रात एक आवाज़ घर है जिसमें याद की लौटती आवाजें रहती हैं. लम्हों के भटकते टुकड़े अपनी अभिशप्त प्रेमिकाओं को ढूंढते हुए पहुँचते हैं. आवाज़ घर में अनगिन दराजें हैं...और दराजों की इस बड़ी सी आलमारी पर कोई निशान नहीं है, कोई नंबर, कोई नाम नहीं. कोई नहीं जानता कि किस दराज से कौन सा रास्ता किधर को खुल जाएगा.
हर दराज़ में अधूरी आवाजें हैं और ये सब इस उम्मीद में यहाँ सकेरी गयी हैं कि एक दिन इन्हें इनका जवाब मिलेगा...इंतजार में इतने साल बीत गए हैं कि कुछ सवाल अब जवाब जैसे हो गए हैं. जैसे देखो, दराज का वो पूर्वी किनारा...हिमालय के जैसा है...उस दराज तक पहुँचने की कोई सीढ़ी नहीं है. पर तुम अगर एकदम मन से उसे खोलना चाहोगे न तो वो दराज नीचे होकर तुम्हारे हाथों तक आ जायेगी. जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता. उस दराज में एक बहुत पुराना सवाल पड़ा है, जो कभी पूछा नहीं गया...इसलिए अब उसे जवाब का इंतज़ार भी नहीं है. सवाल था 'क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?'. जब सवाल के पूछे जाने की मियाद थी तब अगर पूछ लिया जाता तो इसे शान्ति मिल जाती और ये एक आम सवाल होकर हवा में उड़ जाता...मुक्त हो जाता. पर चूँकि पूछा नहीं गया और सालों दराज में पड़ा रहा तो उम्र की सलवटों ने इस किशोर सवाल को बूढ़ा और समझदार बना दिया है. पके बालों वाला ये सवाल साधना में रत था...इसमें अब ऐसी शक्ति आ गयी है कि तुम्हारे मन के अन्दर झाँक के देख लेता है. इसे वो भी पता है जो खुद तुम्हें भी नहीं पता. इस दराज को खोलोगे तो बहुत सोच समझ कर खोलना, क्यूंकि इससे मिलने के बाद तुम्हारी जिंदगी कभी पहले जैसी नहीं रह पायेगी.
ठीक तुम्हारे हाथ की ऊंचाई पर जो सुनहली सी दराज है न, वो मेरी सबसे पसंदीदा दराज है...पूछो कैसे, कि मैंने तो कोई नाम, नंबर नहीं लिखे हैं यहाँ...तो देखो, उस दराज का हैंडिल दिखा तुम्हें, कितना चमकदार है...तुम्हारी आँखों जैसा जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे. दराज के हैंडिल पर जरा भी धूल नहीं दिखेगी तुम्हें...इसे मैं अक्सर खोलती रहती हूँ...कभी कभी तो एक ही दिन में कई बार. इस दराज में तुम्हारी हंसी बंद है...जब तुम बहुत पहले खुल कर हँसे थे न...मैंने चुपके से उसका एक टुकड़ा सकेर दिया था...और नहीं क्या, तुम्हें भले लगे कि मैं एकदम अव्यवस्थित रहती हूँ, पर आवाजों के इस घर में मुझे जो चाहिए होता है हमेशा मिल जाता है. बहुत चंचल है ये हंसी, इसे सम्हाल के खोलना वापस डब्बे में बंद नहीं होना चाहती ये...तुम्हारा हाथ पकड़ कर पूरे घर में खेलना चाहती है...इसकी उम्र बहुत कम होती है न, कुछ सेकंड भर. तो जितनी उर्जा, जितना जीवन है इसमें खुल के जी लेती है.
अरे अरे...ये क्या करने जा रहे हो, ये मेरी सिसकियों की दराज है...एक बार इसे खोल लिया तो सारा आवाज़ घर डूब जाएगा. फिर कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देगी...वो नहीं देखते मैंने इसे अपने दुपट्टे से बाँध रखा है कि ये जल्दी खुले न...फिर भी कभी कभार खुल जाता है तो बड़ी मुश्किल होती है, सारी आवाजें भीग जाती हैं, फिर उन्हें धूप दिखा के वापस रखना पड़ता है, बड़ी मेहनत का काम है. इस दराज से तो दूर ही रहो...ये सिसकियाँ पीछा नहीं छोड़ेंगी तुम्हारा...और तुम भी इसी तिलिस्म के होके रह जाओगे. यायावर...तुम्हें बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मैं तो तुम्हें बस दिखा रही थी कि कैसे तुम्हारी आवाज़ के हर टुकड़े को मैंने सम्हाल के रखा है...तुम्हें ये न लगे कि मैं तुम्हारी अहमियत नहीं समझती.
तुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?
