकाउंट पिछले महीने डिजेबल किया था और तबसे शांति थी बहुत. हाँ, दोस्तों की याद आती थी तो कभी रात दो बजे के बाद लोगिन होकर उनकी तसवीरें देख लेती थी. फेसबुक मेरे लिए मेजर टाइमवेस्ट है. क्या है कि मुझे बीच का रास्ता अपनाना तो आता नहीं है. दिन में लिखने का काम लैपटॉप पर ही करती हूँ तो ऐसे में अगर एक टैब में फेसबुक खुला है तो कहीं ध्यान से कुछ कर नहीं सकती...सारे वक्त ध्यान बंटा रहता है. फिर मेरे जो क्लोज फ्रेंड्स हैं वो अधिकतर फेसबुक पर सक्रिय नहीं रहते. वर्चुअल की अपनी सीमाएं हैं...मैं फेसबुक, फोन और चैट के बावजूद कहीं 0 और 1 की बाइनरी दुनिया में खोती जा रही थी. इसका हासिल कुछ नहीं था...टोटल जीरो. उसपर हर समय कुछ अपडेट करने की बेवकूफी. महीने भर से काफी शांति थी और वक्त का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं...कुछ दोस्तों के साथ बहुत सा वक्त बिताया.

कल मेरे सारे अपनों ने फोन किया...कोई भी मेरा बर्थडे नहीं भूला...इस बार मैंने किसी को याद भी नहीं दिलाया था कि मेरा बर्थडे है...जो कि अक्सर करती हूँ कि मेरे कुछ दोस्त इतने भुलक्कड हैं कि मेरी खुद की ड्यूटी है उनको एक दो दिन पहले याद दिलाना...वरना वो झगड़ा भी करते हैं. घर से फोन आये...फिर दो बजे अनुपम का मेसेज आया. दिन में सारे दोस्तों के फोन आये...सारे...कोई भी नहीं भूला. इतना अच्छा लगा कि बता नहीं सकते हैं. फेसबुक ओर नो फेसबुक...मेरी लाइफ में अभी भी इतने सारे अच्छे दोस्त हैं कि ध्यान से मेरा बर्थडे याद रखते हैं. सबका बहुत बहुत बहुत सारा थैंक यू है.

कल कुणाल ने नयी पेन खरीदी मेरे लिए...अच्छी सी...वाइन कलर की...और पर्पल इंक भी दिलाया. घर से भी सब लोगों ने कॉल करके खूब सारा आशीर्वाद दिया...देवर ननदों ने पूछा कि क्या गिफ्ट चाहिए...भाई ने कहा कि गिफ्ट थोड़ा देर से पहुंचेगा...कुरियर हो गया है...कितना तो प्यार करते हैं सब मुझसे.

इस जन्मदिन में खुद को थोड़ा और समझते हुए जाना...मैं अपनेआप से और जिंदगी से बहुत प्यार करती हूँ. मेरे कुछ बेहद अच्छे दोस्त हैं जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं और कि मैं कभी हार नहीं मानती.

I am at a cliff...about to take a jump...and in my heart of hearts, I know....
I'll Fly!

Happy Birthday Mon Amour! You are 29 and rocking!

14 May, 2012

निब तोड़ देनी है आज...

क्यूँ लिखा जाए कि एक एक शब्द बायस होता है एक बनते हुए ज़ख्म का...शब्दबीज होते हैं...खून में घुल जाने के लिए...आंसुओं में चुभ जाने के लिए...हर शब्द एक बड़े से ज़ख्म के पेड़ का नन्हा सा बीज होता है. हर शब्द जो मैं लिखती हूँ हर शब्द जो तुम पढ़ते हो.

मैं वाकई बैरागी सी हो गई हूँ...एकदम विरक्त...मन किसी शब्द पर नहीं ठहरता...मन किसी चेहरे पर नहीं ठहरता...मन कहीं नहीं ठहरता. मुझे विदा कहना नहीं आता वरना कब की चली जाती...किसी ऐसी जगह पर जहाँ से वाकई कहीं और जाने की जरूरत न पड़े.

लिखना कम कर दिया है...बेहद कम और मन में जो हाहाकार मचा रहता था वो भी कम हो गया है...अब एक निर्वात बन रहा है...जहाँ कुछ नहीं होता...जहाँ मैं नहीं होती जहाँ तुम नहीं होते...जहाँ कोई भी नहीं होता. मैंने सुबह से दो किताबें पढ़ने की कोशिश कीं...नहीं पढ़ पायी, दोनों किताबें बकवास लगीं, हो ये सकता है कि किताबें सच में वाहियात हों.

फिलहाल हर तरफ बहुत सा सन्नाटा है...आसपास के मकानों में काम करते मजदूर शायद दोपहर के खाने की छुट्टी पर गए हैं...बच्चे स्कूल से वापस नहीं लौटे...शिकारी पक्षी घात लगाए खामोश होंगे...और बादल अभी ऊंघ रहे हैं...पंखा भी बेआवाज़ चल रहा है...आज अचानक उससे आती नित्य की खटर खटर बंद है. मैं कपड़े बदल कर बाहर जाने के मूड में हूँ कि कभी कभी घर ऐसा हो जाता है जैसे दीवारें टूट गिरेंगी मुझ पर. लंबा घूमने का मन है तो जूते के तस्मे भी बाँध लिए हैं.

किसी को एक आखिरी चिट्ठी लिखने का मन है...सामने पसंद के तीनों पेन रखे हैं...समझ नहीं आ रहा किस रंग की सियाही से लिखूं. मेरे कवि, मुझे हमेशा से मालूम था मुझे तुम्हारा जाना तोड़ देगा मगर लगता था कि टूटे टुकड़ों से भी कविता रची जाती है...आज महसूस करती हूँ कि ऐसा नहीं होता. तुम्हारे साथ आसमान की सियाही भी फीकी पड़ गयी है. तुमसे अनगिन बातें की विगत कुछ सालों में पर आज विदा कहने को सारे लफ्ज़ बेमानी हैं.

