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16 May, 2024

क्या करें लिखने के कीड़े का? मार दें?

कितना मज़ा आता है ना सोचने में, कि भगवान जी ने हमको बनाया ही ऐसा है, डिफेक्टिव पीस। लेकिन भगवान जी से गलती तो होती नहीं है। तो हमको अगर जान-बूझ के ऐसा बनाया है कि कहीं भी फिट नहीं होते तो इसके पीछे कोई तो कारण होगा। शायद कुछ चीज़ें ऐसे ही रैंडम होती हैं। किसी ऐसे मशीन का पुर्ज़ा जो कब की टूट चुकी है। हम सोचते रहते हैं कि हमारा कोई काम नहीं है…कितनी अजीब चीज़ है न कि हम उपयोगी होना चाहते हैं। कि हमारा कोई काम हो…कि हमसे कुछ काम लिया जा सके। हम अक्सर सोचते हैं कि हम किसी काम के नहीं हैं, लिखने के सिवा। क्योंकि लिखना असल में कोई क़ायदे का काम है तो नहीं। उसमें भी हम किसी टारगेट ऑडियंस के लिये तो लिखे नहीं। लिखे कि मन में चलता रहता है और लिखे बिना चैन नहीं आता। हमसे आधा-अधूरा तो होता नहीं। लिखना पूरा पूरा छोड़े रहते हैं क्योंकि मालूम है कि लिखना एक बार शुरू कर दिये तो फिर चैन नहीं पड़ेगा, साँस नहीं आएगी…न घर बुझायेगा, ना परिवार, ना बाल-बच्चा का ज़रूरत समझ आएगा। मेरी एकदम, एकमात्र प्रायोरिटी एकदम से लिखना हो जाती है।

अभी कलकत्ता आये हुए हैं…भाई-भौजाई…पापा…मेरे बच्चे, उसके बच्चे…सब साथ में गर्मी छुट्टी के मज़े ले रहे हैं। हमको भर दिन गपियाने में मन लग रहा है। आम लीची टाप रहे हैं सो अलग। मौसम अच्छा है। रात थोड़ी गर्म होती है हालाँकि, लेकिन इतनी सी गर्मी में हमको शिकायत मोड ऑन करना अच्छा नहीं लगता।

सब अच्छा है लेकिन लिखने का एक कीड़ा है जो मन में रेंगता रहता है। इस कीड़े को मार भी नहीं सकते कि हमको प्यारा है बहुत। इसके घुर-फिर करने से परेशान हुए रहते हैं। मन एकांत माँगता है, जो कि समझाना इम्पॉसिबल है। कि घर में सब लोग है, फिर तुमको कुछ इमेजिनरी किरदार से मिलने क्यूँ जाना है…हमको भी मालूम नहीं, कि क्यों जाना है। कि ये जो शब्दों की सतरें गिर रही हैं मन के भीतर, उनको लिखना क्यों है? कि कलकत्ता आते हैं तो पुरानी इमारतें, कॉलेज स्ट्रीट या कि विक्टोरिया मेमोरियल जा के देखने का मन क्यों करता है…देखना, तस्वीर उतारना…क्या करेंगे ये सब का? काहे ताँत का साड़ी पहन के भर शहर कैमरा लटकाये पसीना बहाये टव्वाने का मन करता है। इतना जीवन जी लिये, अभी तक भी मन पर बस काहे नहीं होता है? ये मन इतना भागता काहे है?

वो दोस्त जो शहर में है लेकिन अभी भी शहर से बाहर है, उसको भर मन गरिया भी नहीं सकते कि अचानक से प्रोग्राम बना और उसको बताये नहीं। एक पुरानी पड़ोसी रहती थीं यहीं, अभी फिर से कनेक्ट किए तो पता चला कि दूसरे शहर शिफ्ट हो गई हैं। कितने साल से लगातार आ रहे कोलकाता लेकिन अभी भी शहर अजनबी लगता है। कभी कभी तो खूब भटकने का मन करता है। दूसरे ओर-छोर बसे दोस्तों को खोज-खाज के मिल आयें। कैमरा वाले दोस्तों को कहें कि बस एक इतवार चलें शूट करने। भाई को भी कहें कि कैमरे को बाहर करे…बच्चों को दिखायें कि देखो तुम्हारी मम्मी सिर्फ़ राइटर नहीं है, फोटोग्राफर भी है। सब कुछ कर लें…इसी एक चौबीस घंटे वाले दिन में? कैसे कर लें?

