कोम्पोजिशन...सबसे पहली चीज़ पढ़ाई जाती है फोटोग्राफी में. मुझे जिंदगी के बारे में भी पढ़ाना होता तो फोटोग्राफी के कम्पोजीशन से ही पॉइंटर्स उठाती. रूल ऑफ थर्ड्स कहता है कि कुछ भी एकदम बीच में मत रखो...इससे उसकी खूबसूरती घट जाती है...आँखों के भटकने देने को थोड़ी सी ब्रीदिंग स्पेस देनी चाहिए...मूल सब्जेक्ट के दायें, बाएं, ऊपर या नीचे...जहाँ भी तुम्हें सबसे अच्छा लगे...थोड़ी सी खाली जगह छोड़ दिया करो. कॉपी पर लिखते हुए भी हम हाशिया छोड़ते हैं...फिर रिश्तों में ये क्यूँकर चाह होने लगती है कि उसकी सारी जिंदगी मेरे इर्द गिर्द कटे? ईमानदारी से...ऐसा होना अप्राकृतिक है...किसी की जिंदगी का सेंटर होना चाहना ही नहीं चाहिए...बल्कि अगर जियोमेट्री में ही जाना है तो किसी की परिधि बनना बेहतर है...कि वो बाहर न जाने पाए...लौट लौट आये...हालाँकि ये भी बुरा लगता है सोच कर...शायद जियोमेट्री में कोई सही तुलना नहीं है रिश्तों की.
रूल ऑफ थर्ड्स...आँख को जितना दिखता है उससे चार रेखाएं गुज़रती हैं...दोनों पैरलल रेखाएं एक दूसरे के परपेंडिकुलर...सोचो...हम और तुम परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न? कहीं सुदूर अंतरिक्ष में चलते हुए किसी एक बिंदु पर क्षण भर के लिए ही मिले और फिर अपने अलग अलग रस्ते...पर अलग रस्ते होने पर उस बिंदु की याद तो नहीं चली जाती...उस पॉइंट का होना तो नहीं चला जाता...यूँ तो ऐसे ही बिंदु पर एक्स एक्सिस, वाय एक्सिस और जेड एक्सिस मिलते हैं और हमारे संसार की रचना करते हैं...त्रिआयामी...तीनो प्लेन्स अपनी अपनी जगह होते हैं...पर एक बिंदु तो होता है जहाँ स्पेस-टाइम लाइन पर भी मिलना होता है- होना होता है.
मेरा शब्दों पर से विश्वास चला गया है...कुछ यूँ कि इधर बहुत दिनों से कुछ भी नहीं लिखा...न कॉपी पर, न कहीं ड्राफ्ट में, ना कहीं और...न दोस्तों से बातें की...ना कुछ पढ़ा...सब झूठ लगता है...सारी दुनिया फानी...पहले जब तकलीफ होती थी तो लिखने से थोड़ा आराम मिलता था...आजकल लिखने की इच्छा ही चली गयी है...एकदम बेज़ार...शब्द सारे दुश्मन नज़र आते हैं. परसों बुक लॉन्च था...अपनी लिखी किताब पहली बार हाथ में आई...अपना नाम देखा कवर पर...नाम में भी कोई अर्थ नहीं जान पड़ा. नोर्मल केस में सबको फोन करके बताती...खुश होती...दोस्तों को पार्टी देती. इस केस में...वीतराग...मन की ख़ामोशी सारी खुशियाँ लील जाती है.
जब पहली बार एसलआर कैमरे के व्यूफाईंडर से दुनिया देखी थी तो मन में आइडिया लगाना होता था कि इस रंगभरी दुनिया में कौन सा फ्रेम है जो ब्लैक एंड वाईट में अपनी खूबसूरती बरक़रार रखेगा. उस समय हमारे पास जो फिल्म थी वो ब्लैक एंड वाईट थी...तो इससे आदत हो गयी कि जब चाहूँ दुनिया को ग्रे के शेड्स में देख सकती हूँ...बहुत ज्यादा कंट्रास्टिंग चीज़ें पसंद आती हैं. गहरे शेड वाले लोग अच्छे लगते हैं कि धुलने के बाद उनकी फिल्म एकदम साफ़ आती है...पोजिटिव पर उभरते अक्स से आज भी प्यार होता है...पर निगेटिव को वालेट में जगह देती हूँ...दुनिया वाकई नेगेटिव जैसी ही है...जो जैसा दिखता है उसके उलट होता है...गुलमोहर सफ़ेद दिखते हैं और बारिशें काली.
