14 February, 2014

Muse- जुगराफिया- A love letter to Berne

'Muse'- कुछ शब्दों की खुशबू उनकी अपनी भाषा में ही होती है, अब जैसे हिन्दी में मुझे इस शब्द का कोइ अनुवाद नहीं मिला है...प्रेरणा बहुत हल्का शब्द लगता है, म्यूज के सारे रोमांटिसिज्म को कन्वे भी नहीं कर पाता है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि औरतों को प्रेरणा देने के लिये किन ईश्वरों की रचना की गयी होगी या कि ग्रीक मिथक के सारे लेखक और पेन्टर सिर्फ मर्द हुआ करते थे इसलिये ऐसी किसी विचारधारा की कभी जरुरत ही न पड़ी। स्त्री रचने के लिये किसी बाहरी तत्व पे ज्यादा निर्भर भी नहीं रहती। उसके अंदर कल्पना के अनेक शहर बसे होते हैं।

बहरहाल, बहुत दिनों से सोच रही थी इन देवियों के बारे मे...मेरे भी म्यूज बदलते रहते हैं। म्यूज हर फौर्म के अलग अलग होते हैं। आज का मेरा विषय है- भूगोल यानि कि जुगराफिया...क्या है कि बचपन से मेरी जियोग्राफी खराब रही है। शोर्ट में हम उसे जियो कहते थे मगर सब्जेकट ऐसा टफ था कि जीने नहीं देता था। यूं शहर बहुत घूम चुकी हूं तो इस विषय से लगने वाला भय भी प्यार मे कन्वर्ट होने लगा। तो कुछ शहरों की बात करते हैं।
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हर शहर की अपनी खुशबू होती है। सबसे पहले आता है बर्न। स्विटजरलैंड। हेडफोन पर दिन भर बजता एक ही गीत...सिबोनेय...रास्ते खुलते जाते...ज्युरिक में रहते हुये जब बर्न जाने का मूड हुआ था तो दुपहर हो गयी थी। घंटे भर का रास्ता था, जा के आ सकती थी। सोचा कि चल ही लेती हूं। शहरों की किस्मत में आने वालों के नाम लिखे होते हैं।

शहर...बर्न...कागज के एक टुकड़े पर बस इतना ही लिखा है
Cities say welcome, Berne opened its arms wide and hugged me tight...whispering an incomprehensible 'Welcome back' into my ears...as I was swept off my feet.

मैं उस शहर की खुशबू बयां नहीं कर सकती...वहां की आबो हवा में कोइ पुराना गीत घुला हुआ था। मैं इस शहर बहुत पहले आ चुकी थी। बर्न मेरा अपना शहर था...मेरी आत्मा से जुड़ा हुआ। मुझे याद है स्टेशन का वो लम्हा...एयर कंडिशन्ड कोच से बाहर पहला कदम रखा था...बर्न ने बाँहें पसार कर मुझे टाइटली हग किया था...मैं कहीं और नहीं थी, मैं कुछ और नहीं थी...मैं उस लम्हे प्यार के उस बुलबुले में थी जिसकी दीवारें सदियों पहले ईश्क की बनी थीं। मेरी साँस साँस में उतरते बर्न से इस बेतरह प्यार हुआ कि लगा इस लम्हे जान चली जायेगी। मैं स्टैच्यू थी और शहर मेरे आने से इतना खुश था कि शिकायत भी नहीं कर रहा था कि आने में बड़ी देर कर दी, मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा था।

