You gotta hold on to something.
- from the film...Blue
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मुझे मालूम नहीं कि ऐसा सबके साथ होता है या सिर्फ मेरे साथ हो रहा है मगर ये सीरीज लिखना एक बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया है...सर में भयानक दर्द शुरू हो जाता है और चक्कर आने लगते हैं. थकान होने लगती है...आँखें दर्द करने लगती हैं. मेरे लिए लिखना अधिकतर दर्द को कहीं दफना देने जैसा है मगर इस बार लिखना कुछ ऐसा है जैसे बदन में चुभी किसी कील को ओपरेट करके निकालना...उसे बाहर करना भी जरूरी है. थोड़ा इसलिए भी लिख रही हूँ कि मालूम नहीं कैसे पर बहुत से लोगों को होलोकास्ट के बारे में उतना मालूम नहीं है जितना मैं सोचती थी.
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औस्वित्ज़ म्यूजियम से निकल कर हम बिर्केनाऊ जा रहे थे. बिर्केनाऊ को औस्वित्ज़-२ के नाम से भी जाना जाता है. बिर्केनाऊ मृत्यु शिविर की शुरुआत अक्टूबर १९४१ में हुयी थी...औस्वित्ज़ में जब कैदियों की भीड़ बहुत बढ़ गयी तो बिर्केनाऊ में एक नया और बड़ा कैम्प बनाने का निर्णय लिया गया. हिटलर के निर्देशानुसार यहाँ 'फाइनल सोल्यूशन' यानि कि ज्यू आबादी का जड़ से खात्मा किया जाना था. बिर्केनाऊ कैम्प अधिक से अधिक संख्या में लोगों की एक साथ हत्या के लिए बनाया गया था.
एक्स्टर्मीनेशन/उन्मूलन के लिए औस्वित्ज़ का चुनाव दो मुख्य कारणों से किया गया था...दो तरफ से नदियों से घिरा होने के कारण इसे छुपाये रखना आसान था और यहाँ तक रेल लाइन आती थी जिसके कारण जर्मन अधिकृत क्षेत्रों से ज्यु अधिकाधिक संख्या में यहाँ लाये जा सकते थे. 'फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रोब्लम' के तहत हिटलर का उद्देश्य पूरी ज्यु रेस का खात्मा करना था. ज्यु को सबह्यूमन कहा गया यानि कि मनुष्य से कमतर...किसी जानवर सरीखे...इसलिए धरती से उनका उन्मूलन जरूरी था. सिलसिलेवार तरीके से पहले ज्यू आबादी को शहरों से निकाल कर घेट्टो में ठूंस दिया गया जहाँ से उन्हें औस्वित्ज़ और दूसरे कोंसेंट्रेशन कैम्प भेज दिया जाता था. अमानवीय स्थिति में घेट्टो में रहने वाली ज्यु आबादी को कहा जाता था कि उन्हें नौकरी और दूसरे कार्यों के लिए भेजा जा रहा है और वे वापस अपने घर आयेंगे या फिर वहीं बस सकते हैं.
बिर्केनाऊ तक ट्रेन लाइन आती थी. मालगाड़ी जैसे डब्बों में लगातार दस दिन तक सफ़र करके दूर देश जैसे फ़्रांस से ज्यु आबादी आती थी. इन डब्बों में जानवरों की तरह लोगों को डाल दिया जाता था...ट्रेनें कहीं भी रूकती नहीं थीं. डब्बे में सिर्फ एक छोटी सी रोशनदान नुमा खिड़की होती थी...इन स्थितियों में बहुत सी बीमारियाँ भी फ़ैल जाती थीं.
