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26 March, 2012

सफर में खिलते याद के जंगली फूल

मैं कहाँ गयी थी और क्यों गयी थी नहीं मालूम...शायद घने जंगलों में जहाँ कि याद का कोई कोना नहीं खुलता तुम्हें बिसराने गयी थी...कि जिन रास्तों पर तुम्हारा साथ नहीं था...इन्टरनेट नहीं था...मोबाईल में तुम्हारी आवाज़ नहीं थी...हाथ में किसी खत की खुशबू नहीं थी...काँधे पर तुम्हारा लम्स नहीं था...जहाँ दूर दूर तक तुम नहीं थे...तुम्हें छोड़ आना आसान लगा.

मगर मैं क्या जानती थी...ठीक रात के साढ़े ग्यारह बजे जिस जंगल कॉटेज में ठहरी थी...वहां गुल हो जानी थी बत्तियां सारी की सारी और फिर बांस के झुरमुट के ऊपर उग आयेंगे अनगिनत तारे...कि जिनकी चमक ऐसी होगी जैसे चकित आँखों में तुम्हारी याद का एक लम्हा...मैंने इतने बड़े और इतने चमकीले तारे आखिरी बार मौसी की शादी में गाँव में देखे थे...आँगन में पुआल के  ऊपर सोये हुए. सब कुछ अँधेरा...एकदम खामोश और जंगल की अनगिनत आवाजें बुनने लगेंगी तुम्हारी आवाज़ का सम्मोहन...रिसोर्ट में एक पॉइंट था...सफ़ेद बोर्ड लगा हुआ...कि जहाँ एयरटेल का सिग्नल आता था...वहां भी नहीं खड़े हुए नेटवर्क के डंडे तो मैंने उम्मीद स्विच ऑफ़ कर दी...तुम्हारी आवाज़ ऐसे ही अनजानी धुन थी जंगल की जो अचानक किसी गहरी अँधेरी बिना चाँद रातों वाले समय सुनाई पड़ी थी...और जानती थी मैं कि ऐसी और कोई आवाज़ नहीं होगी कहीं.


पर मेरे दोस्त...तुम चिंता न करो...इस बार घने जंगलों में सूखा पड़ा था और बहुतेरे जानवर मर रहे थे प्यास से...इसलिए जंगल में निकलना डरावना नहीं था...दिन को सूखे पेड़ों में जलते हुए अंगारों के ऊपर से गुजरी और वहीं दीखते आसमानों के बीच एक पेड़ पर मन्नतों की तरह बाँध आई हूँ तुम्हारी आवाज़ का आखिरी कतरा. उसी पेड़ के नीचे की मिटटी में दबा आई हूँ तुम्हारी याद की पहली शाम. देखो क्या असर होता है दुआओं का...शायद खुदा सुन ले तो इस मॉनसून में इतनी बारिश हो कि पूरा जंगल एक हरी भूल भुलैय्या में बदल जाए...और तुम वाकई मुझसे खो जाओ...हमेशा के लिए.


बुझती रात का अलाव था जिसे हर कुछ देर में देनी पड़ती थी गत्ते के पंखे से हवा कि भड़क उठे लपटें और उसकी रौशनी में पढ़ सकूँ अपनी कॉपी में लिखा कुछ...अपने शब्दों में बारहा ढूंढती रही तुम्हारा नाम और कई बार ऐसा हुआ कि ठीक जिस लम्हे तुम नज़र आये मुस्कुराते हुए आग की लपटें दुबारा सो गयीं...एक हाथ से कॉपी को सीने से भींचे सोचती थी अगर बन्दर उठा ले गए ये कॉपी तो तुम्हें दुबारा कभी देख न पाउंगी. लिखती थी तुम्हारा नाम जंगल की न दिखने वाली जमीन पर...बांस की छोटी सी थी कलम...हाथों में. कि जितने ही गहरे उतरी सफारी लोगों की आँखें भय से चौड़ी होती गयीं...शेर की गंध सूंघते थे सड़क पार करते बारासिंघे...सोच रही थी अगर शेर दिख जाए तो ये उम्मीद जिलाई जा सकती है कि एक दिन ऐसा होगा कि मैं दूर सफ़र से घर पहुंचूं और इंतज़ार में तुम्हारी चिट्ठी हो...नेहभीगी. शेर नहीं दिखा.


सुनो दोस्त, मैंने तुम्हारी मासूम और नन्ही सी याद को किसी पेड़ के नीचे अकेले सोता छोड़ दिया है...कहानियों की उस दुष्ट जादूगरनी की तरह जो राजकुमारी को जंगल में छोड़ आती थी.
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ये सब तो झूठी मूठी कहानियां हैं...जाने दो...सच में क्या हुआ था वो भी लिखूंगी कभी...पर वो भूलती नहीं न...ये सब तो भूल जाती...मैं सफ़र को गयी थी...बिना मंजिल, बिना मकसद...आँख तक बिछती सड़कें थीं और रात तक खुलता आसमान...पहाड़ी के ऊपर वाले मंदिर में एक चापाकल लगा था...दोनों हाथों की ओक में जितना पानी भर सकती थी उतने में प्यास बुझती थी...जाने उतने ऊँचे पहाड़ पर पानी कहाँ से आता था...फिर सोचती हूँ बरबस तेज़ चलाती कार में मुस्कुराती हुयी...कि जहाँ तो मुझे खुद भी नहीं मालूम कि जा कहाँ रही हूँ...तुम्हारी याद किस जीपीएस से मुझे ढूंढ कर पहुँच जाती है?

04 February, 2012

अश्क़ और इश्क़ में एक हर्फ़ का ही तो फर्क है.

तुम्हारी जिंदगी में मेरी क्या जगह है?’
तिल भर
बस?’
हाँ, बस। बायें हाथ की तर्जनी पर, नाखून से जरा ऊपर की तरफ एक काले रंग का तिल है...वही तुम हो।‘’
वहीं क्यूँ भला?’
दाहिने हाथ से लिखती हूँ न, इसलिए
ये कैसी बेतुकी बात है?’
अच्छा जी, हम करें तो बेतुकी बात, तुम कहो तो कविता
मैंने कभी कुछ कहा है कविता के बारे में, कभी तुम्हें सुनाया है कुछ...तो ताने क्यों दे रही हो?’
नहीं...मगर मैंने तुम्हारी डायरी पढ़ी है
तुम्हें किसी चीज़ से डर लगता भी है, क्यूँ पढ़ी मेरी डायरी बिना पूछे?’
तुम मेरी जिंदगी में किसकी इजाजत ले कर आए थे?’
तुमने कभी कहा कि यहाँ आने का गेटपास लगता है? फिर तुमने वापस क्यूँ नहीं भेजा?’

तुम शतरंज अच्छी खेलते हो न?’
तुम मुझसे प्यार करती हो न?’
तुमसे तो कोई भी प्यार करेगा
मैंने ओपिनियन पोल नहीं पूछी तुमसे...तुम अपनी बात क्यूँ नहीं करती?’

मेरे मरने की खबर तुम तक बहुत देर में पहुंचेगी, जब तुम फूट फूट कर रोना चाहोगे मेरे शहर के किसी अजनबी के सामने तो वो कहेगा "अब तो बहुत साल हुये उसे दुनिया छोड़े...अब क्या रोना.....तुम्हें किसी ने बताया नहीं था....अब तो उसे सब भूल चुके हैं"...'
तुम मुझसे पहले नहीं मरने वाली हो, इतना मुझे यकीन है
अच्छा तो अब काफिर नमाज़ी होने चला है, तुम कब से इतनी उम्मीदों पर जीने लगे?’

