28 February, 2009

क्या तुमने है कह दिया

देखती हूँ तुम्हें
जाने किनसे बात करते हुए
खिलखिलाते रहते हो जाने किस बात पर
दिल चाहता है एक वैसा लम्हा चुरा लूँ

जब तुम नींद में मुस्कुराते हो
और जाग कर कुछ याद नहीं रहता
कुछ टूटा टूटा सा बताते हो
सोचती हूँ उस मुस्कराहट को काश
किसी डिब्बी में बंद कर रख सकती

क्रिकेट देखते समय खाना भूल जाते हो
एक एक कौर तुम्हें खिला देने का मन करता है
चुपचाप थाली में पांचवां पराठा दाल देती हूँ
और जब तुम देखते हो गिनती पर झगड़ती हूँ
वो झगड़े प्यार से मीठे होते हैं...

तुम्हारे साथ बाईक पर पीछे बैठे हुए
जाने किन किन भगवानों को याद करती चलती हूँ
तुम कहते हो भरोसा नहीं है
पूछती हूँ कि किसपर? भगवान पर या तुमपर
तुम पर तो है... :)

पर क्या? यही कि तुम गिरा दोगे :)


कुछ खास नहीं...बस कुछ बिखरे हुए शब्द हैं...ऐसे ही, बुलबुलों की तरह एक पल की जिंदगी।



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27 February, 2009

आखिरी बार कहे देत हैं की ई हमार बिलोग नाही है

कल ही बाबूजी अखबार पढ़ कर बताये रहे "अब ब्लॉग लिखने वाला भी कानून के चंगुल से बाहर नहीं है"...हम पूछे कि बाबूजी जी ये बिलाग क्या होता है और अगर कोई लिख deve तो? तो हमको हमरे बाबूजी बताये रहिस कि ब्लॉग लिखे वाले को पुलिस ले जाएब ...हाय रे मुआ कोई लिखाई पढ़ाई करता ही काहे है। अब बताओ, भैंस से अंग्रेजी में बात करे से बेसी दूध देगी का? हम तो बस एक ही बार में मैट्रिक फेल हो के आराम से बैठल थे...कि इनका बुलावा आ गया, गौना करा के भेज दी हमार माई हमको। तब्बे से यहीं रोज घर का सारा साना पानी देखते हैं, चूल्हा चौका और रोज सास के पैर दबाय रहे हैं...कभी कभार बाबूजी का मन हो जाए है तो अखबार सुना देत हैं। वैसाहों अख़बार में धरा का है, रोजे एक्के चकल्लस, एकरा मार देला, ओकरा लूट लेले...औरो का। अब बतावा ये नया बखेड़ा हो गइल बिलोग वाले...ऐसाही का कम बदमास लोगन था की अब ई बिलोग वाला भी आ गइल।

हमका का है हम अपना घर गिरस्थी में ठीक बानी...हम अब तनी झाडू मार के आवतानी. हियाँ उनके कम्पूटर है...दिन भर खितिर पिटिर करह रहे...हमरो आवे है थोडा बहुत मेल उल देखे लायक...उ का कहत है, हम भी इ-लिटरेट हैं. हम चौका में रही की इ(नाम नहीं लेवे हैं मरद का) हमरा बुलाय रहे...कंप्युटर में कोई काम कर रहे, हमका दिखाए तो हम तो हाय राम मर ही गए...इ पुतुरिया कौन है जी...एकदम हमार बहिन laage है kaisan बन ठन के खड़ी है धुप चस्मा लगाय के, कौन है जी?

अब इ हमरा ऐसन डांटे सुरु किये की हम का बताएं...ई छम्मकछल्लो बन के कहाँ फोटो खिचाये रही, हमरा बतावा अभी...हमरा से छुपे के बिलागिंग करत रही, अभी तोहरा पुलिस में डाल देबे बताये है की ना? इ बिलागिन का भूत चढ़ा है...छि छि का का लिखत रही...सिगरेट, दारु...उ भी बिदेसी...दिल्ली...तोरे सात पुश्त में कोई दिल्ली देखे है? अभी बतावा वर्ना ऐसन मार लागत की सब भूते भाग जैता।

नाही जी...हमरा ई सब नहीं आवे है...ई पूजा मेमसाब कोई और रही...हम तो यही चौका बासन में खटे रही दिन भर, लिखा पढ़ी कैसे करी...हम तो मैट्रिक फेल रही ना। बहुत्ते हाथ पैर जोड़े गोसाई देवता के सौगंध खाए तब जा कर उ माने की इ हमार बिलोग नहीं है. नाही तो हम अभी थाने होते...तब इ बिलोग कौन लिखता.

हम ई आखिरी बार लिख रहे हैं की ई हमार बिलोग नाही है...ई सब जो लिखा है ऊ कोई और है...कोई पुलिस वाले भैय्या हमार गाँव नाही आये...वैसाहों बड़ी रास्ता खराब है...आप सबको हमार नाम से जो भरमाया उकार ऊँगली दुखे...माथा दुखे...ऊ चार बार मैट्रिक फेल करे।

बस...अब जावत हैं, गोसाई देवता आप सब पर किरपा करे.

26 February, 2009

सावित्री...अंधेरे से रोशनी की ओर

बहुत सी चीज़ें ऐसी होती हैं जो अचानक से आती हैं और जिंदगी में कई मोड़ों पर बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सहायक होती है। इसी तरह कुछ लोग ऐसे होते हैं जो एक लम्हे में ही कुछ ऐसा रिश्ता कायम कर लेते हैं कि लगता है उन्होंने हमारी रूह को छू लिया है...और हम अन्दर से कुछ एकदम नए हो जाते हैं...जैसे कि पहले कभी नहीं थे। किसी एक शख्स का आना जैसे गहनतम अन्धकार में रोशनी की एक किरण जैसा होता है, भले उसके आने से अँधेरा पूरी तरह न मिट पाये पर वो पहले की तरह का अँधेरा नहीं रह जाता...

सावित्री और सत्यवान की कहानी लगभग हम सब लोग जानते हैं...मुझे न जाने क्यों बचपन से ये कहानी बड़ी आकर्षित करती है...कुछ बड़े होने पर थोड़ा अंदाजा हुआ कि क्यों...हमारे बिहार में एक व्रत रखा जाता है वट-सावित्री, आम बोलचाल की भाषा में इसे बरसाएत कहते हैं, मेरा जन्म इसी व्रत के पारण के दिन हुआ था। यानि व्रत रखने के दूसरे दिन, जब सुबह को औरतें वट वृक्ष की पूजा कर के पारण करती हैं यानि अन्न जल ग्रहण करती हैं।

सावित्री के बारे में सोच कर लगता था, कैसी होगी वह स्त्री जो यमराज से अपने पति को जीत लाती है...उसकी विद्वता और उसकी अदम्य इच्छाशक्ति प्रेरक लगी है मुझे...और सबसे बढ़कर उसका प्रेम जो नारद की इस भविष्यवाणी पर भी अटल रहता है कि जिससे वह शादी करने जा रही है वह एक साल में मृत्यु को प्राप्त होगा।

सावित्री से दूसरी बार परिचय कराया कुणाल ने...या यूँ कहूँ कि सावित्री ने हमारा परिचय कराया तो ग़लत न होगा...शुरुआत इस पंक्ति से हुयी
"I am the static oneness and you are the dynamic power"
यह पंक्ति इतनी सुनी सुनी सी लगी जैसे आत्मा के अन्धकार में कहीं ज्ञान की कोई दीपशिखा जल उठी हो...इस एक पंक्ति के रहस्यों को खोजते हुए मैं श्री अरविन्द की सावित्री के पन्ने पढ़ती गई।
श्री अरविन्द के बारे में इससे पहले बस इतना ही पता था की वो एक स्वंत्रता सेनानी रहे हैं, पर उनके जीवन का ये आध्यात्मिक पक्ष बिल्कुल नहीं पता था मुझे।
सावित्री की पहली लाइन है
"It was the hour before the gods awake."
एक वाक्य जैसे सदियों से मन में घूमते सवालों का जवाब बन कर खड़ा था...भगवान भी सोते हैं...शायद इसलिए कई बार हमारी प्रार्थना सुन नहीं पाते। सावित्री सिर्फ़ एक किताब नहीं है, एक कविता नहीं है इसे पढ़ना जैसे किसी और आयाम में ले जाता है...ऐसे अनुभव जो शायद बिल्कुल अनछुए हैं नए हैं और शायद धरती पर रहकर महसूस नहीं किए जा सकते।

कई बार जब मुश्किलों का कोई रास्ता नही मिल पाता मैं सावित्री खोल लेती हूँ...इसके शब्दों में अजीब शान्ति है, मानो ये शब्द नहीं श्लोक हों...परम सत्य को शब्दों में लिख दिया गया हो जैसे।

मैं कुछ वो पंक्तियाँ लिख रही हूँ जो मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं...

A point she has reached where life must be in vain
Or in her unborn element awake
Her will must cancel her body's destiny
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The fixity of the cosmic sequences
Fastened with hidden and inevitable links
She must disrupt, dislodge by her soul's force
Her past, a block on Immortal's road
Make a rased ground and shape anew her fate.
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Her being must confront its formless cause
Against the universe weigh its single self.
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On the bare peak where Self is alone with Naught
And life has no sense and love no place to stand
She must plead her case upon extinctions's verge
In the world's death-cave uphold life's helpless claim
And vindicate her right to be and love.
-------------------

25 February, 2009

स्कूल की कुछ यादें

होली आ रही है...कायदे से तो अभी उसके आने में दो हफ्ते हैं पर हमारा मूड अभी से होलिया रहा है...कारण है की स्कूल के दिन याद आ रहे हैं।

फरवरी में हमारे फाईनल एक्साम होते थे...ये तो मत पूछिए की एक्साम कैसे होते थे...जरूरी ये जानना है की आखिरी एक्साम कैसा होता था। हमारा एक दिन में एक ही पेपर होता था और स्टडी लीव नहीं मिलती थी यानि हम जैसे टेबल पर सर रख के सोने वाले लोगों की आफत होती थी। बचपन से ही हमपर पढ़ने का बड़ा प्रेशर रहता था...ऐसा नहीं की इससे कुछ होता था। बस इतना की दोनों भाई बहनों में से किसी ने भी शैतानी की तो थोक के भाव में दोनों को डांट पड़ती थी। अगर मैं नहीं पढ़ रही हूँ...तो मेरे कारण छोटे भाई पर बुरा असर पड़ेगा, कुछ सीखने को कहाँ से मिले उसको, जब दीदी ही पढ़ाई लिखाई से भागती है तो वो तो छोटा है उसको कितना समझ है। और अगर वो किसी खुराफात में पकड़ा गया तो उसे डांट पड़ती थी की दीदी पढ़ रही है और तुम डिस्टर्ब कर रहे हो।

एक्साम के बारे में एक चीज़ बड़ी अच्छी लगती थी, सुबह सुबह दही चूड़ा खाने को मिलता था...उस वक्त ये ब्राह्मण का गुण हममें जोरो से विराजमान था, और हम तो अपने एक्साम के ख़राब होने का दोष भी खट्टे दही पर दाल देते थे। ऐसा दही खाकर भला एक्साम अच्छा जाता है किसी का...तुम जान के मेरा एक्साम ख़राब की मम्मी!