हर दराज़ में अधूरी आवाजें हैं और ये सब इस उम्मीद में यहाँ सकेरी गयी हैं कि एक दिन इन्हें इनका जवाब मिलेगा...इंतजार में इतने साल बीत गए हैं कि कुछ सवाल अब जवाब जैसे हो गए हैं. जैसे देखो, दराज का वो पूर्वी किनारा...हिमालय के जैसा है...उस दराज तक पहुँचने की कोई सीढ़ी नहीं है. पर तुम अगर एकदम मन से उसे खोलना चाहोगे न तो वो दराज नीचे होकर तुम्हारे हाथों तक आ जायेगी. जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता. उस दराज में एक बहुत पुराना सवाल पड़ा है, जो कभी पूछा नहीं गया...इसलिए अब उसे जवाब का इंतज़ार भी नहीं है. सवाल था 'क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?'. जब सवाल के पूछे जाने की मियाद थी तब अगर पूछ लिया जाता तो इसे शान्ति मिल जाती और ये एक आम सवाल होकर हवा में उड़ जाता...मुक्त हो जाता. पर चूँकि पूछा नहीं गया और सालों दराज में पड़ा रहा तो उम्र की सलवटों ने इस किशोर सवाल को बूढ़ा और समझदार बना दिया है. पके बालों वाला ये सवाल साधना में रत था...इसमें अब ऐसी शक्ति आ गयी है कि तुम्हारे मन के अन्दर झाँक के देख लेता है. इसे वो भी पता है जो खुद तुम्हें भी नहीं पता. इस दराज को खोलोगे तो बहुत सोच समझ कर खोलना, क्यूंकि इससे मिलने के बाद तुम्हारी जिंदगी कभी पहले जैसी नहीं रह पायेगी.
ठीक तुम्हारे हाथ की ऊंचाई पर जो सुनहली सी दराज है न, वो मेरी सबसे पसंदीदा दराज है...पूछो कैसे, कि मैंने तो कोई नाम, नंबर नहीं लिखे हैं यहाँ...तो देखो, उस दराज का हैंडिल दिखा तुम्हें, कितना चमकदार है...तुम्हारी आँखों जैसा जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे. दराज के हैंडिल पर जरा भी धूल नहीं दिखेगी तुम्हें...इसे मैं अक्सर खोलती रहती हूँ...कभी कभी तो एक ही दिन में कई बार. इस दराज में तुम्हारी हंसी बंद है...जब तुम बहुत पहले खुल कर हँसे थे न...मैंने चुपके से उसका एक टुकड़ा सकेर दिया था...और नहीं क्या, तुम्हें भले लगे कि मैं एकदम अव्यवस्थित रहती हूँ, पर आवाजों के इस घर में मुझे जो चाहिए होता है हमेशा मिल जाता है. बहुत चंचल है ये हंसी, इसे सम्हाल के खोलना वापस डब्बे में बंद नहीं होना चाहती ये...तुम्हारा हाथ पकड़ कर पूरे घर में खेलना चाहती है...इसकी उम्र बहुत कम होती है न, कुछ सेकंड भर. तो जितनी उर्जा, जितना जीवन है इसमें खुल के जी लेती है.
अरे अरे...ये क्या करने जा रहे हो, ये मेरी सिसकियों की दराज है...एक बार इसे खोल लिया तो सारा आवाज़ घर डूब जाएगा. फिर कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देगी...वो नहीं देखते मैंने इसे अपने दुपट्टे से बाँध रखा है कि ये जल्दी खुले न...फिर भी कभी कभार खुल जाता है तो बड़ी मुश्किल होती है, सारी आवाजें भीग जाती हैं, फिर उन्हें धूप दिखा के वापस रखना पड़ता है, बड़ी मेहनत का काम है. इस दराज से तो दूर ही रहो...ये सिसकियाँ पीछा नहीं छोड़ेंगी तुम्हारा...और तुम भी इसी तिलिस्म के होके रह जाओगे. यायावर...तुम्हें बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मैं तो तुम्हें बस दिखा रही थी कि कैसे तुम्हारी आवाज़ के हर टुकड़े को मैंने सम्हाल के रखा है...तुम्हें ये न लगे कि मैं तुम्हारी अहमियत नहीं समझती.
तुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?
aisa lagta hai jese mere mn ki awaz ho ho...
ReplyDeleteसब सहेज लिया तुमने पूजा ..हर आवाज़ हर लम्हे का एक हिस्सा जिससे कभी भी वापस बुला सको उन्हें जो चले गए है ...बहुत खूब
ReplyDeleteजिंदगी भर की यादों को एक घरोंदा तो देना ही है .....जो दूर है फिर भी पास !
ReplyDeletenicely written !
जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता.
ReplyDeleteवाह ...हमेशा की तरह बेजोड़ लेखन
नीरज
इतना गहन सोचने के लिये हमें वर्षों की साधना करनी पड़ेगी। आपकी विचार प्रक्रिया को प्रणाम
ReplyDeleteकल 26/11/2011को आपकी किसी पोस्टकी हलचल नयी पुरानी हलचल पर हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
@Praveen jee...you are too kind...and generous in your compliments.
ReplyDeleteअब तो मान जाओ बाबा...क्या बच्चे की जान लोगे? पूरे दो posts से मना रही है लडकी...
ReplyDeleteतुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?
ReplyDeleteक्या कहूँ पूजा जी…………ज़िन्दगी को बहुत साफ़गोई से बयाँ किया है।
हम हर आवाज़ को कितना सहेज कर रखते है,फिर भी समय के थपेड़े कभी उसे तार-तार करते हैं तो कभी कोई बारिश उन आवाजों में सीलन भर जाती है....
ReplyDeleteतुम्हारे आवाज़ घर में कोई दराज़ खली है क्या?
मेरा कुछ सामान सहेज लो.....
हम हर आवाज़ को कितना सहेज कर रखते है,फिर भी समय के थपेड़े कभी उसे तार-तार करते हैं तो कभी कोई बारिश उन आवाजों में सीलन भर जाती है....
ReplyDeleteतुम्हारे आवाज़ घर में कोई दराज़ खली है क्या?
मेरा कुछ सामान सहेज लो.....
ये हंसी और उदासी को बहुत दिन तक अलग-अलग मत रखो! कम से कम उनकी मुलाकात तो करवा दो ताकि उनको अकेलापन न महसूस हो!
ReplyDelete1.जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...
2.जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता.
बहुत सुन्दर!