लड़के ने लड़की का बायाँ हाथ अपने हाथ में लिया और तिल वाली जगह को हल्के हल्के उंगली से रगड़ने लगा। लड़की खिलखिलाने लगी।
क्या कर रहे हो?’
तुम्हारा क्या ठिकाना है लड़की, देख रहा हूँ कि सच में तिल ही है न कि तुमने मुझे बहलाया है
भरोसा नहीं हमपे और इश्क़ की बातें करते हो! बचपन से है तिल...कुछ लिखते समय जब कॉपी को पकड़ती हूँ तो हमेशा सामने दिखता है। ये तिल मेरे लिख हर लफ्ज का नजरबट्टू है...तुम्हें चिट्ठी लिखती हूँ तो वो थोड़ा सा फिसल कर तुम्हारे नाम के चन्द्रबिन्दु में चला जाता है।
यानि तुम्हारे साथ हमेशा रहूँगा...चलो तिल भर ही सही
ऐसा कुछ पक्का नहीं...दायें हाथ में एक तिल था...अनामिका उंगली में...पता है उसके कारण वो उंगली ढूंढो वाला खेल कभी खेल नहीं पाती थी...साफ दिख जाता था...वो तिल मुझे बहुत पसंद था...कुछ साल पहले गायब हो गया। आज भी उसे मिस करती हूँ...अपना हाथ अपना नहीं लगता।

तुम चली क्यूँ नहीं जाती मुझे छोड़ कर?’
इस भुलावे में क्यूँ हो कि तुम मेरे हो? मैंने कोई हक़ जताया तुमपर कभी? कुछ मांगा? तुमने कुछ दिया मुझे कभी? तो तुम कैसे मेरे हो? आँखें मीचते उठो...मैंने आज सुबह ही उगते सूरज से दुआ मांगी है...दिल पे हाथ रख के...कि तुम मुझे भूल जाओ।

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एक दिन बाद।

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तुमसे पहली बार बात कर रहा हूँ, फिर भी तुम मुझे जाने क्यूँ बहुत अपनी लग रही हो...जैसे कितने सालों से जानता हूँ तुमको...माफ करना...पहली बार में ऐसी बातें कर रहा हूँ तुम भी जाने क्या सोचोगी...पर कहे बिना रहा नहीं गया।'
इस बार लड़की कुछ न कह सकी, उसकी आँखों में पिछले कई हज़ार साल के अश्क़ उमड़ आए।
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उस नासमझ लड़की की दोनों दुआएँ कुबूल हो गईं थी।
लड़का उसे हर सिम्त भूल जाता था।
वो उस लड़के को कोई सिम्त नहीं भूल पाती थी।

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जब हम किसी से बहुत प्यार करते हैं तो उसकी खुशी की खातिर दुआएँ मांग तो लेते हैं...पर यही दुआएँ कुबूल हो जाएँ तो जान तुम्हारी कसम...ये इश्क़ जान ले लेगा हमारी किसी रोज़ अब। 

24 January, 2012

शी लव्स मी नॉट...

उसने एक गहरी सांस ली
डूबने के ठीक पहले वाली
या फिर 
चूमने के ठीक बाद वाली 
उसे ठीक से याद नहीं

....
आँख के रस्ते तक सरसों के पीले खेत थे...जैसे किसी सुघड़, सुशील लड़की ने एकदम करीने से धरती पर पीली सरसों के रंग की चादर बिछायी हो और तुम्हारे ख्यालों में खोये हुए बिस्तर की सलवटें ठीक की हों. ख्वाबों के कौन कौन से कतरे उठा के साइड वाले कूड़ेदान में डाली हों...कि उसे तो सब था...नासमझ सी कुछ उम्मीदें परदे पर टंगी होंगी कि जब उसने धूल की तरह डस्टर से झाड़ा होगा तुम्हारा नाम...

वीरानी गलियों में रात रास्ता भटक गयी होगी...किसी लैम्पोस्ट से पूछा होगा तुम्हारे देश का पता...रौशनी कमबख्त आँखों में भर गयी होगी और रात को सोने न दिया होगा...कितनी देर जागी होगी तुम्हें सोचते हुए...कितने गाने सुने होंगे, कितने शेर पढ़े होंगे और आखिर में जब कुछ याद न रह पाता होगा तो तुम्हारे इकलौते ख़त को फिर से बड़े अहतियात से खोला होगा और शब्दों को छू कर तुम्हें छू लेने का गुमान पाले सोयी होगी.

लड़की वाकई नासमझ है जो तुमसे प्यार करती है...या कि तुमसे प्यार करते हुए नासमझ हो गयी है...तुम्हें कौन बतलाये...फिलहाल तो इतना जान लो कि बड़ी खराबियां हैं उसमें...ज्यादा बताउंगी तो कौन जाने प्यार करो ही न उससे...फिलहाल तो इतना जानो कि जब उसे तुम्हारी बेतरह याद आती है...बेतरह मतलब एकदम ऐसी कि सांस न ले पाए तो वो चुप हो जाती है...उसके पहले, काफी पहले तक वो मुस्कुरा के बातें करती रहती है...उसकी चुप्पी तुम जान भी न पाओगे मेरी जान. तुम्हारे प्यार में इतना तो सीख ही लिया उसने कि तुमसे झूठ बोल लेती है...तुम क्यूँ उसका ऐतबार करते हो...तुम्हें लगता है न कि वो उदास है तो बस उसकी आवाज़ सुन कर तसल्ली करते ही क्यों हो...उसके पास जाओ तो सही...हाँ वो ऐसी है कि कभी न कहेगी कि उदास है...पर वो ऐसी भी तो है कि जबरदस्ती खींच कर अपने सीने से लगाओगे तो तुम्हारे कांधे से कोई चिनाब बह निकलेगी.

वो एकदम अच्छी लड़की टाईप नहीं है...पर जाने क्यूँ तुमसे बात करते हुए उसका अच्छा होने का मन करने लगता है...सलीके से बातें करना...थोड़ा ठहरना...बिना तुम्हारे मांगे वो अपने किनारे बनाने लगती है. उसे तुम्हें बहा ले जाने में डर लगता है...तुम्हें किसी ने बताया कि पार्टी पर उसने सिर्फ इस डर से कि तुम्हारा नाम उसके होठों पर आ जाएगा सिर्फ तीन लार्ज व्हिस्की पी...ऑन द रॉक्स. तुम इतना तो जानते हो न कि उसका सिगरेट पीने का मन कब करता है और वो तब भी सिगरेट नहीं पीती...तो बता दूं उस रात उसने बहुत सी सिगरेटें पी थीं...फिर उदास होते शहर की बुझती रोशनियों में तुम्हारे चेहरे का नूर देखा था.

उफ़क पर किसी दूर शहर का प्रतिबिम्ब था कि सितारों का कोई जखीरा तुम्हारे चेहरे जैसा लगा था...उँगलियों में फंसी सिगरेट ख़त्म होने वाली थी जब उसने एक गहरा कश लिया और तुम्हारी याद के साथ उसे सीने में कैद कर लिया...सांस बुझती रही गर्म कोयलों के साथ कि खुले में अलाव तापते हुए उसने सिर्फ तुम्हें याद किया...यकीन करो पार्टी में कोई ऐसा नहीं था जिसने उसे मुड़ के न देखा हो...उसके चेहरे पर एक बड़ी खुशमिजाज़ सी मुस्कराहट थी...बहुत जिंदगी थी उसके चेहरे पर...और तुम तो जानते हो जिंदगी से ऐसा लबरेज़ चेहरा सिर्फ इश्क में होता है.

तुमने उसे उस रात डांस करते हुए नहीं देखा...यूँ तो वो इतना अच्छा डांस करती है कि फ्लोर पे लोग डांस करना भूल के सिर्फ उसकी अदाएं देखते हैं...पर कल वो दूसरे मूड में थी...उसके सारे स्टेप्स गड़बड़ थे पर वो हंस रही थी बेतहाशा...वो खुश थी बहुत...कहने को वो किसी और की बांहों में थी पर उससे पूछो तो उसकी आँखों के सामने बस एक ही चेहरा था...तुम्हारा. 