जब हम बिर्केनाऊ पहुंचे तो बारिश शुरू हो गयी थी. अधिकतर लोग इस मौसम के लिए तैयार नहीं थे...हम में से कुछ के पास छतरियां थीं...औस्वित्ज़ में चार मिलियन लोगों की हत्या की गयी थी...आंकड़े तस्वीर नहीं बनाते...लेकिन जब मैं बिर्केनाऊ के उस गेट से अंदर गयी तो जहाँ तक नज़र जाती थी काँटों की दोहरी बाड़ थी...जैसे कि मरना भी एक बार नहीं दो बार होता हो. इन बाड़ों में बिजली दौड़ती थी और इतना हाई वोल्ट हुआ करता था कि इनसे 'हूहू' की भयावह आवाज़ आती थी. बिर्केनाऊ एक फ़्लैट जगह है इसलिए दूर क्षितिज तक फैले शिविर के चिन्ह दिख रहे थे. हमारे दायें तरफ ईटों की बनी इमारतें थीं जिनमें औरतें काम करती थीं और दायें तरफ लकड़ी की इमारतों के अवशेष थे...जो साफ़ दिखता था वे चिमनियां था...ठंढ के दिनों में बैरक को गर्म रखने के लिए चिमनियां होती हैं मगर यहाँ ये सिर्फ बाहरी आडम्बर था लोगों को दिखने के लिए. इन चिमनियों का इस्तेमाल नहीं होता था. उस जमीन पर खड़े होकर पहली बार महसूस हुआ कि ये कितना बड़ा ऑपरेशन था और कितने सारे लोग यहाँ मारे गए थे. हमारी गाइड ने बताया कि अगर जरा सी भी बिजली चमकी तो हमें वापस लौटना होगा क्यूंकि इतनी सारी लोहे की बाड़ों के कारण ये जगह घातक हो जाती है.
बिर्केनाऊ के प्रवेशद्वार से ट्रेन ट्रैक बिछे हुए हैं...इस आखिरी ट्रैक पर जर्मन कब्जे के अंतर्गत देशों से ज्यु आबादी ट्रेनों में भर कर लायी जाती थी. वहाँ एक रेल का डिब्बा अभी भी मौजूद था...हम चलते हुए मेन गेट से कोई तीन सौ मीटर दूर पहुंचे जहाँ पर 'सेलेक्शन' होते थे. ट्रेन से उतरे लोगों को अपना सारा सामान छोड़ कर एक कतार बनानी होती थी. सेलेक्शन अर्था
त जीवन या मृत्यु का चुनाव...जो कि एक डॉक्टर करता था. दस दिन के थके...अमानवीय स्थिति में आये लोगों को सिर्फ एक नज़र देख कर डॉक्टर निर्णय लेता था कि वे जीने के काबिल हैं या मरने के. लोगों को दायें या बांयें भेजा जाता था. दायें यानी श्रम शिविर...जहाँ लोगों को बंधुआ मजदूरी कराई जाती थी जहाँ अधिकतर लोग तीन से चार महीने में ही दम तोड़ देते थे. बायीं ओर भेजे गए लोग सीधे गैस चेंबर में मरने के लिए भेज दिए जाते थे.
कमजोर व्यक्ति, बच्चे, बूढ़े, माएं जिनके छोटे बच्चे थे और जो पुरुष बायीं ओर भेजे जाते थे उन्हें गैस चैंबर भेजा जाता था. बिर्केनाऊ में पहले दो गैस चेंबर थे...लिटिल रेड हाउस और लिटिल वाईट हाउस...मगर फिर बाद में सिलसिलेवार ढंग से और बेहतर तरीके से अधिक लोगों को मारने और जलाने के लिए और गैस चेम्बरों का निर्माण किया गया. गैस चेम्बर्स में ही मृत शरीरों को जलाने के लिए भट्टियां भी थीं...इन्सिनेरेटर. लोगों को कहा जाता था कि ये शावर लेने के कमरे हैं और धोखे की ये प्रक्रिया इतनी सम्पूर्ण थी कि गैस चेम्बरों में शावरहेड भी लगे हुए थे. जिस वक्त लोग गैस चेम्बर्स की ओर जाते थे एक बैंड संगीत बजाता रहता था.
