आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे.
काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न.
सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं.
नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की.
शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी.
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें.
दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है.
सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया.
आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ.
कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?