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17 November, 2023

Emotional anaesthesia

एक हफ़्ते पहले डेंटिस्ट के पास गयी थी। डेंटल सिरदर्द पूरी उमर चलता रहा है। बहुत कम वक्त हुआ है कि दांतों में कोई दिक्कत न रही हो और दोनों ओर से ठीक-ठीक चबा कर खाना खा सकें। कैविटी थी बहुत सारी, इधर उधर, ऊपर नीचे…ग़ालिब की तरह, एक जगह हो तो बताएँ कि इधर होता है।

डेंटिस्ट ने पूछा, अनेस्थेसिया का इंजेक्शन देना है कि नहीं। तो हम बोले, कि ऑब्वीयस्ली देना है। कोई बिना अनेस्थेसिया के इंजेक्शन के क्यूँ ये काम कराएगा, क्या कुछ लोगों को दर्द अच्छा लगता है? इसपर डेंटिस्ट ने कहा, कभी कभी दर्द बहुत ज़्यादा नहीं होता है, बर्दाश्त करने लायक़ होता है।
अब ये बर्दाश्त तो हर व्यक्ति का अलग अलग होता है, सो होता ही है। मुझे ये भी महसूस हुआ कि उमर के अलग अलग पड़ाव पर हमारे दर्द सहने की क्षमता काफ़ी घटती-बढ़ती रहती है। 2018 में महीनों तक मुझे घुटनों में बहुत तेज़ दर्द रहा था। रात भर चीखते चीखते आख़िर को चुप हो गयी थी, तब लगा था, इससे ज़्यादा दर्द हो ही नहीं सकता। फिर 2019 में बच्चे हुए। सिज़ेरियन एक बड़ा ऑपरेशन होता है, उसमें भी मेरे जुड़वाँ बच्चे थे। जब तक ख़ुद के शरीर में ना हो, कुछ चीज़ें सेकंड हैंड एक्स्पिरीयन्स से नहीं समझ सकते। जब पेनकिलर का असर उतरा था, तो लगा था जान निकल जाएगी, ये भी लगा था, इतना दर्द होता है, फिर भी कोई औरत दूसरा बच्चा पैदा करने को सोचती भी कैसे है। यह सोचने के दो दिन बाद मेरी दूसरी बेटी NICU, यानी कि Neonatal ICU से निकल कर आयी थी और पहली बार दोनों बेटियों को एक साथ देखा, तो लगा, यह ख़ुशी एक अनेस्थेसिया है। इस ख़ुशी की याद से शायद हिम्मत आती होगी। डिलिवरी के ठीक एक हफ़्ता बाद हम पूरी तरह भूल गए थे कि कितना दर्द था। मेरी दर्द को याद रखने की क्षमता बहुत कम है। जल्दी भूल जाती हूँ।
बचपन में डेंटिस्ट के यहाँ जाते थे तब ये पेनकिलर इंजेक्शन नहीं बना था। अब तो पेनकिलर इंजेक्शन के अलावा नमबिंग जेल होता है, जिसके लगाने पर इंजेक्शन देने की जगह भी दर्द नहीं होता। दांत साफ़ करने की मशीन की झिर्र झिर्र मुझे दुनिया की सबसे ख़तरनाक आवाज़ लगती है, जिसे सुन के ही उस दर्द की याद आती है और सिहरन होती है।
यहाँ मैं डेंटिस्ट की कुर्सी पर बैठी हूँ, और मैं ही हूँ जो डेंटिस्ट से कह रही हूँ कि बिना अनेस्थेसिया कर के देखते हैं, कहाँ तक दर्द बर्दाश्त हो सकता है।
आँख के ऊपर तेज़ रोशनी होती है। तो आँखें ज़ोर से भींच के बंद करती हूँ। कुर्सी के हत्थों पर हाथ जितनी ज़ोर से हो सके, पकड़ती हूँ। साँस गहरी-गहरी लेती हूँ। डॉक्टर कहता है, रिलैक्स।
बिना ऐनेस्थेटिक। जिसको हम मन का happy place कहते हैं। ज़ोर से आँख भींचने पर दिखता है। साँस को एक लय में थिर रखती हूँ। Emotional anaesthesia.
मन सीधे एक नए शहर तक पहुँचता है, धूप जैसा। Can a hug feel like sunshine? Filling me with warmth, light and hope? अलविदा का लम्हा याद आता है। क्यूँ आता है? किसी को मिलने का पहला लम्हा क्यूँ नहीं आता? या कि आता है। धुँधला। किसी को दूर से देखना। घास के मैदान और मेले के शोरगुल और लोगों के बीच कहीं। सब कुछ ठहर जाना। जैसे कोई आपका हाथ पकड़ता है और वक़्त को कहता है, रुको। और वक़्त, रुक जाता है।
I float in that hug. Weightless. आख़िरी बार जब दो घंटे के MRI में मशीन के भीतर थी, तब भी यहीं थी। कि अपरिभाषित प्रेम से भी बढ़ कर होता है?
मुझे टेक्स्चर याद रह जाता है। रंग भी। कपास। लिनेन। नीला, काला, हल्का हरा। छूटी हुयी स्मृति है, कहती है किसी से, तुम्हारी ये शर्ट बहुत पसंद है मुझे। ये मुझे दे दो। उसे भूल जाने के कितने साल बाद यह लिख रही हूँ और उसके पहने सारे सॉलिड कलर्ज़ वाले शर्ट्स याद आ रहे, एक के बाद एक।
दो फ़िल्में याद आती हैं, वौंग कार वाई की। Days of being wild और As tears go by. इन दोनों में मृत्यु के ठीक पहले, एक लड़का है जो एक लड़की को याद कर रहा है। डेज़ ओफ़ बीइंग वाइल्ड वाला लड़का गलती से गोली लगने से मर रहा है और उस लड़की को याद कर रहा है, जिसके साथ उसने थिर होकर एक मिनट को जिया था और वादा किया था कि मैं इस एक मिनट को और तुम्हें, ताउम्र याद रखूँगा। As tears go by के लड़के को एक फ़ोन बूथ में हड़बड़ी में चूमना याद रहता है। स्लो मोशन में यह फ़ुटेज उसे लगती हुयी गोलियों के साथ आँख में उभरता है। हम पाते हैं कि we are unconsolable. मृत्यु इतनी अचानक, अनायास आती है, हमें खुद को सम्हालने का वक़्त नहीं मिलता। ये दोनों लड़के बहुत कम उमर के हैं। जिस उमर में मुहब्बत होती है, इस तरह का बिछोह नहीं।
मन में शांत में उगते ये लम्हे कैसे होते हैं। धूप और रौशनी से भरे हुए। मैं याद में और पीछे लौटती हूँ, सोचती हुयी कि ये लोग, ये शहर, ये सड़कें, ये इतना सा आसमान नहीं होता तो कहाँ जाती मैं, फ़िज़िकल दुःख से भागने के लिए। इन लम्हों में इतनी ख़ुशी है कि आँख से बहती है। आँसू। डेंटिस्ट की कुर्सी है। अभी अभी मशीन झिर्र झिर्र कर रही है, लेकिन मैं बहुत दूर हूँ, इस दर्द से। इतनी ख़ुशी की जगह जहाँ मैं बहुत कम जाती हूँ। मेरे पास ख़ुशी चिल्लर सिक्कों की तरह है जो मैंने पॉकेट में रखी है। इसे खर्च नहीं करती, इन सिक्कों को छूना, इनका आकार, तापमान जाँच लेना, यक़ीन कर लेना कि ये हैं मेरे पास। मुझे खुश कर देता है।
कि भले ही बहुत साल पहले, लेकिन इतना सा सुख था जीवन में…इतना सांद्र, इतना कम, इतना गहरा…अजर…अनंत…असीम।
इमोशनल अनेस्थेसिया के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये होती है, कि इसका असर हटता है तो मन में इतना दुःख जमता है कि लगता है इससे अच्छा कोई फ़िज़िकल पेन बर्दाश्त कर लेते तो बेहतर होता। मन इधर से उधर डोलता है। जैसे ज़मीन हिल रही हो। थोड़ी थोड़ी।
डेंटिस्ट के यहाँ से लौटते हुए देखती हूँ कि वहाँ पारदर्शी शीशा है। और वहाँ की कुर्सी, वहाँ के डॉक्टर, किसी ऑल्टर्नट दुनिया की तरह लगते हैं। कि मैं अभी जहाँ से लौटी हूँ कि जबड़ा पूरा दर्द कर रहा है। लेकिन दिल पर ख़ुशी का जिरहबख़्तर है और वो बेतरह खुश है। कि बदन को कुछ भी हो जाए, मुहब्बत में डूबे इस दिल को कोई छू भी नहीं सकता।

14 August, 2019

सपना। बर्फ़। तुम।

सुबह उठी थी तो भोर का टटका सपना था। बहुत साल पहले पूजा के लिए फूल तोड़ने जाती थी, दशहरा के समय तो फूल ऐसे लगते थे। रात की ओस में भीगे हुए। थोड़ी नींद में कुनमनाए तो कभी एकदम ताज़गी लिए मासूम आँखों से टुकुर टुकुर ताकते। सफ़ेद पाँच पत्तों वाले फूल। कई बार चम्पा। कभी कभी गंधराज भी। मुझे सफ़ेद पत्तों वाले फूल बहुत पसंद रहे। ख़ास तौर से अगर ख़ुशबू तो तो और भी ज़्यादा। आक, धतूरा... रजनीगंधा, हरसिंगार...

सपने में तुम्हारा शहर था। मैं पापा और कुछ परिवार के लोगों के साथ अचानक ही घूमने निकल गयी थी। तुम्हारा शहर मेरे सपने में थोड़ा क़रीब था, वहाँ बिना प्लान के जा सकते थे। तुम समंदर किनारे थे। तुमने चेहरे पर कोई तो फ़ेस पेंटिंग करा रखी थी...चमकीले नीले रंग की। या फिर कोई फ़ेस मास्क जैसा कुछ था। तुम्हारी बीवी भी थी साथ में। हम वहाँ तुमसे मिले या नहीं, वो याद नहीं है।

मेट्रो के दायीं तरफ़ एक बहुत बड़ा सा म्यूज़ीयम था। आर्ट म्यूज़ीयम। घर के सारे लोग जाने कहाँ गए, मैं अकेली वहाँ अंदर चली गयी। वहाँ अद्भुत पेंटिंग्स थीं। आकार में भी काफ़ी बड़ीं और बेहद ख़ूबसूरत थीम्ज़ पर। मैं म्यूज़ीयम के सबसे ऊपर वाले फ़्लोर पर थी और फिर जाने कैसे छत पर। इसी बीच कोई बदमाश बच्चा छत पर के टाइल्ज़ उखाड़ने लगा एक एक कर के। छत पर भगदड़ सी मच गयी क्यूँकि बाक़ी टाइल्स उखड़ने लगी थीं और लोग फिसल कर गिर सकते थे। तभी पुलिस आती है और लोगों को स्थिर होने को कहती है। लोग डिसप्लिन में एक दूसरे के पीछे क़तार में लग जाते हैं। पुलिस उस बच्चे को पकड़ लेती है और नीचे उतार देती है। सब लोग भी अलग अलग तरफ़ से छत से उतर आते हैं। मैं नीचे उतरती हूँ तो ध्यान जाता है कि मैंने इस गेट से एंटर नहीं किया था और इतने बड़े म्यूज़ीयम में कितने गेट हैं मुझे मालूम नहीं, न ही ये मालूम है कि उनमें से मेरा गेट कौन सा है कि उसी गेट पर मैंने अपनी जैकेट और बूट्स जमा किए हैं। आसपास भीड़ बहुत है। तब तक तुम कहीं से आते हो, मैं बताती हूँ कि मेट्रो के पास वो गेट है जिससे मैं अंदर गयी थी। तुम मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ उस भीड़ में से लिए चलते हो। साथ में हमारे हाथ गर्म हैं, दस्ताने की ज़रूरत नहीं है। हम उस गेट से मेरे जूते और कोट लेते हैं। तुम कोट पहनने में मेरी मदद करते हो।

हम वहाँ से किसी इमारत की छत पर जाते हैं। हल्की ढलान वाली छत है। बर्फ़ पड़ी हुयी है लेकिन ठंड नहीं लग रही है। हम उस बहुत ऊँची इमारत की छत पर बैठे बैठे बहुत देर तक बातें करते हैं। मेरे पास एक दो मीठे टाको हैं जो मैंने एक कुकिंग शो में देखे थे। उनके अंदर फेरेरो रोचेर भरे हुए हैं। हम बहुत ख़ुश होकर वो खाते हैं। थक जाने पर हम दोनों ही उस छत पर पीठ के बल लेट जाते हैं, एक दूसरे के एकदम पास और आसमान देखते हैं। हमारे मुँह से भाप निकल रही होती है। हम फिर किसी चिमनी के पास थोड़ा टिक कर बैठते हैं। इस बार हम कुछ कह नहीं रहे हैं। हमने एक दूसरे को बाँहों में भरा हुआ है। हम अलविदा के लिए ख़ुद को तैय्यार कर रहे हैं। हम सपने में भी जानते हैं कि अब जाना है। तुम मुझे वहाँ से अपना घर दिखाते हो। बहुत ऊँचे फ़्लोर पर है, जहाँ लाइट जल रही है...कहते हो कि वहाँ से पूरा शहर दिखता है। मैं पूछती हूँ, ये छत और हम तुम भी... तुम कहते हो हाँ।

हम दोनों रुकना चाहते हैं एक दूसरे के पास, एक दूसरे के साथ... लेकिन सपने के किनारे धुँधलाने लगे हैं। हम थोड़ी और ज़ोर से पकड़ लेते हैं एक दूसरे का हाथ... आसपास सब कुछ फ़ेड हो रहा है। तुम भी धुँधला जाते हो और फिर सफ़ेद धुँध में घुल जाते हो। मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट मेरे धुँध में घुलते घुलते भी बाक़ी रहती है।

***
मैं जागती हूँ तो मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट और ज़ुबान पर चोक्लेट का हल्का मीठा स्वाद है। मैं पिछले काफ़ी दिनों से ख़ुद को कह और समझा रही हूँ कि मुझे तुम्हारी याद नहीं आती। कि न भी मिले तुमसे, तो कोई बात नहीं। लेकिन मेरे सपनों को इतनी समझ नहीं। तुमसे मिलना बेतरह ख़ुशी और बर्दाश्त से बाहर की उदासी लिए आता है। मैं जागती हूँ तो तुम्हें इतना मिस करने लगती हूँ कि दुखने लगता है सब कुछ। हूक उठती है और तुम्हें याद करने के सिवा और कोई ख़याल बाक़ी नहीं रहता।

जिनसे मन आत्मा का जुड़ाव रहता है, ऐसे लोग जीवन में बहुत कम मिलते हैं। ऐसा बार बार क्यूँ लगता है कि तुम किसी पार जन्म से आए हो? ऐसा मुझे सिर्फ़ बर्न जा के लगा था कि कोई ऐसी याद है जो इस जन्म के शरीर की नहीं, हर जन्म में एक, आत्मा की है।

मैं अब भी नहीं जानती कि तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो... क्या किसी सुबह तुम भी यूँ ही परेशान होते हो कि जिससे एक बार ही मिले हों, सिर्फ़, उसकी याद थोड़ी कम आनी चाहिए, नहीं?