मूड है...जानती हूँ जल्दी ठीक हो जाएगा...पर ये वक्त वक्त पर जो उदासी की तहें लग रही हैं मन पर, इन्हें काटने को गर्म धीपा हुआ चाकू ही चाहिए कि ये परतें सख्त होती जाती हैं...जैसे सख्तजान मैं हूँ वैसी ही कुछ. जिंदगी में ऐसा फेज कभी नहीं आया था कि इतने दिन तक इतना कुछ लिखने को छटपटाहट हो...और अब जैसे एकदम शून्य...और ये शून्य खुद नहीं आया...मैंने ही मन के दरवाजे बंद कर लिए हैं कि रचने के लिए जितना दर्द सहना होता है उतने में लगता है सांसों का तारतम्य टूट जाएगा.

उसमें भी जो लिखती हूँ एक जरा पसंद नहीं आता तो फिर मन पूछेगा ही न...कि इतना दर्द, इतना दर्द किसलिए? कौन सी मजबूरी है जो तुमसे कलम चलवाए जाती है? आज मन कर रहा है सारी कोपियाँ उठा कर जला दूं और ब्लॉग को आग लगा दूं...या कि कुछ दिन इन्टरनेट का मोडेम बंद कर दूं और लालबाग में लंबी वाक पर निकल जाया करूं.

कैसी हूँ मैं...जिसे छूती हूँ...वो कहता है 'सोना हो जाता है' मुझे कहना था मिट्टी हो जाता है...मगर सोना हो जाना...ओह...मैं उसे मिडास की कहानी सुनाती हूँ...उसे पूरी कहानी नहीं पता है...कि कैसे मिडास को वरदान मिला था कि वो जिसे छू देगा सोना हो जाएगा...मिडास तब तक बहुत खुश था जब तक कि भूख लगने पर उसका खाना भी सोने में परिवर्तित हो गया...पानी भी...और वो घबरा ही रहा था कि फूल सी नाज़ुक उसकी बेटी दौड़ती हुयी आई उसकी गोद में और एक पल में सोने की गुडिया में तब्दील हो गयी...कीमती मगर निर्जीव.

एक था पारस पत्थर...लोग उसकी पूजा करते थे कि उससे जो भी छू जाये सोना हो जाता था...पारस पत्थर का मन होता है क्या? उससे कोई पूछे कि वो जो रंग बिरंगी चिड़िया तुम पर आकार बैठी थी और सोने की मूरत हो गयी थी...तुम्हें रोना आया था क्या?

क्या तोड़ देना चाहती हूँ? क्या खुद को? विध्वंस का गीत बज रहा है...अट्टालिकाएं गिरती जा रही हैं...मेरे घर में अनपढ़ी पुस्तकों की मीनारें नेस्तनाबूद हो रही हैं...मैं कहीं जा रही हूँ...कहाँ...मन पूछता है...मुझे मालूम नहीं कहाँ.

सामने असीमित जलराशि है, उन्मुक्त, अगाध, सियाही जैसी नीली...मन पूछता है, लौट आने को सागर भी न हो तो लहरें कहाँ जायेंगी?

11 May, 2012

फुटकर चिप्पियाँ

लोगों के रिकवर करने के अलग अलग तरीके होते हैं...मैं इस मामले में बहुत कमज़ोर हूँ...आई डोंट नो हाउ टू मूव ऑन...मैं अक्सर वहीं अटक जाती हूँ जहाँ से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए. किसी मोड़ पर बहुत दिन ठहर जाओ तो वहां घर बनाने का मन करने लगता है...रोज़ देखते देखते एक दिन वहां से नज़र आते नज़ारे दुनिया में सबसे खूबसूरत दिखने लगते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम यहाँ रुके नहीं थे...ठहर गए थे कि हमें लगता था कि कोई लौट कर इसी मोड़ पर हमें ढूंढते हुए आएगा.

मुझे विदा कहना नहीं आता...मेरी जिंदगी में जितने लोग आये...सब अपनी अपनी खास जगह छेक के बैठे हैं, न कोई घर खाली करता है न मुझे निकालना आता है. छोटे बड़े हिस्से...भूले किस्से...बहुत कुछ सकेरा हुआ है. कभी कभी मुझे अपने से बड़ा कबाड़ी नहीं दिखता कि मैं टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखती हूँ कि कौन जाने कब कोई अच्छा सा 'ग़म'(pun intended) मिल जाए तो फिर सब जुड़ जाए. या फिर इन्हें गला कर फिर से किसी नए आकार में ढाला जा सके. जिंदगी में वाकई बेकार तो कुछ नहीं होता...सबकी अपनी अपनी जगह होती है.

मुझे जिन्हें भूलना होता है मैं उन्हें एक खास जगह अता करती हूँ...पासवर्ड में. एक आईडी शायद सिर्फ इसलिए है...कभी कभी बहुत जरूरी हो जाता है कि मैं किसी को भूल सकूं...कुछ दिन के लिए ही सही कि उसे याद करना बड़े ज़ख्म देने लगता है. फिर हर बार जब मैं पासवर्ड में वो नाम टाइप करती हूँ धीरे धीरे करके उसे चिट्ठियां लिखने का ख्याल उँगलियाँ बिसराने लगती हैं कि मैं जितनी बार आईडी से लोगिन करती हूँ, मुझे लगता है मैंने उसे चिट्ठी लिखी है...कि पहला शब्द तो वही होता है न...उसका नाम. लिखने के पहले पहला नाम या तो खुदा का हो या महबूब का...फिर लिखने में जिंदगी होती है.

ये सब मैं पुनरावलोकन में लिख रही हूँ क्यूंकि उस समय तो समझ नहीं आता...उस समय तो वो नाम दिन भर लिखना मजबूरी होता है इसलिए पासवर्ड बनाया जाता है. अब जब इतने सालों बाद उस पासवर्ड को बदला है तो आश्चर्यजनक रूप से देखती हूँ कि आई हैव हील्ड...मैं ठीक हूँ गयी हूँ...ज़ख्म भर गए हैं. अब मैं तुम्हारा नाम लिखते हुए मुस्कुरा सकती हूँ...अब मैं तुम्हें याद करते हुए हर्ट नहीं होती...अब तुम्हारे नाम से सीने में हूक नहीं उठती...अब मेरी सांस नहीं रूकती जब तुम मेरा नाम लेते हो.

