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16 November, 2015

मुराकामी, मोने और जरा मनमर्जियाँ

मेरे गूगल मैप्स में एक दिन की हिस्ट्री उभर आई. मेरी करेंट लोकेशन से तुम तक पहुँचने में बहुत से देश...बहुत सा समंदर...बहुत से रास्ते लांघने पड़ते...गूगल कह रहा था...नो डायरेक्ट रूट फाउंड...सही ही तो है न. तुम तक पहुँचने का कोई सीधा रास्ता तो है नहीं.
बहुत से दुःख. बहुत सी उलझन. बहुत सी खुशफहमियों को छू कर गुज़रता है तुम तक पहुँचने का रास्ता. इसमें अवसाद के नीले दिन भी आते हैं...चुप्पी की गहरी खाई भी आती है...नमक भरा आँसुओं का समंदर भी आता है...हिचकियों के ऊंचे पहाड़ भी आते हैं...मगर बात है कि इन सब हादसों से गुज़र कर भी तुम्हारे पास जाने का कोई पक्का रास्ता मिलता नहीं. सोचना ये भी है न कि तुमसे मिल ही लेंगे...फिर? 
हर बार वही इंतज़ार के इंधन को जमा करते रहेंगे...जब बहुत सा इंतज़ार हो जाएगा...इतना कि तुम तक पहुंचा जा सके...फिर तुम्हारे शहर आने का रास्ता तलाशेंगे...
गूगल फिर कहेगा...नो डायरेक्ट रूट फाउंड. इस बार हम गूगल की बात मान लेंगे और तुम्हें तलाशने की इस हिस्ट्री को हमेशा के लिए डिलीट कर देंगे.
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मैंने एक मुराकामी की नावेल पढ़ी. फिर. मुराकामी आजकल मेरे पसंदीदा लेखक हैं. किताब का नाम है स्पुतनिक स्वीटहार्ट. इसमें एक लड़का है जो एक दिन एक लड़की को अपना घर शिफ्ट करने में मदद करता है. लड़का एक स्कूल में टीचर है. बच्चों को पढ़ाता है. लड़की उसे अक्सर रात बेरात फोन करती है. वो उनींदा बात करता है उससे, लड़की कहती है कि वो जानती है कि उसकी बातों का कोई सर पैर नहीं है...मगर लड़के को एक बार उस लड़के के हिस्से का भी सोचना चाहिए...वो इतनी देर रात नींद और ठंढ में चल कर इस फोन बूथ तक आई है...और सिक्के वाले इस फोन बूथ से उसे फोन कर रही है...लड़के का भी कोई फ़र्ज़ है उसकी बातें सुने. लड़का उसकी सारी बातें सुनता रहता है. कितने कितने दिन. इस पूरी दुनिया में एक उस लड़की के साथ ही उसे नजदीकी महसूस होती है. इक रोज उसे अचानक से पता चलता है कि लड़की गुम हो गयी है, 'डिसअपीयर्ड इन थिन एयर'. वो उस ग्रीक द्वीप पर जाता है जहां से वह गायब हुयी है. उसका कोई पता नहीं चलता. वो जानता है कि लड़की मरी नहीं है कहीं...उसे कैसे तो लगता है वो किसी अँधेरे कुँए में गिर गयी है. पुलिस और डिटेक्टिव लगे होते हैं मगर उसका कोई पता नहीं चलता. लड़का जानता है कि लड़की किसी दूसरी दुनिया में चली गयी है. जैसे आईने के दूसरी तरफ वाली. उसे इंतज़ार रहता है कि लड़की फोन करेगी. 

