Showing posts with label छुट्टियाँ. Show all posts
Showing posts with label छुट्टियाँ. Show all posts

11 October, 2017

'वे दिन' शूट. Pack up. Fade to सुख


उसे देख कर सहसा लगा, मैं बहुत सुखी हूँ। मझे लगा, एक ख़ास हद के बाद सब लोग एक-जैसे सुखी हो जाते हैं। जब तुम टिक जाते हो। किसी चीज़ पर टिक जाना...वह अपने में सुख ना भी हो, तुम उससे सुख ले सकते हो; अगर तुम ज़्यादा लालची न हो - यह उस शाम मैंने पहली बार जाना था। यह बहुत अचानक है और तुमसे बाहर है - उस फ़ोटो की तरह, जो तुम्हारी जानकारी के बिना किसी बाज़ारू फ़ोटोग्राफ़र ने सड़क पर खींच ली थी। बाद में तुम देखते हो तो हल्का-सा विस्माय होता था कि यह तुम हो...तुम चाहो तो उसे वापस कर सकते हो। लेकिन वह कहाँ है - तुम उसे वापस भी कर दो, तो भी वह वहाँ रहेगा...एक स्थिर चौंका-सा क्षण, जब तुम सड़क पार कर रहे थे...

- वे दिन, निर्मल वर्मा

***
उस चौराहे पर दो ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग थी और दोनों ओर के सिग्नल थे। जहाँ से उन्हें ठीक नब्बे डिग्री के अलग अलग रास्तों में जाना था। ये अच्छा था कि १८० डिग्री विपरीत वाले रास्ते लड़की को पसंद नहीं थे। उनमें इस बात का हमेशा भय होता था कि किसी का आख़िरी बार मुड़ कर देखना मिस कर जाएँगे। It's a shooting nightmare, वो अक्सर अपने दोस्तों को कहा करती थी। स्क्रीनराइटिंग के बाद डिरेक्शन करने से फ़ायदा ये होता था कि हर सीन अपनी पूरी पेचीदगी में लिखा होता था। ठीक वैसा जैसे उसके मन के कैमरे में दिखता था। सिनमटॉग्रफ़र उसके साथ कई कई दिन भटकता रहता था कि ठीक वही ऐंगिल पकड़ सके जो उसकी आँखों को दिखता है।

उस बिंदु से दूर तक जाती सड़क दिखती थी। लोगों के रेलमपेल के बावजूद। बहुत ज़्यादा भीड़ में भी कैसे एकदम टेलिफ़ोटो लेंस की तरह आप ठीक उस एक शख़्स पर फ़ोकस किए रखते हैं। दुनिया का सबसे अच्छा कैमरा भी उस तरह से चीज़ों को नहीं पकड़ सकता जैसे कि आपकी आँख देखती है। कि आँख के देखने में बहुत कुछ और महसूसियत भी होती है। लोगों का आना जाना। ट्रैफ़िक का धुआँ। एक थिर चाल में आगे बढ़ती भीड़। या कि तेज़ी से स्प्रिंट दौड़ता वो एक शख़्स। कि जिसे देख कर अचानक से लगे कि बस, सारी दुनिया ही हो रही है आउट औफ़ फ़ोकस। या कि ख़त्म ही। जैसे कुछ फ़िल्मों में होता है ना, विध्वंस। कोई सूनामी लहर आ रही हो दिल को नेस्तनाबूद करने या कि भूचाल और आसपास की सारी इमारतें गिर रही हों एक दूसरे पर ही। मरते हुए आदमी को ऐसा ही लगता होगा। ज़िंदगी छूट रही हो हाथ से। जिसे हेनरी कार्टीए ब्रेस्सों कहते हैं, 'द डिफ़ाइनिंग मोमेंट'।

इसे शूट करते हुए पहले हम क्रेन से एक लौंग शॉट लेंगे, इस्टैब्लिशिंग शॉट कि जिसमें आसपास की इमारतें, लोग, सड़क, ट्रैफ़िक सिग्नल, सब कुछ ही कैप्चर हो जाए। फिर क्रेन से ही हाई ऐंगल शॉट से दिखाएँगे लड़के को दौड़ते हुए... उसे कैमरा फ़ॉलो करने के लिए ऊपर से नीचे की ओर टिल्ट होता और टिल्ट होने के साथ ही ज़ूम इन भी करेगा किरदार पर...फिर हमें चूँकि उसकी नॉट-पर्फ़ेक्ट रन दिखानी है, हमें थोड़ा शेकी इफ़ेक्ट भी डालना पड़ेगा। इस सारे दर्मयान आसपास के लोग सॉफ़्ट्ली आउट और फ़ोकस रहेंगे। कि वो भीड़ में गुम ना जो जाए, इसलिए हम चाहेंगे कि किरदार बाक़ी शहर के हिसाब से सफ़ेद नहीं, कोई रंग में डूबा शर्ट पहने, कि जो लड़की का पसंदीदा रंग भी हो - नीला। सॉलिड डार्क कलर की शर्ट। फ़ीरोज़ी और नेवी ब्लू के ठीक बीच कहीं की। लिनेन की कि जिसमें आँसू जज़्ब करने की क्षमता हो। ख़याल रहे कि क्षमता ज़रूरी है, इस्तेमाल नहीं।