***
Let's see each other again. Then, if you think we shouldn't be together, tell me so frankly... That day, six years ago, a rainbow appeared in my heart. It's still there, like a flame burning inside me. But what are your real feelings for me? Are they like a rainbow after the rain? Or did that rainbow fade away long ago?
-2046

20 January, 2019

लव यू बे

आज याद आया कि तुम्हारे गले लगे साल से ऊपर होने को आया। अजीब सा दुखा कुछ। हूक जैसा। सोचती हूँ इसमें मेरी क्या ग़लती कि मैं प्यार नहीं करती तुमसे। प्यार कभी कभी ख़त्म हो जाता है। हमेशा वग़ैरह टाइप की चीज़ें सिर्फ़ पहले प्यार के लिए रिज़र्व होती हैं। तब लगता है कि ज़िंदगी भर इसी एक लड़के से प्यार रहेगा। दूसरे, तीसरे और बाद के कितने भी नम्बर वाले प्रेम के हिस्से बहुत कुछ होता है, ‘हमेशा’ नहीं होता। यूँ भी अब मैं हमेशा का इस्तेमाल बहुत बहुत कम चीज़ों के लिए करती हूँ। ज़िंदगी में इतनी तेज़ी से चीज़ें बदलती हैं, लोग छूट जाते हैं। शहर छूट जाते हैं। क़िस्सा, कहानी, किरदार, कविता… कुछ भी नहीं रहता है हमेशा के लिए।

हाँ, मैं नहीं करती तुमसे प्यार। हमेशा वाला। लेकिन मैं पूरी तरह भूल भी नहीं पाती न किसी को। ज़रा सा प्यार छूटा रह जाता है। उस ज़रा से प्यार का करते क्या हैं?

कोई नया गाना आता है ना, इतना पसंद कि दिन रात, सुबह शाम लूप में वही एक गाना सुनते हैं बस। नींद में, जाग में, नहाते हुए, खाते हुए… बस वही एक गाना, वही बोल, वही धुन। ऐसे ही होता है प्यार। जब चढ़ता है तो कुछ और नहीं सूझता महबूब के सिवा। उसके दिन, रात, शामें… उसका शहर, किताब, कविता, हँसी उसकी या कि उसका ग़ुस्सा ही। ज़िंदगी में उसके सिवा कुछ नहीं होता। फिर जैसे एक दिन गाना उतर जाता है सुन सुन के, वैसे ही एक दिन मुहब्बत चली जाती है दिल से। हम विरक्त हो जाते हैं उस प्रेम के प्रति। लेकिन इन चीज़ों के बारे में कोई नहीं लिखता। कि अभी लोग ज्ञान देने पहुँच जाएँगे, ऐसा थोड़े होता है। होता है जी, हमारे साथ हुआ है।

लेकिन इसके बाद का क़िस्सा भी तो है। दिल जाने किस याद पर कचकता रहेगा। मैं सोचती रहूँगी। आसान था तुम्हारे लिए यूँ चले जाना। लेकिन तुम्हें गले नहीं लगा कर मुझे इतना दुःख रहा है तो तुम्हें जाने कितना दुखा होगा। मैं तुम्हारे दुःख का सोच कर तड़प जाती हूँ। क्या है ना जानम, तुम्हें ये वाला प्यार समझ नहीं आएगा। शब्द कम हैं हमारे पास इसलिए प्यार और दोस्ती वाले दो ही ऑप्शन दिए जाते हैं। जो हम कह दें, कि नहीं, कुछ और भी होता है तो? समझ पाएँगे लोग? लोगों का पता नहीं, मुझे लगता है तुम ही नहीं समझ पाओगे।

मैं सपने में तुम्हें देखती हूँ। बरगद का पेड़ है। पेड़ के नीचे हनुमान जी की प्रतिमा लगी है। किसी दोपहर वहाँ तुम्हें एक पूरी नज़र देखना माँगा था। तुम सिगरेट का आख़री कश मार रहे थे, तुम्हें क्या ज़िद कहते हम। फिर इतने बेग़ैरत तो हैं नहीं कि ज़बरन गले में बाँहें डाल दें। ‘हमने कर लिया था अहदे तर्क-ए-इश्क़, तुमने फिर बाँहें गले में डाल दीं’।

सुनो। कुछ बचा नहीं है हमारे बीच। तो वो चिट्ठियाँ जला ही देना। कि तुम्हारे शहर में तो कहते हैं सबको मोक्ष मिल जाता है। कौन जाने मुझे ही चैन से जीना आ ही जाए तुम्हारे बग़ैर भी। अच्छा ये है कि तुम्हारी आवाज़ इंटर्नेट पर है, तुम्हें याद करके मरूँगी नहीं। हाँ, वो मिस करती हूँ अक्सर, कि ज़िद करके कोई कविता रेकर्ड करवा लूँ तुमसे। कि बस माँग लूँ हथेली खोल के और तुम धर दो… कोई नन्हा सपना, कोई ज़िद्दी शेर, कहकहा कोई… पता है, मैं तुम्हारी हँसी को बहुत मिस करती हूँ। तुम्हारी सिगरेट को भी। तुम्हें पता है, चाय मैंने पहली बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए पी थी। तुम्हारी तरह कड़क। क्या क्या सोचती रही तुम्हारे शहर के बारे में। आते आते रुकी। सोचती रही कि आने से कोई दिक्कत तो ना होगी तुम्हें। जाने कैसे होते तो तुम अपने शहर में। शायद वो शहर जो तुम्हें पहचानता है, मुझे पहचानने से इनकार कर दे। कौन जाने।

याद है एक दिन कैसी पगला गयी थी, कि छत से कूद ही जाऊँगी। कि अमरीका होता तो बंदूक़ ख़रीद लाती और ख़ुद को गोली मार लेती। कि लगता था कि तुमसे कहूँगी तो तुम फिर से डाँटोगे इतना कि मरने का ख़याल मुल्तवी कर देंगे। तुम्हें कई बातें नहीं बातायीं। कि जैसे तुम्हारे सिवा कोई नहीं डाँटता मुझे। कि सच्ची तुमसे डाँट खा के अच्छा लगता था। जैसे बचपन का कोई हिस्सा बाक़ी हो। कि ग़लतियाँ करना अच्छा लगता था। तुम्हारे डाँटने से ये भी तो लगता था कि अब माफ़ कर दोगे। हो गयी बात ख़त्म। कोई बात ज़िंदगी भर भी चल जाएगी, ये कौन सोच सकता था। तुम्हारी नाराज़गी थोड़ी कम चले, सो लगता है ज़िंदगी ही छोटी रहे थोड़ी। कि तुम उम्र भर ही तो नाराज़ रहोगे मुझसे... मरने के बाद थोड़े न।

काश कि जब आख़िरी बार मिले थे तुमसे, मालूम होता कि आख़िरी बार गले लग रहे हैं तुमसे। तो बस थोड़ा ज़्यादा देर भींचे रहते तुमको। कहते तुमसे। तुम उम्र में बड़े हो, मेरा माथा चूम कर अलविदा कहो। कि रोकने का न अधिकार है न दुस्साहस। बस, ज़िंदगी से थोड़ी सी गुज़ारिश है कि कभी मिलो फिर… इस बार प्यार से अलविदा कहना। कि मैं जाने प्यार तुमसे करती हूँ या नहीं, पर विदा प्यार से कहना चाहती हूँ तुमको।

आइ मिस यू। बहुत।
लव यू बे।

01 October, 2018

वयमेव याता:

जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…

१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।

वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।

२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।

फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।

मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।

३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।

४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।

५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।

कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।

६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।

मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir! 

28 February, 2018

आधी कविता में।

गुज़र चुके मौसम का
आख़िरी सुर्ख़ पत्ता
भूला रह गया है
कविता की किताब के बीच। 
मैं ठिठकी रह गयी हूँ
वहीं
आधी कविता में।
***
उसने आँसुओं में घोल दीं
अपनी काली आँखें
उस स्याही से अलविदा लिखते हुए
सबकी ही उँगलियाँ काँपती थीं 
***
नालायकों के हाथ बर्बाद हो जाना है
एक दिन सब कुछ ही
मुहब्बत। हिज्र। उदासी।
तुम अपना क़ीमती वक़्त
उनसे बचा कर रखो।
***
मुहब्बत की बेवक़ूफ़ी का क्या कहें
महसूसती है जो होता नहीं कहीं
'अलविदा' में 'फिर मिलेंगे' की ख़ुशबू.
***
ज़ख़्म नयी जगह देना
कि उसे देखते हुए
तुम्हारी याद आए 
दिल हज़ार बार टूटा है मेरा
तुम रूह चुनना
जानां 
***
It should hurt less.
You should love less. 
***
किसी अनजानी भाषा की फ़िल्म है। दुखती है जैसे कि रूह ने कहे हों उससे जन्मपार के दुःख। वे दुःख जो मुझे मालूम भी नहीं थे, कि आँख में रहते हैं। हमेशा से। ट्रेलर रिपीट पर सुन रही हूँ। 
आवाज़ अनजानी भाषा का एक शब्द है, मैं सुनती हूँ अपना पहचाना हुआ, 'सिनमॉन'। फिर से देखती हूँ ट्रेलर। और सही ही शब्द है। 'प्रेम के बिना'। मेरा नाम। 'सिनमॉन'।
Ana ने एक छोटे से बिल्ली के आकार वाले बटुए में सायनाइड की गोली रखी है। मेरे पास ठीक वैसा बटुआ है। ऐना खो गयी है। उसकी दोस्त कहती है, 'उन दिनों हमारे पास 'गुम जाने' के लिए कोई शब्द नहीं था। मेरे पास तुम्हारे खो जाने के लिए कोई शब्द कहाँ है। 
उन सारे दोस्तों के खो जाने के लिए कोई शब्द कहाँ है। लेकिन मैं चाहती हूँ। लिखूँ कोई एक शब्द, जो कह सके, 'गुम हो गए लोग'। लेकिन मैं तुम्हें लिखने से डरती हूँ। मेरे लिखे किरदार सच हो जाते हैं। 
मैंने जाने कितने दिन बाद पूछा किसी से आज शाम। 'मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। 
टूटा हुआ दिल प्रेम करने की इजाज़त नहीं देता। कहानियाँ लिखने की भी नहीं। लेकिन फिर भी मुझे लगता है। तुम्हारे होने से ज़िंदगी थोड़ी ज़्यादा काइंड लगती। थोड़ी ज़्यादा बर्दाश्त करने लायक।
मोक्ष। लौट आओ। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। लेकिन लौट आओ सिर्फ़ इसलिए कि मुझे अलविदा कहना है तुम्हें। प्रॉमिस। मैं तुम्हें रोकूँगी नहीं। 
अपूर्व की कविता की तरह, लौट आओ कि अलविदा कह सकूँ, कि, 'तीन बार कहने में विदा, दो बार का वापस लौटना भी शामिल होता है'।
Trailer: Symphony for Ana (Sinfonía para Ana). from Ernesto Ardito y Virna Molina on Vimeo.

01 October, 2017

पर्फ़ेक्ट अलविदा


बिछोह के दो हिस्से होते हैं। एक जो ठहर जाता है और एक जो दूर चलता जाता है। हम कई बार डिस्कस करते हैं कि अलग कैसे होना है। अक्सर मिलने के लम्हे ही।

इक बार किसी से मिली थी दिल्ली में तो उसने कहा था कि जाते हुए लौट कर नहीं आना, मैं फिर जा नहीं सकूँगा। वो मेट्रो की सीढ़ियों पर ऊपर खड़ा रहा। मैं नीचे उतरते हुए मुड़ कर देखती रही। एक आख़िरी बार मुड़ कर देखा। बहुत दिल किया कि दौड़ कर वो पचास सीढ़ियाँ चढ़ आऊँ, एक बार और मिल लूँ उससे गले। लेकिन उसने मना किया था। यूँ तो मैं किसी की बात नहीं मानती, मगर उस बार उसकी मान ली। इसके बाद जब हमारी बात हुयी तो उसने कहा, तू लौट कर आयी क्यूँ नहीं...जब मेरी कोई बात नहीं मानती है तो मेरी ये वाली बात क्यूँ मानी...मुझे आज भी मालूम नहीं कि क्यूँ मानी। शायद मुझे अपने दिल की सुननी चाहिए थी।

मैं किसी को छोड़ कर जा नहीं सकती। अक्सर मुलाक़ातों के आख़िरी दिन मेरी ख़्वाहिश रहती है कि कोई दूर होते हुए गुम हो जाए और मैं उसके गुम हो जाने को आँखों में सहेज के रखूँ। ट्रेन के दूर जाते हुए। सड़क पर दूर जाते हुए। कहीं से भी दूर जाते हुए। मैं ठहरी रहती हूँ जब तक कि कोई दिखना बंद ना हो जाए। यूँ ही तो सूरज डुबाना अच्छा लगता है मुझे। मैं एकदम से उसकी आख़िरी किरण तक ठहरी रहती हूँ। तसल्ली से।

अलग होते हुए कुछ लोग मुड़ कर नहीं देखते। दो लोग अलग अलग दिशाओं में जा रहे हों तो ऐसा भी होता है कि जब आप मुड़ के देख रहे हों तो दूसरे ने मुड़ कर नहीं देखा हो मगर वो किसी और वक़्त मुड़ कर देखेगा और यही सोचेगा कि आपने जाते हुए एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा।

दूर जाते हुए इक आख़िरी बार मुड़ कर क्या देखते हैं हम?

