बहुत सालों बाद उसे फ़ोन किया...पूजा बोल रही हूँ...और फ़िर कुछ लम्हों की खामोशी, क्योंकि समझ नहीं आ रहा था कि इसके आगे अपना परिचय क्या दूँ। और ये कमबख्त मेरा नाम भी इतना कॉमन है कि एक बार में कोई भी कंफ्यूज कर जाता है कि कौन सी वाली पूजा...तब लगता है कि मेरा नाम कुछ टिम्बकटू टाईप होता तो कम से कम ये मुश्किल नहीं होती...नाम लेते ही झन्न से दिमाग की बत्ती जल जाती।
खैर...नाम के असाधारण होने की कमी अक्सर मेरी आवाज पूरी कर देती है...मुझे मालूम नहीं क्यों, पर अक्सर लोग मेरी आवाज नहीं भूलते...शायद इसलिए क्योंकि लगातार देर तक बिना नाम बताये एकालाप कम ही लोग करते होंगे :) और लगभग इतनी देर में मुझे पहचानना कोई मुश्किल बात नहीं है। मुझसे वो खैरियत पूछने वाली २ मिनट की बातें होती ही नहीं हैं...जब तक आधा घंटा बतिया न लूँ, मन ही नहीं भरता...इसलिए मेरे फ़ोन से बात करने वालों कि संख्या बहुत कम है...खैर इस संख्या में एक नाम उसका भी था...जिससे घंटों बात करते पता ही नहीं चलता था।
वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त हुआ करता था एक ज़माने में...फ़िर कुछ गलतफहमियां आ गई बीच में, और ये दीवार ऐसी खड़ी हुयी कि हममें बातचीत बिल्कुल बंद हो गई...वो कहीं और पढने चला गया, मैं अपने कॉलेज में बिजी हो गई...जिंदगी चलती रही, साल दर साल गुजरते रहे। आख़िर वो दिन भी आ गया जब हमेशा के लिए पटना छोड़ कर दिल्ली आना था। पापा का ट्रान्सफर हो गया था इसलिए ये मालूम था कि अब कभी लौट कर आना शायद सम्भव न हो।
उस वक्त गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं, मुझे मालूम था कि वो भी घर आया होगा. बहुत दिन सोचा उसे फ़ोन करूँ या न करूँ, कई बार ख़ुद को बहलाने की कोशिश भी की कि उसका नम्बर खो गया है...पर उसके फ़ोन नम्बर को कभी लिख के कहाँ रखा था, वो तो ऐसे याद था जैसे उसका नाम...आँख बंद कर के फ़ोन पर उँगलियाँ चला दूँ तो उसके घर लग जायेगा ऐसी आदत थी.
बोरिंग रोड पर अभी भी दोनों तरफ़ के गुलमोहर और अमलतास थे...जाने कितनी बातें रोज याद आ रही थी, जैसे जैसे जाने का दिन करीब आ रहा था...फ़िर लगा कि फ़ोन कर ही लेना चाहिए...खा थोड़े न जायेगा...यही होगा कि एक बार और फ़ोन पटक देगा...मुझे तुमसे बात नहीं करनी...तुम मेरी क्या लगती हो जो तुमसे बात करूँ...मैं इसके लिए तैयार थी.
फ़ोन लगाया...उस तरफ़ उसका वही खिलखिलाता हुआ चेहरा घूम गया मेरी नज़र में...मैंने बस एक लाइन कही...मैं आज हमेशा के लिए शहर से जा रही हूँ, तुम्हें परेशां करने का मन नहीं था, पर बिना बताये जाने का मन नहीं किया. वैसे तो आई प्रोमिस कि तुम्हें कभी मेल नहीं करुँगी...पर अपनी ईमेल आईडी दोगे? और उसने बड़ी सहजता से अपनी आईडी दे दी. दिल्ली में कई बार सोचा मगर कभी मेल नहीं किया उसको.
दिल इस बात को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था कि अगर मैंने मेल किया और उसने जवाब में झगडा किया तो...सोचती थी कि जाने लोग किसी से ताउम्र जैसे नाराज रह पाते हैं. फ़िर एक दिन उसका नम्बर ढूँढा...और कॉल किया.
उस वक्त थोडी देर बातें हुयी...ऑफिस में हम दोनों बिजी थे...फ़िर रात को फ़ोन आया उसका...शायद तीन चार घंटे बात हुयी होगी हम दोनों की...मैं तो खाना खाना भूल गई...पता नहीं कितने किस्से...कितनी बातें...जब बहुत देर हो गई तो लगा कि अब सोना चाहिए, कल ऑफिस भी तो जाना है.
उस दिन फ़ोन रखने के पहले उसने पूछा..."पूजा एक बात बताओ, तुम जब मेरा ईमेल आईडी ली थी तो कभी मेल क्यों नहीं की? तुमको पता है हम रोज इंतज़ार करते थे...कि आज मेल आएगा...इतने दिन कैसे गुस्सा रह पायी हमसे?"
