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13 July, 2019

Što Te Nema ॰ कभी न पिए जा सकने वाले कॉफ़ी कप्स का इंतज़ार

मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
[साभार कविता कोश]

बहुत साल पहले कभी पहली बार पढ़ी होगी ये कविता। लेकिन कितना पहले और ज़िंदगी के किस पड़ाव पर, याद नहीं। इसकी आख़िरी पंक्ति मेरी कुछ सबसे पसंदीदा पंक्तियों में से एक है। ‘अक्सर एक व्यथा, यात्रा बन जाती है’। इसके सबके अपने अपने इंटर्प्रेटेशन होंगे, क्लास में किए गए भावानुवाद या कि संदर्भ सहित व्याख्या से इतर। 

मेरे लिए औस्वित्ज जाना एक ऐसी यात्रा थी। हमें स्कूल में जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें जीनोसाइड जैसे ख़तरनाक कॉन्सेप्ट नहीं होते हैं। शायद इसलिए कि हमारी किताब लिखने वालों को लगता हो कि बच्चों की समझ से कहीं ज़्यादा क्रूर है ऐसी घटनाएँ। घर पर कई साहित्यिक किताबें थीं लेकिन कथेतर साहित्य कम था, जो था भी वो कभी पसंद नहीं आया। मैंने नौकरी 2006 में शुरू की… ऑफ़िस के काम के दौरान रिसर्च करने के लिए विकिपीडिया तक पहुँची। फिर तो लगभग कई कई महीनों तक मैं जो सुबह पहना पन्ना खोलती थी, वो विकिपीडिया होता था। मैंने कई सारी चीज़ें जानी, समझीं… कि जैसे गॉन विथ द विंड में जिस लड़ाई की बात कर रहे हैं, वो अमरीका का गृहयुद्ध है और उसका पहले या दूसरे विश्वयुद्द से कोई रिश्ता नहीं है। किताब कॉलेज में किसी साल पढ़ी थी और उस वक़्त हमारे समझ से युद्ध मतलब यही दो युद्ध होते थे।
हमें जितनी सी हिस्ट्री पढ़ायी गयी थी उसमें याद रखने लायक़ एक दो ही नाम रहे थे। हिटलर के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पहली बार विश्व युद्ध का एक और पक्ष पता चला। यहूदियों के जेनॉसायड का। पढ़ते हुए यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि अभी से कुछ ही साल पहले ऐसा कुछ इसी दुनिया में घटा है। विकिपीडिया पर हाइपरलिंक हुआ करते थे और मैंने काफ़ी डिटेल में कॉन्सेंट्रेशन कैम्प/श्रम शिविरों के बारे में, वहाँ के लोगों की दिनचर्या के बारे में, वहाँ हुए अत्याचारों के बारे में पढ़ा।
विकिपीडिया का होना मेरे जीवन की एक अद्भुत घटना थी। कुछ वैसे ही जैसे पहली बार बड़ी लाइब्रेरी देख कर लगा था कि इतनी बड़ी लाइब्रेरी है जिसकी सारी किताबें पूरे जीवन में भी पढ़ नहीं पाऊँगी। रैंडम चीज़ें पढ़ जाने की हमेशा से आदत रही और नेट पर कुछ ना कुछ पढ़ना सीखना उस आदत में शुमार होता चला गया। मैं जो हज़ार चीज़ों की बनी हूँ वो इसलिए भी कि मैं बहुत ज़्यादा विकिपीडिया पर पायी जाती थी। उसमें एक सेक्शन हुआ करता था जिसमें रोज़ एक रोचक तस्वीर और उसके बारे में कुछ ना कुछ जानकारी होती थी। 

मुझे उन दिनों बीस हज़ार रुपए मिलते थे, सारे टैक्स वग़ैरह कट कटा के…अमीर हुआ करती थी मैं। अभी से कई साल पहले ये बहुत सारे पैसे हुआ करते थे। पैसों का एक ही काम होता, किताबें ख़रीदना। कि मैं किसी भी दुकान में जा के दो सौ रुपए की किताब ख़रीद सकती हूँ, बिना दुबारा सोचे… मैंने वाक़ई उन शुरुआती दिनों के बाद ख़ुद को उतना अमीर कभी नहीं महसूस किया। बहुत कुछ ख़रीद के पढ़ा उन दिनों। हॉरर भी। द रिंग फ़िल्म दरसल तीन किताबों की ट्रिलॉजी पर बनी है - The Ring, Spiral, The loop. ये किताबें इतनी डरावनी थीं कि बुक रैक पर रखी होती थीं तो लगता था घूर रही हैं। मैंने फिर कभी हॉरर नावल्ज़ नहीं पढ़े। इतनी रात को उन किताबों के बारे में सोचने में भी डर लग रहा है… जबकि मुझे उन्हें पढ़े लगभग बारह साल बीत गए हैं। 

आज के दिन 2012 में मैं पोलैंड के क्रैको में थी। मेरी पहले दिन की टूर-गाइड ने पोलैंड के हौलनाक इतिहास को ऐसी कहानी की तरह सुनाया कि तकलीफ़ उतनी नहीं हुयी, जितनी हो सकती थी। लेकिन ये सिर्फ़ पहले दिन की बात थी। इसके बाद के जो वॉकिंग टूर किए मैंने उसमें दुःख को ढकने का कोई प्रयास नहीं था। सब कुछ सामने था, जैसे कल ही घटा हो सब कुछ। मैं औस्वित्ज़ अकेले गयी थी। जाने के पहले मुझे बिलकुल नहीं पता था कि कोई जगह इस तरह उम्र भर असर भी छोड़ सकती है। फ़िज़िक्ली इम्पैक्ट कर सकती है। या कि मृत्यु और दुःख के प्रति इतना संवेदनशील बना सकती है। वहाँ जा कर पहली बार देखा कि पंद्रह लाख लोग कितनी जगह घेरते हैं। इतने लोगों की मृत्यु के बाद की राख अभी भी मौजूद है। गैस चेम्बर में नाखूनों से खरोंची गयी दीवार जस की तस है। स्टैंडिंग सेल्स अब भी मौजूद है। वहाँ से आते हुए आख़िरी चीज़ जो गाइड ने कही थी मुझे इतने सालों में नहीं भूली। “औस्वित्ज़ में इतना दुःख है कि दुनिया भर के लोगों का यहाँ आना ज़रूरी है ताकि वे इस दुःख को महसूस कर सकें। दुःख, बाँटने से कम होता है”। 

मृत्यु पर राजनीति सबसे ज़्यादा होती है। ख़ास तौर से किसी ऐसे देश के बारे में हम पढ़ रहे हों जिसका पूरा इतिहास न पता हो तो हो सकता है हम अपनी भावुकता में किसी ग़लत पक्ष को सपोर्ट कर दें। लेकिन युद्ध में भी सिविलीयन मृत्यु पर हमेशा विरोध दर्ज किया जाता है। क्रूरता किसी के भी प्रति हो, उसे जस्टिफ़ाई नहीं कर सकते। मंटो की कहानियाँ एक निरपेक्ष दृष्टि से विभाजन के वक़्त की घटनाओं को किरदारों के माध्यम से दर्ज करती हैं। वे किसी के पक्ष में खड़ी नहीं होतीं, वे अपनी बात कहती हैं। 
Što Te Nema.   Venice 2019 pic Srdjan Sremac

आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्ट प्रोजेक्ट की तस्वीरें शेयर कीं… इसमें दुनिया के कई बड़े बड़े शहरों के स्क्वेयर पर हर साल एक मॉन्युमेंट बनाया जाता है। इसका नाम है Što Te Nema. 

