Showing posts with label निर्मल वर्मा. Show all posts
Showing posts with label निर्मल वर्मा. Show all posts

31 December, 2017

साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब

ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।

इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।

Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।

अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म  करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...

इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।

इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।

कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।

इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।

इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।

साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।

ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।

सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।

आख़िर में, बस इतना...


***



ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’

31 October, 2017

Create your own asylum


उसने शाम में दो दोस्तों से पूछा। तुम्हें 'एक चिथड़ा सुख' क्यूँ पसंद है। एक के पास वक़्त की कमी थी, एक के पास शब्दों की। वे उसे ठीक ठीक बता नहीं पाए कि क्यूँ पढ़नी चाहिए उसे ये किताब।

उसने पूछा, अच्छा ये बताओ, कोई ऐसी किताब पढ़ने का मन है जिसमें डूबें ना, जो उबार ले। उसने कहा, ऐसे में क्या ही पढ़ोगी निर्मल को। वहाँ कौन सा सुख है। लेकिन सुख तो था, 'वे दिन' में था, 'धुंध से उठती धुन' में भी था। सुख आइने में चुप तकता एक छोटा बच्चा है जो इस बात का यक़ीन दिलाता है कि आप अकेले पागल नहीं हैं। इस पागलखाने में और भी लोग रहते हैं।

लड़की का whatsapp स्टेटस रहता। 'Create your own asylum'। असाइलम का मतलब पागलखाना होता है, पनाह भी।

उसे लगा किताब में सुख होगा। थोड़ा सा ही सही। किताब जहाँ खुलती है, उसे समझ नहीं आया पिछले कई सालों से कैसे उसने किताब शुरू कर के आधी अधूरी रख दी हमेशा।

एक चैप्टर में कोई पूछता है लड़के से, 'ऑल अलोन' मतलब कि बिलकुल अकेले। किताब के लड़के के साथ ही लड़की सोचती है, अपना मन टटोल कर। कि इस अकेलेपन की तासीर समझ ले ठीक ठीक। उसे लगता ज़िंदगी मैथ की तरह है, सब कुछ इक्वेशन है। समझ आने के बाद हल निकाला जा सकता है। लेकिन धीरे धीरे वो समझती जाती कि हर equation सॉल्व नहीं हो सकता। फिर वो उन सवालों को अपनी राइटिंग डेस्क पर छोटी छोटी चिप्पियों में लिखती चली जाती।

बहुत साल बाद किसी किताब ने उससे वो सवाल किया है जो वो ख़ुद से अक्सर पूछती आयी है। कि सब कुछ होते हुए भी उसे इतना अकेलापन क्यूँ लगता है? इतने दोस्त हैं। जब से किताब आयी है, कितने सारे अजनबी भी हैं जो पन्ने पर जुड़े हुए हैं। उसका जब मन करे, कोई ना कोई तो होगा ही जो उससे बात कर सके। फिर ये कैसा अकेलापन है।

दूसरी चीज़ जो उसे परेशान करती, वो ये कि दुनिया के उसके कुछ सबसे प्यारे दोस्तों की तासीर में ऐसा अकेलापन क्यूँ दिखता है उसे। क्या वो अपनी तन्हाई उनपर प्रोजेक्ट करती है? क्या वो भी लोगों को ऐसी ही दिखती है, कहीं ना कहीं, अकेली? सब होते हुए भी उनके साथ रहते हुए ये कौन सा ख़ालीपन है, कौन सी कमी जिसे वो भरना चाहती है। कि जैसे उनकी ज़िंदगी में सिर्फ़ उसके होने भर की जगह कई सालों से ख़ाली थी। कि हम शायद ऐसे ही आते हैं दुनिया में। ख़ाली ख़ाली। porous। वो पूछती अपने दोस्तों से। कोई समझता है तुम्हें, ठीक ठीक। जैसे मैं समझती हूँ। मुझे कोई वैसे नहीं समझता ठीक ठीक, जैसे तुम समझते हो। तुम कैसे समझते हो मुझे ऐसे। ये कौन से हिस्से हैं, ये कौन से क़िस्से हैं?