बस से स्कूल जाते वक्त हमारे शहर में एक वीआईपी मोड़ नाम की जगह आती है, वहां मछलियाँ बिकती थी...और नॉर्मली तो हमें मछली देख के उलटी आती थी पर एक्साम के समय चूँकि कहा जाता था कि मछली देखने से एक्साम अच्छा जाता है पूरी की पूरी बस के बच्चे बायीं तरफ़ की खिड़कियों पर झुक जाते थे बस एक झलक के लिए, कई बार तो लगता था बस ही उलट जायेगी।

हम बात कर रहे थे होली की...खैर, ये उन दिनों की बात है जब फाउंटेन पेन से लिखते थे, सुबह सुबह पेन की निब धो धा के रेडी और अक्सर इंक की बोतल भी साथ लेकर ही जाते थे। हालाँकि ६ सालों के अपने स्कूल में जब हमने पेन से लिखा कभी भी पेन का इंक ख़तम नहीं हुआ। हमें बाकी लोगो को देख कर आश्चर्य होता था की आख़िर क्या लिख रहे हैं की पेपर पर पेपर लिए जा रहे हैं...हाँ हर बार इंक की बोतल को निकाल कर डेस्क पर जरूर रख देते थे, अपने मन की तसल्ली के लिए।

मैंने बात शुरू की थी मन के होलियाने को लेकर...तो हमारे स्कूल का सेशन ऐसा था कि फरवरी में एक्साम ख़तम और फ़िर अप्रैल में नए क्लास शुरू होते थे। इस बीच होली आ कर गुजर जाती थी...स्कूल के अलावा हम लोगो का मिलना जुलना कम ही होता था। तो फाइनल एक्साम में न सिर्फ़ पेपर का डर था बल्कि ये भी strategy बनती थी की किसको कहाँ रंग लगाना है। और रंग यानि इंक....रंग लाना स्कूल में allowed नहीं था। और उसपर आलू वाले छापे...divider से खोद खोद कर लिखे गए वो ४२० या चोर या गधा....और वो मासूम अल्हड़पन अब बड़ा याद आता है।

लास्ट दिन वाला एक्साम लिखने का मन नहीं करता था...दिमाग तो शुरू से बाहर दौड़ते रहता था, बस किसी तरह पेपर निपटते थे और पूरा स्कूल जैसे होलिया जाता था। इंक और चौक का धड़ल्ले से प्रयोग होता था...पानी जैसी निरीह चीज़ भी वाटर बोतल में होने से खतरनाक अस्त्र का दर्जा हासिल कर लेती थी। भीगे रंगे थके हुए हम घर पहुँचते थे तो लगता था कितना बड़ा किला फतह कर के आए हैं।

फ़िर से फरवरी लगभग ख़त्म हो रही है, माहौल बिल्कुल से वही हो रहा है...बस वो बड़ा सा मैदान नहीं है जहाँ एक थर्मस पानी से भिगोने के लिए कोई १० राउंड दौड़ा दे। स्कूल की याद आ रही है...और उन चेहरों की भी.

23 February, 2009

बैद्यनाथ धाम की कहानी


मेरा बचपन देवघर में बीता...देवघर भोले बाबा की नगरी कहलाती है, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा बैद्यनाथ धाम है...हम कई किम्वदंतियां सुन कर बड़े हुए। देवघर मन्दिर के बारे में कथा है की एक रात में स्वयं विश्वकर्मा ने उसे बनाया है।

आज मैं देवघर शिवलिंग की कहानी आपको सुनाती हूँ जो शिव पुराण में सुनने को मिलती है...रावण भगवान् शिव का बहुत बड़ा भक्त था...उसे बहुत कठिन तपस्या की और एक एक करके अपने मस्तक भगवन शिव को अर्पित कर दिए...उसकी इस तपस्या से शंकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और उसके दसो मस्तक वापस ठीक कर दिए...यहाँ वैद्य की तरह शंकर भगवन ने उसके सर जोड़े इसलिए उन्हें भगवन वैद्यनाथ कहा गया। रावण ने वरदान माँगा की आप मेरे यहाँ लंका में चलकर रहिये। भगवन शंकर ने कहा तथास्तु, लेकिन तुम यहाँ से मुझे लेकर चलोगे तो जहाँ जमीन पर रखोगे मैं वहीँ स्थापित हो जाऊँगा तुम मुझे फ़िर वहां से कहीं और नहीं ले जा सकोगे। रावण खुशी खुशी शिवलिंग लेकर लंका की ओर चला।

यह समाचार जानते ही देवताओं में खलबली mach गई, अगर भगवन शिव लंका में स्थापित हो जायेंगे तो लंका अभेद्य हो जायेगी और रावण को कोई भी नहीं हरा सकेगा। इन्द्र को अपना आसन डोलता नज़र आया (हमेशा की तरह) तो सब विष्णु भगवान के पास पहुंचे की हे प्रभो अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। भोले नाथ तो भोले हैं उन्होंने रावण को वरदान दे दिया है और वो शिवलिंग लेकर लंका की तरफ़ प्रस्थान कर चुका है।

विष्णु भगवान ने देवताओं को चिंतामुक्त होने को कहा और वरुण देव को आदेश दिया की वो रावण के पेट में प्रवेश कर जाएँ । और विष्णु भगवान् एक ब्राह्मण का वेश धारण करके धरती पर चले आए। जैसे ही वरुण देव रावण के पेट में घुसे रावण को बड़ी तीव्र लघुशंका लगी, लघु शंका करने के पहले रावण को शिवलिंग किसी के हाथ में देना था, तभी वहां से ब्राह्मण वेश में विष्णु भगवान गुजरे रावण ने उन्हें थोडी देर शिवलिंग पकड़ने का आग्रह किया और वह ख़ुद लघुशंका करने चला गया...पर उसके पेट में तो वरुण देव घुसे हुए थे...बहुत देर होने से ब्राह्मण ने शिव लिंग को नीचे रख दिया। जैसे ही शिवलिंग नीचे स्थापित हुआ वरुण देव रावण के पेट से निकल आए।

रावण जब ब्राह्मण को देखने आया तो देखा कि शिवलिंग जमीन पर रखा हुआ है और ब्राह्मण जा चुका है...उसने शिवलिंग उठाने की कोशिश की लेकिन वरदान देने वक्त शिव जी ने कहा था की शिवलिंग जहाँ रख दोगे वहीँ स्थापित हो जाऊँगा। आख़िर में गुस्सा होकर रावण ने शिवलिंग पर मुष्टि प्रहार किया जिससे वह जमीन में धंस गया। फ़िर बाद में रावण ने क्षमा मांगी...और कहते हैं वह रोज़ लंका से शिव पूजा के लिए आता था।

जिस जगह ब्राह्मण ने शिवलिंग रखा वहीँ आज शंकर भगवान का मन्दिर है जिसे बैद्यनाथ धाम कहते हैं। मन्दिर के बारे में कई किम्वदंतियां प्रचलित हैं....जैसे की मन्दिर के स्वर्ण कलश को चोरी करने की कोशिश करने वाला अँधा हो जाता है। और मन्दिर के ऊपर में एक मणि लगी है....और मन्दिर के खजाने के बारे में भी कई कहानिया हैं। मन्दिर से थोडी दूर पर शिवगंगा है जिसमें सात अक्षय कुण्ड हैं...कहते हैं कि उनकी गहराई की थाह नहीं है और वो पाताल तक जाते हैं।

बाबा मन्दिर में संध्या पूजा के लिए जो मौर(मुकुट) आता है वो फूलों का होता है और उसे देवघर सेंट्रल जेल के कैदी ही रोज बनाते हैं। आज शिवरात्रि के दिन बहुत भीड़ होती है मन्दिर में और देवघर में बच्चे से लेकर बूढे तक व्रत रखते हैं. शाम में शिवजी की बारात निकलती है जिसमें भूत प्रेतों होते हैं बाराती के रूप में...अलग अलग वेश भूषा में सजे बारातियों और नंदी का नाच देखते ही बनता है.

मुझे आज के दिन मिलने वाली आलू की जलेबी बड़ी याद आ रही है :) सिंघाडा का हलवा भी कई जगह मिलता है...आप समझ सकते हैं की बच्चे ये मिठाइयां खाने के लिए ही व्रत रखते हैं. कुंवारी लड़कियां अच्छा पति पाने के लिए व्रत रखती हैं...ताकि उन्हें भी शिव जी जैसा पति मिले जैसे कि माँ पार्वती को मिला था.
आज के लिए इतना ही।

ॐ नमः शिवाय

22 February, 2009

भागलपुरी या अंगिका...एक विवेचना

मैंने पिछली पोस्ट में अंगिका या भागलपुरी भाषा का जिक्र किया था...इस बारे में ज्ञान जी का सवाल था कि भागलपुरी को अंगिका क्यों कहते हैं। मैं आज इसी का जवाब देने को कोशिश करुँगी। थोड़ा सा इतिहास में चलते हैं और मिथकों में तलाशते हैं...अंगिका अंग देश की भाषा है।

अंगिका के बारे में बात करने से पहले अंग प्रदेश की बात करते हैं। अंग का पहला जिक्र गांधारी, मगध और मुजवत के साथ अथर्व वेद में आता है। गरुड़ पुराण, विष्णु धर्मोत्तर और मार्कंडेय पुराण प्राचीन जनपद को नौ भागों में बांटते हैं...इसमें पूर्व दक्षिण भाग के अंतर्गत अंग, कलिंग, वांग, पुंडर, विदर्भ और विन्ध्य वासी आते हैं।

बुद्ध ग्रन्थ जैसे अंगुत्तर निकाय में अंग १६ mahajanpadon में एक था (चित्र देखें)





अंग से जुड़ी हुयी सबसे prasiddh kahani महाभारत काल की है। पांडव और कौरव जब द्रोणाचार्य के आश्रम से अपनी शिक्षा पूर्ण करने लौटते हैं तो अर्जुन के धनुर्विद्या कौशल का प्रदर्शन देखने के लिए प्रजा आती है...यहाँ वे अर्जुन का प्रदर्शन देख कर दंग रह जाते हैं. पर तभी भीड़ में से एक युवा निकलता है और अर्जुन के दिखाए सारे करतब ख़ुद दिखाता है और अर्जुन से प्रतियोगिता करना चाहता है. द्रोणाचार्य ये देख चुके थे कि वह युवक बहुत प्रतिभाशाली है और अर्जुन को निश्चय ही हरा देगा...इसलिए वह उससे उसका कुल एवं गोत्र पूछते हैं यह कहते हुए कि राजपुत्र किसी से भी नहीं लड़ते...

दुर्योधन ये देख कर अपनी जगह से उठता है और उसी वक्त कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करता है...यह कहते हुए कि अब तो प्रतियोगिता हो सकती है। द्रोणाचार्य तब भी उसके कुल के कारण उसे एक राजपुत्र का प्रतियोगी नहीं बनने देते हैं. कर्ण को सूतपुत्र कहा जाता है जबकि वास्तव में वह कुंती का पुत्र होता है जिसका कुंती ने परित्याग कर दिया था क्योंकि वह उस समय पैदा हुआ था जब कुंती कुंवारी थी. यहाँ से दुर्योधन और कर्ण की मैत्री शुरू होती है जिसे कर्ण अपनी मृत्यु तक निभाता है...क्योंकि दुर्योधन ने उसका उस वक्त साथ दिया था जब सारे लोग उसपर ऊँगली उठा रहे थे.