लड़की देखेगी कैमरापर्सन की ओर और परेशान होगी, कि कोई भी कहाँ कैप्चर कर पता है उतनी डिटेल में जैसे कि इंसान की आँख देखती है चीज़ों को। कितना कुछ छूट रहा है कैमरा से।

कैमरा मिड शॉट पर आ के रुका है जिसमें बना है जिसमें कि किरदार को फ़ॉलो करना मुश्किल है...फिर अचानक ही हमारा लीड कैरेक्टर मुड़ कर देखता है। एकदम अचानक। उसकी नज़र खींचती है चीज़ों को अपनी ओर जादू से। जैसे कैमरे को भी। लेंस के उस पार का कैमरापर्सन ठिठक जाता है। जैसे ठहर जाता है सब कुछ। पॉज़। किसी फ़िल्म में एकदम मृत्यु के पहले का आख़िरी लम्हा। एक आख़िरी मुस्कान। ज़िंदगी अपने पूरे रंग और खुलूस के साथ बादल जाती है एक ठहरे हुए लम्हे में। महसूस होता है। दिल की ठहरी हुयी धड़कन को भी। इसे ही जीना कहते हैं। बस इसे ही।

कि ज़िंदगी ऐसे किसी लम्हे को मुट्ठी में बांधे मुस्कुराती है कई सालों बाद तक भी। 'डेज़ औफ़ बीइंग वाइल्ड' का आख़िरी दृश्य होता है। लड़का अपनी आख़िरी साँसों के साथ याद कर रहा है। जो उसने कहा था। 'ये एक मिनट मैं अपनी पूरी ज़िंदगी याद रखूँगा'।

ट्रेन की आवाज़ आ रही होती है। पुरानी पटरियों को आदत है सुख और दुःख दोनों को अपने अपने अंजाम तक पहुँचा आती हैं। शिकायत नहीं करतीं। ज़्यादा माँगती नहीं। कैमरा लड़की के चेहरे पर टिका हुआ है। वो खिड़की से बाहर अंधेरे में अपनी आँखें देख रही है। नेचुरल लाइट में शूट करने के चलते हम उसकी आँखों में भरा पानी शूट नहीं कर पाते हैं। और फिर, सेल्युलॉड वंचित रह जाता है ख़ुशी से भरी आँखें रेकर्ड करने से।

मनुष्य के बदन में 'मन' कहाँ होता है, हम नहीं जानते। शायद हृदय के आसपास कहीं। लेकिन उस तक भी लिख कर ही पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। डिरेक्टर उम्मीद करता है कि इतना सा देख कर ऑडीयन्स अपनी ज़िंदगी के हिस्से जोड़ देगी। वो टूटे हुए हज़ारों हिस्से जिनसे मिल कर एक लम्हे का सुख बनता है। एक लम्हे का मुकम्मल। सुख।

10 June, 2013

Happy Birthday Gorgeous :)

तीस की उम्र में बहुत सी चीज़ों में समझदारी आ जाती है. ये दुनिया वैसी नहीं है जैसी सोचा करती थी...चीज़ें उतनी सिंपल नहीं हैं और रिश्तों में बहुत सी पेचीदगी है...इश्क अभी भी समझ से बाहर है. हम जैसा अपना आने वाला कल सोचते हैं...कल वाकई वैसा नहीं होता कुछ अलग ही होता है. बहुत कुछ ऐसा खोया जिसके बिना जिंदगी अधूरी है तो बहुत कुछ पाया भी जिसके पाने की कल्पना नहीं की थी. 

बहुत सालों के बाद बर्थडे में पटना में हूँ, पापा और जिमी के साथ...उतने ही साल बाद कुणाल के बगैर हूँ... इस बार पहली बार मायके में हूँ तो महसूस किया कि कितना बड़ा परिवार है उधर और कितने सारे लोग कितना सारा प्यार करते हैं मुझे. कभी कभी चीज़ों को महसूस करने के लिए उनसे दूर जाना पड़ता है. रात को देर तक फोन बजता रहा...सुबह भी अनगिन फोन आये. 

थर्टी इज द बेस्ट टाइम इन लाइफ. 

