20 January, 2019

लव यू बे

आज याद आया कि तुम्हारे गले लगे साल से ऊपर होने को आया। अजीब सा दुखा कुछ। हूक जैसा। सोचती हूँ इसमें मेरी क्या ग़लती कि मैं प्यार नहीं करती तुमसे। प्यार कभी कभी ख़त्म हो जाता है। हमेशा वग़ैरह टाइप की चीज़ें सिर्फ़ पहले प्यार के लिए रिज़र्व होती हैं। तब लगता है कि ज़िंदगी भर इसी एक लड़के से प्यार रहेगा। दूसरे, तीसरे और बाद के कितने भी नम्बर वाले प्रेम के हिस्से बहुत कुछ होता है, ‘हमेशा’ नहीं होता। यूँ भी अब मैं हमेशा का इस्तेमाल बहुत बहुत कम चीज़ों के लिए करती हूँ। ज़िंदगी में इतनी तेज़ी से चीज़ें बदलती हैं, लोग छूट जाते हैं। शहर छूट जाते हैं। क़िस्सा, कहानी, किरदार, कविता… कुछ भी नहीं रहता है हमेशा के लिए।

हाँ, मैं नहीं करती तुमसे प्यार। हमेशा वाला। लेकिन मैं पूरी तरह भूल भी नहीं पाती न किसी को। ज़रा सा प्यार छूटा रह जाता है। उस ज़रा से प्यार का करते क्या हैं?

कोई नया गाना आता है ना, इतना पसंद कि दिन रात, सुबह शाम लूप में वही एक गाना सुनते हैं बस। नींद में, जाग में, नहाते हुए, खाते हुए… बस वही एक गाना, वही बोल, वही धुन। ऐसे ही होता है प्यार। जब चढ़ता है तो कुछ और नहीं सूझता महबूब के सिवा। उसके दिन, रात, शामें… उसका शहर, किताब, कविता, हँसी उसकी या कि उसका ग़ुस्सा ही। ज़िंदगी में उसके सिवा कुछ नहीं होता। फिर जैसे एक दिन गाना उतर जाता है सुन सुन के, वैसे ही एक दिन मुहब्बत चली जाती है दिल से। हम विरक्त हो जाते हैं उस प्रेम के प्रति। लेकिन इन चीज़ों के बारे में कोई नहीं लिखता। कि अभी लोग ज्ञान देने पहुँच जाएँगे, ऐसा थोड़े होता है। होता है जी, हमारे साथ हुआ है।

लेकिन इसके बाद का क़िस्सा भी तो है। दिल जाने किस याद पर कचकता रहेगा। मैं सोचती रहूँगी। आसान था तुम्हारे लिए यूँ चले जाना। लेकिन तुम्हें गले नहीं लगा कर मुझे इतना दुःख रहा है तो तुम्हें जाने कितना दुखा होगा। मैं तुम्हारे दुःख का सोच कर तड़प जाती हूँ। क्या है ना जानम, तुम्हें ये वाला प्यार समझ नहीं आएगा। शब्द कम हैं हमारे पास इसलिए प्यार और दोस्ती वाले दो ही ऑप्शन दिए जाते हैं। जो हम कह दें, कि नहीं, कुछ और भी होता है तो? समझ पाएँगे लोग? लोगों का पता नहीं, मुझे लगता है तुम ही नहीं समझ पाओगे।

मैं सपने में तुम्हें देखती हूँ। बरगद का पेड़ है। पेड़ के नीचे हनुमान जी की प्रतिमा लगी है। किसी दोपहर वहाँ तुम्हें एक पूरी नज़र देखना माँगा था। तुम सिगरेट का आख़री कश मार रहे थे, तुम्हें क्या ज़िद कहते हम। फिर इतने बेग़ैरत तो हैं नहीं कि ज़बरन गले में बाँहें डाल दें। ‘हमने कर लिया था अहदे तर्क-ए-इश्क़, तुमने फिर बाँहें गले में डाल दीं’।

सुनो। कुछ बचा नहीं है हमारे बीच। तो वो चिट्ठियाँ जला ही देना। कि तुम्हारे शहर में तो कहते हैं सबको मोक्ष मिल जाता है। कौन जाने मुझे ही चैन से जीना आ ही जाए तुम्हारे बग़ैर भी। अच्छा ये है कि तुम्हारी आवाज़ इंटर्नेट पर है, तुम्हें याद करके मरूँगी नहीं। हाँ, वो मिस करती हूँ अक्सर, कि ज़िद करके कोई कविता रेकर्ड करवा लूँ तुमसे। कि बस माँग लूँ हथेली खोल के और तुम धर दो… कोई नन्हा सपना, कोई ज़िद्दी शेर, कहकहा कोई… पता है, मैं तुम्हारी हँसी को बहुत मिस करती हूँ। तुम्हारी सिगरेट को भी। तुम्हें पता है, चाय मैंने पहली बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए पी थी। तुम्हारी तरह कड़क। क्या क्या सोचती रही तुम्हारे शहर के बारे में। आते आते रुकी। सोचती रही कि आने से कोई दिक्कत तो ना होगी तुम्हें। जाने कैसे होते तो तुम अपने शहर में। शायद वो शहर जो तुम्हें पहचानता है, मुझे पहचानने से इनकार कर दे। कौन जाने।

याद है एक दिन कैसी पगला गयी थी, कि छत से कूद ही जाऊँगी। कि अमरीका होता तो बंदूक़ ख़रीद लाती और ख़ुद को गोली मार लेती। कि लगता था कि तुमसे कहूँगी तो तुम फिर से डाँटोगे इतना कि मरने का ख़याल मुल्तवी कर देंगे। तुम्हें कई बातें नहीं बातायीं। कि जैसे तुम्हारे सिवा कोई नहीं डाँटता मुझे। कि सच्ची तुमसे डाँट खा के अच्छा लगता था। जैसे बचपन का कोई हिस्सा बाक़ी हो। कि ग़लतियाँ करना अच्छा लगता था। तुम्हारे डाँटने से ये भी तो लगता था कि अब माफ़ कर दोगे। हो गयी बात ख़त्म। कोई बात ज़िंदगी भर भी चल जाएगी, ये कौन सोच सकता था। तुम्हारी नाराज़गी थोड़ी कम चले, सो लगता है ज़िंदगी ही छोटी रहे थोड़ी। कि तुम उम्र भर ही तो नाराज़ रहोगे मुझसे... मरने के बाद थोड़े न।

काश कि जब आख़िरी बार मिले थे तुमसे, मालूम होता कि आख़िरी बार गले लग रहे हैं तुमसे। तो बस थोड़ा ज़्यादा देर भींचे रहते तुमको। कहते तुमसे। तुम उम्र में बड़े हो, मेरा माथा चूम कर अलविदा कहो। कि रोकने का न अधिकार है न दुस्साहस। बस, ज़िंदगी से थोड़ी सी गुज़ारिश है कि कभी मिलो फिर… इस बार प्यार से अलविदा कहना। कि मैं जाने प्यार तुमसे करती हूँ या नहीं, पर विदा प्यार से कहना चाहती हूँ तुमको।

आइ मिस यू। बहुत।
लव यू बे।

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