उसका चेहरा किताब हुआ करता। उसकी आँखें गीत हुआ करतीं। उसकी मुस्कान शब्दों के बीच की ख़ामोशी रचती। उसे ग़ौर से देखो तो उसके चेहरे पर कई सारे किरदार उगा करते। कई सारी कहानियाँ हुआ करतीं। वाक्य उसके माथे की सलवटों को समझते। उसकी आँखों के सियाह को भी।

वो मुझसे मिली तो देर तक पढ़ता रहा चेहरा उसका। उसकी काजल लगी आँखें। छोटी सी बिंदी। कितने शब्द थे उसके चेहरे पर। कितना बोलता था उसका चेहरा।

उसके माथे पर शब्दों के बीच एक ख़ाली जगह थी...जैसे इग्ज़ैम के क्वेस्चन पेपर पर होती है - fill in the blanks जैसी। एक लाइन। कि जैसे लगा कि मैं चूम लूँ उसका माथा तो वाक्य का कोई मायना होगा। मुलाक़ात का भी।

17 October, 2017

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?


मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो बेवजह ही क़िस्मत को कोसते और गरियाते रहते हैं। या कि ईश्वर को ही। इन दिनों अच्छा है सब। कोई ख़ास दुःख, तकलीफ़ नहीं है। बड़े बड़े दुःख हैं, जिनके साथ जीना सीख रहे हैं। दोपहर मेरे पढ़ने का समय होता है। आज धनतेरस है। मन भी जाने कहाँ, किस देस, किस शहर, किस टाइम ज़ोन में उलझा हुआ है। टेबल पर ठीक ऊपर के रैक में वो किताबें रखी हैं जो मैं इस बार की अमरीका की ट्रिप से लायी हूँ। इसके सिवा कुछ और किताबें हैं जो मैं दिन दिनों पढ़ती हूँ. अभी ब्रश करना, नहाना, पूजा, नाश्ता...सब कुछ ही बाक़ी है। आज बाज़ार जा के ख़रीददारी भी करनी है। रैक की ओर देखा और सोचा, धुंध से उठती धुन निकालती हूँ और जो पहला पन्ना खुलेगा, उसे यहाँ सहेज दूँगी। अस्तु।

***

28 सितम्बर, 1987
आज शाम पार्टी है। रामू अमेरिका जा रहे हैं - एक साल के लिए। वह दिल्ली में उन कम, बहुत कम मित्रों में से हैं, जिनसे खुल कर वार्तालाप होता था। उनके ना होने से ख़ाली शामों का सिलसिला शुरू होगा।
यह ठीक है। मैं यही चाहता हूँ। सर्दियाँ शुरू हो रही हैं। रिकार्ड है, अनपढ़ी, अधपढ़ी किताबें हैं और सबसे अधिक, अधलिखा अधूरा उपन्यास...
कहानी चल रही है। मैं इतनी अधूरी चीज़ों के बीच हूँ, कि यह सोच कर घबराहट होती है, कि उनका अंत कहाँ और कैसा होगा, मुझे कहाँ ले जाकर छोड़ेगा।
श्रीकांत की अंतिम किताब पढ़ते हुए बहुत बेचैनी होती है। वह कितने ऊँचे-नीचे स्तरों पर चढ़ते-उतरते रहते थे। कोई हिसाब है? न्यूयार्क के अस्पताल में लेटे हुए, नालियों से जुड़े हुए, सूइयों से बींधे हुए, पट्टियों से बँधे हुए...मैंने उनका नाम लिया, तो कहीं दूर-सुदूर से आए और आँखें खोल दीं। मैंने उनका हाथ दबाया, वह देखते रहे...उन्होंने मृत्यु को थका डाला, मृत्यु ने उन्हें...आख़िर दोनों ने हथियार डाल दिए - उनकी मृत्यु एक तरह का शांति समझौता था...सीज फ़ायर के अदृश्य काग़ज़ पर दोनों के हस्ताक्षर थे!
बोर्खेस की कविताएँ, एक ऋषि अंधेरे में ताकते हुए, उन सब छायाओं के समकालीन, जो इस धरती पर रेंग रही थीं, एक दृष्टिहीन द्रष्टा! एक असाधारण कवि...

3 अक्टूबर, 1987
दुःख: अंतहीन डूबने का ऐंद्रिक बोध, साँस ना ले पाने की असमर्थता, जबकि हवा चारों तरफ़ है, जीने की कोशिश में तुम्हारी मदद करती हुयी...तुम ख़तरे की निशानी के परे जा चुके हो, और अब वापसी नहीं है...
पेज संख्या - 91