यहाँ जिस सोसाइटी में रहते हैं वहाँ कुछ तो विवाद होने के कारण बिल्डर ने इमारतें बनानी बंद कर दीं। देखती हूँ अलग अलग स्टेज पर बनी हुई बिल्डिंग…कुछ में छड़ें निकली हुई हैं, कुछ में ढाँचा पूरा बन गया है खिड़कियाँ खुली हुई हैं…उनमें से कई टुकड़े आसमान दिखता है। मुझे अधूरापन ऐसे भी आकर्षित करता है। मैं हर बार इन इमारतों को देखते हुए उन परिवारों के बारे में सोचती हूँ जिन्होंने इन घरों के लिए पैसे दिए होंगे…कितने सपने देखे होंगे कि ये हमारा घर होगा, इसमें पूरब से नाप के इतने ग्राम धूप आएगी…इसकी बालकनी में कपड़े सूखने में इतना वक़्त लगेगा…कि इस दरवाज़े से हमारे देवता आयेंगे कि हम मनुहार करके अपने पुरखों को बुलाएँगे…कि यहाँ से पार्क पास है तो हमारे बच्चे रोज़ खेलने जा सकेंगे…कि हमारे पड़ोसी हमारे दोस्त पहले से हैं…एक अधूरी इमारत में कितने अधूरे सपने होते हैं। 

Among other things, इन दिनों जीवन का केंद्रीय भाव गिल्ट है…चाहे हमारी identity के जिस हिस्से से देखें। एक माँ की तरह, एक थोड़ी overweight औरत की तरह, एक लेखक कि जो अपने किरदारों को इग्नोर कर रही है…उसकी तरह। लिखना माने बच्चों को थोड़ी देर कहीं और छोड़ के आना…उस वक़्त ऐसे गुनहगार जैसे फीलिंग आती है…घर रहती हूँ और किरदार याद से बिसरता चला जाता है, मन में दुखता हुआ…बहुत खुश होकर कुछ खूब पसंद का खा लिया तो अलग गिल्ट कि वज़न बढ़ जाएगा…हाई बीपी की दवाइयाँ दिल को तेज़ धड़कने से रोक देती हैं। पता नहीं ये कितना साइकोलॉजिकल है…लेकिन मुझे ना तेज़ ग़ुस्सा आता है, ना मुहब्बत में यूँ साँस तेज़ होती है। ये भी समझ आया कि ग़ुस्सा एक शारीरिक फेनोमेना है, मन से कहीं ज़्यादा। ब्लड प्रेशर हाई होने से पूरा बदन थरथराने लगता है…खून का बहाव सर में ऐसा महसूस होता है जैसे फट जाएगा…अब मुझे ग़ुस्सा आता है तो शरीर कंफ्यूज हो जाता है कि क्या करें…मन में ग़ुस्सा आ तो रहा है लेकिन बदन में उसके कोई सिंपटम नहीं हैं…जैसे भितरिया बुख़ार कहते हैं हमारे तरफ़। कि बुख़ार जैसा लग रहा है पर बदन छुओ तो एकदम नॉर्मल है। उसी तरह अब ग़ुस्सा आता भी है तो ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी की फ़िल्म में ग़लत बैकग्राउंड स्कोर बज रहा है…यहाँ डांस बीट्स की जगह स्लो वायलिन प्ले होने लगी है। दिल आहिस्ता धड़क रहा है।

क्या मुहब्बत भी बस खून का तेज़ या धीमा बहाव है? कि उन्हें देख कर भी दिल की धड़कन तमीज़ नहीं भूली…तो मुहब्बत क्या सिर्फ़ हाई-ब्लड प्रेशर की बीमारी थी…जो अभी तक डायग्नोज़ नहीं हुई? और इस तरह जीने का अगर ऑप्शन हो तो हम क्या करेंगे? कभी कभी लगता है कि बिना दवाई खाये किए जायें…कि मर जाएँ किसी रोज़ ग़ुस्से या मुहब्बत में, सो मंज़ूर है मुझे…लेकिन ये कैसी ज़िंदगी है कि कुछ महसूस नहीं होता। ये कैसा दिल है कि धड़कन भी डिसिप्लिन मानने लगी है। इस बदन का करेंगे क्या हम अब? कि हाथों में कहानी लिखने को लेकर कोई उलझन होगी नहीं…कि हमने दिल को वाक़ई समझा और सुलझा लिया है…

तो अब क्या? कहानी ख़त्म? 

