वो कौन सा सच होता है जो सामने होते हुए भी नहीं होता?
जैसे तुम हो...मगर तुमसे बात नहीं कर सकती, टोक भी नहीं सकती...सामने से गुजर जाओ और कुछ कह भी नहीं सकती...मेरे शहर में आओ मगर तुमसे मिलने की ख्वाहिश नहीं कर सकती।
तुम्हारा शहर किसी हादसे से गुजर जाए और मैं तुम्हारी खैरियत के बारे में नहीं जान सकती...तुम्हें सोच नहीं सकती, तुम्हें भूल नहीं सकती...
तुम्हारी राहों पर चल नहीं सकती, अपनी राहों पर तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर सकती...चौराहों पर पूछ नहीं सकती कि तुमने कौन से राह ली है...अंदाजन चलती जाती हूँ।
वो रिश्ते भी तो होते हैं न जो बस एक तरफ़ के होते हैं, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह नहीं होने से मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह मैं किसी और को तो नहीं दे सकती न...
क्या पुल जला देने से पुल के पार वालो का होना ख़त्म हो जाता है...नहीं न?
ठीक है गुनाहों कि माफ़ी नहीं होती...सज़ा तो होती है...मेरी सज़ा ही मुक़र्रर कर दो...या उसके लिए भी क़यामत का इंतज़ार करना होगा?
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ReplyDeleteकिसी के इंतज़ार में राहें ताकते हैं लोग
ReplyDeleteअनदेखे रास्तों पर भी चलते हैं लोग ....
वो तो बस तेरी चाहत है जो ....
सजा के लिए भी हम
क़यामत का इंतज़ार इंतज़ार कर लेंगे ....
लाजवाब है पूजा मैडम ...
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
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ReplyDeleteक्या पुल जला देने से पुल के पार वालो का होना ख़त्म हो जाता है...नहीं न?
ReplyDeletewell said
इस डिलेम्मा से मुक्ति तो डोड्डा गणपती ही दे सकता है. बहुत सुंदर लिखा है. आभार.
ReplyDeleteशायद जीवन ऐसी ही खूबसूरत और खामोश पहेली है.
ReplyDeleteरामराम.
आप सादर आमंत्रित हैं, आनन्द बक्षी की गीत जीवनी का दूसरा भाग पढ़ें और अपनी राय दें!
ReplyDeleteदूसरा भाग | पहला भाग
" यूँ ही" एक भावप्रधान एवं प्रेम समर्पण की सुंदर रचना है, आपकी ऊंची कल्पना के लिए एक बार पुनः बधाई.
ReplyDeleteमैं भी संदर्भित दो लाइंस लिख रहा हूँ>>>>
दिन , महीने, साल क्या, सदियाँ गुजर जाएँ...
हम न भुला पायेंगे , वो आयें या न आयें....
- विजय
कहीं ये बस अपनी बुनी जकड़ने तो नही?
ReplyDeleteकभी कभी लगता है
कि कहीं अगले को भी तो इन्ही बंधनों ने ही तो नही जकड रखा है?
क्या पता अगला भी यही सोचता हो
क्या पता अगला भी..
बस यूँ ही परेशान हो!
आज का लिखा पढ़्कर तो किसी की याद आ गई।
ReplyDeleteठीक है गुनाहों कि माफ़ी नहीं होती...सज़ा तो होती है...मेरी सज़ा ही मुक़र्रर कर दो
वाह क्या लिखा है।
अफ़सोस यही है कि पुल जलाने से उस पार वाले नहीं मिटते, फ़िर भी कोशिश करने की ख्वाहिश है| कोशिश और फ़िर गुबार, फ़िर पुल कि मरम्मत में लग जाता हूँ|
ReplyDeletelajvaab hai ji..
ReplyDeleteye to copy karne layak post hai..
bas aapne jaha jaha sakti likha hai,,
mai sakta likh dunga.. :)
copy kar lun..?
par ab to kar liya..:)
aapke blog ke berain mein chapa hai aaj dainik jagran mein, Ravish ji ne likha hai Kasba wale ravish ji :-) very gud :-)
ReplyDeleteछोटे छोटे टुकडों में भी आपने जिंदगी के बडे बडे सच बयां कर दिये हैं।
ReplyDeleteबधाई।
बिखरे बिखरे से ख्याल लगते है..
ReplyDeleteफ़िर गुलज़ार याद आ गए ......मै तेरे शहर चला तो आता ...पर बीच के सारे पुल जला दिए थे ........
ReplyDeleteइन्ही बीते लम्हों और ख्यालो से बुनी है ज़िन्दगी ..आपने उसको खूबसूरत लफ्जों से बयान किया है
ReplyDelete????.....
ReplyDeleteपुल जल जाने वाली बात,कहने का अंदाज अलौकिक
कल ही मैंने पढ़ लिया था इसे.. संयोग कुछ ऐसा कि तुम्हारे इस पोस्ट के तुरंत बाद ही मैंने एक और पोस्ट पढ़ा था जिसके लिखने का तरीका बिलकुल इसी पोस्ट के जैसा ही था.. बस विषय अलग-अलग हैं दोनों के.. लिंक लग हुआ है देख लेना.. :)
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