***
23 अक्टूबर, 1987
ऐसे दिनों में लगता है, जीना, सिर्फ़ जीना, सिर्फ़ साँस लेना, धरती पर होना, चलना, सिर्फ़ देखना - यह कितनी बड़ी ब्लैसिंग  है : अपनी तकलीफ़ों, दुखों, अधूरे गड़बड़ कामों के बावजूद...और तब हमें उन लोगों की याद आती है, जो इतने बड़े थे और जिन्हें इतनी छोटी-सी नियामत भी प्राप्त नहीं है, जो धरती पर रेंगती हुयी च्यूँटी को उपलब्ध है! हम जीने के इतने आदी हो गए हैं, कि 'जीवन' का चमत्कार नहीं जानते। शायद इसी शोक में प्रूस्त ने कहा था, "अगर आदत जैसी कोई चीज़ नहीं होती, तब ज़िंदगी उन सबको अनिवार्यत: सुंदर जान पड़ती, जिन्हें मृत्यु कभी भी घेर सकती है - यानी उन सबको, जिन्हें हम 'मानवजाति' कहते हैं"।
पेज संख्या - 93 
~  यह मौसम नहीं आएगा फिर ॰ धुंध से उठती धुन ॰ निर्मल वर्मा 
***

धुंध से उठती धुन को पढ़ने के पहले निर्मल के लिखे कितने सारे उपन्यासों से गुज़रना होगा। कितनी कहानियों को कहानी मान कर चलना होगा सिर्फ़ इसलिए कि हम जब इस डायरी में देखें उनके लिखे हुए नोट्स तो पहचान लें कि ज़िंदगी और कहानी अलग नहीं होती।

ख़ुद को माफ़ कर सकें उन किरदारों के लिए जिनका ज़रा सा जीवन हमने चुरा कर कहानी कर दिया। कि कौन होता है इतना काइंड, इतना उदार कि दे सके पूरा हक़, कि हाँ, लिख लो मुझे। जितने रंगों में लिखना चाहो तुम। कौन हो इतना निर्भीक कि कह सके, तुम्हारे शब्दों से मुझे डर नहीं लगता। कि तुम्हारी कहानी में मेरे साथ कभी बुरा नहीं होगा, इतना यक़ीन है मुझे। या कि अगर तुम क़त्ल भी कर दो किरदार का, तो इसलिए कि असल ज़िंदगी का कोई दुःख किरदार के नाम लिख कर मिटा सको मेरी ज़िंदगी की टाइम्लायन से ही। कि निर्मल जब कहते हैं 'वे दिन' में भी तो, सिर्फ़ साँस लेना कितनी बड़ी ब्लेसिंग है। कि तुम भी तो। कितनी बड़ी ब्लेसिंग हो।

कला हमें अपने मन के भावों की सही सही शिनाख्त करना सिखाती है। हम जब अंधेरे में छू पाते हैं किसी रात का कोई दुखता लम्हा तो जानते हैं कि इससे रंगा जा सकता है antagonist का सियाह दिल। कला हमें रहमदिल होना सिखाती है। संगीत का कोई टुकड़ा मिलता है तो हम साझा करते हैं किसी के साथ और देखते हैं कि सुख का एक लम्हा हमारे बीच किसी मौसम की तरह खिला है।

दुःख गाढ़ा होता है, रह जाता है दिल पर, बैठ जाता है किसी भार की तरह काँधे पर। जैसे कई योजन चलना पड़े दिल भारी लिए हुए। आँख भरे भरे समंदर लिए हुए।

सुख हल्का होता है। फूल की तरह। तितली की तरह। क्षण भर बैठता है हथेली पर और अपने रंग का कोई भी अंश छोड़े बिना अगले ही लम्हे आँखों से ओझल हो जाता है। तितली उड़ती है तो हम भी उसकी तरह ही भारहीन महसूस करते हैं ख़ुद को। पंखों के रंगों से सजे हुए भी। सुख हमें हमेशा हल्का करता है। मन, आँख, आत्मा। सब पुराने गुनाह बहा आते हैं किसी प्राचीन नदी में और हो जाते हैं नए। अबोध। किलकते हुए।

कभी अचानक से होता है। कोई एक दिन। कोई एक शहर। कोई एक शख़्स। सुख, किसी अपरिचित की तरह मिलता है। किसी पुराने प्रेमी की तरह जिसे पहचानने में एक लम्हा लगता है और फिर बस, मन में धूप ही धूप उगती है। हम एकदम से ही शिनाख्त नहीं कर सकते सुख की...ख़ास तौर से तब, जब वो किसी दूर के शहर से लम्बा सफ़र कर के आ रहा हो। हमें वक़्त लगता है। उसे धो पोंछ कर देखते हैं हम ठीक से। छू कर। पानी का एक घूँट बाँट कर चखते हैं उसकी मिठास। सुख के होने का ऐतबार नहीं होता हमें इसलिए सड़क पार करते हुए हम चाहते हैं कि पकड़ लें एक कोना उसकी सफ़ेद शर्ट की स्लीव का। सुख को लेकिन याद होते हैं हम। वो साथ चलते हुए हाथ सहेज कर पॉकेट में नहीं रखता। सुख हमारा ख़याल रखता है। सुख हमें जीने का स्पेस देता है। सुख हमारे लिए आसमान रचता है और ज़मीन भी। सुख हमारे लिए एक शहर होता है।