लोगों को कहा जाता था कि अब आप नहाने के लिए शावरहाल में जायेंगे. अपने कपड़ों का स्थान और नंबर अच्छे से याद कर लें. कपड़े टांगने के लिए खूँटी या कहीं कहीं लोकर होते थे. दस दिन सफ़र करने के बाद जिस चीज़ की वाकई जरूरत महसूस होती थी वो था अच्छे से पानी से नहाना...लोगों को कहा जाता था कि शावर के बाद आपको गर्म कॉफी या सूप मिलेगा और फिर उनकी योग्यताओं के हिसाब से उन्हें काम दिया जाएगा. शावर के बाद उनके प्रियजन उनका इंतज़ार कर रहे हैं. किसी को अनुमान भी नहीं होता था कि वे दरअसल गैस चेंबर में जा रहे हैं. कहीं से कोई भी प्रतिरोध नहीं होता था और लोग खुद चलकर उस बड़े हॉल में चले जाते थे. जब हॉल पूरा भर जाता था तो बाहर से दरवाजा बंद कर कर कुंडियां लगा दी जातीं थीं और चिमनी में से ज़ैक्लोन बी के पेल्लेट्स अंदर डाल दिए जाते थे. इनसे जहरीली हायड्रोजेन सायनाइड गैस निकलती थी. गैस चेंबर की मोटी दीवारों के बाहर तक भी लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाजें आती थीं...इन आवाजों को बाकियों तक पहुँचने से रोकने के लिए दो मोटरसाईकिल स्टार्ट कर के छोड़ दिए जाते थे कि इंजन के शोर में चीखों की आवाज़ दब जाए लेकिन चीखों का शोर दबता नहीं था.
लगभग पन्द्रह से बीस मिनट में सब शांत हो जाता था. मृत लोगों के शरीर को जलाने के लिए भट्ठियां वहीं मौजूद होती थीं. सौंडरकमांडो जो कि कैदियों में से ही चुने जाते थे...उनका काम होता था मरे हुए लोगों के बाल उतारना और दांतों में मौजूद सोने की तलाश करना. इसके बाद मृत शरीर को भट्टियों में जलाया जाता था. मृत शरीर जलाने में कम वक्त लगे इसलिए रेलें बनी हुयी थीं जिनसे शरीर को भट्ठी में डालने में आसानी हो. भट्ठी से निकलने वाली राख को खाद की तरह इस्तेमाल किया जाता था. कई बार गैस चेंबर में मरने वाले लोगों की तादाद इतनी हो जाती थी कि डेडबॉडी खुले में जलानी पड़ती थी. जलने की गंध दूर दूर तक फैलती जाती थी. सौंडरकमांडो में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा थी, उनके बाद बैंड मेम्बर्स सबसे ज्यादा आत्महत्या करते थे. हर कुछ महीनों में सौंडरकमांडो की पूरी फ़ोर्स को गैस चेंबर भेज दिया जाता था. हर नए बैच को पहला काम मिलता था अपने से पहले बैच के सौंडरकमांडो के मृत शरीरों को इनसिनेरेटर में डालना.
औस्वित्ज़ में पाँच गैस चैम्बर थे. एक बार में लगभग २ हज़ार लोग मारे जा सकते थे. गैस चेम्बरों की क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन मृत शरीर को जलाने में बहुत वक्त लगता था इसलिए लोगों के मरने की दर कम थी. एक ट्रेन में आये लगभग तीन चौथाई लोग सीधे गैस चेंबर भेज दिए जाते थे. जब जर्मनी की हार होने लगी तो गैस चेम्बर्स की हकीकत को दुनिया से छुपाने के लिए गैस चेम्बर्स को बम से उड़ा दिया गया इसके बावजूद गिरी हुयी इमारत का हिस्सा मौजूद है...गैस चेंबर के बाहर राख का ढेर है. उस पूरे क्षेत्र को कब्रिस्तान का दर्जा दिया जाता है.
