ये वही दिन थे
जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...
कि जब सब कुछ बन जाता था कागज
और हर चमकती चीज़ में
नज़र आती थीं तुम्हारी आँखें
ये वही दिन थे
जब मिनट में १० बार देख लेती थी घड़ी को
जिसमें किसी भी सेकण्ड
कुछ बीतता नहीं था
और मैं चाहती थी
कि जिंदगी गुज़र जाए जल्दी
ये वही दिन थे
दोपहर की बेरहम धूप में
जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...
कि जब सब कुछ बन जाता था कागज
और हर चमकती चीज़ में
नज़र आती थीं तुम्हारी आँखें
ये वही दिन थे
जब मिनट में १० बार देख लेती थी घड़ी को
जिसमें किसी भी सेकण्ड
कुछ बीतता नहीं था
और मैं चाहती थी
कि जिंदगी गुज़र जाए जल्दी
ये वही दिन थे
दोपहर की बेरहम धूप में
फूट फूट के रोना होता था
दिल की दीवारों से
रिस रिस के आते दर्द को
रोकने को बाँध नहीं बना था
वही दिन
कि जब फोन काट दिया जाता था
आखिरी रिंग के पहले वाली रिंग पर
कि बर्दाश्त नहीं होता
कि उसने पहली रिंग में फोन नहीं उठाया
कि दिन भर
प्रत्यंचा सी खिंची
लड़की टूटने लगती थी
थरथराने लगती थी
घबराने लगती थी
ये वही दिन थे
जब कि बहुत बहुत बहुत
प्यार किया था तुमसे
और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद
प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे
ये वही दिन थे
मैं चाहती थी
कि एक आखिरी बार सुन लूं
तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम
और कि मर जाऊं
कि अब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता
कि एक आखिरी बार सुन लूं
तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम
और कि मर जाऊं
कि अब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता
ये वही दिन थे
ReplyDeleteदोपहर की बेरहम धूप में
फूट फूट के रोना होता था
दिल की दीवारों से
रिस रिस के आते दर्द को
रोकने को बाँध नहीं बना था
..लाज़वाब...बहुत कोमल अहसास..सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति..
ये वही दिन थे
ReplyDeleteजब कि बहुत बहुत बहुत
प्यार किया था तुमसे
और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद
प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे
Aah!
पूजा जी बहुत ही खूबसूरत कविता |
ReplyDeleteपूजा जी बहुत ही खूबसूरत कविता |
ReplyDeleteसंवाद की कमी प्यार बढ़ाती है, घटाती भी है।
ReplyDeleteबेशक आपने अपनी बात लिखी हो... पर है कुछ सार्वभौम सा... जो लगभग हर किसी के जीवन में गुजरता है... कभी- 'ये वही दिन थे'... जैसी स्नेहिल... बेचैन... भावनाएं और बहुत भाग्यशाली हुए तो चिट्ठियां भी...!
ReplyDeleteBest wishes!
Anupama
e mail: anupama623@gmail.com