कब तक कोई इस खुश-ख्याल में जिए कि तुम्हारी बांहों में मर जाना कैसा होता होगा?

13 January, 2012

न दिया करो उधार के बोसे...इनका सूद चुकाते जिंदगी बीत जाती है

'बहुत खुश हूँ मैं आज...खुश...खुश...खुश...खुश...बहुत बहुत खुश...आज जो चाहे मांग लो!' प्रणय बीच सड़क पर ठिठका खड़ा था और वो उसके कंधे पर एक हाथ रखे उसके उसे धुरी बना कर उसके इर्द गिर्द दो बार घूम गयी और फिर उसके बायें कंधे पर एक हाथ रख कर झूलते हुए उसकी आँखों में आँखें डाल मुस्कुरा उठी.

'अच्छा, कितनी खुश?'
कहते हुए प्रणय ने उसके माथे पर झूल आई लटों को हटाया..पर लड़की ने सर को झटका दिया और शैम्पू किये बाल फिर से उसके कंधे पर बेतरतीब गिर उठे और खुशबू बिखर गयी.

'इतनी कि अपना खून माफ़ कर दूं...'
लड़की फिर से उसकी धुरी बना के उसके इर्द गिर्द घूमने लगी थी, जैसे केजी के बच्चे किसी खम्बे को पकड़ पर उसके इर्द गिर्द घूमते हैं...लगातार.

प्रणय ने फिर उसकी दोनों कलाइयाँ अपने एक हाथ में बाँधीं और दुसरे हाथ से उसके चेहरे पर से बिखरे हुए बाल हटाये और पूछा...'हाँ, अच्छा...तब तो सच में वो दोगी जो मांग लूं?

लड़की खिलखिला के हंस उठी...'पहले हाथ छोड़ो मेरा...मैं आज रुक नहीं सकती...और मेरे हाथ पकड़ लोगे तो मैं बात नहीं कर पाउंगी...तुम जानते हो न...अच्छा जाने दो...हाथ छोड़ो ना...अच्छा ...बोलो...तुम्हें क्या चाहिए?'

'कैन आई किस यू?'

लड़की एकदम स्थिर हो गयी...गालों से लेकर कपोल तक दहक गए...होठ सुर्ख हो गए...एकदम से चेहरे पर का भाव बदल गया...अब तक जो शरारत टपक रही थी वहां आँखें झुक गयीं और आवाज़ अटकने लगी...

'जान ले लो मेरी...कुछ भी क्या...छोड़ो मुझे, जाने दो!' मगर उसने फिर हाथ छुड़ाने की कोशिशें बंद कर दी थीं...और एकदम स्थिर खड़ी थी.

'झूठी हो एक नंबर की, अभी तो बड़ा बड़ा भाषण दे रही थी, खून माफ़ कर देंगे...जाने क्या क्या!' प्रणय ने छेड़ा उसे...उसके हाथ अब भी उसकी कलाइयाँ बांधे हुए थे...और दूसरा हाथ से उसने उसकी ठुड्डी पकड़ रखी थी ताकि उसका चेहरा देख सके.

'उहूँ...'

'अच्छा चलो, हाथ छोड़ रहा हूँ...देखो भागना मत...वरना बहुत दौड़ाउंगा और जबरदस्ती किस भी करूँगा...तुम सीधे कोई बात के लिए कब हाँ करती हो...ठीक?' लड़की ने हाँ में सर हिलाया था तो प्रणय से कलाइयाँ ढीली की थीं...लड़की वैसे ही खड़ी रही...कितनी देर तक...भूले हुए कि प्रणय ने उसका हाथ नहीं पकड़ रखा है अब. प्रणय उहापोह में था कि इसे हुआ क्या...एक लम्हे उसका दिल कर भी रहा था उसे चूम ले...कल जा भी तो रही है...जाने कब आएगी वापस...आएगी तो प्यार रहेगा भी कि नहीं...लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन यू नो...मगर पिंक कलर के कपड़ों में वो गुड़िया जैसी लग रही थी...सेब जैसे लाल गालों वाली... इतनी मासूम...इतनी उदास और इतनी नाज़ुक कि उसे लगा कि टूट जायेगी. उसे ऐसे देखने की आदत नहीं थी...वो हमेशा मुस्कुराती, गुनगुनाती, चिढ़ाती, झगड़ा करती ही अच्छी लगती थी. उसे अपराधबोध भी होने लगा कि उसने जाते वक़्त उसे क्या कह दिया...क्या यही चेहरा याद रखना होगा...आँख में अबडब आंसू भी लग रहे थे.

फिर एकदम अचानक लड़की उसके सीने से लग के सिसक पड़ी...प्रणय ने उसे कभी भी रोते देखा ही नहीं था...उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे...माथे पर थपकियाँ दे रहा था...पीठ सहला रहा था...बता रहा था कि मत रो...किसलिए मत रो उसे मालूम नहीं...ये भी नहीं कह पा रहा था कि वापस तो आओगी ही...मैं मिलने आऊंगा...कुछ भी नहीं...बस वो रो रही थी और प्रणय को चुप कराना नहीं आता था. बहुत देर सिसकती रही वो, उसके नाखून कंधे में चुभ रहे थे...शर्ट गीली हो रही थी...फिर उसने खुद ही खुद को अलग किया.

'तुम्हें मालूम नहीं है मैं तुम्हें कितना मिस करुँगी...तुम्हें ये मालूम है क्या कि मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ?'

फिर उसने लड़की ने हाथ के इशारे से इधर आओ कहा...प्रणय को लगा अब फिर कोई सेक्रेट बताएगी और फिर ठठा के हँसेगी लड़की...पर लड़की ने अंगूठे और तर्जनी से उसकी ठुड्डी पकड़ी और दायें गाल पर किस करते हुए कहा...'दूसरा वाला उधार रहा, आ के ले लेना मुझसे कभी'.
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उधर लड़की भी सालों साल सोचती रही कि अगर वो उससे प्यार करता था तो सवाल क्यूँ पूछा...सीधे किस क्यूँ नहीं किया? सोचना ये भी था कि वो कभी आया क्यूँ नहीं लौट के...

पर जिंदगी जो होती है न...कहती है कुछ उधार बाकी रहने चाहिए...इससे लोग आपको कभी भूलते नहीं...प्रणय सोचता है यूँ भी उसे भूलना कौन सा मुमकिन था.


जाने क्यूँ हर साल के अंत में सर के सफ़ेद बाल गिनते हुए डायरी में लिखे इस सालों पुराने पन्ने को पढ़ ही लेता था...


कल ख्वाब में 
मेरे कांधे पर सर रख कर
सिसकते हुए 
उसने कहा
हम आज आखिरी बार बिछड़ रहे हैं

सुबह
मेरे बाएँ कांधे पर उभर आया था
उसके डिम्पल जितना बड़ा दाग
ठीक उसकी आँखों के रंग जितना...सियाह! 

04 January, 2012

वीतराग!

तुमको भी एक ख़त लिखना था
लेकिन मन की सीली ऊँगली
रात की सारी चुप्पी पी कर
जरा न हिलती अपनी जगह से

जैसे तुम्हारी आँख सुनहली
मन के सब दरवाजे खोले
धूप बुलाये आँगन आँगन
जो न कहूँ वो राज़ टटोले

याद की इक कच्ची पगडण्डी
दूर कहीं जंगल में उतरे
काँधे पर ले पीत दुपट्टा
पास कहीं फगुआ रस घोले


तह करके रखती जाऊं मैं
याद के उजले उजले कागज़  
क्या रखूं क्या छोड़ के आऊं
दिल हर एक कतरे पर डोले

नन्हे से हैं, बड़े सलोने
मिटटी के कुछ टूटे बर्तन
फीकी इमली के बिच्चे कुछ
एक मन बांधे, एक मन खोले

शहर बहे काजल सा फैले
आँखों में बरसातें उतरें
माँ की गोदी माँगूँ, रोऊँ
पल समझे सब, पल चुप हो ले

धान के बिचडों सा उजाड़ कर
रोपी जाऊं दुबारा मैं
फसल कटे शहर तक जाए
चावल गमके घर घर बोले

मेरे घर की मिटटी कूके
मेरा नाम पुकारे रे
शीशम का झूला रुक जाए
कितने खाए दिल हिचकोले

ऐसे में तुम ठिठके ठिठके
करते हो मुस्काया यूँ
इन बांहों में सारी दुनिया
जो भी छुए कृष्ण रंग हो ले 

21 December, 2011

कभी मिलोगे मुझसे?

