पिछले काफी दिनों से कुछ लिखने की कोशिश कर रही हूँ...मगर कुछ तसवीरें ज़हन में इतने गहरे बैठ गयी हैं कि उन्हें निकालना नामुमकिन लग रहा है. उपाय लेकिन कोई है नहीं...सिवाए इसके कि लिखा जाए. मेरी डायरी के पन्ने बहुत तेज़ी से भरते जा रहे हैं...मैं किसी भी हाल में अकेले नहीं रहना चाहती. इस पोस्ट को लिखने के पहले शुक्रिया उन सभी दोस्तों का मेरी कहानियों को सुनने के लिए कि अगर उनसे बात न की होती तो जाने और कैसी मानसिक स्थिति में रहती.
औस्वित्ज़ की शुरुआत एक पोलिश राजनैतिक अपराधियों के लिए श्रम शिविर की तरह हुयी थी. काम्प्लेक्स के पहले वो लोहे का दरवाज़ा होता है जिसकी आर्च पर जर्मन में लिखा हुआ है 'Arbeit mach frei' इसका अनुवाद होता है 'काम तुम्हें आज़ाद करेगा' यहाँ आज़ादी का मतलब मृत्यु है. शिविर अलग अलग ब्लोक्स में बंटा हुआ है और जहाँ तक नज़र जाती है कंटीली बाड़ है जिनमें पहले बिजली दौड़ती थी.
जुविश लोगों को ये बोल कर यहाँ लाया गया था कि उन्हें यहाँ काम करना होगा और जर्मन उनके काम के लिए उन्हें पैसे भी देंगे. ऐसा कोई भी नहीं सोच सकता था कि जर्मन उन्हें सिर्फ मार देना चाहते हैं. ऊपर के फ्लोर पर उनकी वस्तुएं देखने के बाद हम बेसमेंट की ओर बढ़े. बेस्मेंट्स इन शिविर के जेलों का कार्य करते थे...अपराधियों को सजाएं यहाँ दी जाती थीं. नीचे की ओर जाती सीढ़ियों में एक मृत्युगंध बसी हुयी थी जो जैसे इतने सालों में भी डाइल्यूट नहीं हुयी है...उतनी ही सान्द्र जैसे अभी भी नीचे चीखते और धीरे धीरे मरते लोग मौजूद है. बेसमेंट में वैसे कमरे थे जिनमें लोगों को भूखा मारा जाता था. स्टारवेशन सेल्स...छोटे इन कमरों में कोई खिड़की नहीं थी और एक बार यहाँ किसी कैदी को बंद किया जाता था तो फिर कमरा उसकी मौत के बाद ही खुलता था. बेहद छोटे और सीलन से भरे इन कमरों में न हवा आती थी, न धूप न रौशनी.
औस्वित्ज़ में अलग अलग ब्लोक्स हैं...इसमें से एक ब्लोक है जहाँ पर जजमेंट होती थी...पोलिश लोग जो अलग अलग अपराध के लिए पकड़े जाते थे उनपर मुकदमा चलता था और अधिकतर केस में सजा एक ही होती थी...मौत. दीवार का एक हिस्सा है जिसकी ओर मुंह करके कैदी हो खड़ा होना होता था ताकि उसके सर में पीछे गोली मारी जाए. इसके आलावा लोगों को फाँसी देने के हुक भी वहीं मौजूद हैं.
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क्राकोव में गर्मियां चल रही थीं...तापमान कोई ३० डिग्री के आसपास था. खिली हुयी धूप और नीला आसमान और कुछ बेहद अच्छे लोग थे. वहाँ एक साल्ट माईन है जो जमीन से लगभग तीन सौ मीटर नीचे है और वहाँ १२ डिग्री का तापमान रहता है इसलिए हिदायत दी जाती है कि वहाँ जाने के लिए गर्म कपड़े जरूर रखें. मैं सुबह साल्ट माईन जाने के लिए चली थी इसलिए गर्म जैकेट थी साथ में. टूर ऑफिस पर गयी तो पता चला कि साल्ट माईन का टूर साढ़े चार बजे है जबकि औस्वित्ज़ का टूर साढ़े बारह बजे है जिसमें छः घंटे लगते हैं. टिकट १०० ज्लोटी की थी.