हम मुड़ कर ये देखते हैं कि जो हमारा था, वो वहीं है या लम्हे में गुम हो गया। कोई दूर जा रहा हो तो उस स्पॉट पर खड़े रहने की आदत मेरी है। मुझे लगता है दूर होते हुए हर कोई एक बार और लौट कर आना चाहता है। एक आख़िरी हग के बाद के आख़िरी हग के लिए शायद। पर हम लौट कर नहीं आते। दूर से देखते हैं और सोचते हैं...आदत दिलाते हैं ख़ुद को, उसके बग़ैर जीने की, उस लम्हे से ही।

ये मुड़ के देखना कुछ ऐसा है कि हर बार अलग होता है। कोई दो बार अलग होना एक जैसा नहीं होता। कोई दो शख़्स एक जैसे नहीं होते। हम भी तो बदल जाते हैं अपनी ही ज़िंदगी के दो बिंदुओं पर।

इस फ़िल्म में दूर जाती हुयी सेजल है। यहाँ सोचता हुआ ठिठका हैरी है कि वो क्या ढूँढ रहा है...और ठीक जैसे उसे लगता है कि जिसे वो ढूँढ रहा है, वो सेजल तो नहीं...वो उसका नाम लेता है, 'सेजल', ठीक उसी लम्हे वो मुड़ती है। एकदम हड़बड़ायी, आँख डबडबायी...कितनी ही ज़्यादा वल्नरेबल...उसकी आँखें रोयी हुयी आँखें हैं। उदास। नाउम्मीद। वो मुड़ती है कि उसे अचानक से लगा कि किसी ने उसे पुकारा है। उसका यूँ मुड़ के देखना, उसका जवाब है, कि मैंने सुन लिया अपना नाम जो तुमने पुकारा नहीं...लिया है बस...ठहर कर। कि आत्मा की पुकार पहुँच जाती है आत्मा तक। कि दो इंसानों को जो जोड़े रखता है, उस फ़ोर्स का कोई इक्वेज़न हमें ठीक ठीक समझ नहीं आता।

मैं उस बेहद भीड़भरे चौराहे पर खड़ी थी कि जब वो मेरे आसमान से टूटते तारे जैसा टूटा था और भीड़ में बुझ गया था एक बार तेज़ी से चमक कर। मैं खड़ी थी कि उसे आसमान में गुम होता देख लूँ आख़िर तक।

मुझे मालूम नहीं था, पर उम्मीद थी कि जाते हुए वो एक आख़िर बार मुड़ के देखेगा ज़रूर। अलग हो जाने के पहले के वो आख़िरी लम्हे को देखना उसे। ये जानते हुए कि इस इत्ति बड़ी दुनिया में, जाने कब ही आ पाऊँगी उसके शहर फिर कभी।
कि जिसके पास रहते कभी नज़र भर देखा नहीं उसे बहुत दूर से एक आख़िर बार यूँ भरी भरी आँख से देखना कि जैसे उम्र भर को काफ़ी हो, बस वो एक नज़र देखना। बस वो आख़िर नज़र देखना।

सुख में होना उस लम्हे। ये जानते हुए कि सुख, दुःख का हरकारा है। कि बाद बहुत साल तक दुखेगा उसका यूँ आख़िरी बार मुड़ कर देखना। उस लम्हे, ख़ुश हो लेना एक आख़िरी बार देख कर उसकी आँखें।

यूँ, हुए जाना, एक पर्फ़ेक्ट अलविदा।
यूँ, हुए जानां, एक पर्फ़ेक्ट अलविदा।

20 February, 2015

उन्निस फरवरी सन् दो हजार पंद्रह। दिल्ली।

जिंदगी की अपनी हैरतें हैं. आड़ी तिरछी गलियों से गुज़रती हुयी लड़की अक्सर सोचती कि इन मकानों में कैसे लोग रहते होंगे. इन जाली लगी खिड़कियों के पीछे वो कौन सा खजाना छुपा रहता होगा कि दिन भर खोजी आँखें रखने वाली बूढ़ी औरतें इन खिड़कियों से सटे हुए बरामदों में ताक झाँक करती रहती हैं. वहां की बालकनियों में दम घुटता था. लड़की अब इन सब से दूर खुली हवा वाले अपने शहर तक लौट जाना चाहती थी. 

उसे कहीं जाना न था. न किसी शहर. न किसी की बांहों में. फिर भी जब वो पास होता तो एक शहर उगने लगता उसकी आँखों में. इस शहर का तिलिस्म सब लड़की के दिल में था. लड़की की कल्पनाओं में बड़े चमकीले रंग थे. बड़े सुहाने लोग. यहाँ इंतज़ार सी रातें नहीं थीं. सब चाहना पर मिल जाने वाला हुआ करता था. इस शहर में कभी बिछड़ना नहीं होता था. मगर ये शहर दुनिया को रास नहीं आता था. जब भी वे इस शहर की निशानियाँ पाते, वहां दंगा करवा देने की साजिशें बुनते. सटे हुए मकानों में चुपके चुपके बनाये हुए घरेलू बम फेंका करते. सिर्फ जरा से केरोसीन और कुछ और तत्वों को मिला कर एक शीशे की बोतल में डाल देना होता था बस. ये वो बोतलें हुआ करती थीं जिनमें आला दर्जे की शराब रखी होती थी. लड़की की ख्वाहिशों में इन खाली बोतलों में लिखने को चिट्ठियां थीं. दंगे में लगी आग में सारी चिट्ठियों के पते जल गए थे. आग बुझाने के लिए नदी से पानी लाना पड़ता था मगर नदी का सारा पानी लड़की की आँखों ने सोख लिया था. यूँ आग तो रेत से भी मिट जाती मगर उसमें बहुत वक़्त लग जाता. लड़की ने किताब बंद की और शहर को हमेशा के लिए भुला दिया. 

मगर जिंदगी. घेर कर मारने की साजिशें रचती है. इक रोज़ इक सादा सी दिखने वाली किताब में उस शहर का दरवाजा खुल गया. लड़की बेख्याली में चल रही थी उसने ठीक ठीक देखा नहीं कि वो किस शहर में दाखिल हो रही है. यूँ भी ख़त्म तो कुछ भी कभी भी नहीं होता. अब शहर में कुछ नहीं बचा था. लेकिन फिर भी धुआं बदस्तूर उठ रहा था. फूलों की क्यारियों में किसी के जले हुए दिल की गंध उग रही थी. चाह से आ जाने वाले लोगों के पैर काट दिए गए थे और वे घिसट रहे थे. राहों में चीखें थीं मगर हवा में बिखरती हुयी नहीं हेडफोन से सीधे कान और दिल में उतरती हुयी. लड़की के इर्द गिर्द शोर एकदम नहीं था इसलिए उसे साफ़ सुनाई पड़ता था जब वो देर रात के नशे में उसका नाम पुकारता. लड़की उसके लिखे हर शब्द, हर वाक्य, हर किरदार को तोड़ कर अपना नाम ढूंढती और जब उसे नहीं मिलता कोई भी दिलासा तो वो कान से हेड फोन निकाल देती और बहुत तेज़ तेज़ स्केटिंग करती. रोलर ब्लेड्स वाले स्केट्स काले रंग के हुआ करते और खुदा के सिवा किसी को दिखाई नहीं पड़ता कि वो क्या कर रही है. खुदा के क्लोज्ड सर्किट कैमरा में हाई ऐंगिल शॉट में दिखता कि वो फिर से उसका नाम लिख रही है...नृत्य की हर थाप में...तेज़ और तेज़ गुज़रते हुए शहर के मलबे को विभक्त करती लड़की खुद नहीं जानती थी कि उसे क्या चाहिए. 

उसके सिरहाने सूखे गुलाबों की किरमिच किरमिच गंध थी जो पीले रंग के इत्र में डूबे हुए थे. लड़की का दिल मगर खाली था कि उसे सारे दोस्त उसे ठुकरा के चले गए थे इश्क वाले किसी शहर. वो रोना चाहती थी बहुत तेज़ तेज़ मगर उसे अकेले रोने से डर लगता था. 

वो उसे सिर्फ एक बार देखना चाहती थी. मगर खुदा के स्पाईकैम से दूर...वो ये भी चाहती थी कि उससे मिलना कुछ ऐसे हो कि वो खुदा को उलाहना दे सके कि ये मुलाकात तुमने नहीं मैंने खुद लिखी है. लड़की जब भी क्वाइन टॉस करती तो हमेशा हेड्स चुनती कि हेड्स पर लिखा होता 'सत्यमेव जयते'. उसे लगा जिंदगी मे न सही कमसे कम किस्मत में तो सच की जीत हो. तो उसने कहा हेड्स और सिक्के को उछाल दिया. सिक्का गिरा तो उसपर १ लिखा हुआ था और थम्स अप का निशान था. लड़की ने भी ऊपर वाले को ठेंगा दिखाया और उससे मिलने चली गयी. 

तकलीफों को गले लगाने वाले लोग होते हैं. बेचैनियों से इश्क करने वाले भी. घबराहट में डूबे. साँस साँस अटकते. किसी शहर के इश्क में पागल होते. उनकी आँखों में सियाह मौसम रहते हैं. बस उनकी हँसी बड़ी बेपरवाह होती है. वे दिन भर खुद को बाँट देते हैं पूरे शहर शहर...घर लौटते हुए रीत जाते हैं. फिर उनकी सुनसान रातों में ऐसा ही संगीत होता है कि खुद को जान देने से बचा लेना हर दिन का अचीवमेंट होता है. 

लड़की सुबह के नीम अँधेरे में बहुत फूट फूट कर रोना चाहती है कि उसे डर लगता है. सियाह अँधेरे से. खालीपन से. इश्क से. नीम बेहोशी से. उसके नाम से. उसकी आँखों से. उसके हाथों से. उसके काँधे में गुमसी हुयी खुशबू से. उसकी जेब में अटकी रह आई आपनी साँसों से. उसकी बांहों में रहते हुए कहे झूठमूठ के आई लव यू से. सियाह रंग से. उससे मिलने से. अलविदा कहने से. डरती है वो. बहुत. बहुत. बहुत. न तो खुदा न शैतान ही उसे अपनी बांहों में भर कर कहता है कि सब ठीक हो जाएगा. 

हम जी कहीं भी सकते हैं मगर हम कहाँ जिन्दा रहते हैं वो शहर हमें खुद चुनना पड़ता है और जब ये शहर मौजूद नहीं होता तो इस शहर को हमें खुद बनाना पड़ता है. कतरा कतरा जोड़ कर मकान. नदी. समंदर. लोग. दोस्तियाँ. मुहब्बत. मयखाने. जाम. बारिश. सब.

जब ये सब बन जाता है और वो शहर हमारे लिए परफेक्ट हो जाता है. तब हम किसी अजनबी शहर में जा कर आत्महत्या करना चाहते हैं. 

उसने मेरी आँखों में देख कर कहा मुझसे. ही नेवर लव्ड मी. मुझे उसके सच कहने की अदा पर उससे फिर से प्यार हो आया.
 
शहर खतरनाक था. उस तक लौट कर जाना भी. बुरी आदतों की तरह. सिगरेट का कश उसने अन्दर खींचा तो रूह का कतरा कतरा सुलग उठा. लड़की तड़प उठी. तकलीफों की आदत ख़त्म हो गयी थी पिछले कई सालों में. 

जाते हुए लड़की ने शहर के दरवाजे पर पासवर्ड लगा दिया और खुद को भरोसा दिलाया कि पासवर्ड भूल जायेगी. नाइंटीन फेब्रुअरी टू थाउजेंड फिफ्टीन. 

उसने खुद को कहीं भुला देना चाहा. कई सारे नक्शों को फाड़ देने के बाद उसे याद आया कि सब बेमानी है कि उसे उसका फोन नंबर याद था. 

उसका सुसाइड नोट उसके स्वभाव से एकदम इतर था. छोटा सा. सिर्फ एक लाइन का.  'तुम कोई अपराध बोध मत पालना. मैंने तुम्हें सिर्फ अपने लिए चाहा था'. 

20 January, 2015

टूट जाने का हासिल होना भी क्या था...

उसका सारा बदन बना है शीशे का
काँच के होठ, काँच बाँहें 
उससे बेहद सम्हल के मिलती हूँ
फिर भी चुभ ही जाता है 
माथे पर कोई आवारा बोसा

कभी काँधे पे टूट जाती हैं 
उसकी नश्तर निगाहें 
और उंगलियों में फँसी रह जाती हैं 
उसकी काँच उंगलियाँ
फिर कितने दिन नहीं लिख पाती कोई भी कविता

उसके कमरे में सब कुछ है काँच का
वो उगाता है काँच के फूल
जिन्हें बालों में गूँथती हूँ
तो ख्वाब किरिच किरिच हो जाते हैं

ये जानते हुये कि एक दिन
मुझसे टूट जायेगा उसका काँच दिल
मैं करती हूँ उससे टूट कर प्यार
धीरे धीरे होने लगा है
मेरा दिल भी काँच का।

शायद हम दोनों के नसीब में
साथ टूटना लिखा हो।

05 December, 2014

सम पीपल वॉक इनटु योर लाईफ जस्ट फॉर द पर्फेक्ट गुडबाय


वल्नरेबिलिटी इज द बिगेस्ट टर्न ऑन 

कोई अपने आप को पूरी तरह खोल दे...जिस्म...रूह...कि दिखने लगें सारी खरोंचें..दरारें...प्रेम वहीं से उपजता है...कि जैसे पुरानी दीवारों के दरारों में उगता है पीपल...एक दिन अपना स्वतंत्र वजूद बनाने के लिए...भले ही उसके होने से दीवारों का नामो निशान मिट जाए...इश्क ऐसा ही तो है. कई बार इसके उगने के बाद कुछ भी पहले जैसा नहीं रहता. अक्सर जब पौधा मजबूत हो जाता है तो दीवारें टूट कर गिर जाती हैं. हम कल को न रहे मगर ये तो दिल के जैसे पत्तों वाला इश्क हमारी दरारों में उग चुका है...इश्क रहेगा. सदियों लड़कपन में इसके पत्तों पर लिखे जायेंगे अफ़साने. मासूम लड़कियां इसके पुराने पड़ चुके पत्तों को हफ़्तों भिगो कर रखेंगी तब तक कि जिन्दा हरेपन का कोई अंश बाकी न रहे...बची हुयी धमनियों के जाल पर लिखेंगी अपने प्रेमी का नाम...टांकेंगीं छोटे गोलाकार शीशे...चिपका देंगी बिंदियाँ और गलत सलत हिंदी में कहेंगी...तुम हमेसा के लिए हमारे हो. 

आई जस्ट वांटेड टू टेल यू...द बोगनविला डाइड

कसम से मैंने बहुत कोशिश की...रोज उसे मोजार्ट का संगीत भी सुनाया...फर्टिलाइजर भी डाला...सुबह शाम पानी देती थी...यहाँ तक कि धूप के हिसाब से गमले दिन भर इस बालकनी से उस बालकनी करती रही. लोग कहते तो थे कि बोगन विला अक्खड़ पौधा है. इसे मारना बहुत मुश्किल का काम है. मैं तो उसे बोगनविलिया की जगह तमीजदार बोगाविला भी बुलाने लगी. तुम कहाँ मानोगे कि बिहारी ऐसे ही बात करते हैं...एक आध एक्स्ट्रा या...वा...रे...मुहब्बत की निशानी है. जैसे पिंटुआ...कनगोजरा...मगर जाने दो. तुम नहीं समझोगे. यूँ तो हम लोग का कभी सुने नहीं...तुम लोग से उठ कर कुछ और होने लगे...कि लोग तो ये भी कहते थे कि अपनी पुरानी गलतियों से हमेशा सीख लेनी चाहिए. फिर मैं क्यूँ पड़ी किसी जिन्दा चीज़ के इश्क में. ठीक तो सोच रखा था कि सिर्फ उनपर जान दूँगी जो पहले से जान दे चुके हैं. मरे हुए कलाकार...मरे हुए शायर...लेखक, यहाँ तक कि फ़िल्मकार भी. किसी जिन्दा चीज़ से इश्क हो जाने का मतलब है उसके डेथ वारंट पर साइन कर देना. बचपन से कोई जानवर नहीं पाला...कभी गार्डन में नहीं गयी...इन फैक्ट किसी पड़ोसी के कुत्ते के पिल्ले को भी हाथ नहीं लगाया...किसी के मर जाने का खौफ कितना गहरे बैठा होता है तुम नहीं जानोगे. तुमने इस तरह प्यार कभी नहीं किया है. रोज गमले में लगे हुए सूखे पत्ते देखती हूँ तो दिल करता है आग लगा दूं पौधे में. नया गमला है...उसका क्या अचार डालूं? तुम्हें तो पौधों के मरने से फर्क नहीं पड़ता न...जरा ये वाला गमला ले जाओ. सुनो, इसमें सूरजमुखी के फूल लगाना. वे मेरे घर की ओर मुड़ेंगे तो जरा कभी मुझे याद कर लेना.