फोन की घंटी बजती है. लड़की उससे कह रही है, 'सुनो तुम्हें मुझे यहाँ आ कर मुझे यहाँ से ले जाना होगा...मैं एक फोन बूथ में हूँ जो मालूम नहीं किधर है...मगर तुम यहाँ आ कर मुझे ले जाना...अच्छा मैं फोन रख रही हूँ, मेरे पास सिक्के ख़त्म हो रहे हैं'.
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मुराकामी की दूसरी नावेल, नार्वेजियन वुड भी ऐसे ही कहीं ख़त्म होती है. मुझे दोनों बार ये किरदार बड़े अपने से लगे हैं. बड़े तुम्हारे से भी. तुमने अगर मुराकामी को नहीं पढ़ा है तो तुम्हें जरूर पढ़ना चाहिए. मेरा मुराकामी को ट्रांसलेट करने का भी मन कर रहा है. हिंदी में. इतनी खूबसूरत चीज़ें अपनी भाषा में नहीं होंगी तो भाषा गरीब ही रहेगी.
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आजकल मेरे दिन बहुत उलझन भरे बीत रहे हैं. इतना सारा कुछ हो जा रहा है लिखने को और फुरसत धेले भर की भी नहीं है. इसी चक्कर में सच और कल्पना का घालमेल हो जाता है. मुझे ध्यान नहीं रहता कि कितनी बातें सच में हुयी हैं और कितनी बातें सोची हुयी भर हैं.
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मैं एटलांटा में म्यूजियम गयी थी. वहां मैंने मोने(Monet) की पेंटिंग देखी. यूं इसके पहले भी मैंने मोने को देखा है मगर या तो मैं किसी और मूड में रही होउंगी कि ध्यान नहीं गया. हम कभी कभी एक खास मूड में होते हैं कि जब आर्टिस्ट को देख कर हैरत से भर जाते हैं. रेजोनेंस होता है...कि हम भी वही कुछ सोच रहे होते हैं कि जो आर्टिस्ट सोच रहा होता होगा. मोने की पेंटिंग में एक कोहरे में डूबी बिल्डिंग है. इस एक्जिबिट में पेटिंग के आगे शीशे की परत नहीं लगाई गयी थी कि जैसा अक्सर बाकी पेंटिंग्स में होता है. पेंटिंग की अपनी एनेर्जी होती है. अपना औरा. कि जो इस पेंटिंग में था. मैं बहुत देर तक उस पेंटिंग के सामने खड़ी उसे एक्टुक देखती रही. गुलाबी, बैगनी और लैवेंडर रंग की पेंटिंग इतनी जीवंत थी कि वाकई लगता था कोहरे के पीछे की बिल्डिंग दिख रही है. कोहरे की परतें थीं...और जैसे सब कुछ चलायमान था...वो पेटिंग न केवल जीवंत थी बल्कि मुखर भी थी...उसे देखते हुए मेरी आँखें भर आई थीं. कि दुनिया में कितनी खूबसूरती है. और कि हम कहाँ जा रहे हैं ऐसे भाग भाग के. उसके ठीक बगल में एक और पेंटिंग थी जिसमें वसंत ऋतु के पेड़ एक झील में रिफ्लेक्ट होते हैं...हरा, सुनहला, पीला गुलाबी...कई रंग थे. ये पेंटिंग मोने ने अपने नाव से बनायी थी. उसने एक नाव को स्टूडियो में कन्वर्ट कर दिया था. उस मौसम, उस धूप को मोने ने हमेशा के लिए पेंटिंग में कैप्चर कर दिया था.

आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. उनका लिखा कहीं हमारे मर्म को छूता है. it touches a raw nerve. कुछ टहकता है अन्दर. इसलिए महान आर्टिस्ट्स में भी हमारे फेवरिट्स होते हैं. कर्ट कोबेन को पहली बार डिस्कवर किया था तो ऐसे ही लगा था कि जैसे रूह तक पहुँच रही हो उसकी आवाज़. मोने को देखती हूँ तो यूं ही उसके पेंटब्रश के स्ट्रोक्स...इतना रियल है सब...इतना सच. मैं आभासी दुनिया में कैद थी और जैसे अचानक ही इस दुनिया में पहुँच गयी हूँ जहाँ रंग ऐसे कच्चे हैं कि उँगलियों में लगे रह जाते हैं. 

किसी पेंटिंग की फोटो देखने और असल पेंटिंग देखने में कितना अंतर होता है ये भी पहली बार महसूस किया. कि कला को उसके असल रूप में देखने की जरूरत होती है. हम जो कॉन्सर्ट या ओपेरा की रिकोर्डिंग सुनते हैं और जो असल में लाइव ओपेरा होता है उसमें ज़मीन आसमान का अंतर होता है. मैंने पहली बार जब वियेना में ओपेरा सुना था तो इसी तरह सीने में अटका कुछ महसूस हुआ था. रूह को छूने वाला कुछ. 