महाभारत और मसत्य पुराण में लिखा है की अंग प्रदेश का नाम उसके राजकुमार (कर्ण नहीं) के कारण पड़ा...जिसके पिता दानवों के सेनापति थे। प्राचीन काल में अंग प्रदेश की राजधानी चंपा थी...भागलपुर के पास दो गाँव चम्पापुर और चम्पानगर आज उस चंपा की जगह हैं। रामायण और महाभारत काल में अंग देश की राजधानी भागदत्त पुरम का जिक्र आता है...यही वर्तमान भागलपुर है। अंग प्रदेश वर्तमान बिहार झारखण्ड और बंगाल के लगभग ५८,००० किमी स्क्वायर एरिया के अंतर्गत आता है।

तो ये हुयी अंग प्रदेश की बात...यहाँ की भाषा को अंगिका कहते हैं। अंगिका भाषी भारत में लगभग ७ लाख लोग हैं. इस भाषा का नाम भागलपुरी इसकी स्थानीय राजधानी के कारण पड़ा इसके अलावा अंगिका को अंगी, अंगीकार, चिक्का चिकि और अपभ्रन्षा भी बोलते हैं. अंगिका की उपभाषाएं देशी, दखनाहा, मुंगेरिया, देवघरिया, गिध्होरिया, धरमपुरिया हैं. अक्सर भाषा का नामकरण उसके बोले जाने के स्थान से होता है...यही हम यहाँ भी देखते हैं. इसमें देवघरिया भाषा तो मैंने काफ़ी करीब से देखी और सुनी है क्योंकि देवघर में ही मेरा पूरा बचपन बीता है...यह उपभाषा यहाँ के पण्डे बोलते हैं. ये देवघर मन्दिर के पुजारी होते हैं. देवघरिया के सबसे मुख्य संबोधनों में से है " की बाबा!" जो मेरे ख्याल से मन्दिर का स्पष्ट प्रभाव है. शंकर भगवान के इस मन्दिर को बाबा मन्दिर भी बोलते हैं. वैद्यनाथ धाम बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है.

अंगिका कुछ उन चुनी हुयी भाषाओँ में से है जिसका गूगल में अपना सर्च इंजन है २००४ से, गूगल अंगिका श्री कुंदन अमिताभ के सहयोग से बना है

इस लेख में हो सकता है कुछ गलतियाँ हो क्योंकि ये मैंने अपनी जानकारी और यथासंभव रिसर्च करके लिखी है. किसी को अगर कोई बात ग़लत लगे तो मुझे बता सकते हैं.

21 February, 2009

उफ़ दिल्ली...फ़िर से

कभी कभी अचानक से कमरा बड़ा छोटा लगने लगता है...और अकेलेपन को लाउडस्पीकर से आता हुआ गीत का शोर कम नहीं कर पाता है। दीवारें बेजान सी लगने लगती है और किसी मुस्कराहट को देखने को जी चाहता है। जाने लोग कैसे कहते हैं की बंगलोर में भाषा की कोई समस्या नहीं होती। मुझसे पूछे कोई...लगता है हिन्दी सुनने के लिए तरस गई हूँ...जिससे मिलो अंग्रेजी में बात।

याद आता है दिल्ली के ऑटो में बजता एफएम रेडियो और उससे भी ज्यदा वहां के ऑटो वालों का हर टोपिक पर बातें करना "पता है मैडम आज गांगुली को टीम से निकाल दिया, ये सेलेक्शन वाले अजीब हैं, इनको तो कुछ पता ही नहीं है क्रिकेट के बारे में...या फ़िर मैडम सरकार कुछ करती क्यों नहीं है, देखिये न महंगाई कितनी बढ़ गई है"। इस सब के बीच याद आता है अगर अपने बिहार के किसी मित्र के साथ चल रही हूँ तो वो जरूर पूछता था "कहाँ के हो भैया...अच्छा अच्छा छपरा के...अरे हम भी वहीँ से हैं...चार कोस पर गाँव है हमारा...और खेती बाड़ी कैसी चल रही है"। रेड लाइट पर ऑटो वाले अपने दुःख सुख की बातें कर लेते और हम सुन कर मुस्कुरा देते थे। बातें कई बार घर की होती थी...या घरवाली और बच्चो की। यहाँ पर तो बस एक लाइन...फलाना जगह जाना है...चलो। यहाँ पता नहीं क्यों रेडियो नहीं बजता ऑटो में, बहुत कम ही सुना है, और सुनती भी हूँ तो कुछ समझ में नहीं आता।

आस पास सारे लोग जिस भाषा में बात कर रहे हैं उसका कोई आईडिया ही नहीं...एकदम आइसोलेशन लगता है। और भाषाएँ सीखने में बहुत कमजोर हूँ...आज तक अपने घर की भाषा नहीं सीख पायी...उसे हम लोग भागलपुरी कहते हैं या परिष्कृत भाषा में अंगिका। समझ तो लेती हूँ आराम से, बोलचाल में उधर के शब्दों का भी प्रयोग करती हूँ पर बोल नहीं सकती...बचपन में इस कारण इतनी टांग खिंचाई होती थी की बस्स। गाँव गए नहीं की सबकी फरमाइश शुरू...और पहला वाक्य निकलते ही सब लोटपोट। हम कोई मनोरंजन चॅनल हो गए थे उनके लिए।

कल मैं पार्क गई थी...वसंत कभी धीरे धीरे नहीं आता...एक दिन अचानक से देखते हैं की पेड़ के सारे पत्ते एकदम हरे हो गए हैं, कुछ लताओं में अनगिन फूल खिल गए हैं। खास तौर से बोगनविलिया इस वक्त जेएनयू में चारो तरफ़ गहरे गुलाबी बोगनविलिया नज़र आते थे...मंज़र बड़ा सुकून देता था आंखों को। आज पेड़ पर सफ़ेद बोगनविलिया की लत चढी देखी बहुत खूबसूरत लगा।

पार्क में बच्चो को खेलते देखा...और लगा की मिट्टी में हाथ गंदे करने में कितना संतोष होता होगा। एक बच्ची बड़े मन से मिट्टी उठा उठा के शायद घर जैसा कुछ बना रही थी...उसे तन्मय देख कर मन किया की थोड़ा करीब से देखूं की उसके होठों की हँसी कैसी है, या उसके आंखों की चमक कितनी है...पर गई नहीं की कहीं खेल छोड़ कर भाग न jaaye , वहीँ कुछ बच्चो के खेल में अपनी तरफ़ के गीत सुनाई दिए...हिन्दी में। दिल एक सुकून पा गया।

इस सुकून और मिट्टी से khelne की याद लिए...मैं फ़िर से वापस।

आज ट्रेक्किंग करने जा रही हूँ...जिंदगी में पहली बार। देखें कैसा अनुभव होता है :)

Update: trekking trip cancelled. me down with fever :( :( :( :( :(

20 February, 2009

चढी नस बड़ी नकचढ़ी होती है :)

बात बहुत पुराने ज़माने की है...हम उस वक्त पटना में रहा करते थे...बहुत ही होनहार छात्र थे, सारा वक्त किताबों पर ही बिताते थे, सच में। या तो किताबें टेबल पर खुली रहती थी और हम उनपर सर रख के सोते रहते थे, या बेड पर तकिया की जगह किताबें। हमारा इस बात में पूरा विशवास था की अगर किताबों के ऊपर सर रख के सोयेंगे तो सारी इन्फोर्मेशन अपनेआप दिमाग में पर्कोलेट हो जायेगी।

बायोलोजी में ओसमोसिस पढ़े थे (ये क्या होता है हम नहीं बताएँगे, try मारे पर बड़ा मुश्किल है, जिनको नहीं आता गूगल ko कष्ट दें) तो हमें लगता था की ज्ञान भी जहाँ पर ज्यादा है वहां से जहाँ कम हो उस दिशा में बहता है...आख़िर फिजिक्स में पढ़े थे न...पानी हमेशा ऊँची जगह से नीची जगह पर जाता है। तो हमारे हिसाब से हर थ्योरी के हिसाब से किताब से जानकारी लेने का सबसे आसान तरीका यही था।

अब सवाल ये उठता है की इस बुढापे में ये पढ़ाई लिखी की बातें कहाँ से याद आने लगी? तो हुआ ये की आज हमारे एक मित्र को गर्दन में दर्द उठ गया और हम चल दिए दादी अम्मा की तरह सलाह देने, ये करो वो करो। तो इसी सिलसिले में हमें एक बरसों पुराना किस्सा याद आ गया तो हमने सोचा सुना ही दें।

तो खैर इस तरह पढने की आदत बरक़रार रही...डांट पिटाई के बावजूद और फ़िर जाने कैसे हमें नम्बर भी अच्छे आ जाते थे...तो हमने अपनी खास पद्दति से पढ़ाई जारी रखी। एक शाम ऐसे ही हम फोर्मुलास अपने दिमाग में एडजस्ट कर रहे थे...की मम्मी की आवाज आई...खाने का टाइम हो गया था। उठे तो गर्दन में भीषण दर्द...न दाएं देखा जा रहा न बायें, सामने रखो तो भी दर्द, करें तो क्या करें...मम्मी को बोलेंगे तो खाने के साथ डांट का डोज़ फ्री में मिलेगा। मरते क्या न करते...मम्मी को बताये...अब एक राउंड से पापा मम्मी दोनों की डांट पड़नी शुरू हो गई, बीच बीच में दादी भी कुछ नुस्खा बता देती थी, छोटे भाई को तो इस पूरे प्रकरण में ऐसा मज़ा आ रहा था जैसे की चूहेदानी में चूहा फंसने पर भी नहीं आता।

डांट का दौर ख़त्म हुआ तो हमने घर आसमान पर उठा लिया...दर्द हो रहा है...मशीनगन की तरह आँखें दनादन आंसू दागे जा रही थीं। घरेलु उपाय शुरू हुए, कभी बर्फ से सेका जा रहा है कभी गरम पानी से, कहीं चूने का लेप लग रहा है तो कभी हल्दी का। और इतनी चीज़ें पिलाई गई कि उनपर एक पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है अलग से। पर कहीं कोई राहत नहीं। अब गंभीर बैठक बुलाई गई, इसमें पास कि एक दो आंटी भी शामिल थी(शायद वो वनस्पति विशेषज्ञ या ऐसी ही कुछ होंगी) सर्वसम्मति से ये फ़ैसला हुआ कि मेरी नस चढ़ गई है।

अब चढ़ गई है तो कोई उतरने वाला भी तो चाहिए( अब नस चढी है कोई ताऊ की भैंस थोड़े चाँद पर चढी है कि अपने आप आजायेगी नीचे)। खोजना शुरू हुआ, कहाँ मिलता है ये नस उतारने वाला इस बीच हमारी हालत तो पूछिए मत, जैसे सीजफायर होने के बाद भी एक दो गोले गिरा देते हैं कि हम हैं अभीभी , भागे नहीं है एक दो आंसू हम भी टपका देते थे।

अफरा तफरी में सब जगह फ़ोन भी घुमाये जा रहे थे...फाइनली ये सर्च अभियान समाप्त हुआ और ख़बर मिली कि हमारे नानीघर में जो दूधवाला है वो काफ़ी अच्छा नस बैठाता है। ये सुनकर हमारी तो रूह काँप गई, वो काला भुच्च बिल्कुल भैंस की ही प्रजाति का लगता था हमें, और महकता था इतना कि हम देखते भागते थे उसको। हमारे सोचने से क्या होता है अगली सुबह वहां जाने कि बात करके सभा स्थगित हुयी।

अगली सुबह हम रोते पीटते तैयार हुए और सपरिवार ननिहाल धमक गए...मस्त खाना बना था, पर हमको दर्द में खाना सूझेगा...दूध वाला आया, और उसने गर्दन को हल्का सा दबाया ही था कि हम ऐसे जोर से चिलाये कि सबको लगा कि गर्दन ही टूटी है। हमने वहीँ पैर पटकना शुरू कर दिया, हम इससे नहीं दिखायेंगे। इससे और दर्द बढ़ गया वगैरह वगैरह।

फाइनली हमारे आर्मी डॉक्टर के पास ले गए हमें...वो हमारे खानदानी डॉक्टर थे, हम सब भाई बहन हमेशा कोई न कोई खुराफात में कभी हाथ तोड़ते थे कभी पैर ...वो बड़ा मानते थे हमसब लोगो को बहुत प्यार से बेटा बेटा बोल के बात करते थे ...हम इतने शैतान कि शिकायत कर दिए...पता है डॉक्टर अंकल ये लोग एक दूधवाले से मेरा गला दबवा रहे थे..वो ठठा कर हँस पड़े। खैर उन्होंने मेरी नस उतारी और समझाया भी कि कैसे वर्टीब्रा में नस अटक जाने से ऐसा भीषण दर्द होता है।

उस दिन के बाद से हम उस दूध वाले को देख कर ऐसे चार फर्लांग भागते थे कि जैसे सच में गला दबा देगा। भाई लोग अटेंशन मोड में रहते थे...और कई दिनों तक अगर मुझे पैरों पर उड़ते देखना है तो बस यही कोड होता था...दीदी!!! दूधवाला!!! और हम फुर्र

जाने कहाँ गया वो बचपन...अब न तो घर पर भैंस बाँध के दूध देने वाले भैया हैं और माँ बाप तो सोच ही नहीं सकते कि कोई गंवार दूधवाला उनके बच्चे को हाथ लगायेगा। मैं अपोलो में जाती हूँ तो सोचती हूँ कहाँ है वो प्यार भरे हाथ जो कभी काढा बनते थे कभी गरम सेक...और कहाँ हैं ऐसे पड़ोसी जो रात के दस बजे चले आयें सिर्फ़ ये देखने किए कि कोई बच्चा रो रहा है तो क्यों...

गुजरी हुयी जिंदगी कभी कभी फ़िल्म गॉन विथ द विंड की तरह लगती है...

19 February, 2009

पुराने दोस्त

आज एक पुराने दोस्त से बात हुयी
और जाने कैसे जख्मों के टाँके खुल गए

सालों पुरानी बातें जेहन में घूमने लगीं
खुराफातों के कुछ दिन अंगडाई लेकर उठे

बावली में झाँकने लगी कुछ चाँद वाली शामें
पानी में नज़र आई किसी की हरी आँखें

सड़कों पर दौड़ने लगी कुछ उंघती दुपहरें
परछाई में मिल गया एक पूरा हुजूम

सीढियों पर हंसने लगे कुछ पुराने मज़ाक
फूलों पर उड़ने लगी मुहब्बत वाली तितली

बालकनी में टंग गया तोपहर का गुस्सैल सूरज
गीले बालों में उलझ गई पीएसार की झाडियाँ

सड़कों पर होलिया गई फाग वाली टोली
रंगों में भीग गया पूरा पूरा हॉस्टल

चाय की चुस्कियों में घुल गए कितने नाम
पन्नो के हाशियों पर उभर गई कैसी गुफ्तगू

गानों का शोर कब बन गया थिरकन
फेयरवेल बस उत्सव सा ही लगा था बस

पर वो जाने पहचाने चेहरों की आदत
कई दिनों तक सालती रही...

उस मोड़ से कई राहें जाती थी
और हम सबकी राहें अलग थी

कभी कभी लगता है
जेअनयू के उसी पुल पर
हम सब ठहरे हुए हैं...
जिसके पार से दुनिया शुरू होती थी

आज हम सब इसी दुनिया में कहीं हैं
पुल के उस पार के जेअनयू को ढूंढते हुए

यूँ ही कभी कभी
कोई दोस्त मिल जाता है

तो चल के उस पुल पर कुछ देर बैठ लेते हैं
इंतज़ार करते हैं...शायद कुछ और लोग भी लौटें

जाने उस पुल पर अलग अलग समय में
हम में से कितने लोग अकेले बैठते हैं...

कभी इंतज़ार में...और कभी तन्हाई में।

18 February, 2009

जिंदगी का तिमिरपाश

तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुस्काने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
-दुष्यंत कुमार

कल मन बहुत व्यथित था...रात के दस बज रहे थे पर मन के शांत होने का कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था। मैं अपनी बाईक लेकर चल पड़ी...फ़िर से सड़कों पर निरुद्देश्य घूमने। थोड़ा डर भी लगा...आजकल बंगलोर का माहौल अच्छा नहीं है, हमेशा किसी न किसी मर्डर की ख़बर आती रहती है। पर लगा कि दम घुट जायेगा अगर थोडी देर और घर पर रुकी।

सड़कें बिल्कुल सुनसान...यहाँ लोग जल्दी सो जाते हैं साढ़े नौ बजते बजते दुकानें बंद हो जाती हैं फ़िर मुख्य सड़कों पर भले लोग नज़र आ जाएँ कालोनी की सड़कें बिल्कुल खाली। पार्क के इर्द गिर्द कुछ लोग शायद पोस्ट डिनर वाक् कर रहे थे...मुझे मालूम नहीं था कौन सी सड़क लूँ, तेज़ी से चलूँ या ठहरूं थोडी देर। किन्ही सीढियों पर बैठ जाऊं।

पर मैं रुकी नहीं...आज बहुत तेज चलाने का मन नहीं था, न धीरे तो लगभग ५० पर चला रही थी। रात के सुनसान अंधेरे में उतना भी काफ़ी होता है...ठंढ से आंखों में हल्का पानी आ रहा था। चलने के थोडी देर पहले ही नहाई थी, बाल गीले ही थे थोड़े थोड़े शायद इसलिए भी ठंढ लग रही थी। उसपर जैकेट भी नहीं डाली जो मैं अक्सर ठंढ और सुरक्षा दोनों के कारण पहनती हूँ।

कुछ कुछ असुरक्षित महसूस किया ख़ुद को मैंने, किसी को बता के भी तो नहीं आई थी कि कहाँ जा रही हूँ...और मुझे ख़ुद भी कहाँ पता था कि किधर जाउंगी। शायद इसी तरह महसूस करना चाहती थी ख़ुद को...थोडी देर में हवा जैसे काट डालने वाली ठंढी हो गई, गाड़ी की रफ़्तार भी खतरनाक ढंग से बढती जा रही थी, और मैंने स्पीडोमीटर की तरफ़ भी नहीं देखा, जो मैं अमूमन करती हूँ ताकि कहीं ज्यादा तेज़ न चलाऊँ...पर आज जाने क्या देखने का मन कर रहा था...

शायद डर को प्रत्यक्ष देख कर ही उससे दूर जाया जा सकता है। जिंदगी के कुछ हादसों से आगे जाने के लिए उन हादसों को एक बार फ़िर जीना पड़ता है। मृत्यु एक ऐसा तथ्य है जिसे करीब से छूने पर एक सर्द अहसास जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता है। जलती हुयी चिता की लपटें भी उस सर्द अहसास को पिघला नहीं सकती हैं...भले बाहर से जला दें।

ये कौन सा तांडव मेरी आंखों में नाच रहा था मुझे मालूम नहीं...मैं किसे छूना चाहती थी मुझे मालूम नहीं था...मैंने चश्मा उतार दिया...आँखों में -२ पॉवर होने के कारण मुझे धुंधला दीखता है...और मैं बिना चश्मे के गाड़ी कभी नहीं चलाती हूँ पर जाने क्या हो रहा था मुझे। विशाल हवा में झूमते पेड़, रौशनी बिखेरते स्ट्रीट लैंप, काली स्याह सड़क...मैं क्या मृत्यु का पीछा करने ही निकल पड़ी थी?

एक विचारशून्यता घेर रही थी मुझे...सामने की चीज़ें दिख नहीं रही थी, ठंढ के कारण कुछ महसूस नहीं हो रहा था, और सन सन निकलती हवा में कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था...जिंदगी का एक क्षण ऐसा आता है जब शरीर होता है पर आत्मा नहीं...मौत के सबसे करीब यही क्षण होता है। हर अहसास से परे...हर बंधन से अलग...रिश्ते, मोह, दर्द, खुशी, कुछ भी महसूस नहीं होता। एक क्षण जब कुछ भी होना नहीं होता है...जब सब ख़त्म हो जाता है।

मैं इस क्षण को छू चुकी थी...अचानक से ठंढ महसूस हुयी और लगा कि सब धुंधला क्यों है...चश्मा पहना और स्पीडोमीटर पर नज़र दौडाई...सब कुछ जैसे स्थिर हो गया था वक़्त रुक गया था...और मैं कहीं स्पेस टाइम लाइन पर फ्रीज़ हो गई थी।

इससे आगे जाना सम्भव नहीं था...मैं लौट आई।

17 February, 2009

अजनबी शख्स

वो शख्स जो अब अजनबी है

जाने कब हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गया

और हम हर मोड़ पर पशोपेश में पड़ जाते हैं

किधर जायें...जाने किधर का रुख किया होगा उसने

वो शख्स अब भी अनजाने चेहरों से झाँकता है

कई बार भीड़ में लगा है कि वोही है

और हम तेज़ी से चल कर उसे करीब से देखना चाहते हैं

मगर वो तो जैसे जिंदगी की तरह...भागता जाता है

किसी रोज मिलेगा तो पूछूंगी उससे

थकते नहीं हो? यूँ भागते भागते

भला मंजिल से भी यूँ पीछा छुड़ाता है कोई!

16 February, 2009

बंगलोर एयर शो


ये मेरा एयर शो देखने का पहला मौका था...घर से लगभग साढ़े बारह बजे निकले...जानकारी यही थी कि शो सुबह दस बजे शुरू हुआ है और शाम के पाँच बजे तक चलेगा।


हमारे टैक्सी वाले ने पार्किंग में गाड़ी मोड़ दी...उसे बोला कि गेट पर छोड़ दो फ़िर यहाँ पार्क कर देना पर माना ही नहीं, इधर साउथ में जब लोग जान बूझ कर नहीं समझने का अभिनय करते हैं तो गुस्से के मरे बुरा हाल हो जाता है। खैर हम पैदल चले...पुलिस वाले ने बताया कि डेढ़ किलोमीटर दूर है।


धूप इतनी कड़ी थी कि चलने में हालत ख़राब, उसपर टिकेट में लिखा था कि खाना या पानी कुछ भी लाना मन है तो हम पानी के बिना चले गए थे...उस कडकडाती धूप में चलने में जो हालत ख़राब हुयी कि पूछिए मत...एक जगह नारियल पानी मिला तो कुछ राहत हुयी...रास्ते भर जी भर के गरियाये उस ड्राईवर को...कि गाड़ी से आने का फायदा क्या हुआ जब इतनी दूर पैदल चलना पड़ रहा है।


गुस्सा इसलिए भी आया कि सोचा नहीं था कि पैदल भी चलना होगा, उसपर रास्ते भर न कोई पेड़ न झाडी...तो बिल्कुल सर पे धूप लग रही थी और हमने छाता टोपी वगैरह कुछ भी नहीं ली थी...तो सच में लग रहा था कि पूरा खून गर्म हो गया है...थोडी देर में चक्कर से आने लगे...उसपर हमारा ड्राईवर इतना बदमाश कि जब उसको बोले कि तुम आ जाओ...और हमको पहले गेट पर पहुँचा दो तो आने को ही तैयार नहीं।


लंबा रास्ता तय कर कर मुख्य्स्थल पर पहुंचे...वहां पानी मिला तो पी कर कुछ राहत हुयी, वरना तो लग रहा था कि अब बेहोश हुए कि तब...


सुरक्षा जांच कुछ भी नहीं थी, न किसी तरह का बैग चेक किया गया न कोई मेटल डिटेक्टर...ऐसे में अगर कहीं कुछ होता तो फ़िर हल्ला उठता। एक जगह शामियाना लगा हुआ था और दरी बिछी हुयी थी काफ़ी सारे लोग बैठे हुए थे वहां पर...बाकी लोग मैदान में रनवे के पास खड़े थे...एक तो इतनी गर्मी और धूप में चल कर आए थे...उसपर कहीं कुछ देखने को नहीं मिला...प्रबंधन बहुत ही ख़राब था...कहीं भी कोई जानकारी नहीं। कम से कम बुलेटिंग बोर्ड पर कार्यक्रम तो लिखा जा सकता था...लगभग एक घंटे इंतज़ार करने के बाद हमने सोचा कि वापस चलते हैं...कुछ होने वाला नहीं है, शायद शो सिर्फ़ सुबह होता है।


न तो लाऊडस्पीकर पर कोई अन्नौंसमेंटकी गई...वहां इंतज़ार करना इतना बुरा लग रहा था क्योंकि मालूम ही नहीं था कि कब कुछ होगा, या होगा भी कि नहीं। खैर, हमने सोचा कि वापस चलते हैं, अब ड्राईवर को फ़ोन किया तो फ़िर लगा नौटंकी करने कि आप पार्किंग एरिया में आ जाओ...गुस्सा तो इतनी जोर का आया कि क्या कहिएं...फ़िर हमने टैक्सी ओव्नेर को फ़ोन किया...कि ये नाटक चल रहा है यहाँ पर...दो किलोमीटर धूप में चल कर आए हैं, और अब वापस दो किलोमीटर चल कर जाएंगे तो टैक्सी लेने का फायदा क्या हुआ...हम एक पैसा नहीं देंगे अगर उसने गेट से आकर हमें पिक नहीं किया। फ़िर ड्राईवर ने बोला कि वो आ रहा है।


अब हमने देखा कि विमान भी उड़ने लगे हैं....सुखोई जब हवा में उड़ा तो हमारा सारा इंतज़ार सफल हो गया। सीधा ऊँचा उठता गया और ऊंचाई पर जा कर बिल्कुल रुक गया...बीच आसमान में..वो इतना रोमांचक था...भीड़ में सारे लोग तालियाँ बजाने लगे। सुखोई के करतब कमाल के थे...nosedive करते हुए बिल्कुल जमीन की तरफ़ ऐसे आ रहा था की मुझे लगा सीधे मुझपर गिर जायेगा...और फ़िर बिल्कुल नजदीक आकर फ़िर से ऊपर उठ जाना. मुझे बहुत अच्छा लगा वह प्रदर्शन.


सबसे खूबसूरत रहा सूर्यकिरण का प्रदर्शन...रनवे पर से तीन तीन कर के छः एयरक्राफ्ट उडे...एक तो उनका टेकऑफ़ इतना रोमांचक था...कभी भी रनवे पर एक साथ तीन जहाज उड़ते नहीं देखे थे हमने. और फ़िर आसमान में जो करतब दिखाए की भीड़ तो जैसे खुशी से पागल ही हो गई...जोरदार तालियाँ और सीटियाँ बज रही थी. तीन रंग का धुआं...केसरिया , सफ़ेद और हरा छोड़ते हुए...तिरंगे की तरह ...कई कलाबाजियां दिखाई उन्होंने. मैं तो ऐसे खो कर रह गई थी की तस्वीर लेना भी भूल गई, फ़िर अचानक याद आया तो निकाला और फोटो खींचे.

वाकई इनको चलाने वाले पायलट अद्भुत साहसी होते होंगे...आसमान में बिल्कुल वर्टिकली उड़ना और फ़िर पल्टी खाना और वो भी टीम के साथ, कमाल का सामंजस्य था। मुझे सबसे अच्छा लगता था जब आर्क बनाकर सारे प्लेन्स उड़ते थे.


ये देखने के बाद लगा की अब वापस होना चाहिए...साढ़े चार बज चुके थे, थोडी देर में ट्रैफिक में फंस जाते...तो हम वहां से चल दिए...हमने पैराजम्पिंग मिस किया...पर खैर कुछ अगली बार के लिए भी सही.
ड्राईवर अभी भी नहीं आया था...और आख़िर में वो गाड़ी लेकर नहीं ही आया...हमें फ़िर से लगभग आधा किलोमीटर पैदल चल कर पार्किंग में जाना पड़ा. और फ़िर हम वापस आ गए...सबसे ज्यादा गुस्सा तो तब आया जब हमने देखा कि कुल दूरी ७४ किलोमीटर है...इंदिरानगर से येल्लाहंका कि दूरी बीस किलोमीटर है...ये किसी भी तरह से ७४ किलोमीटर नहीं हो सकता था आना जाना. हमें पूरा यकीं था कि जब हम वहां उतर गए थे, वो किसी और सवारी को लेकर गया होगा इसलिए बार बार बुलाने पर भी आने को तैयार नहीं था. पर हम कर भी क्या सकते थे...हमने शुरुआत में तो मीटर देखा था पर वहां पहुँच कर नहीं देखा था...हमने सोचा ही नहीं कि कोई ऐसा भी कर सकता है...लगभग १००० रुपये देने पड़े...अब से उस टैक्सी वाले से कभी नहीं लेंगे यही सोचकर वापस घर आये.


एक दिन के लिए काफ़ी अड्वेंचर हो गया था...कुर्सी में बैठ कर गरम पानी में पैर डाले...और अगले वीकएंड के लिए हिम्मत जुटाने कि सोचने लगे...हम अगले हफ्ते ट्रेक्किंग करने के लिए स्कंद्गिरी जा रहे हैं.

15 February, 2009

हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू

उन आंखों में ख़ुद को देखकर ख़ुद के जिन्दा होने का अहसास होता है...
और अक्सर जाने अनजाने चाय की चुस्कियों में
तुम कह देते हो कि तुम्हें मुझसे कितना प्यार है...

प्यार बस कहने भर को तो नहीं होता...
वो भी तो प्यार है जब जली हुयी सब्जी चुप चाप खा लेते हो
या कपड़े इस्तरी नहीं होने पर ऑफिस जाने की जल्दी नहीं मचाते
या मोजे खो जाने पर मेरे साथ मिल कर ढूंढ लेते हो...

वो भी तो प्यार है न...
मेरी कोई फ़िल्म आ रही होती है तो ख़ुद से मैगी बना लेते हो
भूत वाली फिल्मों के बाद कुछ हलकी फुलकी बातें करते हो
मेरे साथ कभी कभी बाईक पर पीछे भी बैठ लेते हो...

मुझे नींद आती रहे तो कभी नहीं उठाते हो
रात के teen बजे मेरी कवितायेँ सुनते हो
मेरी पसंद के कपड़े पहनते हो...

हर दिन के कुछ नन्हे नन्हे लम्हों में
हम मिल कर वैलेंटाइन मनाते हैं
फगुआ की मीठी मस्ती सी तुम
और होली के रंगों रंगों सी मैं

फ़िर भी अच्छा लगता है...
जब तुम बिना याद दिलाये
एक लाल गुलाब और क्यूट टेडी लाते हो...

I am still a hopeless romantic...euphoric to get a teddy and a rose :)

14 February, 2009

वैलेंटाइन

वो कौन सी मेमोरी डिस्क है

जिसमें रिकॉर्ड हो जाता है

एक ही बार कहने के बाद

कि घर में किसे कौन सी सब्जी पसंद है

कौन भिन्डी या तोरई बनने पर

एक ही रोटी में उठ जाता है

किसे पसंद हैं काढे हुए रूमाल

या अपनी चोटी उससे गुन्थ्वाना

कलफ लगी साडियां

चौराहे वाले समोसे

उसे सब पता है

वो पत्नी है, माँ है, बेटी है, बहन है, बहू है

हाँ शायद उसे वैलेंटाइन का मतलब नहीं पता
पर क्या सिर्फ़ न कहने भर से प्यार होता नहीं?

13 February, 2009

एक खुशी का दिन :)


आज बहुत दिन बाद सुबह सुबह अखबार देखकर मन खुश हो गया...सारी खबरें अच्छी...ये कहीं वैलेंटाइन के पहले का गिफ्ट तो नहीं है?
एक तरफ़ पकिस्तान ने ये मान लिया कि मुंबई हमले कि सारी पृष्ठभूमि पकिस्तान कि सरजमी पर तैयार की गई थी। दूसरी तरफ़ कोर्ट ने निठारी मामले में पंधेर और कोली दोनों को अपराधी माना है...और सेने ने बंगलोर से अपना हाथ खींच लिया।
ये तीनो खबरें हमारी डेमोक्रेसी की जीत हैं...एक तरफ़ हम पाते हैं कि विश्व समुदाय के दिन ब दिन बढ़ते दबाव और ओबामा के कथन तथा भारत के दिए सुबूतों ने पकिस्तान को मजबूर कर दिया सच्चाई कुबूल करने के लिए। ये हमारी लोकतान्त्रिक जीत है...क्योंकि ऐसे माहौल में जंग या कोई भी ऐसा कदम हमारे लिए सही नहीं होता।
निठारी मामले ने रूह कंप थी थी, उसके बाद सीबीअई की नाकामी से एक तरह से उम्मीद टूट गई थी, लगा ही नहीं था इन कभी उन मृत बच्चों को इन्साफ भी मिलेगा। इतना जघन्य काम करने के बावजूद अगर मुजरिम छूट जाते तो न्यायिक व्यवस्था से विश्वास ही उठ जाता...justice delayed is justice denied.

और ये तीसरा कारन तो मुझे सबसे ज्यादा खुश कर रहा है...आख़िर श्री राम सेने ने बंगलोर में अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया है...अब ये पिंक चड्डी का असर था या फ़िर एक और चुनावी हथकंडा ये मालूम नहीं। उन्होंने अपने बयां में कहा है की उन्हीं डर है की बाकी असामाजिक तत्व लोगो को पीटेंगे और राम सेने का नाम बदनाम होगा। पर वो बाकी जगहों पर अपने अजेंडा को फोलो करेंगे...बंगलोर में मुतालिक और उनकी मोरल पोलिसिंग का जोर शोर सेना विरोध हो रहा था...और सब शांतिपूर्ण तरीके सेना, कहीं मानव श्रृंखला बना कर, तो कहीं उन्हें वैलेंटाइन डे पर ग्रीटिंग वार्ड भेज कर...और पिंक चड्डी के बारे में तो कहना ही क्या।

मैं इसे अपनी और अपने जैसी हजारों और लड़कियों की जीत के रूप में देखती हूँ...किसी को भी ये अधिकार नहीं की हमें बताये की हमारी संकृति क्या है और वो भी बलपूर्वक।

मैं एक ऐसी लड़की हूँ जिसे पता है की मेरी जड़ें कहाँ हैं...अपनी संस्कृति का सम्मान करना हम बखूबी जानते हैं, पर इसके लिए कोई और आके हमारे अधिकारों का हनन नहीं कर सकता है।

तो आज बहुत बहुत दिनों बाद मैं सुबह सुबह अखबार देख कर अपने देश में रहने के लिए गौरवान्वित महसूस करती हूँ। इस दिन को इतना खूबसूरत बनाने के लिए बहुतों ने कार्य किया है...उन सबका हार्दिक धन्यवाद।

12 February, 2009

बागी हुयी लड़की...

आज भी पुरानी डायरी के पन्ने ही हैं, बस इतना अन्तर है ये मेरे नहीं है...न मुझे मालूम है की ये किसकी लिखी कविता है...

तोड़कर रिश्ते पुरानी व्यस्त राहों से
चल रही बचकर जमाने की निगाहों से
जिंदगी है आजकल भागी हुयी लड़की...

छोड़कर अपनी पुरानी रूढियों के घर
आस्था, अनुशाषणों के बांधकर बिस्तर
फ़िर बढ़ा नाखून लंबे खोल कर निज केश
आ गई जो ख़ुद बगावत की नदी के देश
जिंदगी है आजकल बागी हुयी लड़की...

आज है जिस ठांव उसका नाम है जंगल
रह गए जिसके तिमिर में दस्युओं के दल
क्रूर भूखे भेड़ियों के चीखते स्वर से
चोर डाकू और लुटेरों के बढे डर से
जिंदगी है रात भर जागी हुयी लड़की...

एक दिन पूछा अचानक जबकि मैंने नाम
बहुत धीरे से बताया जिंदगी ने "शाम"
कर लिए हैं दांत तब से मौत ने पैने
और तब से नाम उस का रख दिया मैंने
वक्त की बन्दूक से दागी हुयी लड़की...

ये कविता बहुत बचपन में पढ़ी थी...और जाने इसमें कैसा आकर्षण है...कई बार पढ़ती थी...कुछ अपनी सी लगती थी ये लड़की, ये जिंदगी...ये बागी शब्द, शायद उस उम्र का असर हो। पर अब भी ये कविता अच्छी लगती है...सोचा आपसे भी बाँट लूँ, शायद आपमें से किन्ही को इसके लेखक का नाम पता हो.

परेशानियाँ

कल कालोनी में बाईक चला रही थी...कुछ खास नहीं शाम की खरीददारी वही, सब्जी दूध वगैरह...लौटते हुए अचानक से ध्यान गया की हल्का कोहरा उतर रहा है पेडों पर से। बिल्कुल से दिल्ली की याद आ गई...ऐसे ही तो हलके हलके कोहरा उतरता था...gurgaon की सड़कों पर, कुछ यही फरवरी का वक्त था...और हमें कोई हाल में पसंद आने लगा था। एक सेकंड के लिए तो भूल ही गई की गाड़ी पर हूँ और किसी को ठोक भी सकती हूँ...वैसे १५-२० की स्पीड पर ठोक भी दूंगी तो ज्यादा कुछ नहीं बिगडेगा :) गाड़ी वापस की और सडकों पर यूँ ही निरुद्देश्य दौड़ाने लगी।

मुझे कोहरा बड़ा अच्छा लगता है, वो भी साल के इस वक्त जब हलकी ठंढ हो और हवाएं चल रही हों, सड़कों पर सूखे पत्तों का ढेर लगा हो...और स्ट्रीट लैंप अपनी पीली रौशनी से भिगो रहे हों...उसपर अभी हाल में पूर्णिमा थी तो चाँद शाम को बड़ा खूबसूरत लग रहा था...वही आधे से थोड़ा बड़ा...थोड़ा नारंगी पीला रंग का, पेड़ों के पीछे लुका छिपी खेलता हुआ। हमने सोचा घर जाने के पहले एक दो चक्कर लगा लेते हैं, थोडी देर पार्क में बैठेंगे फ़िर घर जायेंगे...सोच में पहला ही राउंड मारा था की लगा की कोई पीछे हैं बाईक पर, हमने अपनी स्पीड और कम कर ली...की भैय्या जाओ आगे, हमें तो कोई शौक नहीं है तेज़ चलाने का अभी...फ़िर अचानक से ध्यान आया की हम जूस खरीदना भूल गए हैं...और कई बार भूख लगने पर वही आखिरी सहारा होता है...

दुकान की और बढे तो फ़िर से लगा वही गाड़ी पीछे है...हम रुके...जूस ख़रीदा और वापस...सोचा पार्क में बैठेंगे...पर वही बाईक फ़िर से पीछे...मरियल सा कोई लड़का था, एक झापड़ मार देती तो पानी नहीं मांगता...पर लगा खामखा के पंगा लेने का क्या फायदा...दिल में जितनी गालियाँ आती थी सब दे डाली...और खुन्नस में घर आई। उस गधे ने मेरी शाम ख़राब कर दी थी ...मूड उखड गया। दिल्ली में इसी टेंशन के करण कभी गाड़ी नहीं ली थी, वहां पर ऐसा बहुत होता है कि लड़कियों के आगे पीछे लड़के रेस लगा रहे हैं। बंगलोर इस मामले में सेफ है यही सोच कर हाल में ही खरीदी है...पर ऐसे लड़कों का क्या करें...जाने कौन सा भूसा भरा रहता है इनके दिमाग में।

क्या मिल जाता है किसी को परेशान कर के...उसपर मैं कोई बहुत तेज़ गाड़ी भी नहीं चलती हूँ कि रेस लगाने का मन करे...मुहल्ले में तो कभी ४० से ऊपर जाती ही नहीं, नॉर्मली ३० के आसपास ही रहती है। ऐसे कुछ बेवकूफों के कारन सारे लड़कों पर गुस्सा आने लगता है...इसी चक्कर में कल कुणाल से लड़ गई :( उसकी कोई गलती भी नहीं थी.

अब सोच रही हूँ कि फ़िर से दिखेगा तो क्या करुँगी?

11 February, 2009

तुम मुझसे इतने दिन गुस्सा कैसे रह सकती हो?

बहुत सालों बाद उसे फ़ोन किया...पूजा बोल रही हूँ...और फ़िर कुछ लम्हों की खामोशी, क्योंकि समझ नहीं आ रहा था कि इसके आगे अपना परिचय क्या दूँ। और ये कमबख्त मेरा नाम भी इतना कॉमन है कि एक बार में कोई भी कंफ्यूज कर जाता है कि कौन सी वाली पूजा...तब लगता है कि मेरा नाम कुछ टिम्बकटू टाईप होता तो कम से कम ये मुश्किल नहीं होती...नाम लेते ही झन्न से दिमाग की बत्ती जल जाती।

खैर...नाम के असाधारण होने की कमी अक्सर मेरी आवाज पूरी कर देती है...मुझे मालूम नहीं क्यों, पर अक्सर लोग मेरी आवाज नहीं भूलते...शायद इसलिए क्योंकि लगातार देर तक बिना नाम बताये एकालाप कम ही लोग करते होंगे :) और लगभग इतनी देर में मुझे पहचानना कोई मुश्किल बात नहीं है। मुझसे वो खैरियत पूछने वाली २ मिनट की बातें होती ही नहीं हैं...जब तक आधा घंटा बतिया न लूँ, मन ही नहीं भरता...इसलिए मेरे फ़ोन से बात करने वालों कि संख्या बहुत कम है...खैर इस संख्या में एक नाम उसका भी था...जिससे घंटों बात करते पता ही नहीं चलता था।

वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त हुआ करता था एक ज़माने में...फ़िर कुछ गलतफहमियां आ गई बीच में, और ये दीवार ऐसी खड़ी हुयी कि हममें बातचीत बिल्कुल बंद हो गई...वो कहीं और पढने चला गया, मैं अपने कॉलेज में बिजी हो गई...जिंदगी चलती रही, साल दर साल गुजरते रहे। आख़िर वो दिन भी आ गया जब हमेशा के लिए पटना छोड़ कर दिल्ली आना था। पापा का ट्रान्सफर हो गया था इसलिए ये मालूम था कि अब कभी लौट कर आना शायद सम्भव न हो।

उस वक्त गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं, मुझे मालूम था कि वो भी घर आया होगा. बहुत दिन सोचा उसे फ़ोन करूँ या न करूँ, कई बार ख़ुद को बहलाने की कोशिश भी की कि उसका नम्बर खो गया है...पर उसके फ़ोन नम्बर को कभी लिख के कहाँ रखा था, वो तो ऐसे याद था जैसे उसका नाम...आँख बंद कर के फ़ोन पर उँगलियाँ चला दूँ तो उसके घर लग जायेगा ऐसी आदत थी.
बोरिंग रोड पर अभी भी दोनों तरफ़ के गुलमोहर और अमलतास थे...जाने कितनी बातें रोज याद आ रही थी, जैसे जैसे जाने का दिन करीब आ रहा था...फ़िर लगा कि फ़ोन कर ही लेना चाहिए...खा थोड़े न जायेगा...यही होगा कि एक बार और फ़ोन पटक देगा...मुझे तुमसे बात नहीं करनी...तुम मेरी क्या लगती हो जो तुमसे बात करूँ...मैं इसके लिए तैयार थी.
फ़ोन लगाया...उस तरफ़ उसका वही खिलखिलाता हुआ चेहरा घूम गया मेरी नज़र में...मैंने बस एक लाइन कही...मैं आज हमेशा के लिए शहर से जा रही हूँ, तुम्हें परेशां करने का मन नहीं था, पर बिना बताये जाने का मन नहीं किया. वैसे तो आई प्रोमिस कि तुम्हें कभी मेल नहीं करुँगी...पर अपनी ईमेल आईडी दोगे? और उसने बड़ी सहजता से अपनी आईडी दे दी. दिल्ली में कई बार सोचा मगर कभी मेल नहीं किया उसको.
दिल इस बात को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था कि अगर मैंने मेल किया और उसने जवाब में झगडा किया तो...सोचती थी कि जाने लोग किसी से ताउम्र जैसे नाराज रह पाते हैं. फ़िर एक दिन उसका नम्बर ढूँढा...और कॉल किया.
उस वक्त थोडी देर बातें हुयी...ऑफिस में हम दोनों बिजी थे...फ़िर रात को फ़ोन आया उसका...शायद तीन चार घंटे बात हुयी होगी हम दोनों की...मैं तो खाना खाना भूल गई...पता नहीं कितने किस्से...कितनी बातें...जब बहुत देर हो गई तो लगा कि अब सोना चाहिए, कल ऑफिस भी तो जाना है.
उस दिन फ़ोन रखने के पहले उसने पूछा..."पूजा एक बात बताओ, तुम जब मेरा ईमेल आईडी ली थी तो कभी मेल क्यों नहीं की? तुमको पता है हम रोज इंतज़ार करते थे...कि आज मेल आएगा...इतने दिन कैसे गुस्सा रह पायी हमसे?"
मेरे पास कोई जवाब नहीं था...आज भी नहीं है...जाने लोग अपनों से कैसे खफा हो जाते हैं...और अक्सर साल गुजर जाते हैं...बस एक पहल के इंतज़ार में...साल साल के जाने कितने दिन, कितने लम्हे.
जाने कोई कैसे खफा हो के रह पाता है किसी से ताउम्र?