मैं इतने ज्यादा विरोधाभास से भरी हूँ कि मुझे कभी कभी खुद समझ नहीं आता कि मैं क्या कह रही हूँ...एक शाम मैंने सुर्ख टहकते लाल रंग का सलवार कुरता पहना था जब कि कोई बात निकली और मैंने कहा...आई हेट रेड...मुझे लाल रंग एकदम पसंद नहीं है...तो एक दोस्त ने ऊपर से नीचे तक निहार कर कहा था...दिख रहा है. मैं अक्सर दो वाक्य एकदम एक दूसरे से उलट मीनिंग का एक ही सांस में कह दूँगी. ये कुछ वैसा ही है जैसे दिन भर ये सोचना कि आजकल मैं उसे याद नहीं करती हूँ.

आजकल मुझे स्कूल के बहुत सपने आ रहे हैं...अभी कल सपना देखा था कि फिजिक्स का कोस्चन पेपर है और मुझे एक भी सवाल नहीं आता...मैं एकदम घबरायी हुयी हूँ कि फेल कर जाउंगी...आज तक कभी फेल नहीं हुयी...मम्मी को क्या कहूँगी...फिर एक सवाल है जो थोड़ा बहुत धुंधला सा याद आता है मुझे...चांस है कि उसे पूरा अच्छे से लिख दूं तो पास कर जाऊं...ध्यान ये भी आता है कि मैं किसी से बहुत प्यार करती थी और पढ़ने के सारे टाइम मैं कहानियां और कविताएं लिखती रही...किताबें नहीं पढ़ीं. आज सुबह सुबह देखा है कि मैंने नया स्कूल ज्वाइन किया है और एक क्लास से निकल कर मैथ के क्लास करने दूसरी जगह जाना होता है...मैं रास्ता खो गयी हूँ...साथ में एक दोस्त और भी है...फिर एक सीनियर ने रास्ता बताया है और हम जाते हैं...बहुत सी गोल गोल घूमने वाली सीढ़ियाँ हैं...मेरे ठीक पीछे मैथ के सर भी चढ रहे हैं...मैं बहुत तेज सीढ़ियाँ चढती हूँ...मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने में कभी थकान महसूस नहीं होती. लेकिन जब ऊपर पहुँचती हूँ तो एक टेबल होता है और वहां से सीधे नीचे दिखता है और टेबल की एक टांग हिल रही है तो टेबल स्टेबल नहीं है...मुझे अब नीचे उतरना है पर अब मुझे डर लग रहा है...मुझे वैसे भी ऊँचाई से बहुत डर लगता है.

बहुत ज्यादा अनप्रेडिक्टेबल और मूड़ी हूँ...जब जो मन करे वो करने वाली...कब क्या कर जाऊं का कोई ठिकाना नहीं. कल शोपिंग पर गयी थी, खूब सारी चेक शर्ट्स खरीद कर लायी हूँ...चेक शर्ट्स मेरी हमेशा से फेवरिट रही हैं...कुछ सैंडिल्स, बैग्स, और कुछ छोटी मोटी चीज़ें. बहुत सालों बाद ऐसी सड़क किनारे वाली शोपिंग की...मोलभाव किया.

आजकल प्यार के मामले में कन्फ्यूजन वाला फेज चल रहा है...पता ही नहीं चल रहा कि कमबख्त होता क्या है...थोड़ा थोड़ा समझ भी आ रहा है कि आजकल किसी के प्यार में नहीं हूँ इसलिए ऐसे सवाल हैं...फिर भी ऐसा क्यूँ होता है कि कुछ लोगों का फोन आता है तो मुस्कुराते मुस्कुराते गाल दर्द कर जाते हैं...मुझे लगता है कि मुझे उनसे हमेशा प्यार रहेगा और प्यार सिर्फ मुस्कराहट का नाम है. बाकी जो रोना धोना हम करते हैं वो हमारा इगो होता है जो इस बात को मानता नहीं है कि हम किसी से जितना प्यार करते हैं वो हमसे उतना नहीं करता...या शायद एकदम ही नहीं करता.

बहुत दिनों से किसी के प्यार में गिरी नहीं हूँ...घुटने पर लगा पिछली बार का नीला निशान लगभग धुंधला पड़ गया है...परसों अल पचीनो पर एक किताब लायी हूँ...मन मानना नहीं चाह रहा है पर प्यार तो टोनी मोंटाना को स्कारफेस में देख कर हो गया ही था...आज बस...डूबना है उन आँखों में. मेरी जिंदगी से प्यार, फिल्में, किताबें और आवारागर्दी निकाल दो तो फिर बचता क्या है?

कल फ़राज़ को पढ़ रही थी...यूँ तो फैज़ को पढ़ने का मूड था पर किताब मिली नहीं...जाने किधर रख छोड़ी है. आजकल मन थोड़ा शांत रहता है...शांत, उदास नहीं...और सुनो...तुम उदास न रहा करो मेरी जान...जिंदगी में हज़ार काम हैं...जानती हूँ...तुम्हारी उदासी से मेरे मौसम को सर्दी हो जाती है...देखो न...फ़राज़ साहब कह गए हैं कि...शेर सुन के बताना...जो तुम्हें किसी और से प्यार हुआ क्या?

एक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफरेब थे गम रोज़गार के

09 May, 2012

बह जाने को कितना पानी...जल जाने को कितनी आग?