दिल के ग्लेशियर को तुम्हारी आँखों की आंच लगती है 

मेरी कॉफ़ी में चीनी बहुत ज्यादा थी...बहुत ज्यादा. नया देश था और मैं भूल गयी थी कि बिना कहे कॉफ़ी में तीन चम्मच चीनी डालना सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता है. उसके ऊपर से बहुत सारी फ्रेश क्रीम भी थी...जिसमें फिर से बहुत सी चीनी थी. कुछ लोगों की पसंद कैसे जुड़ जाती है न जिंदगी से. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि हम दोनों में से किसने ब्लैक कॉफ़ी में चीनी डालनी कब बंद की...जहाँ तक मुझे याद है हम एक दूसरे में इतने खोये रहते थे कि होश ही नहीं रहता था कि कॉफ़ी कैसी है...या कि कॉफ़ी में चीनी भी डालनी है...चीनी डाल कर चम्मच चलानी है...चम्मच चलाने से ध्यान टूट जाता था...आँखें तुम्हारी आँखों से हटानी होती थीं. ये हम में से किसी को हरगिज़ मंजूर नहीं था. तो हम बस जैसी भी आती थी कॉफ़ी पी लिया करते थे...न दूध डाला...न चीनी...बस कुछ होना चाहिए था हमारे बीच तो कॉफ़ी के दो कप रख दिए जाते थे. उन दिनों मैं दिन भर सिर्फ तुम्हारी आँखों के शेड्स पढ़ते हुए गुज़ार सकती थी. नारंगी सुबह में हलकी भूरी आँखें कितनी गर्माहट देती थीं...दिन की धूप घड़ी थी तुम्हारी बरौनियाँ...शाम गहरा जाने पर गहरा जाता था तुम्हारी आँखों का रंग भी. ब्लैक कॉफ़ी जैसा. एक रोज़ तुम्हें देखा था उसी पुराने कॉफ़ी शॉप में...तुम्हारे साथ कोई बेहद खूबसूरत लड़की थी. तुम्हारी कॉफ़ी में उसने दूध डाला फिर तुमसे पूछ कर दो छोटे छोटे शुगर के पैकेट फाड़े...चीनी मिलाई और मुस्कुराकर तुम्हारी ओर कप बढ़ाया. कॉफ़ी का पहला सिप लेते वक़्त तुम्हारी आँखें धुंधला गयीं थीं. मालूम नहीं मेरी आँख भर आई या तुम्हारी. याद है हम आखिरी बार जब मिले थे, कितनी ठंढ थी...दस्तानों में भी हाथ सर्द हो रहे थे. वेटर एक छोटी सी सिगड़ी ला कर रख गया था टेबल पर. उसपर अपनी उँगलियाँ सेंकते हुए मैंने कितनी मुश्किल से खुद को तुम्हारा हाथ पकड़ने से रोका था. उस शहर में कॉफ़ी नहीं मिलती थी...चाय मिलती थी. अजीब थी. ग्रीन टी. बेस्वाद. बिना किक के. बिना चीनी के. ग्रीन टी चीनी की उम्मीद के बिना एक्जिस्ट करती थी. वैसे ही जैसे हमारा रिश्ता होने जा रहा था. हम ऐसे होने जा रहे थे जहाँ हमें एक दूसरे की जरूरत नहीं थी...आदतन नहीं थी. फितरतन नहीं थी. फिर भी तुम ख्यालों में इतनी मिठास के साथ कैसे घुले हो मालूम नहीं. विदा कहने वाली आँखें चुप थीं. मैंने यक़ीनन उस दिन के बाद भी बहुत दिनों तक कॉफ़ी पीना नहीं छोड़ा था. जाने कैसे तुमसे जुड़े होने का अहसास होता था. फिर जाने कब आदत छूट गयी. फिर भी...कभी कभी सोचती हूँ...इफ यू स्टिल ड्रिंक योर ब्लैक कॉफ़ी विदआउट शुगर. 

वन लास्ट थिंग...आई डू नॉट लव यू एनीमोर.  

डैम इट.
मुझे लगा कमसे कम तुम्हें प्यार नहीं होगा किसी से.
कमसे कम मुझसे तो हरगिज़ नहीं.
क्या करें...लाइफ है.
शिट हैप्पेंस.


28 November, 2014

तुम्हारे इश्क़ में लड़की बग़ावत लिखती है


लिखना इन्किलाब का झंडा हाथ में थामे लड़की है जो दुनिया की आँखों में आँखें डाल कर कहती है, ख़बरदार जो मेरे दिल से उन यादों का एक पुर्जा भी मिटाना चाहा...आग लगा दूँगी...सब ख़ाक हो जाएगा...सारी कवितायें...सारी कहानियां...सारा इतिहास भस्म हो जाएगा इसी एक आग में...कम मत आंको इस आग की क्षमता को!

लिखना हर्फ़ हर्फ़ जमा करते जाना है मुहब्बत के खाते में बेनाम ख़त. लिखना खुद को यकीन दिलाना है कि मुहब्बत में बर्बाद हो जाने के बावजूद...खुद को पूरी तरह अपने प्रेमी के लिए बदल देने के बावजूद मेरा कुछ रह गया है. कुछ ऐसा जो कि हज़ार मुहब्बतों में टूट टूट बिखरने पर भी सलामत रहा है. मेरी शैली...मेरे बिम्ब...मेरा सब कुछ देखने का नजरिया. हाँ तुम मुझे कल को समझा दोगे कि गलत है मेरी आँखें...तुम्हारे दिए चश्मे से मैं देखने लगूंगी दुनिया को सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में मगर मेरा मन मुझे फिर भी खींच कर समंदर किनारे बसे रंगरेजों के गाँव ले जाता रहेगा...मेरे कदम हर नक़्शे से भटक जायेंगे और अमलतास के जंगल में मैं भूल आउंगी तुम्हारा दिया हुआ चश्मा. हाँ, मुझे नहीं दिखेगा साफ़ साफ़ कुछ भी...हाँ, सब कुछ धुंधला होगा...हाँ, मैं पहचान नहीं पाऊँगी दोस्त और दुश्मन के बीच का फर्क...हाँ मुझे नहीं दिखेगा इश्क भी...कि वो दूर खड़ा होकर मेरी खिल्ली उड़ा रहा होगा. मगर मैं जाउंगी ऐसे जंगल...मैं जाउंगी ऐसे समंदर जिनमें मुझे जरा जरा डूबना आता हो. हाँ, मैं सीखूंगी फिर से सांस लेना...सांस...सांस...सांस..

तुम भूल जाओगे अपना क्लैरिनेट किसी केबिन में...खामोश हो जाएँगी मेरी शामें. मगर तुम्हें इससे क्या फर्क पड़ने लगा कि तुम अपने दोस्तों के साथ कहकहे लगा रहे होगे शहर के सबसे बदनाम बार में. मैं फिर से साध लूंगी संगीत के स्वर कि तुम्हें वाकई मेरे बारे में कुछ कभी पता नहीं था. पहले इस कागज़ के पन्ने पर सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने को जी चाहता था...अब इसी कागज़ के पन्ने पर म्यूजिक अनोटेशन लिखने लगूंगी...इसी कागज़ के पन्ने पर मन की इस उहापोह को रंगने लगूंगी. ब्रश के सारे स्ट्रोक्स बेतरतीब होंगे...लेकिन जान, वे फिर भी बहुत खूबसूरत होंगे.

मुझे होमवर्क मिलेगा कि मैं तीन हज़ार बार लिखूं कि मैं तुम्हें बिसार दूँगी...कि मैं कई हज़ार सालों से मोह के बंधन में बंधी हुयी हूँ...समंदर किनारे किसी शिला पर मैं भी बैठूंगी...मगर वहां मैं नहीं लिखूंगी तुम्हारा नाम. लिखना बगावत होगी तब भी...अपने ही दिल की धड़कनों से...कि तुम्हारे नाम की आवाज़ के सिवा उसे और कोई आवाज़ अच्छी नहीं लगती...वो न झरनों के शोर में बहलता है न चेट बेकर के जैज़ से...न उसे समंदर की लहरों का संगीत कोई राहत दे पाता है. मैं ऊंचे पहाड़ों पर एक छोटा सा एक कमरे का घर बनाउंगी और हर सुबह चीखूंगी तुम्हारा नाम...अकेले...चुप पहाड़ों से...तुम तक मगर नहीं पहुंचेगा कोई भी आवाज़ का कतरा.

तुम मांगोगे मेरा पता...कि जिसपर कभी भेज सको चिट्ठियां...मैं मगर जानती हूँ न तुम्हें...इस अंतहीन इंतज़ार की यातना में जलना मंज़ूर नहीं है मुझे...इसलिए मैं कभी नहीं भेजूंगी तुम्हें अपने उस छोटे से एक कमरे के मकान का पता. तुम्हारी कोई भी बात मुझे याद नहीं रहती...यूँ भी मुझे सुन के कुछ याद नहीं रहता...तभी तो भूलने लगी हूँ अपना नाम भी. काश कि तुमने भी कभी चुपके से पहुँचाया होता कोई परचा मुझ तक...क्लास के सारे बच्चों के थ्रू गुज़रता...मेरी डेस्क तक पहुँचता तो मैं भी भींच के रहती उस नन्हे से पुर्जे पर...कि जिसपर लिखा होता...शाम मिलो मुझसे...स्कूल के पीछे वाली गली में...कल रात ही फोड़ा है बड़ी मुश्किल से उस लैम्पोस्ट का बल्ब...जरा जरा अँधेरे में देखूं तुम्हें...जरा जरा अँधेरे में छू के देखूं तुम्हारा रेशमी दुपट्टा...जरा सा तुम्हारी गर्दन के पास गहरी सांस लूं तो जानूं कि किस साबुन से नहाती हो तुम...कि तुम्हारे बालों में रह जाती है क्या गुलाबों की गंध...वो गुलाब जो तुम्हारे लिए चुराया करता हूँ पड़ोसी के गार्डन से हर रोज़...सुनो न री पागल सी लड़की...तुम्हारी मुहब्बत में दीवाना हुआ जा रहा हूँ...एक बार मिलो न मुझसे...एक आखिरी बार...उसी कोर्नर वाले लैम्पोस्ट के नीचे...मुझे भी सिखा दो कैसे जी लेती हो इतने आराम से...हँस लेती हो सहेलियों के साथ...नाच लेती हो सरस्वती पूजा के पंडाल में...गुपचुप खाने का कॉम्पिटिशन भी जीत जाती हो...मुझे भी सिखाओ न री लड़की...कि मैं तो सांस लेना भी भूलता जा रहा हूँ...

तुम्हें कविता कब पसंद थी...इसलिए जानां लिखना इन्किलाब है...तुम्हारी मुहब्बत में लिखे इन खतों पर कोई और मर मिटेगा मुझपर...तुम कभी जान भी नहीं पाओगे कि कितनी थी मुहब्बत...कितनी है मुहब्बत...तब तक मेरी जान...सांस सांस सांस. जरा थम के...जरा गहरी...स्विमिंग पूल के १४ फीट गहरे पानी में मारी है डाईव कि ऐसे ही एक लम्हें भी भूलती हूँ सांस...और ऐसे ही किसी लम्हे में मिटता है दायीं ऊँगली पर लिखा हुआ सियाही से तुम्हारा नाम...तुम्हारे नाम की अंगूठी नहीं गोदना है जिस्म पर...भूलती हूँ तुम्हें तो भूलने लगती हूँ साँस लेना...कि लिखना...कि अक्षर बगावत हैं...तुम्हारा नाम...इन्किलाबी है...कहता है मैं भूल नहीं पाऊँगी तुमको. कभी भी.

03 April, 2014

अ मैड ट्रिप टु पटाया- डे १

याद से सब कितनी जल्दी फिसलता जाता है.
पिछले वीकेंड हमारा पूरा ऑफिस पटाया गया था, थाईलैंड में एक जगह है 'पटाया' नाम की :)
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याद कितनी जल्दी बिसरने लगती है. लोग. नाम. जगहें। सब.

यहाँ सिर्फ कुछ चीज़ों को सकेर रही हूँ क्यूंकि जिस तरह से भूल रही हूँ सब लगता है कुछ ही दिनों बाद यकीन भी नहीं होगा कि हम गये भी थे. घर से एयरपोर्ट के लिए अनु और अनिशा भी साथ थे. टीम से अधिकतर लोग पहली बार विदेश जा रहे थे. पूरा हंगामे का मूड था सबका। इतनी एनेर्जी थी  कि उससे पूरा एयरपोर्ट चार्ज हो जाता। पतिदेव और सासुमाँ को टाटा बोल कर तीन दिन की छुट्टियों पर निकल गए. मैं आज तक कभी ऐसे ऑफिस ट्रिप पर नहीं गयी थी. पिछले साल हम सबने वाकई जान धुन कर काम किया था उसका रिवार्ड था तो सेन्स ऑफ़ अचीवमेंट भी थी.

