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19 October, 2025

Tight hugs. Unforgettable goodbyes. Normal days. Grateful heart.

अल्टरनेट वर्ल्ड।

आपको कभी ऐसा लगा है, किसी एक मोमेंट…कि यह सीन हमारी दुनिया का है ही नहीं…हमने अपनी अभीप्सा से कई हज़ार रियलिटीज़ वाले ब्रह्मांड से वो एक यूनिवर्स चुन ली है जहाँ यह हिस्सा होना था और वहाँ की जगह, ये हिस्सा हमारी इस यूनिवर्स में घटेगा…
कि चाह लेने से हमारी दुनिया बदल जाती है…भले पूरी की पूरी न सही और सारे वक्त न सही, लेकिन किसी छोटे वक़्फ़े सब कुछ ठीक वैसा होगा कि आपको आपकी मर्जी का एक लम्हा मिल जाये…
बशीर बद्र हमारे मन के स्याह में झाँकते हैं…गुनाहों के सीले कमरों में भी थोड़ा उजास होता है…मन आख़िर को वह क्यों माँगता है जो उसे नहीं माँगना चाहिए…वो लिखते हैं हमारे बारे में…

मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है
मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है

सब कुछ किसी को कहाँ मिलता है। कभी।

लेकिन किसी को हग कर रहे हों, तो आँखें बंद कर सकें…थोड़ा इत्मीनान, थोड़ी सी मोहलत, और अपराधबोध न फील करने की आज़ादी, शायद सब को मिलनी चाहिए। शायद सबको, तो फिर किसको नहीं मिलनी चाहिए?

पता नहीं। कुछ तो होते होंगे, गुनाहगार लोग…जिन्हें सज़ा मिली हो, कि जब भी किसी को हग करो…आँखें बंद नहीं कर सकोगे। कि It will always be a fleeting hug. कि तुम्हें हमेशा हज़ार लोग घूर रहे होंगे। कि मेला लगा होगा और उस मेले के बीच चलते मेट्रो स्टेशन पर तुम्हें किसी को गले लग कर अलविदा कहना होगा। कि उस जगह रुक नहीं सकते। कि अगली मेट्रो आने ही वाली है। कि हर बार बिछड़ना, मर जाना ही तो है। ग़ालिब ने जो कहा, जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे, जैसे कि क़यामत का, होगा कोई दिन और!

***

क्रश। पहली बार इस शब्द के बारे में पढ़ा था, तो किसी चीज़ को थूरने-चूरने के अर्थ में पढ़ा था। लेकिन समझ आने के कुछ ही दिनों में इसका दूसरा और ज़्यादा ख़तरनाक…वैसे तो मेटाफोरिकल, लेकिन बहुत हद तक सही शाब्दिक - लिटरल अर्थ समझ आया था। ‘क्रश’ उसे कहते थे जिसे प्यार नहीं कह सकते थे। थोड़ा सा प्यार। प्यार की फीकी सी झलक भर। लेकिन जानलेवा।

ये वो नावक के तीर थे जो गंभीर घाव करने वाले थे। इनसे बचने का कोई जिरहबख़्तर नहीं बना था।
इश्क़ को रोकने का जिरहबख़्तर होता भी नहीं…हम उसके बाद क्या करेंगे, अर्थात्…अपने एक्शन/कांड पर भले कंट्रोल रख लें…महसूस करने पर कोई कंट्रोल काम नहीं करता। अक्सर अचानक से होता है।

जैसे रात को तेज गाड़ी चलाते हुए, इकरार ए मुहब्बत का पहला गाना, ‘तुम्हें हो न हो, मुझको तो, इतना यकीं है…कि मुझे प्यार, तुमसे…नहीं है, नहीं है…’ अचानक से बजाने का मन करे। रात के साढ़े तीन-पौने चार हो गए थे। भोर साढ़े पाँच की फ्लाइट थी, किसी भी तरह साढ़े चार तक उड़ते-उड़ते एयरपोर्ट पहुंचना ही था। कुछ चीज़ों में जीवन बहुत प्रेडिक्टेबल रहा है। कुछ चीज़ों में बेतरह प्रेडिक्टेबल। मुहब्बत की हल्की सी ही थाप होती है दिल पर, इन दिनों। उसे पता है, दरवाज़ा नहीं खुलेगा…लेकिन मुहब्बत ढीठ है, थेथर है…एक बार पूछ ज़रूर लेती है, हम आयें? हम अपने-आप को दिलासा देते हुए गुनगुनाने लगते हैं, मुझसे प्याऽऽर तुमसे, नहीं है...मगर मैंने ये आज अब तक न जाना...कि क्यों प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारी, मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूँढूँ बहाना...