मुझे ठीक ठीक अंदाज़ नहीं था कि औस्वित्ज़ क्राकोव से कितनी दूरी पर है...बस की यात्रा डेढ़ घंटे की थी जिसमें हमें एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी जिसमें मुख्यतः इस बात का वर्णन था कि औस्वित्ज़ से रिहा हुए लोगों को डॉक्टर्स ने जब इक्जामिन किया तो उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति क्या थी. इसके अलावा कुछ ऐसी फुटेज भी थी जो औस्वित्ज़ में शूट की गयी थी जर्मन ऑफिसर्स द्वारा. द्वितीय विश्व युद्ध में औस्व्तिज़ सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. 'फाइनल सोलुशन टू द जुविश प्रॉब्लम' के तहत ५ मिलियन ज्यूस (यहूदी) यहाँ मारे गए थे.
जैसे जैसे बस क्राकोव से औस्वित्ज़ की ओर बढ़ती जा रही थी आसमान गहरे काले बादलों से घिरता जा रहा था...जैसे कि अँधेरा हमारा पीछा कर रहा हो. औस्वित्ज़ पहुँच कर जब मैं बस से उतरी तो मैंने अपना जैकेट अंदर रख दिया था क्योंकि मेरे हिसाब से बाहर मौसम गर्म था...बस से उतरते ही बेहद सर्द हवा के थपेड़े महसूस हुए...मैंने तुरंत जा के अपनी जैकेट पहनी. धूप जा चुकी थी और आसमान पर काले बादल छा गए थे. औस्वित्ज़ म्यूजियम में जाने के लिए गाइड अनिवार्य है...हर गाइड के पास एक माइक होता है और उसे सुनने के लिए हमें हेडफोन दिए जाते हैं.
पहले ब्लाक में ग्राउंड फ्लोर पर बाथरूम हैं जिनमें कुछ तसवीरें बनी हुयी हैं जो कैम्प में कैद लोगों ने बनायी थीं. एक लंबा गलियारा है जिसके दोनों तरफ तसवीरें लगी हुयी हैं. बायीं तरफ महिलाओं की और दायीं तरफ पुरुषों की...हर तस्वीर में उनकी जन्म तिथि और कितने अंतराल तक वे शिविर में रहे अंकित है. अधिकतर कैदी छः महीने के अंदर मर जाते थे. मैंने आज तक बहुत तसवीरें, पेंटिंग्स देखी हैं मगर मैंने आजतक वैसी जीवंत आँखें कभी नहीं देखीं. यकीन ही नहीं होता था कि ये मर चुके लोग हैं...एक एक तस्वीर जैसे आपकी रूह में झांकती हुयी प्रतीत होती है...जैसे उस गलियारे के सारे लोग मरने के बावजूद अपनी आखिरी निशानी उस तस्वीर में आ कर रहने लगे हैं. गुजरते हुए लगता था उनकी आँखें पीछा कर रही हैं. उनमें से कुछ तसवीरें ऐसी भी थीं जहाँ मुस्कराहट का एक कतरा मिलता था...कैदियों की आँखों में, होठों पर...अनगिन साल पहले मरे हुए लोगों की तस्वीरों को सीने से लगा कर फूट फूट कर रोने का मन करता था.
पहले तल्ले को जाती हुयी सीढ़ियाँ घिसी हुयी थीं...सोच कर आत्मा सिहरती थी कि इन्ही सीढ़ियों पर कितनी बार लोग कितनी पीड़ा में गुज़रे होंगे...वे क्या सोचते होंगे सुबह शाम यहाँ से काम को जाते और आते हुए. पहले तल्ले पर पहुँचने के पहले हमारी गाइड ने अनुरोध किया कि इस तल पर तसवीरें न लें. औस्वित्ज़ के बारे में मैंने जितना, पढ़ा, सुना और डॉक्यूमेंट्री देखी है कि मुझे तैयार होना चाहिए था...मगर सामने लगभग सौ फीट लंबे उस ऊंचे से शीशे के पीछे लोगों के बाल थे...उन्हें देखते ही जैसे फिजिकल धक्का लगा...जैसे किसी ने वाकई कोई खंजर उतार दिया हो सीने में...मुझे हल्का चक्कर आ गया और उलटी आने लगी...मैंने खम्बे का सहारा लिया...मृत लोगों के अवशेषों को देखना किसी सदमे जैसा था...वो जगह इतनी डिस्टर्बिंग थी कि जान दे देने का मन कर रहा था. हमारी गाइड ने अपना माइक बंद किया और पास आ कर मेरी पीठ सहलाई...पूछा कि मैं ठीक हूँ. मैं ठीक नहीं थी...मैं बहुत रोना चाहती थी...मैं किसी का हाथ पकड़ना चाहती थी...मगर खुद को संयत करने की कोशिश की. गाइड ने हमें बताया कि ये एक बेहद छोटा हिस्सा है...जिन लोगों को गैस चेम्बर्स में मारा जाता था उनके बाल उतार लिए जाते थे और जर्मनी भेजे जाते थे. वहाँ इन बालों से कपड़े बनाए जाते थे. वहाँ उस कपड़े से बना एक कोट और एक दरी मौजूद थी.