ट्रिप की मेरी सबसे फेवरिट फोटो- जॉर्ज
टिकट चूँकि सबकी ग्रुप में बुक थी इसलिए हम अपनी सीट खुद चुन नहीं सकते थे. चेक इन के वक्त सीट नंबर आये तो मेरी और नेहा की सीट साथ में थी. हमने बहुत ढूँढा कि बेचारा और कौन फंसा है हमारे साथ तो पता नहीं चला. प्लेन बोर्ड कर गए तो नेहा, जॉर्ज और हम साथ में सामान ऊपर के कम्पार्टमेंट में रख रहे थे. वो तीसरी सीट प्रियंका की थी. जॉर्ज ने पूछा, कि वो सीट जॉर्ज से बदलना चाहती है कि नहीं तो उसने कहा बिलकुल नहीं, फिर जॉर्ज ने उससे पूछा 'तुम्हें मालूम है तुम्हारी सीट किसके पास है, पूजा के' :) फिर तो हमारे नाम का टेरर कुछ ऐसा है कि उसने एक बार भी कुछ नहीं कहा और सीधे जॉर्ज की सीट पर शिफ्ट हो गयी. मैं और नेहा अकेले अकेले भी कम आफत नहीं हैं मगर एक साथ हम दोनों को झेलना बहुत हिम्मत का काम है. हम और नेहा दोनों साइड की सीट पकड़ के बैठ गए और जॉर्ज को बीच में सैंडविच कर दिया। हम सारे लोग पगलाये हुए थे. रात के एक बजे की फ्लाईट थी लेकिन हम न सोयेंगे न किसी और को सोने देंगे की फिलॉस्फी में यकीन करते हैं. तो पूरे टाइम खुराफात चलती रही कभी सामने वालों की सीट पर तकिया फेंकना, बाकि सोये हुए लोगों को मार पीट के उठाया इत्यादि कार्य हमने पूरी डेडिकेशन के साथ किये। मेरे आसपास की सीट पर किशोर, सतीश, श्रीकांत, प्रदीप और पीछे की सीट पर दिवाकर, अनु, अनिशा, प्रियंका थे. राहिल मेरे से ठीक कोने वाली सीट पर था. एक सतीश के आलावा सारे लोग खुराफाती थे. इन फैक्ट जब आस पास के लोगों को परेशान करके दिल भर जाता था तो हम सारे उठ के दूसरे आइल में चले जाते थे और कुछ और लोगों को जगा देते थे. कोई बेईमानी नहीं, सबको बराबर आफत लगनी चाहिए। We were all high...on life and we were gonna have the time of our lives.

 Tiger zoo- me, bugs, maryam, anu, maya, dhiva, ani
ऑफिस में रहते हुए काम ऐसा रहता है कि बात करने की फुर्सत नहीं मिलती। लगभग दो साल होने को आये लेकिन मैंने कभी जॉर्ज को अपनी लिखी कोई कहानी नहीं सुनायी थी. सोने टाइम कहानी सुनना अच्छा भी लगता है. मैंने उसे तीन कहानियां सुनायीं। मजे की बात ये थी कि मैं कहानी सुना रही हूँ और वो मुझे बताता जा रहा है कि इसे ऐसे शूट कर सकते हैं, ये वाली चीज़ बहुत अच्छी लगेगी और मैं हल्ला कर रही थी कि ध्यान से कहानी सुनो न आप अपनी ही पिक्चर बनाने लगते हो. उसने बोला कि मेरी कहानियां ऐसी होती हैं, सुन कर सब कुछ दिखने लगता है आँखों के सामने। फिर मैंने कहा कि काश आप हिंदी में मेरी कहानी पढ़ पाते क्यूंकि सुनाने में सिर्फ प्लाट रह पाता  है. मगर उसे मेरी कहानियां बहुत अच्छी लगीं। मुझे भी अच्छा लगा क्यूंकि उसकी राय इम्पोर्टेन्ट थी. बहुत कम लोगों की बात को ध्यान से सुनती हूँ. उसके साथ के इतने वक्त में इतना हुआ है कि उसकी बहुत रेस्पेक्ट करती हूँ. चीज़ों को लेकर उसकी समझ गहरी है ऐसा मैंने देखा है. उसे मेरी कहानियां अच्छी  लग रही थीं तो फिर एक के बाद दूसरी करते हुए चार घंटे बीत गए। मुझे सुनने वाला कोई मिल जाए तो मैं पूरी रात कहानी कह तो सकती ही हूँ :) फिर सामने वाली सीट से कोई तो बोली कि उसे सोना है अब। जॉर्ज ने बोला कि मैं उत्साह में बोलती हूँ तो मेरा वॉल्यूम अपनेआप ऊपर हो जाता है और मुझे मालूम भी नहीं चलता। उसपर प्लेन में कान बंद रहते हैं। एनीवे, आधा घंटा सो लिए इसी बहाने।
जाने क्या तूने कही

पटाया में जाने के लिए बस थी. मुझे सफ़र में भूख प्यास सब बहुत लगती है तो मैं सारा इंतेज़ाम करके रखती हूँ. ऑफिस में मेरी टीम मुझे फेज वैन कैंटीन बुलाती है. इस बार भी रसद का इंतेज़ाम मैंने बैंगलोर एयरपोर्ट पर ही कर लिया था. चिप्स, बिस्किट्स, आइस टी.… सब बेईमानी से बांटे गए जिसके हाथ जो लगा टाइप्स :) वहाँ से निकलते हुए कोई १० बज गए थे. हम कोई तो चिड़ियाघर में रुके और नाश्ता किया। वहाँ पर खाना खाते हुए आप शेर को देख सकते हैं. मुझे जानवरों के साथ ऐसा करना अच्छा नहीं लगता। आगे के प्रोग्राम में शेर और बाकी जानवरों का शो भी था मगर मैं वो देखने नहीं गयी. टीम के और भी बहुत से लोग नहीं गए. क्रिएटिव टीम पूरी की पूरी गप्पी टीम है. हमें कैमरा लेकर भटकना, कहानियां सुनाना और ऐसी ही चीज़ों में ज्यादा मज़ा आता है.


Foot fetish
लंच करके शेरटन होटल पहुँचने में कोई चार बज गए थे. बस में थोड़ी नींद मारी मैंने भी. शेरटन क्या खूबसूरत होटल है, उफ्फफ्फ्फ़। होटल पहुँचते ही सारे लोग क्रैश कर गए अपने अपने कमरों में. अच्छा था कि मेरी रूममेट नेहा थी. हम एक सा सोचने वाले लोग हैं. ट्रिप पर भी कोई सोता है क्या। धाँय धाँय ब्रश किया, नहाये और तैयार। मैंने दो स्विमसूट रखे थे तो फटाफट चेंज करके रेडी हो गए. पूल में सिर्फ हम दोनों ही थे. पूल में पानी हल्का गर्म था, इनफिनिटी पूल, आसपास खूब सारी हरियाली और पास में ही समंदर। नेहा ने बहुत देर तक मुझे थोड़ी बहुत स्विमिंग सिखाने की कोशिश की. इतना अच्छा लग रहा था वहाँ। मुझे पानी बहुत पसंद है. समंदर। नदी. पूल. अब हल्का सा तैरना आता है तो डूबने का डर नहीं लगता। वहाँ फिर मेरी जिद कि समंदर चलो, सनसेट देखना है. नेहा को खींचते हुए ले गयी. तब तक जॉर्ज भी पहुँच गया था. ये मल्लू लोग पानी में मछली की तरह तैरते हैं. सबके घर के पीछे पोखर होता है. बचपन से सबको तैरना आता है. मुझे तैरते हुए लोगों को देख कर बहुत रश्क होता है कि काश मुझे आता. अब जल्दी ही सीख लूंगी। समंदर से वापस स्विमिंग पूल पहुँच गए. जॉर्ज बहुत अच्छा तैराक है और उससे भी अच्छा टीचर, उसने सिंपल टेक्निक्स सिखायीं और फिर नेहा और जॉर्ज दोनों मेरा बहुत उत्साह बढ़ा रहे थे कि मेरी स्पीड बेहतर हो गयी है और मैं बहुत दूर तक जा पाती हूँ. बाकी भी बहुत सारे लोगों को हमने जिद्दी मचा मचा के पूल में उतारा। पानी की लड़ाइयां। यहाँ भी जॉर्ज की टेक्निक थी कि जिससे विरोधी टीम पर अधिक से अधिक पानी उछाला जा सके.
  जानेमन रुममेट

रिश्ते अलग अलग किस्म के होते हैं. नेहा और जॉर्ज के साथ अजीब सा लगता है…पूरा पूरा सा.…जैसे फैमिली पूरी हो गयी हो. जैसे हम तीनों एक दूसरे को बिलोंग करते हैं. सेंटी हो रही हूँ. कुछ दिन में ही चले जाना है इसलिए।

शाम को अवार्ड्स नाइट थी. मेरी टीम को बेस्ट इवेंट का अवार्ड मिला टाइटन स्किन लांच के लिए. अच्छा लगा. मजे की बात ये थी कि पटाया आना का प्रोग्राम इतनी हड़बड़ी में बना था कि सारे अवार्ड्स रेडी नहीं हो पाये थे. तो एक ही अवार्ड था :) अपना अवार्ड ले कर फ़ोटो खिंचा कर वापस कर देना होता था :) फिर वही अवार्ड बाकी विनर को भी दिया जाता था.

वहाँ से निकल के हमारा वाकिंग स्ट्रीट जाने का प्लान बना. पूरा गैंग रेडी- मैं, जॉर्ज, नेहा, अनिशा, अनु, दिवाकर, भगवंत, बाला और साजन। हम होटल से बाहर निकले और टुकटुक पर बैठ गए. ऑफिस के अलावा सबको जानना एक अलग सा अनुभव था. टीम में चुप्पे रहने वाले लोग भी खूब सारी बातें करते हैं, भाषा के बैरियर के बावजूद। कुछ को हिंदी नहीं आती और मैं उनसे हिंदी में बकबक िकये जाती हूँ. वाकिंग स्ट्रीट रात भर जगी रहने वाली, नियोन लाइट्स वाली ऐसी जगह है कि लगता है हैलूसिनेशन हो रहे हों. माहौल ऐसा हो, लोग अच्छे हों तो मुझे पानी चढ़ जाता है ;) हमने घूम घूम कर बहुत सी चीज़ें देखीं जिनको यहाँ लिखना स्कैंडल्स हो जाएगा। हमारी छवि अच्छी है फिलहाल :) लिखने को इतना सारा कुछ मसाला मिला है कि नोवेल लिख सकती हूँ. चुपचाप जैसे पी रही थी अपने इर्दगिर्द का सारा जीवन। कितना अलग, कितना रंगीला और चमक के नीचे कैसे कैसे ज़ख्म छुपे होंगे। दिमाग पैरलेल ट्रैक पर था. कोई रात के एक बजे तक टीम में सब साथ घूमे। सभी रिस्पॉन्सिबल लोग थे. सबने तमीज से दारु पी. किसी को सम्हालने की जरूरत नहीं पड़ी. बाकी लोगों को और भी देर रुकने का मन था, मैं जॉर्ज और साजन वापस लौट आये. कुछ देर गप्पें मारीं और फिर टाटा बाय बाय.

फिर समंदर किनारे चली गयी. होटल की बेंच थी और पूरा खाली समंदर का किनारा। चश्मा नहीं पहना था तो सब धुंधला सा. समंदर का शोर. लहरें। बहुत देर बेंच पर बैठी जाने क्या क्या सोचती रही. जिंदगी। ठहरी हुयी सी. अच्छी सी।  सुकून सा बहुत सारा कुछ.
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बाकी दोनों दिन के किस्से कल। शायद। कभी।

27 February, 2014

सीले उलाहने, देर, बहुत देर बाद


तुमने मुझे आखिरी चिठ्ठी कब लिखी थी? क्या कहा, सुसाईड लेटर? बेईमान कहीं के...उसमें तो सबका नाम था...तुम्हारी मां का, बहन का, एक आध पुरानी प्रेमिकाओं का भी कि तुम शादी का वादा नहीं निभा पाये, वो फलाना चिलाना से शादी कर ले ईत्यादि...मैं भीड़ में शामिल थी। तुम्हें इतना भी नहीं हुआ कि एक पर्सनल सुसाइड नोट मेरे लिये लिख जाते।

मरने का इतना ही शौक था तो मुझसे कहा क्युं नहीं, मैं तुम्हारे लिये अच्छा सा इंतजाम कर देती...हमारे बिजनेस में बहुत से ग्राहक मौत ही तलाशने आते हैं...उन्हें अदाओं से फुसला कर उनकी बीवियों के लिये जिन्दा रखने का काम मैं और मेरी सहेलियां अच्छी तरह कर लेती हैं। तुम्हें मैं पसंद नहीं थी तो एक बार कहना तो था, मैडम से कह कर कोइ और तुम्हारे लिये रेगुलर कर देती...जीने के लिये इतना ही तो चाहिये होता है ना कि कोई आपका इंतजार कर रहा हो...इससे क्या फर्क पड़ता है कि इंतजार घर पर हो रहा है या कोठे पर, बीवी कर रही है या रखैल...अच्छा चलो, रखैल न कहूं प्रेमिका कह दूं...तुम्हारी तसल्ली के लिये। कितने खत लिखा करते थे तुम मुझे...तुम्हारी परेशानियां, तुम्हारा गिरवी रखा घर, बौस के पास तुम्हारा गिरवी रखा जमीर...सब तो लिखते थे तुम, फिर इतना सा क्युं नहीं लिख पाये कि तुम्हारा जहर खाने को दिल कर रहा है।

तुम्हें मालूम होगा ना कि तुम्हारे खत मुझे जिलाये रखते थे। कैसी बेरंग दुनिया है मेरी मालूम है ना तुम्हें? दीवारों का रंग उड़ा हुआ, जाने कब आखिरी बार पुताई हुयी थी...सियाह लगता है सब। बस एक छोटा सा रोशनदान जिससे धुंधली, फीकी रोशनी गिरती रहती थी और ठंढ की रातों में कोहरा। लोग भी तो वैसे ही आते थे, बदरंग...जिन्होनें सुख की उम्मीद भी सदियों पहले छोड़ दी थी...कैसा बुझा हुआ सूरज दिखता था उनकी आँखों में...वो काली रातों के लोग थे...दिन में उनकी शक्लें पहचानना नामुमकिन है...मगर दिन में तो शायद मैं खुद को भी पहचान नहीं पाती। कैसा होता है दिन का उजाला?

तुम्हारे खतों में गांव होता था...हरे खेत होते थे...दूर तक बिछती पगडंडियां होती थीं...मैं अक्सर सोचती थी कि तुम जाने किस तलाश में इस बड़े शहर में भटक रहे हो। बिना नौकरी के सिर्फ छोटे मोटे काम करने से तुम्हारा गुजारा कैसे चलता होगा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि तुम बहुत बड़े जमींदार के बेटे हो, खर्चा-पानी की तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है, मगर फिर तुम्हारे चेहरे पर बिहारी मजदूरों की तरह रोज की रोटी के इंतजाम की दहशत क्युं दिखायी देती थी? तुम्हें क्या चाहिये था हर रोज? रोजी कहती थी कि तुम ड्रग अडिक्ट हो। मुझे लेकिन तुम्हारी बात पर पूरा यकीन था कि तुम्हारी कलाई पे निशान कलम की निब से हो जाते थे...मुझे कभी कभी शक होता था कि तुम मुझे खून से चिठ्ठियाँ लिखते थे...तुम्हारे खून का रंग चमकते सूरज की तरह लाल होता होगा जब तुम निब चुभाते होगे फिर कागज सारा जीवन सोख कर उसे मटमैला भूरा बना देता होगा। दुनिया ऐसा ही न करती है तुम्हारे साथ?