आज कलकत्ता में घर से भाग के आये। बच्चों को नैनी और घर वालों के भरोसे छोड़ के…कि लिखना ज़रूरी है। कि साँस अटक रही है। कि माथा भाँय भाँय कर रहा है। कि स्टारबक्स सिर्फ़ पंद्रह मिनट की ड्राइव है और शहर अलग है और गाड़ी अलग और रास्ता अलग है तो भी हम चला लेंगे। कि हम अब प्रो ड्राइवर बन गये हैं। भगवान-भगवान करते सही, आ जाएँगे दस मिनट की गाड़ी चला कर। कि हमारी गाड़ी पर भी अर्जुन की तरह ध्वजा पर हनुमान जी बैठे रहते हैं रक्षा करने के लिए। हनुमान जी, जब लड्डू चढ़ाने जाते हैं तो बोलते हैं, तुम बहुत काम करवाती हो रे बाबा! तुम्हारा रक्षा करते करते हाल ख़राब हो जाता है हमारा, तुम थोड़ा आदमी जैसा गाड़ी नहीं चला सकती? कौन तुमको ड्राइविंग लाइसेंस दिया? 

सोचे तो थे कि ठीक एक घंटा में चले आयेंगे। लेकिन तीन बजे घर से निकले थे और साढ़े पाँच होने को आया। अब इतना सा लिख के घर निकल जाएँगे वापस। लिख के अच्छा लग रहा है। हल्का सा। आप लोग इसे पढ़ के ज़्यादा माथा मत ख़राब कीजिएगा। जब ब्लॉग लिखना शुरू किए थे तो ऐसे ही लिखते थे, जो मन सो। वैसे आजकल कोई ब्लॉग पढ़ता तो नहीं है, लेकिन कुछ लोगों के कमेंट्स पढ़ के सच में बहुत अच्छा लगता है। जैसे कोई पुराना परिचित मिल गया हो पुराने शहर में। उसका ना नाम याद है, न ये कि हम जब बात करते थे तो क्या बात करते थे…लेकिन इस तरह बीच सड़क किसी को पहचान लेने और किसी से पहचान लिये जाने का अपना सुख है। हम उस ख़ुशी को थोड़ा सा शब्दों में रखने की कोशिश करते हैं।

कुछ देर यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड्स लिखे। कुछ दोस्तों को। कुछ किरदारों को। कुछ ज़िंदगी को।

***




बहुत दिन बाद एक शब्द याद आया…हसीन।

और एक लड़का, कि जो धूमकेतु की तरह ज़िंदगी के आसमान पर चमकता है…कई जन्मों के आसमान में एक साथ…अचानक…कि उस चमक से मेरी आँखें कई जन्म तक रोशन रहती हैं…कि रोशनी की इसी ऑर्बिट पर उसे भटकना है, थिरकना है…और राह भूल जाना है, अगले कई जन्मों के लिए।

23 February, 2024

झूठे क़िस्से - १ हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है।

हम बहुत छोटे होते हैं जब हमने पुनर्जन्म को महसूस लिया होता है। साहिबगंज में गहरे गुलाबी बोगनविला वाला वो घर और वहाँ की सीढ़ियों से गुजरते हुए एकदम बचपन में भी ऐसा लगता था जैसे हम ये सब जी चुके हैं, पहले भी। 

बचपन से ही हम अपने आसपास पुनर्जन्म के क़िस्से सुनते-सीखते-समझते बड़े होते हैं। इससे हमें ये तो समझ जाता है कि ज़िंदगी में सब कुछ अभी ही जी लेने की हड़बड़ी नहीं है। कुछ चीज़ें हम अगले जन्म के लिए भी छोड़ सकते हैं। 