जिंदगी में बहुत सारी चीज़ों के प्रति निश्चिन्तता आ जाती है. इसी बात से कई बार डर भी लगता है हालाँकि, लेकिन फिर लगता है कि नहीं...प्यास अभी बाकी है...बंजारामिजाजी ने रिजाइन नहीं किया है पोस्ट पर से. 

पापा से घूमने के बारे में बात कर रही थी, इस साल पापा को घूमने जाना है...तो मैं घुमक्कड़ी के अपने किस्से सुना रही थी...कि अब कुणाल और जिमी को तो काम है पापा...ऑफिस है, एक काम करते हैं हम और आप निकल जाते हैं घूमने. मेरे ख्याल से मेरा घुमक्कड़ी का 'जीन' पापा की तरफ से आया है. पता नहीं क्या प्रोग्राम बनेगा पर पापा के साथ योरोप का टूर...अल्टीमेट होगा. 

इस बर्थडे पर बहुत दिन से बहुत सारा कुछ लिखने का मन था...लेकिन दिल भरा भरा सा है...कुछ खास लिखने का मन नहीं है. कल शाम को गंगा आरती देखने गयी थी...गंगा किनारे नाव पर बैठ कर बहुत दूर का चक्कर लगाया...लकड़ी की उस नाव पर बैठे अनगिन तसवीरें उतारीं. गंगा का पानी हमेशा की तरह था...निर्विकार... मन में कहीं हिमालय पर भाग जाने की ख्वाहिश को बोता हुआ. आरती करते हुए पंडितों के चेहरे पर अजीब तेज था...जैसे वो किसी और दुनिया के लोग हों...तप्त...आभा में दमकते हुए. धूप, अगरबत्ती, शंख...बहुत सारा मंत्रोच्चार. 
---
नाव का किराया ३० रुपये था. नाव में अधिकतर लड़के थे...हर उम्र के लड़के...मैं उनके बारे में कितना कुछ सोचती रही. जाने किसी गरीब लड़के का भी कैसे तो ख्याल आया या कि छुट्टियों में घर आये किसी लड़के का जिसने आने के पहले सोचा न हो कि ऐसी कोई चीज़ देखने को मिल जायेगी. हर रोज़ ३० रुपये जुगाड़ने की मशक्कत करनी पड़े. मुझे मालूम नहीं मुझे ऐसा ख्याल क्यूँ आया मगर उन अनजाने चेहरों में कोई अजीब किस्म का अपनापन था. जैसे मेरे घर, मोहल्ले, गाँव के लड़के हों. कि जैसे गंगा आरती देखने वाले लड़के कोई अपराध नहीं कर सकते. कि उनके मन में कोई गंगा ऐसी ही बहती होगी...गंगाजल कभी भी ख़राब नहीं होता, सालों साल बाद भी. एक कहानी भी उभरी मन में...कि गंगा किनारे किसी से मिलने आना कैसा होता होगा. कुछ नहीं बस बरसात के मौसम में मिलने आना कि जब गंगा पटना के घाट तक आ जाती हो. किसी नाव पर पाँव लटकाये बैठे रहे...क्या क्या किस्से सुनाते रहे. कि लगा कि कितनी सारी कहानियां सुनाना चाहती है गंगा. हिलोरे मारती लहरें...कि डूब कर किया जाता है प्यार. कि शाम को आरती के बाद बहा देना चाहिए कोई नाम पत्ते के दोने पर रख कर दिए की लौ में...कि गंगा किनारे आ कर मन का कितना सारा रीता कोना भरने लगता है. कि किसी के जाने के बाद भी उन जगहों पर रह जाता है सोच का कतरा...कि किसी समय गंगा में मेरे नाम की मन्नतें किसी ने बहायीं होंगी. 
---
बहुत कुछ उलझा हुआ है जिंदगी में मगर कहीं एक यकीन है कि सुलझा लूंगी. घर पर इतने सारे लोग हैं...इतने अच्छे दोस्त...और मेरा कुणाल :) इतने में बहुत कुछ किया जा सकता है...बनाया जा सकता है...रचा जा सकता है. 

अच्छा अच्छा सा लग रहा है. और ये वाला कोट...बहुत दिनों से रखा था देख कर...आज टांग देती हूँ...कि हमेशा याद रहे...