सुख हमें नयी परिभाषाएँ रचने का स्पेस देता है। कि कभी कभी किसी दूसरे शहर के समय में ठहरी हुयी घड़ी होती है सुख। कभी लिली की सफ़ेद गंध। कभी मन की बर्फ़ीली झील पर स्केटिंग करने और गिर कर हँसने की कोई भविष्य की याद होता है सुख। इक छोटे से काँच के गोले में नाचते हैं नन्हें सफ़ेद कण कि जिन्हें देखकर मन सीखता है यायावरी फिर से। कौन जाने कैसी गिरती है किसी और शहर में बर्फ़। कोई किताब होती है उसके हाथों की छुअन बचाए ज़रा सी अपनी मार्जिन पर।

बहुत दूर के दो शहरों में लोग एक साथ थरथराते हैं ठंढ और अपनी बेवक़ूफ़ी के कारण। कि कोई सेंकता है महोगनी वाले कैंडिल की लौ पर अपने हाथ और भेजता है एक गर्माहट भरा सुख का लम्हा फ़ोन से कई समंदर पार। बताती है लड़की उसे कि सफ़ेद लिली सूंघ कर देखना किसी फ़्लोरिस्ट की दुकान पर। बहुत दिन बाद एक मफ़लर बुनने भर को चाह लेना है सुख। एक पीला, लेमन येलो कलर का मफ़लर। ऊन के गोले लिए रॉकिंग चेयर पर बैठी रहे और जलती रहे फ़ायरप्लेस में महोगनी की गंध लिए लकड़ियाँ।

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?

सिल्क की गहरी नीली साड़ी में मुस्कुराना उसे देख कर और उसकी हँसी को नज़र ना लगे इसलिए ज़रा सा कंगुरिया ऊँगली से पोंछ लेना आँख की कोर का काजल और लगा देना उसके कान के पीछे। इतना सा टोटका कर के हँसना उसके साथ। कि दुनिया कितनी सुंदर। कितनी उजली और रौशन है। कि प्रेम कितना भोला, कितना सुंदर और कितना उदार है। 

11 October, 2017

'वे दिन' शूट. Pack up. Fade to सुख


उसे देख कर सहसा लगा, मैं बहुत सुखी हूँ। मझे लगा, एक ख़ास हद के बाद सब लोग एक-जैसे सुखी हो जाते हैं। जब तुम टिक जाते हो। किसी चीज़ पर टिक जाना...वह अपने में सुख ना भी हो, तुम उससे सुख ले सकते हो; अगर तुम ज़्यादा लालची न हो - यह उस शाम मैंने पहली बार जाना था। यह बहुत अचानक है और तुमसे बाहर है - उस फ़ोटो की तरह, जो तुम्हारी जानकारी के बिना किसी बाज़ारू फ़ोटोग्राफ़र ने सड़क पर खींच ली थी। बाद में तुम देखते हो तो हल्का-सा विस्माय होता था कि यह तुम हो...तुम चाहो तो उसे वापस कर सकते हो। लेकिन वह कहाँ है - तुम उसे वापस भी कर दो, तो भी वह वहाँ रहेगा...एक स्थिर चौंका-सा क्षण, जब तुम सड़क पार कर रहे थे...

- वे दिन, निर्मल वर्मा

***
उस चौराहे पर दो ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग थी और दोनों ओर के सिग्नल थे। जहाँ से उन्हें ठीक नब्बे डिग्री के अलग अलग रास्तों में जाना था। ये अच्छा था कि १८० डिग्री विपरीत वाले रास्ते लड़की को पसंद नहीं थे। उनमें इस बात का हमेशा भय होता था कि किसी का आख़िरी बार मुड़ कर देखना मिस कर जाएँगे। It's a shooting nightmare, वो अक्सर अपने दोस्तों को कहा करती थी। स्क्रीनराइटिंग के बाद डिरेक्शन करने से फ़ायदा ये होता था कि हर सीन अपनी पूरी पेचीदगी में लिखा होता था। ठीक वैसा जैसे उसके मन के कैमरे में दिखता था। सिनमटॉग्रफ़र उसके साथ कई कई दिन भटकता रहता था कि ठीक वही ऐंगिल पकड़ सके जो उसकी आँखों को दिखता है।