कौन थे तुम? आखिर क्यूं आये थे मेरी जिन्दगी में? खतों की इस जायदाद के बदले पेट में तुम्हारा बच्चा होता तो कमसे कम इस नर्क से निकलने का कोई कारण होता मेरे पास। तुम्हारे सारे खत मैंने गद्दे के नीचे बिछा दिये हैं...कोई भी कस्टमर हो, तुम्हारे होने का धोखा होता है तो तकलीफ थोड़ी कम हो जाती है। सिसकी रोकने में थोड़ी परेशानी हो रही है मगर जल्दी ही मैं फिर से चुप रोना सीख जाउंगी। यूं भी अंधेरे में किसे महसूस होती हैं हिचकियां। गर्म बियर की दो बोतल अंदर जाने के बाद क्या अंदर क्या बाहर, दुनिया पिघल जाती है बस उतने में। नसों में बहता है धीमे धीमे। दर्द की चुभन होती है धीरे धीरे।

तुम्हें नहीं होना चाहिये था। या फिर तुम्हें नहीं जाना चाहिये था। बचपन से बहुत बुरी आदतें रहीं हैं मेरी...एक तुम भी रह जाते। आज तुम्हारे घर वाले मंदिर के बाहर कंबल बांट रहे थे, तुम्हारे पुराने कपड़े भी...तुम्हारी कलम, दवात, किताबें...यूं टुकड़ों में तुम्हें बँटते देखा तो लगा तुम इतने विशाल थे, मेरे पास तो तुम्हारे वजूद की कोरी पुर्जियां मौजूद थीं। मैंने वो पीला कुरता मांग लिया जिसमें तुम पहली बार मुझसे मिलने आये थे। मैंने आज तक वैसा सुंदर कपड़ा नहीं पहना...धुला...इस्त्री किया हुआ...लोबान की गंध में लिपटा।

तुमसे कभी कहा नहीं, धंधे का उसूल है...मगर भटके हुये मेरे मालिक...मुझे तुमसे प्रेम हो गया था...मैं तुम्हें जिन्दा रखने के लिये कुछ भी करती...बस एक खत लिख के जाते तुम मेरे नाम। खुदा तुम्हें जन्नत बख्शे।
आमीन। 

14 February, 2014

Muse- जुगराफिया- A love letter to Berne

'Muse'- कुछ शब्दों की खुशबू उनकी अपनी भाषा में ही होती है, अब जैसे हिन्दी में मुझे इस शब्द का कोइ अनुवाद नहीं मिला है...प्रेरणा बहुत हल्का शब्द लगता है, म्यूज के सारे रोमांटिसिज्म को कन्वे भी नहीं कर पाता है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि औरतों को प्रेरणा देने के लिये किन ईश्वरों की रचना की गयी होगी या कि ग्रीक मिथक के सारे लेखक और पेन्टर सिर्फ मर्द हुआ करते थे इसलिये ऐसी किसी विचारधारा की कभी जरुरत ही न पड़ी। स्त्री रचने के लिये किसी बाहरी तत्व पे ज्यादा निर्भर भी नहीं रहती। उसके अंदर कल्पना के अनेक शहर बसे होते हैं।

बहरहाल, बहुत दिनों से सोच रही थी इन देवियों के बारे मे...मेरे भी म्यूज बदलते रहते हैं। म्यूज हर फौर्म के अलग अलग होते हैं। आज का मेरा विषय है- भूगोल यानि कि जुगराफिया...क्या है कि बचपन से मेरी जियोग्राफी खराब रही है। शोर्ट में हम उसे जियो कहते थे मगर सब्जेकट ऐसा टफ था कि जीने नहीं देता था। यूं शहर बहुत घूम चुकी हूं तो इस विषय से लगने वाला भय भी प्यार मे कन्वर्ट होने लगा। तो कुछ शहरों की बात करते हैं।
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हर शहर की अपनी खुशबू होती है। सबसे पहले आता है बर्न। स्विटजरलैंड। हेडफोन पर दिन भर बजता एक ही गीत...सिबोनेय...रास्ते खुलते जाते...ज्युरिक में रहते हुये जब बर्न जाने का मूड हुआ था तो दुपहर हो गयी थी। घंटे भर का रास्ता था, जा के आ सकती थी। सोचा कि चल ही लेती हूं। शहरों की किस्मत में आने वालों के नाम लिखे होते हैं।

शहर...बर्न...कागज के एक टुकड़े पर बस इतना ही लिखा है
Cities say welcome, Berne opened its arms wide and hugged me tight...whispering an incomprehensible 'Welcome back' into my ears...as I was swept off my feet.

मैं उस शहर की खुशबू बयां नहीं कर सकती...वहां की आबो हवा में कोइ पुराना गीत घुला हुआ था। मैं इस शहर बहुत पहले आ चुकी थी। बर्न मेरा अपना शहर था...मेरी आत्मा से जुड़ा हुआ। मुझे याद है स्टेशन का वो लम्हा...एयर कंडिशन्ड कोच से बाहर पहला कदम रखा था...बर्न ने बाँहें पसार कर मुझे टाइटली हग किया था...मैं कहीं और नहीं थी, मैं कुछ और नहीं थी...मैं उस लम्हे प्यार के उस बुलबुले में थी जिसकी दीवारें सदियों पहले ईश्क की बनी थीं। मेरी साँस साँस में उतरते बर्न से इस बेतरह प्यार हुआ कि लगा इस लम्हे जान चली जायेगी। मैं स्टैच्यू थी और शहर मेरे आने से इतना खुश था कि शिकायत भी नहीं कर रहा था कि आने में बड़ी देर कर दी, मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा था।

बर्न का मौसम दिलफरेब था। झीनी ठंढी हवा कि जिसमें लेस वाली फ्राक पहनने का दिल करे। चौकोर पत्थर वाली सड़कों पर नंगे पाँव दौड़ने का दिल कर रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं लगा था...किसी शहर से नहीं लगा था। इमारतें किस्से सुना रही थीं...मेरी खुराफातों के...मेरी खूबसूरती के...सुनहले थे मेरे बाल...कान्धे पर लहराते हुये...पास के झरने में खुद को देखा तो ब्लश कर रही थी मैं, गाल गुलाबी हो गये थे। शहर की खिड़की से दिखते फूलों जैसे। मेरी आँखें नीली थीं...आसमान जैसी नीलीं। मैं फूल से हल्की थी। सामने नदी बह रही थी...पानी गहरा हरा...जीवंत...भागता हुआ...नदी की चुप गरगलाहट सुनायी पड़ती थी...बच्चा मुस्कुराता था नींद में कोई। शहर के बीच टाउन स्कवायर। एक तरफ बर्न की पार्लियामेंट तो एक तरफ बैंक...और कोइ दो भव्य इमारतें। स्क्वैयर पर फव्वारे, उनके संगीत मे किलकारी मारते बच्चे। पानी से खुश होते...भागते...छोटे लाल हूडि पहने हुये...लड़कपन की दहलीज पर लड़कियां, उनके दोस्त...धूप...जिन्दगी एक बेहद खूबसूरत मोड़ पर ठहरी हुयी। आसपास के रेस्टोरैंट्स में वाईन पीते लोग। उनके चेहरे पर कितना सुकून। बर्न शोअॉफ कर रहा था।

पहले दिन वक्त बहुत कम था। भागती हुयी ट्रेन इसी वादे के साथ पकड़ी कि कल फिर आउंगी...अगली रोज जल्दी पहुंच गयी...दिन भर भटकती फिरी...शहर थामे हुये था मेरा हाथ। हेडफोन्स नहीं थे आज, कविताऐं सुननी थी मुझे...ट्रेन स्टेशन के ठीक सामने एक ग्रुप गा रहा था...भाषा समझ नहीं आयी पर भाव मालूम था...ये इस एक दिन के लिये भागते हुये शहर से मिलने की मियाद थी...गली गली गले मिलने की...नदी के उपर बने उँचे ब्रिज से देर तक नदी की शिकायतें सुनने की...फूल बेचते लड़कों को देख कर मुस्कुराने की...बार बार और बार बार रास्ता भटक जाने की...गहरी सांसों में इक छोटी सी मुलाकात दिल में बसाने की। भागते हुये आना कि घंटाघर में जब पाँच बजते तो दिखता शहर...बर्न...मुस्काता हुआ।

दिन के खाने में सिर्फ डार्क चोकलेट ही होनी थी...पीने को झरने से आता ठंढा पानी...डूबने को ईश्क...मेरा कोइ पुराना रिश्ता है शहर से...किसी और जन्म का।

कहने वाले कह सकते है कि उस शाम की ट्रेन पर मैं वापस ज्युरिक आ गयी मगर मैं जानती हूं रुह के सफर को...उस दिन गयी थी बर्न...रह गयी हूं वहीं, उस दिलफरेब शहर की बाँहों में...कि फिर भीगी आँखों से विदा कहती...अनजान लोगों से भी खाली उस ट्रेन में सुबकती लड़की थी कौन?

म्युजेज के नाम पहला खत...दिलरुबा शहर बर्न तुम्हारे लिये। I'll love you forever. 

28 January, 2014

तेरे हाथों पे निसार जायें मेरे कातिल...

ख्वाब था।

सुबह धूप ठीक आँखों पर पड़ रही थी। मगर ख्वाब इतना खूबसूरत था कि हरगिज़ उठने का दिल नहीं किया। बहुत देर तक आंख बंद किये पड़ी रही। नीम नींद में आँखों में इन्द्रधनुष बनते रहे। आँखें मीचती और हल्के से खोलती। मौसम इतना सुहाना था कि तुम्हारी बांहों में मर जाने को जी चाहे। चाह ये भी थी कि बीमारी का बहाना बना के छुट्टी डाल दी जाये और गाड़ी लेकर कहीं लौंग ड्राइव पर निकल जायें।

बात बस इतनी सी थी कि तुम्हारा ख्वाब देखा था।

तुम और मैं किसी ट्रेन में मिल गये हैं अचानक से। जाने कौन सी ट्रेन है और हम एक डिब्बे में कैसे बैठे हैं जबकि हमें दो अलग अलग दिशाओं में जाना है। स्लीपर बौगी है। हम किसी पुल से गुजर रहे हैं। रेल का धड़धड़ाता शोर है। शाम का वक्त है। देर शाम का। गहरा नारंगी आसमान सिन्दूरी हुआ है। दूर एक मल्लाह विरह का गीत गा रहा है। उसे मालूम है, जिन्दगी के अगले किसी स्टेशन तुम और मैं दो अलग दिशाओं में जाने वाली तेज रफ्तार ट्रेनों में बैठ एक दूसरे से फिर कभी न मिलने वाले स्टेशन का टिकट कटा कर चले जायेंगे। तुम गुनगुना रहे हो। जैसे धूप जाड़े के दिनों में माथा सहलाती है वैसे। खुले हुये बाल हैं, थोड़े गीले, जैसे अभी अभी नहा के आयी हूं। हल्के आसमानी रंग का शॉल ओढ़ रखा है। खिड़की से सिर टिकाये बैठी हूं। ठंढ इतनी है कि गाल लाल हुये जाते हैं। हाथों मे दस्ताने हैं हमेशा की तरह।

कुछ मुसाफिरों ने दरख्वास्त की है कि मैं खिड़की बंद कर दूं। हवा पूरे कम्पार्टमेंट की गर्मी चुरा लिये जा रही है। उनके पास दान में मिले कुछ कंबल हैं बस। मैं खिड़की तो यूं कब का बंद कर देती, मगर तुम्हारी ओर नहीं देखने का कोइ सही बहाना चाहिये था। शीशे की खिड़की बंद होते ही आँखों के कमरे में तूफान आया है। तुमने एक खूबसूरत सा कंबल खोला है। धीरे धीरे कर के कुछ और लोग हमारी बौगी में आ गये हैं। मैंने दास्ताने उतार लिये हैं। मुझे ठीक याद नहीं, तुम्हारे कंबल को कब हौले से ओढ़ा था मैंने। हल्की झपकी आयी थी। आँख खुली तो तुम्हारा कंबल कांधे पर था। तुम भी कोई एक फुट की दूरी पर थे। तुम्हारी कलम मेरे पास गिर कर आ गयी थी शायद। तुमने कंबल में मेरा हाथ अपने हाथों में लिया था और कहा था 'तुम्हारे हाथ बहुत मुलायम हैं', तुमने मेरे हाथों को जो अपने हाथों में लिया था वो याद है मुझे...जैसे फर का कोइ खिलौना हो...नन्हा सा खरगोश जैसे, कितने कोमल थे तुम्हारे हाथ। तुमने कहा था कि तुम्हारी कलम उधर गिर गयी है, और मैं वो तुम्हें लौटा दूं। जाने किसने गिफ्ट किया था तुम्हें। हो सकता है न भी किया हो, बस लगा मुझे।

हाथ कोई फूल होता गुलाब का तो हम कौपी तले दबा के रख देते, हमेशा के लिये। मगर हाथ जीता जागता था। दिल की तरह। सुबह उठी तो दर्द मौर्फ कर गया था। दिन भर कैसी कैसी तो गज़लें सुनी सरहद पार की...मन लेकिन उसी नदी के पुल पर छूट गया था जिस पर तुमने मेरा हाथ पकड़ा था। सोचती हूं क्यूं। समझ नहीं आता। ख्वाब तो बहुत आते हैं, इक ख्वाब पर दूसरे रात की नींद कुर्बान कर देना मेरी फितरत नहीं, मगर सवाल सा अटक गया है कहीं। मालूम है  कि एकदम बेसिर पैर की बात है मगर दिल ही क्या जो समझ जाये। लगता है कि जैसे तुमने बड़ी शिद्दत से याद किया है। तुम हँस दो शायद, पर लगा ऐसा कि तुमने भी यही सपना देखा था कल रात। कि तुमने भी बस इतना ही ख्वाब देखा था। फिर किसी स्टेशन हम दोनों उतरे और तुम अपने घर वापस चल दिये, मैं अपने भटकाव की ओर।

