मुझे कम महसूसना नहीं आता। रात के ढाई बजे मैं काग़ज़ क़लम उठा कर तुम्हें एक ख़त लिखना चाहती हूँ। फ़ीरोज़ी। लैवेंडर और पीले रंग से। मैं लिखना चाहती हूँ कि तुम कोई ऐसी दुआ हो जो मैंने कभी माँगी ही नहीं। माँग के पूरी होने वाली ख़्वाहिशें होती हैं। दुआएँ होती हैं। मन्नतें होती हैं। जो ईश्वर की तरफ़ से भेजी जाएँ…बोनस…वो फ़रिश्ते होते हैं। हमें ज़िंदगी के किसी कमज़ोर लम्हे में उबार लेने वाले।
जितना लॉजिक मुझे समझ आता है, उस हिसाब से तुम्हें मैंने नहीं माँगा, तुम्हें ईश्वर ने भेजा है। जैसे मेरे हिस्से के कर्मों का फल रखने वाला कोई चित्रगुप्त का असिस्टेंट अचानक जागा और उसने देखा कि बहुत से अच्छे करम इकट्ठा हो गए हैं। या कि उसके पास जो दुनिया की भलाई का कोटा था उसमें एक नाम मेरा भी किसी ने सिफ़ारिश से डाल दिया। या कि उसे प्रमोशन चाहिए था और इसके लिए सिर्फ़ यही उपाय था कि धरती पर जो जीव उसे ऐलकेटेड है, वो उसके काम से बहुत ख़ुश हो।
मैं कभी कभी बहुत तकलीफ़ में होती हूँ कि मुझे कम प्यार करना नहीं आता। ऐसे में कोई उम्मीद नहीं करती मैं किसी से, लेकिन कभी कभी होता है कि किसी की छोटी सी ही बात से मेरा दिल बहुत दुःख जाता है। बहुत ज़्यादा। ये तकलीफ़ इतनी जानलेवा हो जाती है कि रोते रोते शामें बीतती हैं और क़रार नहीं आता। कि कोई मेरे साथ बुरा क्यूँ करता है। मैं तो किसी का बुरा नहीं करने जाती कभी। इसमें ही पापा कहते हैं कि इंसान अच्छा इसलिए थोड़े करता है कि दुनिया उसके साथ अच्छा करे…इंसान अच्छा इसलिए करता है कि उसकी अंतरात्मा उसे कचोटे नहीं…उसकी अंतरात्मा चैन से रहे। सुकून से। हमको ये बात बहुत अच्छी लगी। उस दिन से हम और भी जो दुनिया से थोड़ा बहुत माँगना चाहते थे, सो भी अपनी हथेली बंद कर ली।
इस बीच जैसे अचानक से कोई चित्रगुप्त होश में आया और उसे लगा कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छा होना चाहिए। मेरी लिखी किताब, ‘तीन रोज़ इश्क़’ दैनिक जागरण के कराए हिंदी किताबों की नील्सन बेस्टसेलर सर्वे में आठवें नम्बर पर आयी। मैंने ऐसा ना सोचा था, ना ऐसा चाहा था, ना ऐसा माँगा था। ये बोनस था। मुझे तो ये भी नहीं मालूम था कि इस देश में कितने लोग चुपके चुपके मेरी किताब पढ़ रहे हैं, बिना मुझे बताए, बिना पेंग्विन को बताए भी, शायद। बहुत दिन ख़ुमार में बीते। बौराए बौराए।
पिछले साल ऑक्टोबर में स्वीडन गयी थी, उसके बाद फिर अपने ही शहर में थी। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में व्यस्त। मुझे घर बहुत अच्छे से रखना नहीं आता। लोगों का ख़याल भी नहीं। बस इतना है कि मेरे घर में रहते हुए किसी को परायापन नहीं लगता। मेरे दिल में बहुत जगह रहती है, सबके लिए। शायद मैं एक समय डिनर बनाना भूल जाऊँ या शाम के नाश्ते की जगह कहानी लिखती रह जाऊँ मगर इसके सिवा घर में किसी को कभी कुछ बुरा नहीं लगता। मेरे घर और मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं(figuratively, यू नो, दिल कोई मकान थोड़े है)। इतनी व्यस्त रही की नोवेल पर काम एकदम ही छूट गया। ह्यूस्टन जाने की बात हुयी। वहाँ पर हरिकेन हारवे चला आया। जाने का प्लान दस दिन आगे खिसकाना पड़ा।