You can be gorgeous at thirty, charming at forty, and irresistible for the rest of your life.
-Coco Chanel

And on that note...happy birthday Gorgeous 

12 March, 2013

एक अच्छे वीकेंड की डायरी

एक सुख की जगह होती है...खालीपन के ठीक पास...वहां पर जब होती हूँ अक्सर कुछ नहीं लिखती हूँ. पिछला वीकेंड बेहतरीन था. फ्राइडे को विमेंस डे था. ऑफिस में इतना अच्छा लगा. लगभग चार बजे एक चोकलेट मूस वाला एक डेजर्ट मिला...किसी लड़के को नहीं दिया गया कि स्पेशल डे है आज. जोर्ज को दिखा दिखा के चिढ़ा के खाने का अपना मज़ा था. फिर एक इंटरनल मीटिंग थी तो हम सारे उसमें व्यस्त हो गए. कांफेरेंस रूम के बाहर बहुत शोर हो रहा था...हमने दरवाजा खोल के देखा तो रेड वाइन की बोतलें थीं, बहुत सारे चोकलेट के डिब्बे थे, वाइन ग्लासेस थे और पूरा ऑफिस जुटा हुआ था. 

सेलेब्रेशन में पहले वाईन...स्पेशियल लोगों के लिए...ऑफिस की सारी लड़कियां/औरतें रेसिप्शन पर थीं...चीयर्स के टाइम पर सारे लड़कों के हाथ में कैमरा था...इतने सारे फ्लैश हो रहे थे कि सेलेब्रिटी जैसी फीलिंग आ रही थी. फिर बहुत सारा शोर होता रहा...बहुत सी अच्छी अच्छी बातें. मैं वाइन कभी नहीं पीती पर शायद माहौल का असर था कि अच्छी लग रही थी. थोड़ा सा टिप्सी थी. चोकलेट और वाइन का कॉम्बो किलर था. फिर हमारे लिए राहिल ने डांस भी किया. वो हमारे ऑफिस का रॉकस्टार है. बहुत सारी सीटियाँ बजीं...बहुत सारा शोर फिर से. राहिल ने सबको चोकलेट का डिब्बा गिफ्ट किया...अपनी अपनी श्रद्धा से कुछ लड़कियों ने वापस में गाल पर किस दिया...कुछ ने हग किया...बहुत अच्छा लग रहा था. वापस सीट पर आई तो वहां फूलों का गुलदस्ता रखा था. मूड बेहतरीन था. आई लव माय ऑफिस. :)

घर आई तो वीकेंड गप्पें साढ़े तीन बजे तक चलती रहीं. अगली सुबह पोंडिचेरी निकलना था. ६ बजे का अलार्म लगा कर सोये मगर उठते और तैयार होते ४ बज गए. लॉन्ग ड्राइव टू पोंडिचेरी...३५० किलोमीटर...कुछ अच्छे गाने सुनते, गप्पें मारते कोई ३ बजे पहुँच गए. खाना खाया और सो गए. शाम को समंदर किनारे टहलने गए. कुणाल को समंदर की हवा बहुत अच्छी लगती है. खास तौर से रॉक बीच पर शाम में ट्रैफिक बंद होता है तो सिर्फ लोग चहलकदमी करते हुए दिखते हैं. बीच साइड के छोटे सफ़ेद घर, फ्रेंच आर्किटेक्चर...जरा सी हमें यूरोप की फीलिंग आ रही थी. बाहर गए बहुत टाइम हुआ न...अब हम घुमक्कड़ हो गए हैं दोनों. देखें उसका अगला प्रोजेक्ट कब आता है. इस बार मैं फ़्रांस या इटली घूमने के मूड में हूँ :)

ला कैफे में फ्रैपे और फ्रेंच फ्राईज...फुल अनहेल्दी खाना खाया. अगली सुबह आश्रम ९ बजे पहुंचना था तो सो गए. १० को साकिब का भी बर्थडे है. हम उसे और कुणाल को जुड़वाँ कहते हैं. साकिब एक साल छोटा है उससे. अरविंदो आश्रम में जन्मदिन के दिन श्री अरविन्द के कमरे में ध्यान करने दिया जाता है. हमने सुबह टोकन कटाया और कमरे के बाहर सीढ़ियों पर कुछ देर बैठे रहे. मुझे वहां बहुत से अपने लोगों की याद आई...एकदम चुप बैठे हुए मैंने उनके लिए कई दुआएं की...वो जहाँ हों, खुश रहें. 

उस कमरे में बहुत शांति मिलती है...जैसे सब कुछ ठहर गया हो. ये दुनिया की कुछ उन आखिरी जगहों में से है जहाँ होने पर मैं कहीं भाग नहीं जाना चाहती...रहना चाहती हूँ. साँस लेना चाहती हूँ...कपूर की खुशबू में डूबे उस कमरे को अपने अन्दर बसा लेना चाहती हूँ. 