एक लेखक की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उसके लिखे हर शब्द को उसके जीवन का आइना मान लिया जाता है...उसके ऊपर सच को चित्रित करने की इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल दी जाती है कि बिना भोगा हुआ सच वो लिखने में कतराता है...इसी बात पर एक लेखक की ही डायरी से कुछ फटे चिटे पन्ने कि कभी तमीज से इन्हें कहीं लिखने की दरकार नहीं रही.
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कल मेरे शहर में बहुत तेज बारिश हुयी...आसमान जैसे फट पड़ा था...बात मगर इसके पहले की है कि एक लेखिका कुछ सब्जियां खरीदने थोड़ी दूर के बाजार गयी थी...गौरतलब है कि मेरे अंदर एक औरत और एक लड़की भी रहती है मगर उसे शायद दुनिया कभी बाहर ही नहीं आने देती...तो ये लेखिका हर चीज़ में कहानियां ढूंढती है...तो कल भी मैं जो थी...बाज़ार गयी थी और सब्जियों के अलावा मुझे एक ड्रिल मशीन खरीदनी थी...पता चला कि ड्रिल मशीन ८०० रुपये की आती है और अगर जरूरत पड़े तो एक दिन के लिए ५० रुपये में रेंट की जा सकती है. मुझे उधारी चीज़ें अधिकतर पसंद नहीं आतीं...और एक ड्रिल का थोड़ा सम्मोहन भी है तो सोचा खरीद लेती हूँ. दूकान के पीछे जा कर एक संकरी सी गली थी जिससे ऊपर के तल्ले में जाने को सीढ़ियाँ बनी थीं. मैं कभी कोठे पर नहीं गयी पर जितना फिल्मों और किताबों में पढ़ा है वैसा ही डरावना सा माहौल था...नीम अँधेरा और एक आधा नाईट बल्ब जल रहा था...एक लंबा सा गलियारा था जिसके एक तरफ सीढ़ियाँ थीं और एक तरफ कुछ कमरे जिसमें एक धुंधला सा पर्दा पड़ा हुआ था और परदों के पार कुछ औरतें दिख रही थीं. वो कोई शेडी सा पार्लरनुमा एरिया था...वहां खड़े होकर मैं ये सोच रही थी कि ये ऐसी जगह है कि किसी भी दोस्त को इसका डिस्क्रिप्शन दूं कि मैं ऐसी जगह गयी थी तो पहला सवाल होगा कि तुम वहाँ कर क्या रही थी...उस गली के दोनों तरफ कुछ बंद दुकानें थीं और कुछ साइबर कैफे जिसके बाहर स्टूल पर इंतज़ार करके लड़कों के चेहरे ऐसे थे जैसे मेरे तीस के ऊपर भाइयों के हैं जिनको नौकरी अभी तक नहीं मिली है...मुझे अंदाज़ा था कि ऐसे गर्द-गुबार भरे कैफे में वो क्या कर रहे होंगे...मुझे ये भी पता चल रहा था कि वहां कैसी सीडियां रेंट पर मिलती होंगी. मेरा कौतुहल इतना बढ़ रहा था कि मन कर रहा था धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ जाऊं...मगर दिन के चार बजे उन सीढ़ियों पर इतना अँधेरा था कि टटोल कर ऊपर चढ़ना पड़ता.

छोटे शहरों में लड़कियों के अंदर एक डर कूट कूट कर बचपन से ही भरा जाता है...अँधेरे कोनों का डर...अँधेरे कोनों से निकलते उन  हाथों का डर जो जिस्म को भंभोड़ते हैं और निशान और सवाल आत्मा पर बनाते हैं कि ऐसा मेरे साथ क्यूँ हुआ...मैं ऐसा डिजर्व करती थी...मैंने कैसे कपड़े पहने थे...मैं वहाँ क्या कर रही थी और ये सवाल उन गंदे हाथों के निशान उतर जाने के बाद भी नहीं धुलते. हालाँकि हर लड़की इन गलीज़ हाथों से रूबरू होती है मगर हर लड़की इन हाथों से बचती हुयी चलती है. उसे मालूम होता है कि ये हाथ सिर्फ अँधेरे कोनों में नहीं दबोचते बल्कि रौशनी वाले मेट्रो में...पटना की बेहद भीड़ वाले सब्जीबाजार में...रेलवे प्लेटफोर्म पर...दिन की रौशनी और भीड़ वाली जगह पर ये हाथ ज्यादा नज़र आते हैं. लड़की ये भी सीखती है कि हमेशा आलपिन लेकर चला करो और ऐसे किसी व्यक्ति को चुभा दो...लड़की ये भी चाहती है कि ऐसे हर हाथ वाले शख्स की वैसी जगह चोट करे जहाँ वो बर्दाश्त न कर पाए...जी...हर लड़की जानती है कि मर्द के शरीर में ऐसी  ही कमज़ोर जगह होती है जैसे कि औरत का मन.

मैं जानने लगी हूँ थोड़ी थोड़ी कि मेरी ये छटपटाहट क्यूँ है...शायद ऐसी ही कोई नाकाबिले बर्दाश्त छटपटाहट रही होगी कि दुनिया भर की औरतों ने लिखने के लिए मर्दों के नाम इख़्तियार किये...मेरा भी कभी कभार मन होता है कि मैं कोई और नाम रख लूं कि वो सारे फ़साने जो मुझे लिखने हैं मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती कि उन कहानियों में मेरे न चाहते हुए भी मेरी आँखें उभर आएँगी कि मेरे नाम का एक चेहरा है जबकि कहानियों के किरदारों का कोई रंग नहीं होता...उनकी कोई मर्यादाएं नहीं होती, जिम्मेदारी नहीं होती...दुनिया नहीं होती...उनका यथार्थ वक्त के इतने छोटे से हिस्से पर नुमाया होता है कि वो पूरी शिद्दत के साथ वो हो सकते हैं जो होना चाहते हैं. एक किरदार से जिंदगी अपना हिस्सा नहीं मांगती. हालाँकि मैं दुनिया को औरत और मर्द के खाँचों में बांटना सही नहीं समझती और फेमिनिस्म के बारे में अनगिनत बातें पढ़ते हुए भी मुझे चीज़ें नहीं समझ आतीं...मेरे लिए इतना काफी होता है कि मुझे वो सारी आज़ादियाँ मिलें जो मेरे भाई को या मेरे पति को या मेरे दोस्तों को मिली हुयी हैं. हर वक्त कपड़े पहनने के पहले ये न सोचना पड़े कि इसमें अगर मेरे साथ कोई हादसा हो गया तो कोई मुझे जिम्मेवार ठहराएगा...ऐसा ही कुछ लेखन के बारे में भी है.

मैं अधिकतर गालियाँ नहीं देती पर मैं चाहती हूँ कि मैं अगर किसी को गाली दे रही हूँ तो बिना बताये ये समझा जाए कि उस गाली के बिना मेरी मनःस्थिति बयान नहीं हो सकती. मैं गलियों को भी उनके लिंग़ के हिसाब से देती हूँ...जब कि मुझे दुनिया के मर्दों से कोफ़्त होती है तो मैं ऐसी गाली नहीं देना चाहती जो कि उनकी बहन या माँ की ओर लक्षित हो...मैं वाकई उन गालियों को पसंद करती हूँ जिनमें ये बोध आता है कि वो स्त्रियोचित हैं...कि उनमें वही सारी कमियां हैं जिनके दम पर वो अपने मर्दाने अहं का दंभ भरते हैं...मुझे लगता है बाकी सारी गालियों से परे किसी मर्द को सबसे अधिक तिलमिलाहट तब होती है जब कोई औरत उन्हें 'नपुंसक' या 'नामर्द' जैसी कोई गाली दे दे. ये उनके पूरे वजूद को ही कटघरे में खड़ा कर देता है...कि औरत के लिए दुनिया बहुत सी चीज़ों से बनी होती है...लेकिन मर्द सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ से बनता है...फिजिकल/सेक्सुअल ग्रैटिफिकेशन.

