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10 September, 2017

लौट आने को अफ़सोस के घर में कमरा ख़ाली रखना

बहुत साल पहले की बात है। उन दिनों मेरी उम्र कम ही थी और दुनियादारी की समझ और भी कम। चीज़ें जितनी दिखती थीं, उतनी ही समझ में आती थीं।

एक दोस्त की शादी को ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था। कोई साल भर या उससे भी कम। उस दिन उसके घर में किसी चीज़ की तो पार्टी थी। याद नहीं अब ठीक से। शायद पति के प्रमोशन या ऐसी ही कोई चीज़। वजह याद नहीं है। बहुत कम लोग आए थे, बहुत हुए तो दस। उसका छोटा सा घर था। जैसा कि इन दिनों हर महानगर में होता है। २BHK फ़्लैट। डाइनिंग टेबल पर क़रीने से सारा सामान लगा हुआ था।

वो मेरी बचपन की दोस्त थी। उसने खाना बनाना सीखने के समय जो कच्ची पक्की जली रोटियाँ बनायी थीं, वो मैंने खायी थीं और मैंने जब पहली बार आलू छीलते हुए अपनी ऊँगली काट ली थी तो सबसे पहले वो ही भाग के डिटौल लायी थी। मुझे उसके हाथ की बनी खीर बहुत पसंद थी। उसे मेरे हाथ का बना कुछ भी नहीं। उसके हिसाब से चलें तो मुझे मैगी बनाना भी नहीं आता ढंग से और मेरे जैसा नालायक लड़का जिस लड़की के मत्थे पड़ने वाला है उसकी तो क़िस्मत फूटी ही समझो।

मैं उसके और उसके पति के साथ किचन में हाथ बँटा रहा था थोड़ा बहुत। मेहमानों के जाने के बाद हम तीनों खाने बैठे। खाने का स्वाद आज लेकिन ग़ज़ब बेहतरीन था। हर चीज़ एकदम जैसे स्वर्ग के किसी केटरर ने बना के भेजी थी। मैंने उतने अच्छे कटहल के कोफ्ते ज़िंदगी में नहीं खाए थे, ना कभी उसकी खीर में वैसी आत्मा को तृप्त कर देने वाली मिठास थी। खाने की तारीफ़ करते हुए मैंने उसके चेहरे को ग़ौर से देखा। बड़ी सी गोल, लाल बिंदी, आधा इंच लाल सिंदूर, आँख में काजल। शादीशुदा होना कितना फबता था उसपर। अच्छा लगा उसका सुखी होना।

हमेशा की तरह वो मुझे कार में घर छोड़ने आयी थी। हमेशा की तरह हम चलने के पहले पाँच मिनट बात कर रहे थे।
'आज खाना कमाल अच्छा बनाया तूने। क्या मिलाया ऐसा खाने में। पहले तो कभी इस तरह का खाना नहीं बना तूने। बता बता?'
मैंने छेड़ में पूछा था, कि मुझे मालूम था उसके बारे में सब कुछ। बचपन का पुराना डाइयलोग मारती, 'प्यार, खाने में प्यार मिलाया था'। लेकिन कितना कुछ सबसे क़रीबी दोस्तों की नज़र से छूट सकता है। बहुत देर चुप रही। और चुप्पी में घुले घुले कहा उसने, 'उदासी'।

***
मैं बचपन से उसकी आदत से वाक़िफ़ था। जब भी परेशान होती, हाथों को कहीं उलझा देती। कभी पॉटरी सीखने चल देती, कभी बुनाई, कभी तकली उठा लेती तो कभी छत पर पहुँच जाती पतंग उड़ाने। उसके हाथ बहुत ख़तरनाक थे, ऐसा वो कहती थी। उन्हें हमेशा काम चाहिए होता था। ख़ास तौर से उदास दिनों में, वरना वो ख़ुद का गला दबा के मार देती ख़ुद को।

'उदासी'। कहते हुए उसकी आँखें ठहर गयी थीं। कि जैसे एक शाम की नहीं, एक उम्र की उदासी हो। हँसते खेलते लोगों की आँखों में इतनी उदासी कैसे जा के रहने लगती है।