वहां से बाहर आ के कुछ किताबें खरीदीं...दिलीप मामा के साथ थोड़ा चाय कॉफ़ी...दिलीप मामा हमें अपना रूम दिखाने ले गए. उन्होंने कहा कि कमरा थोडा अस्त-व्यस्त है. मैंने कहा मुझे केओस अच्छा लगता है. मामाजी के पास बहुत सी किताबें थीं और उन्हें स्कल्पचर का शौक़ था तो जाने कहाँ कहाँ की मूर्तियाँ थीं. उनके पास श्री माँ और श्री अरविन्द की एक स्पेशियल तस्वीर थी जिसमें उन दोनों के सिग्नेचर थे. मामाजी बड़े इंट्रेस्टिंग हैं. स्वामी विवेकानंद पर बनी एक बंगाली फिल्म के लिए उन्होंने काम किया है. एक छोटा सा रोल भी निभाया है. उन्होंने कुणाल को बर्थडे पर एक टी-शर्ट दी...दो-तीन किताबें...मुझे एक गणेश जी की छोटी सी मूर्ती...फूलों के लिए एक मेटल स्टैंड और एक बेहद खूबसूरत पीतल की संदूकची दी. ऐसा लग रहा था जैसे मेरा ही बर्थडे हो. 

बारह बजे हम पोंडिचेरी से निकल गए. वापसी का ७ घंटे का सफ़र. बैंगलोर में फिर पूरी पलटन के साथ बर्थडे सेलेब्रेट करना क्यूंकि ये पहली बार था कि कुणाल और साकिब इस दिन एक साथ थे. मोहित, नीतिका, अभिषेक, चन्दन, रमन, दिनेश, सकीब, कुणाल और मैं सब मिल कर एक नए रेस्टोरेंट में गए...ब्लैक पर्ल. मस्त जगह थी. पाईरेट वाला डिकोर था. खाना बहुत अच्छा...मूड बहुत अच्छा. घर वापस आते एक बज गया. 

अगली सुबह फिर ऑफिस...आज जोर्ज और नेहा पुणे गए हुए हैं शूट पर. मन नहीं लगता उनके बिना...ऑफिस खाली लगता है. आज बहुत वर्कलोड भी नहीं है. लाइफ थोड़ी अच्छी...थोड़ी सेटल्ड सी लग रही है. एंड फॉर अ चेंज मुझे ये अच्छा लग रहा है. इतना सब लिखना इसलिए कि सिर्फ उदासियाँ दर्ज नहीं होनीं चाहिए. 

बहार का मौसम...खुशामदीद. :) 

02 January, 2013

हैप्पी न्यू इयर २०१३

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं ।
....
नये साल में उम्मीदों की एक सुबह...
---
नए साल में हम कैम्पिंग करने एक नदी किनारे गए थे. छोटे छोटे टेंट्स और खाने पीने का थोड़ा सामान.

शहर को पीछे छोड़ते हुए गाँव शुरू हो चुके थे...गाँव की भी आखिरी सीमा से एक पगडण्डी शुरू होती थी...उधर से आगे बढ़ते हुए दो छोटी पहाड़ियों के ऊपर कोई किलोमीटर से ऊपर का सफ़र था.

जब हम घाटी में पहुँचते तो जैसे पूरी दुनिया पीछे छोड़ आये थे. साथ थे ९ लोग...कुणाल और मैं, मोहित-नीतिका, कुंदन, चन्दन, साकिब और रमन और दिनेश.

कहीं से कोई शोर नहीं...कहीं एक इंसान नहीं दूर दूर तक...नए साल का कोई हल्ला नहीं, कोई फ़िक्र नहीं मुझे ऐसा ही शांत नया साल चाहिए था. एक बार नए साल में ताज गए थे...वहां डांस फ्लोर पर किसी ने हमारी दोस्त के साथ बदतमीजी की, एक बार नहीं कई बार...और ताज वालों ने उसे होटल से बाहर तक नहीं निकाला. हमें कम से कम ताज से ऐसी उम्मीद नहीं थी. लगा कि कम से वहां तो सेफ्टी होगी. उसके बाद कभी नया साल मनाने का उत्साह ही नहीं रहा. बाहर जाकर पार्टी और हल्ला करने की अब मेरी उम्र नहीं रही. मुझे अब बहुत शोर शराबा और नौटंकी करना अच्छा नहीं लगता है.

३१ की सुबह घर में दो रोटियां बनाने के बाद गैस ख़त्म हो गयी थी...सुबह से भूखे ही थे. दिन में ऑफिस का ये हाल था कि दस मिनट निकाल कर बगल की दूकान से एक पैकेट चिप्स ला के खाने की फुर्सत नहीं थी. सुबह से एक सेब खाया था बस. ढाई बजे बैंगलोर से निकले...और इस बार कार मैं ड्राइव कर रही थी. हमें पहुँचते पहुँचते पांच बज गए थे. भूख के मारे बुरा हाल था...फिर गरम गरम पकोड़े मिले खाने को...जान में जान आई. आलू और मिर्च के पकोड़े. हैंगोवर से बचने के नुस्खों में एक था...पहले कोई तली हुयी चीज़ खा लो...