मुझे नहीं मालूम युद्ध और उसकी मजबूरियां क्या होती हैं मगर ऐसा क्या होता होगा कि कोई मनुष्य मृत लोगों के बालों से बने कपड़े को पहनने को राजी हो जाता होगा. अगले कमरे में जूतों का संग्रह था...दायीं और पुरुषों और बायीं ओर महिलाओं के जूते थे. हमारी गाइड हमें बताती जा रही थी कि ये सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है उन चीज़ों का जो औस्वित्ज़ से बरामद हुए थे. आगे के कमरों में बक्से थे...जिनपर लोगों के नाम, उनके रहने का स्थान और कई बार कुछ धार्मिक चिन्ह भी बने हुए थे. एक कमरे में चश्मे के फ्रेम...जूते साफ़ करने के ब्रश और क्रीम...और आगे खाना पकाने के बर्तन थे. लोग चुप चाप सर झुकाए हुए इन चीज़ों को देखते चल रहे थे. बच्चों के दूध के डिब्बे, उनके बिब और बाकी सामान. टेबल पर जर्मन गार्ड द्वारा बनाये गए मृत लोगों की लिस्ट्स भी थी कि एक दिन में कितने लोग पहुंचे.
बेसमेंट में ही पहली बार जाय्क्लोन बी के एक्सपेरिमेंट भी हुए थे. बेसमेंट में पहली बार जाय्क्लोन बी गैस से कैदियों को मारा गया था...सही मात्रा का अनुमान करने में बहुत वक्त लगा था...शुरु के एक्सपेरिमेंट में लोगों को मरने में अक्सर बीस दिन तक लग जाते थे. (तथ्य मेरी याददाश्त पर है...इन्टरनेट पर अवधि २० घंटे बतायी गयी है). हायड्रोजेन साइनाइड के असर से लंग्स फूल जाते थे और इंसान सांस नहीं ले पाता था.
इनके साथ थे स्टैंडिंग सेल्स. लगभग डेढ़ मीटर बाय डेढ़ मीटर के ईटों के बने कमरे. फोन बूथ की तरह छोटे और बंद...उनमें प्रवेश करने के लिए लगभग दो फुट बाय दो फुट की का एक दरवाजा होता था नीचे की ओर. कैदी को इसमें बैठ कर घुसना होता था और फिर कमरे में खड़े होना होता था. ऐसे छोटे कमरे में अक्सर चार कैदी एक साथ बंद किये जाते थे. बेहद घुटन भरे इन ताबूतनुमा कमरों में कैदी जल्द ही मर जाते थे. दिन भर हाड़तोड़ मेहनत और रात को स्टैंडिंग सेल्स में खड़े रहना...अँधेरे में...बिना हवा के. एक तो बेसमेंट एरिया होने के कारण वैसे भी हवा का आवागमन नहीं रहता था उसपर बेहद संकरे गलियारों और कमरों से भरी जगह थी. अमानवीयता की हद बनाती इन सेल्स को देख कर वाकई मृत्यु ज्यादा आसान प्रतीत होती थी. वहाँ खड़े होकर सोच रही थी कि एक रेस से अगर नफरत है तो उसे गैस चेम्बर भेज कर मार देना फिर भी समझ आता है मगर क्रूरता के ऐसे कमरे बनाना...ऐसा किस मनुष्य के अंदर ख्याल आया होगा...क्यूँ आया होगा. उन सारे गलियारों में मौत आज भी दबे पांव घूमती दिखती है. मन के अंदर ऐसा भय तह लगाता जाता है कि उससे निकलने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रहती.