खैर, अच्छा ये हुआ कि फ्लाइट छूटी नहीं। 
***

सुबह ज़ुबान पर कड़वाहट थी, पर मन मीठा था।
There is something about almost chain-smoking through the night. While not being drunk. एक नशा होता है जो अपने लोगों के साथ देर तक बतियाने से चढ़ता है। एक मीठा सा नशा।

सिगरेट का धुआँ मन के कोने-कोने पैठता जाता है। इसे समझाना मुश्किल है कि हमें क्या क्या सुनाई पड़ता है और क्या समझ आता है। ध्यान दो अगर, और रात बहुत गुज़र चुकी हो…सन्नाटे में जब सिगरेट का सिरा जला कर कश खींचते हैं तो तंबाकू के जलने की आवाज़ आती है, बहुत महीन, बहुत बारीक…जैसे किसी का हाथ छूटते हुए आप ज़ोर से न पकड़ें, बल्कि हौले से किसी के हाथ के ऊपर अपनी हथेली फिरा लें…वो बह जाये आपसे दूर, किसी पहाड़ी नदी के पानी की तरह।

फिर से कहते हैं न कि दुनिया में सब कुछ तो किसी को नहीं मिलता।

हम ज़्यादा नहीं चाहते। पर शायद इतना, कि किसी को hug करते हुए इतनी फुर्सत हो और इतनी तसल्ली कि आँखें बंद कर सकें। कि हड़बड़ी में न हग करें किसी को, जैसे कि दुनिया बर्बाद होने वाली है। बैंगलोर की भयंकर तन्हाई में इस एक चीज़ की कमी से मेरी जान जाने लगती है। दिल्ली जाती हूँ तो दोस्त बिछड़ते हुए दो बार गले मिलते हैं। एक बार तो अभी के लिए, और एक बार कि जाने कितने दिन बाद फिर मिलेंगे, एक बार और hug करने का मन है तो कर लेते हैं।

अक्सर हम उन लोगों के प्रेम में पड़ते हैं जिनमें हमारे जितनी गहराई होती है। लेकिन कभी कभी हम कुछ बेवकूफ के लड़कों के गहरे इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाते हैं। जिन्हें शायरी सुनाओ तो फिर उसका मतलब समझाना पड़ता है। क्या कहें किसी से कि, ‘यूँ उठे आह उस गली से हम, जैसे कोई जहाँ से उठता है…तुम्हारी गली देखनी थी, तुम्हारा घर, तुम्हारे घर के पर्दे…उसे कैसे समझायें कि मुझे तुम्हारे घर की खामोशी से मिलना था। तुम्हारी खिड़की से आसमान को देखना था। इस जरा सी मुहब्बत का ठिकाना दुनिया में कहीं नहीं होता। कि बेवकूफ लड़के, जब हम कहते हैं कि, ‘इश्क़ एक मीर भारी पत्थर है, कब ये तुझ नातवाँ से उठता है’, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बॉडी-बिल्डिंग शुरू कर दो। इसका मतलब हम तुम्हारे हक़ में दुआयें पढ़ रहे हैं कि इश्क़ का भारी पत्थर उठाने के लिए तुम्हारा दिल मज़बूत हो सके…फिर हमारे जैसी तो दुआ क्या ही कोई माँगता होगा, कि तुम्हें इश्क़ हो...भले हमसे न को, किसी से हो...लेकिन तुम्हारा दिल जरा ना नाज़ुक रहे। आँख थोड़ी सी नम। 

देख तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ सा कहाँ से उठता है…

देख रहे हैं आसमान। धुएँ के पार। तुम्हारी किरमिच सी याद आती है। तुम्हारी इत्ती सी फ़िक्र होती है। मैं कुछ नहीं जानना चाहती तुम्हारे बारे में…लेकिन कहानी का कोई किरदार पूछता है तुम्हारे बारे में, कि अरे, उस लड़के का बचपन किस शहर में बीता था, तुम्हें याद है? मैं कहानी के किरदार को बहलाती हूँ, कि मुझे कुछ न मालूम है तुम्हारे बारे में, न याद कोई। कि दूर से मुहब्बत आसान थी, लेकिन इतनी आसान भी कहाँ थी।

