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15 November, 2024

जन्मपार का इंतज़ार

वक़्त को बरतने की तरतीब पिछले कुछ सालों में कितनी तेज़ी से बदली है। हमारे पास एक ज़माने में कितना सब्र होता था। कितनी फ़ुरसत होती थी। हम लंबी चिट्ठियाँ लिखते थे और उससे भी लंबा इंतज़ार करते थे। हमें वक़्त के इनफिनिट होने का भरोसा होता था। मुहब्बत करने वाले लोग अगले जन्म तक का इंतज़ार करने का माद्दा रखते थे। 

पता नहीं किस साल की बात है, पर हम लिखना सीख गए थे और दो चार दस वाक्य लिख सकते थे। इन वाक्यों में बेसिरपैर की बातें ही होती होंगी, पर इतना बात बनाना आ गया था हमको। नानाजी पटना में रहते थे और हमें पोस्टकार्ड लिखते थे। ये ३० पैसे के जवाबी पोस्टकार्ड थे, जिन पर नानाजी का पता लिखा हुआ होता था। पता, जो आज भी ज़बानी याद है। इस ब्लैंक पोस्टकार्ड पर जल्दी से चिट्ठी लिख कर डाकिये को उसी समय दे सकते थे। बचपन की एक चीज़ अब भी याद है कि कई सारे जवाबी पोस्टकार्ड पड़े रह जाते थे और हम नानाजी को जवाब नहीं दे पाते थे। उस समय लिखने का धीरज विकसित नहीं हुआ था। चंद शब्दों की क़ीमत कितनी ज़्यादा होती है, हो सकती है…ये नहीं समझते थे। मम्मी हमेशा जवाब देती थी। अक्सर उसके जवाब में आख़िरी एक लाइन हम अपनी लिख देते थे। हम शायद std. 5 में थे जब मेरे नानाजी गुज़र गए। इस बात को कई साल हो गये हैं, लेकिन वे सादे-जवाबी पोस्टकार्ड जिन पर मुझे नानाजी के लिए चिट्ठी लिखनी थी, वे मेरे भीतर आज भी टीसते हैं। हम जैसे होते हैं, हमें दुनिया वैसी ही लगती है। मुझे कभी भरोसा नहीं हुआ कि कोई मेरी चिट्ठियों का जवाब भी लिखेगा। चिट्ठी, पोस्टकार्ड, पिक्चर पोस्टकार्ड…और बाद में ईमेल।

कुछ साल पहले संजय की किताब आयी, “मिट्टी की परात”, इसी नाम की कहानी में एक बहुत पुराना कमरा होता है, जिसमें एक बहुत पुरानी मिट्टी की परात होती है…यह मिट्टी की परात एक बच्चे से टूट जाती है। वह बच्चा इस गुनाह को अपने भीतर कितने साल जीता है, पढ़ते हुए महसूस होता है। बचपन के हमारे छोटे गुनाह होते हैं लेकिन हम सालों तक ख़ुद को सज़ा देते रहते हैं। अपने हिसाब से प्रायश्चित्त करते हैं…बस, ख़ुद को कभी माफ़ नहीं करते।

इस कहानी को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि मेरे साथ कफ़स में और भी कुछ बाशिंदे हैं। कि बचपन की याद एक सॉलिटरी कन्फाइनमेंट नहीं है। कि हम इकलौते गुनाहगार नहीं। कितनी अजीब चीज़ है न कि हम कमरे में बंद हो कर ख़ुद को ही यातना देते रहते हैं। ना किसी से पूछते हैं, ना कहीं गुनाह क़बूलते हैं, ना कहीं माफ़ी माँगते हैं। अपनी ही कचहरी बिठाये, ख़ुद ही सज़ायाफ़ता मुजरिम, जज भी हम ख़ुद ही…