सोच रही हूँ कुछ दिन फोटोग्राफी पर ध्यान दिया जाए...तसवीरें खामोश होती हैं...सबके पीछे एक कहानी होती है पर कहानी आपको खुद गढ़नी होती है...अब ऊपर की तस्वीर में ये कहाँ लिखा है कि ये कौन से तल्ले पर की आखिरी सीढ़ियाँ हैं और मन कहाँ से कूद कर जान दे देना चाहता था...मगर मन का मरना आसान है...उसे जिलाए रखना...मुश्किल. आज जैसा सर दर्द हो रहा है उसके लिए हिंदी में 'भीषण' और इंग्लिश में 'माइग्रेन' जैसा कोई शब्द होगा...मैंने अपने आप से परेशान हूँ कि मेरी चुप्पी भी शब्द मांगती है.
मैंने उसे अपने पाँव दिखाए...कि देखो मेरे पांवों में भँवरें हैं...मैं बहुत दूर देश तक घूमूंगी...उसने मेरे पांवों में बरगद के बीज रोप दिए...अब मैं जहाँ ठहरती हूँ मेरी जड़ें गहराने लगती हैं...जिस्म के हर हिस्से से जड़ें उगने लगती हैं...हर बार कहीं जाने में खुद को विलगाना होता है...तकलीफ होती है...मुझे सफ़र करना अच्छा लगता था मगर अब मेरा मन घर मांगने लगा है...एक ऐसी चीज़ जो मेरी नियति में नहीं लिखी है...हाथ की लकीरों में शरणार्थी लिखा है...विस्थापित होना लिखा है...भटकाव है...बंजारामिजाजी है...मन घर में बसता नहीं...और जिस्म की दीवारें उठ जाती हैं सरायखाना बनाने को. एक तार पर मन गाने लगा है, कैसा कच्चा गीत...मैं उलझन में हूँ...जानती भी हूँ कि मैं क्या चाहती हूँ!
आपकी लेखन शैली ने हमेशा प्रभावित किया आज भी जीवन मूल्यों को जिस तरह रेखागणित में कोणो या वृत्त के केंद्र परिधि को माध्यम बनाकर जीवन के काले नीले रंगों से भरा
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत आपके लहरों की तरह
खिचता हूँ लकीर लहरों पर ,
झुकता आसामान नज़र आता है ..aashaaar se
एक दूसरे की ओर बढ़ते, बस छू कर निकल जाते..
ReplyDeleteअंतरिक्ष में चलते हुए किसी एक बिंदु पर क्षण भर के लिए ही मिले और फिर अपने अलग अलग रस्ते
ReplyDeleteगज़ब की शैली और फिर एक अनंत यात्रा
गज्ज्ब जी गज्जब । ई रूल्द आफ़ थर्ड तो कमाले है , आप फ़ोटोग्राफ़ी का कोर्स की हुई हैं तभी शायद जिंदगी के बदलते पहलुओं को एकदम हूबहू वैसा ही उकेर लेती हैं जैसा देखती हैं ।
ReplyDeleteचलिए अच्छा है हमारे लिए एक पाठक के दृष्टिकोण से कि अब अगर आपकी लिखने की इच्छा है तो हमें भी पढने को खूब मिला करेगा । भावों को वैसा का वैसा शब्दों में ढाल लेने की कला आपसे सीखी जा सकती है । शुक्रिया और शुभकामनाएं । ब्लैक एंड व्हाईट से लेकर ईस्ट मैन कलर तक सब कुछ कह जाइए हम बांचने को तैयार बैठे हैं
कोई तस्वीर डेवलप हो रही हो मानों...
ReplyDeleteआधुनिक भौतिकी कहती है कि एक्स, वाय, ज़ेड के साथ एक और को-ओर्डिनेट होता है , टी , मतलब समय | वैसे तो एक्स, वाय, ज़ेड ही बदलते रहते हैं, पर वो अगर ना भी बदलें तो समय बदलता ही रहता है | कोई जड़ रहे या घुमंतू समय सब बदल देता है | समय से बड़ा मरहम कोई नहीं है |
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