मैंने जिंदगी से ज्यादा बेरहम निर्देशक अपनी जिंदगी में नहीं देखा...मुझे इसपर बिलकुल भी भरोसा नहीं. दूर देश में बैठे हुए सबसे वाजिब डर यही है कि तुमसे मिले बिना मर जायेंगे. एक बेहद लम्बा इंतज़ार होगा जिसे हम अपना दिल बहलाने के लिए छोटे छोटे टुकड़े में बाँट कर जियेंगे...यूँ ऐसा जान कर नहीं करेंगे पर जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा अगर ये जान जायें कि इंतज़ार सांस के आखिरी कतरे तक है.

हो ये भी सकता है कि कई कई बार हम मिलते मिलते रह जायें...कि कोई ऐसा देश हो जो मेरे तुम्हारे देश के बीच हो...जिसमें अचानक से मुझे कोई काम आ जाए और तुम्हें भी...तुम्हें धुएं से अलेर्जी है और मुझे नया नया सिगरेट पीने का शौक़...तो जिस ट्रेन में हमारी बर्थ आमने सामने है...उसमें मैं अपनी सीट पर कभी रहूंगी ही नहीं...कि मुझे तो सिगरेट फूंकने बाहर जाना होगा. जब मैं लौटूं तो तुम किसी अखबार के पीछे कोई कहानी पढ़ रहे हो...और जिंदगी, हाँ हाँ वही डाइरेक्टर जो सीन में दीखता नहीं पर होता जब जगह है...जिंदगी अपनी इस लाजवाब कहानी की बुनावट पर खुश जो जाए. सोचो कि उसी ट्रेन में, तुम्हारी ही याद में सिगरेट दर सिगरेट फूंकती जाऊं और सपने में भी ना सोचूं कि जो शख्स सामने है बर्थ पर तुम ही हो. जिंदगी के इन खुशगवार मौकों पर हमें यकीन नहीं होता न...तो कह ये भी सकते हैं कि जिंदगी जितनी बुरी डायरेक्टर है...हम कोई उससे कम बुरे एक्टर भी नहीं हैं. हमेशा स्क्रिप्ट का एक एक शब्द पढ़ते चलते हैं...थोड़ी देर नज़र उठा कर अपने आसपास देखें तो पायेंगे कि हमारी गलती से कई हसीन मंज़र छूट गए हैं हमारे देखे बिना.

कोई बड़ी बात न होगी कि उस शहर की सड़कों पर हम पास पास से गुजरें पर एक दूसरे को देख ना पाएं...तब जबकि मेरी भी आदत बन चुकी हो इतने सालों में कि हर चेहरे में तुम्हें ढूंढ लेती हूँ पर जब तुम सामने हो तो तुम्हें पहचान ना पाऊं कि अगेन, जिंदगी पर भरोसा न हो कि वो तुम्हें वाकई मेरे इतने करीब ले आएगी. उस अनजान शहर में जहाँ हमें नहीं मिलना था...जहाँ हमें उम्मीद भी नहीं थी मिलने की...मैं अपने उन सारे दोस्तों को फोन करती हूँ जिनके बारे में जानती हूँ कि उन्होंने मुझे इश्क हो जाने की दुआएं दी होंगी...सिगरेट के अनगिन कश लगते हुए फ़ोन पर बिलखती हूँ...कि अपनी दुआएं वापस मांग लो...इश्क मेरी जान ले लेगा. एक सांस भी बिना धुएं के अन्दर नहीं जाती...एक एक करके सारे दोस्तों को फोन कर रही हूँ...सिगरेट का पैकेट ख़त्म होता है, नया खुलता है, शाम ढलती है...कुछ दिखता नहीं है धुएं की इस चादर के पार...मैंने अपनेआप को एक अदृश्य कमरे में बंद कर लिया है और उम्मीद करती हूँ कि तुम्हारी याद यहाँ नहीं आयगी...इस बीच शहर सो गया है और बर्फ पड़नी शुरू हो गयी है. स्कॉच का पैग रखा है...प्यास लगी है...रोने से शरीर में नमक और पानी की कमी हो जाती है, उसपर अल्कोहल से डिहाईडरेशन भी हो रहा है.

अगली बदहवास सुबह सर दर्द कम करने के लिए कॉफ़ी पीने सामने के खूबसूरत से कॉफ़ी शॉप पर गयी हूँ...तुम्हारे लिखे कुछ मेल के प्रिंट हैं...कॉफ़ी का इंतज़ार करती हुयी पढ़ रही हूँ...चश्मा उतार रखा है टेबल पर. इस अनजान शहर में किसी चेहरे को देखने की इच्छा नहीं है...कोई भी अपना नहीं आता यहाँ...सामने देखती हूँ...सब धुंधला है...दूर की नज़र कमजोर है न...कोई सामने आता हुआ दिखता है...सफ़ेद कुरते जींस में...तुम्हारी यादों के बावजूद मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आते हैं जब मेरा सबसे पसंदीदा हुआ करता था कुरते और नीली जींस का ये कॉम्बिनेशन. ऐसा महसूस होता है कि कोई मेरी ओर देख कर मुस्कुराया है. मैं चश्मा पहनने के लिए उठाती हूँ कि सवाल आता है...आपके साथ एक कॉफ़ी पी सकता हूँ...तुम जिस लम्हे दिखते हो धुंधले से साफ़ ठीक उसी लम्हे तुम्हारी आवाज़ तुम्हारे होने का सबूत दे देती है.

एक लम्हा...अपनी बाँहें उठा चुकी हूँ तुम्हें गले लगाने के लिए फिर कुछ अपनी उम्र का ख्याल आ जाता है कुछ शर्म...तुम्हारी आँखों में झाँक लेती हूँ...अपने जैसा कुछ दिखता है...कंधे पे हाथ रखा है और सेकण्ड के अगले हिस्से में मैं हाथ मिलाती हूँ तुमसे. तुमने बेहद नरमी से मेरा हाथ पकड़ा है...मैं देखती हूँ कि तुम्हारे हाथ बिलकुल वैसे हैं जैसे मैंने सोचे थे. किसी आर्टिस्ट की तरह खूबसूरत, जैसे किसी वायलिन वादक के होते हैं...आमने सामने की कुर्सियों पर बैठे हैं. कहने को कुछ है नहीं...बहुत सारा शोर है चारों तरफ...कैफे में कोई तो गाना बज रहा था...ठीक इसी लम्हे ख़त्म होता है...अचानक से जैसे बहुत कुछ ठहर गया है...मुझे छटपटाहट होती है कुछ करने की...तुम्हारे माथे पर एक आवारा लट झूल रही है...मैं उँगलियों से उसे उठा कर ऊपर कर देती हूँ...कैफे में नया गाना शुरू होता है...ला वि एन रोज...फ्रेंच गाना है...जिसका अर्थ होता है, जिंदगी को गुलाबी चश्मे से देखना...मेरा बहुत पसंदीदा है...तुम जानते हो कि मुझे बेहद पसंद है...तुम भी कहीं खोये हुए हो.