लैंडलाइन आया तो मुहल्ले में एक ही था। ज़रूरी खबर वहाँ से आ जाती थी। लिखते हुए भी वो घबराहट याद है कि जब वहाँ से एक अंकल लगभग दौड़ते हुए घर आये थे कि जल्दी चाहिए, पटना से फ़ोन आया है…अभी तुरंत चलिए। फिर हम लोग दौड़ते हुए उन के घर पहुँचे थे…फ़ोन बाजना शुरू हो चुका था। फिर वहाँ से बदहवासी में दौड़ते हुए घर आये हैं। खबर इतनी ही दी गई थी कि नानाजी की तबियत बहुत ख़राब है। ट्रेन पर बैठते हुए पहली बार घबराहट हुई। उसके पहले हमारे लिए ट्रेन में बैठना हमेशा ख़ुशी का सबब होता था। देवघर से पटना के रास्ते में पड़ने वाले सारे ट्रेन स्टेशन मुझे उसी क़तार में नियत अंतराल के साथ याद थे। कहाँ से कितना देर का सफ़र और बचा हुआ है। पर ये सब स्टेशन, हाल्ट…उस रोज़ बहुत धीमी रफ़्तार से गुज़रते दिख रहे थे। ननिहाल पहुँचे तो जिस चीज़ पर सबसे पहले ध्यान गया वो ये कि सीढ़ियाँ धुली हुई थीं। इसके पहले मैंने सीढ़ियाँ धुलते कभी नहीं देखी थीं। बिना गिरे उन सीढ़ियों पर दौड़ते ऊपर पहुँचे तो मालूम हुआ कि हम देर से पहुँचे हैं। कि सब लोग मसान को निकल गये हैं। धुली सीढ़ियों का हौल हमारे सीने पर ऐसा बैठा है कि आज भी धुली हुई सीढ़ियाँ देख कर धड़कन तेज हो जाती है। मेरे लिये यह मृत्यु का चेहरा था। 

इसके बाद हमने वे सफ़ेद पोस्टकार्ड देखे जिनपर तेरहवीं का न्योता आता था। और अक्सर ये पोस्टकार्ड मिलते ही फाड़ दिये या फिर जला दिये जाते थे। उन दिनों तार से मृत्यु की खबर आती थी, ऐसा भी सुनते थे। कि डाकिया तार लेकर आया है तो औरतें अक्सर तार पढ़ने के पहले से रोना शुरू कर देती थीं…यक़ीन इतना पक्का होता था कि कोई बुरी खबर ही होगी। पापा कहते थे, no news means good news. कि आदमी परदेस में रह रहा है, सब कुछ ठीक चल रहा होगा, इसलिए चिट्ठी पतरी नहीं लिख रहा। कुछ दिक़्क़त होगी तब न लिखेगा।

बचपन में चिट्ठी लिखने की दूरी और करीबी बस नानाजी से थी। फिर मेरी स्कूल की बेस्ट फ्रेंड के पापा का ट्रांसफ़र दूसरे शहर हो गया। उसे कई साल चिट्ठियाँ लिखीं। दसवीं में आने तक। मेरे पास उसके नानीघर का पता भी था, कि गर्मी छुट्टियों में हम उसके नानीघर चिट्ठी भेजते थे। हम 10th के बाद पटना आ गये और मेरी इस दोस्त का पता खो गया। पता खोना मतलब उन दिनों दोस्त खोना होता था। 1999 तक शहर बदलना मतलब हमेशा के लिए बिछड़ना होता था। लड़कियों के लिए किसी भी और शहर जाने का कोई तरीक़ा था ही नहीं। हम सफ़र सिर्फ़ घूमने के लिए मम्मी-पापा के साथ जाते थे। वक़्त अपना पर्सनल होता है, शहर अपना पर्सनल हो सकता है…ऐसा कुछ उस समय ख़्याल में कहाँ आता था।

किसी से चाहा और बात हो गई, ऐसा सिर्फ़ तब होता था जब कोई हमारा पड़ोसी रहे, क्लास मेट हो या कि फिर फ़ैमिली फ्रेंड। ट्यूशन में पढ़ने वाले लोगों से दोस्ती करने का समय नहीं था। किसी को चाहना और उससे बात करने की इच्छा होना…यह हमारी फ़ितरत ही नहीं बन पाया। हमारे भीतर साल दर साल इंतज़ार जमा होता रहता था। हमने तारीख़ें गिनीं, महीने गिने, सालों साल गिने हैं…कि हम आज भी किसी का उम्र भर इंतज़ार कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि शायद हम कभी भी नहीं मिलें।

