मुझे बाइक्स से बहुत ज्यादा प्यार है...पागलपन की हद तक...कोई अच्छी बाईक देख कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है...और ऐसा आज से नहीं हमेशा से होता आ रहा है. पटना में जब लड़के हमारी कॉन्वेंट की बस का पीछा बाईक से करते थे तो दोस्तों को उनके चेहरे, उनका नाम, उनके कपडे, उनके चश्मे याद रहते थे और मुझे बाईक का मेक...कभी मैंने किसी के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा ही नहीं. एकलौता अंतर तब आता था जब किसी ने आर्मी प्रिंट का कुछ पहना हो...ये एक ऐसा प्रिंट है जिस पर हमेशा मेरा ध्यान चला जाता है. तो शौक़ हमेशा रहा की बाईक पर घूमें...पर हाय री किस्मत...एक यही शौक़ कभी पूरा नहीं हुआ.
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Enticer |
दिल्ली में पहला ऑफिस जोइन किया था, फाइनल इयर की ट्रेनिंग के लिए...वहां एक लड़का साथ में काम करता था, नितिन...उसके पास क्लास्सिक एनफील्ड थी. मैं रोज देखती और सोचती कि इसे चलाने में कैसा मज़ा आता होगा. नितिन का घर मेरे घर के एकदम पास था, तो वो रोज बोलता कि तू मेरे साथ ही आ जाया कर. पर मैं मम्मी के डर के मारे हमेशा बस से आती थी. नितिन का जिस दिन लास्ट दिन था ऑफिस में उस दिन मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने कहा चल यार, आज तू ड्रॉप कर दे...ऐसा अरमान लिए नहीं रहूंगी. उस दिन पहली बार एनफील्ड पर बैठी थी, कहना न होगा कि प्यार तो उसी समय हो गया था बाईक से...कैसा तो महसूस होता है, जैसे सब कुछ फ़िल्मी, स्लो मोशन में चल रहा हो. ये २००४ की बात है...उस समय नयी बाईक आई थी मार्केट में 'एनटाईसर-Enticer' बाकियों का तो पता नहीं, मुझे इस बाईक ने बहुत जोर से एनटाईस किया था, ऐसा सोलिड प्यार हुआ था कि सदियों सोचती रही कि इसे खरीद के ही मानूगी. ऑफिस में अनुपम के पास एनटाईसर थी...वो जाड़ों के दिन थे...और अनुपम हमेशा ग्यारह साढ़े ग्यारह टाईप ऑफिस आता था. वो टाइम हम ऑफिस के बाकी लोगों के कॉफ़ी पीने का होता था. बालकनी में पूरी टीम रहती थी और अनुपम सर एकदम स्लो मोशन में गली के मोड़ पर एंट्री मार रहे होते थे. ना ना, असल में स्लो मोशन नहीं बाबा...मेरी नज़र में स्लो मोशन. उस ऑफिस से जब भी घर को निकलती थी, एक बार हसरत की निगाह से एनटाईसर और एनफील्ड दोनों को देख लेती थी. दिल ज्यादा एनटाईसर पर ही अटकता था, कारण कि ये क्रूज बाईक थी, तो ये लगता था कि इसपर बैठने पर पैर चूम जाएगा(बोले तो, गाड़ी पर बैठने के बाद पैर जमीन तक पहुँच जायेंगे).
