21 February, 2009

उफ़ दिल्ली...फ़िर से

कभी कभी अचानक से कमरा बड़ा छोटा लगने लगता है...और अकेलेपन को लाउडस्पीकर से आता हुआ गीत का शोर कम नहीं कर पाता है। दीवारें बेजान सी लगने लगती है और किसी मुस्कराहट को देखने को जी चाहता है। जाने लोग कैसे कहते हैं की बंगलोर में भाषा की कोई समस्या नहीं होती। मुझसे पूछे कोई...लगता है हिन्दी सुनने के लिए तरस गई हूँ...जिससे मिलो अंग्रेजी में बात।

याद आता है दिल्ली के ऑटो में बजता एफएम रेडियो और उससे भी ज्यदा वहां के ऑटो वालों का हर टोपिक पर बातें करना "पता है मैडम आज गांगुली को टीम से निकाल दिया, ये सेलेक्शन वाले अजीब हैं, इनको तो कुछ पता ही नहीं है क्रिकेट के बारे में...या फ़िर मैडम सरकार कुछ करती क्यों नहीं है, देखिये न महंगाई कितनी बढ़ गई है"। इस सब के बीच याद आता है अगर अपने बिहार के किसी मित्र के साथ चल रही हूँ तो वो जरूर पूछता था "कहाँ के हो भैया...अच्छा अच्छा छपरा के...अरे हम भी वहीँ से हैं...चार कोस पर गाँव है हमारा...और खेती बाड़ी कैसी चल रही है"। रेड लाइट पर ऑटो वाले अपने दुःख सुख की बातें कर लेते और हम सुन कर मुस्कुरा देते थे। बातें कई बार घर की होती थी...या घरवाली और बच्चो की। यहाँ पर तो बस एक लाइन...फलाना जगह जाना है...चलो। यहाँ पता नहीं क्यों रेडियो नहीं बजता ऑटो में, बहुत कम ही सुना है, और सुनती भी हूँ तो कुछ समझ में नहीं आता।

आस पास सारे लोग जिस भाषा में बात कर रहे हैं उसका कोई आईडिया ही नहीं...एकदम आइसोलेशन लगता है। और भाषाएँ सीखने में बहुत कमजोर हूँ...आज तक अपने घर की भाषा नहीं सीख पायी...उसे हम लोग भागलपुरी कहते हैं या परिष्कृत भाषा में अंगिका। समझ तो लेती हूँ आराम से, बोलचाल में उधर के शब्दों का भी प्रयोग करती हूँ पर बोल नहीं सकती...बचपन में इस कारण इतनी टांग खिंचाई होती थी की बस्स। गाँव गए नहीं की सबकी फरमाइश शुरू...और पहला वाक्य निकलते ही सब लोटपोट। हम कोई मनोरंजन चॅनल हो गए थे उनके लिए।

कल मैं पार्क गई थी...वसंत कभी धीरे धीरे नहीं आता...एक दिन अचानक से देखते हैं की पेड़ के सारे पत्ते एकदम हरे हो गए हैं, कुछ लताओं में अनगिन फूल खिल गए हैं। खास तौर से बोगनविलिया इस वक्त जेएनयू में चारो तरफ़ गहरे गुलाबी बोगनविलिया नज़र आते थे...मंज़र बड़ा सुकून देता था आंखों को। आज पेड़ पर सफ़ेद बोगनविलिया की लत चढी देखी बहुत खूबसूरत लगा।

पार्क में बच्चो को खेलते देखा...और लगा की मिट्टी में हाथ गंदे करने में कितना संतोष होता होगा। एक बच्ची बड़े मन से मिट्टी उठा उठा के शायद घर जैसा कुछ बना रही थी...उसे तन्मय देख कर मन किया की थोड़ा करीब से देखूं की उसके होठों की हँसी कैसी है, या उसके आंखों की चमक कितनी है...पर गई नहीं की कहीं खेल छोड़ कर भाग न jaaye , वहीँ कुछ बच्चो के खेल में अपनी तरफ़ के गीत सुनाई दिए...हिन्दी में। दिल एक सुकून पा गया।

इस सुकून और मिट्टी से khelne की याद लिए...मैं फ़िर से वापस।

आज ट्रेक्किंग करने जा रही हूँ...जिंदगी में पहली बार। देखें कैसा अनुभव होता है :)

Update: trekking trip cancelled. me down with fever :( :( :( :( :(

19 comments:

  1. आपमे भावनाओं को पकडने यानि ग्रासपिंग पावर बहुत ही कमाल का है. छोटी सी घटना भी आप पकद पाती है. बहुत बधाई आपको.

