लिखना इन्किलाब का झंडा हाथ में थामे लड़की है जो दुनिया की आँखों में आँखें डाल कर कहती है, ख़बरदार जो मेरे दिल से उन यादों का एक पुर्जा भी मिटाना चाहा...आग लगा दूँगी...सब ख़ाक हो जाएगा...सारी कवितायें...सारी कहानियां...सारा इतिहास भस्म हो जाएगा इसी एक आग में...कम मत आंको इस आग की क्षमता को!
लिखना हर्फ़ हर्फ़ जमा करते जाना है मुहब्बत के खाते में बेनाम ख़त. लिखना खुद को यकीन दिलाना है कि मुहब्बत में बर्बाद हो जाने के बावजूद...खुद को पूरी तरह अपने प्रेमी के लिए बदल देने के बावजूद मेरा कुछ रह गया है. कुछ ऐसा जो कि हज़ार मुहब्बतों में टूट टूट बिखरने पर भी सलामत रहा है. मेरी शैली...मेरे बिम्ब...मेरा सब कुछ देखने का नजरिया. हाँ तुम मुझे कल को समझा दोगे कि गलत है मेरी आँखें...तुम्हारे दिए चश्मे से मैं देखने लगूंगी दुनिया को सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में मगर मेरा मन मुझे फिर भी खींच कर समंदर किनारे बसे रंगरेजों के गाँव ले जाता रहेगा...मेरे कदम हर नक़्शे से भटक जायेंगे और अमलतास के जंगल में मैं भूल आउंगी तुम्हारा दिया हुआ चश्मा. हाँ, मुझे नहीं दिखेगा साफ़ साफ़ कुछ भी...हाँ, सब कुछ धुंधला होगा...हाँ, मैं पहचान नहीं पाऊँगी दोस्त और दुश्मन के बीच का फर्क...हाँ मुझे नहीं दिखेगा इश्क भी...कि वो दूर खड़ा होकर मेरी खिल्ली उड़ा रहा होगा. मगर मैं जाउंगी ऐसे जंगल...मैं जाउंगी ऐसे समंदर जिनमें मुझे जरा जरा डूबना आता हो. हाँ, मैं सीखूंगी फिर से सांस लेना...सांस...सांस...सांस..
तुम भूल जाओगे अपना क्लैरिनेट किसी केबिन में...खामोश हो जाएँगी मेरी शामें. मगर तुम्हें इससे क्या फर्क पड़ने लगा कि तुम अपने दोस्तों के साथ कहकहे लगा रहे होगे शहर के सबसे बदनाम बार में. मैं फिर से साध लूंगी संगीत के स्वर कि तुम्हें वाकई मेरे बारे में कुछ कभी पता नहीं था. पहले इस कागज़ के पन्ने पर सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने को जी चाहता था...अब इसी कागज़ के पन्ने पर म्यूजिक अनोटेशन लिखने लगूंगी...इसी कागज़ के पन्ने पर मन की इस उहापोह को रंगने लगूंगी. ब्रश के सारे स्ट्रोक्स बेतरतीब होंगे...लेकिन जान, वे फिर भी बहुत खूबसूरत होंगे.
मुझे होमवर्क मिलेगा कि मैं तीन हज़ार बार लिखूं कि मैं तुम्हें बिसार दूँगी...कि मैं कई हज़ार सालों से मोह के बंधन में बंधी हुयी हूँ...समंदर किनारे किसी शिला पर मैं भी बैठूंगी...मगर वहां मैं नहीं लिखूंगी तुम्हारा नाम. लिखना बगावत होगी तब भी...अपने ही दिल की धड़कनों से...कि तुम्हारे नाम की आवाज़ के सिवा उसे और कोई आवाज़ अच्छी नहीं लगती...वो न झरनों के शोर में बहलता है न चेट बेकर के जैज़ से...न उसे समंदर की लहरों का संगीत कोई राहत दे पाता है. मैं ऊंचे पहाड़ों पर एक छोटा सा एक कमरे का घर बनाउंगी और हर सुबह चीखूंगी तुम्हारा नाम...अकेले...चुप पहाड़ों से...तुम तक मगर नहीं पहुंचेगा कोई भी आवाज़ का कतरा.