उस बिंदु से दूर तक जाती सड़क दिखती थी। लोगों के रेलमपेल के बावजूद। बहुत ज़्यादा भीड़ में भी कैसे एकदम टेलिफ़ोटो लेंस की तरह आप ठीक उस एक शख़्स पर फ़ोकस किए रखते हैं। दुनिया का सबसे अच्छा कैमरा भी उस तरह से चीज़ों को नहीं पकड़ सकता जैसे कि आपकी आँख देखती है। कि आँख के देखने में बहुत कुछ और महसूसियत भी होती है। लोगों का आना जाना। ट्रैफ़िक का धुआँ। एक थिर चाल में आगे बढ़ती भीड़। या कि तेज़ी से स्प्रिंट दौड़ता वो एक शख़्स। कि जिसे देख कर अचानक से लगे कि बस, सारी दुनिया ही हो रही है आउट औफ़ फ़ोकस। या कि ख़त्म ही। जैसे कुछ फ़िल्मों में होता है ना, विध्वंस। कोई सूनामी लहर आ रही हो दिल को नेस्तनाबूद करने या कि भूचाल और आसपास की सारी इमारतें गिर रही हों एक दूसरे पर ही। मरते हुए आदमी को ऐसा ही लगता होगा। ज़िंदगी छूट रही हो हाथ से। जिसे हेनरी कार्टीए ब्रेस्सों कहते हैं, 'द डिफ़ाइनिंग मोमेंट'।

इसे शूट करते हुए पहले हम क्रेन से एक लौंग शॉट लेंगे, इस्टैब्लिशिंग शॉट कि जिसमें आसपास की इमारतें, लोग, सड़क, ट्रैफ़िक सिग्नल, सब कुछ ही कैप्चर हो जाए। फिर क्रेन से ही हाई ऐंगल शॉट से दिखाएँगे लड़के को दौड़ते हुए... उसे कैमरा फ़ॉलो करने के लिए ऊपर से नीचे की ओर टिल्ट होता और टिल्ट होने के साथ ही ज़ूम इन भी करेगा किरदार पर...फिर हमें चूँकि उसकी नॉट-पर्फ़ेक्ट रन दिखानी है, हमें थोड़ा शेकी इफ़ेक्ट भी डालना पड़ेगा। इस सारे दर्मयान आसपास के लोग सॉफ़्ट्ली आउट और फ़ोकस रहेंगे। कि वो भीड़ में गुम ना जो जाए, इसलिए हम चाहेंगे कि किरदार बाक़ी शहर के हिसाब से सफ़ेद नहीं, कोई रंग में डूबा शर्ट पहने, कि जो लड़की का पसंदीदा रंग भी हो - नीला। सॉलिड डार्क कलर की शर्ट। फ़ीरोज़ी और नेवी ब्लू के ठीक बीच कहीं की। लिनेन की कि जिसमें आँसू जज़्ब करने की क्षमता हो। ख़याल रहे कि क्षमता ज़रूरी है, इस्तेमाल नहीं।

लड़की देखेगी कैमरापर्सन की ओर और परेशान होगी, कि कोई भी कहाँ कैप्चर कर पता है उतनी डिटेल में जैसे कि इंसान की आँख देखती है चीज़ों को। कितना कुछ छूट रहा है कैमरा से।

कैमरा मिड शॉट पर आ के रुका है जिसमें बना है जिसमें कि किरदार को फ़ॉलो करना मुश्किल है...फिर अचानक ही हमारा लीड कैरेक्टर मुड़ कर देखता है। एकदम अचानक। उसकी नज़र खींचती है चीज़ों को अपनी ओर जादू से। जैसे कैमरे को भी। लेंस के उस पार का कैमरापर्सन ठिठक जाता है। जैसे ठहर जाता है सब कुछ। पॉज़। किसी फ़िल्म में एकदम मृत्यु के पहले का आख़िरी लम्हा। एक आख़िरी मुस्कान। ज़िंदगी अपने पूरे रंग और खुलूस के साथ बादल जाती है एक ठहरे हुए लम्हे में। महसूस होता है। दिल की ठहरी हुयी धड़कन को भी। इसे ही जीना कहते हैं। बस इसे ही।

कि ज़िंदगी ऐसे किसी लम्हे को मुट्ठी में बांधे मुस्कुराती है कई सालों बाद तक भी। 'डेज़ औफ़ बीइंग वाइल्ड' का आख़िरी दृश्य होता है। लड़का अपनी आख़िरी साँसों के साथ याद कर रहा है। जो उसने कहा था। 'ये एक मिनट मैं अपनी पूरी ज़िंदगी याद रखूँगा'।