दिल्ली जाते हैं तो जिनसे बहुत ज़ोर से मिलने का मन कर रहा होता है, ये कायनात उन्हें खींच कर ले आती है दिल्ली। हम बहुत साल बाद इकट्ठे बैठे उसकी पसंद की ड्रिंक पी रहे हैं। ओल्ड मौंक विथ हॉट वाटर। उसके पसंद का खाना खा रहे हैं। भात, दाल, आलू भुजिया। जाने कितने साल हो गए उसकी ज़िंदगी में यूँ शामिल और गुमशुदा हुए हुए। वीडियो कॉल पर ही देखते थे उसको। एक साथ सिगरेट फूंकते थे। सोचते थे, जाने कौन सा शहर मुकम्मल होगा। कि हम कहेंगे, हमारी सिगरेट जला दो। कि you give the best welcome hugs and the most terrible goodbye hugs. कि इतनी छोटी ज़िंदगी में तुमसे कितना कम-कम मिले हैं।

स्वाद का भी गंध के जैसा डायरेक्ट हिट होता है, कभी कभी। कभी-कभी इनका कोई कनेक्ट नहीं होता। एक पुराना दोस्त गोल्ड-फ्लेक पीता था। यूँ तो गाहे बगाहे कई बार गोल्ड फ्लेक पिए होंगे, उसकी गिनती कहाँ है। लेकिन कल शाम गोल्ड फ्लेक जलायी और पहले कश में एक अलविदा का स्वाद आया। सर्द पहाड़ों पर बहती नदी किनारे घने पेड़ होते हैं, उन सर्पीली सड़कों पर गाड़ी खड़ी थी। गुडबाय के पहले वाली सिगरेटें पी जा रही थीं। कभी कभी कोई स्वाद ज़ुबान पर ठहर जाता है। इत्ती-इत्ती सी सिगरेट, लेकिन कलेजा जल रहा था। मन तो किया पूरा डिब्बा फूँक दें। और ऐसा भी नहीं था कि फ्लाइट मिस हो जाती, बहुत वक्त था हमारे पास। लेकिन ये जो सिगरेट के धुएँ से गाढ़ा जमता जा रहा था दिल में कोलतार की तरह। उसकी तासीर से थोड़ा डरना लाज़िमी था। मेरे पास अभी भी वो पीला कॉफ़ी मग सलामत है जो उसने ला कर दिया था। उसके हिस्से का मग। जाने कैसे वो मिल गया था अचानक। यूँ मेरे हिस्से का तो वो ख़ुद भी नहीं था।

***
मुहब्बत में स्पर्श की करेंसी चलती है। यहाँ बड़े नोटों का कोई काम नहीं होता। यहाँ रेज़गारी बहुत क़ीमती होती है। कि सिक्के ही तो पॉकेट में लिए घूमते हैं। यही तो खनखनाते हैं। इन्हें छू कर तसल्ली कर सकते हैं कि कोई था कभी पास। 

स्पर्श को संबंधों में बांटा नहीं जा सकता। हम किसी का हाथ पकड़ते हुए ये थोड़े सोचते हैं कि वो हमारा प्रेमी है या मित्र है या कोई छोटा भाई-बहन या कि अपना बच्चा। हम किसी का हाथ पकड़ते हुए सिर्फ़ ये सोचते हैं कि वो हमारे लिए बहुत क़ीमती है और दुनिया के मेले में खो न जाये। हम उसक हाथ पकड़े पकड़े चलते हैं। झूमते हुए। कि हमें यकीन है कि भले कई साल तक न मिलें हम, इस फ़िलहाल में वो सच में हमारे पास है, इतना टैंजिबल कि हम उसे छू सकते हैं।