तुम मांगोगे मेरा पता...कि जिसपर कभी भेज सको चिट्ठियां...मैं मगर जानती हूँ न तुम्हें...इस अंतहीन इंतज़ार की यातना में जलना मंज़ूर नहीं है मुझे...इसलिए मैं कभी नहीं भेजूंगी तुम्हें अपने उस छोटे से एक कमरे के मकान का पता. तुम्हारी कोई भी बात मुझे याद नहीं रहती...यूँ भी मुझे सुन के कुछ याद नहीं रहता...तभी तो भूलने लगी हूँ अपना नाम भी. काश कि तुमने भी कभी चुपके से पहुँचाया होता कोई परचा मुझ तक...क्लास के सारे बच्चों के थ्रू गुज़रता...मेरी डेस्क तक पहुँचता तो मैं भी भींच के रहती उस नन्हे से पुर्जे पर...कि जिसपर लिखा होता...शाम मिलो मुझसे...स्कूल के पीछे वाली गली में...कल रात ही फोड़ा है बड़ी मुश्किल से उस लैम्पोस्ट का बल्ब...जरा जरा अँधेरे में देखूं तुम्हें...जरा जरा अँधेरे में छू के देखूं तुम्हारा रेशमी दुपट्टा...जरा सा तुम्हारी गर्दन के पास गहरी सांस लूं तो जानूं कि किस साबुन से नहाती हो तुम...कि तुम्हारे बालों में रह जाती है क्या गुलाबों की गंध...वो गुलाब जो तुम्हारे लिए चुराया करता हूँ पड़ोसी के गार्डन से हर रोज़...सुनो न री पागल सी लड़की...तुम्हारी मुहब्बत में दीवाना हुआ जा रहा हूँ...एक बार मिलो न मुझसे...एक आखिरी बार...उसी कोर्नर वाले लैम्पोस्ट के नीचे...मुझे भी सिखा दो कैसे जी लेती हो इतने आराम से...हँस लेती हो सहेलियों के साथ...नाच लेती हो सरस्वती पूजा के पंडाल में...गुपचुप खाने का कॉम्पिटिशन भी जीत जाती हो...मुझे भी सिखाओ न री लड़की...कि मैं तो सांस लेना भी भूलता जा रहा हूँ...
तुम्हें कविता कब पसंद थी...इसलिए जानां लिखना इन्किलाब है...तुम्हारी मुहब्बत में लिखे इन खतों पर कोई और मर मिटेगा मुझपर...तुम कभी जान भी नहीं पाओगे कि कितनी थी मुहब्बत...कितनी है मुहब्बत...तब तक मेरी जान...सांस सांस सांस. जरा थम के...जरा गहरी...स्विमिंग पूल के १४ फीट गहरे पानी में मारी है डाईव कि ऐसे ही एक लम्हें भी भूलती हूँ सांस...और ऐसे ही किसी लम्हे में मिटता है दायीं ऊँगली पर लिखा हुआ सियाही से तुम्हारा नाम...तुम्हारे नाम की अंगूठी नहीं गोदना है जिस्म पर...भूलती हूँ तुम्हें तो भूलने लगती हूँ साँस लेना...कि लिखना...कि अक्षर बगावत हैं...तुम्हारा नाम...इन्किलाबी है...कहता है मैं भूल नहीं पाऊँगी तुमको. कभी भी.
इंकलाबी.... जय जय
ReplyDeleteये बग़ावती रंग मन की तहों की ख़ूबसूरती बिखरा जाते हैं। बहुत दिनों बाद पढ़ पा रहा हूँ, बीच का समय ही अभागा था।
ReplyDeleteAwesome !!!
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद फिर से पढ़ना लिखना शुरू हुआ है, आप के ब्लॉग पर आना हमेशा नयी बयार से रूबरू होना है, इस बार भी वही हुआ, तारीफ़ के लिए लफ़्ज़ों को हर्फ़ नहीं मिल रहे और मन कहीं उड़ रहा है, मिलते ही सब कुछ समेट कर, अगर कुछ पुल बने तो जरूर लिखूंगा, तब तक तो उड़ना ही बेहतर है इन बयारों के शीतल एहसास में.
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