04 January, 2019

मैन्यूअल ओवरराइड

ख़ुश होने के लिए क्या चाहिए?
हमको...
आज सुबह कुणाल को एक दिन के लिए बाहर जाना था। भोर तीन बजे टैक्सी बुक किए, जैसे ही गाड़ी आए, जाने कैसे तो अचानक से घर की लाइट चली गयी। इन्वर्टर में कुछ ख़राबी थी। फिर फ़ोन की बैटरी भी कम। तो टैक्सी कैंसल कर दिए और दो मिनट में कपड़े बदल कर अपनी गाड़ी से ही चल लिए। 

सुबह तीन बजे बहुत ठंड थी आज बैंगलोर में...9 डिग्री। स्वेटर का तो ख़याल ही नहीं आया। एयरपोर्ट पर ठंड होती है, लेकिन इतनी होगी, सोचे नहीं थे। ख़ैर। सोचे ये कि सुबह होने तक का दो ढाई घंटा उधर ही बिताएँगे फिर रौशनी होगी तो घर आएँगे। इस चक्कर में अलग अलग जगह बैठ कर चाय, कॉफ़ी और मशरूम सूप पिए। ठंड ग़ज़ब थी। उससे भी ज़्यादा मुश्किल कि सिर्फ़ एक हल्की सी जैकेट पहनी थी, ऊनी कुछ भी नहीं। 

इंतज़ार करना अच्छा लगता है मुझे। किसी भी चीज़ का। आज सुबह का इंतज़ार कर रही थी। कुछ देर नोट्बुक पर कुछ लिखा। कुछ देर आसपास लोगों की शक्लें देखीं। उजाला होने को आया तो गाड़ी के पास आए। मज़े का बात ये कि मेरी आक्टेविया keyless एंट्री वाली कार है। मतलब, इसमें चाभी लगाने की कोई जगह ही नहीं है। तो चाबी की बैटरी डाउन थी। गाड़ी के दरवाज़े खुले ही नहीं। कुछ दिन से बैटरी कम होने का सिग्नल दे रहा था और सर्विस सेंटर वालों के पास इसकी बैटरी थी नहीं। हम लेकिन हर चीज़ के लिए पहले तैय्यार रहते हैं, तो आख़िरी बार जब सर्विस में गयी थी तो उससे पूछ लिए थे कि मैनुअल कैसे खोलते हैं दरवाज़ा। तो दरवाज़ा तो खोलना आता था लेकिन उसके बाद उसने कहा था कि इग्निशन के बटन के पास चाबी सटाने से गाड़ी स्टार्ट हो जाएगी, सो हुआ नहीं। धुंध हो गयी थी सुबह। गाड़ी के दरवाज़े भी लॉक नहीं हो रहे थे अंदर से क्यूँकि कार में चाभी डिटेक्ट ही नहीं हो रही थी। फिर गूगल किया तो पता चला कि बिना चाभी के स्टार्ट होने वाली गाड़ियों की चाभी में एक छोटा ट्रैन्स्मिटर होता है। कार के स्टार्ट बटन के इर्द गिर्द एक मेटल की सर्कल होती है...चाभी के आगे वाले हिस्से को उस मेटल के सर्किल से छुआने पर गाड़ी स्टार्ट हो जाएगी। हमने ठीक ऐसा किया और कार स्टार्ट हो गयी। हमने अपनी पीठ ठोकी, कि कभी भी घबराते नहीं हैं और हर आफ़त का उपाय निकाल लेते हैं। 