ट्रेन की आवाज़ आ रही होती है। पुरानी पटरियों को आदत है सुख और दुःख दोनों को अपने अपने अंजाम तक पहुँचा आती हैं। शिकायत नहीं करतीं। ज़्यादा माँगती नहीं। कैमरा लड़की के चेहरे पर टिका हुआ है। वो खिड़की से बाहर अंधेरे में अपनी आँखें देख रही है। नेचुरल लाइट में शूट करने के चलते हम उसकी आँखों में भरा पानी शूट नहीं कर पाते हैं। और फिर, सेल्युलॉड वंचित रह जाता है ख़ुशी से भरी आँखें रेकर्ड करने से।

मनुष्य के बदन में 'मन' कहाँ होता है, हम नहीं जानते। शायद हृदय के आसपास कहीं। लेकिन उस तक भी लिख कर ही पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। डिरेक्टर उम्मीद करता है कि इतना सा देख कर ऑडीयन्स अपनी ज़िंदगी के हिस्से जोड़ देगी। वो टूटे हुए हज़ारों हिस्से जिनसे मिल कर एक लम्हे का सुख बनता है। एक लम्हे का मुकम्मल। सुख।

17 August, 2017

'धुन्ध से उठती धुन' पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है


कुछ अंतिम स्मृतियाँ: नेशनल ग़ैलरी में कारोली फेरेनीस के असाधारण चित्र, कासल की पहाड़ियाँ, पुराने बगीचे और फव्वारे जिन्हें देखकर ऑस्ट्रीयन कवि त्राकल की कविताएँ याद हो आतीं थीं। एक दुपहर रेस्तराँ में बैठे हुए सड़कों पर लोगों को चलते हुए देखकर लगा जैसे मैं पहले भी कभी यहाँ आया हूँ…
हवा में डोलते चेरी के वृक्ष और वह कॉटेजनुमा घर, जहाँ हम इतने दिन बुदापेस्ट में रहे थे। वह होटल नहीं, किसी पुराने नवाब का क़िला जान पड़ता था। क़िले के पीछे एक बाग़ था, घने पेड़ों से घिरा हुआ, बीच में संगमरमर की एक मूर्ति खड़ी थी और बादाम के वृक्ष...यहीं पर मुझे एक कहानी सूझी थी, एक छोटे से देश का दूतावास, जहाँ सिर्फ़ तीन या चार लोग काम करते हैं…कुछ ऐसा संयोग होता है कि उनकी सरकार यह भूल जाती है कि कहीं किसी देश में उनका यह दूतावास है। बरसों से उनकी कोई ख़बर नहीं लेता…वे धीरे धीरे यह भूल जाते हैं, कि वे किस देश के प्रतिनिधि बनकर यहाँ आए थे। बूढ़े राजदूत हर शाम अपने कर्मचारियों के साथ बैठते हैं और शराब पीते हुए याद करने की कोशिश करते हैं कि यहाँ आने से पहले वह कहाँ थे।
यह कहानी है या हमारी आत्मकथा?
~ निर्मल वर्मा, धुन्ध से उठती धुन
***

मैं इस किताब को ऐसे पढ़ती हूँ जैसे किसी और के हिस्से का प्रेम मेरे नाम लिखा गया हो। नेरूदा की एक कविता की पंक्ति है, 'I love you as certain dark things are to be loved, in secret, between the shadow and the soul’। मन के अंधेरे झुटपुटे में किताब के पन्ने रचते बसते जाते हैं। मैं कहाँ कहाँ तलाशती हूँ ये शब्द। दुनिया के किस कोने में छुपी है ये किताब। मैं लिखती हूँ इसके हिस्से अपनी नोट्बुक में। हरी स्याही से। कि जैसे अपनी हैंड्रायटिंग में लिख लेने से ये शब्द ज़रा से मेरे हो जाएँगे। हमेशा की तरह।

मैं इसे दोपहर की धूप में पढ़ती हूँ लेकिन किताब मेरे सपनों में खुल जाती है। बहुत से लोगों के बीच हम मुहब्बत से इसके हिस्से पढ़ते हैं। अपनी ज़िंदगी के क़िस्सों से साथ ही तो। कहाँ ख़त्म होती है धुंध से उठती धुन और कहाँ शुरू होता है कहानियों का सिलसिला। निर्मल किन लोगों की बात करते चलते हैं इस किताब में। उनकी कहानी के किरदार कितनी जगह लुकाछिपी खेलते दिखते हैं इस धुन्ध में। 

लिखे हुए क़िस्से और जिए हुए हिस्से में कितना साम्य है। पंकज ठीक ही तो कहता है इस किताब को, Master key. यहाँ इतना क़रीब से गुंथा दिखता है कहानी और ज़िंदगी का हिस्सा कि हम भूल ही जाते हैं कि वे दो अलग अलग चीज़ें हैं। मैं इसे पढ़ते हुए धूप तापती हूँ। मेरा कैमरा कभी वो कैप्चर नहीं कर पाता जो मैं इस किताब को पढ़ते हुए होती हूँ।