ये कितनी अजीब बात है कि जितनी देर हम वहाँ हैं हमने एक शब्द भी नहीं कहा एक दूसरे को...यकीन नहीं होता कि कुछ शब्द ही थे जो हमें खींच के पास लाये थे...कुछ अजीब से ख्याल आ रहे थे जैसे कि क्यूँ नहीं तुम मेरा हाथ यूँ पकड़ते हो कि नील पड़ जाएं...कि किसी लम्हे मुझे कहना पड़े...हाथ छोड़ो, दुःख रहा है...कि मैं सोच रही हूँ कि मैंने कितनी सिगरेट पी है...और तुम्हें सिगरेट के धुएं से अलेर्जी है...या कि तुमने सफ़ेद कुरता जो पहना है, क्या मैंने कभी तुम्हें कहा था कि मेरी पसंदीदा ड्रेस रही है कोलेज के ज़माने से और आज मैंने इत्तिफाकन सफ़ेद कुरता और नीली जींस नहीं पहनी है...ये लगभग मेरा रोज का पहनावा है. कि तुम सामने बैठे हो और जिंदगी से शिकायत कर रही हूँ कि तुम पास नहीं बैठे हो!

इसके आगे की कहानी नहीं लिख सकती...मुझे नहीं मालूम जिंदगी ने कैसा किस्सा लिखा है...पर उसकी स्क्रिप्टराइटर होने के बावजूद मेरे पास ऐसे कोई शब्द नहीं हैं जो लिख सकें कि किन रास्तों पर चल कर तुमसे अलग हुयी मैं...कि तुमसे मिलने के बाद वापस कैसे आई...कि तुम्हारे जाने के बाद भी जीना कैसे बचता है...इश्क में बस एक बार मिलना होना चाहिए...उसके बाद उसकी याद आने के पहले एक पुरसुकून नींद होनी चाहिए...ऐसे नींद जिससे उठना न हो. 

25 November, 2011

आवाज़ घर

रात एक आवाज़ घर है जिसमें याद की लौटती आवाजें रहती हैं. लम्हों के भटकते टुकड़े अपनी अभिशप्त प्रेमिकाओं को ढूंढते हुए पहुँचते हैं. आवाज़ घर में अनगिन दराजें हैं...और दराजों की इस बड़ी सी आलमारी पर कोई निशान नहीं है, कोई नंबर, कोई नाम नहीं. कोई नहीं जानता कि किस दराज से कौन सा रास्ता किधर को खुल जाएगा.

हर दराज़ में अधूरी आवाजें हैं और ये सब इस उम्मीद में यहाँ सकेरी गयी हैं कि एक दिन इन्हें इनका जवाब मिलेगा...इंतजार में इतने साल बीत गए हैं कि कुछ सवाल अब जवाब जैसे हो गए हैं. जैसे देखो, दराज का वो पूर्वी किनारा...हिमालय के जैसा है...उस दराज तक पहुँचने की कोई सीढ़ी नहीं है. पर तुम अगर एकदम मन से उसे खोलना चाहोगे न तो वो दराज नीचे होकर तुम्हारे हाथों तक आ जायेगी. जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता. उस दराज में एक बहुत पुराना सवाल पड़ा है, जो कभी पूछा नहीं गया...इसलिए अब उसे जवाब का इंतज़ार भी नहीं है. सवाल था 'क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?'. जब सवाल के पूछे जाने की मियाद थी तब अगर पूछ लिया जाता तो इसे शान्ति मिल जाती और ये एक आम सवाल होकर हवा में उड़ जाता...मुक्त हो जाता. पर चूँकि पूछा नहीं गया और सालों दराज में पड़ा रहा तो उम्र की सलवटों ने इस किशोर सवाल को बूढ़ा और समझदार बना दिया है. पके बालों वाला ये सवाल साधना में रत था...इसमें अब ऐसी शक्ति आ गयी है कि तुम्हारे मन के अन्दर झाँक के देख लेता है. इसे वो भी पता है जो खुद तुम्हें भी नहीं पता. इस दराज को खोलोगे तो बहुत सोच समझ कर खोलना, क्यूंकि इससे मिलने के बाद तुम्हारी जिंदगी कभी पहले जैसी नहीं रह पायेगी.

ठीक तुम्हारे हाथ की ऊंचाई पर जो सुनहली सी दराज है न, वो मेरी सबसे पसंदीदा दराज है...पूछो कैसे, कि मैंने तो कोई नाम, नंबर नहीं लिखे हैं यहाँ...तो देखो, उस दराज का हैंडिल दिखा तुम्हें, कितना चमकदार है...तुम्हारी आँखों जैसा जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे. दराज के हैंडिल पर जरा भी धूल नहीं दिखेगी तुम्हें...इसे मैं अक्सर खोलती रहती हूँ...कभी कभी तो एक ही दिन में कई बार. इस दराज में तुम्हारी हंसी बंद है...जब तुम बहुत पहले खुल कर हँसे थे न...मैंने चुपके से उसका एक टुकड़ा सकेर दिया था...और नहीं क्या, तुम्हें भले लगे कि मैं एकदम अव्यवस्थित रहती हूँ, पर आवाजों के इस घर में मुझे जो चाहिए होता है हमेशा मिल जाता है. बहुत चंचल है ये हंसी, इसे सम्हाल के खोलना वापस डब्बे में बंद नहीं होना चाहती ये...तुम्हारा हाथ पकड़ कर पूरे घर में खेलना चाहती है...इसकी उम्र बहुत कम होती है न, कुछ सेकंड भर. तो जितनी उर्जा, जितना जीवन है इसमें खुल के जी लेती है.

अरे अरे...ये क्या करने जा रहे हो, ये मेरी सिसकियों की दराज है...एक बार इसे खोल लिया तो सारा आवाज़ घर डूब जाएगा. फिर कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देगी...वो नहीं देखते मैंने इसे अपने दुपट्टे से बाँध रखा है कि ये जल्दी खुले न...फिर भी कभी कभार खुल जाता है तो बड़ी मुश्किल होती है, सारी आवाजें भीग जाती हैं, फिर उन्हें धूप दिखा के वापस रखना पड़ता है, बड़ी मेहनत का काम है. इस दराज से तो दूर ही रहो...ये सिसकियाँ पीछा नहीं छोड़ेंगी तुम्हारा...और तुम भी इसी तिलिस्म के होके रह जाओगे. यायावर...तुम्हें बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मैं तो तुम्हें बस दिखा रही थी कि कैसे तुम्हारी आवाज़ के हर टुकड़े को मैंने सम्हाल के रखा है...तुम्हें ये न लगे कि मैं तुम्हारी अहमियत नहीं समझती.












तुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?

19 October, 2011

खुराफातें

कल  कुणाल कलकत्ता से वापस आ रहा था, चार दिन के लिए ऑफिस का काम था. कह के तो सिर्फ दो दिन के लिए गया था, पर जैसा की अक्सर होता है, काम थोड़ा लम्बा खिंच गया और रविवार की रात की जगह मंगल की रात को वापस आ रहा था.

मैंने कार वैसे तो पिछले साल जनवरी में सीखी थी, पर ठीक से चलाना इस साल शुरू किया. अक्सर कार से ही ऑफिस जा रही हूँ. इसके पीछे दो कारण रहे हैं, एक तो मेरा ऑफिस १० किलोमीटर से दूर जाने वाली जगह हो जा रहा है, और दूसरा स्पोंडीलैटिस का दर्द जो बाइक चलाने से उभर आता है. बंगलोर की सडकें बड़ी अजीब हैं...ये नहीं की पूरी ख़राब है, एकदम अच्छी सड़क के बीचो बीच गड्ढा हो सकता है. ऐसा गड्ढा किसी भी दिन उग आता है सड़क में. तो आपकी जानी पहचानी सड़क भी है तो भी आप निश्चिंत हो कर बाइक तो चला ही नहीं सकते हैं. अब मैं कार अच्छे से चला लेती हूँ. हालाँकि ये सर्टिफिकेट खुद को मैंने ही दिया है...और कोई  मेरे साथ बैठने को तैयार ही नहीं होता. कुणाल के साथ जब भी कहीं जाती हूँ तो वही ड्राइव करता है. उसका कहना है कि हफ्ते भर ऑफिस की बहुत परेशानी रहती है उसे, फिर वीकेंड पर टेंशन नहीं ले सकता है. मैं कभी देर रात चलाती भी हूँ तो सारे वक़्त टेंशन में रहता है. 

