सपने में तुम थे, माँ थी और समुद्र था।
तूफ़ान आया हुआ था। बहुत तेज़ हवा चल रही थी। नारियल के पेड़ पागल टाइप डोल रहे थे इधर उधर। सपने को भी मालूम था कि मैं पौंडीचेरी जाना चाहती थी और उधर साइक्लोन आया हुआ था। उस तूफ़ान में हम कौन सा शहर घूम रहे थे?
ट्रेन में मैं तुम्हारे पास की सीट पर बैठी थी। तुम्हारी बाँह पकड़ कर। कि जैसे तुम अब जाओगे तो कभी नहीं मिलोगे। तुम्हारे साथ होते हुए, तुम्हारे बिना की हूक को महसूस करते हुए। हम कहीं लौट रहे थे। किसी स्मृति में। किसी शहर में।
मैंने तुमसे पूछा, ‘रूमाल है ना तुम्हारे पास? देना ज़रा’। तुम अपनी जेब से रूमाल निकालते हो। सफ़ेद रूमाल है जिसमें बॉर्डर पर लाल धारियाँ हैं। एक बड़ा चेक बनाती हुयीं। मैं तुमसे रूमाल लेती हूँ और कहती हूँ, ‘हम ये रूमाल अपने पास रखेंगे’। रूमाल को उँगलियों से टटोलती हूँ, कपास की छुअन उँगलियों पर है। कल रात फ़िल्म देखी थी, कारवाँ। उसमें लड़का एक बॉक्स को खोलता है जिसमें उसके पिता की कुछ आख़िरी चीज़ें हैं। भूरे बॉक्स में एक ऐसा ही रूमाल था कि जो फ़िल्म से सपने में चला आया था। ट्रेन एयर कंडिशंड है। काँच की खिड़कियाँ हैं जिनसे बाहर दिख रहा है। बाहर यूरोप का कोई शहर है। सफ़ेद गिरजाघर, दूर दूर तक बिछी हरी घास। पुरानी, पत्थर की इमारतें। सड़कें भी वैसी हीं। सपने का ये हिस्सा कुछ कुछ उस शहर के जैसा है जिसकी तस्वीरें तुमने भेजी थीं। सपना सच के पास पास चलता है। क्रॉसफ़ेड करता हुआ। मैं उस रूमाल को मुट्ठी में भींच कर अपने गाल से लगाना चाहती हूँ।
मुझे हिचकियाँ आती हैं। तुम पास हो। हँसते हो। मैं सपने में जानती हूँ, तुम अपनी जाग के शहर में मुझे याद कर रहे हो। सपना जाग और नींद और सच और कल्पना का मिलाजुला छलावा रचता है।
तुम्हें जाना है। ट्रेन रुकी हुयी है। उसमें लोग नहीं हैं। शोर नहीं है। जैसे दुनिया ने अचानक ही हमें बिछड़ने का स्पेस दे दिया हो। मैं तुम्हें hug करती हूँ। अलविदा का ये अहसास अंतिम महसूस होता है। जैसे हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।
नींद टूटने के बाद मैं उस शहर में हूँ जिसके प्लैट्फ़ॉर्म पर हमने अलविदा कहा था। याद करने की कोशिश करती हूँ। अपनी स्वित्ज़रलैंड की यात्रा में ऐसे ही रैंडम घूमते हुए पहली बार किसी ख़ूबसूरत गाँव के ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म को देख कर उस पर उतर जाने का मन किया था। उस छोटे से गाँव के आसपास पहाड़ थे, बर्फ़ थी और एकदम नीला आसमान था। सपने में मैं उसी प्लैट्फ़ॉर्म पर हूँ, तुम्हारे साथ। जागने पर लगता है तुम गए नहीं हो दूर। पास हो।
मैं किसी कहानी में तुम्हें अपने पास रोक लेना चाहती हूँ।
***
***
कुछ तो हो जिससे मन जुड़ा रहे।
किसी शहर से।
किसी अहसास से।