और फिर मुझे लगता है कि इस दौर में शायद लोग आभासी के पीछे रियल का अनुभव भूलते जा रहे हैं. कितने लोग पेंटिंग्स देखना चाहते हैं. मेरे कुछ दोस्त अभी भी चकित होते हैं कि मुझे म्यूजियम में क्या देखना होता है. कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें पेंटिंग समझ नहीं आती है. मुझे भी पहले पेंटिंग समझ नहीं आती थी. लगता था कि क्या है कि लोग जान दिए रहते हैं पेंटिंग को लेकर. अब पहली बार महसूस किया है. ऐसी चीज़ जादू ही होती है. उसमें कैद एक लम्हा फॉरएवर के लिए वैसा ही रहेगा. हमेशा. तुम जब भी उस पेंटिंग के पास खड़े होगे तुम उस शहर, उस मौसम, उस फीलिंग तक पहुँच जाओगे. पहली बार महसूस हुआ कि काश मोने की एक पेंटिंग खरीद सकने लायक पैसे होते तो मैं भी एक पेंटिंग अपने घर में रखती. छोटी सी ही सही. मगर ऐसा जादू कि उफ़. 

विन्सेंट वैन गौग की आत्मकथा, लस्ट फॉर लाइफ एक जगह विन्सेंट करुणा से कहता है, 'कितनी दुःख की बात है कि गरीब आदमी के पास कला के लिए पैसे नहीं है. वो एक टुकड़ा कैनवस भी अपने घर पर नहीं रख सकता. उसे कला की सही समझ है. उसे पेंटिंग के भाव समझ आयेंगे. मगर अमीर आदमी कला खरीद सकता है जबकि उसे कला की कुछ भी समझ नहीं है और वह सिर्फ नाम के लिए ख्यात पेंटिंग्स खरीदता है कि अपने ड्राइंग रूम में टांग दे और अपने दोस्तों के सामने कह सके, ये पेंटिंग में इतने पैसों में खरीदी है.'.

मैंने शायद बहुत किताबें नहीं पढ़ी हैं. अपनी किताब को लेकर अभी भी संशय में रहती हूँ जब कि छपने के पांच महीने में 'तीन रोज़ इश्क़' का पहला एडिशन सोल्ड आउट हो गया, बिना किसी अतिरिक्त प्रचार प्रसार के...मुझे समझ नहीं आता कि मैं लोगों से क्या बात करूंगी. मैं किसी महान आर्टिस्ट के बारे में बात भी करूंगी तो उसकी टेक्निक या उसकी खासियत के बारे में नहीं...बल्कि उसे देखकर मुझे जो महसूस होता है उसके बारे में बात करूंगी. मुझे बहुत सी चीज़ें समझ नहीं आतीं. मॉडर्न आर्ट तो कई बार वाकई बदसूरत होता है. जैसे एटलांटा में एक एक्जीबिशन था फैशन पर. वहां एकक एक ड्रेस के पीछे आधे आधे घंटे की फिलोसफी थी. और ड्रेस न दिखने में खूबसूरत, न पहनने में प्रैक्टिकल. डिजाईन या फिर विसुअल आर्ट्स के बारे में मेरा मानना ये है कि डिजाईन को एक्प्लेनेशन की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए. अगर पढ़ कर समझना पड़े तो वो मेरे हिसाब की चीज़ नहीं.
कला भी इश्क़ जैसी होती है. यहाँ कोई चीज़ रूह तक पहुँचती है. लम्हे भर में और ताउम्र गिरफ्त में लेती है. यहाँ लॉजिक काम नहीं करता कि आको ये आर्टिस्ट पसंद आना चाहिए. मुझे पिकासो की पेंटिंग कमाल लगी थी. बेसिरपैर, लेकिन कमाल. उसके सिम्बोलिज्म को पढ़ कर उसको समझने से पहले भी पेंटिंग में कुछ था जो अपनी ओर खींचता था.
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और फिर जानती हूँ कि वोंग कार वाई को एक बार मिलने की ख्वाहिश कितनी जरूरी है. अंगकोर वात जाना क्यों रूह के लिए है...दिमाग और लॉजिक के लिए नहीं.
और इतना भी कि कहना किसी को...मैं एक बार आपकी उँगलियाँ चूमना चाहती हूँ...जिंदगी का एक मकसद कैसे हो सकता है. क्यूंकि कला समझने की नहीं, महसूसने की चीज़ है.
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लिखते हुए शिकागो में दिन उग आया है. कमरे की खिड़की से बेतरह खूबसूरत सुबह दिख रही है. आज मोने को देखने जाउंगी शिकागो म्यूजियम में. आज कुछ तसवीरें. मेरी आँखों से ऐसी दिखती है दुनिया.