दिल्ली की एक दोपहर हम सीपी में थे। दोस्त का इंतज़ार करते हुए। लंच के लिए। गाड़ी पार्क करवा दिए थे। उसके आने में टाइम था, सोचे सिगरेट पी लेते हैं। तो एक छोटा बच्चा बोला, दीदी हमको चाय पिला दो। नॉर्मली हम चाय तो पीते नहीं। लेकिन वो बोला कि पिला दो, तो उसके साथ हम भी पी पीने का सोचे…दो चाय बोल दिए। आइस-बर्स्ट का मेंथोल और चाय में पड़ी अदरक…ऐसा ख़तरनाक कॉम्बिनेशन था कि थोड़े से हाई हो गए। फिर सोचे कि दिल्ली में यही हाल तो रहता है, हवा पानी का असर मारिजुआना जैसा होता है। कितना मैजिकल है किसी शहर से इतना प्यार होना।

***

हम इन दिनों बिखरे बिखरे से रहते हैं। तसल्ली से लेकिन। किसी चीज़ की हड़बड़ी नहीं होती। सिवाए, जनवरी के आने की... और कभी कभी, अब तो, वो भी नहीं लगता। 

96 फ़िल्म में एक सीन है। जानू, राम के घर आई हुई है। वे बारिश में भीग गए थे, इसलिए उसने नहाने के बाद राम की ही शर्ट पहनी है। भूख लगी है तो जानू ने खाना बनाया है। अपनी अपनी थाली में दोनों खाना खा रहे हैं। राम उससे पूछता है, तुम खुश हो...सीन में तमिल में पूछता है, सबटाइटल्स इंग्लिश में हैं लेकिन उस एक सीन में मुझे तमिल समझ आने लगती है। जानू कहती है, हाँ हाँ, बहुत ख़ुश हूँ...राम कहता है, बेवकूफ, अभी नहीं। ऐसे...जीवन में। जानू ठहर जाती है...और उसका जवाब होता है, कि संतोष है। 

मुझसे मेरे करीबी जब पूछते हैं, कि क्या लगता है, तुम्हें जो मिला, वो तुम डिजर्व करती हो...तो हम ठीक ठीक नकारते नहीं। कि डिज़र्व तो क्या ही होता है। जो दुख मिला, क्या वह हम डिजर्व करते थे...तो फिर सुख की यह जो छहक आई है हमारे हिस्से, इसे सवाल में क्यों बाँधे? क्यों न जियें ऐसे कि जिस ऊपर वाले के हाथ में सब कुछ है, वो हमारा हमसे बेहतर सोच रहा है। कि सुख और दुख साइक्लिक हैं। कि फ़िलहाल, हमारे पास बहुत है। और जो थोड़ा नहीं है, सो ठीक है। कि सब कुछ दुनिया में किसी को भी कहाँ मिलता है। कि चाह लो, तो जितना चाहते हैं...और जितने की सच में जरूरत थी। उतना तो मिल ही जाता है। 

***
मुझे लिख के ख़ुशी मिलती है। हम खूब खूब लिखते हैं। 
लेकिन इन दिनों डायरी से शुरू कर के मैकबुक तक आते आते समय पूरा हो जाता है। इसलिए कई सारी चिट्ठियाँ पेंडिंग हैं। कई सारी कहानियाँ भी। कुछ लोग हैं जिनसे मिलने का बहुत मन है। लेकिन वे दुनिया के दूसरे छोर में रहते हैं। 

***
ख़ुशी के बारे में सबसे अचरज की बात ये हैं कि बहुत कम लोग हैं जिन्हें सच में पता होता है कि उन्हें किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है। वे कभी ठहर के देख नहीं पाये, सोच नहीं पाये कि उनका मन कब शांत रहता है। कब उन्हें कहीं और भागने की हड़बड़ी नहीं होती। किस से मिल कर किसी और की कमी महसूस नहीं होती। 

ख़ुद को थोड़ा वक़्त देना गुनाह नहीं है। ख़ुद को थोड़ा जानना समझना। भले आपको लगे कि आप मेटामॉर्फ़ोसिस वाला कीड़ा हैं...लेकिन आईने में देखिए तो सही :) क्या पता आपको मालूम चले, आप बैटमैन हैं :D

Happy Diwali. 
अपना मन और आपका घर रोशन रहे।

23 February, 2024

झूठे क़िस्से - १ हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है।

हम बहुत छोटे होते हैं जब हमने पुनर्जन्म को महसूस लिया होता है। साहिबगंज में गहरे गुलाबी बोगनविला वाला वो घर और वहाँ की सीढ़ियों से गुजरते हुए एकदम बचपन में भी ऐसा लगता था जैसे हम ये सब जी चुके हैं, पहले भी। 

