ईश्वर को कम पड़ गयी थी
एक बूंद स्याही
मेरी किस्मत में उसका नाम लिखने के लिये
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मैं उससे बच बच के चलती रही
कसम से
दूर...दूर और दूर
मुहल्ला। शहर। देश। प्लैनेट
और कभी कभी तो जिन्दगी से भी
आँसुओं से धुलता गया
मेरे वापस लौटने का नक्शा
दिल हँसता रहा मेरी नाकामयाबी पर
मेरी कोशिशों पर भी
मैं कहाँ रच पायी इतनी दूरी
कि इक जिद्दी, आवारा ख्याल
खोल ना पाये विस्मृति के सात ताले
मेरे उदास चेहरे को हथेलियों में भर कर
उसने मेरे माथे पर रखा
इक आखिरी बोसा
जिसे मिटा नहीं पाया कोई इरेजर
हर आकाशगंगा में होता है एक सूर्य
उसकी आँखों के रंग का
इक नदी उसकी गुनगुनाहटों सी मीठी
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स्याही की इक लाल बूंद से
उसने मेरा वरण किया
तब से।
अनंत के किसी भी क्षण
मुझे नहीं आया उसके बिना जीना
मैं हर आयाम में होती हूँ अभिशप्त
उसके विरह में जलने के लिये
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