दीवार जहाँ कैदियों को गोली मारी जाती थी |
ब्लोक नंबर २१ इनका मेडिकल ब्लोक था जिसके यहाँ के कैदी स्टॉप टू एक्स्टर्मीनेशन कहते थे.बीमार कैदी जो यहाँ लाये जाते थे, वापस स्वस्थ होकर कभी अपने बैरक में नहीं लौटते थे बल्कि सीधे इन्सिनेरेटर में जाते थे. इन्सिनेरेटर मृत शरीर को जलाने के लिए गैस चेंबर में मौजूद होता था. यहाँ पर अनेक मेडिकल एक्सपेरिमेंट भी हुए. जर्मन डॉक्टर बेहद क्रूर और खतरनाक मेडिकल एक्सपेरिमेंट करते थे. इनमें से कुछ थे पेशेंट्स में गैंग्रीन डाल देना...बच्चों की आँखों में केमिकल डाल कर देखना कि आँखों का रंग बदला जा सकता है कि नहीं...औरतों के यूट्रस में केमिकल डाल कर उन्हें सील करना.
औस्वित्ज़ में एक गैस चेंबर भी था. गाइड ने इसके बारे में हमें बाहर ही जानकारी दे दी ताकि अंदर किसी को कोई सवाल न पूछना पड़े. वो एक छोटी सी ईमारत थी, एक तल्ले की जिसमें एक चिमनी दिख रही थी. अंदर गहरी काली दीवारें थीं और वही गंध...मौत की...दहशत की...सन्नाटा कैसे चीखता है ऐसी जगहों पर पता चलता है. वहाँ कोई कुछ नहीं कह रहा था मगर आवाज़ में कई साल पहले की चीखें मौजूद थीं...आवाजें कहीं नहीं जातीं...लोग कहीं नहीं जाते...वहीं ठहरे रहते हैं. गैस चेंबर में एक इन्सिनेरेटर भी था. मरे हुए लोगों को उसी में जलाया जाता था.
मैंने बहुत पढ़ा था नाजी अत्याचारों के बारे में, ज्यूस की सिलसिलेवार हत्या के बारे में, होलोकॉस्ट और कोंसेंट्रेशन कैम्प के बारे में मगर कोई भी जानकारी उस भयावह अनुभव के लिए तैयार नहीं कर सकती थी. आखिर ऐसा क्या होता है कि इतने सारे लोग एक साथ अमानवीय बर्ताव करने लगते हैं. औस्वित्ज़ के उन ब्लोक्स में मौजूद खिड़की से दिखते एक टुकड़ा आसमान और दूर तक जाती कंटीली बाड़ों को देखते लोग क्या सोचते होंगे...वहाँ चलते हुए हर उम्मीद से भरोसा उठ जाता है...किसी धर्म में विश्वास नहीं रहता. जिंदगी...लोग...सूरज की रौशनी...जैसे जिंदगी से सब कुछ चला जाता है. साधारण सी दिखती इन लाल ईंट की इन इमारतों में कितनी रूहें कैद हैं.
मैंने खुद को बेहद बेहद तनहा, असहाय और नाउम्मीद महसूस किया...जैसे जिंदगी में खुशी अब कभी नहीं लौटेगी. बारिशें शुरू हो गयीं थी. वहाँ से थोड़ी दूर पर बिर्केनाऊ था जहाँ पर मुख्य एक्स्टर्मीनेशन शिविर और गैस चेंबर थे. बस के सारे यात्री वापस आ के बैठ गए. कहीं कोई कुछ बात नहीं कर रहा था...सब चुप थे...उदास...अपने में अकेले...मौत की परछाई बादलों सी सियाह थी.
one of your best write up puja...
ReplyDeleteमेरा मानना है हर यात्रा आपके भीतर कुछ डालती है .एक मूवी याद आ रही है एंटी नीओ की नाम याद नहीं आ रहा जिसमे उसे अनुभव होता है किसी गुमशुदा व्यक्ति के बारे में वो कहाँ है कैसे हालात में है ...उसके किसी रिलेटिव को छूकर ,उसे देखकर नींद यद गयी थी
ReplyDeleteआज ही लिखना था ?
ReplyDeleteहिटलर एक बेहद सनकी, पागल और खूंखार आदमी था. अहा जिंदगी में एक बार उसके जीवन की किताब आई थी. अन्दर ही अन्दर तैयार हुआ वो आदमी अपने देश को अगर कुछ दे कर गया तो बस एक शर्मनाक कलंक... मुझे तसल्ली मिलती अगर वो बाहर आ कर मारा जाता उसी तरह से जैसा तुमने लिखा है. मुझे ये समझ नहीं आया आज तक कि एक आदमी पागल हो सकता है क्या वहां से सारे अधिकारी पागल हो गए थे ?