19 September, 2014

ब्लैक टी विद अ स्लाइस ऑफ़ लेमन

भोर से तीन बार उठ चुकी हूँ मगर मौसम में ठंढक कुछ ऐसी है कि वापस कम्बल ओढ़ कर सो जाने का दिल करता रहा. अब आखिर झख मार के उठी हूँ कि दस बजने का अंदाजा हो रहा था. ये ख्वाब नींद के किस पहर देखा मगर ठीक ठीक याद नहीं है.

सामने चाय के बगान वाले ऊंचे पहाड़ थे...और आसपास बहुत से पेड़. सब कुछ इतना हरा था जैसे ग्रीन फ़िल्टर से दिख रही हों चीज़ें. ये केरल की कोई जगह थी. ठीक कौन सी जगह याद नहीं. मैं अकेले किसी ट्रिप पर निकली थी कि जाने क्या देखना था मुझे. इन पहाड़ों पर जाने के लिए सीढियाँ थीं. पत्थर की पुरानी सी सीढ़ियाँ जिनमें कहीं कहीं काई लगी हुयी थी. जरा जरा सी ठंढी हवा बह रही थी. आँख भर देखने के बाद भी सब इतना सुन्दर था कि जैसे वाकई आँखों में समा नहीं रहा था. मुझे किन तो लोगों की याद आ रही थी. किसी के शहर को जानना उस व्यक्ति को जानने जैसा होता है. मुझे वैसे भी जगहों से ज्यादा लगाव होता है लोगों के बनिस्बत.

मैं वहां मुग्ध खड़ी थी. मुझे किसी के गाँव जाना था उससे मिलने. उसके गाँव की तसवीरें देखी थी मैंने. वहां एक नदी बहती थी. इस खूबसूरत नज़ारे में क्रॉसफेड हो रहा था उसका चेहरा और उसकी आँखें. कोई आधी दूर चली थी तो जंगल में एक गेस्टहाउस था जहाँ मेरी जान पहचान के कुछ लोग थे. इनमें कुछ कॉलेज की क्लासमेट्स थीं और एक ऑफिस के जानपहचान वाली थी. ये दोनों एक जगह कैसे हो सकती हैं, या एक ट्रिप पर कैसे आयीं मुझे कोई आईडिया नहीं. उनमें से एक के पास मेरा पुराना हैंडीकैम था. कोई सात साल पुराना होने के बावजूद वो बहुत अच्छे से काम कर रहा था. फिर वहां अचानक से मेरे कुछ पुराने बक्से दिख रहे थे. वो कमरा जैसे कोई स्टोरेज रूम था जिसमें मेरी खोयी हुयी चीज़ें जमा हो गयीं थीं. मेरी शादी के बाद की एक खोयी हुयी झांझर मिली उसमें...बहुत सारे घुँघरू थे. मैंने अपने पैरों में डालने की लिए देखी तो पाया कि अट नहीं रही. पहले शायद मेरे पैर बहुत पतले और सुन्दर रहे होंगे. हम तीनो लड़कियां हँस रही थीं फिर.