बचपन से ही हम अपने आसपास पुनर्जन्म के क़िस्से सुनते-सीखते-समझते बड़े होते हैं। इससे हमें ये तो समझ जाता है कि ज़िंदगी में सब कुछ अभी ही जी लेने की हड़बड़ी नहीं है। कुछ चीज़ें हम अगले जन्म के लिए भी छोड़ सकते हैं। 


ख़ास तौर से मुहब्बत। 


कि बात जब कई जन्मों तक जा सकती है तो हम एक लम्बा इंतज़ार जी लेने में सहज होते हैं। कि हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है। 


***


उसका हाथ 

अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा 

दुनिया को 

हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए। 

केदारनाथ सिंह 


कविताएँ सबसे अच्छी वो होती हैं, जो सुनायी जाएँ। बहुत साल पहले, जब एक वर्चूअल दोस्त से पहली बार मिली थी, तो उसी के मुँह से कवि केदार की ये सुंदर कविता सुनी थी। उस वक्त मुझे लगा था कि यह कविता एक hyperbole है। अतिशयोक्ति अलंकार। किसी का हाथ इतना सुंदर थोड़े हो सकता है कि उसका हाथ थामते हुए हम पूरी दुनिया को उसके हाथों जैसा बना देना चाहें। 


हमारी दोस्ती लगभग दो दशक पुरानी थी। 

हमारे बीच कुछ नहीं था। चंद आवाज़ों, चिट्ठियों, खामोशियों और एक लम्बे बिछोह के सिवा। 

जिनसे हम बहुत कम मिले हों, उनकी बहुत ज़्यादा याद कैसे आती है, मालूम नहीं।  याद का सारा हिसाब किताब गड़बड़ ही है। 


सर्दियों की एक शाम हम मिले तो चाँद लगभग नया ही था। दिल्ली के पुराने बागों में मंजर की भीनी सी ख़ुशबू थी। सूखे हुए पत्तों पर चलने की चरमराहट और गंध साथ महसूस होती थी। मेरे हिस्से इस महबूब शहर की रातें लगभग कभी नहीं आयी थीं। इसलिए ये ख़ास था। उसके साथ चलते हुए डर नहीं लगता था। ज़िंदा का, मरे हुए का। मैं उसे हॉरर नॉवल के बारे में सुना सकती थी। वो मेरी बेवक़ूफ़ी पे हँस सकता था। 


उसकी गाड़ी में धूप और सिगरेट के धुएँ की गंध होती थी। Smoke and sunshine. गर्म दोपहरों की। या शायद ये उसकी ख़ुशबू थी। वो मेरे प्रति बहुत उदार था। सदय। मैंने काइंड शब्द का इस्तेमाल उसी से सीखा था। बसंत की किसी शाम उसने मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया। मैंने सोचा कि उसे जो चाहिए, वो कहता क्यूँ नहींसिगरेट, लाइटर, पानी की बोतल। आख़िर उसे क्या चाहिए। 


मैंने आने के पहले कहा था, मैं तुम्हारे रोज़मर्रा का ज़रा सा हिस्सा होना चाहती हूँ। तो मैं वही थी। उसके कॉफ़ी कप से ब्लैक कॉफ़ी चखती। उसके ब्रैंड की सिगरेट पीती। उसके इर्द गिर्द रहती, जैसे मेरे इर्द गिर्द मेरे शहर का मौसम रहता है। जाने मेरा शहर कौन सा है। जिसमें मैं रहती हूँ, या जो मेरे भीतर बसता है। 


उसने जब मेरा हाथ थामा, तो इतनी बड़ी जिंदगी में मुझे पहली बार महसूस हुआ। कुछ कविताएँ अतिशयोक्ति अलंकार नहीं होतीं। कि ये figurative नहीं, literal कविता थी। कि इतना सुंदर भी किसी का हाथ होता है! नर्म, ऊष्मा से भरे। सफ़ेद, गुदगुदे, जैसे गूँथे हुए आटे की लोई के बने हों। मैंने अपनी ज़िंदगी में इतने सुंदर हाथ कभी भी नहीं देखे थे। छुए नहीं थे। महसूसे नहीं थे। ये कमाल बात थी। 


मैं देर तक सोचती रही, एक आदमी में कितना कुछ होता है जो हम एकदम ही नहीं जानते। कि यारी दोस्ती के इतने साल हुए, मैंने कभी सड़क पार करते हुए भी कभी उसका हाथ नहीं थामा है। इतना इंडिपेंडेंट क्यूँ हैं हम 