दिन को ऐसी घबराहट हुयी, लगा कि सांस रुक जायेगी। जैसे तुमने अचानक मेरे शहर में कदम रखा हो। जाड़ों का ठिठुरता मौसम इतनी तेजी से गुजरा जैसे फिर कभी आयेगा ही नहीं। वसंत हड़बड़ में आया। मुझे अच्छी तरह याद है कि औफिस के रास्ते के सारे पेड़ों मे कलियां तक नहीं फूटी थीं। बाईक लेकर उड़ती हुयी जा रही थी कि अटक गयी। मौसम की बात रहने दो, बंगलोर मे अमलतास के पेड़ कभी नहीं थे। यहाँ की बोगनविलिया भी लजाये रंगो की होती थी। ये चटख रंग तो ऐसे आये हैं जैसे मन पर ईश्क रंग चढ़ता है। धूप छेड़ रही थी। तुम किसी हवाईजहाज में चढ़े थे क्या? कहां हो तुम...आखिर कभी तो याद कर लिया करो। तुम्हारे नाम क्या कोइ पौधा लगा रखा है...दिल कोई बाग तो नहीं है कि तुम्हारी जड़ें जमती जायें। उँगलियों से तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू आती रही। दिन भर तुम्हें खत लिखती रही। जब सारी बातें खत्म हो गयीं तो तुम्हारे इस ख्वाब को कहीं ठिकाने लगाने की परेशानी शुरू हुयी। सीने में दर्द लिये जीने में दिक्कत होती है, चेहरा जर्द पड़ जाता है। हर ऐरा गैरा शख्स पूछने लगता है कि बात क्या है। किसको सुनायें रामकहानी। कवितायें लिखना भूल गयी हूं वरना इतनी तकलीफ नहीं थी। दो लाइन में इतना सारा दुख कात के रखा जा सकता था।

एक पूरा दिन बीत गया है...साल की कई कहानियों जैसा। धूप का गहरा साया छू कर गुज़रा है। आंखों में तुम्हारे हाथ बस गये हैं। दुआ करने को हाथ जुड़ते हैं तो बस तुम्हारा चेहरा उभरता है। ख्वाबों का पासवर्ड याद है तुम्हारी उँगलियों को भी। तुम्हारा कत्ल हो जाना है मेरे हाथों किसी रोज जानां। मत मिला करो यूं ख्बाबों में मुझसे। मेरे लिये जरा वो गाना प्ले कर दो प्लीज...आज जाने की जिद न करो...देर बहुत हुयी। कल का दिन बहुत हेक्टिक है। देखो, आज की रात छुट्टी लेते हैं...मेरे ख्वाबों मे मत आना प्लीज।

अगले इतवार का पक्का रहा। दुपहर। धूप में बाल सुखाते नींद आ जाती है। गोद में सर रख सुनाना मुझे गजलें। मिलना धूप के उस पुल पर जहां से किसी शहर की सरहद शुरू नहीं होती। मेरे लिये याद से लाना गहरे लाल रंग की बोगनविलिया और पीले अमलतास। जाते हुये रच जाना हथेलियों पर तुम्हारे नाम की मेंहदी। रंग आयेगा गहरा कथ्थई। उंगलियों की पोरों को चूमना...कहना, मेरे हाथ बेहद खूबसूरत हैं...फूलों की तरह नाजुक...मुलायम...मेरे लिये लाना खतों का पुलिंदा...कहानियों की कतरनें...हाशिये की कवितायें। चले जाना कमरे में फूलदान के बगल में रख कर ये सारा ही कुछ। देर दुपहर कहानियों से रिसेगी कार्बन मोनोक्साईड...मैं तुम्हारे प्यार में गहरी साँस लेते सो जाउंगी एक आखिरी मीठी नींद। तुम ख्वाबों में आना। तुम रहना। तुम कहना। तुम्हारे हाथ...

13 November, 2013

थ्री डेज ऑफ़ समर

यूँ रोज़ का जीना तो हो ही जाता है तुम्हारे बगैर. तुम्हारी आदत ऐसी भी कुछ नहीं है कि बदन से सांस छीन ले जाए. हाँ एक दिल है ज़ख़्मी जो गाहे बगाहे दुखता रहता है. नसों में धड़कन की रफ़्तार थोड़ी मद्धम सही, तुम्हारे बिना कई साल और जीने का माद्दा तो है मुझमें.

कभी कभार ही ऐसे बेसाख्ता याद आती है तुम्हारी. लू के थपेड़ों में जलते बदन के ताप जैसी. माथे पर लहकी आग जैसी. जंगल में फूले पलाश जैसी. चारों ओर फिर कुछ नहीं बचता एक तुम्हारे नाम के सिवा. तुम्हारा है ही क्या मेरे पास जो जोग के रखूं मैं. ले देकर कुछ तसवीरें हैं, कुछ वादे, झूठे मूठे, कुछ कहानियों के किरदार हैं तुम्हारी तरफदारी करते हुए. तुलसी चौरा में जल ढारते हुए कभी तुमको सोच लिया था. हनुमान जी की ध्वजा पर अटका हुआ तुम्हारा इंतज़ार है...पुरवा में बहता...दस दिशाओं को एक अधूरी इश्क की दास्तान कहता. चाचियों के ताने में जहर सा घुलता. यूँ तुम्हारे बिना पहले भी जीना कोई नामुमकिन तो नहीं था, मुश्किलों में जीने की आदत गयी कहाँ थी. तुम थे तब भी तो हज़ार परेशानियाँ थी जिंदगी में.

बिट्टू की फीस भरनी थी...माँ के लिए नयी साड़ियाँ लानी थीं. बड़की दीदी के नंदोई को बेटा हुआ था. हफ्ते भर का भोज रखा था उसकी सास ने. गुड्डू के हॉस्टल में पैसे भेजने थे. रोज रोज की जिंदगी में  बारिश के झोंके की तरह ही तो आये थे तुम. यूँ तुमने कभी कोई वादा भी तो नहीं किया था कि एक तुम्हारे होने से सर पर हमेशा गुलमोहर की छाँव रहेगी...अमलतास के गीत रहेंगे...तितलियों की उड़ान रहेगी. जिंदगी होम ही तो कर दी थी मैंने घर के लिए, अपने घर के लिए. आखिर बड़ी बेटी का भी कुछ फ़र्ज़ होता है. तो क्या हुआ अगर मेरे होने पर माँ ने अनगिन ताने सुने थे...तुम बस सूखी हवा की तरह लहकाने आये थे मेरी आंच को. तुम जितने दिन रहे...कितने ताप से जलती थी मेरी अंतरात्मा.

आँखें बंद करने से रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती मगर हम अँधेरे के लिए बेहतर तैयार हो जाते हैं. मैं जानती थी तुम्हारा छल. सदियों से. जैसे कि कृष्ण को महाभारत का अंत...फिर भी अपना कर्म तो करना ही था. तुम्हारे आने पर अगर मैं बदल जाती तो तुम कितने बड़े हो जाते. जो किसी के लिए कभी न बदली, तुम्हारे लिए कोई और हो जाती तो शायद खुद से जिंदगी भर आँख न मिला पाती. अभी भी मेरा इतना अभिमान तो है कि मैंने तुम्हें अपनी तरह से चाहा. तुम्हारे आने का मौसम था...तुम्हारे जाने का मौसम है.

अच्छा सुनो, तुम सच में कह पाते थे इतना सारा झूठ? थियेटर के नामचीन कलाकार हो...शब्द, रंग, रौशनी पर तुम्हारी बेहतरीन पकड़ है ये तो मानना पड़ेगा. इतने सालों से नियत लोगों के सामने लाइव परफोर्म करते आ रहे हो. ऑडियंस का मूड समझते हो...उसके हिसाब से स्क्रिप्ट में भी वहीं बदलाव कर देते हो. मुझसे भी ऐसा ही था न प्यार तुम्हारा? तुम्हारी आवाज़ की मोड्यूलेशन ऐसी थी कि लगता था दुनिया की सारी तकलीफें ख़त्म हो गयी हैं. तुमने वो तीन शब्द अनगिनत लोगों को कई माहौल और मूड में बोले होंगे, हर बार उनकी पसंद और मूड भांपते हुए. लेकिन सुना है कि बहुत सारे किरदार जीने से एक्टर भूल जाता है कि वो वाकई में कैसा है. उसकी ओरिजिनल हंसी कैसी है...बिना मिलावट का प्यार कैसा है...अनगिन मुखौटे लगाने वाले लोगों के लिए आइना भी कारगर नहीं होता...हमेशा कोई और अक्स दिखाता है. शायद किसी के आँखों में तुम अपने आप को पा सकते. मगर तुम्हें खोना कहाँ आता है...जरा सा अपने को गिरवी नहीं रखोगे तो कैसे पाओगे कुछ भी वापसी में. लेकिन तुम्हें इसकी चाहत नहीं होगी शायद. तुम सिर्फ जायका बदलने के लिए इश्क को करते हो. झूठ को जीना तुम्हारे लिए खुशनुमा रहा है. इसलिए तुम्हारे हिस्से मेरी दुआएं नहीं हैं.

तुम यूँ ही दफन रहो शहर के बाहर की परती जमीन पर नागफनियों के साथ. मुझे जाने क्यूँ तुम्हारा क़त्ल कर देने का अफ़सोस कभी नहीं नहीं होता है. अफ़सोस यूँ तो तुमसे इश्क करने का भी कभी नहीं होता है. जबसे तुम्हें दफनाया है इत्मीनान रहता है कि किसी रात तुम अपने हिस्से का इश्क मांगने नहीं पहुँच जाओगे. मैंने तुम्हारे जैसा भिखारी कहीं नहीं देखा. गरीब से गरीब आदमी बुद्ध के लिए अपनी झोली से एक मुट्ठी अनाज दे सकता था मगर तुम ऐसे कृपण थे कि अपनी ओर से बुआई के लिए अन्न तक नहीं देते.  यूँ तुम्हारा क़त्ल अपने हाथों करने की जरूरत नहीं थी...किसी और से भी करवा सकती थी मगर सुकून नहीं आता.

ठंढ के दिन थोड़े मुश्किल होते हैं मानती हूँ मगर इतना भी नहीं कि तुम्हारी आवाज़ के अलाव के बिना रात ठिठुरते हुए मर जाए. वो दिन याद हैं जब तुम्हारी आवाज़ को ऊन की तरह उँगलियों में लपेट कर कविताओं का मफलर बुना था. नर्म पीले रंग का. उस सर्दियों में मेरा गला  कभी ख़राब नहीं हुआ. इन जाड़ों में सोच रही हूँ अपने पुराने प्यार कीट्स से फिर से इश्क कर बैठूं, सच ही कहता था न...

“I almost wish we were butterflies and liv'd but three summer days - three such days with you I could fill with more delight than fifty common years could ever contain.” 
― John Keats

13 December, 2012

आई लव यू टू

तुम किसी मूक फिल्म की तरह मेरी जिंदगी का हिस्सा हो...कभी कभार एक टाइटल आ जाता है जिसके अलावा सारी बातें किस प्लेन पर घटती हैं कोई नहीं जानता. कितने सारे सिनरिओज इमैजिन कर लेती हूँ ना...तुम आये हो...ऐसे बात करते हो मुझे. कितनी कम बातें की हैं तुमसे...मगर उन कुछ लम्हों को इतनी बार रिवाईंड कर चुकी हूँ कि अब तो फिल्म घिस जानी चाहिए मगर ये मन का कैमरा कैसा है कि हर बार नए शेड्स ले आता है. अरे...क्या...तुम्हें बताया नहीं, तुम्हारे रंग याद नहीं हैं मुझे...तुम बस काले और उजले के शेड्स में बस गए हो मेरे अन्दर कहीं.

या कि मौसम की शरारत है कि ऐसा लगा जैसे खिड़की के पार तुम हो...तुम्हारा होना ऐसे महसूस हुआ जैसे धक् से लगता है प्यार में गिरने पर...और यु तो नो...देयर इज नो फालिंग इन लव...इट जस्ट हैपन्स...धाड़...गिर गए...भटाक! अब लो...सम्हालो, कभी घुटने पर चोट लगती है, कभी दिल पर...रोंदू सी शकल लिए घूमते रहो फिर. यूँ तो प्यार बहुत तमीज से ठंढ के मौसम की तरह आता है लेकिन क्या करोगे, जिंदगी है...कभी कभी उससे भी गलती हो जाती है. इस बार दो महीने पहले आ गया. टाइमिंग गलत हो गयी...वो क्या है कि मुझे मालूम नहीं था कि उसके आने का मूड बन गया है और तुम स्टाइल में एंट्री सीक्वेंस के लिए खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हो...पगली मैं...कपड़े भी ढंग के नहीं पहने थे...तभी तो तुम्हें भी धोखा हो गया कि मैं ही हूँ या कोई और है. साइड हीरोइन पर कौन ध्यान देता है...बट लाइफ माय फ्रेंड इज फुल ऑफ़ सरप्राइजेज. प्यार हमेशा धमाकेदार एंट्री नहीं करता...चुपके से भी चला आता है.

कसम से, मेरे पास तुम्हारे दिल की भागती धड़कन को सुनने की कोई डिवाइस नहीं है...मेरा फोन आता है तो घबराया मत करो...एक गहरी सांस लेकर फोन उठा लिया करो. मैं जानती हूँ तुम्हें इतनी अच्छी एक्टिंग आती है कि मूक फिल्म में भी फोन उठा कर कुछ न कुछ मैनेज कर लोगे. होते हैं...सबकी लाइफ में ऐसे लम्हे आते हैं जब समझ नहीं आता कि कहें तो क्या कहें...लेकिन जानां...प्यार में हो तो उल्टा-पुल्टा मत सोचो...मुझे तुम्हारी हर अदा से प्यार है. उसे क्या कहते हैं जब आप किसी को इतनी अच्छी तरह जानते हो कि उससे फोन पर बात करते हुए आपको मालूम है कि सामने वाले का एक्जैक्ट एक्सप्रेशन कैसा है? मेरे तुम्हारे बीच वैसा कुछ है...है तो वैसे और भी बहुत कुछ...इस हसीन शहर का दिलफरेब मौसम...पुल के ऊपर का खाली ठहरा हुआ समय...बहुत बहुत से गुलमोहर के पेड़ों पर रुकी हुयी धूप...प्यार? कन्फर्म नहीं है.

मेरा आज तक कभी ध्यान नहीं गया था कि रियल जिंदगी में तुम वाकई कितनी बकवास बातें करते हो...तुम मेरी मूक फिल्म में ही सही थे...वो क्या है कि जब भी तुम्हारा फोन आया है मेरा किसी बात पर ध्यान ही नहीं रहता...सारा ध्यान इस बात पर रहता है कि तुम फोन रखते हुए साइन ऑफ़ में क्या कहते हो. क्यूँ? हुआ यूँ कि एक बार मुझसे बात करते हुए तुम ऑफिस को भाग रहे थे...तो फ़ोन रखते हुए तुम कुछ कह गए थे...क्या..गलती से...हाँ बाबा, जानती हूँ गलती से...ऐसी हसीन गलतियाँ जिंदगी में गिन के ही देता है खुदा...तो उस दिन तुम कह गए थे...ओके...लव यू...बाय. मैं हक्की-बक्की-बोक्की...सोच रही थी कि कभी तुमसे पूछूं...कितने लोगों को लव यू बाय बोलते हो कि आदत पड़ गयी है. वो दिन है और आज का दिन है...बाय और टाटा के सिवा कुछ नहीं मिलता.