ReplyDeleteअपने इसी हादसे के कारण वो मंज़र आज भी जर्मनी और पोलैंड के लोगों के नज़रों में ठहरे हैं और वो सूखे, ठंढे और जाने कैसे नज़र आते हैं... जैसे हमारे उम्र के वो लोग जिन्होंने विभाजन देखी थी, वो हालत के बनावट हैं...
jo tumne mehsuus kiya ..sab jhalak raha hai yahan...bhay ,avsaad,baarish,dhuup ,khud ko khona-paana...
ReplyDeleteजितनी बार भी इस तरह की फिल्में देखी हैं, मन दुखी हो जाता है। आज भी पढ़ कर मन दुखी हो गया।
ReplyDeleteकुछ कहने को नहीं है. अच्छा किया कि जैसा महसूस किया वैसा दर्ज कर दिया...
ReplyDeleteक्या कहूं। क्या सोचकर आया था रात के ढाई बजे तेरे पास। फिल्में देखी हैं, पर हिटलर के बारे में ज्यादा पढ़ा नहीं है, सिवाय द्वितीय विश्वयुद्ध पर लिखे कोरे इतिहास के। लेकिन जो कहानी यहां दरियाफ्त हुई है, वो भयानक है। पढ़कर एक भय सा बैठ गया। घटना के अनेक दशकों बाद तेरे लिए ये देखना, और उस देखे हुए को हमारे लिए पढ़ना अगर रुह कंपा देता है..तो उन रूहों पर क्या गुज़री होगी, जिन्होंने ये भोगा था...और दूसरों को भोगते हुए अपनी आंखों से देखा था। पूजा, शायद दर्द की भी एक सीमा होती है...और उस दर्द की उस सरहद के पार सब खत्म हो जाता है...तकलीफ, दर्द, अफसोस...क्या पता...
ReplyDeleteपढ़ कर ही रूह कंकंपा गयी है ...तुमने कैसे देखा होगा , उन लोगों ने कैसे झेला होगा !!
ReplyDeleteअब यकीन हो रहा है कि यक़ीनन अब हम विकसित सभ्यता से हैं !
पूजा की आँखों से महसूस कर रहा हूँ हिटलर की दरिन्दगी को जिसके आगे शब्द बहुत बौने लग रहे हैं।
ReplyDeleteयह ख़ौफ़नाक मंज़र हमेशा ज़िन्दा रहना चाहिये ....मौत से नहीं बल्कि नफ़रत और हैवानियत से दुनिया को रू-ब-रू कराने के लिये। सत्ता जब ज़ाहिलों की हाथ में पहुँचती है तब अकल्पनीय इतिहास के पन्ने कालिख में डुबो-डुबो के लिखे जाते हैं। ये यातना शिविर इसलिये भी ज़िन्दा रहने चाहिये ताकि लोग अब कभी ऐसी यातनाओं के लिये मज़बूर न हों।
तुम दुःखी हुईं...क्योंकि तुमने वहाँ की फ़िज़ां में बसी अमानवीय चीखों को सुन लिया... और देख ली निरंकुश मानव की हैवानियत को। ...किंतु सिर्फ़ इसी कारण मैं तुमसे यह नहीं कहूँगा कि ऐसी जगह मत जाया करो। क्योंकि ऐसी यादों के फ़ॉसिल्स दर्द के साथ और भी बहुत कुछ दे जाते हैं जो हमारी सोच को पूर्वापेक्षा और भी व्यापक और लोककल्याणकारी बना देते हैं।
Yakin nahi aata, if ever humanity suffered like this!
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ReplyDeleteI dont know what to say Puja...
ReplyDeleteहर ऐसी जगह की त्रासदी के बारे में चाहे आपने जितना पढ़ रखा हो जब तक आप उसे करीब से देख नहीं लेते तब तक शिद्दत से उस दर्द का अनुभव नहीं कर पाते जो वहाँ के लोगों ने सहा है। हिरोशिमा की यात्रा ने मन को ऐसा ही अवसादग्रस्त कर दिया था । बहरहाल संवेदनशीलता से भरा बेहतरीन लेख !
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