Bosnia and Herzegovina में 1995 में यूनाइटेड नेशंस के सेफ़ ज़ोन सरेब्रेनिका में ठहरे हुए शरणार्थियों में से सभी (लगभग 8000) मुसलमान पुरुषों की ले जा कर हत्या कर दी गयी थी। इन पुरुषों की पत्नियों से पूछा गया कि वे अपने पतियों की कौन सी बात सबसे ज़्यादा मिस करती हैं, तो उन्होंने कहा 'साथ में कॉफ़ी पीना'। हर साल ग्यारह जुलाई को Što Te Nema एक नए शहर में जाता है। बोस्निया में कॉफ़ी छोटे पॉर्सेलन के कप में पी जाती है जिन्हें fildžani कहते हैं। इस इवेंट के लिए पूरी दुनिया में रहने वाले बोस्निया के लोगों से ये कॉफ़ी कप्स इकट्ठा किए जाते हैं। वालंटीर्ज़ दिन भर बाज़्नीयन कॉफ़ी बनाते हैं और राहगीर इन ख़ास कॉफ़ी कप्स को पूरा भर कर रख देते हैं, उन लोगों की याद में जो लौटे नहीं। Što Te Nema का अर्थ है ‘तुम यहाँ क्यूँ नहीं हो/कहाँ हो तुम?’। इस साल ये मॉन्युमेंट वेनिस में बना था जिसमें 8,373 कप्स में कॉफ़ी भर के रखी गयी। 

पहली नज़र में तस्वीर ने आकर्षित किया और फिर कहानी पढ़ी... क्या हर ख़ूबसूरत चीज़ के पीछे कोई इतनी ही उदास कहानी होगी? इतनी बड़ी दुनिया में कितना सारा दुःख है और इस दुःख को क्या इतने कॉफ़ी कप्स में नाप के रख सकते हैं? वो हर व्यक्ति जिसने इनमें से किसी एक ख़ूबसूरत चीनी मिट्टी के बाज़्नीयन कॉफ़ी कप को बाज़्नीयन कॉफ़ी से भरा होगा, वो ख़ुद कितने दुःख से भर गया होगा ऐसा करते हुए। क्या वह किसी दुःख से ख़ाली हो पाया होगा ऐसा करते हुए?

ऐसी घटनाओं के कई पौलिटिकल ऐंगल होंगे जो मेरे जैसे किसी बाहरी को नहीं समझ आएँगे… लेकिन इसका मानवीय पक्ष समझने के लिए मुझे राजनीति समझनी ज़रूरी नहीं है। कला दुःख को कम करने के लिए एक पुल का काम करती है। जोड़ती है। दिखाती है कि हमारे दुःख एक से हैं…और इस दुःख की इकाई हमेशा कोई एक व्यक्ति ही होगा कि जिसका दुःख हमेशा पर्सनल होगा…

ये सच किसी भी संख्या में सही होता है…दुःख बाँटने से घटता है।

14 September, 2012

क्राकोव डायरीज-७-ये खिड़की जिस आसमान में खुलती है, वहाँ कोई खुदा रहता है?

'I see dead people.'
-from the film-Sixth Sense
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आज ऑफिस से घर लौटते हुए एक मोड़ पर ऐसा लगा कि कोई बुढ़िया है, कमर तक झुकी हुयी. मैंने रिव्यू मिरर में देखा...वहाँ कोई नहीं था. मैं उस बारे में सोचना नहीं चाहती. जो वाक्य दिमाग में अटक गया वो सिक्स्थ सेन्स फिल्म का था...मुझे कोई अंदाजा नहीं कि क्यूँ. आज रात बैंगलोर में अचानक बारिश शुरू हो गयी. मुझे मालूम नहीं क्यूँ. जिंदगी में जब 'मालूम नहीं क्यूँ' की संख्या ज्यादा हो जाती है तो मैं चुप हो जाती हूँ और जवाब तलाशने लगती हूँ. 
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औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ की आखिरी कड़ी लिखने बैठी हूँ...दिल की धड़कनें बेहद तेज रफ्तार हैं...जैसे मृत्यु के पहले के आखिरी क्षण से खींच कर लाया गया है मुझे. 
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बिर्केनाऊ एक श्रम शिविर था...इन शिविरों को यातना शिविर या मृत्यु शिविर कहने से शायद लोगों में शक पैदा हो जाता कि इन शिविरों का मूल उद्देश्य क्या है. होलोकास्ट इतने योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वित किया गया था कि सबसे नयी तकनीक...पंचिंग कार्ड का इस्तेमाल करके हर शिविर में आने, रहने और मरने वाले लोगों का पूरा बहीखाता तैयार किया गया था. उन्नत तकनीक के कारण हिटलर की फ़ौज के लिए ज्यु आबादी को ढूँढना भी आसान हुआ था. 

बिर्केनाऊ में काम करने के लिए आये कैदियों को पहले शावर कमरे में भेजा जाता था. उनके बाल उतारे जाते थे और उन्हें पहनने को कपड़े और जूते दिए जाते थे. बिना ऊनी मोजों के लकड़ी के जूते जो अक्सर सही फिटिंग के भी नहीं होते थे और उनमें चलना बेहद तकलीफदेह होता था. बिर्केनाऊ में हर कदम इतना सोचा समझा था कि व्यक्ति जल्द से जल्द मर जाए. 

तीन लेवल के बंक बैरक
बिर्केनाऊ में औरतों के बैरक अभी तक सही सलामत हैं क्यूंकि ये ईंटों के बने हैं. बैरक में लोगों के सोने की जगह होती थी. ईंटों और लकड़ियों से बाड़ जैसे बंक बेड्स बनाये गए थे. लगभग छः फीट बाय चार फीट का एक सेक्शन होता था. एक सेक्शन में पाँच से सात औरतों को सोना पड़ता था. बैरक में तीन लेवेल्स होते थे...और उनपर पुआल बिछी रहती थी. बेहद ठंढी जगह होने के बावजूद ईमारत को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं था. अक्सर बारिशें होती रहती थीं और छत टपकती रहती थी. चूँकि फर्श भी कच्चा होता था इसलिए कीचड़ बन जाता था. निचले तले पर सोने वाली औरतों को चूहों का खौफ रहता था. बिर्केनाऊ के चूहे बेहद बड़े और माँसाहारी थे. वे सोती हुयी औरतों को कुतर खाते थे...कभी हाथ का मांस नुचा होता था कभी पैर का...कभी चेहरे का.