कुंदन, कुणाल और चन्दन 
नदी किनारे एक राफ्ट बंधा हुआ था...तारे उग आये थे...मुझे खुले में सितारों के नीचे सोये बहुत वक़्त हुआ था. कौन सी बातें थी अब याद नहीं पर अच्छा लग रहा था. सबसे अच्छा लग रहा था कि सेफ महसूस कर रहे थे कि सब अपने लोग हैं. किसी तरह की टेंशन नहीं थी. अधिकतर नेटवर्क नहीं था तो कोई फोन करके परेशान भी नहीं कर सकता. देर तक मूंगफली खाते और भूंजा फांकते वक़्त कटा...फिर अलाव जलाया गया. अलाव के इर्द इर्द बैठे हुए हमने पहाड़ी के पीछे उगता चाँद देखा...पूरा जंगल चांदनी में नहा गया था. मैं फिर से ट्राईपोड ले जाना भूल गयी थी कम रौशनी में फोटो ऐसे खींचे जाते थे कि रेडी बोलते ही फोटोग्राफर समेत सारे सब्जेक्ट्स सांस रोक लेते थे. थोड़ी सी मूवमेंट से भी फोटो ब्लर आ जाती थी.

रात को थोड़ा डांस थोड़ा गाना...थोड़ा चिल्लाना...थोड़ा थोड़ा करके सब बहुत हो गया. सुबह ६ बजे नेचर वाक पर जाना था. मोहित का हल्ला कि मैं सबको उठा दूंगा...चार बजे सो कर ६ बजे तो सब उठने से रहे लेकिन हल्ला करने में सब रेडी...

सात बजे मेरी नींद खुली तो बाकी किसी टेंट में कोई हलचल नहीं दिख रही थी. सुबह का समय, सब एकदम शांत था. कैमरा, अपनी नोटबुक, पेन तीनो उठा कर वहीं नदी किनारे चली गयी. सूरज का रंग फीका था और नदी का पानी रूपहला. हर साल की शुरूआती आदत...डायरी लिखना. सो कुछ तसवीरें खींचीं, एक आध गिलास पानी टिकाया और फिर जैसे धूप गरमाती गयी खुद के साथ थोड़ा वक़्त बिताया. नेरुदा की किताब ट्वेंटी पोयम्स ऑफ़ लव एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर नयी डिलीवर हुयी थी फ्लिप्कार्ट से. कुछ कवितायें पढ़ीं. कोई अख़बार नहीं...कोई मेल नहीं...कोई एसएमएस नहीं. कभी कभी जीने के लिए दुनिया से कटना भी जरूरी होता है. सुबह की कॉफ़ी तैयार हो रही थी. नौ बजते बजते बाकी लोग उठे.

दिन का मेन अट्रेक्शन था लाइफ जैकेट पहन कर नदी में 'डेड मैन फ्लोट' करना. अधिकतर को तैरना नहीं आता था. नदी में थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी गर्म और ठंढा था. हम कितनी देर तो नदी में ही रहे. फिर खाने का कोई इन्तेजाम नहीं था तो एक डेढ़ बजे निकले...भूख लगनी शुरू हो गयी थी. रस्ते में जहाँ से घाटी दिखती थी एक राउंड फोटो सेशन चला. बैंगलोर पहुँचते चार बज गए थे. खाने पर हम इस तरह से टूटे जैसे एक साल के भूखे हों. चाइनीज...थाई...इन्डियन...जिसने जो मंगाया, सबने खाया. कोई पच्चीस रोटियां, पांच प्लेट चाव्मीन, एक प्लेट चावल, एक थाई ग्रीन करी, पांच चिली पनीर...कहाँ गया किसी को मालूम नहीं.

घर पर आराम करने के मूड में आये कि पेट में दर्द शुरू. मुझे शिमला मिर्च से अलर्जी है...हमेशा प्रॉब्लम नहीं होती...पर जब होती है जान चली जाती है. और दर्द कभी दिन में शुरू नहीं होता...रात में होता है कि हॉस्पिटल में भी इमरजेंसी में जाना पड़े. कल भी आसार बुरे दिख रहे थे. दर्द के मारे जान जा रही थी उसपर डि-हाईड्रेशन. पता नहीं कितना तो ओआरएस पिया और कोई तो टैबलेट खायी. अभी सुबह उठी हूँ तो लगता है पुर्जा पुर्जा दर्द कर रहा है. बुखार बुखार सा लग रहा है...ऑफिस में इनफाईनाईट काम है...गैस ख़त्म है सो उसका इन्तेजाम करना है...कुणाल की मौसी-मौसाजी और बच्चे आये हैं तो रात का कुछ अच्छा खाना बनाना है. बाप रे! दिन बहुत लम्बा लग रहा है और चलने की हिम्मत नहीं. कल रात दोनों बच्चों को माइक्रोवेव में मैगी बना कर खिलाये थे. आज पता नहीं नाश्ता का क्या करेंगे. दस बजे टाइप्स गैस एजेंसी खुलेगी. बाबा रे...पैक्ड डे अहेड!