वहां कोई तो प्रेजेंटेशन होने लगा. एक हॉल था. लोगों को कहानियां सुनानी थीं. लोग अलग अलग डेस्क पर बैठे थे. मैं अपने किसी दोस्त के साथ थी जिसे कोई तो काम था. वो पेपर्स में कुछ कुछ तो लिख रहा था. फिर सीन चेंज हुआ और मैं अचानक से वापस उसी स्टोरेज वाले रूम में थी और मैंने पाया कि मेरे पास बहुत सारा सामान है जिसे लेकर मैं आगे नहीं बढ़ सकती. फिर मैंने अपनी दोनों दोस्तों से कहा कि कुछ चीज़ें वो अपने साथ वापस ले जायें. मैं सिर्फ उतनी सी चीज़ें अपने साथ लेकर जाना चाहती थी जो जीने के लिए एकदम जरूरी हों. एक नोटबुक, मेरी कलमें, पानी की एक बोतल, मेरा फ़ोन और कैमरा. एक छोटे से बैग में ये सब आ गया. मैं जंगल में फिर से अकेली निकल पड़ी. सब कुछ ख्वाबों जैसा था. मैंने ऐसे जंगल देखे थे मगर सिर्फ फिल्मों में...भारत में ऐसी कोई जगह है भी यकीन नहीं हो रहा था.

सुबह नींद खुली फिर भी जरा जरा सी वहीं रह गयी हूँ...ढलानों वाले चाय के बगान में...सोचती हूँ अब फाइनली चाय पीना शुरू कर ही दूं...नींद में आते बगान यही गुजारिश कर रहे होंगे...ब्लैक टी...जरा सी नीम्बू की खुशबू लिए हुए. जगह का नाम याद आ रहा है जरा जरा सा...वायनाड. जाना है मुझे. जल्दी.

14 February, 2014

Muse- जुगराफिया- A love letter to Berne

'Muse'- कुछ शब्दों की खुशबू उनकी अपनी भाषा में ही होती है, अब जैसे हिन्दी में मुझे इस शब्द का कोइ अनुवाद नहीं मिला है...प्रेरणा बहुत हल्का शब्द लगता है, म्यूज के सारे रोमांटिसिज्म को कन्वे भी नहीं कर पाता है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि औरतों को प्रेरणा देने के लिये किन ईश्वरों की रचना की गयी होगी या कि ग्रीक मिथक के सारे लेखक और पेन्टर सिर्फ मर्द हुआ करते थे इसलिये ऐसी किसी विचारधारा की कभी जरुरत ही न पड़ी। स्त्री रचने के लिये किसी बाहरी तत्व पे ज्यादा निर्भर भी नहीं रहती। उसके अंदर कल्पना के अनेक शहर बसे होते हैं।

बहरहाल, बहुत दिनों से सोच रही थी इन देवियों के बारे मे...मेरे भी म्यूज बदलते रहते हैं। म्यूज हर फौर्म के अलग अलग होते हैं। आज का मेरा विषय है- भूगोल यानि कि जुगराफिया...क्या है कि बचपन से मेरी जियोग्राफी खराब रही है। शोर्ट में हम उसे जियो कहते थे मगर सब्जेकट ऐसा टफ था कि जीने नहीं देता था। यूं शहर बहुत घूम चुकी हूं तो इस विषय से लगने वाला भय भी प्यार मे कन्वर्ट होने लगा। तो कुछ शहरों की बात करते हैं।
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हर शहर की अपनी खुशबू होती है। सबसे पहले आता है बर्न। स्विटजरलैंड। हेडफोन पर दिन भर बजता एक ही गीत...सिबोनेय...रास्ते खुलते जाते...ज्युरिक में रहते हुये जब बर्न जाने का मूड हुआ था तो दुपहर हो गयी थी। घंटे भर का रास्ता था, जा के आ सकती थी। सोचा कि चल ही लेती हूं। शहरों की किस्मत में आने वालों के नाम लिखे होते हैं।

शहर...बर्न...कागज के एक टुकड़े पर बस इतना ही लिखा है
Cities say welcome, Berne opened its arms wide and hugged me tight...whispering an incomprehensible 'Welcome back' into my ears...as I was swept off my feet.