ख़ास तौर से मुहब्बत। 


कि बात जब कई जन्मों तक जा सकती है तो हम एक लम्बा इंतज़ार जी लेने में सहज होते हैं। कि हमारे लिए इंतज़ार की यूनिट इन्फ़िनिटी होती है। 


***


उसका हाथ 

अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा 

दुनिया को 

हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए। 

केदारनाथ सिंह 


कविताएँ सबसे अच्छी वो होती हैं, जो सुनायी जाएँ। बहुत साल पहले, जब एक वर्चूअल दोस्त से पहली बार मिली थी, तो उसी के मुँह से कवि केदार की ये सुंदर कविता सुनी थी। उस वक्त मुझे लगा था कि यह कविता एक hyperbole है। अतिशयोक्ति अलंकार। किसी का हाथ इतना सुंदर थोड़े हो सकता है कि उसका हाथ थामते हुए हम पूरी दुनिया को उसके हाथों जैसा बना देना चाहें। 


हमारी दोस्ती लगभग दो दशक पुरानी थी। 

हमारे बीच कुछ नहीं था। चंद आवाज़ों, चिट्ठियों, खामोशियों और एक लम्बे बिछोह के सिवा। 

जिनसे हम बहुत कम मिले हों, उनकी बहुत ज़्यादा याद कैसे आती है, मालूम नहीं।  याद का सारा हिसाब किताब गड़बड़ ही है। 


सर्दियों की एक शाम हम मिले तो चाँद लगभग नया ही था। दिल्ली के पुराने बागों में मंजर की भीनी सी ख़ुशबू थी। सूखे हुए पत्तों पर चलने की चरमराहट और गंध साथ महसूस होती थी। मेरे हिस्से इस महबूब शहर की रातें लगभग कभी नहीं आयी थीं। इसलिए ये ख़ास था। उसके साथ चलते हुए डर नहीं लगता था। ज़िंदा का, मरे हुए का। मैं उसे हॉरर नॉवल के बारे में सुना सकती थी। वो मेरी बेवक़ूफ़ी पे हँस सकता था। 


उसकी गाड़ी में धूप और सिगरेट के धुएँ की गंध होती थी। Smoke and sunshine. गर्म दोपहरों की। या शायद ये उसकी ख़ुशबू थी। वो मेरे प्रति बहुत उदार था। सदय। मैंने काइंड शब्द का इस्तेमाल उसी से सीखा था। बसंत की किसी शाम उसने मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया। मैंने सोचा कि उसे जो चाहिए, वो कहता क्यूँ नहींसिगरेट, लाइटर, पानी की बोतल। आख़िर उसे क्या चाहिए। 


मैंने आने के पहले कहा था, मैं तुम्हारे रोज़मर्रा का ज़रा सा हिस्सा होना चाहती हूँ। तो मैं वही थी। उसके कॉफ़ी कप से ब्लैक कॉफ़ी चखती। उसके ब्रैंड की सिगरेट पीती। उसके इर्द गिर्द रहती, जैसे मेरे इर्द गिर्द मेरे शहर का मौसम रहता है। जाने मेरा शहर कौन सा है। जिसमें मैं रहती हूँ, या जो मेरे भीतर बसता है। 


उसने जब मेरा हाथ थामा, तो इतनी बड़ी जिंदगी में मुझे पहली बार महसूस हुआ। कुछ कविताएँ अतिशयोक्ति अलंकार नहीं होतीं। कि ये figurative नहीं, literal कविता थी। कि इतना सुंदर भी किसी का हाथ होता है! नर्म, ऊष्मा से भरे। सफ़ेद, गुदगुदे, जैसे गूँथे हुए आटे की लोई के बने हों। मैंने अपनी ज़िंदगी में इतने सुंदर हाथ कभी भी नहीं देखे थे। छुए नहीं थे। महसूसे नहीं थे। ये कमाल बात थी। 


मैं देर तक सोचती रही, एक आदमी में कितना कुछ होता है जो हम एकदम ही नहीं जानते। कि यारी दोस्ती के इतने साल हुए, मैंने कभी सड़क पार करते हुए भी कभी उसका हाथ नहीं थामा है। इतना इंडिपेंडेंट क्यूँ हैं हम 


