06 December, 2011

या फिर कहरवा - धा-गे-न-ति-नक-धिन...

तुम वहाँ से लौटा लाओ मुझे जहाँ से दुनिया ख़त्म होती है...उस परती जमीन पर पैर धरने से रोको कि वहाँ सदियों सदियों कुछ भी नहीं उगा है...वहाँ की धरती दरकी हुयी है और दरारें खूबसूरत पैरों में बिवाइयाँ डाल देती हैं...वहाँ बहुत धूल है और पानी का नामो निशान नहीं...ऐसी जमीन पर खो गयी तो कहीं नहीं जा पाऊँगी फिर...उजाड़ देश में जाके सारी नदियाँ सूख जाती हैं...मुझे लौटा लाओ जमीन के उस आखिरी छोर से कि मैं सरस्वती नहीं होना चाहती...मैं अभिशप्त जमीन के नीचे नहीं बह सकती...मुझे लौटा लो, मेरा हाथ पकड़ो...वो बहुत खतरनाक रास्ता है...वहाँ से लौटना नहीं होता.

मेरी बाहें थामो कि आज भी पहाड़ों की गहराई मुझे आमंत्रण देती है...मुझे पल भर को भी अकेला मत छोड़ो कि तुम नहीं जानते कि इन आसमान तक ऊँचे पहाड़ों के शिखरों को देखते हुए कब मैं इन सा हो जाना चाहूंगी...तुम सेकण्ड के उस हजारवें हिस्से में बस मेरे दुपट्टे का आखिरी छोर पकड़ पाओगे कि तुम भी गुरुत्वाकर्षण के नियम को अच्छी तरह समझते हो...तुम्हें पता होता कि नीचे जाने की रफ़्तार क्या होगी...बहुत उंचाई से जब नदी गिरती है तो प्रपात हो जाती है...पर तुम भी जानते हो कि मैं नदी नहीं हूँ पर पहाड़ों से गिरना वैसे ही चाहती हूँ...मैं वहाँ से गिरूंगी तो मिटटी में लुप्त हो जाउंगी...फिर सदियों में कहीं सोता फूटेगा पर अभी का मेरा पहाड़ी नदी का अल्हड़पन नहीं रहेगा उसमें...

न ना, मेरी कान्गुरिया ऊँगली को अपनी तर्जनी में फँसाये रहो कि उतना भर ही बंधन होता है जिंदगी से बंधा हुआ...मुझे छुओ कि मुझे अहसास हो कि मेरा होना भी कुछ है...सड़क पार करते हुए कभी भी मेरा हाथ मत छोड़ो कि मुझे हमेशा से तेज़ रफ़्तार दौड़ती चीज़ें आकर्षित करती हैं. कभी देखा है मंत्रमुग्ध सी गुजरती ट्रेन को...पटरियों पर कैसी धड़-धड़ गुजरती है कि जैसे एक्सपर्ट कुक किचन में सब्जियां काटता है...खट-खट-खट...क्या लाजवाब रिदम होती है...जैसे तबले पर तीन ताल बज रहा हो...या फिर कहरवा - धा-गे-न-ति-नक-धिन...धा-गे-न-ति-नक-धिन. देखा है कैसे उँगलियाँ तबले पर के कसे हुए चमड़े पर पड़ती हैं...क्षण का कौन सा वां हिस्सा होता है वो? फ्रैक्शन ऑफ़ अ सेकण्ड...कैसा...कैसा होता है कि एकदम वही आवाज़ आती है...देखो न मेरी आँखों में वैसी ही हैं...सफ़ेद और फिर बीच में काली. पलक झपकने में भी एक ताल होता है, एकदम ख़ामोशी में सुनोगे तो सुनाई देगा...

मेरी आवाज़ तुम्हें तरसती है कि जैसे कैमरा की आँख पल पल घटती जिंदगी में से किसी क्षण को...कहाँ बाँध लूं, कहाँ समेट लूं...कैसे कैसे सहेज लूँ इस छोटी सी जिंदगी में तुम्हें...और कितना सहेज लूँ कि हमारे यहाँ तो कहते हैं कि मरने के बाद भी सब ख़त्म नहीं होता...उसके बाद कुछ और ही शुरू होता है...फिर हम ये झगड़ा क्यूँ करते हैं कि ये मेरा कौन सा जन्म है और तुम्हारा कौन सा...तुम्हें भी एक जिंदगी काफी नहीं लगती न?

तुम मुझे वहाँ से लौटा लाओ जहाँ दुनिया ख़त्म होती है...

4 comments:

  1. यह तो कविता है, रजनीगन्धा फिल्म के गीत सी -

    "मन कहता है उन रंगों की इक प्यार भरी बदली बन के, बरसूं उनके आंगन में। --- कितना सुख है बन्धन में!"

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  2. तेज बहती नदी में पत्थर को पकड़े जैसे सम्बन्धों की जटिल स्थिति। एक सहारा दो, बह जाने में भी थामे रहे, शंकर सा।

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  3. bas bandhe rakho mujhe khud se...ye bandhan hi sab kuch hai.....very nice

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  4. @पल पल घटती जिंदगी में से किसी क्षण को...कहाँ बाँध लूं, कहाँ समेट लूं...कैसे कैसे सहेज लूँ.

    जितना आँखो में समाए।
    उतना समेट लिया जाए॥

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