इन बैरकों के साथ कोई छेड़खानी नहीं की गयी है. वे अभी भी वैसे के वैसे हैं. ऊपर वाले लेवल पर एक खिड़की होती थी. मैं वहाँ खड़ी सोच रही थी...कि यहाँ जो औरतें सोती हैं वो रात को खिड़की से ऊपर देख कर क्या सोचती होंगी...क्या उनके मन में भगवान या किसी ऐसी शक्ति का ख्याल आता होगा. अपने बच्चों को कौन सी कहानियां सुनाती होंगी...क्या बच्चे परियों पर यकीन करते होंगे? क्या कोई माँ अपने बच्चे को झूठे ख्वाब दिखाती होगी कि ये सब कुछ दिनों की बात है फिर सब कुछ नोर्मल हो जाएगा. नोर्मल क्या होता है? बिर्क्नाऊ में पैदा हुए बच्चे और अन्य छोटे बच्चे जो इन कैम्पस में रहते थे उन्हें मालूम ही नहीं था कि लोगों का 'नाम' भी होता है. जन्म के समय से दागे गए ये बच्चे सिर्फ संख्या को पहचानते थे. 

बिर्केनाऊ के निर्माण के एक साल तक वहाँ किसी तरह के शौचालय या नहाने की व्यवस्था नहीं थी. बारिश होती थी तो लोग नहा लेते थे. एक आम दिन ३ बजे शुरू होता था. ठीक समय के बारे में लोग एकमत नहीं हैं. तीन बजे लोग उठते थे और नित्य कर्म निपटाते थे. हर कैदी को आधा घंटा निर्धारित किया गया था. इससे ज्यादा समय लगने पर वे सजा के हक़दार होते थे. तीन बजे से सात बजे तक रोल कॉल चलती थी. ये सबसे अमानवीय अत्याचारों का वक्त होता था. एसएस गार्ड्स कैदियों को अक्सर घंटों खड़े रहने बोल देते थे...तो कभी उकडूं बैठ कर दोनों हाथ ऊपर उठाये रखने का निर्देश जारी कर दिया जाता था. अगर किसी कैदी की मृत्यु हो गयी है तो भी उसे रोल कॉल में माजूद होना होता था. मृत कैदी बिना कपड़ों के होता था और उसे दो कैदी कन्धों पर उठाये रखते थे. अगर रोल कॉल में कोई एक कैदी भी नहीं मिल रहा होता था तो बाकी सारे कैदी तब तक खड़े रहते थे जब तक खोया हुआ कैदी मिल नहीं जाता. 

रोल कॉल के बाद खाना मिलता था और लोग काम पर लग जाते थे. खेतों में दिन भर काम किया करते थे. हर कैदी का अपना काम का कोटा होता था. शाम को सजाएं दी जाती थीं. अगर किसी ने अपने कोटे से कम काम किया है...या साथी कैदी की मदद करने की कोशिश की है...या दिन में एक बार और बाथरूम गया है तो कैदियों को सजा मिलती थी. सजा अक्सर मृत्युदंड ही होती थी. इसके अलावा कैदियों को भूखे मारना जैसी भी सजाएं थीं. लोगों को दिन में ७०० कैलोरी से अधिक का खाना  नहीं मिलता था. एक आम इंसान की खाने की कम से कम १००० कैलोरी की जरूरत होती है. जर्मन ज्यु आबादी को बिना ढंग का खाना दिए और दिन भर काम करवा कर थकान और भूख से मारना चाहते थे और उसमें वे बेहद सफल हुए थे. श्रम शिविर में आने के तीन से चार महीनों के अंदर लोग मर जाते थे. 

बहुत लोग आत्महत्या करने की कोशिश में बाड़ पर खुद को फ़ेंक देना चाहते थे पर अक्सर गार्ड अपने वाच टावर से पहले ही उन्हें गोली मार दिया करते थे. बिर्नेकाऊ के इन्सिनेरेटर में जब लोगों को जलाने की जगह नहीं बचती थी तो लोगों को खुले में जलाया जाता था. कैदियों और आसपास के कई गाँव वाले दुर्गन्ध से जान जाते थे कि इन शिविरों में क्या चल रहा है मगर किसी के पास कोई उपाय नहीं था. जब कुछ कैदियों ने बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि बिर्केनाऊ जैसे कैम्पस में हज़ारों की संख्या में यहूदियों की हत्या हो रही है तो बाहरी दुनिया ने इसे अतिशयोक्ति कह कर नकार दिया. 

बिर्केनाऊ और लगभग चालीस अन्य छोटे कैम्पस का उद्देश्य था कि कैदी वाकई जानवरों जैसे हो जाएँ, हर इंसानियत से परे. बिर्केनाऊ में जिन्दा रहने के सबसे बेसिक इंस्टिंक्ट्स की जरूरत थी. सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट. इन शिविरों में रहने वाले लोगों में किसी तरह की मानवीय भावना नहीं बचती थी. कुछ दिन बाद वे किसी भी तरह जिन्दा रहना चाहते थे...अपने साथी का सामान झपट लेना, लोगों का खाना छीन कर खा लेना, किसी की मदद नहीं करना. छः महीने तक जिन्दा रहते कैदियों में बेहद हताशा और फिर उदासीनता भर जाती थी. उनकी आँखों में जिंदगी की कोई चमक नहीं रहती थी. 

जब सोवियत सैनिकों ने बिर्केनाऊ में प्रवेश किया तो उन्हें लगा कि वे कैदियों को आजाद कर रहे हैं तो कैदी खुश होंगे...मगर वहाँ रहने वाले लोग किसी भी भावना को महसूस करने लायक बचे ही नहीं थे. उनमें कोई उम्मीद नहीं थी...न जीने का कोई उद्देश्य था. वे पूरी तरह हारे हुए लोग थे. 

बिर्केनाऊ कैम्प से छुड़ाए गए अधिकतर लोग कुछ महीनों के अंदर मर गए थे. मगर जो बाकी बचे सिर्फ और सिर्फ अपनी जिजीविषा के कारण. साहस...उम्मीद के खिलाफ जा कर भी जीने का साहस... जीवन की अदम्य लालसा...ये एक बीज की तरह होती है...शायद आत्मा के अंश में गुंथी हुयी...कि सब हार जाने के बाद भी खुद को जोड़ लेती है. अंग्रेजी में एक बड़ा खूबसूरत फ्रेज है...The indomitable human spirit.

शिविर के बैरक्स में घूमते हुए हालात वैसे ही थे जैसे उन दिनों रहे होंगे जब यहाँ अनगिन कैदी काम करते होंगे...आसमान काले बादलों से पूरा घिर गया था...दिन में अँधेरा था और उदासी थी. हम अपनी गाइड के पीछे चुप चाप चल रहे थे. बहुत तेज बारिशों के कारण अधिकतर लोग भीग गए थे...भीगने की शिकायत बेहद तुच्छ  लग रही थी...किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा. जिस रास्ते हम अंदर गए थे...उसी रास्ते वापस आ रहे थे. वो एक लंबा रास्ता था जिसके आखिरी छोर पर मृत्यु द्वार था...डेथ गेट. आखिरी कहानियां कुछ उन लोगों की थी जिन्होंने इतने मुश्किल हालातों में अपना आत्म-सम्मान और इंसानियत नहीं खोयी...अपने छोटे छोटे तरीकों से लोगों ने मौत और बदतर जीने के हालातों में भी दुनिया को औस्वित्ज़ के बारे में बताने की कवायद जारी रखी. 

हम जब बिर्केनाऊ के दरवाजे से बाहर आ रहे थे तो बादल छंट गए थे और धूप निकल आई थी. जैसे वाकई सब कुछ अतीत था और पीछे छूट गया था. मुझे इतिहास कभी पसंद नहीं रहा...मुझे समझ ही नहीं आता था कि जो बीत गया उसमें लोगों को इतना इंटरेस्ट क्यूँ रहता है. अब मैं समझती हूँ कि इतिहास को पढ़ना इसलिए जरूरी है कि हम उन गलियों से सबक ले सकें और उसे दोहराने से बच सकें. 

मैं नहीं जानती कि वो लोग कैसे थे...हाँ उनका दर्द जरूर समझ आता था...और सिर्फ समझ नहीं आता...घुल आता है जिंदगी में. औस्वित्ज़ जाना मेरे लिए जिंदगी को बदल देने वाला अनुभव है. कुछ चीज़ें उपरी सतह पर नज़र आ रही हैं...कुछ बवंडर लहरों के नीचे कहीं फॉल्ट लाइन्स में उठ रहे हैं. मुझे लगता था कि मनुष्य की डिफाइनिंग क्वालिटी होती है उसकी प्यार करने की क्षमता मगर मैंने जितना कुछ नया देखा उससे ये सीखा कि प्यार से भी ऊपर और सबसे जरूरी भाव है 'करुणा'. आज के दौर में बेहद नज़र अंदाज़ कर देने वाला भाव है...लेकिन Kindness is the most important of all human values. 
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शब्द कभी पूरे नहीं पड़ते...भाषा का दोष है या भाव का...या शायद कोई भाषा बनी ही नहीं है जिसमें बयान किया जा सके...इसलिए...चुप. चुप. चुप. इस जगह की हवा में. मिट्टी में. पानी में. रूहें हैं. दर्द है. पोलैंड कहता है...यहाँ आओ...इतने कम लोग कैसे उठाएंगे दुःख का इतना बोझ. हम सब थोड़ा थोड़ा दर्द समेट लाते हैं उस मिट्टी से...फिर टुकड़ा टुकड़ा बांटते हैं उसे. दर्द की फितरत है. बांटने से घटता है.




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मैंने औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ में ज्यादा तसवीरें नहीं खींची...ये एक आधे मिनट का विडीयो है...बिर्केनाऊ का विस्तार देखने के लिए.  
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09 August, 2012

क्राकोव डायरीज-६-अंतिम छलावे की ओर

You gotta hold on to something.
- from the film...Blue
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मुझे मालूम नहीं कि ऐसा सबके साथ होता है या सिर्फ मेरे साथ हो रहा है मगर ये सीरीज लिखना एक बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया है...सर में भयानक दर्द शुरू हो जाता है और चक्कर आने लगते हैं. थकान होने लगती है...आँखें दर्द करने लगती हैं. मेरे लिए लिखना अधिकतर दर्द को कहीं दफना देने जैसा है मगर इस बार लिखना कुछ ऐसा है जैसे बदन में चुभी किसी कील को ओपरेट करके निकालना...उसे बाहर करना भी जरूरी है. थोड़ा इसलिए भी लिख रही हूँ कि मालूम नहीं कैसे पर बहुत से लोगों को होलोकास्ट के बारे में उतना मालूम नहीं है जितना मैं सोचती थी.
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औस्वित्ज़ म्यूजियम से निकल कर हम बिर्केनाऊ जा रहे थे. बिर्केनाऊ को औस्वित्ज़-२ के नाम से भी जाना जाता है. बिर्केनाऊ मृत्यु शिविर की शुरुआत अक्टूबर १९४१ में हुयी थी...औस्वित्ज़ में जब कैदियों की भीड़ बहुत बढ़ गयी तो बिर्केनाऊ में एक नया और बड़ा कैम्प बनाने का निर्णय लिया गया. हिटलर के निर्देशानुसार यहाँ 'फाइनल सोल्यूशन' यानि कि ज्यू आबादी का जड़ से खात्मा किया जाना था. बिर्केनाऊ कैम्प अधिक से अधिक संख्या में लोगों की एक साथ हत्या के लिए बनाया गया था.

एक्स्टर्मीनेशन/उन्मूलन के लिए औस्वित्ज़ का चुनाव दो मुख्य कारणों से किया गया था...दो तरफ से नदियों से घिरा होने के कारण इसे छुपाये रखना आसान था और यहाँ तक रेल लाइन आती थी जिसके कारण जर्मन अधिकृत क्षेत्रों से ज्यु अधिकाधिक संख्या में यहाँ लाये जा सकते थे. 'फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रोब्लम' के तहत हिटलर का उद्देश्य पूरी ज्यु रेस का खात्मा करना था. ज्यु को सबह्यूमन कहा गया यानि कि मनुष्य से कमतर...किसी जानवर सरीखे...इसलिए धरती से उनका उन्मूलन जरूरी था. सिलसिलेवार तरीके से पहले ज्यू आबादी को शहरों से निकाल कर घेट्टो में ठूंस दिया गया जहाँ से उन्हें औस्वित्ज़ और दूसरे कोंसेंट्रेशन कैम्प भेज दिया जाता था. अमानवीय स्थिति में घेट्टो में रहने वाली ज्यु आबादी को कहा जाता था कि उन्हें नौकरी और दूसरे कार्यों के लिए भेजा जा रहा है और वे वापस अपने घर आयेंगे या फिर वहीं बस सकते हैं.

बिर्केनाऊ तक ट्रेन लाइन आती थी. मालगाड़ी जैसे डब्बों में लगातार दस दिन तक सफ़र करके दूर देश जैसे फ़्रांस से ज्यु आबादी आती थी. इन डब्बों में जानवरों की तरह लोगों को डाल दिया जाता था...ट्रेनें कहीं भी रूकती नहीं थीं. डब्बे में सिर्फ एक छोटी सी रोशनदान नुमा खिड़की होती थी...इन स्थितियों में बहुत सी बीमारियाँ भी फ़ैल जाती थीं.

जब हम बिर्केनाऊ पहुंचे तो बारिश शुरू हो गयी थी. अधिकतर लोग इस मौसम के लिए तैयार नहीं थे...हम में से कुछ के पास छतरियां थीं...औस्वित्ज़ में चार मिलियन लोगों की हत्या की गयी थी...आंकड़े तस्वीर नहीं बनाते...लेकिन जब मैं बिर्केनाऊ के उस गेट से अंदर गयी तो जहाँ तक नज़र जाती थी काँटों की दोहरी बाड़ थी...जैसे कि मरना भी एक बार नहीं दो बार होता हो. इन बाड़ों में बिजली दौड़ती थी और इतना हाई वोल्ट हुआ करता था कि इनसे 'हूहू' की भयावह आवाज़ आती थी. बिर्केनाऊ एक फ़्लैट जगह है इसलिए दूर क्षितिज तक फैले शिविर के चिन्ह दिख रहे थे. हमारे दायें तरफ ईटों की बनी इमारतें थीं जिनमें औरतें काम करती थीं और दायें तरफ लकड़ी की इमारतों के अवशेष थे...जो साफ़ दिखता था वे चिमनियां था...ठंढ के दिनों में बैरक को गर्म रखने के लिए चिमनियां होती हैं मगर यहाँ ये सिर्फ बाहरी आडम्बर था लोगों को दिखने के लिए. इन चिमनियों का इस्तेमाल नहीं होता था. उस जमीन पर खड़े होकर पहली बार महसूस हुआ कि ये कितना बड़ा ऑपरेशन था और कितने सारे लोग यहाँ मारे गए थे. हमारी गाइड ने बताया कि अगर जरा सी भी बिजली चमकी तो हमें वापस लौटना होगा क्यूंकि इतनी सारी लोहे की बाड़ों के कारण ये जगह घातक हो जाती है.

Death-door at Birkenau
बिर्केनाऊ के प्रवेशद्वार से ट्रेन ट्रैक बिछे हुए हैं...इस आखिरी ट्रैक पर जर्मन कब्जे के अंतर्गत देशों से ज्यु आबादी ट्रेनों में भर कर लायी जाती थी. वहाँ एक रेल का डिब्बा अभी भी मौजूद था...हम चलते हुए मेन गेट से कोई तीन सौ मीटर दूर पहुंचे जहाँ पर 'सेलेक्शन' होते थे. ट्रेन से उतरे लोगों को अपना सारा सामान छोड़ कर एक कतार बनानी होती थी. सेलेक्शन अर्था
त जीवन या मृत्यु का चुनाव...जो कि एक डॉक्टर करता था. दस दिन के थके...अमानवीय स्थिति में आये लोगों को सिर्फ एक नज़र देख कर डॉक्टर निर्णय लेता था कि वे जीने के काबिल हैं या मरने के. लोगों को दायें या बांयें भेजा जाता था. दायें यानी श्रम शिविर...जहाँ लोगों को बंधुआ मजदूरी कराई जाती थी जहाँ अधिकतर लोग तीन से चार महीने में ही दम तोड़ देते थे. बायीं ओर भेजे गए लोग सीधे गैस चेंबर में मरने के लिए भेज दिए जाते थे.

कमजोर व्यक्ति, बच्चे, बूढ़े, माएं जिनके छोटे बच्चे थे और जो पुरुष बायीं ओर भेजे जाते थे उन्हें गैस चैंबर भेजा जाता था. बिर्केनाऊ में पहले दो गैस चेंबर थे...लिटिल रेड हाउस और लिटिल वाईट हाउस...मगर फिर बाद में सिलसिलेवार ढंग से और बेहतर तरीके से अधिक लोगों को मारने और जलाने के लिए और गैस चेम्बरों का निर्माण किया गया. गैस चेम्बर्स में ही मृत शरीरों को जलाने के लिए भट्टियां भी थीं...इन्सिनेरेटर. लोगों को कहा जाता था कि ये शावर लेने के कमरे हैं और धोखे की ये प्रक्रिया इतनी सम्पूर्ण थी कि गैस चेम्बरों में शावरहेड भी लगे हुए थे. जिस वक्त लोग गैस चेम्बर्स की ओर जाते थे एक बैंड संगीत बजाता रहता था.

लोगों को कहा जाता था कि अब आप नहाने के लिए शावरहाल में जायेंगे. अपने कपड़ों का स्थान और नंबर अच्छे से याद कर लें. कपड़े टांगने के लिए खूँटी या कहीं कहीं लोकर होते थे. दस दिन सफ़र करने के बाद जिस चीज़ की वाकई जरूरत महसूस होती थी वो था अच्छे से पानी से नहाना...लोगों को कहा जाता था कि शावर के बाद आपको गर्म कॉफी या सूप मिलेगा और फिर उनकी योग्यताओं के हिसाब से उन्हें काम दिया जाएगा. शावर के बाद उनके प्रियजन उनका इंतज़ार कर रहे हैं. किसी को अनुमान भी नहीं होता था कि वे दरअसल गैस चेंबर में जा रहे हैं. कहीं से कोई भी प्रतिरोध नहीं होता था और लोग खुद चलकर उस बड़े हॉल में चले जाते थे. जब हॉल पूरा भर जाता था तो बाहर से दरवाजा बंद कर कर कुंडियां लगा दी जातीं थीं और चिमनी में से ज़ैक्लोन बी के पेल्लेट्स अंदर डाल दिए जाते थे. इनसे जहरीली हायड्रोजेन सायनाइड गैस निकलती थी. गैस चेंबर की मोटी दीवारों के बाहर तक भी लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाजें आती थीं...इन आवाजों को बाकियों तक पहुँचने से रोकने के लिए दो मोटरसाईकिल स्टार्ट कर के छोड़ दिए जाते थे कि इंजन के शोर में चीखों की आवाज़ दब जाए लेकिन चीखों का शोर दबता नहीं था.