१३ मेरा लक्की नंबर है. देखे ये साल क्या रंग दिखाता है...नए साल में नयी उम्मीदें...नए सपने...आप सबको भी हैप्पी न्यू इयर. 

11 July, 2012

क्राकोव डायरीज-२-गायब हुए देश की कहानियां

बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल  जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.

पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी. 

दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;)  ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे. 

ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...

कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.

मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ. 

टावर के ऊपर की खिड़की में 
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे. 

फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी. 

पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.

The Monument. 1975-1986. A monument to show
the two great men that invented socialism to be set
in a country in which socialism had become a reality.
Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels.
(From the exhibition- Stories from a vanished country)

सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ. 
विस्तुला नदी किनारे
पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना...

फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए. 

चीयर्स!

26 May, 2011

सो माय लव, यू गेम?

मंजिल होना कैसी त्रासदी है...कि यहाँ से कहीं और राहें नहीं जाती जहाँ मैं तुम्हारे साथ चल सकूँ. चकित करने की बात ये भी है कि मंजिल किसी सागर किनारे शहर नहीं है जैसे कि मुंबई, या कि मद्रास जहाँ स्टेशन नहीं होते टर्मिनस होता है. सारी पटरियां वहां जा के ख़त्म हो जाती हैं...मैं और तुम चलती रेलगाड़ियाँ तो नहीं हैं न कि टर्मिनस आने पर रुकें कुछ देर...जैसे जिंदगी बसती है और फिर वापस उन्ही रास्तों से दूसरी मंजिलों की और चल पड़ें...या कि हमारा रुकना ही क्यूँ जरूरी है.

मंजिलें तो पुरानी सदियों की खोज हैं न जब नौकाएं नहीं बनी थीं, हवाईजहाज़ नहीं थे...तब जब कि पता भी नहीं था कि धरती गोल है या सपाट कि अगर मेरे 'तुम' की तलाश में क्षितिज तक जाना चाहूँ तो शायद धरती से गिर जाऊं अनंत अन्तरिक्ष में...तब ये भी कहाँ पता था कि धरती हमें यूँ ही गिर नहीं जाने देगी...गुरुत्वाकर्षण की खोज भी कहाँ हुयी थी तब. ये मंजिल उस सदी में हुआ करती थी रास्ते का अंत....घर, परिवार, समाज. 

आज क्या जरूरी है कि ज़मीं के छोर पर मैं रुकूँ...क्यूँ न नाव के पाल गिरा...चाँद का पीछा करते सागर पर रास्ते बिछा दूँ....या कि अतल गहराइयों में उतर परदे हटाऊं...गहरे अँधेरे समंदर के बीच कहीं नदियाँ ढूँढूं...पाऊं...गरम पानी की नदियाँ जैसे अन्तः करण का मूक विलाप.

कौन से सफ़र पर निकल जाऊं जिधर रास्ते न हों...पैरा-ग्लाइडिंग, हवा के बहाव पर उड़ना...पंछी जैसे, धरती पर छोटा होता सब देखूं और जब महज़ बिंदु सा दिखे कुछ भी 'होना' वहां से तुम्हारे साथ एक रिश्ते की कल्पना करूँ...एक बिंदु से फिर रास्ते बनाऊं...और तुम्हारे संग चल दूँ...किसी तीसरी दुनिया के किसी अनजाने सफ़र पर. 

सो माय लव, आर यु गेम?

26 January, 2011

अ वीकेंड इन बैंग्कोक

view from the windows
पिछले वीकेंड हम बंगकोक घुमने गए थे. रहने के लिए सातवी मंजिल पर काफी बड़ा सा सर्विस अपार्टमेन्ट था...फ्रेंच विंडोस, परदे हटाते ही सामने अनगिन ऊंची इमारतें...और स्काईट्रेन की पटरी जो ठीक सामने मोड़ लेती थी...हर कुछ देर में वहां एक ट्रेन गुज़रती थी और मुझे ये नज़ारा बेहद पसंद आता था.