उसके बाद मैं कई दिन मिला उससे। उसके घर में खाना पीना। मेरी शादी के बाद मेरी बीवी के हाथ का खाना उसके घर पहुँचाना जैसी कई हरकतें कीं मैंने कि हमारी दोस्ती पर इससे कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन उस दिन मैं उससे पूछ नहीं पाया कि तू उदास क्यूँ है। आते हुए मैंने उसकी आँखों में देखा और बस इतना कहा, 'you know I love you, right?'। बचपन की दोस्ती का इतना अधिकार बनता था। वो मुझे बता सकती। अपनी तन्हाई में मेरे होने को तसल्ली की तरह रख सकती अपने पास। एक शादीशुदा औरत, आपकी कितनी भी अच्छी दोस्त हो, इससे ज़्यादा हक़ नहीं जता सकते उसपर।

***
कितने साल बीत गए। मैं जाने कितने घरों में खाना खाने गया हूँ उस दिन के बाद से भी। लेकिन आज भी, अगर कहीं खाना ख़राब बना है तो मैं ये सोच के ख़ुश हो लेता हूँ कि बनाने वाले ने अपने आँसू तो नहीं मिलाए इसमें। कि अच्छा खाना सिर्फ़ प्यार और ख़ुशी से ही नहीं, उदासी से भी बनता है।

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उसे पागलपन के दौरे पड़ने लगे तो सबसे पहली ख़बर मुझे ही आयी। माइल्ड सिजोफ़्रेनिया कहा डॉक्टर ने। उसे जाने कौन से तो लोग दिखते थे। लोग कि जो उसका क़त्ल कर देना चाहते थे। मैंने पहली बार उसकी कलाइयों पर ब्लेड के काटे हुए निशान देखे तो ऐसा लगा था किसी ने मेरी जान लेने को ब्लेड से मेरी कलाई काटी थी। पता नहीं उसे किस चीज़ से डर लगता था। महीने भर बाद जब वो घर लौटी तो जाने कितनी दवाइयाँ खाती थी सुबह शाम।

उसके घर गया तो खाना बना रही थी। मैं भी साइड में एक कटिंग बोर्ड लेकर सब्ज़ी काटना चालू रखा। चाक़ू में एकदम धार नहीं थी। यही नहीं बाक़ी चाकुओं में भी धार नहीं थी। मैंने कहा उससे तो हँसती हुयी बोली, 'हाँ घर में जो भी आते हैं यही कम्प्लेन करते हैं कि चाक़ू ख़राब है। तू भी छोड़ ये सब नौटंकी। जा बैठ मैं आती हूँ।' उस पागल ने कब निभायी है दोस्ती जो उसे मालूम चलेगा कि मैं कितनी दूर तक का सोचता हूँ।

'अच्छा है जो चाक़ू में धार नहीं है। ख़बरदार जो चाक़ू में धार लगवाया! सबसे पहले मैं ही गला कटूँगा चाक़ू से तेरा'।

इन दिनों में कहीं भी बिना धार के चाक़ू देखता हूँ तो मुझे यक़ीन पक्का होता है कि अभी अभी किसी लड़की ने मरना टाला होगा कि उसके चाक़ू में धार नहीं थी। इन दिनों मुझे बिना धार के चाक़ू बहुत पसंद आते हैं। 

26 January, 2011

अ वीकेंड इन बैंग्कोक

view from the windows
पिछले वीकेंड हम बंगकोक घुमने गए थे. रहने के लिए सातवी मंजिल पर काफी बड़ा सा सर्विस अपार्टमेन्ट था...फ्रेंच विंडोस, परदे हटाते ही सामने अनगिन ऊंची इमारतें...और स्काईट्रेन की पटरी जो ठीक सामने मोड़ लेती थी...हर कुछ देर में वहां एक ट्रेन गुज़रती थी और मुझे ये नज़ारा बेहद पसंद आता था.