वर्तमान में लौटते हैं...सवाल था एअरपोर्ट जाने का...वैसे मेरे ममेरे भाई भी इसी शहर में रहते हैं तो पहले सोचा था उनके साथ चली जाउंगी. फिर पता चला उन्हें ऑफिस में बहुत काम है...और कुणाल की फ्लाईट ८ बजे पहुँच रही थी. इस समय ट्रैफिक भी इतना रहता है कि जाने में कम से कम दो घंटे लगते. आने के पहले कुणाल से पूछा था की क्या करूँ, बस से आ जाऊं तो उसने मना कर दिया था. बंगलौर में एअरपोर्ट जाने के लिए अच्छी वोल्वो बसें चलती हैं, जिनसे जाना सुविधाजनक है. अब जैसे ही कुणाल ने फ्लाईट बोर्ड की हमारा मन डगमग होने लगा कि जाना तो है. पहले तो सब्जी वगैरह बनाने की तैयारी कर रही थी, दूध फाड़ के पनीर निकाल लिया था और उसे  टांग कर छोड़ दिया था. ताज़े पनीर से सब्जी में बहुत अच्छा स्वाद आता है. 

अब मैं दुविधा में थी...या तो खाना बना सकती थी क्यूंकि पता था कुणाल और साकिब(उसका टीममेट) ने सुबह से कुछ ढंग का खाया नहीं था...तो एकदम भूखे आ रहे थे...या फिर मैं अकेले एअरपोर्ट जा सकती थी...जो कि कुणाल ने खास तौर से मना किया था. अब अगर आप मुझे जरा भी जानते हैं तो समझ गए होंगे की मैंने क्या किया होगा. रॉकस्टार के गाने सीडी पर बर्न किये और जो कपड़े सामने मिले एक मिनट में तैयार हो गयी...साथ में हैरी पोटर की किताब भी...की अगर इंतजार करना पड़े तो बोर न होऊं. 

मैंने कभी इतनी लम्बी दूर तक गाड़ी नहीं चलाई थी...और तो और हाईवे पर सबके साथ होने पर भी नहीं चलाई थी...एअरपोर्ट नैशनल हाईवे नंबर सात से होते हुए जाना होता है. इस रास्ते पर जाने का कई बार मेरा दिल किया है...पर हमने खुद को समझा कर कहानी लिखने में संतोष कर लिया था. खैर...इतना किन्तु परन्तु हम करते तो इस दर्जे के मूडी थोड़े न कहलाते. 

रास्ते में बहुत ट्रैफिक था...पर गाने सुनते हुए कुछ खास महसूस नहीं हुआ. रोज की आदत भी है सुबह ऑफिस जाने की. मज़ेदार बात ये हुयी की आजकल मेट्रो के लिए या फ़्लाइओवेर बनाने के लिए सड़कें खुदी हुयी हैं. पहले जब भी इस रास्ते पर गयी हूँ एकदम अच्छी सड़कें हैं. रेस कोर्स रोड तक तो सही थी, गोल्फ ग्राउंड भी आया था, उसके बाद विंडसर मैनर का ब्रिज भी आया था...आगे एक फ़्लाइओवेर आया, यहाँ मैं पूरा कंफ्यूज थी कि मैं कोई गलत रास्ता लेकर आउटर रिंग रोड पर आ गयी हूँ. रास्ता इतना ख़राब मैंने कभी नहीं देखा था इधर. 

अब चिंता होने लगी...इतने ट्रैफिक में अगर गलत रस्ते पर आ गयी हूँ तो वापस जाने में देर हो जाएगी और कुणाल की फ्लाईट लैंड कर जायेगी...तब क्या कहूँगी कि मैं कहीं खोयी हुयी हूँ. फ़्लाइओवर पर ही गाड़ी रोकी और बाहर निकल कर पीछे वाली कार वाले से पूछा 'ये एयरपोर्ट रोड तो नहीं है न?' पूरा यकीन था कि बोलेगा तुम कहीं टिम्बकटू में हो...पर उसने कहा कि ये एयरपोर्ट रोड ही है. जान में जान आई. 

उसके बाद अच्छा लगा चलाने में...डर तो खैर एकदम नहीं लगा. ७० के आसपास चलायी...गड़बड़ बस ये हुयी कि कभी पांचवे गियर में चलने की नौबत ही नहीं आई शहर में तो मुझे लगा था कि वो गियर ८० के बाद लगाते हैं. आकाश को फोन भी किया पूछने के लिए तो उसने उठाया नहीं. खैर...मैं दो घंटे में पहुँच गयी थी एअरपोर्ट. आराम से वहां काटी रोल खाया और मिल्कशेक पिया. 

कुणाल जब लैंड किया तो मैंने कहा की मैं एअरपोर्ट में हूँ. एकदम दुखी होके बोलता है 'अरे यार!'. और फिर जब बाहर आया तो मैंने कहा ...कुणाल वाक्य पूरा करो...मैं एअरपोर्ट... और उसने कहा कार से आई हूँ. मैंने कहा हाँ...अब तो बस...उसकी शकल, क्या कहें...बाकी लोगों के सामने डांटा भी नहीं. बस बोला की ये गलत बात है यार....ऐसे भागा मत करो. 

बस...अच्छी रही मेरी लौंग ड्राइव...और अब मैं उस झील किनारे जाउंगी किसी दिन. जब जाउंगी फिर एक कहानी बनेगी....देखते हैं कब आता है वो दिन.

13 October, 2011

किस. तरह. छीनेगा. मुझसे. ये. जहाँ. तुम्हें.

बुझती शाम, टीले पर तनहा चाँद का इंतज़ार कर रहा हूँ. कहीं से खबर आई है की मौत का दिन मुक़र्रर हुआ है कल सुबह. जिंदगी की एक आखिरी शाम है, वैसी ही तो है तुम्हारे जाने के पहले वाली शाम जैसी. चाँद उस दिन जैसा खूबसूरत कब निकला फिर. दिल की जगह बड़ी खाली सी जगह है...तुम्हारी और तुम्हारी यादों की सारी जगह खाली है. जैसे एक वृत्त है और उसकी परिधि से घुलता जा रहा है जिस्म...हौले हौले वृत्त का आकर बढ़ता जा रहा है. 

ख़ामोशी में एक गीत बजता है और ज़ख्म में टाँके लगने लगते हैं...आवाज़ का एक दरिया है जो खालीपन में उतरने लगता है और समंदर भरने लगता है. वही सदियों पुराने पत्थर हैं और तुम्हारी गोद में सर रख कर लेटा हुआ हूँ, तुम माथे पर हाथ फिर रही हो, बीच बीच में मद्धम थपकियाँ भी दे देती हो...चांदनी आँखों में चुभ रही है, तुम्हारा चेहरा ठीक से नहीं दिख पाता है...तुमने जूड़े से पिन निकाला है और चाँद का पर्दा कर दिया है...तुम्हारे बालों में ये कौन सी खुशबू बसती है...तुम पास होती हो तो सब शांत होता जाता है. मन का गहरा समंदर भी हिलोर नहीं मारता, चुप किनारों पर आता है और वापस लौट जाता है. 

ऐसे शांति में मर जाना कितना सुकूनदेह होगा...तुम फरिश्तों के देश से आई हो क्या...तो फिर तुम्हारे आंसुओं में कौन सी दुआ होती है कि ज़ख्म भर जाते हैं...तुम वोही लड़की हो न कहानियों वाली की जिसके आंसू में अमृत होता है...मरने वाले लौट आते हैं. तुम मेरे माथे पर अपने होठ रखती हो तो सारी चिंता ख़त्म हो जाती है...मेरी आँखों को चूम लो तो शायद ये फिर कभी जिंदगी में न रोयें...जिंदगी आज भर की ही है...जिंदगी भर मेरे पास रुक जाओगी क्या...तुम हो...बस इतना काफी होगा. 