कमरे में फर्श से छत तक शीशे लगे हुए थे, लगता था हवा में झूलता कमरा है. खिड़की के पास खड़े होकर देखती थी तो दूर तक अट्टालिकाएं नज़र आती थी. जमीन पर दौड़ती भागती बहुत सी गाड़ियाँ. शहर में गज़ब की उर्जा महसूस हुयी. रात की फ्लाईट थी तो थक के बाकी लोग दिन में आराम कर रहे थे और मैं शीशे पर कहानियों को उभरते देख रही थी. मुझे दिन में वैसे भी नींद नहीं आती. बंगकोक में जो सबसे पहली चीज़ नोटिस की वो ये कि यहाँ सड़कों से ज्यादा फ़्लाइओवेर हैं. सब कुछ हवा में दौड़ता हुआ...रंग बिरंगी टैक्सी, गुलाबी, नारंगी, हरी...एयरपोर्ट से शहर आते हुए थोड़ी देर में सारी इमारतें अचानक से लम्बी हो गयी दिखती हैं. शहर नए और पुराने का मिश्रण है...मैंने बहुत सालों बाद टीवी अन्टेना देखे, एक छत पर लगभग दर्जनों.

वात फ्रा केव 
बंगकोक को सिटी ऑफ़ एंजेल्स कहते हैं...थाईलैंड में अयोध्या की राजधानी हुआ करता था ये शहर. यहाँ आ कर पता चला कि थाईलैंड की अपनी रामायण है. यहाँ बहुत ऊँचे और खबसूरत मंदिर हैं जिन्हें 'वात' कहते हैं. यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर राजा के महल में है...वात फ्रा केव, हम पूरा परिसर घूम के देख सकते हैं. बड़े बड़े दानव जैसी मूर्तियाँ पूरे परिसर में दिखती हैं पर असल में ये यक्ष हैं, पूरे मंदिर में ऐसे बारह यक्ष हैं जो इसकी रक्षा करने के लिए तैनात रहते हैं.

वात फ्रा केव के मंदिर पूरे सोने की तरह चमकते हैं, जब हम गए थे तो इत्तिफाक से आसमान भी बहुत सुन्दर था, नीले आसमान में सफ़ेद बदल...फोटो खींचने में भी बहुत मज़ा आया. पूरे मंदिर में बहुत बारीक़ नक्काशी की गयी थी. वहां के बुद्ध मंदिर हमारे तरफ के मंदिर जैसे ही थे...उधर नाग, यक्ष, गरुड़ सबके मूर्तियाँ भी थी. रख रखाव बेहद अच्छा था, बेहद साफ़ सफाई थी. ना केवल मंदिर या महल के परिसर में, बल्कि बाथरूम भी एकदम साफ़ सुथरे. लगा कि काश हमारे यहाँ भी ऐसी साफ़ सफाई होती.
थाई रामायण 

मंदिर की दीवारों पर थाई रामायण के भित्तिचित्र बने हुए थे...वैसे तो हमारी रामायण जैसी ही थी पर वहां की पेंटिंग्स में आदमी और राक्षस के बीच में अंतर करना मुश्किल था हमारे लिए...सबके बड़े बड़े दाँत और सींग थे, जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं ;)

मुझे लोग भी अच्छे लगे...चूँकि बहुत सारी जगह भाषा समझ नहीं आती थी तो मुस्कुरा के काम चलाना पड़ता था. पहली बार महसूस हुआ कि कैसे मुस्कराहट हर भाषा में समझी जाती है :) जिस दिन पहुंचे उस दिन खाना ढूँढने में जो मुश्किल हुयी, हम ठहरे पूर्ण शाकाहारी और उधर शाकाहार का सिस्टम ही नहीं है...यहाँ तक कि चिप्स भी मिलते हैं तो कोई मछली वाले, कोई चिकन वाले...आलू के चिप्स का नाम निशान नहीं. ब्रेड में भी भांति भांति के पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े...हाँ वहां फल बहुत मिलते थे तो पहली सुबह लगभग फल खा के ही काम चलाना पड़ा. शाम होते पंजाबी रेस्तोरांत मिल गया...तो फिर तीन दिन आराम से गुजरे.

अच्छी जगह है बंगकोक, रहने और घूमने के हिसाब से ज्यादा महँगी भी नहीं है. वीसा पहले से करना जरूरी नहीं है...पहुँचने पर मिल जाता है...ऑन अरैवल वीसा. मेरा वक़्त अच्छा गुज़रा...कुछ और कहानियां बंगकोक की, किस्तों में सुनाउंगी :)

तीन दिन के लिए ही गए थे पर घर आते साथ लगा There is no place like home. छुट्टियाँ मनाने के बाद घर खास तौर से और अच्छा लगता है :) 

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...