दोस्त. कुछ नहीं बचा है लिखने को. और जो है वो बस इतना है कि कागज़ पर एक बार लिख कर देख लिया जाए जी भर के. और आग लगा दी जाए. सिगरेट भी इसलिए ही होती है न कि लम्हे भर को जरा सी बेकरारी हो...जरा सा नशा...कि हल्का हल्का सा लगे सब कुछ. खूबसूरत. दिलकश. और जान देने जितना मीठा.
मैंने इश्क़ के लिए अपने शहर के दरवाज़े बंद कर दिए हैं. हमेशा के लिए. हालांकि 'हमेशा' एक खतरनाक शब्द है कि जिसके इस्तेमाल के पहले दास्ताने पहनने जरूरी होते हैं वरना लिखे हुए हर शब्द में एक 'finality' आ जायेगी. कि जैसे अंतिम सत्य लिखा जा चुका हो.
मैं जिस शहर में हूँ वहां बहुत से पुल हैं जिन्हें लोग प्यार से फ्लाईओवर कहते हैं. ये पुल नहीं होते तो जिंदगी थोड़ी धीमी होती. जैसे कि अपने देश में होती है. लोग जरा धीमे गुज़रते. जैसे कि मेरे दिल से गुज़रते हैं. मुझे सब कुछ मालूम हो जाता है उनके बारे में. वो कार में कौन सा गीत बजा रहे हैं. उनकी आँखों में कितना इंतज़ार है. उनकी कलाई पर बंधी घड़ी में जो इंतज़ार है वो किसी के दिल तक जा कर ख़त्म होता है कि या कि किसी पुल के ठीक बीचोबीच की एकतरफा ड्राइव तक. मैं सैन फ्रांसिस्को गयी थी. जानलेवा खूबसूरत शहर है. कोई इस बेइंतेहा खूबसूरत शहर से गुज़र कर जान कैसे दे सकता है? कोई ड्राइव कर के उस पुल तक जाता है. अक्सर टैक्सी में. दो माइल के उस पुल के बीच तक पैदल चलता है...नीचे...बहुत नीचे गहरा नीला पानी है. मैं जानती हूँ कि लोग वहां से जान क्यों दे देते हैं. वहां से जान देना एकदम आसान लगता है. बिलकुल लम्हे भर की बात होती है. कि जैसे प्यार हो जाता है किसी से. लम्हे भर में. वैसा ही कुछ.
मैंने इस बार बहुत कम पोस्टकार्ड लिखे. कुछ कहने को दिल नहीं कहता. कुछ ऐसा नहीं कि रह जाए किसी की उँगलियों में फिरोजी स्याही की तरह. मुझे आजकल लिखने में दिक्कत आ रही है. जिस किताब पर काम कर रही हूँ, उसके लिए भी कुछ लिख नहीं पा रही. शब्द जैसे रहते ही नहीं दिमाग में...फिसल कर बह जाते हैं. चिकना घड़ा हो गयी हूँ मैं. याद आता है कि ये बिम्ब मैंने पहले भी कभी इस्तेमाल किया है. शब्दों के यूं रूठ के चले जाने का अक्सर यही महीना होता है. बेरहम सितम्बर. बहुत सालों पहले पंकज ने एक पोस्ट लिखी थी 'वेक मी अप व्हेन सेप्टेम्बर एंड्स'. मैंने पहली बार वो गाना उसी बार सुना था. उस साल से हर साल, जब भी सितम्बर में उदास हुयी हूँ गीत की याद आई है. धीरे धीरे ये पंकज का गाना न रह कर मेरा गाना हो गया है. उदास मौसम का गाना. किसी के चले जाने का गीत. कि जब शब्द नहीं मिलते हैं.