किसी वस्तु से - कहीं से लायी कोई निशानी सही।
किसी किताब से, किसी अंडर्लायन लिए हुए पैराग्राफ़ से।
किसी काले स्टोल से कि जिसे सिर्फ़ इसलिए ख़रीदा गया था कि कोई साथ चल रहा था और उसका साथ चलना ख़ूबसूरत था।
किसी से आख़िरी बार गले लग कर उसे भूल जाने से।
आख़िरी बार। कैसा तो लगता है लिखने में।
कलाइयाँ सूँघती हूँ इन दिनों तो ना सिगरेट का धुआँ महकता है, ना मेरी पसंद का इसिमियाके। पागलपन तारी है। कलाइयों पर एक ही इत्र महसूस होता है।
मृत्युगंध।
तुम मिलो मुझसे। कि कोई शहर तो महबूब शहर हुआ जाए। कि किसी शहर की धमनियों में थरथराए थोड़ा सा प्यार… गुज़रती जाए कोई मेट्रो और हम स्टेशन पर खड़े रोक लें तुम्हें हाथ पकड़ कर। रुक जाओ। अगली वाली से जाना।
मैं भूल जाऊँ तुम्हारे शहर की गलियों के नाम। तुम भूल जाओ मेरी फ़ेवरिट किताब समंदर किनारे। रात को हाई टाइड पर समंदर का पानी बढ़ता आए किताब की ओर। मिटा ले मेरी खींची हुयी नीली लकीर। किताब के एक पन्ने पर लिखा तुम्हारा नाम। मुझे हिचकियाँ आएँ और मैं बहुत दिन बाद ये सोच सकूँ, कि शायद तुम याद कर रहे हो।
पिछली बार मिली थी तो तुम्हारी हार्ट्बीट्स स्कैन कर ली थी मेरी हथेली ने…काग़ज़ पर रखती हूँ ख़ून सनी हथेली। रेखाओं में उलझती है तुम्हारी दिल की धड़कन। मैं देखती हूँ देर तक। सम्मोहित। फिर हथेली से कस के बंद करती हूँ दूसरी कलाई से बहता ख़ून।
कि कहानी में भी तुमसे पहले अगर मृत्यु आए तो उसे लौट कर जाना होगा।
चलो, जीने की यही वजह सही कि तुमसे एक बार और मिल लें। कभी। ठीक?
***
***
लड़की की उदास आँखों में एक शहर रहता था।
लड़का अकसर सोचता था कि दूर देश के उस शहर जाने का वीसा मिले तो कुछ दिन रह आए शहर में। रंगभरे मौसम लिए आता अपने साथ। पतझर के कई शेड्स। चाहता तो ये भी था कि लड़की के लिए अपनी पसंद के फूल के कुछ बीज ले आए और लड़की को गिफ़्ट कर दे। लड़की लेकिन बुद्धू थी, उसकी बाग़वानी की कुछ समझ नहीं थी। उससे कहती कि बारिश भर रुक जाओ, पौधे आ जाएँ, फिर जाना। यूँ एक बारिश भर रुक जाने की मनुहार में कोई ग़लत बात नहीं थी, लेकिन शहर में अफ़ीम सा नशा था। रहने लगो तो दुनिया का कोई शहर फिर अच्छा नहीं लगता। ना वैसा ख़ुशहाल भी। उदासी की अपनी आदत होती है। ग़ज़लें सुनते हुए शहर के चौराहे पर चुप बैठे रहना, घंटों। या कि मीठी नदी का पानी पीना और इंतज़ार करना दिल के ज़ख़्म भरने का। उदास शहर में रहते हुए कम दुखता था सब कुछ ही।
शहर में कई लोग थे और लड़की ये बात कहती नहीं थी किसी से…लेकिन बस एक उस लड़के के नहीं होने से ख़ाली ख़ाली लगता था पूरा उदास शहर।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/11/2018 की बुलेटिन, " टूथपेस्ट, गैस सिलेंडर और हम भारतीय “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDelete