तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को
खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुस्काने को
तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किए हो
वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को।
-दुष्यंत कुमार
कल मन बहुत व्यथित था...रात के दस बज रहे थे पर मन के शांत होने का कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था। मैं अपनी बाईक लेकर चल पड़ी...फ़िर से सड़कों पर निरुद्देश्य घूमने। थोड़ा डर भी लगा...आजकल बंगलोर का माहौल अच्छा नहीं है, हमेशा किसी न किसी मर्डर की ख़बर आती रहती है। पर लगा कि दम घुट जायेगा अगर थोडी देर और घर पर रुकी।
सड़कें बिल्कुल सुनसान...यहाँ लोग जल्दी सो जाते हैं साढ़े नौ बजते बजते दुकानें बंद हो जाती हैं फ़िर मुख्य सड़कों पर भले लोग नज़र आ जाएँ कालोनी की सड़कें बिल्कुल खाली। पार्क के इर्द गिर्द कुछ लोग शायद पोस्ट डिनर वाक् कर रहे थे...मुझे मालूम नहीं था कौन सी सड़क लूँ, तेज़ी से चलूँ या ठहरूं थोडी देर। किन्ही सीढियों पर बैठ जाऊं।
पर मैं रुकी नहीं...आज बहुत तेज चलाने का मन नहीं था, न धीरे तो लगभग ५० पर चला रही थी। रात के सुनसान अंधेरे में उतना भी काफ़ी होता है...ठंढ से आंखों में हल्का पानी आ रहा था। चलने के थोडी देर पहले ही नहाई थी, बाल गीले ही थे थोड़े थोड़े शायद इसलिए भी ठंढ लग रही थी। उसपर जैकेट भी नहीं डाली जो मैं अक्सर ठंढ और सुरक्षा दोनों के कारण पहनती हूँ।
कुछ कुछ असुरक्षित महसूस किया ख़ुद को मैंने, किसी को बता के भी तो नहीं आई थी कि कहाँ जा रही हूँ...और मुझे ख़ुद भी कहाँ पता था कि किधर जाउंगी। शायद इसी तरह महसूस करना चाहती थी ख़ुद को...थोडी देर में हवा जैसे काट डालने वाली ठंढी हो गई, गाड़ी की रफ़्तार भी खतरनाक ढंग से बढती जा रही थी, और मैंने स्पीडोमीटर की तरफ़ भी नहीं देखा, जो मैं अमूमन करती हूँ ताकि कहीं ज्यादा तेज़ न चलाऊँ...पर आज जाने क्या देखने का मन कर रहा था...
शायद डर को प्रत्यक्ष देख कर ही उससे दूर जाया जा सकता है। जिंदगी के कुछ हादसों से आगे जाने के लिए उन हादसों को एक बार फ़िर जीना पड़ता है। मृत्यु एक ऐसा तथ्य है जिसे करीब से छूने पर एक सर्द अहसास जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता है। जलती हुयी चिता की लपटें भी उस सर्द अहसास को पिघला नहीं सकती हैं...भले बाहर से जला दें।
ये कौन सा तांडव मेरी आंखों में नाच रहा था मुझे मालूम नहीं...मैं किसे छूना चाहती थी मुझे मालूम नहीं था...मैंने चश्मा उतार दिया...आँखों में -२ पॉवर होने के कारण मुझे धुंधला दीखता है...और मैं बिना चश्मे के गाड़ी कभी नहीं चलाती हूँ पर जाने क्या हो रहा था मुझे। विशाल हवा में झूमते पेड़, रौशनी बिखेरते स्ट्रीट लैंप, काली स्याह सड़क...मैं क्या मृत्यु का पीछा करने ही निकल पड़ी थी?
एक विचारशून्यता घेर रही थी मुझे...सामने की चीज़ें दिख नहीं रही थी, ठंढ के कारण कुछ महसूस नहीं हो रहा था, और सन सन निकलती हवा में कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था...जिंदगी का एक क्षण ऐसा आता है जब शरीर होता है पर आत्मा नहीं...मौत के सबसे करीब यही क्षण होता है। हर अहसास से परे...हर बंधन से अलग...रिश्ते, मोह, दर्द, खुशी, कुछ भी महसूस नहीं होता। एक क्षण जब कुछ भी होना नहीं होता है...जब सब ख़त्म हो जाता है।
मैं इस क्षण को छू चुकी थी...अचानक से ठंढ महसूस हुयी और लगा कि सब धुंधला क्यों है...चश्मा पहना और स्पीडोमीटर पर नज़र दौडाई...सब कुछ जैसे स्थिर हो गया था वक़्त रुक गया था...और मैं कहीं स्पेस टाइम लाइन पर फ्रीज़ हो गई थी।
इससे आगे जाना सम्भव नहीं था...मैं लौट आई।
यायावरी के किस्से भी अजीब और दिलचस्प होते हैं.. मगर जब दिमाग में कोई गहरा चिंतन चलता हो तो ड्राईविंग कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस वक्त हम अपनी सारी उर्जा गाड़ी पर ही निकाल देते हैं और एक्सिडेंट होने के चांस बढ़ जाते हैं.. यायावरी करो, मगर शांत मन से.. यायावरी और उन्माद का मिश्रण बहुत घातक होता है..
ReplyDeleteऐसा कई बार होता है जब हम चौथे आयाम में जाना चाहते है.आपकी बाइक उस वक्त होने- न होने के बीच के संकरे दर्रे में चल रही थी:)
ReplyDeleteमगर जब दिमाग में कोई गहरा चिंतन चलता हो तो ड्राईविंग कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस वक्त हम अपनी सारी उर्जा गाड़ी पर ही निकाल देते हैं और एक्सिडेंट होने के चांस बढ़ जाते हैं..
ReplyDeletebahut sahi baat kahi hai aur mai iska saboot hu, puja ki kai baar ek baar nahi kahi baar accident hote hote bacha hai sirf isi baat ke karan, mann pata nahi kaha gum aur bike ki speed badhti jati hai bas.. khyal rahiye aise drivng karte waqt na kiya kijiye
PD भाई की बात से में बिल्कुल सहमत हूँ ...ख्याल रखो अपना ....अच्छा लिखा है
ReplyDeleteब्लॉग पर लिखा हर शब्द सच नहीं होता...कल्पना भी होती है उसमें. इसलिए तमाम चिंतातुर लोगो से कह रही हूँ...इतनी चिंता न करें...हमारी गाड़ी पेट्रोल कि उर्जा से ही चल रही थी, हमारी उर्जा से नहीं :)
ReplyDeleteजब ह्रदय व्यथित हो तो अकेला होना शान्ति देता है . मुझे अपनी स्कूटी याद आ गई जो अब कबाड़ बन गई है
ReplyDeleteकभी कभी यही एक पल हमें कई बरसो की रौशनी दे जाता है....
ReplyDeleteआप काल्पनिक लिखे या सच, जो भी लिखती है पढकर अच्छा लगता है। पर जब मन उचट जाता है तो आदमी ऐसे ही भागता है। यह सोलह आने सच है।
ReplyDeleteपोस्ट पढ कर तो डर गया था और डांत लगाने का इरादा था. पर अब आपका कमेंट पढ लिया. चलो कल्पना बहुत जोरदार थी. एक अच्छी फ़िल्म का प्लोट बन सकता है.:)
ReplyDeleteरामराम.
दिल परेशान हो तो अपने अपनों के पास बिना कुछ कहे कुछ यूँ बैठा जाता है कि सब कुछ कह लिया जाय
ReplyDeleteगम अकेला हो तो साँसों को सताता है बहुत,
दर्द को दर्द का हमदर्द बनाया जाए .
आँख में हवा न लगे तो बिना चश्मे , बिना हेलमेट के बाइक को यूँ ही किसी सड़क पर छोड़ देने में आनंद बहुत मिलता है. बस चलते रहें यूँ ही बेमकसद
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति | कल्पनाओं को यथार्थ के इर्द गिर्द ऐसे रखा की लगाने लगा मानो सच मुच यथार्थ हो | फिर लगा विशाल हवा बंगलोर में कहाँ :) |
ReplyDeleteहुम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म....
ReplyDeletekai bar man vah sab pana, dekhana aur masusna chahta hai, jiska khud use bhi pata nahi hota. yehi karan hai ki woh us chij, anubhav aur kalpna ki talash me nikal padta. kabhi to woh samadhaan sath lekar ataa hai aur khbhi kali hath. yehi jindgi hai.
ReplyDeleteबहुत सजीव कल्पना की उडान, बहुत सजीव रचना!!
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री