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लगातार बारिशें हो रहीं थीं...अँधेरा घिर आया था...लोग भीगते हुए गाइड के साथ चल रहे थे जो हमें सिलसिलेवार ढंग से वहाँ हुयी घटनाओं के बारे में बताती जा रही थी. बहुत ही हौलनाक किस्से थे...जलती भट्ठियों में जिन्दा फेंके गए लोगों की...बाड़ों से सट कर आत्महत्या करते लोगों की...ठंढ में ठिठुरते हुए हम वक्त में बहुत पीछे चले गए थे. बिर्केनाऊ में किसी भी जगह पर खड़े होकर देखने से दूर दूर तक सिर्फ बाड़ों की दो कतार दिखती है...जमीन आसमान जब कटा हुआ.
औस्वित्ज़ बिर्केनाऊ में चलते हुए ऐसा बार बार लगता है कि वहाँ घटी हुयी घटनाएं आपकी आँखों के सामने दुबारा घट रही हैं. लोगों की चीखें...उनका धोखे से मारे जाना...जर्मन SS...सब दिखते हैं. वहाँ जाना किसी कैदखाने में जाने जैसा है. कितना भी चाह लेने पर वो तसवीरें कहीं नहीं जातीं. एक पुराने गिरे हुए काली ईटों के मलबे से दहशत होती है...राख का ढेर देखते हुए सोचती हूँ कि यहाँ जो खाना खा रही हूँ...जमीं में जाने किसके शरीर के अवशेष बाकी होंगे.
हम जिंदगी को कितना टेकेन फॉर ग्रांटेड लेते हैं...और प्यार को...दोस्ती को? एक एक सांस को तरसते लोगों की चीखें वहाँ की बारिश में घुल गयी हैं. मेरा मन शांत नहीं होता. अंदर इतना कुछ भरा हुआ है...जाने कितनी किस्तों में बाहर आएगा. ऐसा लिखना हर बार मुझे अंदर से तोड़ता है. मैं वहाँ भटकती अनेक आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करती हूँ.
- from the film...Blue
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मुझे मालूम नहीं कि ऐसा सबके साथ होता है या सिर्फ मेरे साथ हो रहा है मगर ये सीरीज लिखना एक बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया है...सर में भयानक दर्द शुरू हो जाता है और चक्कर आने लगते हैं. थकान होने लगती है...आँखें दर्द करने लगती हैं. मेरे लिए लिखना अधिकतर दर्द को कहीं दफना देने जैसा है मगर इस बार लिखना कुछ ऐसा है जैसे बदन में चुभी किसी कील को ओपरेट करके निकालना...उसे बाहर करना भी जरूरी है. थोड़ा इसलिए भी लिख रही हूँ कि मालूम नहीं कैसे पर बहुत से लोगों को होलोकास्ट के बारे में उतना मालूम नहीं है जितना मैं सोचती थी.
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औस्वित्ज़ म्यूजियम से निकल कर हम बिर्केनाऊ जा रहे थे. बिर्केनाऊ को औस्वित्ज़-२ के नाम से भी जाना जाता है. बिर्केनाऊ मृत्यु शिविर की शुरुआत अक्टूबर १९४१ में हुयी थी...औस्वित्ज़ में जब कैदियों की भीड़ बहुत बढ़ गयी तो बिर्केनाऊ में एक नया और बड़ा कैम्प बनाने का निर्णय लिया गया. हिटलर के निर्देशानुसार यहाँ 'फाइनल सोल्यूशन' यानि कि ज्यू आबादी का जड़ से खात्मा किया जाना था. बिर्केनाऊ कैम्प अधिक से अधिक संख्या में लोगों की एक साथ हत्या के लिए बनाया गया था.