मैं उस शहर की खुशबू बयां नहीं कर सकती...वहां की आबो हवा में कोइ पुराना गीत घुला हुआ था। मैं इस शहर बहुत पहले आ चुकी थी। बर्न मेरा अपना शहर था...मेरी आत्मा से जुड़ा हुआ। मुझे याद है स्टेशन का वो लम्हा...एयर कंडिशन्ड कोच से बाहर पहला कदम रखा था...बर्न ने बाँहें पसार कर मुझे टाइटली हग किया था...मैं कहीं और नहीं थी, मैं कुछ और नहीं थी...मैं उस लम्हे प्यार के उस बुलबुले में थी जिसकी दीवारें सदियों पहले ईश्क की बनी थीं। मेरी साँस साँस में उतरते बर्न से इस बेतरह प्यार हुआ कि लगा इस लम्हे जान चली जायेगी। मैं स्टैच्यू थी और शहर मेरे आने से इतना खुश था कि शिकायत भी नहीं कर रहा था कि आने में बड़ी देर कर दी, मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा था।

बर्न का मौसम दिलफरेब था। झीनी ठंढी हवा कि जिसमें लेस वाली फ्राक पहनने का दिल करे। चौकोर पत्थर वाली सड़कों पर नंगे पाँव दौड़ने का दिल कर रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं लगा था...किसी शहर से नहीं लगा था। इमारतें किस्से सुना रही थीं...मेरी खुराफातों के...मेरी खूबसूरती के...सुनहले थे मेरे बाल...कान्धे पर लहराते हुये...पास के झरने में खुद को देखा तो ब्लश कर रही थी मैं, गाल गुलाबी हो गये थे। शहर की खिड़की से दिखते फूलों जैसे। मेरी आँखें नीली थीं...आसमान जैसी नीलीं। मैं फूल से हल्की थी। सामने नदी बह रही थी...पानी गहरा हरा...जीवंत...भागता हुआ...नदी की चुप गरगलाहट सुनायी पड़ती थी...बच्चा मुस्कुराता था नींद में कोई। शहर के बीच टाउन स्कवायर। एक तरफ बर्न की पार्लियामेंट तो एक तरफ बैंक...और कोइ दो भव्य इमारतें। स्क्वैयर पर फव्वारे, उनके संगीत मे किलकारी मारते बच्चे। पानी से खुश होते...भागते...छोटे लाल हूडि पहने हुये...लड़कपन की दहलीज पर लड़कियां, उनके दोस्त...धूप...जिन्दगी एक बेहद खूबसूरत मोड़ पर ठहरी हुयी। आसपास के रेस्टोरैंट्स में वाईन पीते लोग। उनके चेहरे पर कितना सुकून। बर्न शोअॉफ कर रहा था।

पहले दिन वक्त बहुत कम था। भागती हुयी ट्रेन इसी वादे के साथ पकड़ी कि कल फिर आउंगी...अगली रोज जल्दी पहुंच गयी...दिन भर भटकती फिरी...शहर थामे हुये था मेरा हाथ। हेडफोन्स नहीं थे आज, कविताऐं सुननी थी मुझे...ट्रेन स्टेशन के ठीक सामने एक ग्रुप गा रहा था...भाषा समझ नहीं आयी पर भाव मालूम था...ये इस एक दिन के लिये भागते हुये शहर से मिलने की मियाद थी...गली गली गले मिलने की...नदी के उपर बने उँचे ब्रिज से देर तक नदी की शिकायतें सुनने की...फूल बेचते लड़कों को देख कर मुस्कुराने की...बार बार और बार बार रास्ता भटक जाने की...गहरी सांसों में इक छोटी सी मुलाकात दिल में बसाने की। भागते हुये आना कि घंटाघर में जब पाँच बजते तो दिखता शहर...बर्न...मुस्काता हुआ।

दिन के खाने में सिर्फ डार्क चोकलेट ही होनी थी...पीने को झरने से आता ठंढा पानी...डूबने को ईश्क...मेरा कोइ पुराना रिश्ता है शहर से...किसी और जन्म का।

कहने वाले कह सकते है कि उस शाम की ट्रेन पर मैं वापस ज्युरिक आ गयी मगर मैं जानती हूं रुह के सफर को...उस दिन गयी थी बर्न...रह गयी हूं वहीं, उस दिलफरेब शहर की बाँहों में...कि फिर भीगी आँखों से विदा कहती...अनजान लोगों से भी खाली उस ट्रेन में सुबकती लड़की थी कौन?

म्युजेज के नाम पहला खत...दिलरुबा शहर बर्न तुम्हारे लिये। I'll love you forever. 