ह्यूस्टन में एक सबर्ब है, वुडलैंड्स। वहाँ रुकी। ऐसे रिज़ॉर्ट में जहाँ पर वाइफ़ाई के थ्रू कहीं कॉल ही नहीं जा रहे थे। बिना बात किए अकबका जाती हूँ, सो अलग। पब्लिक ट्रांस्पोर्ट कुछ भी नहीं तो कहीं आना जाना नामुमकिन। इंडिया और अमेरिका के टाइम में ऐसा अंतर होता है कि किसी से बात करना इम्पॉसिबल होता है। जब तक मैं फ़्री होती, इंडिया में सब लोग सो चुके होते। रिज़ॉर्ट की शटल सिर्फ़ एक मॉल तक जाती थी। वहाँ लेकिन मुझे किताबों की दुकान मिल गयी, barnes एंड नोबल। चूँकि वहाँ से कहीं और नहीं जाना था तो मैं अक्सर किताबें पढ़ने चली जाती थी। वहीं ऐलिस मुनरो की कहानी डिस्कवर की। ऐसे में अधूरी कहानी सुनने के लिए भी तुम थे। इस भागती दौड़ती दुनिया में ज़रा सा कौन निकालता है किसी के लिए वक़्त।
आज रात मन विह्वल हो गया। जब ईश्वर प्रार्थना मानना शुरू कर दे तो डर लगता है। मगर इस बार सुकून था। न्यू यॉर्क जाने का प्रोग्राम जिस तरह कैंसिल हो कर फिर से बना, वो किसी अलग कहानी के हिस्से है पूरी पूरी कहानी। दो हफ़्ते हो गए। आज टेबल पर कुछ तो देख रही थी कि घड़ी पर ध्यान चला गया। आँख के लेवल पर घड़ी थी। यही वाली पहन कर न्यू यॉर्क गयी थी और तब से इसका टाइम ज़ोन वापस से बदला ही नहीं है। उसमें पाँच बज रहे थे। कुछ दुखा। गहरे। मन में। अभी से दो हफ़्ते पहले इस वक़्त मैं ह्यूस्टन एयरपोर्ट पर थी और एक घंटे में मेरी फ़्लाइट का टाइम था।
जो बहुत सारे दिन हम सबका अच्छा करते चलते हैं, उसका कोई कारण नहीं होता। लेकिन यूँ होता है कभी फिर, कि एक दिन ज़िंदगी अचानक से हमारे नाम एक शहर लिख दे। भटकना और रंग लिख दे। सड़कें लिख दे और कॉफ़ी का ज़ायक़ा लिख दे। स्टेशनों के नाम और खो कर फिर मिल जाना लिख दे।
अतीत के बारे में सबसे ख़ूबसूरत चीज़ यही है कि उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता। कोई भी हमारे पास्ट में जा के उन दिनों की एक चीज़ भी बदल नहीं सकता। ना मेरी चिट्ठियों का रंग। ना वो मेरी आँखों की चमक। ना वो संतोष वाली, सुख वाली मुस्कुराहट।
ऐसी कोई एक भी घटना होती है ज़िंदगी में तो कई कई दिनों तक अच्छाई पर यक़ीन बना रहता है। मैं रात तक जगे यही सोचती हूँ कि मेरे साथ इतना अच्छा कैसे हो रहा है। कि मुझे अच्छाई की आदत ही नहीं है। लेकिन होना ऐसा ही चाहिए। छोटे छोटे सुख हों। एक कोई किताब हो कि जिसे ले जाना पड़े सात समंदर पार किसी के लिए। कहानियाँ हों। शब्द हों।
तुम जितने से थे, बहुत थे। जैसे पानी को जहाँ रख दो, कोने दरारों में भर आता है। कोई मरहम जैसे। पता है, तुम्हारी सबसे अच्छी बात क्या थी? तुम्हारा होना बहुत आसान था।
कभी कभी छोटे छोटे सुख, बड़े बड़े सुखों से ज़्यादा ज़रूरी होते हैं।
मेरी इस छोटी सी ज़िंदगी में, ये इतना छोटा सा सुख होने का शुक्रिया न्यू यॉर्क।
मैं तुमसे हमेशा प्यार करूँगी।
हमेशा।
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