मुझे उन औरतों की कहानियां लिखने का मन करता है जिनसे मुझे साहिब बीबी गुलाम की छोटी बहू याद आती है. कितने भी बड़े लेखक को पढ़ लेती हूँ ऐसा लगता है कि ये औरत की सिर्फ बाहरी किनारों को छू पाए हैं...मान लो उसका मन थोड़ा बहुत टटोल कर समझ लें मगर उसके अंदर जो एक बेबाक सी आग भरी है उसकी आंच में हाथ जलाने से सभी डरते हैं. औरत जब अपने मन पर आती है तो दावानल हो जाती है...फिर हरे पेड़ और सूखी लकड़ी में अंतर नहीं करती. मैं हर सुबह उठती हूँ तो प्यार को कोई च से शुरू होने वाली गाली देती हूँ और इस बात पर पूरा यकीन रहता है कि दुनिया में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं है.

इंसान की सभ्यता का सारा इतिहास मात्र एक छलावा है...झूठ और आडम्बर का एक रेशमी ककून है...जबकि सच ये है कि इस ककून के अंदर के कीड़े की नियति मर जाना ही है. आज भी आदिम भाव वही हैं...हाँ उसके ऊपर झूठ का मुलम्मा इतने दिनों से जिया जा रहा है कि  उसी को सच मान लिया जाता है. प्रेम तो बहुत दूर की बात है...राह चलते...आते जाते...आखिर हर लड़की को ऐसा आज भी क्यूँ लगता है कि सामने का मर्द नज़रों से उसके कपड़े उतार रहा है...और मौका मिलते किसी अँधेरी गली में वो सारा कांड कर डालेगा जिसमें इस बात का कोई रोल न होगा कि लड़की ने कैसे कपड़े पहने थे, उसकी उम्र क्या थी, चेहरे के कटाव कैसे थे...अंत में वह सिर्फ और सिर्फ एक देह है...एक नारी देह.
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फिल्म में छोटी बहू कहती है...मेरी बाकी औरतों से तुलना मत करो...मैंने वो किया है जो किसी और ने नहीं किया...कल तेज बरसती बरसात में भीगते हुए मैं आइसक्रीम खा रही थी...बारिश इतनी तेज थी कि चेहरे पर थपेड़े से महसूस हो रहे थे...सर से पैर तक भीगी हुयी...एक हाथ में फ्लोटर्स...एक हाथ में आइसक्रीम...और मन में अनगिनत ख्यालों का शोर...नगाडों की तरह धम-धम कूटता हुआ. सड़क पर किसी ने कहा 'नाईस'...आवाज़ में तिक्त ताने मारने का भाव नहीं सराहने का भाव था...मैंने चश्मा नहीं पहना था तो मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा...मैं थोड़ा आगे बढ़ भी चुकी थी...मैंने आइसक्रीम लिए हाथ को ऊपर उठाया जैसे शैम्पेन के ग्लास को उठाते हैं और कहा 'चीयर्स'. उसी रास्ते वापस लौट रही थी तो देखा उसकी गोद  में एक बच्चा था...मुझे जाने कैसे लगा कि बेटी है...वह उसे हाथ हिला कर मुझे बाय कहने को कह रहा था...मैंने बाय किया भी...इस सबके बीच बहुत तेज बारिशें थी और बिना चश्मे के मुझे कुछ दिख नहीं रहा था. मैं सोच रही थी...कि वो सोच रहा होगा कि मेरी बेटी भी ऐसी ही होती...उसके एक आध और बातों में मैंने वो चाहना पकड़ ली थी...मैं उसे कहना चाहती थी...ऐसी लड़की को दूर से ही ऐडमायर करना आसान है...ऐसी लड़की का पिता बनना...बहुत बहुत मुश्किल.

आज़ाद होना वो नहीं होता कि जो मन किये कर रही है लड़की...वैसे में हर मर्द में एक तुष्टि का भाव होता है कि मैंने इसे आज़ादी दी हुयी है...मैंने उसे खुला छोड़ा है...ऐसे में लड़की में भी एक अहसान का भाव होता है समाज के प्रति, पिता के प्रति, प्रेमी के प्रति, पति के प्रति, दोस्त के प्रति...हर उस मर्द के प्रति जिसने उसे आज़ादी दी है...बात तब खतरनाक हो जाती है जब लड़की मन से आज़ाद हो जाती है, स्वछन्द...जब उसे अपने किसी किये पर पश्चाताप नहीं होता कि उसने वही किया जो उसकी इच्छा थी. ऐसी खुली लड़की से फिर सब डरते हैं...उसमें इतनी कूवत होती है कि सिर्फ अपने सवालों भर से समाज की चूलें हिला दे. कल मैं वो लड़की थी.


ऐसी लड़की बारूद के ढेर पर बैठी नहीं होती...ऐसी लड़की खुद बारूद होती है. उससे बच कर चलना चाहिए. 
समझ रहे हो आप?

25 April, 2012

लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.

उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी. 