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शान की सवारी- राजदूत |
१५ साल की थी जब पापा ने राजदूत चलाना सिखाया था, मेरा पहला प्यार तो हमेशा से वही गाड़ी रहेगी. हमारी राजदूत मेरे जन्म के समय खरीदी गयी थी, इसलिए शायद उससे कोई आत्मा का बंधन जुड़ गया हो. आप यकीन नहीं करेंगे पर उस १०० किलो की बाईक को गिरे हुए से मैं उठा लेती थी. कलेजा चाहिए बाईक चलने के लिए...और गिराने के लिए तो उससे भी ज्यादा :) मैं बचपन में एकदम अपनी पापा कि मिनी फोटोकॉपी लगती थी और सारी हरकतें पापा वाली. अब तो फिर भी मम्मी का अंश भी झलकता है और आदतें भी. मम्मी भड़कती भी थी कि लड़की को बिगाड़ रहे हैं...पर मेरे प्यारे इंडलजेंट पापा अपनी राजकुमारी को सब सिखा रहे थे जो उनको पसंद था. राजदूत जिसने चलाई हो वो जानते हैं, उसका पिक अप थोड़ा स्लो है, पर जल्दी किसे थी. राजदूत के बाद पहली चीज़ जो चलाई थी वो थी हीरो होंडा स्प्लेंडर...विक्रम भैय्या आये थे घर पर मिलने और हमने भैय्या के पहले उनकी बाईक ताड़ ली थी...हमने इशारा करके कहा, चाहिए. भैय्या बोले, हाँ हाँ पम्मी, आओ न घुमा के लाते हैं तुमको...हम जो खांटी राड़ हुआ करते थे उस समय, बोले, घूमने के लिए नहीं, चलाने के लिए चाहिए. उस समय मुझे सब बिगाड़ते रहते थे...भैय्या की नयी स्प्लेंडर, भैय्या ने दे दी...कि जाओ चलाओ. ऊपर मम्मी का रिअक्शन बाद में पता चला था, कि लड़की गिरेगी पड़ेगी तो करते रहिएगा शादी, बिगाड़ रहे हैं इतना. खैर. स्प्लेंडर का पिक अप...ओह्ह...थोड़ा सा एक्सीलेरेटर दिया कि गाड़ी फुर्र्र बस तो फिर यह जा कि वह जा....देवघर की सड़कें खाली हुआ करती थीं...बाईक उड़ाते हुए स्पीडोमीटर देखा ही नहीं. उफ्फ्फ्फ़ वो अहसास, लग रहा था कि उड़ रही हूँ...कुछ देर जब बहुत मज़ा आया और आसपास का सब धुंधला, बोले तो मोशन ब्लर सा लगा तो देखा कि गाड़ी कोई ८५ पर चल रही है. एकदम हड़बड़ा गए. भैय्या की बाईक थी तो गिरा भी नहीं सकते थे. जोर से ब्रेक मारते तो उलट के गिरते दस फर्लांग दूर...तो दिमाग लगाए और हल्का हल्का ब्रेक लगाए, गाड़ी स्लो हुयी तो वापस घुमा के घर आ गए.
ये सारी हरकतें सन १९९९ की हैं...मुझे यकीन नहीं आता कि उस समय कितनी आज़ादी मिली हुयी थी उस छोटे से शहर में. एक दीदी थीं, जो लाल रंग की हीरो होंडा चलाती थीं, उनको सारा देवघर पहचानता था. इतनी स्मार्ट लगती थीं, छोटे छोटे बॉय कट बाल, गोरी चिट्टी बेहद सुन्दर. मेरी तो रोल मॉडल थीं...आंधी की तरह जब गुजरती थी कहीं से तो देखने वाले दिल थाम के रह जाते होंगे. मैं सोचती थी कि मैं ऐसे देखती हूँ...शहर के बाकी लड़के तो पागल ही रहते होंगे प्यार में.
उसी साल जून में हम पटना आ गए...देवघर में आगे पढने के लिए कोई ढंग का स्कूल नहीं था और पापा का ट्रान्सफर भी पटना हो रखा था. बस...पटना आके मेरी सारी मटरगश्ती बंद. मुश्किल से एक आध बार बाईक चलाने मिली, वो भी बस मोहल्ले में, वो भी कितनी मिन्नतों के बाद. मुझे कार कभी पसंद नहीं आई...मम्मी, पापा दोनों ने कितना कहा कि सीख लो, हम जिद्दी...कार नहीं चलाएंगे...बाईक चलाएंगे. उस समय स्कूटी मिली रहती थी बहुत सी लड़कियों को स्कूल आने जाने के लिए. मम्मी ने कहा खरीद दें...हम फिर जिद पर, स्प्लेंडर खरीद दो. खैर...स्प्लेंडर तो क्या खरीदाना था, नहीं ही आया. मैं कहती थी कि स्कूटी को लड़कियां चलाती हैं, छी...मैं नहीं चलाऊँगी, मम्मी कहे कि तुम क्या लड़का हो. बस...हल्ला, झगडा, मुंह फुलाना शुरू.