एक्स्टर्मीनेशन/उन्मूलन के लिए औस्वित्ज़ का चुनाव दो मुख्य कारणों से किया गया था...दो तरफ से नदियों से घिरा होने के कारण इसे छुपाये रखना आसान था और यहाँ तक रेल लाइन आती थी जिसके कारण जर्मन अधिकृत क्षेत्रों से ज्यु अधिकाधिक संख्या में यहाँ लाये जा सकते थे. 'फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रोब्लम' के तहत हिटलर का उद्देश्य पूरी ज्यु रेस का खात्मा करना था. ज्यु को सबह्यूमन कहा गया यानि कि मनुष्य से कमतर...किसी जानवर सरीखे...इसलिए धरती से उनका उन्मूलन जरूरी था. सिलसिलेवार तरीके से पहले ज्यू आबादी को शहरों से निकाल कर घेट्टो में ठूंस दिया गया जहाँ से उन्हें औस्वित्ज़ और दूसरे कोंसेंट्रेशन कैम्प भेज दिया जाता था. अमानवीय स्थिति में घेट्टो में रहने वाली ज्यु आबादी को कहा जाता था कि उन्हें नौकरी और दूसरे कार्यों के लिए भेजा जा रहा है और वे वापस अपने घर आयेंगे या फिर वहीं बस सकते हैं.
बिर्केनाऊ तक ट्रेन लाइन आती थी. मालगाड़ी जैसे डब्बों में लगातार दस दिन तक सफ़र करके दूर देश जैसे फ़्रांस से ज्यु आबादी आती थी. इन डब्बों में जानवरों की तरह लोगों को डाल दिया जाता था...ट्रेनें कहीं भी रूकती नहीं थीं. डब्बे में सिर्फ एक छोटी सी रोशनदान नुमा खिड़की होती थी...इन स्थितियों में बहुत सी बीमारियाँ भी फ़ैल जाती थीं.
जब हम बिर्केनाऊ पहुंचे तो बारिश शुरू हो गयी थी. अधिकतर लोग इस मौसम के लिए तैयार नहीं थे...हम में से कुछ के पास छतरियां थीं...औस्वित्ज़ में चार मिलियन लोगों की हत्या की गयी थी...आंकड़े तस्वीर नहीं बनाते...लेकिन जब मैं बिर्केनाऊ के उस गेट से अंदर गयी तो जहाँ तक नज़र जाती थी काँटों की दोहरी बाड़ थी...जैसे कि मरना भी एक बार नहीं दो बार होता हो. इन बाड़ों में बिजली दौड़ती थी और इतना हाई वोल्ट हुआ करता था कि इनसे 'हूहू' की भयावह आवाज़ आती थी. बिर्केनाऊ एक फ़्लैट जगह है इसलिए दूर क्षितिज तक फैले शिविर के चिन्ह दिख रहे थे. हमारे दायें तरफ ईटों की बनी इमारतें थीं जिनमें औरतें काम करती थीं और दायें तरफ लकड़ी की इमारतों के अवशेष थे...जो साफ़ दिखता था वे चिमनियां था...ठंढ के दिनों में बैरक को गर्म रखने के लिए चिमनियां होती हैं मगर यहाँ ये सिर्फ बाहरी आडम्बर था लोगों को दिखने के लिए. इन चिमनियों का इस्तेमाल नहीं होता था. उस जमीन पर खड़े होकर पहली बार महसूस हुआ कि ये कितना बड़ा ऑपरेशन था और कितने सारे लोग यहाँ मारे गए थे. हमारी गाइड ने बताया कि अगर जरा सी भी बिजली चमकी तो हमें वापस लौटना होगा क्यूंकि इतनी सारी लोहे की बाड़ों के कारण ये जगह घातक हो जाती है.
Death-door at Birkenau |
त जीवन या मृत्यु का चुनाव...जो कि एक डॉक्टर करता था. दस दिन के थके...अमानवीय स्थिति में आये लोगों को सिर्फ एक नज़र देख कर डॉक्टर निर्णय लेता था कि वे जीने के काबिल हैं या मरने के. लोगों को दायें या बांयें भेजा जाता था. दायें यानी श्रम शिविर...जहाँ लोगों को बंधुआ मजदूरी कराई जाती थी जहाँ अधिकतर लोग तीन से चार महीने में ही दम तोड़ देते थे. बायीं ओर भेजे गए लोग सीधे गैस चेंबर में मरने के लिए भेज दिए जाते थे.