कि क्या हाथ मिलाने और हाथ थामने में अंतर होता है? कि हम किसी बिछोह से डरते हैं


मुझे ख़ूब डर लगता है। ख़ूब रोना आता है। 

इतना कि दिल्ली गयी तो इस बार मेले के पहले दिन तो यह यक़ीन करते गुजर गया कि ये जो इतने लोग मेरे इर्द-गिर्द हैं, मैं सपना नहीं देख रही। कि मैं सच में झप्पियों वाले इस शहर में हूँ। जो सालों साल मेरी दुखती आत्मा पर मरहम रखता है। 


***

इश्क़ तिलिस्म में एक हिस्सा है, कि जब इतरां और मोक्ष निज़ामुद्दीन की मज़ार पर जाते हैं।संगमरमर की जाली पर मन्नत का लाल धागा बांधते हुए इतरां ने महसूसा कि मोक्ष साथ में है तो और कुछ माँगने की इच्छा ही नहीं है। फ़िलहाल को हमेशा में बदलने की कोई ख्वाहिश भी नहीं।

***

सपना था सब। बसंत था। हवा में खुनक थी। पीले फूल थे, तैरते और पैरों तले कुचले जाते हुए भी। क़व्वालियों में मुहब्बत थी। सुकून था। मैंने मज़ार के संगमरमर पे सर रखा। आँखें बंद कीं और पीर से कहा, “मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं।


***


इन दिनों मेरे पास कहानियाँ हैं ही नहीं। मेरे किरदार ज़िंदगी से लुका-छिपी खेल रहे हैं। 


***

उसने पूछा, “कुछ कहना बाक़ी तो नहीं रह गया।

हम क्या कहते उसको। कि इस शहर में हमको दारू चढ़ जाती है पानी पीते हुए भी। कि हम थोड़े से टिप्सी हैं। कि हमको घर के दरवाज़े तक छोड़ दो। कि हम जिस रोज़ से आए हैं दिल्ली, एक ही गाना लूप में सुन रहे हैं, “अभी जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नहीं। कि दिल भरा-भरा सा है और ख़ाली ख़ाली भी। कि शुक्रिया। तुम्हारी ज़िंदगी में इतना सा शामिल करने के लिए। ज़रा सी सिगरेट बाँटने के लिए। अपनी ड्रिंक से एक घूँट पी लेने देने के लिए। 


कि लौट कर बहुत दुखेगा। लेकिन अभी ठीक है। 

कि हम फिर कब मिलेंगे?

कि पिछले बार जब तुम मेरे शहर से लौट रहे थे तो तुमने मेरा माथा चूमा था। तब से ग़म मेरी आँखों का रुख़ करते डरते हैं। 


क्या कहूँ उससे। क्या क्या। और कितना?


***


उस रात मेरी नींद टूटी तो मेरा दिल बार बार खुद को समझा रहा था। कि गलती हो गयी। माफ़ी माँग रहा था। सब कुछ गड्ड-मड्ड था। सच। सपना। नींद। मृत्युतीत। 


Indefinite goodbyes. 

The stupid heart doesn’t even know. 

If it wants to you love you a little less. Or love you a little more. 


***

My heart is the absolute unit of idiocy. 

My head is a cacophony…a memory of my French classes taken long ago. A group of people trying to learn the right way to say, “I am very sorry”. It’s a soft chorus, everyone wants to feel it right too. They mumble and keep repeating, “Très désolé, Très désolé, Très désolé.”

It’s 4:30 am. I see a slightly foggy Delhi night from the balcony. My eyes are hurting. It’s a soul ache. 

I’m up because my heart has become the same cacophonous class, softly mumbling to comfort itself. 
Très désolé, I am in love. 
‘I am very sorry, I am in love.’


***


बहुत देर से मिले हो तुम। 

लेकिन बहुत सब्र है मुझमें। मिलना फिर। किसी जन्म। लेकिन अगली बार इतनी देर से मत मिलना। और अगली बार इतनी कम देर के लिए मत मिलना। ज़्यादा ज़्यादा मिलना। रहना। रुकना। 


बस। 


***


अगर मुहब्बत कोई मौसम है, तो तुम मेरा बसंत हो। 

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