मेरी आँखों में मायनस दो पावर है पिछले दो सालों से लगभग...उसके पहले बहुत कम थी तो बिना चश्मे के सब साफ़ दिखता था. आजकल आदत भी हो गयी है बिना चश्मे के कभी नहीं रहने की...कुछ धुंधला फिर से किताब का याद आता है...गुरुदत्त को चश्मे के बिना कुछ दिखता नहीं था और एक्टिंग में आँखों का सबसे महत्वपूर्ण रोल है ऐसा वो मानते थे...हालाँकि ये बात उन्होंने कहीं सीखी नहीं...पर जीनियस ऐसे ही होते हैं. आज जब कोलनी में टहल रही थी तो चश्मा उतार दिया...ताकि बरसती बूँदें सीधे चेहरे और आँखों पर गिर सकें...आसमान को देखते हुए पहली बार ध्यान गया कि बिना चश्मे के चीज़ों का एकदम अलग संसार खुलता है...किसी गीली पेंटिंग सा...किसी कैनवास सा...खास तौर से बारिश के बाद. पेड़ों की कैनोपी...गुलमोहर के लाल फूल...सब आपस में ऐसे गुंथे थे जैसे मेरी यादों में कुछ नाम...कुछ लोग...और दुनिया जब साफ़ नहीं दिखती ज्यादा खूबसूरत दिखती है...थोड़ी सब्जेक्टिव भी हो जाती है...बहुत कुछ अंदाज़ लगाना पड़ता है...सामने से आती कार या बाइक में बैठे इंसान मुझे देख कर अगर हंस रहे थे तो मुझे दिखता नहीं. कभी कोई फिल्म बनाउंगी तो इस चीज़ को जरूर इस्तेमाल करूंगी...ये बेहद खूबसूरत था. 

बारिशें होती हैं तो कुछ लोगों की बहुत याद आती है और ये शहर एक बंद कमरा होने लगता है जिसमें बहुत सीलन है...और गीले खतों से सियाही बह चुकी है. मैं नए ख़त लिखने से डरती हूँ कि जब उदास होती हूँ ख़त नहीं लिखूंगी ऐसा वादा किया है खुद से. तन्हाई हमारे अन्दर ही खिलती है...और मैं यकीं नहीं कर पाती हूँ कि कितनी जल्दी सब अच्छा होता है और अचानक से जिंदगी एकदम बेज़ार सी लगने लगती है. 

ऐसे मूड में गुरुदत्त पर कुछ लिखूंगी तो सब्जेक्ट के साथ बेईमानी हो जायेगी इसलिए वो पोस्ट लिखना कल तक के लिए मुल्तवी करती हूँ...ऐसा सोच रही हूँ और रोकिंग चेयर पर झूलते हुए गाने सुन रही हूँ. आज एक दोस्त ने कहा उसे मेरी बहुत याद आ रही है...मुझे अच्छा लगा है कि किसी को मेरी याद आई है.

आज किसी से फोन करके दो तीन घंटे बात करने का बहुत मन कर रहा था...पूरी कोंटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करके देख ली...हिम्मत न हुयी कि किसी से जिंदगी के तीन घंटे मांग लूं...मेरा क्या हक बनता है...ऐसा ही कुछ उलूल जुलूल खुद को समझाती हूँ...बालकनी से आसमान देखती हूँ...अनुपम की याद आती है...promise me you will never say that writing is a curse to you. वादा तो निभाना है. 

ऐसी किसी सुबह उठूँ...थोड़े से दर्द के साथ...कुछ दोस्तों से बात करने को दिल चाहे और फोन न कर पाऊं...बार बार फोन स्क्रोल करूँ...सोचूँ...कि कितना सही होगा खुद के लिए दो तीन घंटे का वक्त मांग लेना किसी की जिंदगी से...सोचूँ कि किसपर हक बनता है...फिर हज़ार बारी सोचूँ और आखिर फोन ना करूँ किसी को..चल जाने दे ना...रात को पोडकास्ट बना लेंगे. 

कल हमारे साहिबे आलम दिल्ली तशरीफ़ ले जा रहे हैं...जल्दी का प्रोग्राम बना है...हम यहाँ मर के रह गए दिल्ली जाने के लिए...पर कुछ मजबूरियां हैं...शाम से उदास हूँ जबसे खबर मिली है. अब कल गुरुदत्त को ही आवाज़ दूँगी...पुरानी चिट्ठियां पढूंगी...दर्द को दर्द ही समझता है...ओह...काश कि थोड़ा सुकून रहे...थोड़ा सा बस...काश!

23 February, 2012

Life. Hurts.

विषबेल उगती है पैरों के पास से कहीं...उसके बहुत महीन कांटे हैं जो त्वचा में चुभ जाते हैं...वो न केवल परजीवी है जो की मुझसे प्राणशक्ति पाती है बल्कि उन काँटों से ही जहर भी मेरे शरीर उतारती जाती है. रिसोर्स optimisation का अद्भुत उदहारण है.

मुझे समझ ये नहीं आता की इसके बावजूद मेरी जान क्यूँ नहीं जाती...क्या वो जहर वाकई जहर नहीं है बस जहर का छलावा है...एक ऐसा द्रव्य जो वक़्त के गुजरने की रफ़्तार धीमी कर देता है...कि मेरी जिंदगी रहेगी वही कुछ साल पर लगेगी कुछ ऐसे जैसे जेल में बंद आत्मा को लगे...शरीर एक जेल ही तो है न...ऐसा जिसे तोड़ना मुमकिन न हो.


लम्हा...गुज़रता है पर नहीं गुज़रता...जिंदगी खाली साफ़ की हुयी स्लेट हो गयी है जिसमें पुराना कुछ याद नहीं है...सब एक धुंधली याद के जैसा है...कोई हंसी की किरण इस ओर तक नहीं आती कि मन में उजाला भर जाए...कोई पुराना लम्हा नहीं आता. याद के सारे फोटोग्राफ्स में एक अधूरा दर्द साथ खड़ा रहता है...धुंध भरे शीशे के पार देखती हूँ...कोई नज़र नहीं आता.


एक दो लोग हैं...पर उन्हें छूने में डर लगता है कि वो भी धुआं हो गए...उन्हें बताने तक में डर लगता है कि वो मेरी जिंदगी में कितने जरूरी हैं...किसी के गले लगने में भीगने लगती हूँ...डरती हूँ...टूट जाउंगी. ऐसे में वाकई तुम्हें बाँध के रखना चाहती हूँ...कहने में डरती हूँ...बहुत बहुत बहुत.