आज सुबह सुबह इतनी धुंध थी जितनी मैंने बैंगलोर में कभी नहीं देखी। कार के काँच पर धुंध थी। ऊँगली से उसपर एक दिल बनाए। सोचे। कि हमें कहीं भी जगह मिले, हम कुछ लिखना चाहते हैं। इसके सिवा कुछ चाहिए नहीं होता है हमको। बहुत धुंध थी और वाइपर चलाने के बाद भी पीछे का कुछ नहीं दिख रहा था। मैंने इतनी धुंध में पहले कभी गाड़ी नहीं चलायी है। एक मन तो किया थोड़ी देर रुक जाते हैं। फिर लगा नींद आने लगेगी। घर पर काम भी बहुत है और पैकिंग भी करनी है। गाने लगाए। मौसम ऐसा था कि खिड़की खोलने में डर लगे। तापमान नौ डिग्री। दिल्ली और बैंगलोर एक ही मौसम में थे इस सुबह। गाने लगा दिए, अच्छे वाले, पसंद की प्लेलिस्ट। सुबह बहुत सुंदर थी। धुंध के पीछे छिपी हुयी। गाड़ी चलाते हुए ज़्यादा देख तो नहीं सकते, लेकिन फ़ील होता है आसपास सब कुछ ही। 

गाड़ी चलाते हुए रास्ते से कोई दो किलोमीटर ऑफ़ रूट एक दोस्त का घर पड़ता है। सोचती रही, कि उसके घर जाऊँ, कहूँ उससे कि एक कप चाय पीने का मन है। हम बनाते हैं, दोनों साथ बैठ के पिएँगे। इतनी सुबह उसका बेटा भी स्कूल चला जाता है और पति के ऑफ़िस जाने में टाइम होता है थोड़ा। एक चाय की फ़ुर्सत रहती है। एयरपोर्ट से आते हुए कई किलोमीटर ये सोचते हुए गाड़ी चलायी, कि उसके घर जाने का मन है। और ये सोच सोच के ख़ुश होती रही कि उसके घर जा सकती हूँ। 

गाने अच्छे थे। सुबह अच्छी थी। ट्रैफ़िक बमुश्किल था। अस्सी की स्पीड लिमिट में चलाती आयी आराम से पूरे रास्ते। 

घर आ के भी सोचे। हम सिर्फ़ किसी के होने के ख़याल से ख़ुश रहते हैं। किसी के होने में दख़ल नहीं देते। बस, इतना ख़याल कि उससे मिला जा सकता है मेरे शहर को सुंदर रखता है। कि इस शहर में एक दोस्त है ऐसी जिससे मिलने का मन करे तो मिलने जाया जा सकता है। 

चिट्ठियों का भी ऐसा ही है तो। एयरपोर्ट पर नया वाला लाल डिब्बा लगा है। पोस्ट्बाक्स। उसे देख कर सोचती रही, इस बार दिल्ली में तुम्हारे लिए किताब ख़रीदूँगी तो उसे वहीं से भेज दूँगी। हाँ इस बार चिट्ठियाँ नहीं पोस्टकार्ड लिखूँगी तुम्हें और तुम्हारे लिए भी कुछ पोस्टकार्ड भेज दूँगी, सादे पोस्टकार्ड। मुझे लगता है तुम्हें पोस्टकार्ड अच्छे लगेंगे। 

कल वो लाल डिब्बा देख कर उस चिट्ठी के बारे में सोचती रही जो तुम्हें लिखूँगी। पता है, मैं हमेशा पोस्ट्बाक्स देख कर चिट्ठी लिखने के बारे में सोचती हूँ। दुनिया के किसी भी देश, किसी भी शहर में रहूँ। तुम्हें चिट्ठियाँ लिखने के बारे में। मैं नहीं लिखती हूँ तुम्हें चिट्ठी। पर ये ख़याल कि मैं तुम्हें लिख सकती हूँ, इतना ही काफ़ी है मेरे लिए। 

कल दिल्ली। पुस्तक मेला। मेरा सालाना तीरथ। इस बार फिर से खोजूँगी। कविता की कोई ख़ुश, मीठी किताब। हिंदी की। 

ज़िंदगी जाने कैसे चल रही थी, ऑटमैटिक पर। इस साल सोचा है, ज़रा कंट्रोल अपने हाथ में लूँगी। मैन्यूअल ओवरराइड। ज़िंदगी ज़रा मेरे हिसाब से चलेगी। देखें। 

2 comments:

  1. वाह. क्या खूब लिखा है आपने।

    ReplyDelete
  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 06/01/2019 की बुलेटिन, " सच्चे भारतीय और ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...