मुझे बाईक पर किसी के पीछे बैठने का शौक़ कभी नहीं रहा...एक आधी बार बैठी भी किसी के साथ तो दिमाग कहता था कि इससे अच्छी बाईक तो मैं चला लूंगी इत्यादि इत्यादि. साड़ी पहनी तो तभी मन का रेडियो बंद रहता था..कि बेट्टा इस हालत में चला तो पाएगी नहीं, चुप चाप रहो नहीं तो लड़का गिरा देगा बस, दंतवा निपोरते रहना.
तब का दिन है...और आज का दिन है. आज भी कोई नयी बाईक आती है तो दिल की धड़कन वैसे ही बढ़ती है...सांसें तेज और हम एक ठंढी आह लेकर ऊपर वाले को गरिया देते हैं कि हमें लड़की क्यों बनाया...और अगर बनाना ही था तो कमसे कम दो चार इंच लम्बा बना देता. खैर...यहाँ का किस्सा यहाँ तक. बाकिया अगली पोस्ट में.
हाय! इस सुख को महसूस करने के लिए तो लड़की बन कर जन्म लेना पड़ेगा। ..गज़ब का लिखा है।
ReplyDeleteआपको आपका शौक फले फूले, हम तो मोबाइक की आगे वाली सीट पर कभी बैठे ही नहीं, कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी चलाने की। परसों ही एक लड़की को मोबाइक चलाते हुये देखा, लहराते हुये। या तो आप ही होंगी या आप जैसी कोई और मोबाइक-प्रेमी।
ReplyDeleteदीवाना मतवाला बाइक का।
ReplyDeleteबाइक से हो प्यार तो क्या कहने।
@प्रवीण जी, फिलहाल गरीब के पास एक फ्लाइट है...महिंद्रा फ्लाइट। हाँ चलाती तो मैं भी हूँ लहराते हुये...आपने उस खुराफाती बाला को इंदिरानगर में तो नहीं देखा था, क्लब के पास?
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ReplyDeleteKhushi hui ki aapko bhi bike se pyar hai.
ReplyDeleteBahut jeevant lekhni hai aapki. Ishwar se prarthna hai ki isi tarah aap likhti rahen aur hum jaise log aapko padhte rahe.
(HINGLISH ME LIKHNE KE LIYE MAAFI CHAUNGA.)
DHANYAWAD
मोटरसाइकिलिंग तो हमारा भी शौक है. हमने भी पहली बार पापा की हरे रंग की राजदूत ही चलाई थी. (जानदार गाड़ी, शानदार गाड़ी- धर्मेन्द्र).
ReplyDeleteवैसे राजदूत 350 चलाने का मौका मिले तो मत चूकियेगा, उसका पिक-अप और पॉवर दोनों ही कमाल हैं. 0-60 सिर्फ़ 4 सेकेंड में, 150 kmph तक जाती है, आज तक 30 bhp का इंजिन सिर्फ़ उसमें ही था! पहचाने के नहीं. अभी हाल ही में दम मारो दम में राना ने वही बाइक राइड की है.
इसे bike world USA ने सदी कि सबसे बढ़िया 10 बाइक्स में से एक माना है !!
happy riding !
@ Puja Upadhyay
ReplyDeleteमैजिस्टिक वाले फ्लाई ओवर में देखा। जब बाइक के साथ बाल भी लहराये तब समझ में आया कि कोई लड़की है। हो सकता है कि लम्बे बालों वाला कोई लड़का हो।
इस पोस्ट को पढ़कर अपनी एक पुरानी पोस्ट की लाइनें याद आ गयीं:
ReplyDeleteसहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती। कानपुर में 20 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था। लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते|
यह किस्सा सन 89 का है!