मेरी खुशियों की किताब खो गयी है. तुम्हारे जाने के बाद जितनी किताबें पढ़ी सबमें बहुत दर्द था...मिलते मिलते लोग बिछड़ जाते थे...कभी नहीं मिलते थे. तुम्हारे जाने के बाद दुनिया में गरीबी थी, फाके थे, भुखमरी थी, दीवारों में ख़त्म होती सड़कें थी...चुप रोती आँखें थीं. तुम थी तो मेरी उंचाई आसमान थी...तुम्हारी आँखों में पनाह मांगता हूँ...मेरी जान, ये दुनिया तुम बिन मेरी जान ले लेगी. 




09 October, 2011

जो लफ़्ज़ों में नहीं बंधता


जितना छोटा हो सकता था, उतना छोटा सा लम्हा है
अगर गौर से देखो समय के इस छोटे से टुकड़े से पूरी दुनिया की स्थिरता(बैलेंस समझते हैं न आप, वही) भंग हो सकती थी.
ज्वालामुखी फट सकते थे, ऊपर आसमान में राख उछलती और एक पूरा शहर नेस्तनाबूद हो जाता. ये पृष्ठभूमि में कोई तो शहर है जिसे आप नहीं जानते. राख में हम ऐसे ही अमूर्त हो जाते, सदियों के लिए...तुम्हारी बाहों में मैं, हवा में उड़ती हुयी...आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे गुनगुनाते हुए. 

हो ये भी सकता था की सूनामी लहरें उठती और इतने ऊँचे छत से भी हमें बहा ले जाती, फिर कहीं नहीं लौट के आने के लिए...या फिर भूकंप आता, ये जो हलकी दरार पड़ रही है और चौड़ी हो जाती और हम किसी हलके गुलाबी पंख की तरह हवा में गिरते, गुरुत्वाकर्षण का हमपर पूरा असर नहीं होता. 

इस एक लम्हे में दुनिया ख़त्म हो सकती थी...पर हमें परवाह नहीं...हमने इस लम्हे में जिंदगी जी ली है. हमने जितना छोटा सा हो सकता है, लम्हा...हमने इश्क किया है.

picture courtesy: Deviantart

13 October, 2010

दिल्ली...पहचान तो लोगी मुझे?

वक़्त नहीं लगता, शहर बदल जाते हैं. ये सोच के चलो कि लौट आयेंगे एक दिन, जिस चेहरे को इतनी शिद्दत से चाहा उसे पहचानने में कौन सी मुश्किल आएगी...मगर सुना है कि दिल्ली अब पहचान में नहीं आती...कई फिरंगी आये थे उनके लिए सजना सँवरना पड़ा दिल्ली को. दिल्ली की शक्लो सूरत बदल गयी है.
सुना है महरौली गुडगाँव के रास्ते पर बड़ा सा फ़्लाइओवर बना है और गाड़ियाँ अब सरपट भागती हैं उधर. मेरे वक़्त में तो IIMC से थोड़ा आगे बढ़ते ही इतना शांत था सब कुछ कि लगता ही नहीं था कि दिल्ली है...खूब सारी हरियाली, ठंढी हवा जैसे दुलरा देती थी गर्मी में झुलसे हुए चेहरे को...कई सार मॉल भी खुल गए हैं...एक बेर सराय का मार्केट हुआ करता था, छोटा सा जिसमें अक्सर दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाया करती थी. छोटी जगह होने का ये सबसे बड़ा फायदा लगता था...और फिर साथ में कुछ खाना पीना, समोसे वैगेरह...चाय या कॉफ़ी और टहलते हुए वापस आना कैम्पस तक. 
JNU तो हमारे समय ही बदलने लगा था...मामू के ढाबे की जगह रेस्तारौंत जैसी कुर्सी टेबलों ने ले ली, वो पत्थरों पर बैठ कर आलू पराठा और टमाटर की चटनी खाना और आखिर में गुझिया, चांदनी रात की रौशनी में...टेफ्ला में दीवारों पर २००६ में जो कविता थी मेरे एक दोस्त की, जिसे मैं शान से बाकी दोस्तों को दिखाती थी वो भी बदल दी गयी. पगडंडियों पर सीमेंट की सड़कें बन गयीं...जंगल अपने पैर वापस खींचने लगा...समंदर पे आती लहरों की तरह. 
जो दोस्त बेर सराय, जिया सराय में रहते थे वो पूरी दिल्ली NCR में बिखर गए. पहले एक बार में सबके घर जाना हो जाता था...इधर से उठे उधर जाके बैठ गए...अब किसी चकमकाती मैक डी या पिज़ा हट में मिलना होगा...एसी की हवा दोस्ती को छितरा देती है, बिखरने लगती है वो आत्मीयता जो गंगा ढाबे के मिल्क कॉफ़ी में होती है. अब तो पार्थसारथी जाने के लिए आईडी कार्ड माँगा जाने लगा है...कहाँ से कहें कि ये जगह JNU  में अभी पढने वाले लोगों से कहीं ज्यादा उनलोगों के लिए मायने रखती है जो यहाँ एक जिंदगी जी कर गए थे. पता नहीं अन्दर जाने भी मिलेगा कि नहीं.
१५ नवम्बर, किसी कैलेंडर में घेरा नहीं लगाना पड़ा है...आँखों को याद है कि जब दिल्ली आउंगी मैं, दो साल से भी ऊपर हुए...जाने कैसी होगी दिल्ली...याद के कितने चेहरों से मिल सकूंगी...नयी कितनी यादों को सहेज सकूंगी. बस...ख्वाहिशों का एक कारवां है जो जैसे डुबो दे रहा है. दिल्ली...जिंदगी का एक बेहद खूबसूरत गीत.

14 June, 2010

कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी

बारिशों में खोयी हो
अलसाई सी सोयी हो
थकी हो उदास हो
हाँ, मेरे आसपास हो
वहीँ से लौट आओ जिंदगी

ठहरा सा लम्हा है
भीगी सी सडकें हैं
चुप्पी सी कॉफ़ी है
बुझी सी सिगरेट है
वहीं बिखर जाओ जिंदगी

वो चुप मुस्कुराता है
हौले क़दमों से आता है
छत पे सूरज डुबाता है
अच्छी मैगी बनाता है
उससे हार जाओ जिंदगी

इश्क की थीसिस है
डेडलाइन की क्राईसिस है
जिस्म की तपिश है
रूह की ख्वाहिश है
इसमें उलझ जाओ जिंदगी

शब्द होठों पे जलते हैं
कागज़ पे खून बहता है
आँखें बंजर हो जाती हैं
शहर मर जाता है
अब अंकुर उगाओ जिंदगी

अब भी वापसी की राह तकती हूँ
कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी. 

13 August, 2009

गिनती, मैं और तुम


हर तीसरे दिन
मेरा हिसाब गड़बड़ा जाता है
मैं भूल जाती हूँ गिनती...

पलंग पर बिछा देती हूँ
तुम्हारे पसंद वाली चादर
सीधा कर देती हूँ सलवटें

बुक रैक पर तुम्हारी किताबें
झाड़ देती हूँ, एक एक करके
रख देती हूँ उन्हें अपनी किताबों के साथ

फेंक देती हूँ अलमारी में
धुले, बिन धुले कपड़े साथ में
मेरे तुम्हारे...हम दोनों के

जूतों को रैक से बाहर निकाल कर
धूप हवा खिलाने लगती हूँ
और अक्सर बाहर भूल जाती हूँ

जाने क्या क्या उठा लाती हूँ
अनजाने में...तुम्हारे पसंद की चीज़ें
और फ्रिज में भर देती हूँ

सारे कपड़े पुराने लगते हैं
कोई आसमानी रंग की साड़ी खरीदना चाहती हूँ
और कुछ कानों के बूंदे, झुमके, चूड़ियाँ

फ़िर से तेज़ी से चलने लगती हूँ बाइक
भीगती हूँ अचानक आई बारिश में
और पेट्रोल टैंक फुल रखती हूँ

टेंशन नहीं होती है अपनी बीमारी की
लगता है अब कुछ दिन और बीमार ही रहूँ
अब तो तुम आ रहे हो...ख्याल रखने के लिए

कमबख्त गिनती...
मैथ के एक्साम के रिजल्ट से
कहीं ज्यादा रुलाती है आजकल...