02 January, 2013

हैप्पी न्यू इयर २०१३

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं ।
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नये साल में उम्मीदों की एक सुबह...
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नए साल में हम कैम्पिंग करने एक नदी किनारे गए थे. छोटे छोटे टेंट्स और खाने पीने का थोड़ा सामान.

शहर को पीछे छोड़ते हुए गाँव शुरू हो चुके थे...गाँव की भी आखिरी सीमा से एक पगडण्डी शुरू होती थी...उधर से आगे बढ़ते हुए दो छोटी पहाड़ियों के ऊपर कोई किलोमीटर से ऊपर का सफ़र था.

जब हम घाटी में पहुँचते तो जैसे पूरी दुनिया पीछे छोड़ आये थे. साथ थे ९ लोग...कुणाल और मैं, मोहित-नीतिका, कुंदन, चन्दन, साकिब और रमन और दिनेश.

कहीं से कोई शोर नहीं...कहीं एक इंसान नहीं दूर दूर तक...नए साल का कोई हल्ला नहीं, कोई फ़िक्र नहीं मुझे ऐसा ही शांत नया साल चाहिए था. एक बार नए साल में ताज गए थे...वहां डांस फ्लोर पर किसी ने हमारी दोस्त के साथ बदतमीजी की, एक बार नहीं कई बार...और ताज वालों ने उसे होटल से बाहर तक नहीं निकाला. हमें कम से कम ताज से ऐसी उम्मीद नहीं थी. लगा कि कम से वहां तो सेफ्टी होगी. उसके बाद कभी नया साल मनाने का उत्साह ही नहीं रहा. बाहर जाकर पार्टी और हल्ला करने की अब मेरी उम्र नहीं रही. मुझे अब बहुत शोर शराबा और नौटंकी करना अच्छा नहीं लगता है.

३१ की सुबह घर में दो रोटियां बनाने के बाद गैस ख़त्म हो गयी थी...सुबह से भूखे ही थे. दिन में ऑफिस का ये हाल था कि दस मिनट निकाल कर बगल की दूकान से एक पैकेट चिप्स ला के खाने की फुर्सत नहीं थी. सुबह से एक सेब खाया था बस. ढाई बजे बैंगलोर से निकले...और इस बार कार मैं ड्राइव कर रही थी. हमें पहुँचते पहुँचते पांच बज गए थे. भूख के मारे बुरा हाल था...फिर गरम गरम पकोड़े मिले खाने को...जान में जान आई. आलू और मिर्च के पकोड़े. हैंगोवर से बचने के नुस्खों में एक था...पहले कोई तली हुयी चीज़ खा लो...

कुंदन, कुणाल और चन्दन 
नदी किनारे एक राफ्ट बंधा हुआ था...तारे उग आये थे...मुझे खुले में सितारों के नीचे सोये बहुत वक़्त हुआ था. कौन सी बातें थी अब याद नहीं पर अच्छा लग रहा था. सबसे अच्छा लग रहा था कि सेफ महसूस कर रहे थे कि सब अपने लोग हैं. किसी तरह की टेंशन नहीं थी. अधिकतर नेटवर्क नहीं था तो कोई फोन करके परेशान भी नहीं कर सकता. देर तक मूंगफली खाते और भूंजा फांकते वक़्त कटा...फिर अलाव जलाया गया. अलाव के इर्द इर्द बैठे हुए हमने पहाड़ी के पीछे उगता चाँद देखा...पूरा जंगल चांदनी में नहा गया था. मैं फिर से ट्राईपोड ले जाना भूल गयी थी कम रौशनी में फोटो ऐसे खींचे जाते थे कि रेडी बोलते ही फोटोग्राफर समेत सारे सब्जेक्ट्स सांस रोक लेते थे. थोड़ी सी मूवमेंट से भी फोटो ब्लर आ जाती थी.

रात को थोड़ा डांस थोड़ा गाना...थोड़ा चिल्लाना...थोड़ा थोड़ा करके सब बहुत हो गया. सुबह ६ बजे नेचर वाक पर जाना था. मोहित का हल्ला कि मैं सबको उठा दूंगा...चार बजे सो कर ६ बजे तो सब उठने से रहे लेकिन हल्ला करने में सब रेडी...

