14 December, 2011

जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...

ये वही दिन थे
जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...
कि जब सब कुछ बन जाता था कागज
और हर चमकती चीज़ में
नज़र आती थीं तुम्हारी आँखें


ये वही दिन थे
जब मिनट में १० बार देख लेती थी घड़ी को
जिसमें किसी भी सेकण्ड
कुछ बीतता नहीं था
और मैं चाहती थी
कि जिंदगी गुज़र जाए जल्दी

ये वही दिन थे
दोपहर की बेरहम धूप में
फूट फूट के रोना होता था 
दिल की दीवारों से 
रिस रिस के आते दर्द को 
रोकने को बाँध नहीं बना था 

वही दिन 
कि जब फोन काट दिया जाता था
आखिरी रिंग के पहले वाली रिंग पर
कि बर्दाश्त नहीं होता
कि उसने पहली रिंग में फोन नहीं उठाया 

कि दिन भर 
प्रत्यंचा सी खिंची
लड़की टूटने लगती थी
थरथराने लगती थी 
घबराने लगती थी 

ये वही दिन थे
जब कि बहुत बहुत बहुत 
प्यार किया था तुमसे
और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद 
प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे

ये वही दिन थे
मैं चाहती थी
कि एक आखिरी बार सुन लूं
तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम
और कि मर जाऊं
कि अब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता

6 comments:

  1. ये वही दिन थे
    दोपहर की बेरहम धूप में
    फूट फूट के रोना होता था
    दिल की दीवारों से
    रिस रिस के आते दर्द को
    रोकने को बाँध नहीं बना था

    ..लाज़वाब...बहुत कोमल अहसास..सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति..

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  2. ये वही दिन थे
    जब कि बहुत बहुत बहुत
    प्यार किया था तुमसे
    और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद
    प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे
    Aah!

    ReplyDelete
  3. पूजा जी बहुत ही खूबसूरत कविता |

    ReplyDelete
  4. पूजा जी बहुत ही खूबसूरत कविता |

    ReplyDelete
  5. संवाद की कमी प्यार बढ़ाती है, घटाती भी है।

    ReplyDelete
  6. बेशक आपने अपनी बात लिखी हो... पर है कुछ सार्वभौम सा... जो लगभग हर किसी के जीवन में गुजरता है... कभी- 'ये वही दिन थे'... जैसी स्नेहिल... बेचैन... भावनाएं और बहुत भाग्यशाली हुए तो चिट्ठियां भी...!
    Best wishes!
    Anupama

    e mail: anupama623@gmail.com

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