10 February, 2009

साहस और पिंक चड्डी

परीक्षा में सवाल आया..."साहस किसे कहते हैं?"
छात्र ने पूरा पेपर खाली छोड़ दिया...आखिरी पन्ने पर लिखा
"इसे कहते हैं साहस

हमारा तो मन किया कि हम भी साहसी हो जाएँ और एक ब्लॉग पोस्ट ब्लैंक कर दें...अगर लोगो ने इस (दु:)साहस की बधाई दी तो सिद्ध हो जायेगा कि उपरोक्त उदहारण सही है...या सत्य घटना है। पर फ़िर आख़िर में हिम्मत नहीं हुयी...या यूँ कहिये कि ये लगा कि अगर कमेन्ट पन्ना भी ऐसा ही कुछ खाली खाली आया तो? वैसे भी आजकल ब्लॉगजगत में रीशेशन की मार पड़ी हुयी है, लगता है सबने लिखना पढ़ना छोड़कर काम में दिल लगा लिया है, बस हम जैसे निठल्ले रोज रोज पोस्ट डाले जा रहे हैं।

अगले हफ्ते से वॉयलिन क्लास ज्वाइन कर रही हूँ। बहुत दिन से सीखने का मन था पर किसी ना किसी कारण हो ही नहीं पाता था, कभी घर के पास कोई स्कूल ही नहीं मिला...कभी तेअचेर हमारे घर के पास आने को तैयार नहीं। वॉयलिन हमेशा से बड़े अचम्भे की चीज रही है मेरे लिए...तो अच्छा लग रहा है कि चलो एक नाम कटा लिस्ट से।

आजकल विषयों की कमी हो गई है...और वैलेंटाइन के पहले लोगो ने इतना हल्ला मचाया कि सारा रोमांस काफूर हो गया...बरहाल मैं तो पिंक चड्डी भेजने वाली हूँ राम सेने के ऑफिस और १४थ को पब भी जाउंगी। आपमें से भी किसी को चड्डी भेजनी है तो लिंक पर क्लिक करें।

मेरे ख्याल से saahas इसे कहते हैं...चुप चाप बैठे रहने के बजाई कुछ करना...कुछ भी।

09 February, 2009

बिदारी तेरी जय हो

कहीं कोई कुछ ग़लत करता है तो हम सब मूसल ले के दौड़ पड़ते हैं उसका सर फोड़ने के लिए...पर कोई अच्छा करे तो एक शब्द नहीं कहते उसकी तारीफ़ में...ग़लत बात, बहुत ग़लत बात।

तो आज की ये पोस्ट बंगलोर के पुलिस कमिश्नर शंकर बिदारी के लिए...sir, i salute you। जब हर कोई पोलिटिकली करेक्ट होने के लिए भूल जाता है कि सही आचरण क्या है...अपने वोट बैंक पॉलिटिक्स और फूट डालने की राजनीति करने वाले लोग, किसी भी सही ग़लत उपाय के माध्यम से नाम हासिल करते लोग...ऐसे में चाहे पल भर के लिए ही सही किसी को तो याद आया कि भारत का एक संविधान भी है और इसने हमारे अधिकार दिए हैं जिनकी रक्षा करना पुलिस का काम है।

बिदारी ने प्रेस मीट में कहा "the constitution has guaranteed `the right to every individual to observe their cultural norms, speak their language and practice their religion subject to the condition that such observance will not violate any provisions of the law of the land।" मैं अनुवाद इसलिए नहीं कर रही कि किसी चूक से कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाए। ऐसी बातें बहुत दिन बाद सुनने को मिली हैं...हमारे नेता तो भूल ही गए हैं कि उनके व्यवहार के लिए कोई आचार संहिता है, कोई संविधान है।

मैं बिदारी कि कोई प्रशंशक नहीं हूँ, कई बार मेरे मतभेद भी रहे हैं उनके उठाये क़दमों से, पर इस बार मैं उनकी तहे दिल से प्रशंशा करती हूँ...for once, somebody is doing their job...and doing it the way it should be done। एक स्वस्थ समाज में अपने निर्णय लेने कि आजादी बहुत जरूरी है...इससे आपसी सद्भाव और मिल जुल कर रहने की भावना को बल मिलता है। tolerance बहुत जरूरी है...खास तौर पर तेज़ी से बदलते समाज में. अगर हम सिर्फ़ अपना कर्तव्य ठीक से करें तो हम इस समाज को एक बेहतर जगह बनाने की सबसे जरूरी कोशिश कर रहे हैं।

अधिकार के साथ साथ कर्तव्य भी आते हैं, rights and duties go together hand in hand.
अगले शनिवार प्यार को मानाने का दिन है...इस आजादी में थोड़ा प्यार हमारे देश के लिए भी...आख़िर हम स्वतंत्र हैं, निर्भय है, और सबसे जरूरी...जागरूक हैं.

जाने कहाँ ये पंक्तियाँ पढ़ी थी मन पर बड़ा गहरे असर करती हैं.
तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित...चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ.

08 February, 2009

८० किमी/घंटा से भागता चाँद...आपने देखा है?

आपने कभी ८०km प्रतिघंटा की रफ़्तार से चाँद को भागते देखा है?
मैंने देखा है...पर उसके लिए आपको पूरी कहानी सुननी पड़ेगी...वैसे ज्यादा लम्बी नहीं है :) तो किस्सा यूँ शुरू होता है...

अब रात भर अगर जाग के गप्पें करेंगे तो भूख तो लगेगी न? ११ बजे पिज्जा खा चुके थे हम...और वो पच चुका था, घर में चिप्स, बिस्कुट, मैगी, मिक्सचर जैसी जितनी चीज़ें थी, सब खा चुके थे...और भूख थी कि शांत होने का नाम नहीं लेती...तो ऐसे में बेचारा मजबूर क्या करेगा...बंगलोर में कुछ भी रात भर खुला नहीं रहता। कुछ देर तो हम बैठ कर दिल्ली के गुणगान करते रहे...convergys के पराठों के बारे में सोच कर पेट तो भरेगा नहीं न। तो हम दुखी आत्मा लीला पैलेस में फ़ोन किए(घर के सबसे पास में वही था)...कि भइया खाने को कुछ मिलेगा...उनका रेस्तौरांत खुला था...हम खुसी खुशी तैयार हो गए। हाँ जी रात के तीन बज रहे हैं तो क्या...फाइव स्टार में जाना है तैयार तो होएँगे ही।

अब निकलने की बारी आई तो जनाब को वक्त सूझा...रात के तीन बजे तेरे लिए जाना सेफ होगा कि नहीं, मैं जा के ले आता हूँ। और मैं रात के तीन बजे घर में अकेली तो खूब सेफ रहूंगी न...मैं नहीं रुक रही घर में अकेले। खूब झगडे के बाद डिसाइड हुआ कि भूखे मरो...नहीं ले के जायेंगे लीला।

हमारे लिए भूखे रहना प्रॉब्लम नहीं था...प्रॉब्लम थी कि हम तैयार हो गए थे, और एक लड़की जब तैयार हो जाती है और उसे घूमने जाने नहीं मिलता तो उसे बहुत गुस्सा आता है...तो जाहिर है हमें भी आया...तो हमने फरमान सुनाया कि नहीं लीला गए तो क्या हुआ...बाईक से एक राउंड लगाऊँगी चलो...

अब मैं आप लोगो को बताना भूल गई थी कि मैंने kinetic flyte खरीदी, एप्पल ग्रीन कलर में, और इतने दिन में कभी खाली सड़क पर चलने का मौका नहीं मिला था...और न ही उसके १२५ सीसी इंजन को टेस्ट करने का। तो हम घर से निकले...
मैं अपनी नई flyte पर और कुणाल पल्सर १५० सीसी पर, वैसे तो बात बस २५ सीसी की थी :) मैंने बहुत अरसे बाद इतनी खाली सड़कें देखी थी...और फ्लाईट का पिक उप इतना कमाल का था कि बयां नहीं कर सकती...स्टार्ट होते ही यह जा वह जा वाली बात हो गई...कुणाल जाने कितनी दूर रह गया था।

८० की स्पीड पर लगभग १० साल बाद कुछ चलाया था...लगा हवा से बातें कर रही हूँ। बंगलोर का हल्का ठंढ वाला मौसम...सड़क के दोनों ओर बड़े घने पेड़ और ऊपर चाँद...भागता हुआ, आश्चर्य कि ८५ पर भी चाँद मेरे से आगे ही भाग रहा था, टहनियों के ऊपर से तेज़ी में जैसे हम दोनों के अलावा कहीं कुछ है ही नहीं बस स्पीडोमीटर पर हौले हौले बढती सुई। शायद गाड़ी चलाते हुए चाँद को बहुत कम लोगो ने देखा हो...मैं लड़की हूँ शायद इसलिए....या शायद कवि हूँ इसलिए...पर यकीं मानिए वो चाँद मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत चाँद था। और मैंने उसे हरा नहीं सकी...इतना खूबसूरत नारंगी पीलापन लिए हुए उसका रंग...आधे से थोड़ा बड़ा...मुझे तो कोई खाने की मिठाई लग रही थी(जाहिर सी बात है भूख में घर से निकली थी न)।

अच्छा इसलिए भी लगा कि बहुत दिन बाद एक लम्हे के लिए जिंदगी को जिया था...यूँ लगा हम बेहोश पड़े थे और अभी अभी होश में आए हैं. बहुत दिनों बाद लगा कि बिना डरे जीना क्या होता है...thrill नाम की भी कोई चीज़ होती है मैं बिल्कुल भूल गई थी. फ़िर से लगा कि रगों में खून बह नहीं रहा, दौड़ रहा है.

