31 October, 2017

Create your own asylum


उसने शाम में दो दोस्तों से पूछा। तुम्हें 'एक चिथड़ा सुख' क्यूँ पसंद है। एक के पास वक़्त की कमी थी, एक के पास शब्दों की। वे उसे ठीक ठीक बता नहीं पाए कि क्यूँ पढ़नी चाहिए उसे ये किताब।

उसने पूछा, अच्छा ये बताओ, कोई ऐसी किताब पढ़ने का मन है जिसमें डूबें ना, जो उबार ले। उसने कहा, ऐसे में क्या ही पढ़ोगी निर्मल को। वहाँ कौन सा सुख है। लेकिन सुख तो था, 'वे दिन' में था, 'धुंध से उठती धुन' में भी था। सुख आइने में चुप तकता एक छोटा बच्चा है जो इस बात का यक़ीन दिलाता है कि आप अकेले पागल नहीं हैं। इस पागलखाने में और भी लोग रहते हैं।

लड़की का whatsapp स्टेटस रहता। 'Create your own asylum'। असाइलम का मतलब पागलखाना होता है, पनाह भी।

उसे लगा किताब में सुख होगा। थोड़ा सा ही सही। किताब जहाँ खुलती है, उसे समझ नहीं आया पिछले कई सालों से कैसे उसने किताब शुरू कर के आधी अधूरी रख दी हमेशा।

एक चैप्टर में कोई पूछता है लड़के से, 'ऑल अलोन' मतलब कि बिलकुल अकेले। किताब के लड़के के साथ ही लड़की सोचती है, अपना मन टटोल कर। कि इस अकेलेपन की तासीर समझ ले ठीक ठीक। उसे लगता ज़िंदगी मैथ की तरह है, सब कुछ इक्वेशन है। समझ आने के बाद हल निकाला जा सकता है। लेकिन धीरे धीरे वो समझती जाती कि हर equation सॉल्व नहीं हो सकता। फिर वो उन सवालों को अपनी राइटिंग डेस्क पर छोटी छोटी चिप्पियों में लिखती चली जाती।

बहुत साल बाद किसी किताब ने उससे वो सवाल किया है जो वो ख़ुद से अक्सर पूछती आयी है। कि सब कुछ होते हुए भी उसे इतना अकेलापन क्यूँ लगता है? इतने दोस्त हैं। जब से किताब आयी है, कितने सारे अजनबी भी हैं जो पन्ने पर जुड़े हुए हैं। उसका जब मन करे, कोई ना कोई तो होगा ही जो उससे बात कर सके। फिर ये कैसा अकेलापन है।

दूसरी चीज़ जो उसे परेशान करती, वो ये कि दुनिया के उसके कुछ सबसे प्यारे दोस्तों की तासीर में ऐसा अकेलापन क्यूँ दिखता है उसे। क्या वो अपनी तन्हाई उनपर प्रोजेक्ट करती है? क्या वो भी लोगों को ऐसी ही दिखती है, कहीं ना कहीं, अकेली? सब होते हुए भी उनके साथ रहते हुए ये कौन सा ख़ालीपन है, कौन सी कमी जिसे वो भरना चाहती है। कि जैसे उनकी ज़िंदगी में सिर्फ़ उसके होने भर की जगह कई सालों से ख़ाली थी। कि हम शायद ऐसे ही आते हैं दुनिया में। ख़ाली ख़ाली। porous। वो पूछती अपने दोस्तों से। कोई समझता है तुम्हें, ठीक ठीक। जैसे मैं समझती हूँ। मुझे कोई वैसे नहीं समझता ठीक ठीक, जैसे तुम समझते हो। तुम कैसे समझते हो मुझे ऐसे। ये कौन से हिस्से हैं, ये कौन से क़िस्से हैं?

उसका चेहरा किताब हुआ करता। उसकी आँखें गीत हुआ करतीं। उसकी मुस्कान शब्दों के बीच की ख़ामोशी रचती। उसे ग़ौर से देखो तो उसके चेहरे पर कई सारे किरदार उगा करते। कई सारी कहानियाँ हुआ करतीं। वाक्य उसके माथे की सलवटों को समझते। उसकी आँखों के सियाह को भी।

वो मुझसे मिली तो देर तक पढ़ता रहा चेहरा उसका। उसकी काजल लगी आँखें। छोटी सी बिंदी। कितने शब्द थे उसके चेहरे पर। कितना बोलता था उसका चेहरा।

उसके माथे पर शब्दों के बीच एक ख़ाली जगह थी...जैसे इग्ज़ैम के क्वेस्चन पेपर पर होती है - fill in the blanks जैसी। एक लाइन। कि जैसे लगा कि मैं चूम लूँ उसका माथा तो वाक्य का कोई मायना होगा। मुलाक़ात का भी।

No comments:

Post a Comment

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...