मैं कहाँ गयी थी और क्यों गयी थी नहीं मालूम...शायद घने जंगलों में जहाँ कि याद का कोई कोना नहीं खुलता तुम्हें बिसराने गयी थी...कि जिन रास्तों पर तुम्हारा साथ नहीं था...इन्टरनेट नहीं था...मोबाईल में तुम्हारी आवाज़ नहीं थी...हाथ में किसी खत की खुशबू नहीं थी...काँधे पर तुम्हारा लम्स नहीं था...जहाँ दूर दूर तक तुम नहीं थे...तुम्हें छोड़ आना आसान लगा.
मगर मैं क्या जानती थी...ठीक रात के साढ़े ग्यारह बजे जिस जंगल कॉटेज में ठहरी थी...वहां गुल हो जानी थी बत्तियां सारी की सारी और फिर बांस के झुरमुट के ऊपर उग आयेंगे अनगिनत तारे...कि जिनकी चमक ऐसी होगी जैसे चकित आँखों में तुम्हारी याद का एक लम्हा...मैंने इतने बड़े और इतने चमकीले तारे आखिरी बार मौसी की शादी में गाँव में देखे थे...आँगन में पुआल के ऊपर सोये हुए. सब कुछ अँधेरा...एकदम खामोश और जंगल की अनगिनत आवाजें बुनने लगेंगी तुम्हारी आवाज़ का सम्मोहन...रिसोर्ट में एक पॉइंट था...सफ़ेद बोर्ड लगा हुआ...कि जहाँ एयरटेल का सिग्नल आता था...वहां भी नहीं खड़े हुए नेटवर्क के डंडे तो मैंने उम्मीद स्विच ऑफ़ कर दी...तुम्हारी आवाज़ ऐसे ही अनजानी धुन थी जंगल की जो अचानक किसी गहरी अँधेरी बिना चाँद रातों वाले समय सुनाई पड़ी थी...और जानती थी मैं कि ऐसी और कोई आवाज़ नहीं होगी कहीं.
पर मेरे दोस्त...तुम चिंता न करो...इस बार घने जंगलों में सूखा पड़ा था और बहुतेरे जानवर मर रहे थे प्यास से...इसलिए जंगल में निकलना डरावना नहीं था...दिन को सूखे पेड़ों में जलते हुए अंगारों के ऊपर से गुजरी और वहीं दीखते आसमानों के बीच एक पेड़ पर मन्नतों की तरह बाँध आई हूँ तुम्हारी आवाज़ का आखिरी कतरा. उसी पेड़ के नीचे की मिटटी में दबा आई हूँ तुम्हारी याद की पहली शाम. देखो क्या असर होता है दुआओं का...शायद खुदा सुन ले तो इस मॉनसून में इतनी बारिश हो कि पूरा जंगल एक हरी भूल भुलैय्या में बदल जाए...और तुम वाकई मुझसे खो जाओ...हमेशा के लिए.
बुझती रात का अलाव था जिसे हर कुछ देर में देनी पड़ती थी गत्ते के पंखे से हवा कि भड़क उठे लपटें और उसकी रौशनी में पढ़ सकूँ अपनी कॉपी में लिखा कुछ...अपने शब्दों में बारहा ढूंढती रही तुम्हारा नाम और कई बार ऐसा हुआ कि ठीक जिस लम्हे तुम नज़र आये मुस्कुराते हुए आग की लपटें दुबारा सो गयीं...एक हाथ से कॉपी को सीने से भींचे सोचती थी अगर बन्दर उठा ले गए ये कॉपी तो तुम्हें दुबारा कभी देख न पाउंगी. लिखती थी तुम्हारा नाम जंगल की न दिखने वाली जमीन पर...बांस की छोटी सी थी कलम...हाथों में. कि जितने ही गहरे उतरी सफारी लोगों की आँखें भय से चौड़ी होती गयीं...शेर की गंध सूंघते थे सड़क पार करते बारासिंघे...सोच रही थी अगर शेर दिख जाए तो ये उम्मीद जिलाई जा सकती है कि एक दिन ऐसा होगा कि मैं दूर सफ़र से घर पहुंचूं और इंतज़ार में तुम्हारी चिट्ठी हो...नेहभीगी. शेर नहीं दिखा.