मैं खुद को एकदम अच्छी नहीं लगती...जाने तुम्हें कैसी लगती हूँ...सोचती हूँ...बारहा सोचती हूँ कि मुझसे कोई प्यार क्यूँ करता है...मुझे इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिलता है. हर बार चाहती हूँ कुछ ऐसा कह दूं कि तुम्हारा दिल टूट जाए और तुम मुझसे दूर चले जाओ मगर दिल को इतना पत्थर कर ही नहीं पाती हूँ. कितना भी चाहूं तुम्हें तकलीफ न दूं...पर फितरत ही ऐसी है...तुमने मेरे हाथ देखे हैं...न न ध्यान से देखो...आंसू क्रिस्तलाइज कर गए हैं...देख रहे हो कहाँ कहाँ खूबसूरती दिखती है मुझे. पर छूना न इन्हें ये बीज हैं उस विषबेल के...तुम रो दोगे तो मैं मर ही जाउंगी.


मुझे इतना तनहा रहना एकदम अच्छा नहीं लगता...ऐसे में हमेशा दिल करता है सारे दोस्तों को फोन कर लूं...पर इतना सा हक नहीं समझती...और पता है मुझे फोन नहीं चाहिए...मुझे मेरे दोस्त दिल्ली में या और किसी शहर में नहीं चाहिए...मुझे मेरे सारे दोस्त बैंगलोर में चाहिए...मेरे पास...मुझे खींच कर गले लगाने के लिए...कि मैं फोन कर सकूँ...आ जाओ और आधे घंटे में दरवाजे पर ढेरों चोकलेट के साथ लोग खड़े हों.


ऐसे कैसे खुश होती हूँ मैं...सारी खुशियाँ कमबख्त दर्द से ही जीती हैं...यही आँखों का पानी उन्हें भी सींचता है...मगर होता है न ज्यादा दिन आंसू छुपा के नहीं रखने चाहिए...फिर किसी दिन बाँध टूट जाता है. फिर सब बह जाते हैं.


बहुत हुआ...उदासी में लिखना नहीं चाहिए...अच्छा लिखने के लिए दर्द का एक थ्रेशोल्ड होता है...उससे गुज़र जाओ तो आप भरी सेंटी, वाहियात और किसी के न पढ़ने लायक लिखते हो. लेकिन मुझसे इतना नहीं होता. डायरी लिखे बहुत साल हुए. लिख के कुछ नहीं होता...कोई दर्द नहीं घटता...लिख रही हूँ बस कि बिना लिखे भी रहा नहीं जाता.


उन सारे लोगों से माफ़ी चाहती हूँ जिन्हें आज ये पढना पड़ा है. कोशिश करुँगी कि मेरे सपनों की दुनिया जो है उसमें से बाहर न आना पड़े.


Bloody Fucking Hell. Life. Hurts.

29 January, 2012

डायरी से कुछ नोट्स

मैं अपने साथ एक कॉपी लिए चलती हूँ आजकल...जब जो दिल किया लिख लेने के लिए...कल दो दिन से ढूंढ रही थी...एकबारगी तो डर भी लग गया कि कहीं प्लेन पर तो नहीं छूट गयी...यूँ तो उसके खोने का अफ़सोस भी बेहद बेहद ज्यादा होता पर इस बार इस अफ़सोस में सिर्फ अपने लिखे के खो जाने का अफ़सोस नहीं होता...कुछ यादें भी बिसर जातीं...जैसे कि धूप में बैठ कर अनुपम को अपना लिखा कुछ पढ़ते हुए देखना...और मन ही मन खुश होना...हल्ला करना कि ये वाला पन्ना मत पढ़ो न...या कि फिर सबसे जरूरी दो पन्ने कि जिसमें अनुपम और स्मृति ने कुछ लिखा है...अनुपम ने लिखा 'anything' और स्मृति ने 'अचार'. क्यूंकि दोनों महानुभावों को जब डायरी थमाई गयी तो दोनों ने पूछा क्या लिखूं...और दोनों के ठीक वही लिखा जो मैंने लिखने को कहा!

घर पर कुणाल ने कहा सब कुछ ऑनलाइन लिख दिया करो...सब यहाँ रखने पर भी कागज़ में कुछ रह जाता है जिसकी खुशबू नहीं जाती...फिर भी...कुछ टुकड़े तो सकेर ही देती हूँ. 

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तुम्हारी खुशबू कैसी थी?
ख़ुशी को अगर bottle किया जा सके तो शायद वैसी कुछ. 
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इश्क के चले जाने के बाद...
जो बाकी रह जाए, वही जिंदगी है. 
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धूप को कैसे लिखते हैं, उसकी सारी गर्मी, सारी खुशबुओं के साथ, और ख़ुशी को? सब अच्छा अच्छा से लगने के अहसास को?
अपने खुद के मिल जाने के अहसास को? इतना प्यार किन शब्दों में समेटूं? कहाँ सहेजूँ, कैसे सकेरूँ? शब्द तो पूरे पड़ते ही नहीं हैं!

कैसा रास्ता था न कि दोस्त हर कदम पर साथ खड़े थे, कि किसी ने एक भी लम्हा तनहा नहीं होने दिया,
कितना प्यार ओह कितना प्यार!
खुदा तेरा शुक्रिया!
२५.१.१२
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उस दिन मुझसे करना बातें
जिस दिन दिल के ज़ख्म भरे हों
वरना इतनी चुप्पी सुन कर
कट जायेंगे सारे टाँके
खुल जाएगा दर्द का गट्ठर
कैसे जियोगे तनहा रातें?

टूट बिखरना, मुझको थामे
साथ मेरे दरिया में बहना
सांस छुटे जब आँख थामना
मर जाने तक थामे रहना

मेरी पेशानी पर रख दो
दो दिन के दो बासी बोसे
मेरी आँखों को कह दो न
तुम मेरे हो, मेरे हो न?

१८.१.१२
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तस्वीरों के उस पार से
एक लड़की मुझे देख कर
किलकती है 
उसकी मुस्कराहट इतनी जेनुइन है
कि मुझे उससे जलन होने लगती है.

१४.१.१२
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जमीन से आसमान तक बहती हुयी नदी थी और उस नदी पर बादलों के बहुत सारे पुल थे. स्केल से खींचा हुआ सीधा समंदर था. सूरज की किरणें उड़ेलीं गयीं थीं बादलों के सारे टुकड़ों पर ज्यों कोई दोशीजा अपने भीगे बदन पर सुनहला पानी डाल रही हो नहाते हुए. 
No wonder, nature is the muse of so many artists. You can never get bored of it. Just when you are just about to begin to think you have seen it all, it bares another of its mysteries. 
प्रकृति की इस नयी अदा पर आज हम क्या कहें!
(कलकत्ता से बंगलोर आते हुए फ्लाईट में)

८.१.१२
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I come back to you the pen the way I come back to you, in pain. At the need to fill an abject vacuum in my life. A vacuum I don't understand myself. 

