जिन शामों में मुझे कोई भी दुःख नहीं होता और फिर भी मेरी आँख भर भर आती है… मैं जानती हूँ कि मैं बहुत प्राचीन दुखों पर रो रही हूँ… कि मेरी आँखें रडार की तरह आसमान में देख लेती हैं कई जन्म पुराने दुःख… युद्ध की विभीषिका… मृत्यु… भय और फिर वे उन लोगों के हिस्से के आँसू रोती हैं जो असमय मर गए थे।
मेरे भीतर एक दुःख का मर्तबान है जो कभी ख़ाली नहीं होता। मेरे अंदर एक सुख का मर्तबान है जिसमें तली नहीं है।
दुःख जीवन की गर्मी पा कर सांद्र होता चला जाता है। दुःख के रहने की जगह आँखों में है। मैं किसी को अपनी आँखें चूमने नहीं देती हूँ, इसलिए।
मैं जिन शहरों की जिन गलियों से चली हूँ वहाँ युद्धबंदी चले थे अपनी अंतिम यात्राओं पर…उनकी निराशा ने मेरी आत्मा पर कुछ अक्षर अंकित कर दिए हैं जो गाहे बगाहे मेरे लिखे में दिखने लगते हैं। मैं लिखती हूँ तो मेरी आत्मा जाने किन अदृश्य शवयात्राओं में चल रही होती है… सफ़ेद कपड़े पहने… सिर झुकाए… शोक संतृप्त। मेरी हथेलियों में धूप की नहीं चिताओं की आग की गर्मी होती है जिसे लिखने में सरकण्डे की क़लम में आग लग जाती है। मैं कभी कभी स्याही में उँगलियाँ डुबो कर प्रायश्चित्त की कविताएँ लिखती हूँ… छोटे छोटे शब्दों की। हमारे यहाँ स्त्रियाँ शवयात्रा में शामिल नहीं होतीं इसलिए उन्हें उम्र भर कभी यक़ीन नहीं होता कि राम नाम सत्य है… वे अपना सत्य तलाशती रहती हैं। मैं भी अपना सत्य तलाश रही हूँ। ईश्वर के आख़िरी नाम में जो कि प्रेमी के नाम से मिलता जुलता हो। जीवन की सारी कहानियों और रामायण के जितने हिस्से याद हैं उसके बावजूद राम का सबसे गहरा असर जो मेरे मन पर होता है वो इसी वाक्य का क्यूँ है… मैं कोई किरदार लिख सकूँगी कभी कि जिसका नाम राम हो? कि दुनिया तो अब ऐसी नहीं रही कि जिसमें मैं ये कल्पना कर सकूँ कि मेरा कोई बेटा हो तो उसका नाम राम रखूँ।
आज शाम निर्मल वर्मा को पढ़ रही थी - दूसरी दुनिया। उसमें वे बोर्खेस की बात करते हुए बताते हैं कि बोर्खेस के एक वक्तव्य के बाद एक श्रोता ने पूछा कि “आप अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस करते हैं?”… बोर्खेस ने अपनी थकी आँखों से हमारी ओर देखा, “हमेशा लगता है कि मैं कहीं भटक गया हूँ, हमेशा यही लगता है।”।
इत्तिफ़ाक़ से दो तीन दिन पहले ही घर पर कुछ लोग आए हुए थे और हम विदेश यात्रा के अपने अनुभवों पर बात कर रहे थे। मैं कह रही थी कि मुझे सबसे अच्छी बात ये लगती है कि मैं कहीं भी खो नहीं सकती। दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी शहर में, कितने भी कॉम्प्लिकेटेड सब्वे सिस्टम्ज़ या कि नाव चल रही हो… मुझे हमेशा मालूम होता है मैं कहाँ हों कि मैं हमेशा लौट सकती हूँ जहाँ चाहूँ… जब चाहूँ… कि मैं कहीं भटक नहीं सकती।
बोर्खेस के इस हिस्से को पढ़ते हुए लगा कि ये वक्तव्य तब का है जब वे अपने आँखों की रोशनी पूरी तरह खो चुके थे। उस अंधेरे में कैसे आते होंगे शब्द… रंगों की कैसी स्मृति रही होगी और रौशनी की… इस भटकने में कितना आध्यात्मिक था और कितना शुद्ध सत्य। मैं जो कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकती… मैं कहाँ जाना चाहती हूँ। क्या मेरे पास कोई मंज़िल है … मैं इस रास्ते पर रहते हुए संतुष्ट हूँ या मुझे किसी मंज़िल की तलाश है...
ये कितना सुंदर सवाल है न? मैं भी शायद कुछ लोगों से पूछना चाहूँगी… ख़ास तौर से मेरे सबसे पसंद के लेखकों से… कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कौन सी चीज़ सबसे ज़्यादा महसूस की है। कि मुझसे पूछा जाए तो शायद मैं कहूँगी सफ़र में होने की ख़ुशी। या कि एक शब्द में कहें तो… प्रेम। मैंने सबसे ज़्यादा प्रेम महसूस किया है। और उससे थोड़ा ही कम प्रेम से उपजी पीड़ा। मेरे पास सबसे ज़्यादा का कोई ठीक ठीक जवाब नहीं है।
मेरी कैलीग्राफ़ी वाली क़लम खो गयी है और मैं कई दिनों से जो लिखना चाहती हूँ वो लिख नहीं पा रही हूँ क्यूँकि दिमाग़ में शब्द नहीं बस क़लम का चलना दिख रहा है। कल शायद जा कर नयी क़लम ख़रीदनी पड़े। मैं इस बार कुछ गहरे दुखों को लिखना चाहती हूँ जो ऊपर से देखने पर काफ़ी सादे से दिखते हैं लेकिन दुखते बहुत ज़्यादा हैं। जैसे कि मैं अपने घर में खाने का प्रबंधन ठीक से नहीं देख पाती। मुझे समझ नहीं आता कि कुक को क्या बनाने बोलूँ या कि उसको खाना बनाना कैसे सिखाऊँ… मुझे ख़ुद से बनाना तो आता है लेकिन सिखा नहीं सकती किसी को… तो मेरे घर के सारे लोगों को खाने के वक़्त से डर लगता है कि आज जाने कितना बुरा खाना बना होगा… हम कितने महीने से ऐसा ही खाना खा रहे हैं जो बेहद बेस्वाद होता है। मैं उसे नौकरी से निकाल दूँ… ये भी नहीं कर पा रही। लेकिन एक नॉर्मल सी ज़िंदगी में ये दुःख कितना बड़ा है कि आपको तीन वक़्त का अपनी पसंद का खाना खाने को नहीं मिले। ये दुःख उपन्यास पूरा न कर पाने या कि कहानियाँ न लिख पाने से भारी लगता है। कि लिखते पढ़ते हुए सब कुछ पर्सनल हो जाता है और जानती हूँ कि भूख दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है।
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