सुनो दोस्त, मैंने तुम्हारी मासूम और नन्ही सी याद को किसी पेड़ के नीचे अकेले सोता छोड़ दिया है...कहानियों की उस दुष्ट जादूगरनी की तरह जो राजकुमारी को जंगल में छोड़ आती थी.
---
ये सब तो झूठी मूठी कहानियां हैं...जाने दो...सच में क्या हुआ था वो भी लिखूंगी कभी...पर वो भूलती नहीं न...ये सब तो भूल जाती...मैं सफ़र को गयी थी...बिना मंजिल, बिना मकसद...आँख तक बिछती सड़कें थीं और रात तक खुलता आसमान...पहाड़ी के ऊपर वाले मंदिर में एक चापाकल लगा था...दोनों हाथों की ओक में जितना पानी भर सकती थी उतने में प्यास बुझती थी...जाने उतने ऊँचे पहाड़ पर पानी कहाँ से आता था...फिर सोचती हूँ बरबस तेज़ चलाती कार में मुस्कुराती हुयी...कि जहाँ तो मुझे खुद भी नहीं मालूम कि जा कहाँ रही हूँ...तुम्हारी याद किस जीपीएस से मुझे ढूंढ कर पहुँच जाती है?
मगर मैं क्या जानती थी...ठीक रात के साढ़े ग्यारह बजे जिस जंगल कॉटेज में ठहरी थी...वहां गुल हो जानी थी बत्तियां सारी की सारी और फिर बांस के झुरमुट के ऊपर उग आयेंगे अनगिनत तारे...कि जिनकी चमक ऐसी होगी जैसे चकित आँखों में तुम्हारी याद का एक लम्हा...मैंने इतने बड़े और इतने चमकीले तारे आखिरी बार मौसी की शादी में गाँव में देखे थे...आँगन में पुआल के ऊपर सोये हुए. सब कुछ अँधेरा...एकदम खामोश और जंगल की अनगिनत आवाजें बुनने लगेंगी तुम्हारी आवाज़ का सम्मोहन...रिसोर्ट में एक पॉइंट था...सफ़ेद बोर्ड लगा हुआ...कि जहाँ एयरटेल का सिग्नल आता था...वहां भी नहीं खड़े हुए नेटवर्क के डंडे तो मैंने उम्मीद स्विच ऑफ़ कर दी...तुम्हारी आवाज़ ऐसे ही अनजानी धुन थी जंगल की जो अचानक किसी गहरी अँधेरी बिना चाँद रातों वाले समय सुनाई पड़ी थी...और जानती थी मैं कि ऐसी और कोई आवाज़ नहीं होगी कहीं.
पर मेरे दोस्त...तुम चिंता न करो...इस बार घने जंगलों में सूखा पड़ा था और बहुतेरे जानवर मर रहे थे प्यास से...इसलिए जंगल में निकलना डरावना नहीं था...दिन को सूखे पेड़ों में जलते हुए अंगारों के ऊपर से गुजरी और वहीं दीखते आसमानों के बीच एक पेड़ पर मन्नतों की तरह बाँध आई हूँ तुम्हारी आवाज़ का आखिरी कतरा. उसी पेड़ के नीचे की मिटटी में दबा आई हूँ तुम्हारी याद की पहली शाम. देखो क्या असर होता है दुआओं का...शायद खुदा सुन ले तो इस मॉनसून में इतनी बारिश हो कि पूरा जंगल एक हरी भूल भुलैय्या में बदल जाए...और तुम वाकई मुझसे खो जाओ...हमेशा के लिए.
बुझती रात का अलाव था जिसे हर कुछ देर में देनी पड़ती थी गत्ते के पंखे से हवा कि भड़क उठे लपटें और उसकी रौशनी में पढ़ सकूँ अपनी कॉपी में लिखा कुछ...अपने शब्दों में बारहा ढूंढती रही तुम्हारा नाम और कई बार ऐसा हुआ कि ठीक जिस लम्हे तुम नज़र आये मुस्कुराते हुए आग की लपटें दुबारा सो गयीं...एक हाथ से कॉपी को सीने से भींचे सोचती थी अगर बन्दर उठा ले गए ये कॉपी तो तुम्हें दुबारा कभी देख न पाउंगी. लिखती थी तुम्हारा नाम जंगल की न दिखने वाली जमीन पर...बांस की छोटी सी थी कलम...हाथों में. कि जितने ही गहरे उतरी सफारी लोगों की आँखें भय से चौड़ी होती गयीं...शेर की गंध सूंघते थे सड़क पार करते बारासिंघे...सोच रही थी अगर शेर दिख जाए तो ये उम्मीद जिलाई जा सकती है कि एक दिन ऐसा होगा कि मैं दूर सफ़र से घर पहुंचूं और इंतज़ार में तुम्हारी चिट्ठी हो...नेहभीगी. शेर नहीं दिखा.