18.12.11
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Those that can smile with a broken heart are those that know how to plant white Lillies in the fault lines that have formed. 
18.11.11
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The memory of that day has started to blur around the edges. There are some fuzzy characters, a little sound wave that echoes off the walls of memory. A peeled wallpaper here, a coffee machine token there. Air is still dense with cigarette smoke seen through burning, red eyes. The day passes in a jiffy and all that remains of that memory is relegated to black&white. The only thing that remains lifelike in that portrait is a caption written in green ink at the bottom white portion of the photograph.
'His eyes are brown'.
12.11.11
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06 December, 2011

या फिर कहरवा - धा-गे-न-ति-नक-धिन...

तुम वहाँ से लौटा लाओ मुझे जहाँ से दुनिया ख़त्म होती है...उस परती जमीन पर पैर धरने से रोको कि वहाँ सदियों सदियों कुछ भी नहीं उगा है...वहाँ की धरती दरकी हुयी है और दरारें खूबसूरत पैरों में बिवाइयाँ डाल देती हैं...वहाँ बहुत धूल है और पानी का नामो निशान नहीं...ऐसी जमीन पर खो गयी तो कहीं नहीं जा पाऊँगी फिर...उजाड़ देश में जाके सारी नदियाँ सूख जाती हैं...मुझे लौटा लाओ जमीन के उस आखिरी छोर से कि मैं सरस्वती नहीं होना चाहती...मैं अभिशप्त जमीन के नीचे नहीं बह सकती...मुझे लौटा लो, मेरा हाथ पकड़ो...वो बहुत खतरनाक रास्ता है...वहाँ से लौटना नहीं होता.

मेरी बाहें थामो कि आज भी पहाड़ों की गहराई मुझे आमंत्रण देती है...मुझे पल भर को भी अकेला मत छोड़ो कि तुम नहीं जानते कि इन आसमान तक ऊँचे पहाड़ों के शिखरों को देखते हुए कब मैं इन सा हो जाना चाहूंगी...तुम सेकण्ड के उस हजारवें हिस्से में बस मेरे दुपट्टे का आखिरी छोर पकड़ पाओगे कि तुम भी गुरुत्वाकर्षण के नियम को अच्छी तरह समझते हो...तुम्हें पता होता कि नीचे जाने की रफ़्तार क्या होगी...बहुत उंचाई से जब नदी गिरती है तो प्रपात हो जाती है...पर तुम भी जानते हो कि मैं नदी नहीं हूँ पर पहाड़ों से गिरना वैसे ही चाहती हूँ...मैं वहाँ से गिरूंगी तो मिटटी में लुप्त हो जाउंगी...फिर सदियों में कहीं सोता फूटेगा पर अभी का मेरा पहाड़ी नदी का अल्हड़पन नहीं रहेगा उसमें...

न ना, मेरी कान्गुरिया ऊँगली को अपनी तर्जनी में फँसाये रहो कि उतना भर ही बंधन होता है जिंदगी से बंधा हुआ...मुझे छुओ कि मुझे अहसास हो कि मेरा होना भी कुछ है...सड़क पार करते हुए कभी भी मेरा हाथ मत छोड़ो कि मुझे हमेशा से तेज़ रफ़्तार दौड़ती चीज़ें आकर्षित करती हैं. कभी देखा है मंत्रमुग्ध सी गुजरती ट्रेन को...पटरियों पर कैसी धड़-धड़ गुजरती है कि जैसे एक्सपर्ट कुक किचन में सब्जियां काटता है...खट-खट-खट...क्या लाजवाब रिदम होती है...जैसे तबले पर तीन ताल बज रहा हो...या फिर कहरवा - धा-गे-न-ति-नक-धिन...धा-गे-न-ति-नक-धिन. देखा है कैसे उँगलियाँ तबले पर के कसे हुए चमड़े पर पड़ती हैं...क्षण का कौन सा वां हिस्सा होता है वो? फ्रैक्शन ऑफ़ अ सेकण्ड...कैसा...कैसा होता है कि एकदम वही आवाज़ आती है...देखो न मेरी आँखों में वैसी ही हैं...सफ़ेद और फिर बीच में काली. पलक झपकने में भी एक ताल होता है, एकदम ख़ामोशी में सुनोगे तो सुनाई देगा...

मेरी आवाज़ तुम्हें तरसती है कि जैसे कैमरा की आँख पल पल घटती जिंदगी में से किसी क्षण को...कहाँ बाँध लूं, कहाँ समेट लूं...कैसे कैसे सहेज लूँ इस छोटी सी जिंदगी में तुम्हें...और कितना सहेज लूँ कि हमारे यहाँ तो कहते हैं कि मरने के बाद भी सब ख़त्म नहीं होता...उसके बाद कुछ और ही शुरू होता है...फिर हम ये झगड़ा क्यूँ करते हैं कि ये मेरा कौन सा जन्म है और तुम्हारा कौन सा...तुम्हें भी एक जिंदगी काफी नहीं लगती न?

तुम मुझे वहाँ से लौटा लाओ जहाँ दुनिया ख़त्म होती है...

29 November, 2011

जिंदगी, रिवाईंड.

आपके साथ कभी हुआ है कि आप अन्दर से एकदम डरे हुए हैं...कहीं से दिमाग में एक ख्याल घुस आया है कि आपके किसी अजीज़ की तबियत ख़राब है...या कुछ अनहोनी होने वाली है...और आपको वो वक़्त याद आने लगता है जब आपको पिछली बार ऐसा कुछ  महसूस हुआ था...नाना या दादा के मरने से कुछ दिन पहले...कुछ एकदम बुरी आशंका जैसी.

ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.

मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.

जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.

ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.

यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.

एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?

मम्मी का हाथ पकड़ने की कोशिश करती हूँ...वो दिखती है, एकदम साफ़...हंसती हुयी...मगर उसका हाथ पकड़ में नहीं आता...फिर से पानी में गोता खा गयी हूँ. उफ्फ्फ....सर्दी है बहुत. दांत बज रहे हैं.

आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड. 

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