बर्न का मौसम दिलफरेब था। झीनी ठंढी हवा कि जिसमें लेस वाली फ्राक पहनने का दिल करे। चौकोर पत्थर वाली सड़कों पर नंगे पाँव दौड़ने का दिल कर रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं लगा था...किसी शहर से नहीं लगा था। इमारतें किस्से सुना रही थीं...मेरी खुराफातों के...मेरी खूबसूरती के...सुनहले थे मेरे बाल...कान्धे पर लहराते हुये...पास के झरने में खुद को देखा तो ब्लश कर रही थी मैं, गाल गुलाबी हो गये थे। शहर की खिड़की से दिखते फूलों जैसे। मेरी आँखें नीली थीं...आसमान जैसी नीलीं। मैं फूल से हल्की थी। सामने नदी बह रही थी...पानी गहरा हरा...जीवंत...भागता हुआ...नदी की चुप गरगलाहट सुनायी पड़ती थी...बच्चा मुस्कुराता था नींद में कोई। शहर के बीच टाउन स्कवायर। एक तरफ बर्न की पार्लियामेंट तो एक तरफ बैंक...और कोइ दो भव्य इमारतें। स्क्वैयर पर फव्वारे, उनके संगीत मे किलकारी मारते बच्चे। पानी से खुश होते...भागते...छोटे लाल हूडि पहने हुये...लड़कपन की दहलीज पर लड़कियां, उनके दोस्त...धूप...जिन्दगी एक बेहद खूबसूरत मोड़ पर ठहरी हुयी। आसपास के रेस्टोरैंट्स में वाईन पीते लोग। उनके चेहरे पर कितना सुकून। बर्न शोअॉफ कर रहा था।

पहले दिन वक्त बहुत कम था। भागती हुयी ट्रेन इसी वादे के साथ पकड़ी कि कल फिर आउंगी...अगली रोज जल्दी पहुंच गयी...दिन भर भटकती फिरी...शहर थामे हुये था मेरा हाथ। हेडफोन्स नहीं थे आज, कविताऐं सुननी थी मुझे...ट्रेन स्टेशन के ठीक सामने एक ग्रुप गा रहा था...भाषा समझ नहीं आयी पर भाव मालूम था...ये इस एक दिन के लिये भागते हुये शहर से मिलने की मियाद थी...गली गली गले मिलने की...नदी के उपर बने उँचे ब्रिज से देर तक नदी की शिकायतें सुनने की...फूल बेचते लड़कों को देख कर मुस्कुराने की...बार बार और बार बार रास्ता भटक जाने की...गहरी सांसों में इक छोटी सी मुलाकात दिल में बसाने की। भागते हुये आना कि घंटाघर में जब पाँच बजते तो दिखता शहर...बर्न...मुस्काता हुआ।

दिन के खाने में सिर्फ डार्क चोकलेट ही होनी थी...पीने को झरने से आता ठंढा पानी...डूबने को ईश्क...मेरा कोइ पुराना रिश्ता है शहर से...किसी और जन्म का।

कहने वाले कह सकते है कि उस शाम की ट्रेन पर मैं वापस ज्युरिक आ गयी मगर मैं जानती हूं रुह के सफर को...उस दिन गयी थी बर्न...रह गयी हूं वहीं, उस दिलफरेब शहर की बाँहों में...कि फिर भीगी आँखों से विदा कहती...अनजान लोगों से भी खाली उस ट्रेन में सुबकती लड़की थी कौन?

म्युजेज के नाम पहला खत...दिलरुबा शहर बर्न तुम्हारे लिये। I'll love you forever. 

3 comments:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, शनिवार, दिनांक :- 15/02/2014 को "शजर पर एक ही पत्ता बचा है" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1524 पर.

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  2. शहर का व्यक्तित्व यदि अपना सा लगे तो मान लीजिये कि पिछले जन्म बिताये हैं वहाँ।

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  3. For four or five days, I have been reading your posts, ऑफिस में जब भी बोर होता हूँ, I come to read you...!!! कुछ दिन पहले I used to read 'whiteindianhousewife', I read her each and every posts, फिर 'सफ़ेद घर' पढ़ कर भी दिन गुज़र जाता था, लेकिन पिछले कुछ दिनों से कुछ मिल नहीं रहा था, A few ago, I stumbled upon 'life's a kick', वहीँ से I came to your blog and a few more.... these days having good time, than you...!!

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