सुनो दोस्त, मैंने तुम्हारी मासूम और नन्ही सी याद को किसी पेड़ के नीचे अकेले सोता छोड़ दिया है...कहानियों की उस दुष्ट जादूगरनी की तरह जो राजकुमारी को जंगल में छोड़ आती थी.
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ये सब तो झूठी मूठी कहानियां हैं...जाने दो...सच में क्या हुआ था वो भी लिखूंगी कभी...पर वो भूलती नहीं न...ये सब तो भूल जाती...मैं सफ़र को गयी थी...बिना मंजिल, बिना मकसद...आँख तक बिछती सड़कें थीं और रात तक खुलता आसमान...पहाड़ी के ऊपर वाले मंदिर में एक चापाकल लगा था...दोनों हाथों की ओक में जितना पानी भर सकती थी उतने में प्यास बुझती थी...जाने उतने ऊँचे पहाड़ पर पानी कहाँ से आता था...फिर सोचती हूँ बरबस तेज़ चलाती कार में मुस्कुराती हुयी...कि जहाँ तो मुझे खुद भी नहीं मालूम कि जा कहाँ रही हूँ...तुम्हारी याद किस जीपीएस से मुझे ढूंढ कर पहुँच जाती है?
बिना मंजिल..बिना मकसद..गाड़ी और मैं..ऐसे रोड-ट्रिप पे जाने की ख्वाहिश बहुत है मुझे...बेहद जलन हो रही है फ़िलहाल आपसे!! :)
ReplyDelete:) अरे जलो मत...दिल्ली की तरफ तो ऐसी रोड ट्रिप में और भी मज़ा आएगा...पहाड़ जो हैं उधर अच्छे वाले और जाने को कितनी सारी जगहें.
Deleteजलने का काम पोस्टपोन करो...ये पोस्ट तो ऐसे ही वेल्लापंथी में लिखी है...असली पोस्ट तो अभी आनी बाकी है...पूरे ब्योरे के साथ..वो पढ़ के जल लेना ;) ;)
:) :)
Deleteकहीं जंगलों में पहुँच कर आदिम भाव तो नहीं जग आते हैं। यदि कहीं सर्वाधिक संभव है तो जंगल में ही।
ReplyDeleteकहने को तो एक गद्य पढ़ गया, पर हर जगर एक कविता की खुशबू आयी, रुका, पलटा और फिर पढने लगा, यकीन मानिए नहीं समझ पाया | क्या किसी कविता को लिखने के लिए किसी ने इतना घूमा होगा, या उस बिना चाँद की रातों में, हाँ हाँ बिना चाँद की रातें, वरना तारे तो चाँद के सामने अपना वजूद ही खो देते हैं, कोई अल्हड़-मस्ताना भी बैठा होगा क्या? जो आज़ाद हो, आबाद हो !!!!
ReplyDeleteक्या जाने उस पेड़ पे टंगी उन कहानियों को कोई उतारेगा भी कभी या वो तड़पती रहेंगी उसी सूखे की वजह से मुरझाये जंगल में, और इस उम्मीद में कि अगले बरस तो मेघा बरसेंगे !!!!
मन करता है कोई मुझे उन्ही जंगलों में छोड़ आये!!!! सुना है जंगलों में इंसान कभी कभी ही आते हैं!!!
आओ बेट्टा...तुम इधर बैंगलोर आओ...तुमको वहीं जंगल में छोड़ आयेंगे...वैसे उधर शेर कम है...मगर हाथी बहुत है...तुमरा फिर कौनो रिस्पोंसिबिलिटी किसी का नहीं..ओके?