कला में ठहरना दो तीन जगहों पर देख कर मैंने ख़ुद के भीतर दर्ज किया है, अंडरलाइन करते हुए। बहुत साल पहले किताब पढ़ी थी, गॉन विथ द विंड…उसकी नायिका स्कार्लेट, बहुत दुख होने पर कहती है, मैं इसके बारे में कल सोचूँगी…after all, tomorrow is another day. वोंग कार वाई की फ़िल्म 2046 में एंड्रॉयड्स हैं जिनमें भावनायें देर से ज़ाहिर होती हैं। delayed emotional response कि दुख आज हुआ लेकिन आँसू कई दिन बाद निकलेंगे।

सोचती हूँ तो लगता है, Everything, ultimately is unfinished. हम इसलिए पुनर्जन्म में यक़ीन करते हैं। कि हमें इस बात की चिंता न हो कि कुछ अधूरा रह गया। जन्मपार के दुख। लिखते हुए मालूम नहीं था, क्या लिख रहे हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है, ये जो हूक जैसा चुभता रहता है, सीने के बीच, बेवजह…साल दर साल…यह इंतज़ार का दुख है। कई जन्म पीछे से साथ चलता हुआ।   

जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी के अलावा, हम इंतज़ार के भी बने हैं।

18 March, 2011

सीबोनेय/ siboney

'तू अभी तक जगी क्यों है?'
'सिगरेट की तलब हो रही है...इसलिए'
'कुछ नहीं थप्पड़ खाएगी तू, आजकल तेरा दिमाग ख़राब हो गया है...सो जा चुपचाप, कल फ्राईडे है, ऑफिस तो जाना होगा'
'वो तो कल उठने के बाद...उसके लिए आज सोना पड़ेगा...पर होठों को एक सिगरेट की तलब हो रही है...और एक बालकनी की भी. वैसे तलब तो तेरी भी हो रही है पर ऐसे सात समंदर पार तुझे कैसे बुला लूं...जब तुमने स्मोकिंग छोड़ी नहीं थी...मेरे बालों में जब तुम उँगलियाँ फिराते थे बालों से धुएं की खुशबू आती थी...आह...उन दिनों तुम्हारे होठों का...जाने दो...मेरे दिमाग की वाइरिंग लूज हो गयी है.'
..................................
'सुनो'
'हाँ' 
'आज मैंने एक फिल्म देखी...२०४६ तुम कभी मेरे साथ बैठ कर ये फिल्म देख पाओगे प्लीज...जानती हूँ तुम्हारे टाइप की फिल्म नहीं है पर लगता है की तुम वैसे ही बालों में उँगलियाँ फिराते रहो और मैं तुम्हारे सीने से टिक कर पूरी फिल्म देखूं. अच्छा बता तो, क्या ये बहुत बड़ी ख्वाहिश है?'
'ह्म्म्म'
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'लोग कहते हैं कि तुम्हारी टिकट बहुत महँगी है, बताओ तो एक लाख में कितने जीरो होते हैं,  हंसो मत न...जानते हो की मेरी मेरी मैथ कितनी कमजोर है. अगर तीस हज़ार बचाऊं हर महीने तो कितने दिन में तुम्हारा रिटर्न टिकट खरीदने लायक पैसे हो जायेंगे? मुझसे मिलने कब आओगे?
'पता नहीं...तुम तो जानती हो कितना मुश्किल है यहाँ सब सेटल करना...आज अचानक तुम्हें क्या हो गया है...आज फिर स्कॉच मारी हो क्या? अगली बार तुम्हारे लिए नहीं लूँगा. तुम ये सेंटी फिल्में देखती क्यों हो...खामखा क्या क्या बोलने लगती हो'.
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'तुमने तो बहुत लड़कियों से प्यार किया होगा, बताओ तो भला सबसे जियादा किससे प्यार किया...जाने दो, पता है Days of Being Wild में जो हीरो है न वो एक लड़की को कहता है कि मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा...मरने के पहले वाले कुछ क्षण में वो उसी लम्हे को याद करता है जब उसने ऐसा कहा था. मैं सोचती हूँ कि मैं मरने के वक़्त किसे याद करुँगी...मौत धीरे धीरे आती है क्या? आपको यकीन भी नहीं होता कि आप सच में मर जायेंगे...जैसे कि प्यार, कभी नहीं लगता है कि प्यार सच में हो जाएगा.
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एक ही दुःख है...तुम्हें जब आखिरी बार किस किया था तो पता नहीं था कि ये आखिरी बार होगा. 
आह...जिंदगी, तुझसे इश्क करना कितना तकलीफदेह है!


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