मुझे ब्लॉग्गिंग करते हुए दस साल हो जायेंगे इस नवम्बर. साथ के लोगों ने लिखना लगभग बंद कर दिया है. एक समय में लिखना सबके साथ किसी कौलेज कैंटीन में गप्पें करने जैसा था. मैं दिल्ली से बैंगलोर आई थी. इस अजनबी शहर में दोस्त नहीं थे. उनकी कमी ब्लॉग ने पूरी की. हम एक दूसरे का लिखा पढ़ते थे. एक दूसरे के बारे में परेशान होते थे. जुड़ते थे. कि जैसे शायद असल लोगों से भी नहीं जुड़े कभी, वैसे. पीडी का दोबजिया बैराग. डॉक्टर अनुराग के जीवन के अनुभव...अच्छा होना...अच्छा इंसान और अच्छा डॉक्टर बनना. अज़दक के पोडकास्ट कि जिन रास्तों से 'जरा सा जापान', पचास साल का आदमी' और 'माचिस' जैसी चीज़ों के पीछे का संगीत ढूँढने की तलब लग जाती थी. अपूर्व की 'तीन बार कहना विदा' और उसके पोस्ट से भी बेहतर कमेंट्स...कि जलन हो जाए उससे...उन दिनों किसी का लिखा पढ़ कर परेशान होना नार्मल सा था...लेखक की तारीफ करूँ कि दोस्त के लिए परेशान होऊं. कॉफ़ी विद कुश वाले सेलिब्रिटीज(अफ़सोस हम कभी उतने फेमस न हो पाए).
उसपर चीज़ थी चिट्ठाचर्चा...और उसपर अनूप शुक्ल की अद्भुत चर्चा, खुद के लेखन में ओरिजिनल होना नार्मल है, लेकिन दूसरों के लिखे को इस तरह से पेश करना कि बाकियों को पढ़ने में मज़ा आये बहुत मुश्किल था. अनूप जी मेरे लिए किंगमेकर रहे हैं. उनकी पारखी नज़र ने एक से बढ़कर एक लोगों से परिचय कराया है. सुबह सुबह चिट्ठाचर्चा खोले बिना हमारा दिन शुरू नहीं हो सकता था. लोगों को धकिया के ब्लॉग शुरू करवाना...बंद पड़े ब्लॉग को कोई कमेन्ट लिख कर जिन्दा कर देना ये सब नार्मल हुआ करता था. मैं आज यहाँ डैलस में बैठ कर नोस्टालजिक हो रही हूँ. रात हो गयी है बहुत. प्रोजेक्ट पर काम भी करना है.
सोचती हूँ कि लिखना मुश्किल इसलिए है कि बात बंद है. लिखना फिर से उस डायरी की तरह हो गया है जिसे कोई नहीं पढ़ता. उन दिनों कितना आसान था किसी को गरियाना कि लिखा करो. अब कितने फॉर्मल से हो गए हैं. हँस के रह जाते हैं कि तुम लिखोगे ऐसा मुगालता हम नहीं पाल रहे. मगर लगता है कि काश होता ऐसा. किसी दिन लॉग इन करते तो देखते कि साइडबार भरा पड़ा है नयी पोस्ट्स से. धकमपेल हो रखी है. जी भर के गरियाये हैं सबको कि कमीनों एक ही साथ नींद से जाग गए हो. किसको पहले पढ़ें.
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन...
बहुत साल पहले एक पोस्ट लिखी थी 'नीट विस्की पीना कि उसने आज कहा है कि वो तुमसे प्यार करता है' इस पोस्ट पर चुन चुन के कातिल कमेन्ट आये थे...मेरा अब तक का सबसे फेवरिट कमेन्ट का हिस्सा...ये गूगल वूगल पर नहीं नहीं मिलेगा. पोस्ट किताब में छपी है...कमेंट्स मेरे पास रखे हैं, फोल्ड किये खत जैसे. बस कभी कभी पढ़ के मुस्कुरा लेते हैं...ऐसे भी दिन थे जीवन में.
"सही बात है यहाँ..जरा सा पोस्ट मे व्हिस्की-विस्की की दो बूंदें टपकाओ और देखो कि दुनिया भर के गजटेड बेवड़े पुलियों-कुलियों के नीचे से निकल-निकल कर जमा हो जाते हैं आ कर अपना खाली गिलास ले कर..सिंगल माल्ट, ब्लेंडिग, टेक्स्चर, कोन्याकिंग, बनगंध और इलाकेभर के दारुहट..बड़ा संगीन माहौल बन गया है..बोले तो..खैर अपन तो ’कोला से कोला टकराये भोला हो बदनाम’ टाइप प्राणी हैं..जब दिल करता है तो दारू की दुकान (पुलिया वाली) के पास से गुजर भर जाते हैं..हफ़्ता हैंगओवर मे कटता है..वो भी मुफ़्त..(कभी कुछ ’मै नशे मे हूँ’ लेबल वाले प्राणियों से बतिया भी लेते हैं..फ़ार द सेम एफ़ेक्ट)."