कि क्या हाथ मिलाने और हाथ थामने में अंतर होता है? कि हम किसी बिछोह से डरते हैं


मुझे ख़ूब डर लगता है। ख़ूब रोना आता है। 

इतना कि दिल्ली गयी तो इस बार मेले के पहले दिन तो यह यक़ीन करते गुजर गया कि ये जो इतने लोग मेरे इर्द-गिर्द हैं, मैं सपना नहीं देख रही। कि मैं सच में झप्पियों वाले इस शहर में हूँ। जो सालों साल मेरी दुखती आत्मा पर मरहम रखता है। 


***

इश्क़ तिलिस्म में एक हिस्सा है, कि जब इतरां और मोक्ष निज़ामुद्दीन की मज़ार पर जाते हैं।संगमरमर की जाली पर मन्नत का लाल धागा बांधते हुए इतरां ने महसूसा कि मोक्ष साथ में है तो और कुछ माँगने की इच्छा ही नहीं है। फ़िलहाल को हमेशा में बदलने की कोई ख्वाहिश भी नहीं।

***

सपना था सब। बसंत था। हवा में खुनक थी। पीले फूल थे, तैरते और पैरों तले कुचले जाते हुए भी। क़व्वालियों में मुहब्बत थी। सुकून था। मैंने मज़ार के संगमरमर पे सर रखा। आँखें बंद कीं और पीर से कहा, “मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं।


***


इन दिनों मेरे पास कहानियाँ हैं ही नहीं। मेरे किरदार ज़िंदगी से लुका-छिपी खेल रहे हैं। 


***

उसने पूछा, “कुछ कहना बाक़ी तो नहीं रह गया।

हम क्या कहते उसको। कि इस शहर में हमको दारू चढ़ जाती है पानी पीते हुए भी। कि हम थोड़े से टिप्सी हैं। कि हमको घर के दरवाज़े तक छोड़ दो। कि हम जिस रोज़ से आए हैं दिल्ली, एक ही गाना लूप में सुन रहे हैं, “अभी जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नहीं। कि दिल भरा-भरा सा है और ख़ाली ख़ाली भी। कि शुक्रिया। तुम्हारी ज़िंदगी में इतना सा शामिल करने के लिए। ज़रा सी सिगरेट बाँटने के लिए। अपनी ड्रिंक से एक घूँट पी लेने देने के लिए। 


कि लौट कर बहुत दुखेगा। लेकिन अभी ठीक है। 

कि हम फिर कब मिलेंगे?

कि पिछले बार जब तुम मेरे शहर से लौट रहे थे तो तुमने मेरा माथा चूमा था। तब से ग़म मेरी आँखों का रुख़ करते डरते हैं। 


क्या कहूँ उससे। क्या क्या। और कितना?


***


उस रात मेरी नींद टूटी तो मेरा दिल बार बार खुद को समझा रहा था। कि गलती हो गयी। माफ़ी माँग रहा था। सब कुछ गड्ड-मड्ड था। सच। सपना। नींद। मृत्युतीत। 


Indefinite goodbyes. 

The stupid heart doesn’t even know. 

If it wants to you love you a little less. Or love you a little more. 


***

My heart is the absolute unit of idiocy. 

My head is a cacophony…a memory of my French classes taken long ago. A group of people trying to learn the right way to say, “I am very sorry”. It’s a soft chorus, everyone wants to feel it right too. They mumble and keep repeating, “Très désolé, Très désolé, Très désolé.”

It’s 4:30 am. I see a slightly foggy Delhi night from the balcony. My eyes are hurting. It’s a soul ache. 

I’m up because my heart has become the same cacophonous class, softly mumbling to comfort itself. 
Très désolé, I am in love. 
‘I am very sorry, I am in love.’


***


बहुत देर से मिले हो तुम। 

लेकिन बहुत सब्र है मुझमें। मिलना फिर। किसी जन्म। लेकिन अगली बार इतनी देर से मत मिलना। और अगली बार इतनी कम देर के लिए मत मिलना। ज़्यादा ज़्यादा मिलना। रहना। रुकना। 


बस। 


***


अगर मुहब्बत कोई मौसम है, तो तुम मेरा बसंत हो। 

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