कमजोर व्यक्ति, बच्चे, बूढ़े, माएं जिनके छोटे बच्चे थे और जो पुरुष बायीं ओर भेजे जाते थे उन्हें गैस चैंबर भेजा जाता था. बिर्केनाऊ में पहले दो गैस चेंबर थे...लिटिल रेड हाउस और लिटिल वाईट हाउस...मगर फिर बाद में सिलसिलेवार ढंग से और बेहतर तरीके से अधिक लोगों को मारने और जलाने के लिए और गैस चेम्बरों का निर्माण किया गया. गैस चेम्बर्स में ही मृत शरीरों को जलाने के लिए भट्टियां भी थीं...इन्सिनेरेटर. लोगों को कहा जाता था कि ये शावर लेने के कमरे हैं और धोखे की ये प्रक्रिया इतनी सम्पूर्ण थी कि गैस चेम्बरों में शावरहेड भी लगे हुए थे. जिस वक्त लोग गैस चेम्बर्स की ओर जाते थे एक बैंड संगीत बजाता रहता था.
लोगों को कहा जाता था कि अब आप नहाने के लिए शावरहाल में जायेंगे. अपने कपड़ों का स्थान और नंबर अच्छे से याद कर लें. कपड़े टांगने के लिए खूँटी या कहीं कहीं लोकर होते थे. दस दिन सफ़र करने के बाद जिस चीज़ की वाकई जरूरत महसूस होती थी वो था अच्छे से पानी से नहाना...लोगों को कहा जाता था कि शावर के बाद आपको गर्म कॉफी या सूप मिलेगा और फिर उनकी योग्यताओं के हिसाब से उन्हें काम दिया जाएगा. शावर के बाद उनके प्रियजन उनका इंतज़ार कर रहे हैं. किसी को अनुमान भी नहीं होता था कि वे दरअसल गैस चेंबर में जा रहे हैं. कहीं से कोई भी प्रतिरोध नहीं होता था और लोग खुद चलकर उस बड़े हॉल में चले जाते थे. जब हॉल पूरा भर जाता था तो बाहर से दरवाजा बंद कर कर कुंडियां लगा दी जातीं थीं और चिमनी में से ज़ैक्लोन बी के पेल्लेट्स अंदर डाल दिए जाते थे. इनसे जहरीली हायड्रोजेन सायनाइड गैस निकलती थी. गैस चेंबर की मोटी दीवारों के बाहर तक भी लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाजें आती थीं...इन आवाजों को बाकियों तक पहुँचने से रोकने के लिए दो मोटरसाईकिल स्टार्ट कर के छोड़ दिए जाते थे कि इंजन के शोर में चीखों की आवाज़ दब जाए लेकिन चीखों का शोर दबता नहीं था.
गैस चेंबर के भग्नावशेष |
औस्वित्ज़ में पाँच गैस चैम्बर थे. एक बार में लगभग २ हज़ार लोग मारे जा सकते थे. गैस चेम्बरों की क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन मृत शरीर को जलाने में बहुत वक्त लगता था इसलिए लोगों के मरने की दर कम थी. एक ट्रेन में आये लगभग तीन चौथाई लोग सीधे गैस चेंबर भेज दिए जाते थे. जब जर्मनी की हार होने लगी तो गैस चेम्बर्स की हकीकत को दुनिया से छुपाने के लिए गैस चेम्बर्स को बम से उड़ा दिया गया इसके बावजूद गिरी हुयी इमारत का हिस्सा मौजूद है...गैस चेंबर के बाहर राख का ढेर है. उस पूरे क्षेत्र को कब्रिस्तान का दर्जा दिया जाता है.