सात बजे मेरी नींद खुली तो बाकी किसी टेंट में कोई हलचल नहीं दिख रही थी. सुबह का समय, सब एकदम शांत था. कैमरा, अपनी नोटबुक, पेन तीनो उठा कर वहीं नदी किनारे चली गयी. सूरज का रंग फीका था और नदी का पानी रूपहला. हर साल की शुरूआती आदत...डायरी लिखना. सो कुछ तसवीरें खींचीं, एक आध गिलास पानी टिकाया और फिर जैसे धूप गरमाती गयी खुद के साथ थोड़ा वक़्त बिताया. नेरुदा की किताब ट्वेंटी पोयम्स ऑफ़ लव एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर नयी डिलीवर हुयी थी फ्लिप्कार्ट से. कुछ कवितायें पढ़ीं. कोई अख़बार नहीं...कोई मेल नहीं...कोई एसएमएस नहीं. कभी कभी जीने के लिए दुनिया से कटना भी जरूरी होता है. सुबह की कॉफ़ी तैयार हो रही थी. नौ बजते बजते बाकी लोग उठे.

दिन का मेन अट्रेक्शन था लाइफ जैकेट पहन कर नदी में 'डेड मैन फ्लोट' करना. अधिकतर को तैरना नहीं आता था. नदी में थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी गर्म और ठंढा था. हम कितनी देर तो नदी में ही रहे. फिर खाने का कोई इन्तेजाम नहीं था तो एक डेढ़ बजे निकले...भूख लगनी शुरू हो गयी थी. रस्ते में जहाँ से घाटी दिखती थी एक राउंड फोटो सेशन चला. बैंगलोर पहुँचते चार बज गए थे. खाने पर हम इस तरह से टूटे जैसे एक साल के भूखे हों. चाइनीज...थाई...इन्डियन...जिसने जो मंगाया, सबने खाया. कोई पच्चीस रोटियां, पांच प्लेट चाव्मीन, एक प्लेट चावल, एक थाई ग्रीन करी, पांच चिली पनीर...कहाँ गया किसी को मालूम नहीं.

घर पर आराम करने के मूड में आये कि पेट में दर्द शुरू. मुझे शिमला मिर्च से अलर्जी है...हमेशा प्रॉब्लम नहीं होती...पर जब होती है जान चली जाती है. और दर्द कभी दिन में शुरू नहीं होता...रात में होता है कि हॉस्पिटल में भी इमरजेंसी में जाना पड़े. कल भी आसार बुरे दिख रहे थे. दर्द के मारे जान जा रही थी उसपर डि-हाईड्रेशन. पता नहीं कितना तो ओआरएस पिया और कोई तो टैबलेट खायी. अभी सुबह उठी हूँ तो लगता है पुर्जा पुर्जा दर्द कर रहा है. बुखार बुखार सा लग रहा है...ऑफिस में इनफाईनाईट काम है...गैस ख़त्म है सो उसका इन्तेजाम करना है...कुणाल की मौसी-मौसाजी और बच्चे आये हैं तो रात का कुछ अच्छा खाना बनाना है. बाप रे! दिन बहुत लम्बा लग रहा है और चलने की हिम्मत नहीं. कल रात दोनों बच्चों को माइक्रोवेव में मैगी बना कर खिलाये थे. आज पता नहीं नाश्ता का क्या करेंगे. दस बजे टाइप्स गैस एजेंसी खुलेगी. बाबा रे...पैक्ड डे अहेड!

१३ मेरा लक्की नंबर है. देखे ये साल क्या रंग दिखाता है...नए साल में नयी उम्मीदें...नए सपने...आप सबको भी हैप्पी न्यू इयर. 

11 July, 2012

क्राकोव डायरीज-२-गायब हुए देश की कहानियां

बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल  जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.

पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी. 

दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;)  ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे. 

ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...

कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.

मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ. 

टावर के ऊपर की खिड़की में 
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे. 

फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी. 

पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.

The Monument. 1975-1986. A monument to show
the two great men that invented socialism to be set
in a country in which socialism had become a reality.
Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels.
(From the exhibition- Stories from a vanished country)

सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ. 
विस्तुला नदी किनारे
पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना...

फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए. 

चीयर्स!

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