मेरे पास कोई जवाब नहीं था...आज भी नहीं है...जाने लोग अपनों से कैसे खफा हो जाते हैं...और अक्सर साल गुजर जाते हैं...बस एक पहल के इंतज़ार में...साल साल के जाने कितने दिन, कितने लम्हे.
जाने कोई कैसे खफा हो के रह पाता है किसी से ताउम्र?
ये शायद हमारे मन में बैठी ईगो होती है ..... फिर जब अरसा बताता है ...तो दिल में ये बात बैठ जाती है की मैं क्यों पहल करुँ ..... बहुत सी बातें आ जाती हैं दरमियान ....लेकिन जिस पल भी बात होती है ...सच पूंछो दिल को बहुत सुकून मिलता है ....बहुत खुशी मिलती है ...
ReplyDeleteअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
अंजाने अधिकार के कारण ये इच्छा रह्तीहै कि पहल सामने वाला करे और इसी इंतज़ार मे वो भी रहता है,दोनो की समान इच्छा के बीच समय कैसे गुज़रता है पता ही नही चलता।
ReplyDeletechaliye ye bahut khushi ki baat hai ke aapka dost aapko wapa mil gya,sach hota hai,kabhi kabhi sabhi ke saath,shayad kant ji thik keh rahe haiego is the problem? hmm kaise narazrehsakte hum apno se jyada din,pata nahi shayad hum expectationsjyada kar lete hai ki samnewalapehel karega.zindagi yahi hai zigzag:):),behad emotional achhi post,kahi dil mein kuch yaad kara diya.
ReplyDeleteशायद अपना अहम. पर रिश्तों मे अहम वैसा ही होता है जैसा दूध मे दही की दो बूंद.
ReplyDeleteरामराम.
जिंदगी का मतलब...... जेब में चंद रुपये ... दो पुरानी यामहा ओर एक खुली सड़क है ,
ReplyDeleteजिंदगी का मतलब.... इम्तिहान से पहले की रात ,कभी समझ न आने वाली किताब ओर पाँच बेवकूफों के बीच बंटी एक सिगरेट है ,
जिंदगी का मतलब कुछ ग्रीटिंग्स कार्ड्स ,कुछ बेहूदा कविताये.....लड़किया ओर सिर्फ़ लड़किया है ,
जिंदगी का मतलब सुबह ३.३० बजे की भूख ......होस्टल के कमरे में रखा हिटर्स ओर एक मैगी नुडल्स है ,
जिंदगी का मतलब सर्दियों की एक शाम ,धीमी बारिश ,चार दोस्त ओर गर्म पानी में मिली व्हिस्की है ,
जिंदगी का मतलब ...आधी रात को बजे एक मोबाइल में बरसो से रूठे किसी दोस्त की नशे में रुंधी आवाज है
जिंदगी का मतलब ......................................दोस्ती है
अपने सीमित अनुभवों से मुझे लगता है "जुड़े गाँठ पड़ जाए" सच होता है हालाँकि आप हमेशा बात करने के लिए मचलते रहते हैं.
ReplyDeleteशायद अहम् ज़िन्दगी में कभी कभी इतना जरूरी हो जाता है की सारे रिश्ते नाते कमजोर पड़ जाते है. दिल यही सोचता रह जाता है की पहल मैं क्यूँ करूँ.
ReplyDeleteहै...जाने लोग अपनों से कैसे खफा हो जाते हैं...और अक्सर साल गुजर जाते हैं...बस एक पहल के इंतज़ार में...साल साल के जाने कितने दिन, कितने लम्हे.
जाने कोई कैसे खफा हो के रह पाता है किसी से ताउम्र?
●๋• लविज़ा ●๋•
सुधि लोगोने बहुत कुछ कह दिया है. अब कुछ बचा भी नहीं. पोस्ट अच्छी लगी. आभार.
ReplyDeleteहम्म्म्म ये लेखनी आपकी,उफ़्फ़्फ़्फ़---पता है पहले तो इस दोस्ती और झगड़े की बातें पढ़ कर कुछ पुरानी यादों में खोने वाला ही था कि बोरिंग रोड वाले अमलताश का जिक्र उठा कर मुझे पटना की तमाम सड़कों पे की गयी टंडेलियों की स्मृतियां एकदम से चलचित्र की तरह आँखों के आगे नाच उठीं...
ReplyDeleteहाय्य्य्य्य्य्य्य्य पटना....
wah wah wah.. hamesha ki tarah saare ras hain..kuch inhi bhaavon ko batati humari ek kavita bhi hai. kabhi samay mile to padhen aur haan ye publicity stunt nahin hai :)
ReplyDeletehttp://pupadhyay.blogspot.com/2008/12/blog-post_21.html
पटना.. मैंने अब तक किसी शहर को जाना है तो वो है पटना.. किसी शहर को जीया है तो वो है पटना.. किसी शहर को दिल से अपना माना है तो वो है पटना.. किसी शहर ने मुझे अपना बनाया है तो वो है पटना..
ReplyDeleteइस शहर ने मुझे नाकामी भी दी तो वहीँ फर्श से अर्श तक भी पहुँचाया है.. कुछ पाने का जूनून होना सिखाया है तो वहीँ कुछ खोने के अहसास का मतलब भी बताया है.. किशोरावस्था से लेकर जवानी तक कुछ दिल में बस है तो वो पटना ही है.. एक से बढ़कर एक अच्छे मित्र भी इसी पटना ने दिए.. पटना ने ही सिखाया कि दोस्ती किस चीज का नाम है.. वही दुश्मनों से दुश्मनी भी वहीँ सीखी..
आवारागर्दी के किस्सों कि डायरी को मोटा भी मैंने पटना में ही बनाया है.. अपने पिता और बडे भाई कि छाया से अलग पहचान भी मुझे पटना ने ही दिया है.. पटना सिटी से लेकर दानापुर तक, ऐसा लगता है जैसे पूरा पटना ही मेरा है.. सच कहूँ तो पटना शहर मेरे दिलो-दिमाग पर एक नशे कि तरह छाया है.. ऐसा नशा जो उतरने का नाम ही ना ले.. पूरे भारत में बदनाम शहर पटना, जिसका नाम होना या बदनाम होना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता..
तुम्हारी ये पोस्ट पढ़कर बहुत नौस्टाल्जिक हो रहा हूँ.. मैं भी अपने एक मित्र को याद कर रहा हूँ जिसके बारे में तुम्हे बताया था.. जो जाने अब कहाँ होगी.. तुम्हारे किस्सों कि तरह ही मेरा ई-मेल उसके पास तो है, मगर मेरे पास उसका नहीं.. तुमने तो अपने मित्र से बात कर ली, देखो मेरी बात इस जनम में भी होती है या नहीं..
लो.. मैंने तुम्हारे पोस्ट पर कमेन्ट लिखते-लिखते पूरी पोस्ट ही लिख दी.. :)
ReplyDeleteवैसे एक बात तुमने सही कही.. तुम्हारी आवाज कुछ अलग हट कर है.. मेरी जितनी भी मित्र है उन सबमे किसी से भी मेल नहीं खाती है.. :)
एक बात और.. देखो मैंने इस बार कमेन्ट करने में कंजूसी नहीं की... :D
ताऊ ने तो ग़ज़ब बात कह दी जी, अपनी पूरी सहमति उनके साथ है!
ReplyDelete---
गुलाबी कोंपलें । चाँद, बादल और शाम
खूबसूरत, प्यारी पोस्ट!
ReplyDeleteजब मौन टूटता है तो अहम् का हिम पिघल जाता है। हम देख लिए कि वह पिघल रहा है।
ReplyDeleteज़िंदगी का मतलब... ... सुन! आज शाम की रिज़र्वेशन करवा ली है.. और कही की मिली नही.. चंडीगढ़ की मिली है.. वाहा जाकर देख लेंगे कहा जाना है...
ReplyDeleteये वाक़या पिछले महीने की 24 तारीख था.. जब दोस्त का फ़ोन आया.. चंडीगढ़ पहुच कर तय हुआ की शिमला जया जाए.. और पहुच गये..
wow.. b'ful post, aapki pahel se ek purana dost pura na sahi kuch to wapas aa gaya. sach kya post likhi hai aur uspar anurag sir aur PD ka comment :-) lajawab
ReplyDeleteबस पहल करने की जरुरत होती है। आपने पहल की। आपके मित्र भी इमेल आईडी मांग सकते थे। पता नहीं क्यों हर जगह लेडिज फर्स्ट का ट्रेंड हो गया है।
ReplyDeleteबस पहल का इंतज़ार ही है जो अक्सर लोगों को मिलने नहीं देता. कभी हम उनसे नाराज़ होते हैं और कभी सोचते हैं वो हमसे नाराज़ होंगे. कभी सामने आते भी हैं तो कोशिश करते हैं नज़र अंदाज़ करने की. पता नहीं क्या है, शायद खुद का पाला हुआ सा एक डर है या ये हमारे अंदर बैठा अहम्. डर ही है शायद, तभी तो हम उनसे सालों से बात नहीं कर पाए. शुक्रिया याद दिलाने के लिए.
ReplyDeleteअच्छा हुआ फोन कर दिया.. देर से ही सही..
ReplyDeleteबहुत प्यारा दोस्त है.. बधाई आपको..
ReplyDeleteईमानदारी से लिखी हुई इस बेहतरीन पोस्ट को पढ़ने के लिये, मुझे प्रशांत ने ही भेजा है ।
सो, पढ़वाने का धन्यवाद, उसके कमेन्ट-बक्से में डाल आऊँ, तो चलेगा न पूजा ?
@डॉक्टर अमर जी, आप यहाँ आए, आशीर्वाद है आपका...इसके लिए तो पीडी को मैं भी थैंक्स कहूँगी...आप कहेंगे तो क्यों नहीं चलेगा..भाई दौडेगा :) धन्यवाद आपका
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