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लगातार बारिशें हो रहीं थीं...अँधेरा घिर आया था...लोग भीगते हुए गाइड के साथ चल रहे थे जो हमें सिलसिलेवार ढंग से वहाँ हुयी घटनाओं के बारे में बताती जा रही थी. बहुत ही हौलनाक किस्से थे...जलती भट्ठियों में जिन्दा फेंके गए लोगों की...बाड़ों से सट कर आत्महत्या करते लोगों की...ठंढ में ठिठुरते हुए हम वक्त में बहुत पीछे चले गए थे. बिर्केनाऊ में किसी भी जगह पर खड़े होकर देखने से दूर दूर तक सिर्फ बाड़ों की दो कतार दिखती है...जमीन आसमान जब कटा हुआ.
औस्वित्ज़ बिर्केनाऊ में चलते हुए ऐसा बार बार लगता है कि वहाँ घटी हुयी घटनाएं आपकी आँखों के सामने दुबारा घट रही हैं. लोगों की चीखें...उनका धोखे से मारे जाना...जर्मन SS...सब दिखते हैं. वहाँ जाना किसी कैदखाने में जाने जैसा है. कितना भी चाह लेने पर वो तसवीरें कहीं नहीं जातीं. एक पुराने गिरे हुए काली ईटों के मलबे से दहशत होती है...राख का ढेर देखते हुए सोचती हूँ कि यहाँ जो खाना खा रही हूँ...जमीं में जाने किसके शरीर के अवशेष बाकी होंगे.
हम जिंदगी को कितना टेकेन फॉर ग्रांटेड लेते हैं...और प्यार को...दोस्ती को? एक एक सांस को तरसते लोगों की चीखें वहाँ की बारिश में घुल गयी हैं. मेरा मन शांत नहीं होता. अंदर इतना कुछ भरा हुआ है...जाने कितनी किस्तों में बाहर आएगा. ऐसा लिखना हर बार मुझे अंदर से तोड़ता है. मैं वहाँ भटकती अनेक आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करती हूँ.
पहली बार आपसे मृत्यु की कहानी सुन रहे हैं, वह भी इतनी भयावह...परिस्थितियों पर विश्वास ही नहीं होता है।
ReplyDeleteबड़ा कठिन और अजीब लगता है एक जिंदादिल से मृत्यु की बातें सुनना
ReplyDeleteमृत्यु की कहानी! सहज ही विश्वास नहीं होता कि मनुष्य इतना क्रूर भी हो सकता है। दैत्यों-राक्षसों की कहानियाँ तो बौनी सी लगने लगी हैं इस कहानी के आगे। इतना क्रूर मिशन शायद इतिहास में और दूसरा नहीं हुआ होगा।
ReplyDelete'डायरीज़' में दमन और नरसंहार के कैम्प्स का इंटेंस अनुभव लिखने के लिहाज़ से काफी मुश्किल रहा होगा.पर शुक्रिया इसे सामने लाने का.इसे पढ़ने के दौरान उभरी छवियों में एक चौदह साल का बच्चा भी था जो फेटलेस फिल्म में इन्ही या ऐसे ही केम्प्स में अलक्ष्य सी ताकती आँखों से सब कुछ देखता है...अपने ही शरीर की पीडाओं को भी दूर किसी जगह से जैसे.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति! मेरे नए पोस्ट "छाते का सफरनामा" पर आपका हार्दिक अभिनंदन है। धन्यवाद।
ReplyDeleteआंकड़े भी तस्वीर बनाते हैं, और दस्तावेज़ भी तस्वीर बनाते हैं। सवाल तो ये है कि क्या हम उन तस्वीरों से, अपने गंदले इतिहास के चटखे हुए आईने से कोई सबक ले पाते हैं? क्राकोव डायरीज़ की हर किश्त तुम्हारी इस स्वीकारोक्ति से शुरु होती है कि सबकुछ शब्दों में बयान करना कितना मुश्किल है...एक ऐसी मुश्किल जो हमारे लिए भी पूरे लेख के दौरान मौजूद होती है कि अगर ये पढ़ना इतना मुश्किल है तो तुम्हारे लिए उसे देखना, और फिर शब्दों में ढालना कितना मुश्किल होगा। लेकिन दरअसल, ये तुम्हारी मुश्किल और संवेदनशीलता ही है जो क्राकोव डायरीज को इतना पठनीय बना रही है, और ये मुश्किलें, पठनीयता के अनुक्रमानुपाती है, ये मानकर चलना।