धुन्ध से उठती धुन पढ़ना मुहब्बत में होना है। मुहब्बत के काले, स्याह हिस्से में। जहाँ कल्पनाओं के काले, स्याह कमरे रचे जाते हैं। ख़्वाहिशें पाली जाती हैं। जहाँ दुनियाएँ बनायीं और तोड़ी जाती हैं सिर्फ़ किसी की एक हँसी की ख़ातिर। इसे पढ़ते हुए मैं देखती हूँ वो छोटे छोटे हिस्से कि जो निर्मल की कहानियों में जस के तस आ गए। वे अगर ज़िंदा होते तो मैं डिटेल में नोट्स बनाती और पूछती चलती इस ट्रेज़र हंट के बाद कि मैंने कितने क्लू सही सही पकड़े हैं। 

कहानियाँ ज़िंदगी के पैरलेल चलती हैं। मैं लिखते हुए कितने इत्मीनान से छुपाती चलती हूँ कोई एक वाक्य, कोई एक वाक़या, किसी की शर्ट का रंग कोई। लेकिन क्या मेरे पाठकों को भी इसी तरह साफ़ दिखेंगे वे लोग जिन्हें मैंने बड़ी तबियत से अपनी कहानियों में छुपाया है? वे शहर, वे गालियाँ, वे मौसम कि जो मैंने सच में जिए हैं।

आज एक दोस्त से बात कर रही थी। कि हमें दुःख वे ही समझ आते हैं जो हम पर बीते हैं या हमारे किसी क़रीबी पर। हमें उन दुखों की तासीर ठीक ठीक समझ आ जाती है। फ़र्स्ट हैंड दुःख। धुन्ध से उठती धुन पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है। नया, अकेला और उदास। कोई दूसरा दुःख इसके आसपास नहीं आता। कोई मुस्कान इसका हाथ नहीं थामती। तीखी ठंड में हम बर्फ़ का इंतज़ार करते हैं। मौसम विभाग ने कहा है कि आज आधी रात के पहले बारिश नहीं होगी। 

'तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो', मेरी दुनिया में इस वाक्य की कोई जगह नहीं है। मेरे डर, मेरे अंधेरे, मेरे उदास क़िस्सों में किसी की आँखे नहीं चमकतीं। कितनी बार हलक में अटका है ये वाक्य। इसलिए मैं तुम्हें सिर्फ़ उन किताबों के नाम बताउँगी जिनसे मुझे इश्क़ है। ताकि तुम उन किताबों को पढ़ते हुए कभी किसी वाक्य पर ठहरो और सोच सको कि मैंने तुम्हें वो कहानी पढ़ने को क्यूँ कहा था। 

कभी चलना किसी पहाड़ी शहर। वहाँ की पुरानी लाइब्रेरी में एक रैक पर इस किताब की कोई बहुत पुरानी कॉपी मिल जाएगी। उस समय का प्रिंट कि जब हम दोनों शायद पहली बार किसी इश्क़ में पड़ कर उसे आख़िरी इश्क़ समझ रहे होंगे। प्रेमपत्र में बिना लेखकों के नाम दिए शायरी और कविताएँ लिख रहे होंगे। ग़लतियाँ कर रहे होंगे बहुत सी, इश्क़ में। साथ में पढ़ेंगे कोई किताब, बिना समझे हुए, बड़ी बड़ी बातों को। मिलेंगे कोई दस, पंद्रह, सत्रह साल बाद एक दूसरे से, किसी ऐसे शहर में जो नदी किनारे बसा हो और जहाँ मीठे पानी के झरने हों। याद में कितना बिसर गया होगा किताब का पन्ना कोई। या कि हमारा एक दूसरे को जानना भी। फिर भी कोई याद होगी कि जो एकदम नयी और ताज़ा होगी। एक रात पहले पी कर आउट हो जाने जैसी। थोड़ी धुँधली, थोड़ी साफ़। बीच में कहीं। भूले हुए गीत का कोई टुकड़ा। 

कोई धुन, धुन्ध से उठती हुयी। 
पूछना उस दिन मौसम का हाल, मैं कहूँगी। इश्क़। 

29 July, 2017

Damn it, ये प्राग क्यूँ नहीं है!