Delete--
सीरियसली...हमको भी नहीं पता कि ये है क्या...फर्स्ट इम्प्रेशन टाइप कुछ है...कल आये हैं और आज भोर में जो लिखने का मूड किया लिख दिए. कविता है या गद्य है इस बारे में ज्यादा सोच नहीं पाते. कमेन्ट सुन्दर है रे...थैंक यू के खाते में एक ठो प्लस वन ऐड कर लो. :)
शेर छोड़ देगा हमें, जहरीला मांस कौन खाए :)
Deleteहाँ हाथी से अपना कम्पटीशन तगड़ा है , उन्ही के टाइप के हैं ना !!!!
थैंक यू का खाता ओवरफ्लो हो गया है , so no more thank you please :) :) :)
'हरी भूल भुलैय्या'
ReplyDeleteये बड़ा अनोखा प्यारा सा शब्द मिला...
लिखा तो हमेशा की तरह बहुत सुन्दर है!
इधर दो तीन दिन हम लोग भी बिना मकसद खूब भटके हैं... कुछ दिनों में हरी भूल भुलैया उग आये यहाँ चारों ओर तो गर्मियों में खूब भटकने का मन बनाया है:)
बिना मंजिल चलना ऐसे एहसासों का साक्षी बनता है जो तय मंजिल तक जाने वाली राहों में नहीं आते...
यूँ ही घूमता रहे मन... यादों के फूल चुनता रहे मन नीरव वनों में भी... और यह सबकुछ कविता के से बहाव में यूँ ही लिखता भी रहे मन!
शुभकामनाएं:)
ये जो जीपीएस हैं न, बहुत गड़बड़ कर देता है.
ReplyDeleteबिंदास लेखनी ,और बेबाकी का नूर हो तुम ,
ReplyDeleteलगता है, चापलूसी से बहुत दूर हो तुम||
ऐसे ही बनी रहो !
आशीर्वाद और शुभकामनाएँ!
Very nicely written... The post had its moments... Good thing is I can empathize with all of it as if I am the one there in forest...
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत
ReplyDeleteसादर
सच ही... तुम गद्य भी लिखती हो तो उसमें एसेंस कविता का ही होता है। विचारों के ऊबड़-खाबड़ पर्वतों से कविता का झरना ही तो झर सकता है न! अकेला घूमना कितना अच्छा लगता है ...जैसे कि सारी दुनिया के मालिक हो गये हों। और ऐसे एकांत में खयालों की कश्तियों में हिचकोले खाते हुये घूमना ...वाह...थ्रिल..थ्रिल...थ्रिल..। सुनो पूजा! ये थ्रिल जिस दिन ख़त्म हो जायेगा ...कविता का दम घुट जायेगा। इसलिये जिन यादों की मूर्तियों का भसान करने गयी थीं जंगल में अगली बार जाओगी तो तुम्हें देखते ही खिल उठेंगी। सच्च ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है।
ReplyDeleteचर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्टस पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं....
आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......
गद्यात्मक पद्य/पद्यात्मक गद्य ... वाह! मोहक लेखन।
ReplyDeleteसादर बधाई...
वैसे तो तीन दिन हम बहुत भयानक तरीके से तुमको मिस किये हैं,लेकिन पोस्ट पढ़ कर लग रहा है कि...
ReplyDeleteजाओ माफ़ किया :) :)
हाय मेरी जान! इस अहसान के तले दब के मर जाएँ हम ;-)
Deleteबहुत खूब..एक नयापन है..कहीं गद्य तो कहीं नज्मों के एक काफिले की खुशबू आती है..!!
ReplyDeletebahut manoranjak.......
ReplyDeleteलिखती तो आप हमेशा से ही बहुत बढ़िया है इस बार भी बेहतरीन भाव अभिव्यक्त किए हैं आपने शुभकामनायें....
ReplyDeleteगद्य में पद्य सा प्रवाह लाज़वाब है 'पठन सामिग्री 'में शुरूआती अंश कवितांश ही था ,लेकिन इस संस्मरण अनुभव यात्रा वृत्तांत या मन के झंझावात आलोडन का हर अंग कवितामय था .(अलबत्ता 'मानसून 'प्रचलित है.ठीक कर लें 'लिखूंगी' है या .,लिखुंगी है ? .) एक मानसिक कुन्हासे को रु -ब -रु कागज़ पे उतारना अप्रतिम लगा .बधाई .
ReplyDelete'सफर में खिलते याद के जंगली फूल' ज़ारी रहे .
सुंदर ; प्रेमी हृदय के लिए ।
ReplyDeleteसटीक ; सरल के लिए ।
उम्दा रचना !!!!