कुछ देर बाद गाड़ी धीमी की...तब तक जनाब भी पहुँच गए थे :) बाप रे क्या मस्त पिक अप है इसका यार और कित्ते पे गाड़ी चला रही थी तू? मैंने कहा ८५ पर...उसका कहना था, गाड़ी की औकात से ज्यादा स्पीड में चला रही थी मैं. खैर मैंने उसे बहुत चिढाया कि एक लड़की से हार गया...वो भी स्कूटी से छि छि :D
मैंने उससे पूछा कि तूने चाँद देखा...कितना खूबसूरत लगता है भागते हुए...और उसने कहाँ कि नहीं, वो गाड़ी चलाते हुए सड़क देखता है. :) तो मैंने सोचा आप लोगो को भी बता दूँ...आपने भी शायद नहीं देखा हो चाँद कभी.
पर यकीं मानिए...८० की स्पीड पर भागता हुआ चाँद जितना खूबसूरत लगता है...खिड़की में अलसाया हुआ चाँद कभी लग ही नहीं सकता, या झील में नहाता हुआ भी नहीं।

आप में से किसी को try करना है तो कीजिये ...फ़िर हम बातें करेंगे :)
PS: गाड़ी की फोटो जल्दी ही लगाउंगी :)

06 February, 2009

लव मैरेज करनी है? बंगलोर आ जाईये

जी हाँ! ये है राम सेने का धमाकेदार ऑफर...जो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक दिन के लिए है...जी हाँ, १४ फरवरी यानि वैलेंटाइन डे के लिएअगर आप प्रेम विवाह करना चाहते हैं, और आपके रास्ते में समाज रोड़ा अटका रहा है, परिवार वाले राजी नहीं हो रहे...तो आपके लिए ये स्पेशल ऑफर...१४ तारीख को अपने पसंदीदा जोडीदार को ले कर बंगलोर आईये...करना कुछ नहीं है, बस साथ घूमना हैहाँ अगर आप चाहते हैं की आप ये ऑफर किसी भी तरह मिस करें तो पब में बैठें, राम सेने की सबसे पसंदीदा जगह है...अरे आपने टीवी पर देखा तो होगा।


अब सुनिए ऑफर के बारे में विस्तृत जानकारी, श्री राम सेने ने घोषणा की है की उनके दस्ते १४ तारीख को बंगलोर me घूमेंगे और जो भी जोडियाँ उन्हें मिलेंगी उनकी शादी करा देंगे। उनके साथ में एक पंडित रहेगा और यही नहीं वो शादी को रजिस्ट्री भी करवाएंगे.


अपनी मर्जी से शादी करने में कितने झंझट है ये वही जान सकता जो इन लफड़ों में पड़ा हो या जिनके दोस्त इस इश्क के दरिया में उतर गए हों...अजी हुजूर अगर आप कायदे से रजिस्ट्री करके शादी करना चाहते हैं तो भूल जाइए क्योंकि पहले तो आप दोनों के नाम की लिस्ट टंग जायेगी कोर्ट में वो भी एक दो दिन नहीं, पूरे एक महीने...खुदा न खस्ता इस बीच अगर घर में ख़बर पहुँची तो बस लड़की तो सीधे शहर से ही एक्सपोर्ट ho जायेगी...फ़िर करते रहिये किससे शादी करते हैं। अगर आर्य समाज में शादी करनी है तो भी लंबा चौडा चक्कर लगता है...खूब सारे पैसे भी खिलाने पड़ते हैं. इसके बाद बहुत सारा भाषण सुनना पड़ता है. तब जाके शादी होती है.


और राम सेने वाले आपकी मुफ्त में शादी करा रहे हैं, भगवान उनका भला करे...उन्हें दुनिया के इश्क करने वालों की दुआएं लगेंगी...मैं तो सोच रही हूँ उनपर एक कविता भी लिख दूँ(इससे ज्यादा और मैं कर भी क्या सकती हूँ). उनका ये क्रांतिकारी अभियान उन्हें इश्क के इतिहास में अमर कर देगा...ये तो संत वैलेंटाइन से भी महान आत्मा हैं.

ये ऑफर लड़कियों के लिए खास तौर से डिजाईन किया गया है...श्री राम सेने से बड़ा हमारा शुभ चिन्तक आज धरती पर कोई नहीं है. लड़कियों सुनो...अगर तुम्हारे बोय्फ्रेंड्स शादी के लिए आनाकानी कर रहे हैं सीधा इलाज है, किसी भी बहने उनके साथ इस दिन पब चली जाओ...तुम्हारी शादी होने को कोई नहीं रोक सकता...न तो लड़का न उसका बाप :)

यही नहीं इनके पास दूसरा ऑफर भी है...राखी ऑफर...इससे पता चलता है की वो हम लड़कियों की कितनी फ़िक्र करते हैं...मान लो आपको कोई मनचला तंग करता है, ऑफिस या कॉलेज में कोई आप पर ज्यादा ही ध्यान देता है, और आपके साफ़ साफ़ कहने के बाद भी आपका पीछा नहीं छोड़ रहा है। आप इस नमूने को लेकर पब चले जाइए. राम सेने के रक्षक आयेंगे और आप आराम से उन्हें राखी बाँध देना. समस्या से हमेशा के लिए छुट्टी. ये राखी या मंगलसूत्र वाला ऑफर सिद्ध करता है कि भारत में अभी भी लड़कियां आजाद हैं और अपनी मर्जी से चुनाव कर सकती हैं.


देखिये मौका छूट न जाए...आज ही अपनी टिकेट बुक कराइये...जल्दी कीजिये जी, और देखिये अब तो हवाई जहाज की टिकेट भी सस्ती हो गई है...तो आप इंतज़ार किस चीज़ का कर रहे हैं? बंगलोर में एयर शो के कारण होटल जल्दी ही फुल हो जायेंगे...पर आप फ़िक्र मत कीजिये चाहे उसी शाम रिटर्न फ्लाईट से वापस जाना पड़े आइये जरूर.


राम सेने जिंदाबाद...हमारी स्वतंत्रता जिंदाबाद

हमारा रक्षक कैसा हो...राम सेने जैसा हो

आज के लिए इतना ही...बाकी तारीफ़ बाद में करेंगे :)


तो आप बंगलोर रहे हैं ?

05 February, 2009

गीत का वसंत


सिर्फ़ शाम के होने भर से कैसे सब कुछ बदला बदला सा लगने लगता है...ठंढी हवा गालों को दुलराने लगती है...और उसी हलकी सी हवा में पेड़ों पर पत्ते झूमने लगते हैं...पगडण्डी जैसे बाहें पसार देती है, गिरते हुए पत्तों को आलिंगन में लेने के लिए।

सूखे पत्तों का कालीन बिछ जाता है, जैसे वापस धरती के गोद में जाने के सुकून से...चाँद कालीन पर रेशमी डोरियों से कशीदाकारी करता है...छन कर आती चांदनी थिरकती रहती है हवा के झोंके के साथ ताल में।

ऐसी किसी रात को जब सड़क पर थोडी चांदनी हो, और थोडी स्ट्रीट लाईट की पीली रौशनी...टीले के नीचे किसी सीढ़ी पर बैठ ईंट के टुकड़े से तुम्हारा नाम लिखने का मन करता है। इत्मीनान से किसी पुरानी याद को जीने का मन करता है...पूरी बारीकियों के साथ, कपडों के रंग से लेकर घड़ी की सुइयां तक देखना चाहती हूँ फ़िर से। चाँद की वो कौन सी रात थी...शायद चौदहवी...पूर्णिमा नहीं थी वो मुझे याद है।


और ऐसी एक रात में एक गीत जन्म लेता है...जो शायद कहीं रूह से निकलता है, ये गीत होठों पर नहीं होता...जैसे मैं एक पूरा का पूरा गीत बन जाती हूँ। धड़कनें थिरकने लगती हैं, पैर ताल देने लगते हैं उसपर...कुछ पल, जैसे जिंदगी से चुरा लेती हूँ मैं और बांस के झुरमुट में झूमने लगती हूँ, बरगद में झूला डाल देती हूँ


ऐसी ही एक लड़की लोकगीतों में गायी जाती है...जाने क्या है उन बोलों में कि सुनकर लगता है...वसंत आ गया है.

04 February, 2009

दोपहर के पलाश



उदास दुपहरें
ठिठके खड़े हुए से पेड़

हौले हौले गिरते पत्ते

जाने क्यों यादों जैसे लगते हैं

जैसे कोई ठौर न हो

यूँ चलती हुयी हवाएं

बिना राग के चहचहाते पंछी

सड़कों पर चुप चाप

मेरे साथ चलती परछाई

कहीं दूर से आता हुआ

गाड़ियों का शोर

कुछ ठहरा नहीं है...

रीत गया है

इस बेजान दोपहर में

धड़कनें गा रही हैं विदाई

धूप चिता की गर्मी सी लग रही है

झुलसाती, तड़पाती...और बेबस

फाग के मौसम में

इस शहर में पलाश नहीं दिखे

शायद मैं बहुत दूर आ गयी हूँ

यहाँ तक वसंत नहीं आता...

और मैंने तुमसे फूल मांग लिए थे

होली का रंग बनाने के लिए

लगता है तुम बहुत दूर चले गए हो

सुनो, फूल ना भी मिले तो

तुम लौट आना...

तुमसे ही मेरा वसंत है

03 February, 2009

यूँ ही

वो कौन सा सच होता है जो सामने होते हुए भी नहीं होता?

जैसे तुम हो...मगर तुमसे बात नहीं कर सकती, टोक भी नहीं सकती...सामने से गुजर जाओ और कुछ कह भी नहीं सकती...मेरे शहर में आओ मगर तुमसे मिलने की ख्वाहिश नहीं कर सकती।

तुम्हारा शहर किसी हादसे से गुजर जाए और मैं तुम्हारी खैरियत के बारे में नहीं जान सकती...तुम्हें सोच नहीं सकती, तुम्हें भूल नहीं सकती...

तुम्हारी राहों पर चल नहीं सकती, अपनी राहों पर तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर सकती...चौराहों पर पूछ नहीं सकती कि तुमने कौन से राह ली है...अंदाजन चलती जाती हूँ।

वो रिश्ते भी तो होते हैं न जो बस एक तरफ़ के होते हैं, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह नहीं होने से मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह मैं किसी और को तो नहीं दे सकती न...

क्या पुल जला देने से पुल के पार वालो का होना ख़त्म हो जाता है...नहीं न?

ठीक है गुनाहों कि माफ़ी नहीं होती...सज़ा तो होती है...मेरी सज़ा ही मुक़र्रर कर दो...या उसके लिए भी क़यामत का इंतज़ार करना होगा?

02 February, 2009

ख़त

एक ख़त लिखा

जिसमें वो सारी बातें लिखी

जो तुमसे कहना चाहती थी

उस मुलाकात के दरम्यान अधूरी रही कुछ बातें

कुछ अपने दिल के गहरे राज़

कुछ अतीत के किस्से

कुछ भविष्य के ख्वाब

पर मुझे तुम्हारे नाम के अलावा कुछ नहीं पता

इंतज़ार कर रही हूँ

वक़्त के डाकिये का

उसके पास तो सभी का पता रहता है

उससे पूछ कर तुम्हारा ख़त डाल दूँगी

तुमने तो मेरा नाम नहीं पूछा था

पर एक मुलाकात के रिश्ते भर को

किसी अजनबी का ख़त पढोगे?

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