हवा और धुंध के पीछे उसका सिर दीवार पर टिका था। कभी-कभर मीता के क़दमों की आहट सुनायी दे जाती थी। उसने पैकेट से सिगरेट निकाल कर मुँह में रख ली। माचिस की तीली जलाकर मैं सिगरेट के पास ले गया। उसने सिगरेट जलाकर उसे फूँक मार कर बुझा दिया। मैं हँसने लगा।
"क्या बात है?" उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा।
"कुछ नहीं।"
"तुम हँसे क्यूँ?"
मैंने विवशता में अपने काँधे सिकोड़ लिए।
"मुझे अब तुम्हें चूमना होगा।" मैंने कहा।
"क्यूँ?" उसने कौतुहल से मेरी ओर देखा।
"यहाँ यही प्रथा है। अगर कोई लड़की अपनी इच्छा से जलती हुयी तीली बुझा दे, तब उसका मतलब यही होता है।"
"मेरा मतलब वह नहीं था।" उसने हँसकर कहा।
"उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।"
"तुम बहुत अभ्यस्त जान पड़ते हो।"
"फिर?" मैंने उसकी ओर देखा। 
- निर्मल वर्मा, वे दिन 
***



ये किताब है या पुराने अफ़सोसों का पुलिंदा! जाने किस किस कोने से निकल कर खड़े हो गए हैं अफ़सोस सामने। किताबों जैसे। कहानियों जैसे।

गीले। सीले अफ़सोस। धुआँते। ठंढ में ठिठुरते। एक चाय की गुज़ारिश करते।
चूमे जाने की भी।

कितना सारा अधूरा इश्क़ ज़िंदा रहता है। जब पूरा पूरा शहर सो जाता है। जब बंद हो जाती हैं सारी लाइटें। नींद के आने के ठीक पहले। पढ़ी हुयी आख़िरी किताब के पहले प्रेम के नाम। लिखना चाहते हो कौन सा ख़त? करना चाहते हो कितना प्रेम।

ये किताब पढ़ते हुए बदल जाओगे थोड़ा सा तुम भी। तुम्हें ये किताब भेज दूँगी अपने पहले। मिलूँगी जब तुमसे तो तुम्हारे सामने सिगरेट पीने के लिए माँगूँगी माचिस तुमसे। बुझा दूँगी यूँ ही। और फिर कहूँगी।

"Damn it, ये प्राग क्यूँ नहीं है!"

तुम। कि तुम्हें इतनी फ़ुर्सत कहाँ होगी कि पढ़ सको ये किताब। या कि इसके सीलेपन में धुआँती आँखों को याद दिला सको सिर्फ़ इतना सा हिस्सा ही। या कि जा सको प्राग कभी।
कहना तो ये था...
"तुम्हें, चूम लेने को जी चाहता है"। 

***
सुनो, ये किताब पढ़ लो ना मुझे मिलने से पहले। प्लीज़। मैं कह नहीं सकूँगी तुमसे। फिर लिखना पड़ेगा एक पूरा पूरा उपन्यास और जाने कितना सारा तो झूठ। जबकि सच सिर्फ़ इतना ही रहेगा।
इक धुंध में घिरी हुयी किताब पढ़ते हुए, तुम्हें चूम लेने को जी किया था।
***

दुनिया की सारी दीवारें एक जैसी होती हैं। उनका मक़सद एक ही होता है। उनकी ख़्वाहिशें भी एक ही। 
उनसे टिक कर चूमा जा सकता है किसी को। 
उनकी आड़ में भी। 

वे वादा करती हैं कि वे आपके लिए रहेंगी। वे सम्हाल लेंगी आपको।  किसी को चूमते हुए। किसी के जाने के बाद टिक के रोने के लिए भी। 

मेरी याद में बहुत सी दीवारें ज़िंदा हैं। कि मैंने उनमें जितना प्रेम चिन दिया है, उस प्रेम को साँसों की दरकार नहीं है। उस प्रेम को शब्दों की ज़रूरत होती है और मैं हर कुछ दिनों में उन नामों को ना लिखते हुए भी उनके नाम के किरदार रचती हूँ, उनके कपड़ों के रंग से आसमान रंगती हूँ, उनकी आँखों के रंग की विस्की पीती हूँ। 
***

मैं अपने हिस्से का सारा प्रेम अजनबियों के नाम लिख जाऊँगी। अफ़सोसों के नाम। दुनिया भर के आर्टिस्ट्स के नाम। जो ज़िंदा हैं और जो मर गए हैं, उनके नाम। दुनिया की हर किताब के हर किरदार से इश्क़ कर लूँगी। 

और फिर भी, मेरी जान, तुम्हारे हिस्से का इश्क़ बचा रहेगा। सलामत। 
तुम्हें ना चूमे जा सकने वाली किसी शाम के नाम। 

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...