    और हां आज ट्रेकींग के लिये शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  2. ज़िंदगी को करीब से देखती हो... यही तो बात है तुम्हारी जो अच्छी लगती है..

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  3. दिल ढूढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  4. सभी से तुम सुनती हो कि बैंगलोर में हिंदी की कोई समस्या नहीं होती है, इसका अंतर मैं तुम्हें बताता हूं..
    दक्षिण भारत के किसी और हिस्से में अगर तुम राह चलते किसी से रास्ता पूछोगी तो वह कुछ ऐसे पूछेगा, "इंग्लिश और तमिल?"
    और बैंगलोर में पूछोगी तो वहां कुछ ऐसा उत्तर मिलता है, "हिंदी और कन्नड़ और इंग्लिश?" दक्षिण भारत में रहने वाले उत्तर भारतीय के लिये इतना हिंदी भी बहुत होता है यह तुम जल्द ही सीख जाओगी..

    और क्या हुआ तुम्हें? पहले ही कहा था कि तबियत क ख्याल रखो, तुम्हें ट्रेकिंग पर भी जाना है.. मगर तुम तबियत खराब कर ही ली.. खैर, बाद में यह मत कहना की मैंने नजर लगा दिया.. अब जल्दी से ठीक हो जाओ, और किसी अगले ट्रेकिंग की तैयारी करो.. :)

    बाई द वे, जैसा तुम अभी महसूस कर रही हो ठीक वैसा ही मैं भी आज से 2 साल पहले महसूस करता था.. उसकी कमी मैं घर जाकर करता हूं.. अभी भी पटना जाता हूं तो सुबह-सुबह ऑटो वाले से इतने सवाल करता हूं कि अपने सर का बाल नोच लेता होगा.. :D

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  5. हिन्‍दी तो आखिर हिन्‍दी है
    जिंदगी अपनी तो हिन्‍दी है

    हिन्‍दी ही पूजा है कर्म है
    हिन्‍दी अपनाना तो धर्म है

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  6. पहले तो हैप्पी sad फ़िर sad sad. गेट वेल सून.

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  7. बोधगम्य और सरल,सुगम सी
    अपनी भाषा हिन्दी है।

    भारत माता के माथे की,
    यही तो पावन बिन्दी है।।

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  8. अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में अपनी बोली की याद तो आती ही है. ट्रेकिंग के अनुभवों का इन्तेजार रहेगा.

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  9. बहुत सहज लेखनी है-कमाल की.

    ट्रेकिंग एन्जॉय करके बताईये उसका अनुभव भी.

    शुभकामनाऐं.

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  10. बहुत अच्छा लेख है। भाषा सीखने में मैं भी बहुत कमजोर हूँ। दक्षिण भारत के अपने अनुभव कभी लिखूँगी। सच में वहाँ हिन्दी सुनकर मन खुश हो जाता है।
    घुघूती बासूती

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  11. .....अपनी भाषा हिन्दी है।

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  12. दिल्ली की याद आपको सता रही है ....वैसे दिल्ली में वो सारी खूबियां है जो अन्य शहरों में नही है । खासकर भाषा और देशीनुमा स्टाइल के नाम पर यह शहर बेमिशाल है । कहीं छपरिया तो कही मगही बोली तो हर गली में सुनने को मिल जाता है ....वैसे सारे भाषा-भाषियों को यह अपने अन्दर समेटे हुए है . आपका लेख रोचक लगा शुक्रिया ।

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  13. अच्छा, भागलपुरी को अंगिका क्यों कहते हैं?

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  14. तमिलनाडु ,ओर केरल में मैंने भाषा की समस्या को बेहद गंभीरता से महसूस किया था ...बाकी तो मनीष जी आधी दुनिया घूमे हुए है ....वाही बताएँगे .वैसे तुम्हारा मूड इस पोस्ट में थोडा लो है.....क्यों ?

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  15. वाह! जीवंत वर्णन !! बहुत स्वाभाविक तरीके से वर्णन करती हैं आप.

    ट्रेक्किग के लिये शुभकामनायें!!

    सस्नेह -- शास्त्री

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  16. are fever hai,thoda aramkije aur dawa khayiye,aur jaldi swath ho jayiye,delhi kiyaadein bahut achh rahi.

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  17. अच्छा है आपके भीतर की उथल-पुथल में एक संदेश देती है। ट्रैकिंग़ का अनुभव कैसा रहा बताइएगा। लेखन जारी रहे।

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  18. बड़ी गजब की किस्सागोई वाला अंदाज है। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना। बुखार जल्दी से उतरे इसके लिये शुभकामनायें!

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