19 September, 2014

ब्लैक टी विद अ स्लाइस ऑफ़ लेमन

भोर से तीन बार उठ चुकी हूँ मगर मौसम में ठंढक कुछ ऐसी है कि वापस कम्बल ओढ़ कर सो जाने का दिल करता रहा. अब आखिर झख मार के उठी हूँ कि दस बजने का अंदाजा हो रहा था. ये ख्वाब नींद के किस पहर देखा मगर ठीक ठीक याद नहीं है.

सामने चाय के बगान वाले ऊंचे पहाड़ थे...और आसपास बहुत से पेड़. सब कुछ इतना हरा था जैसे ग्रीन फ़िल्टर से दिख रही हों चीज़ें. ये केरल की कोई जगह थी. ठीक कौन सी जगह याद नहीं. मैं अकेले किसी ट्रिप पर निकली थी कि जाने क्या देखना था मुझे. इन पहाड़ों पर जाने के लिए सीढियाँ थीं. पत्थर की पुरानी सी सीढ़ियाँ जिनमें कहीं कहीं काई लगी हुयी थी. जरा जरा सी ठंढी हवा बह रही थी. आँख भर देखने के बाद भी सब इतना सुन्दर था कि जैसे वाकई आँखों में समा नहीं रहा था. मुझे किन तो लोगों की याद आ रही थी. किसी के शहर को जानना उस व्यक्ति को जानने जैसा होता है. मुझे वैसे भी जगहों से ज्यादा लगाव होता है लोगों के बनिस्बत.

मैं वहां मुग्ध खड़ी थी. मुझे किसी के गाँव जाना था उससे मिलने. उसके गाँव की तसवीरें देखी थी मैंने. वहां एक नदी बहती थी. इस खूबसूरत नज़ारे में क्रॉसफेड हो रहा था उसका चेहरा और उसकी आँखें. कोई आधी दूर चली थी तो जंगल में एक गेस्टहाउस था जहाँ मेरी जान पहचान के कुछ लोग थे. इनमें कुछ कॉलेज की क्लासमेट्स थीं और एक ऑफिस के जानपहचान वाली थी. ये दोनों एक जगह कैसे हो सकती हैं, या एक ट्रिप पर कैसे आयीं मुझे कोई आईडिया नहीं. उनमें से एक के पास मेरा पुराना हैंडीकैम था. कोई सात साल पुराना होने के बावजूद वो बहुत अच्छे से काम कर रहा था. फिर वहां अचानक से मेरे कुछ पुराने बक्से दिख रहे थे. वो कमरा जैसे कोई स्टोरेज रूम था जिसमें मेरी खोयी हुयी चीज़ें जमा हो गयीं थीं. मेरी शादी के बाद की एक खोयी हुयी झांझर मिली उसमें...बहुत सारे घुँघरू थे. मैंने अपने पैरों में डालने की लिए देखी तो पाया कि अट नहीं रही. पहले शायद मेरे पैर बहुत पतले और सुन्दर रहे होंगे. हम तीनो लड़कियां हँस रही थीं फिर.

वहां कोई तो प्रेजेंटेशन होने लगा. एक हॉल था. लोगों को कहानियां सुनानी थीं. लोग अलग अलग डेस्क पर बैठे थे. मैं अपने किसी दोस्त के साथ थी जिसे कोई तो काम था. वो पेपर्स में कुछ कुछ तो लिख रहा था. फिर सीन चेंज हुआ और मैं अचानक से वापस उसी स्टोरेज वाले रूम में थी और मैंने पाया कि मेरे पास बहुत सारा सामान है जिसे लेकर मैं आगे नहीं बढ़ सकती. फिर मैंने अपनी दोनों दोस्तों से कहा कि कुछ चीज़ें वो अपने साथ वापस ले जायें. मैं सिर्फ उतनी सी चीज़ें अपने साथ लेकर जाना चाहती थी जो जीने के लिए एकदम जरूरी हों. एक नोटबुक, मेरी कलमें, पानी की एक बोतल, मेरा फ़ोन और कैमरा. एक छोटे से बैग में ये सब आ गया. मैं जंगल में फिर से अकेली निकल पड़ी. सब कुछ ख्वाबों जैसा था. मैंने ऐसे जंगल देखे थे मगर सिर्फ फिल्मों में...भारत में ऐसी कोई जगह है भी यकीन नहीं हो रहा था.

सुबह नींद खुली फिर भी जरा जरा सी वहीं रह गयी हूँ...ढलानों वाले चाय के बगान में...सोचती हूँ अब फाइनली चाय पीना शुरू कर ही दूं...नींद में आते बगान यही गुजारिश कर रहे होंगे...ब्लैक टी...जरा सी नीम्बू की खुशबू लिए हुए. जगह का नाम याद आ रहा है जरा जरा सा...वायनाड. जाना है मुझे. जल्दी.

4 comments:

  1. sundar sansmaran hai aapka ....lekhn bhi prbhavshali hai , drishy aankhon ke samne tairne lagte hain ...

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  2. वो सीढ़ियों पर लगी काई, कभी मनीषा कोयराला की 'बॉम्बे' से होते हुए, मेरे सपनों में न जाने कब से आती रही है। चाय बागान थोड़े अजीब लगते हैं। उनकी घुमावदार सीढ़ियाँ, एक बार कहीं गए थे, ऊटी में कहीं, नीलगिरी पहाड़ पर कहीं, तब भी नहीं छू पाया था उन्हे। बस उन कनअँखियों से उन्हे आज तक देखता रहा हूँ।

    वैसा वो स्टोर रूम अभी मेरे दिल में ही है, उसे अभी कहीं रख नहीं दिया है। बस थोड़ा-थोड़ा हमसफ़र से बाँट लेते हैं कभी। वायनाड से लौट आना तो ख़ूब तसवीरों के साथ लौटना..

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  3. Pooja I am big fan of yours .... Aapki ek ek kahani SE khud Ko juda hua mahasoos Karti hu ... Jaise Ki ye mere hi bare me likha gay Ho .... Bhav mere Aur Shabd aapke ..... Jo Mai kabhi Bol Nahi saki Mujhe in shabdo me nazar aata hai..

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    1. शुक्रिया रेणुका। लिखने को बातें यूँ देखो तो उतनी ही हैं बस। प्रेम। दर्द। विरह। यारियाँ। बस। हम सब इनसे या इन जैसी ही चीज़ों से गुज़रते रहते हैं। कभी कभी भाषा अपनी लगती है। कभी कथ्य।
      कमेंट का शुक्रिया। अच्छा लगता है जान कर।

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