हर तीसरे दिन
मैं गिनती भूल जाती हूँ
लगता है तुम आज ही आने वाले हो...

जाने कितने दिन बाकी हैं...

08 August, 2009

एक और शाम ढल गई

दर्द अपनी वजहें ढूंढ लेता है
आंसू अपनी राह चले आते हैं
सबने तुम बिन जीने का बहाना ढूंढ लिया है

धुल जाते हैं तुम्हारे कपड़े
नींद नहीं आती तुम्हारी खुशबू के बिना
खाली हो जाता है मेरा कमरा

झाड़ू में निकल जाते हैं
तुम्हारे फेंके अख़बार
बेड के नीचे लुढ़के चाय के कप

करीने से सज जाता है
किताबों का रैक
अलग अलग हो जाती हैं तेरी मेरी किताबें

सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...

07 August, 2009

अकेले हम...अकेले तुम...मेरा सामान हुआ गुम



जरा अपने सामान में चेक करो
मेरा क्या क्या चुप चाप ले गए हो
मुझे बिना बताये
३० दिन की हंसी...
हिसाब लगाओ तो, एक दिन का १० बार तो होता ही होगा
दिन में दो बार करीने से आइना देखना
अक्सर एक बार तुम्हें लिफ्ट देने के कारण
खर्च होता एक्स्ट्रा पेट्रोल
मोड़ पर तुम्हें ढूँढने वाले ५ मिनट
और तुम्हें देख कर १००० वाट से चमकने वाली आँखें
इन सबके बिना जी नहीं सकती मैं...सब भिजवा दो...

या खुद ही लेकर आ जाओ ना...

30 July, 2009

इंतज़ार और सही...

हमेशा मेरे हिस्से ही क्यों आती हैं
याद वाली सड़कें...जिनपर साथ चले थे
बेतरह तनहा सा लगता है वो मोड़
जहाँ हम मिलते थे हर रात
घर तक साथ जाने के लिए...

हमेशा मैं ही क्यों रह जाती हूँ अकेली
घर के कमरों में तुम्हें ढूंढते हुए
नासमझ उम्मीदों को झिड़की देती
दरवाजे पर बन्दनवार टाँकती हुयी
इंतज़ार के दिन गिनती हुयी

हमेशा मुझसे ही क्यों खफा होते हैं
चाँद, रात, सितारे...पूरी रात
अनदेखे सपनों में उनींदी रहती हूँ
नींद से मिन्नत करते बीत जाते हैं घंटे
सुबह भी उतनी ही दूर होती है जितने तुम

हमेशा तुमसे ही क्यों प्यार कर बैठती हूँ
सारे लम्हे...जब तुम होते हो
सारे लम्हे जब तुम नहीं होते हो


28 July, 2009

एक सबब जीने का...एक तलब मरने की...



कुछ जवाबों का हमें ता उम्र इंतज़ार रहता है...खास तौर से उन जवाबों का जिनके सवाल हमने कभी पूछे नहीं, पर सवाल मौजूद जरूर थे...और बड़ी बेचारगी से अपने पूछे जाने की अर्जी लिए घूमते थे...और हम उससे भी ज्यादा बेदर्द होकर उनकी अर्जियों की तरफ़ देखते तक नहीं थे...


जिसे नफरत तोड़ नहीं सकती...उपेक्षा तोड़ देती है, नफरत में एक अजीब सा सुकून है, कहीं बहुत गहरे जुड़े होने का अहसास है, नफरत में लगभग प्यार जितना ही अपनापन होता है, बस देखने वाले के नज़रिए का फर्क होता है...


कुछ ऐसे जख्म होते हैं जिनका दर्द जिंदगी का हिस्सा बन जाता है...बेहद नुकीला, हर वक्त चुभता हुआ, ये दर्द जीने का अंदाज ही बदल देता है...एक दिन अचानक से ये दर्द ख़त्म हो जाए तो हम शायद सोचेंगे कि हम जो हैं उसमें इस दर्द का कितना बड़ा हिस्सा है...जिन रास्तों पर चल के हम आज किसी भी मोड़ पर रुके हैं, उसमें कितना कुछ इस दर्द के कारण है...इस दर्द के ठहराव के कारण कितने लोग आगे बढ़ गए...हमारी रफ़्तार से साथ बस वो चले जो हमारे अपने थे...इस दर्द में शरीक नहीं...पर उस राह के हमसफ़र जिसे इस दर्द ने हमारे लिए चुना था।


मर जाने के लिए एक वजह ही काफ़ी होती है...पर जिन्दा रहने के लिए कितनी सारी वजहों की जरूरत पड़ती है...कितने सारे बहाने ढूँढने पड़ते हैं...कितने लोगों को शरीक करना पड़ता है जिंदगी में, कितने सपने बुनने पड़ते हैं, कितने हादसों से उबरना पड़ता है और मुस्कुराना पड़ता है...


मौत उतनी खूबसूरत नहीं है जितनी कविताओं में दिखती है...


कविताओं में दिखने जैसी एक ही चीज़ है...इश्क...एक ही वजह जो शायद समझ आती है जीने की...प्यार वाकई इतना खूबसूरत है जितना कभी, कहीं पढ़ा था...और शायद उससे भी ज्यादा...


और तुम...बस तुम...वो छोटी सी वजह हो मेरे जीने की...


27 July, 2009

तुम जो गए हो...

तुम होते हो तो...
खूबसूरत लगती है, ट्रेन की खिड़की
बाहर दौड़ते खेत, पेड़, मकानों से उठता धुआं
डूबते हुए सूरज के साथ रंगा आसमान...

तुम होते हो तो...
कुतर के खाती हूँ, बिस्कुट, या कोई टॉफी
आइस क्रीम जाड़ों में भी अच्छी लगती है
मीठी होती है तुम्हारे साथ पी गई काफ़ी...

तुम होते हो तो...
खुशी से पहनती हूँ ४ इंच की हील
१० मिनट में तैयार हो जाती हूँ साड़ी में
भारी नहीं लगती दो दर्जन चूड़ियाँ हाथों में

तुम जो गए हो तो...
अँधेरा लगा एअरपोर्ट से घर तक का पूरा रास्ता
स्याह था आसमान पर उड़ते बादलों का झुंड
शुष्क थी बालों को उलझाती शाम की हवा

तुम जो गए हो तो...
फीका पड़ गया है डेयरी मिल्क का स्वाद
अधखुला पड़ा है बिस्कुट का पैकेट
बनी हुयी चाय कप में डाल के पीना भूल गई

तुम जो गए हो तो...
तह कर के रख दी हैं मैंने सारी साड़ियाँ
उतार दी हैं खनकती चूड़ियाँ
निकाल ली है वही पुरानी जींस

तुम जो गए हो तो...
अधूरा हो गया है सब कुछ
आधी हँसी...आधी रोई आँखें
आधी जगह खाली हो गई है अलमारी में

तुम जो ले गए हो...
मुझको बाँध सात समंदर पार
आधी ही रह गई हूँ मैं यहाँ
अकेली से भी कम...एक से भी कम

तुम जो गए हो...
मुश्किल है...हँसना, खाना, रहना
तुम जो गए हो...
बहुत मुश्किल हो गया है...जीना

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