जाने दो...देखो न कितनी बातें कर गयी तुमसे...ऐवें ही...फोन रखती हूँ...टाटा...बाय. जानती हूँ फोन रखने के बाद तुमने भी उधर कहा होगा...लव यू टू. 

29 November, 2012

जिसके खो जाने का डर तारी है...

मुझे नहीं मालूम कि ख़ास मेरे बॉस ने मुझे रिकोर्डिंग स्टूडियो क्यूँ जाने को कहा था...शाम के कुछ पहले का वक़्त था...स्टूडियो में एक बेहद अच्छे म्यूजिक डायरेक्टर आये हुए थे. उन्होंने बड़े लोगों के साथ रिकोर्डिंग की थी...कुछ उसने कहा कि चली जाओ, थोड़ा तुम भी गा देना...एक और आवाज़ जुड़ जायेगी...बस मस्ती करो थोड़ा ज्यादा सीरियसली मत लो.

ऑफिस से स्टूडियो बहुत पास नहीं था पर बैंगलोर में मुझे ऑटो वाले कहीं ले नहीं जाते हैं...पैदल चली ऑफिस से. रास्ते का थोड़ा बहुत आईडिया था...और मैं कभी रास्ते नहीं भटकती...सो मैं रास्ता भटक गयी. नेहा से पूछा कि उसे खाने को कुछ चाहिए तो उसने कहा कुछ भी लेते आना...उसके लिए एक डेरी मिल्क उठायी और अपने लिए पानी. जाते हुए गाने सुन रही थी...एक दोस्त को फोन भी किया था कि उसका बर्थडे था. बहुत दिनों बाद शाम देखने को मिली थी...ढलती हुयी शाम.

रिकोर्डिंग स्टूडियो बेसमेंट में है...स्टूडियो का पहला दरवाज़ा खोलते ही लगा जैसे समय में बहुत पीछे चली गयी हूँ...दोनों दरवाज़ों के बीच एक वैक्यूम ज़ोन होता है...ताकि कमरा पूरी तरह साउंड प्रूफ हो...ये बीच का हिस्सा...जैसे वर्तमान है...अन्दर का दरवाज़ा अतीत में खुलता था और बाहर का दरवाज़ा भविष्य में. पहली बार आकाशवाणी पटना के स्टूडियो गयी थी तो एक ख़ास गंध साथ में लिपटी चली आई थी...इस गंध में इको नहीं होता था...कभी कभी मुझे लगता है कि गंध के साथ शब्द का ख़ासा रिश्ता होता है...स्टूडियो की गंध में कोई आवाज़ नहीं होती...इको नहीं होता. दीवारें जो अक्यूट एंगल पर मिलती हैं...वाकई क्यूट होती हैं. स्टूडियो की मोटी दीवारें...उनपर लगे गत्ते के हिस्से...कार्डबोर्ड...भारी परदे. वहां ठहरी हुयी गंध आती है...जैसे जब से रेडियो स्टेशन बना था तब से कही गयी हर आवाज़ वहीँ ठहरी हुयी है.

स्टूडियो में मेरे पहुँचते रिकोर्डिंग लगभग ख़त्म हो गयी थी...ऑडियो की मिक्सिंग होने में वक़्त लगता तो सिर्फ क्लीन करने के बाद बेस ट्रैक के लिए रुकना था. कितने दिन बाद कोंसोल देखा था...नोट्रे डैम का रवि-भारती याद आया...आईआईएमसी का 'अपना रेडियो' भी.

कुछ देर रुकने के बाद लगा कि बहुत देरी होगी...फिर सुबह की शूट भी थी आठ बजे से...तो घर के लिए निकल पड़ी. मेरी थिंग्स टू डू की लिस्ट में एक चीज़ थी फ़्लाइओवेर पर पैदल चलना. यूँ तो सड़क पर किनारे चलना चाहिए...लेकिन डोमलूर फ़्लाइओवेर के बीचोबीच मीडियन है. जैसा कि आमतौर पर होता है...आम तौर पर करने वाला कोई काम हम करते नहीं है. तो मीडियन पर चल रहे थे. गाने सुनते हुए...रात शुरू हो चुकी थी...दोनों तरफ से तेजी से भागती हुयी गाड़ियाँ...पूरी रौशनी आँखों पर पड़ती हुयी...और फिर बीच फ़्लाइओवेर पर फिर से सब पौज...सब ठहरा हुआ...नीचे गाड़ियाँ भागती हुयीं...ऊपर शहर दौड़ता हुआ...होर्डिंग पर मुस्कुराते लोग...भागते लोग...और ठहरी हुयी बस मैं या फिर आसमान में अटका हुआ चाँद. याद आती है शायद IQ84 में पढ़ी हुयी कोई लाइन...It's just a paper moon. फ्लाईओवर बहुत से लोग क्रोस करते होंगे...मगर सिर्फ फ्लेवर क्रोस करने पर इतना खुश हो जाना...कभी कभी सोचती हूँ कि छोटी छोटी चीज़ों पर खुश हो जाना कितना जरूरी है जिंदगी में कि बात चाहे सिर्फ पहली बार फ़्लाइओवेर क्रोस करने की ही क्यूँ न हो.

शूट पर इतने लोगों से बात की, इतने लोगों को देखा...इतने लोगों को रिकोर्ड किया कि शाम होते होते मिक्स सा कोई कोलाज बन गया...बेहद व्यस्त दिन रहा...भागना, दौड़ना, लोगों को शूट के लिए तैयार करना...शुरुआत कुछ ऐसे करना कि बस कैमरा के सामने खड़े होकर मुस्कुराना है और वहां से शुरू करके आम लोगों से गाने गवाना, डांस के स्टेप्स करना और कैमरे की ओर देख कर मुस्कुराना...ये सब एक साथ करवा लेना...डाइरेक्टर...कैमरामैन...नेहा पहली बार डाइरेक्ट कर रही थी...और मैं पहली बार देख रही थी. वैसे तो शूट पहले किया है पर इतने चेहरों में कोई एक चेहरा अलग सा दिखा. सोच रही थी कि ऐसा क्यूँ होता है कि कोई शख्स बड़ा जाना-पहचाना सा लगता है.

रात को सपना देखा कि कोई है...ठीक ठीक याद नहीं...पर कोई दोस्त है...बहुत करीबी...मुझसे मिलने आया है...मैं उसे अपने हेडफोन्स देती हूँ कि देखो मैं कितना अच्छा गाना सुन रही हूँ...पर वो कहता है कि उसके साथ बस कुछ देर चुप -चाप बैठूं...मैं चौथे महले की सीढ़ियों पर बैठी हूँ उसके साथ...कितनी देर, बिना कुछ कहे. फिर अगला दिन होता है और मुझे पता चलता है कि उसे फांसी हुयी है. इतने में नींद खुलती है...कितना भी याद करती हूँ याद नहीं आता कि सपने में कौन था...घबराहट लगती है...लोगों को खो देने का डर. कारण खोजती हूँ तो पाती हूँ कि कल अचानक से शूट के दौरान ही एक कलीग के घर से फोन आया था कि उसकी दादी को हार्ट अटैक आया है और वो घबरा के हॉस्पिटल भागी थी. हॉस्पिटल की इमरजेंसी और ऐसी चीज़ें दिमाग में रह गयी होंगी शायद.
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उसके खो जाने का डर तारी है...और मालूम भी नहीं है कि वो है कौन जो खो गया है.
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20 May, 2012

ताला लगाने के पहले खड़े होकर सोचना...कुछ देर. फिर जाना.

यूँ तो ख्वाहिशें अक्सर अमूर्त होती हैं...उनका ठीक ठीक आकार नहीं नहीं होता...अक्सर धुंध में ही कुछ तलाशती रहती हूँ कि मुझे चाहिए क्या...मगर एक ख्वाहिश है जिसकी सीमाएं निर्धारित हैं...जिसका होना अपनेआप में सम्पूर्ण है...तुम्हें किसी दिन वाकई 'तुम' कह कर बुलाना. ये ख्वाहिश कुछ वैसी ही है जैसे डूबते सूरज की रौशनी को कुछ देर मुट्ठी में भर लेने की ख्वाहिश.

शाम के इस गहराते अन्धकार में चाहती हूँ कभी इतना सा हक हो बस कि आपको 'तुम' कह सकूं...कि ये जो मीलों की दूरी है, शायद इस छोटे से शब्द में कम हो जाए. आज आपकी एक नयी तस्वीर देखी...आपकी आँखें इतनी करीब लगीं जैसे कई सारे सवाल पूछ गयी हों...शायद आपको इतना सोचती रहती हूँ कि लगता है आपका कोई थ्री डी प्रोजेक्शन मेरे साथ ही रहता है हमेशा. इसी घर में चलता, फिरता, कॉफी की चुस्कियां लेता...कई बार तो लगता भी है कि मेरे कप में से किसी ने थोड़ी सी कॉफी पी ली हो...अचानक देखती हूँ कि कप में लेवल थोड़ा नीचे उतर गया है...सच बताओ, आप यहीं कहीं रहने लगे हो क्या?

ये 'आप' की दीवार बहुत बड़ी होती है...इसे पार करना मेरे लिए नामुमकिन है...हमेशा मेरे आपके बीच एक फासला सा लगता है. जाने कैसे बर्लिन की दीवार याद आती है...जबकि मैंने देखी नहीं है...हाँ एक डॉक्यूमेंट्री याद आती है जिसमें लोग उस दीवार के पार जाने के लिए तिकड़म कर रहे हैं...गिरते पड़ते उस पार चले भी जाते हैं...कुछ को दीवार के रखवाले संतरी गोलियों से मार गिराते हैं फिर भी लोगों का दीवार को पार करना नहीं रुकता है. अजीब अहसास हुआ था, जैसे सरहदें वाकई दिलों में बनें तभी कोई  बात है वरना कोई भी दीवार लोगों को रोक नहीं सकती है. मैंने एकलौती सरहद भारत-पाकिस्तान की वाघा बोर्डर पर देखी है...उस वक्त सरसों के फूलों का मौसम था...और बोर्डर के बीच के नो मैंस लैंड पर भी कुछ सरसों के खेत दिख रहे थे. बोर्डर को देखना अजीब लगा था...यकीन ही नहीं हुआ था कि वाकई सिर्फ कांटे लगी बाड़ के उस पार पकिस्तान है...ऐसा देश जहाँ जाना नामुमकिन सा है. बोर्डर की सेरिमनी के वक्त गला भर आया था और आँखें एकदम रो पड़ी थीं...सिर्फ मेरी ही नहीं...बोर्डर के उस पार के लोगों की भी...हालाँकि मुझे उनकी आँखें दिख नहीं रहीं थी जबकि उस वक्त मुझे चश्मा नहीं लगा था. पर मुझे मालूम था...हवा ही ऐसी भीगी सी हो गयी थी.

आपको याद करते हुए कुछ गानों का कोलाज सा बन रहा है जिसमें पहला गाना है जॉन लेनन का 'इमैजिन'. इसमें एक ऐसी दुनिया की कल्पना है जिसमें कोई सरहदें नहीं हैं और दुनिया भर के लोग प्यार मुहब्बत से एक दूसरे के साथ रहते हैं...'You may say I'm a dreamer, but I am not the only one'...कैसी हसीन चीज़ होती है न मुहब्बत कि यादों में भी सब अच्छा और खूबसूरत ही उगता है...दर्द की अनगिन शामें नहीं होतीं...तड़पती दुपहरें नहीं होतीं. आपने 'strawberry fields forever' सुना है? एक रंग बिरंगी दुनिया...सपनीली...जहाँ कुछ भी सच नहीं है...नथिंग इज रियल. मेरी पसंदीदा इन द मूड फॉर लव का बैकग्राउंड स्कोर भी साथ ही बज रहा है पीछे. बाकियों का कुछ अब याद नहीं आ रहा...सब आपस में मिल सा गया है जैसे अचानक से पेंट का डब्बा गिरा हो और सारे रंग की शीशियाँ टूट गयीं.

कल सपने में देखा कि जंग छिड़ी हुयी है और चारों तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...पर हमारे पास बचने के अलावा कोई उपाय नहीं है...सामने से दुश्मन आता है पर मेरे हाथ में एक रिवोल्वर तक नहीं है...मैं बस बचने की कोशिश करती हूँ. एक इक्केनुमा गाड़ी है जिसमें मेरे साथ कुछ और लोग बैठे हैं...ऊपर से प्लेन जाते हैं पर वो भी गोलियाँ चलाते हैं...कुछ लोग मुस्कुराते हुए आते हैं पर उनके हाथ में हथगोला होता है...हम चीखते हुए भागते हैं वहां से. छर्रों से थोड़ा सा ही बचा है पैर ज़ख़्मी होने से...कुछ गोलियाँ कंधे को छू कर निकली हैं और वहाँ से खून बहने लगा है. सब तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...कोई सुरक्षित जगह ही नहीं है...मुझे समझ नहीं आता कि कहाँ जाऊं. फिर एक मार्केट में एक दूकान है जहाँ एक औरत से बात कर रही हूँ...उनके पास कोई तो बहुत मोटा सा कपड़ा है जिससे जिरहबख्तर जैसा कुछ बनाया जा सकता है लेकिन औरत बहुत घबरायी हुई है, उसके साथ उसकी छोटी बेटी भी है...बेटी बेहद खुश है. सपने में किसी ने सर पर गोली मारी है...मुझे याद नहीं कि मैं मरी हूँ कि नहीं लेकिन सब काला, सियाह होते गया है.

मुझे मालूम नहीं ऐसा सपना क्यूँ आया...कल ये ड्राफ्ट आधा छोड़ कर सोयी थी...

कुछ बेहद व्यस्त दिन सामने दिख रहे हैं...तब मुझे ऐसे फुर्सत से याद करके गीतों का कोलाज बनाने की फुर्सत नहीं मिलेगी...याद से भूल जायेंगे सारी फिल्मों के बैकग्राउंड स्कोर्स...कविताएं नहीं रहेंगी...लिखने का वक्त नहीं रहेगा...फिर मेरे सारे दोस्त खो जायेंगे बहुत समय के लिए. कल नील ने फोन कर के झगड़ा किया कि तू मुझे क्या नहीं बता रही है...तू है कहाँ और तुझे क्या हुआ है. बहुत दिन बाद किसी ने इतना झगड़ा किया था...मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने उसे झूठे मूठे कुछ समझा कर शांत किया...फिर कहा मिलते हैं किसी दिन...बहुत दिन हुए. मैं बस ऐसे ही वादे करती हूँ मिलने के. मिलती किसी से नहीं हूँ. आजकल किसी किसी दिन बेसुध हो जाने का मन करता है...मगर मेरे ऊपर पेनकिलर असर नहीं करते और मुझे किसी तरह का नशा नहीं चढ़ता. मैं हमेशा होश में रहती हूँ.

एक सरहद खींच दी है अपने इर्द गिर्द...इससे सुरक्षित होने का अहसास होता है...इससे अकेले होने का अहसास भी होता है.

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