गैस चेंबर के भग्नावशेष 
लगभग पन्द्रह से बीस मिनट में सब शांत हो जाता था. मृत लोगों के शरीर को जलाने के लिए भट्ठियां वहीं मौजूद होती थीं. सौंडरकमांडो जो कि कैदियों में से ही चुने जाते थे...उनका काम होता था मरे हुए लोगों के बाल उतारना और दांतों में मौजूद सोने की तलाश करना. इसके बाद मृत शरीर को भट्टियों में जलाया जाता था. मृत शरीर जलाने में कम वक्त लगे इसलिए रेलें बनी हुयी थीं जिनसे शरीर को भट्ठी में डालने में आसानी हो. भट्ठी से निकलने वाली राख को खाद की तरह इस्तेमाल किया जाता था. कई बार गैस चेंबर  में मरने वाले लोगों की तादाद इतनी हो जाती थी कि डेडबॉडी खुले में जलानी पड़ती थी. जलने की गंध दूर दूर तक फैलती जाती थी. सौंडरकमांडो में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा थी, उनके बाद बैंड मेम्बर्स सबसे ज्यादा आत्महत्या करते थे. हर कुछ महीनों में सौंडरकमांडो की पूरी फ़ोर्स को गैस चेंबर भेज दिया जाता था. हर नए बैच को पहला काम मिलता था अपने से पहले बैच के सौंडरकमांडो के मृत शरीरों को इनसिनेरेटर में डालना.

औस्वित्ज़ में पाँच गैस चैम्बर थे. एक बार में लगभग २ हज़ार लोग मारे जा सकते थे. गैस चेम्बरों की क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन मृत शरीर को जलाने में बहुत वक्त लगता था इसलिए लोगों के मरने की दर कम थी. एक ट्रेन में आये लगभग तीन चौथाई लोग सीधे गैस चेंबर भेज दिए जाते थे. जब जर्मनी की हार होने लगी तो गैस चेम्बर्स की हकीकत को दुनिया से छुपाने के लिए गैस चेम्बर्स को बम से उड़ा दिया गया इसके बावजूद गिरी हुयी इमारत का हिस्सा मौजूद है...गैस चेंबर के बाहर राख का ढेर है. उस पूरे क्षेत्र को कब्रिस्तान का दर्जा दिया जाता है.
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लगातार बारिशें हो रहीं थीं...अँधेरा घिर आया था...लोग भीगते हुए गाइड के साथ चल रहे थे जो हमें सिलसिलेवार ढंग से वहाँ हुयी घटनाओं के बारे  में बताती जा रही थी. बहुत ही हौलनाक किस्से थे...जलती भट्ठियों में जिन्दा फेंके गए लोगों की...बाड़ों से सट कर आत्महत्या करते लोगों की...ठंढ में ठिठुरते हुए हम वक्त में बहुत पीछे चले गए थे. बिर्केनाऊ में किसी भी जगह पर खड़े होकर देखने से दूर दूर तक सिर्फ बाड़ों की दो कतार दिखती है...जमीन आसमान जब कटा हुआ.

औस्वित्ज़ बिर्केनाऊ में चलते हुए ऐसा बार बार लगता है कि वहाँ घटी हुयी घटनाएं आपकी आँखों के सामने दुबारा घट रही हैं. लोगों की चीखें...उनका धोखे से मारे जाना...जर्मन SS...सब दिखते हैं. वहाँ जाना किसी कैदखाने में जाने जैसा है. कितना भी चाह लेने पर वो तसवीरें कहीं नहीं जातीं. एक पुराने गिरे हुए काली ईटों के मलबे से दहशत होती है...राख का ढेर देखते हुए सोचती हूँ कि यहाँ जो खाना खा रही हूँ...जमीं में जाने किसके शरीर के अवशेष बाकी होंगे.

हम जिंदगी को कितना टेकेन फॉर ग्रांटेड लेते हैं...और प्यार को...दोस्ती को? एक एक सांस को तरसते लोगों की चीखें वहाँ की बारिश में घुल गयी हैं. मेरा मन शांत नहीं होता. अंदर इतना कुछ भरा हुआ है...जाने कितनी किस्तों में बाहर आएगा. ऐसा लिखना हर बार मुझे अंदर से तोड़ता है. मैं वहाँ भटकती अनेक आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करती हूँ. 

07 August, 2012

क्राकोव डायरीज-५-मृत्यु के अँधेरे एकांत से

पिछले काफी दिनों से कुछ लिखने की कोशिश कर रही हूँ...मगर कुछ तसवीरें ज़हन में इतने गहरे बैठ गयी हैं कि उन्हें निकालना नामुमकिन लग रहा है. उपाय लेकिन कोई है नहीं...सिवाए इसके कि लिखा जाए. मेरी डायरी के पन्ने बहुत तेज़ी से भरते जा रहे हैं...मैं किसी भी हाल में अकेले नहीं रहना चाहती. इस पोस्ट को लिखने के पहले शुक्रिया उन सभी दोस्तों का मेरी कहानियों को सुनने के लिए कि अगर उनसे बात न की होती तो जाने और कैसी मानसिक स्थिति में रहती.
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क्राकोव में गर्मियां चल रही थीं...तापमान कोई ३० डिग्री के आसपास था. खिली हुयी धूप और नीला आसमान और कुछ बेहद अच्छे लोग थे. वहाँ एक साल्ट माईन है जो जमीन से लगभग तीन सौ मीटर नीचे है और वहाँ १२ डिग्री का तापमान रहता है इसलिए हिदायत दी जाती है कि वहाँ जाने के लिए गर्म कपड़े जरूर रखें. मैं सुबह साल्ट माईन जाने के लिए चली थी इसलिए गर्म जैकेट थी साथ में. टूर ऑफिस पर गयी तो पता चला कि साल्ट माईन का टूर साढ़े चार बजे है जबकि औस्वित्ज़ का टूर साढ़े बारह बजे है जिसमें छः घंटे लगते हैं. टिकट १०० ज्लोटी की थी. 

मुझे ठीक ठीक अंदाज़ नहीं था कि औस्वित्ज़ क्राकोव से कितनी दूरी पर है...बस की यात्रा डेढ़ घंटे की थी जिसमें हमें एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी जिसमें मुख्यतः इस बात का वर्णन था कि औस्वित्ज़ से रिहा हुए लोगों को डॉक्टर्स ने जब इक्जामिन किया तो उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति क्या थी. इसके अलावा कुछ ऐसी फुटेज भी थी जो औस्वित्ज़ में शूट की गयी थी जर्मन ऑफिसर्स द्वारा. द्वितीय विश्व युद्ध में औस्व्तिज़ सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. 'फाइनल सोलुशन टू द जुविश प्रॉब्लम' के तहत ५ मिलियन ज्यूस (यहूदी) यहाँ मारे गए थे. 

जैसे जैसे बस क्राकोव से औस्वित्ज़ की ओर बढ़ती जा रही थी आसमान गहरे काले बादलों से घिरता जा रहा था...जैसे कि अँधेरा हमारा पीछा कर रहा हो. औस्वित्ज़ पहुँच कर जब मैं बस से उतरी तो मैंने अपना जैकेट अंदर रख दिया था क्योंकि मेरे हिसाब से बाहर मौसम गर्म था...बस से उतरते ही बेहद सर्द हवा के थपेड़े महसूस हुए...मैंने तुरंत जा के अपनी जैकेट पहनी. धूप जा चुकी थी और आसमान पर काले बादल छा गए थे. औस्वित्ज़ म्यूजियम में जाने के लिए गाइड अनिवार्य है...हर गाइड के पास एक माइक होता है और उसे सुनने के लिए हमें हेडफोन दिए जाते हैं. 


औस्वित्ज़ की शुरुआत एक पोलिश राजनैतिक अपराधियों के लिए श्रम शिविर की तरह हुयी थी. काम्प्लेक्स के पहले वो लोहे का दरवाज़ा होता है जिसकी आर्च पर जर्मन में लिखा हुआ है 'Arbeit mach frei' इसका अनुवाद होता है 'काम तुम्हें आज़ाद करेगा' यहाँ आज़ादी का मतलब मृत्यु है. शिविर अलग अलग ब्लोक्स में बंटा हुआ है और जहाँ तक नज़र जाती है कंटीली बाड़ है जिनमें पहले बिजली दौड़ती थी. 

पहले ब्लाक में ग्राउंड फ्लोर पर बाथरूम हैं जिनमें कुछ तसवीरें बनी हुयी हैं जो कैम्प में कैद लोगों ने बनायी थीं. एक लंबा गलियारा है जिसके दोनों तरफ तसवीरें लगी हुयी हैं. बायीं तरफ महिलाओं की और दायीं तरफ पुरुषों की...हर तस्वीर में उनकी जन्म तिथि और कितने अंतराल तक वे शिविर में रहे अंकित है. अधिकतर कैदी छः महीने के अंदर मर जाते थे. मैंने आज तक बहुत तसवीरें, पेंटिंग्स देखी हैं मगर मैंने आजतक वैसी जीवंत आँखें कभी नहीं देखीं. यकीन ही नहीं होता था कि ये मर चुके लोग हैं...एक एक तस्वीर जैसे आपकी रूह में झांकती हुयी प्रतीत होती है...जैसे उस गलियारे के सारे लोग मरने के बावजूद अपनी आखिरी निशानी उस तस्वीर में आ कर रहने लगे हैं. गुजरते हुए लगता था उनकी आँखें पीछा कर रही हैं. उनमें से कुछ तसवीरें ऐसी भी थीं जहाँ मुस्कराहट का एक कतरा मिलता था...कैदियों की आँखों में, होठों पर...अनगिन साल पहले मरे हुए लोगों की तस्वीरों को सीने से लगा कर फूट फूट कर रोने का मन करता था. 

पहले तल्ले को जाती हुयी सीढ़ियाँ घिसी हुयी थीं...सोच कर आत्मा सिहरती थी कि इन्ही सीढ़ियों पर कितनी बार लोग कितनी पीड़ा में गुज़रे होंगे...वे क्या सोचते होंगे सुबह शाम यहाँ से काम को जाते और आते हुए. पहले तल्ले पर पहुँचने के पहले हमारी गाइड ने अनुरोध किया कि इस तल पर तसवीरें न लें. औस्वित्ज़ के बारे में मैंने जितना, पढ़ा, सुना और डॉक्यूमेंट्री देखी है कि मुझे तैयार होना चाहिए था...मगर सामने लगभग सौ फीट लंबे उस ऊंचे से शीशे के पीछे लोगों के बाल थे...उन्हें देखते ही जैसे फिजिकल धक्का लगा...जैसे किसी ने वाकई कोई खंजर उतार दिया हो सीने में...मुझे हल्का चक्कर आ गया और उलटी आने लगी...मैंने खम्बे का सहारा लिया...मृत लोगों के अवशेषों को देखना किसी सदमे जैसा था...वो जगह इतनी डिस्टर्बिंग थी कि जान दे देने का मन कर रहा था. हमारी गाइड ने अपना माइक बंद किया और पास आ कर मेरी पीठ सहलाई...पूछा कि मैं ठीक हूँ. मैं ठीक नहीं थी...मैं बहुत रोना चाहती थी...मैं किसी का हाथ पकड़ना चाहती थी...मगर खुद को संयत करने की कोशिश की. गाइड ने हमें बताया कि ये एक बेहद छोटा हिस्सा है...जिन लोगों को गैस चेम्बर्स में मारा जाता था उनके बाल उतार लिए जाते थे और जर्मनी भेजे जाते थे. वहाँ इन बालों से कपड़े बनाए जाते थे. वहाँ उस कपड़े से बना एक कोट और एक दरी मौजूद थी. 

मुझे नहीं मालूम युद्ध और उसकी मजबूरियां क्या होती हैं मगर ऐसा क्या होता होगा कि कोई मनुष्य मृत लोगों के बालों से बने कपड़े को पहनने को राजी हो जाता होगा. अगले कमरे में जूतों का संग्रह था...दायीं और पुरुषों और बायीं ओर महिलाओं के जूते थे. हमारी गाइड हमें बताती जा रही थी कि ये सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है उन चीज़ों का जो औस्वित्ज़ से बरामद हुए थे. आगे के कमरों में बक्से थे...जिनपर लोगों के नाम, उनके रहने का स्थान और कई बार कुछ धार्मिक चिन्ह भी बने हुए थे. एक कमरे में चश्मे के फ्रेम...जूते साफ़ करने के ब्रश और क्रीम...और आगे खाना पकाने के बर्तन थे. लोग चुप चाप सर झुकाए हुए इन चीज़ों को देखते चल रहे थे. बच्चों के दूध के डिब्बे, उनके बिब और बाकी सामान. टेबल पर जर्मन गार्ड द्वारा बनाये गए मृत लोगों की लिस्ट्स भी थी कि एक दिन में कितने लोग पहुंचे. 


जुविश लोगों को ये बोल कर यहाँ लाया गया था कि उन्हें यहाँ काम करना होगा और जर्मन उनके काम के लिए उन्हें पैसे भी देंगे. ऐसा कोई भी नहीं सोच सकता था कि जर्मन उन्हें सिर्फ मार देना चाहते हैं. ऊपर के फ्लोर पर उनकी वस्तुएं देखने के बाद हम बेसमेंट की ओर बढ़े. बेस्मेंट्स इन शिविर के जेलों का कार्य करते थे...अपराधियों को सजाएं यहाँ दी जाती थीं. नीचे की ओर जाती सीढ़ियों में एक मृत्युगंध बसी हुयी थी जो जैसे इतने सालों में भी डाइल्यूट नहीं हुयी है...उतनी ही सान्द्र जैसे अभी भी नीचे चीखते और धीरे धीरे मरते लोग मौजूद है. बेसमेंट में वैसे कमरे थे जिनमें लोगों को भूखा मारा जाता था. स्टारवेशन सेल्स...छोटे इन कमरों में कोई खिड़की नहीं थी और एक बार यहाँ किसी कैदी को बंद किया जाता था तो फिर कमरा उसकी मौत के बाद ही खुलता था. बेहद छोटे और सीलन से भरे इन कमरों में न हवा आती थी, न धूप न रौशनी.  

बेसमेंट में ही पहली बार जाय्क्लोन बी के एक्सपेरिमेंट भी हुए थे. बेसमेंट में पहली बार जाय्क्लोन बी गैस से कैदियों को मारा गया था...सही मात्रा का अनुमान करने में बहुत वक्त लगा था...शुरु के एक्सपेरिमेंट में लोगों को मरने में अक्सर बीस दिन तक लग जाते थे. (तथ्य मेरी याददाश्त पर है...इन्टरनेट पर अवधि २० घंटे बतायी गयी है). हायड्रोजेन साइनाइड के असर से लंग्स फूल जाते थे और इंसान सांस नहीं ले पाता था.

इनके साथ थे स्टैंडिंग सेल्स. लगभग डेढ़ मीटर बाय डेढ़ मीटर के ईटों के बने कमरे. फोन बूथ की तरह छोटे और बंद...उनमें प्रवेश करने के लिए लगभग दो फुट बाय दो फुट की का एक दरवाजा होता था नीचे की ओर. कैदी को इसमें बैठ कर घुसना होता था और फिर कमरे में खड़े होना होता था. ऐसे छोटे कमरे में अक्सर चार कैदी एक साथ बंद किये जाते थे. बेहद घुटन भरे इन ताबूतनुमा कमरों में कैदी जल्द ही मर जाते थे. दिन भर हाड़तोड़ मेहनत और रात को स्टैंडिंग सेल्स में खड़े रहना...अँधेरे में...बिना हवा के. एक तो बेसमेंट एरिया होने के कारण वैसे भी हवा का आवागमन नहीं रहता था उसपर बेहद संकरे गलियारों और कमरों से भरी जगह थी. अमानवीयता की हद बनाती इन सेल्स को देख कर वाकई मृत्यु ज्यादा आसान प्रतीत होती थी. वहाँ खड़े होकर सोच रही थी कि एक रेस से अगर नफरत है तो उसे गैस चेम्बर भेज कर मार देना फिर भी समझ आता है मगर क्रूरता के ऐसे कमरे बनाना...ऐसा किस मनुष्य के अंदर ख्याल आया होगा...क्यूँ आया होगा. उन सारे गलियारों में मौत आज भी दबे पांव घूमती दिखती है. मन के अंदर ऐसा भय तह लगाता जाता है कि उससे निकलने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रहती. 

दीवार जहाँ कैदियों को गोली मारी जाती थी 
औस्वित्ज़ में अलग अलग ब्लोक्स हैं...इसमें से एक ब्लोक है जहाँ पर जजमेंट होती थी...पोलिश लोग जो अलग अलग अपराध के लिए पकड़े जाते थे उनपर मुकदमा चलता था और अधिकतर केस में सजा एक ही होती थी...मौत. दीवार का एक हिस्सा है जिसकी ओर मुंह करके कैदी हो खड़ा होना होता था ताकि उसके सर में पीछे गोली मारी जाए. इसके आलावा लोगों को फाँसी देने के हुक भी वहीं मौजूद हैं. 

ब्लोक नंबर २१ इनका मेडिकल ब्लोक था जिसके यहाँ के कैदी स्टॉप टू एक्स्टर्मीनेशन कहते थे.बीमार कैदी जो यहाँ लाये जाते थे, वापस स्वस्थ होकर कभी अपने बैरक में नहीं लौटते थे बल्कि सीधे इन्सिनेरेटर में जाते थे. इन्सिनेरेटर मृत शरीर को जलाने के लिए गैस चेंबर में मौजूद होता था. यहाँ पर अनेक मेडिकल एक्सपेरिमेंट भी हुए. जर्मन डॉक्टर बेहद क्रूर और खतरनाक मेडिकल एक्सपेरिमेंट करते थे. इनमें से कुछ थे पेशेंट्स में गैंग्रीन  डाल देना...बच्चों की आँखों में केमिकल डाल कर देखना कि आँखों का रंग बदला जा सकता है कि नहीं...औरतों के यूट्रस में केमिकल डाल कर उन्हें सील करना. 

औस्वित्ज़ में एक गैस चेंबर भी था. गाइड ने इसके बारे में हमें बाहर ही जानकारी दे दी ताकि अंदर किसी को कोई सवाल न पूछना पड़े. वो एक छोटी सी ईमारत थी, एक तल्ले की जिसमें एक चिमनी दिख रही थी. अंदर गहरी काली दीवारें थीं और वही गंध...मौत की...दहशत की...सन्नाटा कैसे चीखता है ऐसी जगहों पर पता चलता है. वहाँ कोई कुछ नहीं कह रहा था मगर आवाज़ में कई साल पहले की चीखें मौजूद थीं...आवाजें कहीं नहीं जातीं...लोग कहीं नहीं जाते...वहीं ठहरे रहते हैं. गैस चेंबर में एक इन्सिनेरेटर भी था. मरे हुए लोगों को उसी में जलाया जाता था. 

मैंने बहुत पढ़ा था नाजी अत्याचारों के बारे में, ज्यूस की सिलसिलेवार हत्या के बारे में, होलोकॉस्ट और कोंसेंट्रेशन कैम्प के बारे में मगर कोई भी जानकारी उस भयावह अनुभव के लिए तैयार नहीं कर सकती थी. आखिर ऐसा क्या होता है कि इतने सारे लोग एक साथ अमानवीय बर्ताव करने लगते हैं. औस्वित्ज़ के उन ब्लोक्स में मौजूद खिड़की से दिखते एक टुकड़ा आसमान और दूर तक जाती कंटीली बाड़ों को देखते लोग क्या सोचते होंगे...वहाँ चलते हुए हर उम्मीद से भरोसा उठ जाता है...किसी धर्म में विश्वास नहीं रहता. जिंदगी...लोग...सूरज की रौशनी...जैसे जिंदगी से सब कुछ चला जाता है. साधारण सी दिखती इन लाल ईंट की इन इमारतों में कितनी रूहें कैद हैं. 

मैंने खुद को बेहद बेहद तनहा, असहाय और नाउम्मीद महसूस किया...जैसे जिंदगी में खुशी अब कभी नहीं लौटेगी. बारिशें शुरू हो गयीं थी. वहाँ से थोड़ी दूर पर बिर्केनाऊ था जहाँ पर मुख्य एक्स्टर्मीनेशन शिविर और गैस चेंबर थे. बस के सारे यात्री वापस आ के बैठ गए. कहीं कोई कुछ बात नहीं कर रहा था...सब चुप थे...उदास...अपने में अकेले...मौत की परछाई बादलों सी सियाह थी. 

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