ReplyDeleteपूजा, मानवता के खिलाफ ये जघन्य अपराध नए नहीं हैं...तरीके बदलते रहे हैं और आंकड़े भी। लेकिन उसके पीछे की वजहें, हर हत्या के पीछे मौजूद दूसरे को कमतर मानना की, घृणा करने की भावनाएं नहीं बदलीं। पोलैंड,वियना,ऑस्ट्रिया,जर्मनी में जो कुछ दफन है उसकी कुछ झलकियां तुम आज की दुनिया में भी देख सकती हो। जो इराक में सुन्नी होने के नाम पर शियाओं के खिलाफ सद्दाम ने किया...जो लीबिया, सूडान और अमेरिका के अनजाने यातना शिविरों में आजतक हो रहा है। हम कितना जानते हैं और कितना जान सकते हैं? सरकारें हमें छलती रहती हैं और हम भेड़ बने, किसी अज्ञात इशारे पर अपने रात और दिन गुजारते जिंदगी काट देते हैं।
समय सदैव से प्रेम और मनुष्यता का शत्रु रहा है। बलिखोर। और हम जाने किन आदेशों का पालन करते कभी घृणा और कभी और भावनाओं के अधीन हो उसे बलियां चढ़ाते रहे हैं।
कभी असुरक्षा की भावना प्रबल हो जाती है, कभी अपने धर्म-जाति-राष्ट्र-आर्थिक स्थिति-समाज को श्रेष्ठतर मानने की...भेद मानने की तो कोई सीमा ही नहीं है ना।
बहरहाल, मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि मानवता कि विरुद्ध हो रहे ये जघन्य अपराध अभी थमे नहीं हैं। छोटे और बड़े, दृश्य और अदृश्य रुपों में अब भी जारी हैं...क्या हमारा कोई वश कभी चल पाएगा इन पर या हम हमेशा इतिहास की किरमिचें बीनते रहेंगे, दशकों-दशक बीत जाने के बाद।
एक और बात, पूरा वृतांत तुम इतने अधिकार के साथ लिख रही हो कि एक क्षण के लिए भी नहीं लगता कि मैं कोई यात्रा वृतांत पढ़ रहा हूं। ये एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज का हिस्सा लगता है...पूरी क्राकोव डायरी के एक अद्वितीय किताब में तब्दील होने की मैं पूरी संभावना देख रहा हूं। तुम रुचि लो तो कुछ परिचित प्रकाशकों से बात भी की जा सकती है। शेष बाद में,
बाकी किश्तों का इंतजार है।
Acha likhti hain aap. 2 3 post padhe ,saare aache lage.
ReplyDeleteunbelievable! horrifies body mind n soul!
ReplyDeleteमैं आपकी प्रार्थनाओं में शामिल हूँ, ज़िंदगी इतनी सस्ती नहीं हो सकती जितनी ये सब पढने के बाद लगी | वाकई में सभी को इस खुले आसमान में जीने का बराबर का हक़ है !!!
ReplyDeleteआपकी ये क्राकोव डायरी जाने कितनी बार पढ़ चूका हूँ...क्राकोव के बाद बड़े दिनों से कुछ लिखा नहीं आपने?
ReplyDeleteउम्दा पोस्ट |
ReplyDeleteitna sab padne ke bad bhagwan or religion se nafrat hone lagti h
ReplyDeleteitna sab padne ke bad religion or bhagwan se nafrat hone lagti h..akhirkar god h kya..insaan bhagwan ki nahi apne desires ki pooja karte h
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ और क्राकोव डायरीज की सभी छः किस्तें पढ़ डालीं. कुछ लिखने की मनःस्थिति में नहीं रह गया हूँ.
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