:) :) लड़की की बहदुरी की दाद देंगे :D ऐसी ही कुछ लड़कियों के कारण हमारा इस दुनिया से विश्वास उठते उठते रह jaata है :)
ReplyDeleteइन्द्रबाला के याद आ गइल...हाई अस्कूल की छात्रा ...तब पूरा कन्नौज मंs उहे एगो लइकिया रहल...राजदूत चलाय वाली ...कुल लोग भविष्य वाणी कईलन के हई बुचिया एक दिन ज़रूर पुलिस आंटी बनी.
ReplyDeleteनीमन लागल ...तोहार खीसा....जइसन खुली किताब.....ना कउनो मिलावट ना बनावट .....अइसन लोग भगवान के एकदम करीब रहतड़न....खुस रहS बूची ...
हाहा क्या गज़ब .. नाम बस अलग पर शौक एकदम एकसे
ReplyDelete१३ की उम्र थी तब हमारी .. पापा के पास राजदूत थी .. पर पहले चलाना सिखा स्कूटर .. पहली ही drive में पापा सहित चारों खाने चित्त ..
पापा ने कसम खायी की अब कभी नहीं सिखायेंगे .. और हमने की हम सीख कर दिखायेंगे .. आखिर सीख कर ही माने .. फिर तो पापा की राजदूत को भी २ बार खटखटाया ..
हम्म एक अलग ही गुरुर और नशा सर चढ़ कर बोलता था तब हमारे .. कुछ तो उम्र का और कुछ इस बात का की हमारे आलावा तब सिर्फ १ दीदी और हुआ करती थीं बरेली में जो राजदूत चलाया करती थीं .. और बस हम
ओह्ह क्या शर्त लगा के भागते थे हम अपना स्कूटर .. even एक बार तो हमने अपने comm depart के एक सर से race लगाई .. हाहा चेहरा देखने लायक था तब उनका .. colony में जो कोई भी bike खरीदता था .. गुंजन दी का आशीर्वाद लेने ज़रूर आता था .. साल भर छोटा भाई होने के कारण हम universal दी जो थे :))
well वो वक़्त अलग ही था ... शुरू से दीवानी थी मैं भी स्प्लेंडर की .. सोचा करती थी उसी लड़के से शादी करुँगी जिस के पास स्प्लेंडर होगी .. जो चश्मा लगता होगा .. और जिसे cigarattee के छल्ले बनाने आते होंगे
बचपन कितना मासूम होता है ना .. jeans कभी नहीं पहनी .. ना ही अच्छी लगती थी .. सो जब भी bike चलानी होती थी .. भाई की पेंट चढ़ा लिया करते थे .. कार चलानी नहीं पसंद थी .. आज भी नहीं है .. पर आज मजबूरी है
गज़ब पोस्ट पूजा .. हालाँकि आपकी हर post superbb ही हुआ करती है ..
प्यारी गुंजन...यहाँ जो तुम्हारे बचपन में खिड़की खुली उसमें झाँक कर बड़ा अच्छा लगा। चलो हमारे जैसे खुराफाती और भी थी...छोटे शहरों की ये खासियत होती है कि आप भीड़ में गुम नहीं होते...लोग जानते हैं आपको, मानते हैं, प्यार करते हैं...और उस छोटी सी उम्र में उतने से ही आसमान की दरकार होती है। स्प्लेंडर उस जमाने का सपना हुआ करता था...मुझे भी बेहद पसंद थी...लड़के के बारे में कुछ ऐसे ही विचार मेरे भी थे...धुएँ के छल्ले के बात करके क्या क्या न याद दिला दिया, अब इसपर एक पोस्ट लिखनी पड़ेगी :)
ReplyDeleteइस अच्छे, प्यारे से कमेन्ट के लिए और इतने प्यार के लिए भी...शुक्रिया से ज्यादा सा कुछ अपने लिए रख लो। :)