कमरे में फर्श से छत तक शीशे लगे हुए थे, लगता था हवा में झूलता कमरा है. खिड़की के पास खड़े होकर देखती थी तो दूर तक अट्टालिकाएं नज़र आती थी. जमीन पर दौड़ती भागती बहुत सी गाड़ियाँ. शहर में गज़ब की उर्जा महसूस हुयी. रात की फ्लाईट थी तो थक के बाकी लोग दिन में आराम कर रहे थे और मैं शीशे पर कहानियों को उभरते देख रही थी. मुझे दिन में वैसे भी नींद नहीं आती. बंगकोक में जो सबसे पहली चीज़ नोटिस की वो ये कि यहाँ सड़कों से ज्यादा फ़्लाइओवेर हैं. सब कुछ हवा में दौड़ता हुआ...रंग बिरंगी टैक्सी, गुलाबी, नारंगी, हरी...एयरपोर्ट से शहर आते हुए थोड़ी देर में सारी इमारतें अचानक से लम्बी हो गयी दिखती हैं. शहर नए और पुराने का मिश्रण है...मैंने बहुत सालों बाद टीवी अन्टेना देखे, एक छत पर लगभग दर्जनों.

वात फ्रा केव 
बंगकोक को सिटी ऑफ़ एंजेल्स कहते हैं...थाईलैंड में अयोध्या की राजधानी हुआ करता था ये शहर. यहाँ आ कर पता चला कि थाईलैंड की अपनी रामायण है. यहाँ बहुत ऊँचे और खबसूरत मंदिर हैं जिन्हें 'वात' कहते हैं. यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर राजा के महल में है...वात फ्रा केव, हम पूरा परिसर घूम के देख सकते हैं. बड़े बड़े दानव जैसी मूर्तियाँ पूरे परिसर में दिखती हैं पर असल में ये यक्ष हैं, पूरे मंदिर में ऐसे बारह यक्ष हैं जो इसकी रक्षा करने के लिए तैनात रहते हैं.

वात फ्रा केव के मंदिर पूरे सोने की तरह चमकते हैं, जब हम गए थे तो इत्तिफाक से आसमान भी बहुत सुन्दर था, नीले आसमान में सफ़ेद बदल...फोटो खींचने में भी बहुत मज़ा आया. पूरे मंदिर में बहुत बारीक़ नक्काशी की गयी थी. वहां के बुद्ध मंदिर हमारे तरफ के मंदिर जैसे ही थे...उधर नाग, यक्ष, गरुड़ सबके मूर्तियाँ भी थी. रख रखाव बेहद अच्छा था, बेहद साफ़ सफाई थी. ना केवल मंदिर या महल के परिसर में, बल्कि बाथरूम भी एकदम साफ़ सुथरे. लगा कि काश हमारे यहाँ भी ऐसी साफ़ सफाई होती.
थाई रामायण 

मंदिर की दीवारों पर थाई रामायण के भित्तिचित्र बने हुए थे...वैसे तो हमारी रामायण जैसी ही थी पर वहां की पेंटिंग्स में आदमी और राक्षस के बीच में अंतर करना मुश्किल था हमारे लिए...सबके बड़े बड़े दाँत और सींग थे, जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं ;)

मुझे लोग भी अच्छे लगे...चूँकि बहुत सारी जगह भाषा समझ नहीं आती थी तो मुस्कुरा के काम चलाना पड़ता था. पहली बार महसूस हुआ कि कैसे मुस्कराहट हर भाषा में समझी जाती है :) जिस दिन पहुंचे उस दिन खाना ढूँढने में जो मुश्किल हुयी, हम ठहरे पूर्ण शाकाहारी और उधर शाकाहार का सिस्टम ही नहीं है...यहाँ तक कि चिप्स भी मिलते हैं तो कोई मछली वाले, कोई चिकन वाले...आलू के चिप्स का नाम निशान नहीं. ब्रेड में भी भांति भांति के पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े...हाँ वहां फल बहुत मिलते थे तो पहली सुबह लगभग फल खा के ही काम चलाना पड़ा. शाम होते पंजाबी रेस्तोरांत मिल गया...तो फिर तीन दिन आराम से गुजरे.

अच्छी जगह है बंगकोक, रहने और घूमने के हिसाब से ज्यादा महँगी भी नहीं है. वीसा पहले से करना जरूरी नहीं है...पहुँचने पर मिल जाता है...ऑन अरैवल वीसा. मेरा वक़्त अच्छा गुज़रा...कुछ और कहानियां बंगकोक की, किस्तों में सुनाउंगी :)

तीन दिन के लिए ही गए थे पर घर आते साथ लगा There is no place like home. छुट्टियाँ मनाने के बाद घर खास तौर से और अच्छा लगता है :) 

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